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अपवित्र पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितो वो, ध्यायेत्पच नमस्कार सर्वपापै प्रमुच्यते । अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्था गतोऽपि वा, य' स्मरेत्परमात्मान, स वाह्याभ्यन्तरे शुचि . । अपराजित मन्त्रोऽय, सर्वविघ्न विनाशन, मङ्गलेषु च सर्वेपु, प्रथम मंगल मत. ॥५॥ विघ्नौघा प्रलय यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः, विषो निर्विषता याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥६॥ अन्यथा शरण नास्ति, त्वमेव शरण मम, तस्मात्कारुण्य भावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||७||
भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द
जैन को नास्तिक भाखे कौन ?
परम धरम जो दया अहिंसा सोई प्राचरत जीन ॥ सत कर्मन को फल नित मानत अति विवेक के भौन ॥ तिन के मतहि बिरुद्ध कहत जो महा मूढ है तोन ॥ सब पहुँचत एक हि थल चाही करो जोन पथ गौन । इन आँखिन सो तो सब ही थल सूझत गोपी रोन || कौन ठाम जह प्यारो नाही भूमि अनल जल पौन । 'हरीचद' ए मतवारे तुम रहत न क्यो गहि मौन ॥१॥
बात को मूरख की यह मानो । हाथी मारे तोहू नाही जिन मंदिर मे जानो । जग मे तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो । जहाँ लखो तह रूप तुम्हारो नैनन माहि समानो ॥ एक प्रेम है एकहि प्रन है हमरो एकहि बानो । 'हरीचद' तब जग मे जो भाव कहा प्रगटानी ||२|| ग्रहो तुम बहु विधि रूप धरो ।
जब जब जैसो काम पर तब तेसो भेख करो || कहु ईश्वर कहु बनत अनीश्वर नाम अनेक परो । सत पथहि प्रगटावन कारन ले सरूप विचारो ॥ जैन धरम मे प्रगट कियो तुम दया धर्म सगरो । 'हरीचद' तुमको विनु पाए लरि-लरि जगत मरो ॥३॥