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होने के कारण यह कार्य देर तक नही टाला जा सकता। आज नहीं तो कल हम इन सुझावो को स्वीकार करेंगे।
अपनी और अपने समाज की उन्नति के इच्छुक जैन-बन्धुओ से मेरा अनुरोध है कि वे समय की आवश्यकता को अनुभव करते हुए जैन एकता के प्रश्न मे अधिकाधिक दिलचस्पी ले और इस प्रकार भारत जैन महामण्डल के सदस्य वनकर उसके कार्यों का प्रसार करे।
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् के पिछले ३७ वर्ष
एक क्रान्तिकारी संस्था का उदय जैन समाज को जीर्ण-शीर्ण दशा और उसके सम्बन्ध मे जैन महासभा की शिथिल और स्थिति-पालक नीति को देखते हुए सन् १९२३ मे कुछ उत्साही सुधारको ने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिपद की स्थापना की । इस सस्था के मुख्य सस्थापको मे वैरिस्टर चम्पतराय जी, ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी, श्री अजितप्रसाद जी, श्री रतनलाल जी, साहू जुगमन्दरदास जी और श्री राजेन्द्रकुमार जी के नाम उल्लेखनीय है । इन व्यक्तियो ने जैन महासभा के झण्डे तले रहकर समाज-सुधार के कार्य को आगे बढाने का पूरा-पूरा प्रयल किया, किन्तु प्रतिक्रियावादी महासभा पर छा गये। उन्होने उक्त समाज-सुधारको पर "जाति-पात लोपक", "विधवा विवाह रचायक", "धर्म-भ्रप्ट" इत्यादि अनेक लाछन लगा कर उन्हे जैन महासभा से निकालना चाहा। साथ ही समाज में किसी प्रकार सुधार करने का भी इन प्रतिक्रियावादियो द्वारा का विरोध किया गया।
आज ३७ वर्ष बाद उस समय की स्थिति को समझना सरल नही । समय ने हमारे समाज के रूप मे क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये है । जिन बातो के विरोध में एक समय लाठिया इते निकाले गये थे और लोगो के गले मे रस्से डालकर उन्हे खीचा गया था, आज वही बातें रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी और अनुदार पक्ष तक को भी ऐसे रूप मे स्वीकार है, मानो किसी काल और स्थिति में उनका विरोध होना सभव ही नहीं हो । समय ने इन बातो को पाज सहज और स्वाभाविकता मे ला दिया है।
आइये, देखे किन बातो के कारण भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज के सस्थापको को "जाति-पात लोपक", "विधवा विवाह रचायक", "धर्म-भ्रष्ट" इत्यादि विशेपण दिये गये थे।
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