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जिसे भाष्य कहना चाहिए, आवश्यकतानुसार कही सक्षिप्त और कही विस्तृत रूप में लिखी गई है। इसमे श्रगणित आक्षेपो का समुचित समाधान किया गया है – 'श्रक्षिप्यभाषणाद् भाष्यम् । उस समय शास्त्रार्थो की धूम मची रहती थी । अकलकदेव ने भी अनेकानेक शास्त्रार्थं किये थे । तस्वार्थवात्तिक मे, जिसका दूसरा नाम राजवार्तिक है, उनके शास्त्रार्थं के अभ्यास की एक झलक मिलती है ।
इस भाष्य में सूत्रो के पदो के कोपो के अनुसार अनेक अर्थ दिखलाकर विवक्षित अर्थ को युक्तिपूर्वक निश्चित किया गया है कि इस पद का यहा यही अर्थ होना चाहिए, इस अर्थ को छोडकर अन्य अर्थ करने पर अमुक-अमुक दोप उत्पन्न हो जायेंगे । 'तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' सूत्र के भाष्य मे 'अर्थ' शब्द के विवक्षित श्रर्थ पर जो विचार किया गया है, केवल उसीको नमूने के रूप मे देखकर महाकलक की शैली का एक आभास प्राप्त किया जा सकता है ।
प्रस्तुत भाष्य मे अन्य दार्शनिको की शकाओ का समाधान आगम और युक्तियो के आधार पर देकर अन्त मे अनेकान्त के आधार से भी समुचित उत्तर दिया गया है । यह शैली अन्य टीकाओ मे बहुत कम उपलब्ध होती है । देखिये पृष्ठ ७, २५, ५०, ७१ ४७१, ४६२ और ५०५ आदि । सप्तभगी का परिष्कृत लक्षण, स्वात्मा-परमात्मा का विश्लेषण, काल आदि आठ के द्वारा अभिन्नवृत्ति तथा प्रमेदोपचार की चर्चा, अनेकान्त मे सप्तभगी योजना, अनेकान्त के सम्यगेकान्त और मिथ्यैकान्त, अनेकान्त मे दिये गये दूपणो का निरसन और लक्षण के आत्मभूत और अनात्मभूत ये दो भेद यादि इस भाष्य की मौलिक उपलब्धिया है । इस भाष्य में सैद्धान्तिक, दार्शनिक, और भौगोलिक यादि अनेकानेक विपयो की प्रासंगिक चर्चा दृष्टिगोचर होती है, अत इसे विश्वकोप कहा जा सकता है ।
(३) तत्त्वार्थश्लोक वार्त्तिक
तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक मै, जिसका दूसरा नाम श्लोकवार्तिक भी है, तत्त्वार्थसूत्र के केवल ३५ सूत्रो को छोडकर शेप सभी पर वार्तिक लिखे गये है । उनकी संख्या लगभग २७०१ है । वार्तिक अनुष्टुप् छन्द मे कुमारिलभट्ट के मीमासाइलोक वार्तिक, तथा धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की शैली मे लिखे गये है । प्राह्निको की समाप्ति के स्थलो पर उपेन्द्रवज्रा, स्वागता, शालिनी, बशस्य, मालिनी, शिखरिणी और शार्दूलविक्रीडित ग्रादि छन्दो का भी प्रयोग किया गया है। बार्तिको के ऊपर वृत्ति भी लिखी गई है, जिसे महाभाप्य की सज्ञा प्राप्त है । तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओ मे इसका प्रमाण सबसे अधिक है । इसके निर्णयसागर वाले सस्करण मे ५१२ पृष्ठ है, जिनमे ३११ पृष्ठ प्रथम अध्याय के है । इम अध्याय में दार्शनिक चर्चा की बहुलता है। वैशेपिक, नैयायिक, और विशेषत मीमासक आदि सभी दार्शनिको के सिद्धान्तो की इसमे विस्तारपूर्वक समालोचना की गई है। भावना, विधि, नियोग, निग्रहस्थान आदि की आलोचना और जय-पराजय की व्यवस्था दी गई है। नयो का विस्तृत विवेचन द्रष्टव्य है । इसकी भाषा सरल है फिर भी विषय की गंभीरता के कारण क्लिष्टता आ गई है, पर कही कही बिलकुल सरलता भी देखने को मिलती है, विशेषत प्रथम अध्याय के आगे ।
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