Book Title: Samvayangasutram
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Agamoday Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृद्विरचितं चान्द्रकुलीननवाङ्गीवृत्तिकारक श्रीमदभयदेवसूरिविरचितंटीकोपतम् । श्रीसमवायाङ्गसूत्रम् । ७५१ श्रेष्ठि मगनभाइ कस्तूरचंद्रस्य विधवा बाह हीराकोर भरुच ६२५ श्रेष्ठि कस्तूरचंद्र नानचंद्र रूपाल ५०० श्रीशांतिनाथजीना देरासरना उपाश्रयना हा० बेन नवल. मुंबई प्रकाशयित्री-पूर्वोक्तमहाशयानां पूर्णद्रव्यसाहाय्येन शाह सूरचन्द्रात्मजवेणीचन्द्रद्वारा श्री आगमोदय समितिः । 'निर्णयसागर ' मुद्रणालये कोलभाटवीध्यां २३ तमे गृहे रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वेतनं एको रूप्यकः १-०-० प्रतयः १००० वीरसंवत् २४४४ विक्रमसंवत् १९७४ क्राईष्ट सन् १९१८ AMAVA For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-sågar Press, No 23, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Shah Venichand Surchand for Agamodaysamiti, Mehesana. For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाग० श्रीआगमवाचनामां मदद. 4EASSAGAR म. रकम. मददगारोनां नाम. गामर्नु नाम. बाकी. । म. रकम. मददगारोनां नाम. गामनु नाम. बाकी. ३००० शेठ उत्तमचंद खीमचंद पाटण. ५५१ बाबु चुनीलालजी पन्नालालजी पाटण. ५५१ |१५०० वोरा लल्लुभाइ कीशोरदास । ५०१ पारी त्रीकमदास हीराचंद मेसाणा. |१५०० दोसी कस्तूरचंद वीरचंद मेसाणा. ५०१ शेठ नगीनदास छगनलाल माणसा. ५०१ |१००१ शा. रायचंदभाइ दुर्लभदास कालीयावाडी. . ५०१ शा. कल्याणचंद उत्तमचंदनी |१००१ संघवी बुलाखीदास पुंजीराम मेसाणा. १००१ विधवाबाइ नंदुबाइ प्रभासपाटण. १००१ भणसाली रूपचंद मूलजीनी ५०१ शा. कल्याणचंद लक्ष्मीचंद विधवाबाई रामकुंवरबाइ पोरबंदर ५०१ परी. बालाभाइ देवचंद कपडबंज |१००१ गांधी रामचंद हरगोविन्दास मेसाणा. ५०१ शेठ जेसींगभाइ प्रेमाभाइ १००० शा. हालाभाइ मगनलाल पाटण. ० ___ केवलभाइ कपडवंज ५५१। शा. खुशालभाइ करमचंद वेरावळ. ० ५०० झवेरी कस्तूरचंद झवेरचंद सुरतबंदर वेरावळ Jain Educati o nal For Personal & Private Use Only H ainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम० ॥१॥ SAARISAN HOSSASSISK श्रीआगमछपाववामां मदद. म. रकम. अमूक सूत्रमां. मददगारर्नु नाम. गाम. बाकी. म.रकम. अमूक सूत्रमां. मददगारनुं नाम. गाम. बाकी. २२०० श्रीआचारां- वोरा जेसींगभाइ । ५०० सुयगडांग- बाई मोंधीबाई शेठ लल्लुभाइ गजीमा डोसाभाइ हस्ते वोरा, मेसाणा. . जीमां चुनीलालनी धणीयाणी सुरत. . लल्लुभाइ कीशोरदास ५०० " शेठ सोभाग्यचंद माणेकचंद, . १००१ सूयगडांग- शेठ नगीनदास १००० ठाणांगजीमां श्रीछाणीना संघतरफथी छाणी. जीमा जीवणजी नवसारी. शेठ लल्लुभाइ केवलदास कपडवंज. १००० " शेठ मगनलाल पीतांबरदास अमदावाद. ० . ५०१ " शेठ मगनलाल दीपचंद माणसा. ० १००० " शेठ दीपचंद सुरचंद सुरतबंदर. ० ७५१ समवायांगजीमां शेठमगनभाइ कस्तूरचंदनी दनी दीकरी बाइ परसन विधवा बाइ हीराकोर भरुच. . झवेरी कस्तूरचंद झवेरचंद सुरतबंदर. . ६२५ " शेठ कस्तुरचंद नानचंद रूपाल. . बाइ पारवती ते शा. दल श्रीशान्तिनाथना देरासरना छाराम वखतचंदनी विधवा अमदावाद. ०। उपाश्रयना हा० बेन नवल मुंबाइ. ६०१ " " शा. नथुभाइ लालच-कपडवंज. १०१ . ५०० " ५०० , For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० " SACROSA%AKRA म.