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________________ जो न याता हो तुम्हे वह दूसरो से सीख लो ; अनुकरण कहते किसे, जापानियों से सीख लो । देखकर इतिहास जग के, कुछ करो शिक्षा ग्रहण, हो न जिससे व्यर्थ ही ससार मे जीवन-मरण || १५ || २१६ ] छोड दो सकीर्णता, समुदारता धारण करो, पूर्वजो का स्मरण कर, कर्तव्य का पालन करो । श्रात्मवल पर जैन वीरो हो खड़े बढ़ते रहो ; हो न ले उद्धार जब तक, 'युग प्रताप' बने रहो ||१६|| प्रार्थना हृदय हो प्रभु, ऐसा वलवान । विपदाएँ घनघोर घटा सी, उमडें चहुँ दिशि आन । पर्वत - ऊपर पतित विन्दु-सी, झेलू मन सुख मान ॥ १ ॥ असफल होकर सहस बार भी, मन को करूं न म्लान । लक्ष गुणित उत्साह घार कर, करूं कार्य प्रण ठान | ॥२॥ पूर्ण श्रात्म कर्तव्य करूं या, खुद होऊँ वलिदान । सन्मुख ज्वलित अग्नि भी लखकर, ह" न शका ठान ॥३॥ करो स्तवन परिहास करो था, यह ससार प्रजान । सत्य मार्ग को इच न छोड़, भय नही लाऊँ ध्यान ॥४॥ विकसित नरम रवरूप करूँ निज, वल का अतुल निधान । तनवल धनबल तृणवत समझ, घई नही अभिमान ||५|| (3) जो जितना अधिक नियन्त्रणहीन होता है, वह उतना ही अधिक अपने आस-पास मर्यादा का जाल बुनता है | हमारा घर साफ-सुथरा होगा तो पडोसी को उससे दुर्गन्ध नही मिलेगी । हम अहिंसक रहेगे तो पडोसी को हमारी ओर से क्लेश नही होगा । दूसरो को कष्ट न हो इसलिए हम अहिंसक रहे, अहिंसा का यह सही मार्ग नही है । हमारे मन मे किसी को कष्ट देने की भावना ही न हो । मैत्री, प्रमोद, करुणा र माध्यस्थ अहिंसा की चार भावनाये हैं। 2050
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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