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जैन धर्म की प्राचीनता
इस धर्म की प्राचीनता के चिह्न मिलते जा रहे । उपलब्ध मथुरा-स्तूप और उदय-गिरी बतला रहे ।।
प्राचीनता इसकी जगत भर कर रहा स्वीकार है।
इस धर्म का ही इस दिशा मे गत ऋणी ससार है ॥१॥ हाँ जब न पृथ्वी पर कहीं भी बौद्ध-वैदिक धर्म थे। कल्याण-प्रद सर्वज्ञ तब इस धर्म के शुभ कर्म थे।
जितने पुराने जैन मन्दिर आज मिलते है यहाँ ।
उतने पुराने बोलिये अन्यत्र मिलते है कहाँ ॥२॥ था राष्ट्र-धर्म कभी यही सिद्धान्त अति अभिराम थे। वलवान थे, वरदान थे, गुणधाम थे, शिवधाम थे ।।
इस धर्म का ही मुख्यत ध्रुव केन्द्र भारतवर्ष था।
यह शान में विज्ञान में सबमे प्रथम उत्कर्ष था ॥३॥ चमका न धर्मादित्य केवल सर्व हिन्दुस्तान मे । फैली प्रभा दूरस्थ इसकी एगिया यूनान मे॥
कार्थेज-अफ्रीका तथा मिश्रादि रोम फिनीशिया ।
जाकर वहाँ तक भी सदैव निवास जनो ने किया ॥४॥ - जग के पुरातन वेद भी अस्तित्व इसका मानते । इतिहासवेत्ता धर्म की प्राचीनता को जानते ॥
जो बौद्धमत से जैनियो की मानते उत्पत्ति को । निष्पक्ष हो देखे तनिक इतिहास की सम्पत्ति को ॥५॥
रत्नत्रय अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है । मानवजीवन की सफलता रत्नत्रय के पाने में है।
• पहले-पहल बुराई करते घृणा होती है, दूसरी सकोच, तीसरी वाद निःसंकोचता मा जाती है और चौथी बार ये साहस बढ़ जाता हैं।