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________________ जैन समाज में संगठन का प्रभाव उन्हे सदा खलता रही। उनके विचार इसी लेख में आगे इस प्रकार है-'जैन समाज के अखिल भारतवीय सस्थाओं के पदाधिकारियो, विद्वानो, त्यागियो और समाज के प्रमुख महानुभावो से मेरा नम्र निवेदन है कि वह समय को पहचानें और एकचित्त होकर समाज का सगठन बनायें । यदि समाज सगठित हो गई तो आपका धर्म सुरक्षित रह सकेगा, यदि अब भी न चेते तो फिर कुछ न होगा। "फिर पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ॥" ___ लालाजी जैन समाज के भारत व्यापी सगठन को मक्रिय रूप देना चाहते थे जो उनके जीवित रहते न हो सका । समाज-सेवा तथा धर्म-प्रेम उनकी नस-नस मे हिलोरे लेता था। उनके हृदय की भावना का सुन्दर दर्शन, एक लेख "जैन समाज के संगठन का रूप कैसा हो" मे होता है __"अ. भा० दि० जन महासभा, परिपद और भा० दि.जैन संघ अपने-अपने ढग से अपने-अपने उद्देश्यो का अपने-अपने मे प्रचार कर रहे है । परन्तु दु ख इस बात का है कि समाज या धर्म पर जब कोई सकट पाता है तो एक-दूसरे के मुह की तरफ झांकते है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतवर्ष मे दि० जैन समाज का कोई एक प्लेटफार्म नही, कोई एक नेता नही और न ही तमाम समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली समिति ही है।" उन्ही के आगे ये शब्द है-"मेरा यह मुझाव है कि तमाम भारतवर्ष के दि० जैन समाज का एक प्लेट फार्म हो, एक आवाज हो और प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सयुक्त दि० जैन समिति बनायी जानी चाहिए, जो कि तमाम समाज का नेतृत्व करे । इस समिति में सभी प्र०भा० दि० जैन सस्थानो के दो-दो चार-चार प्रतिनिधित्व सस्थानो की कार्यकारिणी द्वारा चुनकर भेजे हुए सज्जनो को सयुक्त समिति का सदस्य बनाया जाय । ___ इस प्रकार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' की सर्वोच्च भावना से किये गये राष्ट्रीय, सामाजिक, राजनैतिक अथवा धार्मिक कार्य लालाजी की सच्ची निशानी है। वे अहिंसावादी, शाकाहार के पोपक तथा अपने लेखो के माध्यम से युवक, वृद्ध, नारियो सभी को सहज एव सुकर मार्ग दर्शन देते थे। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ, राष्ट्र, समाज तथा धर्म-सेवी महानर कोहमारी भावपूर्ण श्रद्धाजलि !! * * * * १२४ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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