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पक्षपात भी था । वेदाती को तो कवि वेदांती ही मालूम पड़ते थे । मेरे साथ चर्चा करते समय मुझे उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी खास धर्म का अवलंबन लेना चाहिए । मुझे अपना ही आचार-विचार पालने के लिए उन्होने कहा । मुझे कौन सी पुस्तकें वाचनी चाहिये, यह प्रश्न उठने पर, उन्होने मेरी वृत्ति और मेरे बचपन के संस्कार देखकर मुझे गीताजी वाँचने के लिए उत्तेजित किया, और दूसरी पुस्तको मे पंचीकरण, मणिरत्नमाला, योगवासिष्ठ का वैराग्य प्रकरण, काव्यदोहन पहला, और अपनी मोक्षमाला वाचने के लिए कहा।
रायचन्द भाई बहुत बार कहा करते थे कि भिन्न-भिन्न धर्म तो एक तरह के वाड़े है और उनमें मनुष्य घिर जाता है। जिसने मोक्ष प्राप्ति ही पुरुषार्थ मान लिया है, उसे अपने माथे पर किसी भी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नहीं।
सूतर आवे त्यम तुं रहे, ज्यम त्यम करिने हरीने लहे___ जैसे पाखाका यह सूत्र था वैसे ही रायचन्द भाई का भी था। धार्मिक झगड़ो से वे हमेशा अवे रहते थे—उनमे वे शायद ही कभी पड़ते थे। वे समस्त धर्मो की खूवियां पूरी तरह से देखते और उन्हे उन धर्मावलम्बियो के सामने रखते थे । दक्षिण अफ्रीका के पत्रव्यवहार में भी मैने यही वस्तु उनसे प्राप्त की।
मैं स्वय तो यह मानने वाला हूँ कि समस्त धर्म उस धर्म के भक्तो की दृष्टि से सम्पूर्ण है, और दूसरो की दृष्टि से अपूर्ण है । स्वतत्र रूप से विचार करने से सव धर्म परिपूर्ण है। अमुक हद के बाद सब शास्त्र वन्धन रूप मालूम पड़ते हैं । परन्तु यह तो गुणातीत की अवस्था हुई। रायचन्द भाई की दृष्टि से विचार करते हैं तो किसी को अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं । सब अपने-अपने धर्म मे रह कर अपनी स्वतन्त्रता-मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। क्योकि मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ सर्वाश से राग-द्वेप रहित होना ही है।
*परिशिष्ट इस प्रकरण में एक विषय का विचार नहीं हुआ। उसे पाठको के समक्ष रख देना उचित समझता है। कुछ लोग कहते हैं कि श्रीमद् पच्चीसवे तीर्थ कर हो गए हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि उन्होने मोक्ष प्राप्त कर लिया है। मैं समझता हूं कि ये दोनो ही मान्यताए अयोग्य हैं। इन बातो को मानने वाले या तो श्रीमद् को ही नही पहचानत, अथवा तीर्थ कर या मुक्त पुरुप की वे व्याख्या ही दूसरी करते हैं। अपने प्रियतम के लिए भी हम सत्य को हल्का अथवा सस्ता नही कर देते हैं। मोक्ष अमूल्य वस्तु है। मोक्ष प्रात्मा की अन्तिम स्थिति है । मोक्ष बहुत महंगी वस्तु है। उसे प्राप्त करने मे, जितना
जैसे सूत निकलता है वैसे ही तू कर । जैसे बने तैसे हरि को प्राप्त कर ।
*'श्रीमद् रायचन्द' का गाधीजी द्वारा लिखा हुआ प्रस्तावना का वह अंश जो उक्त सस्मरणो से अलग है और उनके वाद लिग गया है।
-अनुवादक
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