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________________ उनको पढाने का बडा शौक था। मुलतान छावनी में अपना सर्राफे का काम करते हुए भी दो-तीन अग्रेज आफिसरो को उर्दू-हिन्दी पढाया करते थे। मुझे भी वह दुकान पर बैठा लिया करते और पढाई भी करते। मैने कोई सार्टीफिकेट तो प्राप्त नहीं किया, उर्दू, अग्रेजी, हिन्दी का जो ज्ञान है वह सब पूज्य पिताजी के द्वारा मिला। सन् १९१८ मे जब कि मैने गवर्नमेट की सर्विस के लिए प्रार्थनापत्र दिया तो वहाँ मेरा इम्तिहान लिया गया। सब उम्मीदवारो मे मै सर्वप्रथम रहा और मुझे नौकरी मिल गई। क्योकि पिताजी का देहान्त सन् १५ मे हो चुका था और हम बच्चे थे पिताजी के धन्धे को नही सम्भाल सके और लाचार हो न करी की तरफ जाना पडा । पिताजी पढाई के साथ अपने अनुभव और ससार मे दूसरो को कैसे अपना बनाया जाता है, बताते रहते थे। मेरे पिताजी एक बहुत ही धार्मिक विचार के महानुभाव थे और बचपन से ही उन्होने मेरी रुचि भी उधर ही कराई। दुःख है कि पूज्य पिताजी ४५ साल की आयु मे ही स्वर्गवास कर गए और मैं उनकी कुछ भी सेवा न कर पाया। अब भी उनके पाशीर्वाद का फल है कि जो मै इतना सुखी हूँ। उनके चरणो मे भी मेरा सादर प्रणाम । आते ही उपकार याद हे माता तेरा, हो जाता मन मुग्ध, भक्तिभावो का प्रेरा । मुझे अपनी माताजी के गर्भ मे १२ मास हो गए थे इसलिए सब चिंतित थे कि क्या बात है। जन्म-दिन से पहली रात महात्मा साधु और मुनियो ने माताजी को स्वप्न मे दर्शन दिए और कहा कि कल तुम्हारे प्रतापशाली पुत्र पैदा होगा, और हमारा प्राशीर्वाद है कि वह सदा सुखी रहेगा। और उसपर धनियो और मुनियो की विशेष कृपा रहेगी। जन्म-काल से अब तक त्यागी महात्मा और मुनियो की कृपा मुझ पर बनी रही। अभी ७, ८ साल का ही था जबकि मुलतान छावनी मे पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का आगमन हुआ और जब तक वह वहा ठहरे तब तक मैं उनकी सेवा में रहा और आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद जो भी मुनिगण आते ऐसे उनकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। सन् १९१४ मे पिताजी ने भटिंडा रियासत पटियाला में अपना व्यापार शुरू किया। वहा दिगम्बर जैन मदिर नहीं है । स्थानक मे जो भी साधु-महात्मा पाते. थे उनके पास घटा डेढ घटा व्यतीत करता था और उनसे ज्ञान प्राप्त करता था। १९१६, १७ मे, सनातनधर्म के प्रकाड विद्वान स्वामी राम भटिंडा पधारे। उनके पास भी मेरा आना-जाना शुरू हुआ, वे मेरे सेवा-भाव से प्रसन्न हुए और बहुत प्यार करने लगे । जब तक वह भटिंडा मे रहें उनकी कृपा मुझ पर बनी रही। इसके कुछ दिन बाद ही स्वामी सतदेवनी भटिंडा पधारे । वे आर्यसमाजी उन विचार के ऊचे विद्वान थे। उनके आदेशो से नवयुवको के हृदय मे स्फूर्ति आती थी। उन्होने विदेशो मे यात्रा की थी। मुझे उनके सत्सग से अच्छे विचार मिले । सन् २२ से ३३ तक विशेषकर राजनैतिक क्षेत्र मे जीवन बीता। इस बीच में महात्मा और त्यागियो का सत्सग तो कम हुआ परन्तु देश के बड़े से बड़े राजनैतिक नेताओ से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सन् ३४ से धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रुचि हुई। सन् ३४ से ३८ तक अखिल भा० दि० जैन परिषद् समाज के सुधारक दल मे बहुत जोरो से कार्य किया। इसी बीच मे जैसे समाज के प्राय कर बहुत से विद्वानो, त्यागियो, बनियो और कार्यकर्तामो के सम्पर्क में आया। सन् ३८ मे अग्नसेन जयन्ती के शुरूपात करने में भी मेरा ही प्रयास था और बाद मे अग्रवाल महासभा के प्रधान मत्री और [१७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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