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विद्वानो ने अध्ययन, चिन्तन और मनन किया, परन्तु जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने जिस तमन्यता भौर मनोयोग के साथ वेदो का तथा सस्कृत का अनुशीलन किया वह वास्तव मे विलक्षण ही था। मैक्समूलर ने अपने जीवन के लगभग छप्पन वर्ष सस्कृत साहित्य के अध्ययन में विशेषकर ऋग्देव के अध्ययन में विताये थे । इम साहित्य पर जितना अधिक मैक्समूलर ने कार्य किया है संभवत किसी विद्वान ने आज तक नहीं किया होगा।
___ वास्तव मे प्राच्यविद्याविशारदो मे भारतीय साहित्य और संस्कृति पर शोध एव अनुसधान कार्य करने वाले आधुनिक युग में विशेष रूप से जर्मन विद्वान् उल्लेखनीय है । जार्ज फोटर, गेटे, ग्रासमान, लुगविग, वान हम्वोल्ट, फ्रेडरिक श्लेगल, कान्ट और शिलर, राय, वूलर आदि । ऐसे ही विशिष्ट जर्मन विद्वान् थे जिन्होंने भारतीय साहित्य का विशेष रूप से पालोडन किया था। १८८७ ई० मे डा० जे० जी० बूलर ने लगभग पाच सौ जैन ग्रथो के आधार पर जर्मन भाषा में जैनधर्म विषयक एक ग्रथ लिखा था, जो अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि इसके पूर्व ही जर्मन विद्वानो ने प्राकृत भाषामो का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु धर्म और सिद्धान्तो पर प्रकाश डालने पाली कदाचित् यह पहली ही पुस्तक थी। प्रो. रिचर्ड पिशेल ने सन् १८७७ मे मा० हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का एक सुसम्पादित-सस्करण प्रकाशित किया था। पिशेल महोदय वास्तव मे प्राकृत के पाणिनि थे। उन्होने लगभग २५-३० वर्षों के अथक श्रम से सैकडो प्राकृत प्रान्थो का अनुशीलन कर समग्र प्राकृतो का व्याकरण तैयार किया, जो १९००ई० मे जर्मनी के स्ट्रास्वर्ग नगर से प्रकाशित हुई । रिचर्ड पिशेल की पहली पुस्तक 'ही कालिदासी काकुन्तली रिकेन्सियोनिवस" सन् १८७० ई० मे जला विश्वविद्यालय से डाक्टरेट के लिए स्वीकृत हुई थी, जिसका प्रकाशन १८७७ ई. मे "कालिदासाज शकुन्तला, द बंगाली रिसेन्शन विद क्रिटिकल नोट्स" के रूप में कील से हुआ। उन्ही दिनो "हेमचन्द्राज ग्रेमेटिक डेर प्राकृतप्राखन" लिखी गई, जो हाल नाम के नगर से सन् १९७७-१८८० ई० मे दो जिल्दो में प्रकाशित हुई । इसी प्रकार १८८० ई० मे कील से 'देशीनाममाला' प्रकाशित हुई । "प्रेमेटिक डेर प्राकृतमाखन" नामक पुस्तक स्ट्रासबर्ग से सन् १९०० ई० मे प्रकाशित हुई । इस पुस्तक का अग्नेजी अनुवाद डा० सुभद्र झा ने "कम्पेरेटिव ग्रामर आव द प्राकृत लेग्वेज" नाम से किया है और हिन्दी मे डा. हेमचन्द्र जोशी ने "प्राकृत भापामो का व्याकरण" नाम से प्रस्तुत किया है, जो विहार-राष्ट्रभापा परिषद्, पटना से प्रकाशित हो चुका है । वास्तव में पिशेल महोदय ने उपलब्ध प्राकृतो के व्याकरण और अनेक हस्तलिखित ग्रन्यो के आधार पर प्राकृत-भाषाओ का व्याकरण जिस रूप में प्रस्तुत किया है उससे वह एक अद्भुत प्रथ ही बन गया है। वैदिक भाषामो के मूल उत्स से लेकर नव्य भारतीय आर्यभाषाओ की प्रकृति तथा शब्द रूपो का उन्होने विशेष रूप से अनुशीलन किया। उन्होने वैदिक साहित्य का भी यथेष्ट अध्ययन और अध्यापन किया था। प्राकृत भापामओ के व्याकरण की पूर्ति के रूप मे उन्होने "माटेरिप्रालिएन् त्सुर केन्टनिस् डेस् अपभ्रश" एक छोटी सी पुस्तक भी लिखी, जिसमै अपभ्रश का पहली बार स्वतन्त्र रूप से विचार किया गया और जिसका प्रकाशन सन् १९०२ ई. में वलिन से हुआ। प्राध्यापक पिशेल महोदय के ये दोनो ही ग्रन्थ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषामो के स्वरूप को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए है।
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