________________
जिगर की आग
तरक्की' धर्म की और देश की रोने रुलाने से। नही बुझती जिगर की आग दो मासू वहाने से ॥१॥
न लेते थे जो दम भर चैन औरो को मिटाने से। उन्हे भी एक दिन लगना पडा अपने ठिकाने से ॥२॥
निशार तक भी नही मिलता जहा मे आज तक उनका। जिन्हे मानन्द मिलता था जफा ओ जौर ढाने से ||३||
दुखे दिल से जो निकली प्राह तुझको फूक डालेगी। सितमगर बाज मा मजलूमो वैकस के सताने से ॥४॥
जो खुद ही गदिशे तकदीर से वर्वाद फिरते है। भला क्या फैज़ पाएगा कोई उनको सताने से ।।५।।
कठिन है धर्म की मजिलप मगर हिम्मत न हारो तुम । यू ही चलते रहे तो लग ही जानोगे ठिकाने से ॥६॥
घसी है जिनके रग-रग मे मोहब्बत मुल्कोमिल्लत की। नही वोह चूकते ऐ 'दास' अपना सर कटाने से ॥७
राग मालकोप जिया जग धोके की टाटी ॥ टेक ॥ झूठा उद्यम लोग करत है जिसमे निश दिन घाटी। जास वूझ कर अडे बने हो पोखिन बाधी पाटी। निकल जायंगे प्राण छिनक मे पडेनी माटी। 'दौलतराम समझ नर अपने दिल की खोल कपाटी।
१ उन्नति २ चिह्न ३ पाप करने वाले ४ मान जा ५ निर्वल ७ भलाई ८ राह (मार्ग)।
किस्मत का फेर
[-२०७