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कां नाद भी उठने लगा है। अब तो उसे लगातार एकतार में पिय रस का श्रानन्द उपलब्धं हो रहा है । २२
ठीक उसी भाति बनारसीदास की नारी के पास भी निरजनदेव स्वयं प्रकट हुए है । वह इधर-उधर भटकती नही । उसने अपने हृदय मे ध्यान लगाया और निरजनदेव श्रा गये । अब वह अपने खजन जैसे नेत्रो से उसे पुलकायमान होकर देख रही है और प्रसन्नता से भरे गीत गा रही है । उसके पाप और भय दूर भाग गए है। परमात्मा जैसे साजन के रहते हुए पाप और भय कैसे रह सकते है । उसका साजन साधारण नही है, वह कामदेव जैसा सुन्दर श्रीर सुधारस सा मधुर है । वह कर्मों का क्षय कर देने से तुरन्त मिल जाता है । 23
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२२ आज सुहागन नारी || अबधू प्राज० ॥
मेरे नाथ श्राप सुध लीनी, कीनी निज अगचारी ॥ अबधू० ॥ १ ॥
प्रेम प्रतीत राग रुचि रगत, पहिरे पहिरे जिनी सारी ।
महिंदी भक्ति रग की राची, भाव अजन सुखकारी ॥ अबधू० ॥२॥ सहज सुभाव चूरियाँ पेनी, थिरता कगन भारी ।
ध्यान उरवसी उर मे राखी, पिय गुन माल प्रधारी || अबघू० ||३|| सुख सिंदूर माग रग राती, निरते बेनी समारी ।
उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, भारसी केवल कारी ॥ प्रबघू० ||४|| उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी ।
डी सदा श्रानन्दवन बरात, बिन भोरे इक नारी || अबघू० ||५||
- देखिए वही, २०वा पद,
२३. म्हारे प्रगटे देव निरजन ।
टको कहा कहा सर भटकत कहा कहू जनरजन || म्हारे० ||१|| वजन दृग दृग नयनन गाऊँ चाऊ चितवत रजन ।
सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रजन || म्हारे ० || २ || बोहो कामदेव होय काम घट वो ही सुधारस मजन ।
श्रीर उपाय न मिले बनारसी मकल करमषय खजन || म्हारे० ||३||
- बनारसीदास, बनारसी विलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पर', पृ० २४० (क)