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एक निस्तब्ध वातावरण उपद्रव के बाद सामने आया ।
रात्रि के तीन बजे लालाजी के मकान पर मोटिंग हुई और अधिवेशन में घटी घटनामो के प्रति सबके मुख मलिन हो रहे थे कि लालाजी यकायक तमक कर बोल उठे।
"माज काश आप लोग मेरी बात मानते तो यह दृश्य सामने न होता और अच्छा उत्तर दिया जा सकता था। अब अधिवेशन अवश्य होगा, हरिजन-मन्दिर प्रवेश प्रस्ताव दोहराया जाएगा भले ही हमारी लाशो पर विरोधी लोग आगे बढ़ सकें।"
आप लोग निश्चिन्त रहो मैने रात ही रात मे महावीर दल के स्वयसेवको की सेवाएं और अपने प्रमुख साथियो की सेवाएं प्राप्त कर ली है, और हुआ भी ऐसा ही।
दूसरे दिन अधिवेशन पूर्ण तनाव के वातावरण में, मान्यवर साहू श्रेयासप्रसादजी की अध्यक्षता मे, विरोधियो के महान विरोध के मध्य मे, लालाजी को दूरदर्शिता से पूर्ण हुआ। उपद्रवी लोग पण्डाल के अन्दर पहुंच तो क्या सकते थे नजदीक भी नही फटक सके ।
एक मोर लाला तनसुखरायजी व्यवस्था पर थे तो दूसरी ओर बहिन लेखावती
अम्बाला।
हम सब सिपाही उनकी कार्यदक्षता देखकर हैरान थे। अाखिर अधिवेशन सफल हुप्रा।
उपयुक्त दो सस्मरण तो मात्र सकेत के तौर पर लिखे है । आपके कितने ही सस्मरण है जो सन् १९३८ से १९६३ तक उनके साथ रहने से सम्बन्धित है जिन्हे लेखक हृदय में सजोये है। परन्तु यह सत्य है कि लाला तनसुखरायजी गरीबो के हमदर्द, दुखियो के साथी, मित्रो पर तन मन निछावर करने वाले, समाज-सेवक, देशभक्त मुनिगुरुभक्त और धर्म रक्षक थे। उनके प्रति विनम्र श्रद्धाजलि समर्पित करते हुए लेखनी को यही विश्राम देता हूँ।
पराधीनात्तु जीवाना, जीवस्य मरण वर, मृगेन्द्रस्य भृगेन्द्रत्वं, वितीर्ण केन कानने ।
पराधीन जीवन से जीवो का मरना अच्छा । सिंह के मस्तक पर रोली से कौन तिलक करता है।
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