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________________ जिनमे भाई तनसुखरायजी ने दिगम्बर जैन परिपद् के महा-मन्त्री होने के नाते जो कार्य किये, इन अधिवेशनो को जो सफलता प्राप्त हुई उसकी धूम को मैं ही क्या सनम्त भारत के जन-समाज सदैव स्मरण करेगे। दिगम्बर जैन परिपद् के जीवनदाता आप ही है। आपने अपने महामन्त्रित्व काल मे परिषद् के लिए जो कार्य किये वैसा आपसे पूर्व न किसी ने किया था न मापके पश्चात् ही अभी तक कोई कर सका और न भविष्य मे होने की सभावना है। आपके निधन से हमारी ये सस्थायें शिथिल हो गई है। विशेपकर दिगम्बर जैन परिषद् जिसके कि आप आत्मा थे। वह तो आपको खोकर निर्जीव-सी प्रतीत होती है। आप निस भी आन्दोलन अथवा कार्य को अपने पर लेते थे उसको सफल बनाकर ही शान्त होते थे। आपकी प्रत्येक सेवा मे सजीवता तथा साहस विद्यमान रहता था जिसको आप मनसा, वाचा कर्मणा तया तन, मन एव धन से सम्पन्न करते थे। आज जैन-ममाज के कर्णधार सागे दिली एव साहसी कर्मवीर के प्रभाव से प्रति व्यथित हो दिल कचोट कर रह जाते है। जबकि वर्तमान नवयुवक नवीन भावो के सचारक, कर्तव्य-परायणता का पाठ पढाने वाले अदम्य उद्योगी मित्र के प्रभाव का अनुभव कर रहे है । कहाँ तक कहे वे बच्चे जो अभी आपका नाम ही सुन सके थे वे भी ग्रह कह रहे है कि हममे जान पैदा करने वाला, समय में समाज की सेवा करने मे साहस प्रदान करने वाला एक महान समाजसेवी हमको छोड़ कर चला गया। समाजमेवा का पाठ हम उससे प्रत्यक्ष रूप में पढने का सौभाग्य प्राप्त न कर सके। भाई तनसुखरायजी के विषय मे मैं कुछ भी लि वह मुझे बहुत थोडा ही प्रतीत होता है । मैं उनकी समाज एव देशसेवामओ से ही प्रेरणा नहीं प्राप्त करती रही है बल्कि मुझे उनसे भाई का प्यार भी मिला। अपने मन के इन उद्गारो के बीच उनके उद्देन कई वाक्य स्मरण आ रहे है। उनके लिखने के लोभ का सम्वरण मैं नही कर सक रही है। ___ एक वार भाई तनसुखराय आवू के मन्दिरो पर सिरोही स्टेट्न द्वारा लगाये गये करों के विरुद्ध आन्दोलन के फलस्वरूप प्रावू पहुंचे। मार्ग मे सदस्यो की देखरेख में व्यस्त रहे । घर पहुंच कर भी उन्हे अपने आराम की चिंता उतनी न रही जितनी कि मेरी । उस समय उनके कहे गये वे शब्द मुझे सदैव स्मरण रहेंगे जो कि उन्होने अपनी पत्नी से कहे थे, 'देखना वह्न जी को कष्ट न होने पाये।' इतना कहने से भी उन्हे सन्तोप न हुआ और स्वय उठ कर मेरे खाने-पीने की व्यवस्था करने में व्यस्त हो गये। देवगढ मे हुए सम्मेलन में दिगम्बर जैन परिपद् के अधिवेशन के समय जब आपको पुन. महामन्त्री चुना गया उसी समय मच से यह ध्वनि समस्त गतावरण मे गूज गई, "इम सस्था मै पुन जान आ गई, मानो एक अस्वस्थ को किसी वडे डाक्टर के हाथो में सांप दिया गग है।" यह डाक्टर भाई तनसुखराय और अस्वस्थ व्यक्ति दिगम्बर जैन सस्था जिसका कि नगपने जीर्णोद्वार ही नहीं किया बल्कि उसमे एक नवीन प्रात्मा डाल दी। आपकी मफलता का एक मात्र कारण आपका उत्साह तथा लगन थी।
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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