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________________ भी मनुष्य यदि उसका उपयोग स्वपर हित-साधन मे न करे तो उसे अपना दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार सज्ञाए मनुष्य व पशु मे समान रूप से पाई जाती है । लेकिन मनुष्य पशु की तरह इन्ही की पूर्ति मे अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर दे तो उसे मनुष्य जीवन पाने से क्या लाभ ? मनुष्य सद्भाग्य से प्राप्त इस देवी सम्पदा का उपभोग जीवन की शूभ और अशुभ दोनो ही दिशाओ मे कर सकता है। शुभ दिशा में किया गया उपयोग धर्म एव सदाचार तथा अशुभ दिशा में किया गया उपयोग अधर्म या पाप कहा जाता है। बुद्धि के शुभ दिशा मे किये गये उपयोग से वह न केवल अपना अपितु प्राणिमात्र का भी हित कर सकता है और प्रशुभ दिशा मे किए गए उपयोग से स्वपर विनाश भी। शस्त्र व शास्त्र रचना उस एक ही बुद्धि के परिणाम है, पर एक से मानवता का सहार व दूसरे से उसका कल्याण होता है । राम-रावण, कृष्ण-कस, कमठ-मरुभूमि आदि के पौराणिक उदाहरण उसी सद्-असद् बुद्धि के ही तो प्रतिफल है। आज भी इस प्रकार के उदाहरणो की कमी नहीं है। परन्तु इनमे से हमे अपना जीवन कैसा बनाना है यह हमारे सोचने की बात है। आज के मानव समाज पर जब हम दृष्टिपात करते है तो हमे बडी निराशा होती है । आज के मानव ने अपने जीवन का प्रमुख ध्येय केवल धन सचय और विपय सुख-सावनो की पूर्ति ही मान रक्खा है। अगर वह धर्माचरण करता भी है तो इन्ही की उपलब्धि के लिए। अहनिश उसका एक ही लक्ष्य रहता है कि उचित अनुचित तरीको से धन कमाना और उससे अपनी आसुरी वासनाओ की प्यास बुझाना । परिग्रहानन्द और विषयानन्द उसके जीवन के ये ही दो महावत है। आज का मानव अपनी प्रारिमक शक्तियो के विकास का मार्ग अवरुद्ध करके केवल भौतिक उपलब्धियो के तृष्णा-ज्वार मे फंसता जा रहा है। वह कोल्हू के वैल की तरह अपने ज्ञान-चक्षुमो पर वासनामो की पट्टी बाँध निरन्तर विषयचक्र के आस-पास अर्थ की धुरी लिए घूमा करता है तथा ज्यो-त्यो जिन्दगी के दिन पूरे कर काल कवलित हो जाता है। विषयसामग्रियो की मोहकता मे वह जीवन के महान कर्तव्यो से इतना बेसुध रहता है कि मेरे जीवन का अन्त मे क्या होगा इतनी विवेक-बुद्धि उसमे नही रह जाती।। हमारे देश मे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जन-जीवन को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए विभिन्न योजनाओ द्वारा भौतिक उपलब्धियो के तो नाना प्रयत्न किये गए और किये जा रहे हैं पर जन-जीवन के चरित्र-वल को समुन्नत करने के लिए कोई भी प्रभावशाली प्रयल नही किया गया । फलत समूचे देश का चारित्रिक-स्तर दिनोदिन गिरता गया और आज स्थिति काबू के बाहर अनुभव की जाने लगी है। देश मे वल-पौरुष, सचाई और सदाचार का दिनोदिन हास होता जा रहा है और उसके स्थान पर अनाचार, असयम और विलासिता उत्तरोत्तर वढती जा रही है। आज देश के समग्र जीवन मे सेवा के नाम पर स्वार्थसिद्धि, कर्तव्य के नाम पर पथभ्रष्टता, शिक्षा के नाम पर उन्मार्गगामिता, अनुशासन के नाम पर स्वेच्छाचारिता, श्रम के नाम पर कामचोरी तथा धर्म जैसी पवित्र वस्तु के नाम पर प्रात्मश्लाघा और वचकता जैसी पाप [ ४१५
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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