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भक्तिपरक, आध्यात्मिक, दार्शनिक तथा रहस्यवादी पद लिखे है जिनको पढने से मात्मिक शान्ति मिलती है एव जीवन नैतिकता की ओर विकसित होता है। प्रस्तुत लेख में ऐसे ही कुछ कवियो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है
भूधरदास १८वी शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे। ये प्रागरे के रहने वाले थे तथा पार्श्वपुराण बामक काव्य की सवत् १७८४ में रचना की थी। भूधरदास ने माया को कबीरदास के समान ही ठगिनी शब्द से सम्बोधित किया है । कबीर ने माया के विभिन्न रूप दिखलाये है जब कि भूधरदास ने उसके स्वरूप का भी परिचय दिया है । माया बिजली की आभा के समान है जो मूर्ख प्राणियो को ललचाती रहती है । उस पर विश्वास करने वाले को सदैव पश्चाताप करना पड़ता है और अन्त में नरक में भी जाना पडता है । कबीर ने उसके कमला, भवानी, मूरति एव जोगिन आदि नाम दिये हैं तो भूधरदास ने "कैते कप किये ते कुलटा तो भी मन न अघाया" कह कर सारे रहस्य को समझाने का प्रयास किया है। कबीर ने माया को अकथ कहानी लिख कर छोड दिया है लेकिन भूधरदास ने "जो इस ठगिनी को ठग बैठे मै तिनको शिर नाया" शब्दो मे अच्छा अन्त किया है। दोनो ही कवियो के पदो को पाठको के सामने अवलोकनार्थ किया जा रहा है
माया महा ठगिनी हम जानी। निरगुन फास लिये कर डोले बोले मधुरी बानी। केसव के कमला ह बैठी, शिव के भवन शिवानी । पंडा के भूरति ह बैठी, तीरथ मे भई पानी। जोगी के जोगिन हबैठी, राजा के घर रानी । काहू के हीरा ह बैठी, काहू के कोडी कानी । भगतन के भगतिन ह बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी। कहत कबीर सुनो हो सतो यह सब अकथ कहानी ॥ +
+ सुनि ठगनी माया, ते सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया ।। सुनि० ।। आमा तनक दिखाय विज्जु ज्यो, मूढमती ललचाया । करि मद अन्ध धर्म हर लीनो, अन्त नरक पहुंचाया ।। सुनि० ॥ केते कथ लिये ते कुलटा तो भी मन न अघाया । किसही सौ नहिं प्रीति निभाई, वह तजि और लुभाया |सुनि० ॥ 'भूधर' छलत फिरत यह सबको, भोदू करि जग पाया।
जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिनको शिर नाया ।। सुनि० ।। कबीरदास ने अपने एक अन्य पद मे यह प्राणी सारी प्रायु वातो मे ही व्यतीत कर देता है, इस रूपक का सुन्दर चित्रण किया है । जैन कवि छन ने भी इसी के समान एक पद लिखा है जिसमे उसने "मायु सब यो ही बीती जाय" के पश्चात्ताप किया है। दोनो कवियो के पदो की प्रथम दो पक्तिया पढिये४१२ ]