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________________ 'मेरे भ्राता' श्री मखमली देवी जैन १६ दरियागंज, दिल्ली "बहिन मखमलीदेवीजी जैन समाज की उन तेजस्वी कार्यकर्त्री बहिनो मे से है जिनमे उदारता, सल्य श्रीरवात्समाज सेवा का भाव असीमित भरा है । श्रापने मातुश्री दाबाईजी की प्रेरणा से श्री जैन महिलाश्रम का कार्य सचालन किया । श्राज सस्था की जो इतनी उन्नति होती हुई दिखाई दे रही है उसका सारा श्रेय श्रापके समस्त परिवार को है । आप स्वय, आपकी सुयोग्य सुपुत्री श्री कान्ता जैशोराम ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट मोर पुत्रवधू लीलावतीजी तथा रायबहादुरजी भैय्या तनसुखराय का व्यवहार प्राय बा० दयाचदजी चीफ इजीनीयर सस्था की सीधा-सादा और सौम्यपूर्ण था । उनकी इस उन्नति के लिए अहर्निश प्रयत्नशील रहते है । श्राकृति के कारण मेरे मन मे उनके प्रति जैन समाज को ऐसे परिवार पर अत्यत गौरव अपनत्व की भावना ओत-प्रोत हुई । है जो शिक्षा प्रचार मे शक्तिभर तन, मन, धन मैं उनके जीवन मे क्या देखा, क्या से सहयोग देते है । 'मेरे भ्राता' के नाम से सुना आदि सभी पहलुओ का परिचय लालाजी के सम्बन्ध में अत्यत आत्मीय देने नही जा रही, इसके विषय मे तो उद्गार प्रकट किए है जो मननीय है ।" विद्वान लोग, नेता लोग आपको कुछ बताएँगे। परन्तु मे कुछेक उन वर्षों को दृष्टि में रखकर - जोकि समय के साथ-साथ सुषुप्तावस्था की ओर चले जा रहे है-उन मे के बिखरे विचार बता रही हूँ । इन्ही वर्षों मे मेरा उनका पड़ौस रहा है। वास्तव मे उनका जीवन घटनापूर्ण था । उसके व्यक्तित्त्व मे पूर्ण निष्ठा था । गहरी और गम्भीर प्रेरणा थी और समाज-सेवा का उनमे परम उत्साह था। इस पर भी कुछ लोगो की धारणा है कि वे जिद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे । इस सम्बन्ध मे मेरा यह कहना अनुचित न होगा कि वे सचमुच इस धारणा के विपरीत थे । उन्हे तो परखने की थाह तक उतरने की आवश्यकता थी । उनमें अपनो के लिए तथा पीड़ितो के लिए एक टीस थी, तडप थी। वे पर सेवा मे अपनी शक्ति को भूलकर अपने ऊपर कष्ट उठाने को तत्पर हो जाया करते थे । निराश्रित व्यक्तियो का तो वे मात्र केन्द्र बिन्दु थे। भारत की स्वतन्त्रता और धर्म तथा समाज की मान-मर्यादा का प्रश्न उनके जीवन का मात्र लक्ष्य था । इस पर तो सब कुछ न्यौछावर कर देने का एक मूक आह्वान् उनके द्वारा प्रदर्शित होता था । सुडौल 201 1 भैय्या तनसुखराय को मै सन् १९३० से जानती हूँ। वे जैन धर्म के धार्मिकोत्सवो पर तथा राष्ट्रीय काग्रेस के जलसो मे बहुधा भाषण दिया करते थे । दिल्ली उन दिनो उनके इस कार्य क्षेत्र का केन्द्र था । उनके द्वारा प्रायोजित बहुधा सभाएँ तथा बहुत-से जलसे भी मैने देखे है । उनके मुखारविंद से परोपकारी एव मधुर पुष्प समान झडते हुए मेने सुने है । और देखा है उनमे मानवता का उज्जवल एवं ज्वलत प्रतीक |
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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