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१. जयपुर के जैनेतर साहित्यकारो का केवल पद्य साहित्य ही है किन्तु जैन लेखको का पर्याप्त गद्य भी ।
२. जयपुर मे जैनो की दिगम्बर शाखा का बोलवाला रहा अत यहा सभी जैन साहित्यकार प्राय दिगम्बर है। श्वेताम्बर जैनो ने गद्य तो बिल्कुल लिखा ही नही, कविता अवश्य की है वह भी केवल दो-तीन कवियो ने ।
गृहस्थ है ।
३ ब्रह्मरायमल्ल, सुजानमल आदि को छोडकर जयपुर के सभी साहित्यकार प्राय
४ महावीर स्वामी ने अपने उपदेश लोक भाषाओ मे दिये थे जिससे जन-जन उन्हें समझ सके । जैन साहित्यकार भी अपने साहित्य को सर्वदा लोक भाषाओ मे व्यक्त करते रहे है । जयपुर के जैन साहित्यकारो पर भी यहा की स्थानीय बोली दुलहाड़ी का पर्याप्त
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प्रभाव है ।
होने लग गया था ।
जैन गद्य - गद्य साहित्य का प्रसार और वैभव आधुनिक काल मे ही अधिक देखा मौर माना जाता है किन्तु जयपुर के जिन मन्दिरो मे उपलब्ध अनेक गद्य-कृतियो के अध्ययन से मालूम होता है कि गद्य लेखन का प्रचलन सत्रहवी - अठारहवी शताब्दी से ही अच्छा जयपुर के जैन लेखको का गद्य चाहे टीका के रूप में ही अधिक क्यो न हो, किन्तु शैली, तत्त्वविवेचन की क्षमता तथा वर्तमान गद्य के उद्भव और विकास की दृष्टि से उसका अपना बड़ा महत्त्व है । यहाँ की हिन्दी गद्य-कृतियो मे अनुवाद के टब्वा, वालाववोध और वचनिका तीनो रूप पाये जाते है जिनमे अन्तिम दो शैली की दृष्टि से राजस्थानी वालावबोध औौर वचनिका से भिन्न है टब्बा का स्वरूप राजस्थानी और हिन्दी दोनो मे समान है । जैन गद्यकारो की स्वतन्त्र रचनाएं श्री प्राध्यात्मिक हैं यथा- टोडरमल का मोक्ष - मार्ग प्रकाशक और दीपचन्द के आत्मावलोकन चिद्विलास आदि ग्रन्थ |
जैन काव्य-काव्य के दो भेद माने जाते है - प्रवन्ध और मुक्तक । जयपुर के जैन कवियो मे मुक्तककार अधिक हैं, प्रबन्धकार के रूप में तो केवल ब्रह्मरायमल्ल का ही नाम उल्लेखनीय है जिन्होने स्वतन्त्र काव्य-ग्रन्थो की रचना की है। हां, जैन पुराण और चरित्रो के पद्यानुवाद यहाँ अवश्य बहुलता से मिलते है जिनमे कही कही मूल का सा काव्यानन्द उपलब्ध होता है। जैन सुक्तको के प्रधान विषय भक्ति और नीति है। जैन कवियो के श्राराध्य तीर्थंकर है जिनकी अगम्यता, अगोचरता, अपारता, दया, निष्कामता, शोभा, शान्तस्वरूप वीतरागता आदि का जी खोलकर गान किया गया है। जैन कवियो ने अपने आराध्य को पतित तारक भी कहा है । जिस प्रकार वैष्णव भक्तो मे आराध्य के द्वारा वाल्मीकि, अहिल्या, श्रजामिन, गज आदि के उद्धार की चर्चा है उसी प्रकार जैन भक्तो मे भील, अजन चोर, शृगाल व नाग-दम्पती के कल्याण की । भक्त हृदय की निष्कामता, श्रतन्यता, श्रात्मनिवेदन की प्रवृत्ति प्रादि सभी विशेषताएँ जैन -काव्य मे प्रचुर मात्रा मे मिलती है। जैन धर्म प्रचार-प्रधान धर्म है; प्रत जैन काव्य मे भी सत्य, वीतरागता को प्रधानता दी है । द्यूत, आमिप आहार, मदिरा-पान, वैश्या सेवन, पर नारी
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