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इस आन्दोलन का विस्तृत विवरण इस प्रकार है.
आबू परिचय
राजपूताने की स्वर्ण-भूमि के अचल मे प्राचू पर्वत अपनी ऐतिहासिकता, धार्मिकता एव अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण गौरवपूर्ण स्थान रखता है । मध्यभारत की भूमि पर इसके शिखर सर्वोच्च माने जाते है । भाबू का सर्वोच्च शिखर ५६५० फुट ऊंचा है। कौन ऐसा मानव यात्री है जो आबू के अचल मे पहुँच कर इसकी हरियाली लताकुन्जो, सरोवर, ऊँचे-नीचे मार्गों और लता- पुप्पो से सुगन्धिन वातावरण पर मुग्ध होकर कुछ समय के लिए अपने को भूल न जाता हो । श्रावू यदि ऋषि - महात्माओ के लिए एकात भूमि है तो विलासप्रिय लोगो के प्रकृतिदत्त मनोरम क्रीडास्थली । दोनो के हो सामने यहा प्रकृति का भव्य एव विराट रूप उपस्थित होता है ।
धर्मप्रेमी हिन्दुओ के लिए प्रावू पर्वत शताब्दियों से पूर्व से ही ऋषियो के तपोवन के रूप मे पुण्य भूमि रहा है। यहाँ पर हिन्दू धर्म के महान ऋषियो ने अपनी योग साधनाएं पूर्ण की है। आबू पर्वत की व्युत्पत्ति के साथ हिन्दू धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । जब हम धार्मिक ग्रन्थो और पुराणो के पन्ने पलटते है तो स्थान-स्थान पर अबु द गिरि ( भाज का आबू) का उल्लेख मिलता है । श्राबू की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे पौराणिक उल्लेख इस प्रकार है :
दूध
प्राचीन काल मे ऋषि वशिष्ठजी यहाँ अन्य ऋपियो के साथ प्राश्रम बनाकर तपस्या करते थे । एक बार वशिष्ठजी की कामधेनु गौ वहा उत्तक ऋषि के खोदे हुए गड्ढे में गिर गई जिसमें कामधेनु के लिए निकलना असम्भव था । वशिष्ठजी उसे निकालने के प्रयत्न में थे । लेकिन कामधेनु तो स्वय कामधेनु थी उसने अपने से उस गड्ढे को भर दिया और स्वयं तर कर बाहर निकल आई। फिर भी इस दुर्घटना से वशिष्ठजी को अत्यन्त दुख हुआ और उन्होने उस गड्ढे को सदा के लिए भर देने के लिए पर्वतराज हिमाचल से प्रार्थना की। हिमाचल वशिष्ठजी की प्रार्थना पर अपने पुत्र नन्दिवर्धन को आज्ञा दी । वशिष्ठजी नन्दिवर्धन को द नामक सर्प के द्वारा ले प्राये और उस गड्ढे में स्थापित कर दिया जिसमे कामधेनु गिर गई थी । श्रवुद सर्प भी नन्दिवर्धन के नीचे रह गया । इसलिए इस पर्वत का नाम अर्बुद और नन्दिवर्धन दोनो एक साथ-साथ प्रचलित हुए । प्रर्बुद का अपना नाम आबू भाज भी प्रचलित है । । यह भी कहानी बहुत प्राचीन चली आ रही है कि श्राबू के नीचे रहने वाला अर्बुद सर्प छ. छ मास में जब करवट बदलता है तो आबू पर भूकम्प होता है । आजकल भी भूकम्प भावू पर बहुधा होता रहता है। और लोग इसका कारण इसी पुरानी कहानी के आधार पर बतलाते हैं ।
नन्दिवर्धन की प्रतिष्ठा के पश्चात् तो उस तपोवन भूमि का धार्मिक महत्व दिनप्रतिदिन बढता हो गया । श्रावू पर्वत धार्मिक दृष्टि से भारत की प्रमुख पुण्य भूमियो मे रहा है । और उस काल मे प्रमुख तपस्वियो महात्माओ और सन्नाटो को प्राबू के एकान्त प्राकृतिक सौन्दर्य और निर्जनता मे अपूर्व प्रात्म-सुख और शान्ति मिली है ।
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