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आवहु सब मिलकर रोबहु भारत भाई । हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
(भारत दुर्दशा) इस समय के अन्य कवियो ने भी राष्ट्रीय एकता की ज्योति जगाई । सर्वश्री बालमुकुन्द गुप्त तथा प्रतापनारायण मिश्र ने भी इस ज्योति के जागरण मै योगदान दिया। बाद में उसी परम्परा को श्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिह उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी तथा श्रीधर पाठक ने देशात्म बोध की कविताएं लिखकर देश का ध्यान उसकी एकता और अखडता के प्रति आकर्षित किया
नीलाम्बर परिधान हरित पट यह सुन्दर है । सूर्य चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है। नदियाँ प्रेम प्रवाह फूल तारे मडन हैं। बदी जन खग वृन्द शेषफन सिहासन है। करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस देश की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।। त्रिशूलजी की कविताओ ने भी राष्ट्रीयता की लहर वहा दी -
सुरसरि सलिलसुधा से सिंचित मलय समीर सजारिन । सुषमा सब सुरपुर की सजिल करते सुर गुणगान ।
जयति भारत जय हिन्दुस्तान ।। पुण्य पुज पावन पृथ्वी पर घीर वीरवर धर्म धुरन्धर । सत्य अहिंसा दया सरोवर मुक्ति मुक्ति की खान ।
जयति भारत जय हिन्दुस्तान ॥ वर्तमान युग में राष्ट्रीयता की भावना सबसे पहले बगाल मे उदित हुई क्योकि वही विदेशी राज्य का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। श्री बकिमचन्द्र के "प्रानन्द मठ" उपन्यास में ही हमारे राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम् का उद्घोष हुआ था। उसमे उन्होने कहा था -
द्वित्रिंश कोटि कठ कल कल निनाद कराले। ज्यो-ज्यो राष्ट्रीयता की भावना बढी इसका रूप हो गया -
त्रिश कोटि कठ कल कल निनाद कराले । श्री विजेन्द्रलाल राय ने अपने नाटको में राष्ट्रीयता से भरे गीतो को पिरोया । उन्होंने एक गीत में गाया है :
वग आभार जननि आभार धात्री आभार देश । भागे चल कर वह गीत इस रूप में बदल गया .
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