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परन्तु परमार्थ धर्म-दृष्टि से देखने से इस तरह किए हुए काम में सूक्ष्म मूर्छा का होना बहुत सम्भव है।
यदि हम इस जगत में केवल निमित्त मात्र ही है. यदि यह शरीर हमे भाड़े मिला है, और उस मार्ग से हमे तुरन्त मोक्ष-साधन करना चाहिये, यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्ग मे जो विघ्न आते हो उनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए, यही पारमार्थिक दृष्टि है, दूसरी नहीं।
जो दलीलें मैने ऊपर दी है, उन्हे ही किसी दूसरे प्रकार से रायचन्द भाई अपनी चमत्कारिक भाषा मे मुझे सुना गये थे। ऐसा होने पर भी उन्होने कैसी-कैसी व्याधिया उठाई कि जिसके फलस्वरूप उन्हे सख्त बीमारी भोगनी पडी।
रायचन्द भाई को भी परोपकार के कारण मोह ने क्षण भर के लिए घेर लिया था, यदि मेरी यह मान्यता ठीक हो तो 'प्रकृति पाति भूतानि निग्रह कि करिष्यति' यह श्लोकार्य यहा ठीक बैठता है, और इसका अर्थ भी इतना ही है । कोई इच्छापूर्वक वर्ताव करने के लिए उपयुक्त कृष्ण-वचन का उपयोग करते है, परन्तु वह तो सर्वथा दुरुपयोग है। रायचन्द भाई की प्रकृति उन्हे बलात्कार गहरे पानी में ले गई । ऐसे कार्य को दोपरूप से भी लगभग सम्पूर्ण आत्माओ मे ही माना जा सकता है । हम सामान्य मनुष्य तो परोपकारी कार्य के पीछे अवश्य पागल बन जाते है, तभी उसे कदाचित पूरा कर पाते है । इस विषय को इतना ही लिखकर समाप्त करते है ।
यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक मनुष्य इतने भोले होते है कि उन्हे सब कोई ठग सकता है । उन्हे दुनिया की वातो की कुछ भी खबर नहीं पड़ती। यदि यह वात ठीक हो तो कृष्णचन्द और रामचन्द दोनो अवतारो को केवल समारी मनुष्यो में ही गिनना चाहिए । कवि कहते थे कि जिसे शुद्धज्ञान है उसका ठगा जाना असम्भव होना चाहिए । मनुष्य धार्मिक अर्थात् नीतिमान होने पर भी कदाचित ज्ञानी न हो परन्तु मोक्ष के लिए नीति और अनुभव ज्ञान का सुसगम होना चाहिए। जिसे अनुभव ज्ञान हो गया है, उसके पास पाखड निम ही नही सकता। अहिंसा के सानिध्य मे हिसा वद हो जाती है । जहा सरलता प्रकागित होती है वहाँ छलरूपी प्रधकार नष्ट हो जाता है । ज्ञानवान और धर्मवान यदि कपटी को देखे तो उसे फौरन पहिचान लेता है, और उसका हृदय दया से आई हो जाता है । जिसने आत्म को प्रत्यक्ष देख लिया, वह दूसरे को पहिचाने विना कसे रह सकता है ? कवि के सम्बन्ध मे यह नियम हमेशा ठीक पड़ता था, यह मै नही कह सकता। कोई-कोई धर्म के नाम पर उन्हें ठग भी लेते थे। ऐसे उदाहरण नियम की अपूर्णता सिद्ध नही करते, परन्तु ये शुद्धज्ञान की ही दुर्वलता सिद्ध करते है।
इस तरह के अपवाद होते हुए भी व्यवहारकुशलता और धर्म-परायणता का सुन्दर मेल जितना मैने कवि मे देखा है, उतना किसी दूसरे में देखने में नही पाया।
धर्म
रायचन्द भाई के धर्म का विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि धर्म का उन्होने क्या स्वरूप समझाया था।
धर्म का अर्थ मत-मतान्तर नही । धर्म को अर्थशास्त्री के नाम से कही जाने वाली