________________
जैन धर्म और कर्म सिद्धांत
श्री हीरालाल पांडे, प्राचार्य एम० ए० पी० एच० डी
बिलासपुर
"श्री हीरालालजी पाडे, प्राचार्य जैन समाज के उद्भट विद्वान है। जैनधर्म और कर्मसिद्धात पर अपने रोचक ढंग से यह लेख प्रस्तुत किया है। जैनधर्म में कर्म का जैसा सुन्दर विवेचन किया गया है, वैसा अन्यत्र नही है । जैनधर्म श्रात्मा का धर्म है। आत्मा साथ कर्मरूपी मैल अनादि काल से इस प्रकार लगा हुआ है जैसे खान से निकले स्वर्ण के साथ कालिमा लगी हुई है । जैसे अग्नि मे डालकर स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही तप रूपी अग्नि के प्रताप से आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है । इस सम्बन्ध मे श्रीमद्भगवतगीता का उदाहरण देकर जैनधर्म के कर्म सिद्धान्तो से उसकी साम्यता दिखाई देती है । कर्मसिद्धात संसार के प्रत्येक प्राणी को कर्मठ बनाता है । उसके जीवन को प्राशा की सुनहली किरणो से आलोकित करता है ।
1
मनुष्य के जीवन की सम्पूर्ण सफलता पुरुषार्थ और प्राशावाद पर निर्भर है जो कर्मसिद्धात सेती है | लेख मौलिक और पठनीय है।"
"जैनधर्म" आत्मा का धर्म है । "जैन" वह श्रात्मा है जो "जयति कर्मशत्रून् इति जिनः " के अनुसार कर्मशत्रुओं को जीतने वाले देव को या परमात्मा को अपना उपास्य या आराध्य माने । आत्मा का धर्म जैन मात्र का उपास्य है । वह तो म्रात्मा का धर्म है और आध्यात्मिक देश वह सभी का उपास्य होना चाहिए। हमारे देश का गौरव प्राध्यात्मिक धर्म और संस्कृति की उपासना में है ।
"जैनधर्म" में प्राराध्य देव सम्पूर्ण कर्मशत्रुओं को या सासारिक और प्रात्मिक बुराइयो को जीतने वाले है । अत "जैनधर्म" की नीव कर्मसिद्धात है । बिना कर्मों को जोते कोई विशुद्ध आत्मा या परमात्मा नही बन सकता । ससार में श्रेष्ठ मानव जीवन को पाकर कर्मों को जीत अच्छे कार्यों द्वारा मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना चार पुरुषार्थो मे श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारो पुरुषार्थ लौकिक जीवन के साथ पारमार्थिक जीवन की ओर संकेत करते है । जीवन की नीव धर्म है । श्रात्मा का धर्म सब सकटो को टालता है। श्रात्मवीर ही सच्चा वीर विश्व में बन सकता है । श्रात्मवीर बनने के लिए जीवन भर शांति और सहिष्णुता के साथ विपत्तियो का सामना करना पडता है । वह जानता है कि आत्मा अनादिकाल से कर्मों से लिप्त है। उसे हम त्मक गुणो के विकास द्वारा कर्म निर्लिप्त या मुक्त बना सकते है ।
"जैनधर्म" यह विश्वास रखता है कि प्रत्येक सासारिक आत्मा चाहे तो अपने कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकता है अत वह प्रत्येक आत्मा को देव या परमात्मा बनने का पात्र मानता है । उसके विश्वास मे प्रत्येक प्रात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । अतएव जैनधर्म ग्रपने भविष्य निर्माण का अधिकार श्रात्मा या व्यक्ति को सौंपता है । अतः जैनधर्म मे परमात्मा - विशेष को ससार के प्राणियों को अच्छा-बुरा फल देने वाला नही माना है ।
१७४ ]