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इस प्रकार १२ वर्ष की घोर साधना के बाद महावीर को जभियग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के तट पर स्थित एक पेत मे गाल वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न अवस्था मे बोव प्राप्त हुमा । महातपस्वी की कठोर तपस्या सफल हुई।
अहिंसा का उपदेश तदुपरान्त महावीर ने जनता मे मत्य, अहिमा प्राणीमात्र के प्रति प्रेम तथा अपरिग्रह का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। सर्वत्र महावीर के लोकोत्तर उपदेशो की चर्चा होने लगी। लोग दूर-दूर मे उनका उपदेश मुनने पाते। बहुतो ने उनके धर्म में दीक्षा ली। इनमे मगध, कोगल, विदेह आदि देशो के ११ कुलीन ब्राह्मण मुख्य थे। महावीर का प्रथम उपदेय था अहिंसा । उन्होंने कहा-"सब जीना चाहते हैं, सबको अपना जीवन प्रिय है, सब नुस्खी बनना चाहते हैं, अतएव किसी प्राणी को कप्ट पहुँचाना ठीक नहीं।"
___महावीर अहिंसा-पालन में बहुत आगे बढ़ जाते हैं और वे समस्त प्रकृति मे जीव का पारोपण कर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक की रक्षा का उपदेश देने हैं। इस प्रकार उनकी अहिंसक वृत्ति और विश्व-कल्याण की भावना चरम मीमा पर पहुंच जाती है महावीर ने जिस सर्वमुखी अहिंसा का उपदेश दिया था वह अहिमा केवल व्यक्तिपरक न थी वल्कि जगत के कल्याण के लिये उसका सामूहिक रूप से उपयोग हो सकता था।
भगवार महावीर का कहना था कि जो अधिकार पुस्प प्राप्त कर सकते हैं वही अधिकार स्त्रियों के लिये भी है । पुरुषो की भाति स्त्रिया श्राविका हो सकती हैं तथा श्रावको की भाति व्रत पाल सकती हैं । यदि पुरुष मुनि हो सकता है तो स्त्रिया भी प्रायिका हो सकती है यदि पुरुप तद्भव मोक्ष प्राप्त कर मकता है तो स्त्रिया भी परम्परागत मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। भगवान महावीर के समवगरण (सभा) मे जहा एक लाम्ब थावक थे वहा तीन लाख १८ हजार भाविकायें थी। उनके भिक्षुणी सघ में चन्दनवाला, राजमती तथा रानी चेलना के नाम उल्लेखनीय हैं । चन्दनवाला महावीर की प्रथम स्त्री गिप्या तथा सघ की अधिष्ठात्री थी। अपने संघ मे स्त्रियो को प्रमुख स्थान देकर महावीर ने स्त्री जाति के महत्व को स्वीकार किया था।
महावीर का धर्म महावीर का सौग-सादा उपदेश था कि प्रात्मदमन करो, अपने आपको पहिचानो और स्व-पर-कल्याण के लिये तप और त्यागमय जीवन बितायो। किसी जीव को न सतायो, झूठ न वोलो, जो एक बार कह दो उसे पूरा करो। आवश्यकता से अधिक वस्तु पर अपना अधिकार मत रखो, पर स्त्री को मा, वहिन और पुत्री के समान समझो तथा सम्पत्ति का यथायोग्य वटवारा होने के लिये धन को वटोर कर मत रखो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने आत्म-विकास, आत्म-अनुशासन और प्रात्मविजय पर ही जोर दिया है।
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