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ससारी जीवो की इस परिणमन व्यवस्था में जीवों के वैभाविक भाव तो उपादान कारण है तथा जीव के साथ बँबे कर्म तथा जीव के सयोग मे ग्रायो अन्य जीव पुद्गल सामग्री निमित्त कारण है । जीव का ये वैभाविक भाव जीव का पुरुषार्थ है ।
यदि जीव के पुरुषार्थं की दिशा बदल जाये अर्थात् पुरषार्थ स्वभाव भाव रूप हो जाए तो अन्य निमित्त कारण इसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते । यह पुरुषार्थ की भक्ति जीव ही है जो निमित्तो के प्रभाव से अछूता रह सकता है। पुद्गल में यह शक्ति नही है, इसमे योग्य निमित्त कारण मिलने पर वैभाविक परिणमन अवश्यमेव होता है । इसलिए श्रनन्तानन्त जीवो मे से काल लब्धि को प्राप्त होने पर कोई-कोई जीव परिमित सख्या मे अपने पुरुषार्थं द्वारा शक्ति अनुसार राग-द्वेप- मोह परिणामो पर काबू पाते हुए उन्हें पूर्णतया नष्ट करके संसार वन्वन से मुक्त हो जाते है । ऐसी अवस्था इस लोक मे बहुत सी प्राकृतिक व्यवस्थाओं मे से एक है जो किसी के प्राचीन नहीं है, जीवो के अपने परिणामो तथा कालनव्वि के प्राचीन है तथा परिणामां की शुद्धि में सत्सगति व देशनालब्धि भी सहायक है । अत इस और पुरुषार्थ करना आवश्यक है । लोक मे जीवो की प्रश्नय अनन्त राशि है जो समय समय पर जीवां के मुक्त होते हुए भी कभी समाप्त होने वाली नही है ।
जीव को शुद्ध स्वाभाविक अवस्था प्राप्त करने की आवश्यकता क्यो है ? इसका कारण ससारी अवस्था मे जीव का मुख-दुख अनुभव करना है। दुख से इष्ट नहीं जिसे यह दूर करने मे सदा प्रयत्नशील रहता है, मुख यद्यपि इमे दृष्ट है किन्तु वह स्थायी न होने तथा दुख मे परिणत हो जाने से कल्याणकारी नही, अत यह भी लाभप्रद न होने के कारण वर्जनीय है । वास्तव मे तो यह समारी नुस्ख इच्छाग्रो की पूर्ति मात्र ही हैं, इच्छाए ग्राकुलता पैदा करती है, और प्राकुलता दुख रूप है। ग्रतएव जीव की वैनाविक सनारी दशा स्थायी स्वाभाविक मुख रूप न होने के कारण त्यागने योग्य है । स्वभाव की प्राप्ति के लिये जीव को बमंसान की आवश्यकता है । यदि वैभाविक अवस्था मे दुख न होता तो इसे वर्मं सावन की आवश्यकता न होती । जड़ पुद्गल वैभाविक अवस्था में रही या स्वाभाविक मे उसे कोई हानि नही क्योकि उस जीव सरीखा दुख-सुख का अनुभव नही है। इनमे तो केवल बन्धन व पृथकत्व के नियम है, उन्ही नियमा के अनु सार परिस्थिति उपस्थित होने पर परमाणु बन्ध कर छोटे-बड़े स्कन्ध बनते हैं और कब का विलेपण होकर परमाणु रूप में परिवर्तित होते रहते हैं । लोक में इस प्रकार में द्रव्यों में कार्यकारण व्यवस्था पायी जाती है जिसका पसारा हम सब प्रत्यक्ष देख्न रहे हैं ।
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तत्वार्थ सूत्र और उसकी प्रमुख टीकाएं
श्री अमृतलाल शास्त्री, दर्शनाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनीघाट, वाराणसी
भगवान महावीर की दिव्यदेशना का जिस द्वादशागवाणी में सकलन हुआ, उसकी मुख्य भाषा प्राकृत थी । उस समय उस भाषा का खूब प्रचार और प्रसार था । पर समय के परिवर्तन के
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