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कहलाते है। विभिन्न समयो एव प्रदेशो मे वे भ्रमण, व्रात्य, निम्रन्य, श्रावक, सराक, सरावगी या सरामोगी, सेवरगान, समानी, सेवड़े, भावडे, भव्य, अनेकान्ती, स्याद्वादी आदि विभिन्न नामो से भी प्रसिद्ध रहे है।
आधुनिक युग मे लगभग सौ-सवासौ वर्ष पर्यन्त गभीर अध्ययन, शोषखोज, अनुसधान, अन्वेषण और गवेपण के परिणाम स्वरूप प्राच्यविदो, प्ररातत्त्वज्ञो, इतिहासज्ञो एवं इतिहासकारो तथा भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और कला के विशेषज्ञो ने यह तथ्य मान्य कर लिया है कि जैनधर्म भारतवर्ष का एक शुद्ध भारतीय, सर्वथा स्वतन्त्र एव अत्यन्त प्राचीन धर्म है उसकी परम्परा कदाचित वैदिक अथवा ब्राह्मणीय परम्परा से भी अधिक प्राचीन है। उसका अपना स्वतन्त्र तत्त्वज्ञान है, स्वतन्त्र दर्शन है, स्वतन्त्र अनुश्रुतिएं एव परपराएं है, विशिष्ट प्राचार विचार एव उपासना पद्धति है, जीवन और उसके लक्ष्य सम्बधी विशिष्ट दृष्टिकोण है, अपने स्वतन्त्र देवालय एव तीर्थस्थल है, विशिष्ट पर्व त्यौहार हैं, विविध विषयक एव विभिन्न भाषा विषयक विपुल साहित्य है तथा उच्चकोटि की विविध एव प्रचुर कलाकृतियाँ है । इस प्रकार एक सुस्पष्ट एवं सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित यह जैनधर्म भारतवर्ष की श्रमण नामक प्राय सर्वप्राचीन सास्कृतिक एव धार्मिक परम्परा का प्रागऐतिहासिक काल से ही सजीव प्रतिनिधित्व करता पाया है।
___ इस सम्बन्ध मे कतिपय विशिष्ट विद्वानो के मन्तव्य दृष्टव्य है (देखिए हमारी पुस्तकजैनिज्म दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन) यथा . प्रो. जयचन्द विद्यालकार-"जैनो के इस विश्वास को कि उनका धर्म अत्यन्त प्राचीन है और महावीर के पूर्व अन्य २३ तीर्थकर हो चुके थे भ्रमपूर्ण और निराधार कहना तथा उन समस्त पूर्ववर्ती तीर्थड्रो को काल्पनिक एव अनैतिहासिक मान लेना न तो न्यायसगत ही है और न उचित ही। भारतवर्ष का प्रारभिक इतिहास उतना ही जैन है जितना कि वह अपने आपको वेदो का अनुयायो कहने वालो का है।' (वही पृ० १६) इसी विद्वान तथा डा काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार अथर्ववेद आदि मे उल्लिखित व्रात्य अथवा प्रब्राह्मणीय क्षत्रिय जैन धर्म के अनुयायी थे। (वही पृ० १७) डा. राधाकृष्णन के अनुसार जैन धर्म वर्षमान अथवा पार्श्वनाथ के भी बहुत पूर्व प्रचलित था (वही पृ० २०), तथा यह कि यजुर्वेद मे ऋपम, अजितनाय और अरिष्टनेमि, इन तीर्थवरो का नामोल्लेख है, ऋग्वेदादि के यह उल्लेख तमाम, ऋषभादि, विशिष्ट जैन तो तीर्थडूरो के ही है और भागवतपुराण से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि ऋषभदेव ही जैनधर्म के प्रवर्तक थे (वही, पृ० ४१-४२) ।
प्रो० पाजिटर, रहोड, एडकिन्स, प्रोल्डहम आदि विद्वानो का मत है कि वैदिक एवं हिन्दू पौराणिक साहित्य के असुर, राक्षस आदि जैन ही थे। और डा. हरिसत्य भट्टाचार्य का कहना है कि जैन और ब्राह्मणीय, दोनो परम्परामो के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से आधुनिक युग के कतिपय विद्वानो का यह साग्रह मत है कि वैदिक परम्परा के अनुयायियो ने राक्षसो को
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