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________________ मुख्यतया दो ग्रन्थ है | प्रथम अभिनव धर्मभूपणयति विरचित न्यायदीपिका, दूसरा माणिकनन्दि का परीक्षामुख, न्यायदीपिका मे प्रमाण और नय का बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है । यह एक प्रकरणात्मक सक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशा मे समाप्त हुई है । गौतम के न्यायसूत्र और दिग्नाग के न्यायप्रवेश की तरह माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' जैन न्याय का सर्वप्रथम सूत्र ग्रन्थ है । यह छ परिच्छेदो मे विभक्त है और समरत सूत्रसख्या २०७ है । यह नवमी शती की रचना है और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारो ने इस पर अनेक विशाल टीकाए लिखी है । प्राचार्य प्रभाचन्द ( ७८० - १०६५ ई०) ने इस पर वारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक विस्तृत टीका लिखी हे । १२वी शती के लघुअनन्तवीर्य इसी ग्रन्थ पर एक 'प्रयत्नमाला' नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसकी रचनाशैली इतनी विशद और प्राजल है और इसमे चर्चित किया गया प्रमेय इतने महत्व का है कि प्राचार्य हेमचद्र ने अनेक स्थलो पर अपनी 'प्रमाणमीमासा' मे इसका शब्दश और अर्थश अनुकरण किया है । लघु अनन्तवीर्य ने माणिकनन्दि के परीक्षामुख को अकलक के वचनरूपी समुद्र के मन्थन से उद्भुत न्यायविद्यामृत' वतलाया है। उपयुक्त दो मौलिक ग्रन्थो के अतिरिक्त अन्य प्रमुख न्यायग्रन्थो का परिचय देना भी यहा अप्रासंगिक न होगा । अनेकातवाद को व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम श्रेय स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शदी ई०) श्रौर सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है । स्वामी समन्तभद्र की श्रासमीमासा और युवत्यनुवासन महत्वपूर्ण कृतिया है। प्राप्तमीमांसा मे एकान्तवादियो के मन्तव्यो की गम्भीर श्रालोचना करते हुए आप्तकी सीमासा की गई है और युक्तियो के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या की गई है। इसके ऊपर भट्टाकलक ( ६२० - ६८० ) का अप्टशती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानदि (स्वी श० ई०) का 'अष्टसहस्री' नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी (देवागम वृत्ति) नामक टीका प्राप्य है । युक्त्यनुशासन मे जैन शासन की निर्दोषिता सयुक्तिक सिद्ध की गई है। इसी प्रकार सिद्धमेनदिवाकर द्वारा अपनी स्तुतिप्रधान वतीसियों मे और महत्वपूर्ण सम्मति तर्कभाष्य मे बहुत ही स्पष्ट रीति से तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादी का स्वाद्वाद सिद्धान्त के साथ किया गया समन्वय दिखलाई देता है । भट्टालकदेव जैन न्याय के प्रस्थापक माने जाते है और इनके पश्चाभावी समस्त जनतार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्यायमार्ग का अनुसरण करते हुए ही दृष्टिगोचर होते हैं । इनकी प्रष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीस्त्रय और प्रमाणसग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाये है। इनकी समस्त रचनाए जटिल और दुर्बोध है । परन्तु वे इतनी गम्भीर है। कि उनमे 'गागर मे सागर' की तरह पदे पदे जैन दार्शनिक तत्वज्ञान भरा पडा है । moat शती के विद्वान आचार्य हरिभद्र की 'अनेकात जयपताका' तथा पदर्शन समुच्च ४४० ] १ - 'प्रकलकवचोम्मौधेरुध्रे येन धीमता । न्यायविद्यामृत तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।।' - प्रमेयरत्नमाला
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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