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लालाजी एक संस्था थे (मधुर स्मृति)
श्री यशपाल जैन ७८, दरियागंज, दिल्ली
भाई साहब तनसुखरायजी से मेरी पहली भेट कब और कहा हुई थी, याद नही आता3B लेकिन एक प्रसग आज भी मेरे स्मृति-पलट पर यथावत अकित है। उन दिनो वे 'तिलक वीमा कम्पनी' का संचालन कर रहे थे और उनका कार्यालय नई दिल्ली में प्रोडियन के पास किसी इमारत मे था । भाई अयोध्याप्रसाद गोयलीय उनके साथ काम करते रहे थे। उस समय का उनका वैभव और तेजस्विता पाजाभी भूले नही भूलती। पर सबसे बड़ी बात जिसने मुझे अपनी और खीचा, यह था कि वैभव के बीच होते हुए भी वे उस सारे ठाठ-बाट से ऊपर थे । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका अन्तर मानवीय मूल्यो से परिपूर्ण था।
सन् १९४६ के बाद मुझे उनके निकट सम्पर्क में आने का अवसर मिला और मैंने उनके जीवन के विभिन्न पहलुओ को देखा । जैन समाज में उनसे अधिक धनी-मानी व्यक्ति थे, लेकिन उनको.जोमान प्राप्त था, वह बहुत ही कम लोगो को उपलब्ध हो सका। उनकी सामाजिक सेवामओ ने उन्हे व्यक्ति से अधिक सस्था का रूप दे दिया था। अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिपद के वे भनेक वर्षों तक महामन्त्री रहे थे, लेकिन सच बात यह है कि वे परिपद के प्राण थे। न जाने कितने वर्षों तक उन्होंने इस सस्था को अपने पसीने से सीचा और अपने परिपक्वानुभव से उसे गति दी। बहुत-सी प्रवृतिया उसके अन्तर्गत चलाई । परिषद के अतिरिक्त और भी बहुत से लोकापयोगी कार्य उनके द्वारा सम्पादित हुए ।
समाज-सेवा की उनकी लौ कभी मन्द नही पड़ी। उल्टे उत्तरोत्तर तीव्र होती गई। मुझे याद “माता है, अपने अन्तिम दिनों में जवकि उनका शरीर साथ नहीं दे रहा था, वे बैजीटेरियन सोसायटी को लेकर कई योजनाएं बना रहे थे । कुछ साहित्य प्रकाशन की भी बात थी।
इन सारी प्रवृतियो के-पीछे उनकी एक ही भावना थी और वह यह कि हमारा भारतीय समाज शुद्ध और प्रबुद्ध-बने- समाज की मूलभूत ईकाई मानव है और वह मानते थे कि यदि मानव का जीवन परिष्कृत हो जाय तो.समाज.अपने आप सुपर जायेगा । वे मूलतः धार्मिक व्यक्ति थे, और उनकी माव्यता.थी कि,मानव का परिप्कार धर्म के आधार पर ही हो सकता है। लेकिन स्मरण रहे कि उनका धर्म रूढियो से वधा धर्म नहीं था। वे व्यापक धर्म में आस्था रखते थे, अर्थात् वह मानते थे कि मनुष्य को सच बोलना चाहिए, सचाई का जीवन जीना चाहिए, अहिंसा का पालन करना चाहिए, सयम से रहना चाहिए, आदि-आदि । इस प्रकार उनके लिए धर्म का ११]