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है । इतिहास में ऐसे कई वर्षों के छोटे-छोटे युग लक्षित होते है जिनमें भारतीय संस्कृति और साहित्य का कोई स्पष्ट चित्र हमें नहीं मिलता।
अतीत काल में भारतवर्ष में धर्म, कला और साहित्य की जो प्रतिष्ठा एव उन्नति हुई वह आज इतिहास की वस्तु बन गई है। आधुनिक युग मे इसे प्रकाशित करने और विश्व के सामने गौरव के साथ रखने का श्रेय वस्तुत योरोपीय विद्वानो को है । योरोपीय विद्वानो मे भी विशेषकर यह श्रेय जर्मन विद्वानो को प्राप्त है, जिन्होने सुदीर्घ काल से प्राचीन भारतीय मार्य भाषाओ तथा उनमें लिखित साहित्य का अध्ययन कर ससार का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। कहा जाता है कि प्रबाहम रोजर नाम के विद्वान के सन् १६५१ मे भर्तृहरि के कुछ मधुर श्लोको का पुर्तगाली भाषा में अनुवाद किया था, जिसे देखकर विदेशी विद्वानो का ध्यान संस्कृत भाषा के प्रति माकृष्ट हुआ था। उसके बाद ही सस्कृत भाषा के प्रति जर्मन विद्वानो का विशेष रूप से ध्यान गया और उन्होने उसका अध्ययन किया।
आधुनिक युग में भाषा-विज्ञान का प्रमुख केन्द्र प्रमुख रूप से दो-तीन दशको में जर्मन ही बना रहा । बाद में यह मास मे भी स्थापित हुआ । फास से इगलैंड होता हुआ आज यह अमेरिका में प्रगतिशील दिखाई पड़ रहा है । यद्यपि भाषा वैज्ञानिक प्रथम अध्ययन फासीसी पादरी कोदों (Coeurdoux) से माना जाता है, जिन्होने सन् १७६७ में ग्रीक, लैटिन तथा फेच आदि भाषामो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था। परन्तु तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नीव डालने वाले सर विलियम जोन्स माने जाते है, जिन्होंने १७९६ ई० मे इस बात की घोषणा की थी कि संस्कृत भाषा बनावट में ग्रीक से, समृद्धि में लैटिन से--और परिष्कार में सभी भाषामो से बढ-चढकर है। शब्द, धातु तथा व्याकरण की दृष्टि से ग्रीक, लैटिन, गायिक, केल्टिक तथा प्राचीन फारसी किसी एक मूल स्रोत से निकल हुई जान पड़ती है। यद्यपि संस्कृत भाषा का कई
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कुशल प्रचारक
श्री महावीरसिह जैन जौहरी
प्रधानमन्त्री
जन मित्र-मण्डल, धर्मपुरा, दिल्ली लाला तनसुखराय जैन समाज के ऐसे कर्मवीर समाज-सेवी थे जो धार्मिक जागृति के कार्य में सदा आगे रहते थे। विश्वोद्वार म० महावीर स्वामी का जयन्ती महोत्सव सर्वप्रथम जैन-मित्र मडल के तत्वावधान में मनाना प्रारम्भ हुमा । उन्होने मित्र-मण्डल के अध्यक्ष पद पर रह कर जयन्ती उत्सव को सफल बनाने में कोई कसर नही रक्खी। मै उनके प्रति श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
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