________________
सन् ५२-५३ मे यू०पी० में जोर की बाढ आई। बनारस के स्याद्वाद महाविद्यालय, जोकि पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजी की देन है, बाढ से उसकी बिल्डिंग खतरे में आ गई। ला. राजकृष्णजी जैन ने बताया कि ये कार्य आपके मित्र कुवरसैन के हाथ में है। लालाजी कु वरसैनजी से मिले । उन्होने पूरी सहायता करने का विश्वास दिलाया और उन्होने एक तिथि दी कि हम लोग उस दिन बनारस पहुंचे वह भी वही होगे । पूज्य वर्णीजी को जब यह मालूम हुमा कि तनसुखराय स्याद्वाद विद्यालय के लिए इतना प्रयत्न कर रहे है तो वह बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद के पत्र भेजे। श्री कु वरसैनजी को पूज्य वर्णीजी के दर्शनो के लिए ले गये। श्री कुवरसैनजी ने पूज्य वर्णीजी को आहार भी दिया। पूज्य वर्णीजी बहुत प्रसन्न हुए। श्री कु वरसनजी के द्वारा स्यावाद महाविद्यालय के विल्डिंग बचाने में बहुत मदद मिली। वर्णीजी की वैसे तो कृपा हर एक प्राणीमात्र पर है परन्तु लालाजी पर इतने प्रसन्न हुए कि समय-समय पर आशीर्वाद और धर्म पर पारूढ रहने के पत्र पाते रहते है। उनकी बड़ी दयादृष्टि रही।
तत्पश्चात् लालाजी अस्वस्थ हो गये और वीमार रहने लगे। परन्तु अपनी बीमारी की अवस्था में भी सामाजिक जागृति उत्पन्न करने के लिए वे लेख लिखते रहते । अत समय तक उन्होने भनेक लेख लिखे।
___ अत मे ता. १४ जुलाई १९६२ को धर्मध्यानपूर्वक ६९ वर्ष की आयु मे आपका स्वर्गवास हो गया । आपके प्रभाव से जैन जाति का एक ज्योतिर्मय प्रकाशस्तम्भ अस्त हो गया। उनके सम्बन्ध मे जब अथ निकालने का विचार हुआ तब सभी तरफ से सहयोग का वचन मिला
और ग्रथ तैयार हो सका। आप देखेंगे उनका कार्य क्षेत्र कितना व्यापक था। यदि उनके इस प्रथ से नई पीढी मे उत्साह का संचार हुआ तो हम अपना परिश्रम सफल समझेगे।
अनमोल रत्न
श्री प्रकाशचन्द टोंग्या
एम ए, बी. कॉम , एल-एल. बी., इन्दौर स्व. लाला तनसुखराय जैन के निधन से समाज ने अनमोल समाज रत्न खो दिया। मैं उनका नाम कई वर्षों से सुनता रहता था। वे लगनशील कार्यकर्ता थे।
मुझे याद आता है कि अ०भा० दि. जैन परिपद् के प्रचार हेतु एक डेप्यूटेशन लेकर वे इन्दौर पाए थे। उस समय उनके दर्शनो का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। श्री प्र० दि० जैन मिशन के कार्यों में उन्हे रुचि रहती थी-उसके प्रचार एवं प्रसार से वे प्रसन्न थे।
आप उनकी स्मृति मे स्मृति-ग्रन्थ प्रकाशित करने जा रहे है-यह स्मृति ग्रन्थ कार्यकर्ताओ के लिए प्रकाशस्त:भ का कार्य करेगा। मै इस स्मृति-प्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की कामना के साथ साथ उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। ४८ ]