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में लक्षित होती है वह इनमें नहीं है। इनका महत्व अपभ्रंग-साहित्य की खोज करने में ही विशेष रूप से समाहित है।
पिशेल महोदय के पूर्व देशी-विदेशी विद्वान् यही समनते थे कि प्राकृतो का विकासनिकास संस्कृत से हुआ । सस्कृत को प्राकृत का मूल मानने वाले विद्वानो मे होएफर, लास्मन, भण्डारकर, और जेकोबी भी सम्मिलित थे। परन्तु पिगेल इसे भ्रमपूर्ण बतलाते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि प्राकृत सस्कृत से प्राचीन बोली जाने वाली भाषा है। भापा की भांति ही बीम्त आदि कई भाषाविद् वर्षों तक इस बात को दुहराते रहे कि प्राकृत भापाए कृत्रिम नया साहित्य की भाषाएं हैं। इसी प्रकार का मत अपभ्रश के सम्बन्ध में भी प्रचलित रहा । स्वयं पिल महोदय के सामने अपभ्रश का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होने से वे इसका विशेप विचार नहीं कर सके। परन्तु प्राकृतो की अनेक वोलियो का उल्लेख और उनके विविध रूपो का उन्होंने विस्तृत विवेचन किया तथा उनका महत्व प्रतिप्ठिन किया। उनके विचार में अपभ्रंश का साहित्य अवश्य था, परन्तु वह लुप्त हो चुका था। कई विद्वानो की राय में अपभ्रश बनावटी भाषा थी, जो संस्कृत को तोड-मरोड कर बनाई गई थी। कीय महोदय इसी मत को बहुत दिनों तक पुष्ट करते रहे । और जब तक अपभ्रश का साहित्य प्रकाश में नहीं पाया तब तक इसी प्रकार की अनेक अटकलें और अनुमान लगाये जाते रहे । यथार्थ में अपभ्र ग-साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय डा. हर्मन जेकोबी को है।
यद्यपि पिगेल महोदय के पूर्व ही हर्मन जेकोबी जैन-साहित्य का महत्व प्रतिपादित कर चुके थे, परन्तु “प्राकृत भाषा के व्याकरण" से प्रभावित एव प्रेरित होकर उन्होंने प्राकृत साहित्य की प्रचुरता और अपभ्रश-साहित्य के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था। और यही धारणा लेकर उन्होने सन् १९१३-१४ मै भारतवर्ष का प्रवास किया । मार्च, १९१४ मैं अहमदाबाद में एक जैन साधु के पास उन्होने जीर्ण हस्तलिखित प्रति को देखा। उस कया की चार-छह पंक्तियों को पढकर जेकोबो अत्यन्त चमत्कृत हुआ । वह हर्प से उछल पडा। उने उस समय उतना ही आनन्द प्राप्त हुमा जितना कि पुत्र-रत्न प्राप्ति के समय होता है । वह कथानन्य अपभ्रंश मापा में महाकवि धनपाल का लिखा हुआ "भविसयत्तकहा" था। अपभ्रश के इस महत्वपूर्ण प्रय की प्रथम परिचिति डा. जेकोबी को मिली । उन्होने बड़ी कठिनाई से इस कथाकाव्य के कुछ पत्रों की अपने हाथ से प्रतिलिपि की और कुछ की फोटोकापी तैयार करवाई। कुछ दिनो के बाद सौराष्ट्र के प्रवास मे एक दूसरा कथानथ प्राप्त हुआ । यह राजकोट के एक साधु के पास से प्राप्त हुआ। इसका नाम "नेमिनाथचरित" था। इसकी हस्तलिखित प्रति ही जर्मन विद्वान् को मिल गई । इस प्रकार अपभ्रश ग्रयो की पहली जानकारी डा. जेकोवी को प्राप्त हुई।
उन दिनो प्रथम महायुद्ध के विप्लव-वादल चारो और मडराने लगे थे। विश्वव्यापी महायुद्ध प्रारम्भ हो गया था। इसलिए लगभग चार वर्षों तक बैकोबी महोदय कुछ भी नहीं प्रकाशित कर सके । सन् १९१८ ई० मे म्युनिक रायल एकेडेमी की ओर से "भविश्यत्तत्हा" का १ देखिए, "प्राकृत भाषाओ का व्याकरण", पृष्ठ ८
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