रकम. अमृक सूत्रमा. मददगारर्नु नाम. गाम. बाकी. | म.रकम. अमूक सूत्रमा. मददगारनुं नाम. गाम. बाकी. ४२०० श्रीभगवतीजीमां शेठ उत्तमचंद मूलचंद तथा ७५० प्रश्नव्याकरणमा बाबु गुलाबचंदजी शेठ अभेचंद मूलचंद (प्रथमभागः) सुरत. १४०० अमीचंदजी झवेरी मुंबाइबंदर. . १२५० श्रीज्ञाताजीमां शेठ उत्तमचंद खीमचंद पाटण. १२५० १०१५ , शेठ मंछुभाइ तलकचंद सुरतबंदर. १०१५ १२०० " झवेरी मगनभाइ प्रतापचंद सुरत. . शेठ कल्याणचंद सोभा१००० , शेठ अमीचंद खुशालभाइ ग्य चंद झवेरी सुरतबंदर. . फुलचंद जवेरी. सुरतबंदर. ० । ३७२५ आवश्यकजीमा बाबु चुनीलालजी ५०१ उपाशकदशांग, पन्नालालजी झवेरी मुंबाइबंदर. ७२५ अंतगडदशांग, शेठ चुनीलाल छगनचंद ५५० उववाइजीमां शा. हरखचंद अमरतथा अनुत्तरोवबाइJश्राफ अरधा भागमा सुरतबंदर. ०. चंदनी दीकरी बेन रतन । १००० रायपसेणीजीमा पारी-सरूपचंद तथा तेजकोर सुरतबंदर. लल्लुभाइ मेसाणा. ० ५४० उववाइजीमां झवेरी नवलचंद उदेचंदनी शा. रायचंदभाइ विधवा बाई नंदकोर , सुरतबंदर. ० दुर्लभदास कालीयावाडी. . ३५०१ पनवणाजीमां श्रीकपडवंजना संघतरफथी ६५१ , शेठ मोहनलाल सांकलचंद अमदावाद. ० . पारी-मीठाभाइ कल्याणचं Jain Education a l For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम० ॥२॥ म.रकम. अमूक सूत्रमा. मददगारर्नु नाम. गाम. बाकी. | म. रकम. अमृक सूत्रमा. मददगारर्नु नाम. गाम. बाकी. दनी पेढीमांथी ज्ञानखाता ५०१ , . शा. शिवचंद सोमचंद सुरत. . मारफत परी-बालाभाइ दल ५०० , शेठ हरखचंद सोमचंदनी सुखभाइ रु.२३३१.चउद विधवा बाइ उमीयाकोर सुपननी उपजना रु.११७० कपडवंज. . ६२९ , वडाचौटाना संघतरफथी १८०० नंदीजीमां शेठ प्रेमचंद रायचंद मुंबाइबंदर. . ___ हा चंदुभाइ सुरत. १७५५ ओघनियुक्तिमां जैनविद्याशाला तरफथी ५०० , शेठ नानचंद धनाजी सुरत. सुबाजी रवचंद जयचंद अमदावाद.१५०० ५०१ हरकोई सूत्र ] शेठ सरुपचंद अभेचंद २८५१ चंदपन्नतिसूत्रमा झवेरी भगवानदास छपाववा माटे हस्ते शा. प्रेमचंद सुरत. हीराचंद मुंबाइबंदर. ८५१ ५३० विपाकसूत्रमा शेठ गुलाबचंद हरखचंद सुरत. २ ५०१ निरयावली) शेठ हरखचंद सोमचंद ५५० हरकोइ सूत्र श्रीतत्त्वबोध जैन श्राविकाशाला सूत्रमा हा० नेमचंदभाइ सुरत. ० छपाववा माटे तरफथी हा०बेन मवलंबेन सुरत. .. ५०१ हरकोइ सूत्र शेठ कल्याणचंद १००० हरकोइ सूत्र | शा मेघाजी चांपाजी तथा छपाववा माटे देवचंद सुरत. . छपाववा माटे Jशा लखमाजी मेघाजी कालीयावाडी . सं. १९७४ ना जेठवदी २ ने बुधे, मुंबई. ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् । नवाङ्गीवृत्तिकारकश्रीमदभयदेवसूरिवर्यविहितविवरणयुत श्रीमत्समवायाङ्गसूत्रम् । श्रावद्धमानमानम्य, समवायाङ्गवृत्तिका । विधीयतेऽन्यशास्त्राणां, प्रायः समुपजीवनात् ॥१॥ दुःसम्प्रदायादसदूहनाद्वा, भणिष्यते यद्वितथं मयेह । तद्धीधनैर्मामनुकम्पयद्भिः, शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैव ॥२॥ है। इह स्थानाख्यतृतीयाङ्गानुयोगानन्तरं क्रमप्राप्त एव समवायाभिधानचतुर्थाङ्गानुयोगो भवतीति सोऽधुना समार भ्यते, तत्र च फलादिद्वारचिन्ता स्थानाङ्गानुयोगवत् क्रमादवसेया, नवरं समुदायार्थोऽयमस्य, समिति-सम्यक् अवेत्याधिक्येन अयनमयः-परिच्छेदो जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः समवयन्ति वा For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृति: ॥ १ ॥ समवतरन्ति संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवाय इति, स च प्रवचनपुरुपस्याङ्गमिति समवायाङ्गम्, तत्र किल श्री श्रमणमहावीरवर्द्धमानखामिनः सम्बन्धी पञ्चमो गणधर आर्यसुधर्मस्वामी स्वशिष्यं जम्बूनामानमभि समवायाङ्गार्थमभिधित्सुः भगवति धर्माचार्ये बहुमानमाविर्भावयन् स्वकीयवचने च समस्तवस्तुविस्तारखभावावभासिके व लालोककलितमहावीरवचननिःश्रिततयाऽविगानेन प्रमाणमिदमिति शिष्यस्य मतिमारोपयन्निदमादावेव सम्बन्धसूत्रमाह - सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं - [ इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपञ्ज गरेणं अभयदपणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं वियट्टच्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिन्नेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वत्रुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तंजहा - आयारे १ सूयगडे २ ठाणे ३ समवाए ४ विवाहपन्नत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसाओ ८ अणुत्तरोववाइदसाओ ९ पण्हावागरणं १० विवागसुए ११ दिट्ठिवाए १२, तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाएति आहिते तस्स णं अयमट्ठे पन्नत्ते, तंजहा-] एगे आया एगे अणाया एगे दंडे एंगे अदंडे एगा किरिआ एगा अकिरिआ एगे लोए एगे अलोए एगे For Personal & Private Use Only १ सम वायः ॥ १ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - धम्मे एगे अधम्मे एगे पुण्णे एगे पावे एगे बंधे एगे मोक्खे एगे आसवे एगे संवरे एगा वेयणा एगा णिजरा १८। जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते, अप्पइठ्ठाणे नरए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते, पालए जाणविमाणे एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते, सव्वद्वसिद्धे महाविमाणे एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । अदानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते, चित्तानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते, सातिनक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइआणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, दोच्चाए पुढवीए नेरइयाणं जहन्नेणं एग सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एग पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, असुरकुमारिंदवजियाणं भोमिजाणं देवाणं अत्यंगइआणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असंखिज्जवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगइआणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असंखिजवासाउयगब्भवक्कंतियसंणिमणुयाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एग पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं ठिई पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्थेगइआणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना तेसि णं देवाणं उक्कोसे णं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, ते णं देवा Jain Education InENT For Personal & Private Use Only dilbelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा-18 एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारटे समु १समयांगे पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जे जीवा ते एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदु वायः श्रीअभय० क्खाणमंतं करिस्संति १८ ॥ सूत्रम् ॥१॥ वृत्तिः 'श्रुतम्'आकर्णितं 'मे' मया हे 'आयुष्मन् !' चिरजीवित!जम्बूनामन् ! तेणं'ति योऽसौ निर्मूलोन्मूलितरागद्वेषादिवि-13 ॥२॥ षमभावरिपुसैन्यतया भुवनभावावभासनसहसंवेदनपुरस्सरी विसंवादिवचनतया च त्रिभुवनभवनप्राङ्गणप्रसपत्सुधाधव लयशोराशिस्तेन महावीरेण भगवता-समोश्चर्यादियुक्तेन एव मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेणाख्यातम्-अभिहितमात्मादिवस्तुतत्त्वमिति गम्यते, अथवा 'आउसंतेणं'ति भगवतेत्यस्य विशेषणमायुष्मता चिरजीवितवता भगवतेति, अथवा पाठान्तरेण मयेत्यस्य विशेषणमिदं आवसता मया गुरुकुले आमृशता वा-संस्पृशता वा मया विनयनिमित्तं करतलाभ्यां गुरोः क्रमकमलयुगलमिति, यद्वा आउसंतेणं'ति आजुषमाणेन वा प्रीतिप्रवणमनसेति, यदाख्यातं तदधुनोच्यते'एगे आया इत्यादि, कस्यांचिद्वाचनायामपरमपि सम्बन्धसूत्रमुपलभ्यते, यथा-'इह खलु समणेणं भगवया'इत्यादि, तामेव च वाचनां बृहत्तरत्वाद्वयाख्यास्यामः, इदं च द्वितीयसूत्रं सङ्कहरूपप्रथमसूत्रस्यैव प्रपश्चरूपमवसेयम् , | अस्य चैवं गमनिका-'इह' अस्मिंल्लोके निर्ग्रन्थतीर्थे वा, खलु वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तथा च इहैव, न शा-1|| क्यादिप्रवचनेषु, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणस्तेन, इदं चान्तिमजिनस्य सहसम्पन्नं नामान्तरमेव, यदाह-'सहसं महसंवेदना एवं मिाणमायुष्मत HAREGARASHRA CHAEOLOGERSARBASNS in Education For Personal & Private Use Only ne brary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुइयाए समणे'त्ति, भगवतेति पूर्ववत् , महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरस्तेन, इदं च महासात्त्विकतया प्राणप्रहाणप्रवणपरीषहोपसर्गनिपातेऽप्यप्रकम्पत्वेन पीयूषपानप्रभुभिराविर्भावितम् , आह च–'अयले भयभेरवाणं खंतिखमे परीसहोवसग्गाणं पडिमाणं पारए देवेहिं (से णाम) कए महावीरे'त्ति, कथम्भूतेनेत्याह-आदौ-प्राथम्येन श्रुतधर्ममाचारादिग्रन्थात्मकं करोति-तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरस्तेन, तथा तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थ-| प्रवचनं तदव्यतिरेकादिह सङ्घस्तीर्थ तस्य करणशीलत्वात्तीर्थकरस्तेन, तीर्थकरत्वं च तस्य नान्योपदेशबुद्धत्वपूर्वकमि| त्यत आह-खयम्-आत्मनैव नान्योपदेशतः सम्यग्बुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति खयंसम्बुद्धस्तेन, स्वयंसम्बुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्येव संभाव्यं पुरुषोत्तमत्वादस्येत्यत आह-पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोगतत्वाद्-ऊर्ववर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमस्तेन, अथ पुरुषोत्तमत्वमेव सिंहाद्युपमानत्रयेणास्य समर्थयन्नाह-सिंह इव सिंहः पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः, लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्य तु | भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाप्यमानस्याप्यभीतत्वात् कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुजताकरणाच इत्यतस्तेन, तथा वरं च तत्पुण्डरीकंच वरपुण्डरीकं-धवलं सहस्रपत्रं पुरुष एव वरपुण्डरीकं पुरुषवरपुण्डरीकं, धवलता चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वैश्च शुभैरनुभावैः शुद्धत्वादित्यतस्तेन, तथा वरश्चासौ गन्ध १ सहसन्मल्या श्रमणः। २ अचलो भयभैरवयोः क्षान्तिक्षमः परिषहोपसर्गाणां प्रतिमानां पारगो देवैः कृतं महावीर इति । Jain Educa For Personal & Private Use Only * nelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १सम वायः श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥३॥ हस्ती च वरगन्धहस्ती पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनैव सर्वगजा भज्यन्ते तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन ईतिपरचक्रदुर्भिक्षजनडमरकादीनि दुरितानि शतयोजनमध्ये नश्यन्तीति अतस्तेन पुरुषवरगन्धहस्तिना, न भगवान् पुरुषाणामेवोत्तमः किन्तु सकलजीवलोकस्यापीत्यत आह-लोकस्य-तिर्यग्नरनारकनाकिलक्षणजीवलोकयोत्तमः-चतुस्त्रिंशद्बुद्धातिशयाद्यसाधारणगुणगणोपेततया सकलसुरासुरखचरनरनिकरनमस्यतया च प्रधानो लोकोत्तमस्तेन, लोकोत्तमत्वमेवास्य पुरस्कुर्वन्नाह-लोकस्य-सज्ञिभव्यलोकस्य नाथः-प्रभुलॊकनाथस्तेन, नाथत्वं चास्य 'योगक्षेमकृन्नाथ' इति वचनादप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य तस्यैव पालनेन चेति, लोकनाथत्वं च तात्त्विकं तद्धितत्वे सति सम्भवतीत्याह-लोकस्य-एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हितः-आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवर्ती लोकहितस्तेन, यदेतन्नाथत्वं हितत्वं वा तद्भव्यानां यथावस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनेन नान्यथेत्याह-लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्नरामररूपस्यान्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपस्तेन, इदं च विशेषणं द्रष्टलोकमाश्रित्योक्तम् , अथ दृश्यलोकमाश्रित्याह-लोकस्य-लोक्यते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमखभावस्थाखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावखभावावभासनसमर्थकेवलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रद्योतं-प्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरस्तेन, ननु लोकनाथत्वादिविशेषणयोगी हरिहरहिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थिकमतेन सम्भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां तद्विशेषाभिधानाया SECORRECANCHAR Roy For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह-न भयं दयते-प्राणापहरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः अभया वा-सर्वप्राणिमयपरिहारवती दया-घृणा यस्यासावभयदयो, हरिहरादिस्तु नैवमिति, तेनाभयदयेन, न केवलमसावपकारकारिणामप्यनर्थपरिहारमात्रं करोति अपित्वर्थप्राप्तिं करोतीति दर्शयन्नाह-चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागकारित्वात्तद्दयते । इति चक्षुर्दयस्तेन, यथा हि लोके चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितस्थानमार्ग दर्शयन् महोपकारी भवतीत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह-15 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपथं दयत इति मार्गदयस्तेन, यथा हि लोके चक्षरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्सान् निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवति एवमिहापीति दर्शयन्नाह-शरणं-त्राणमज्ञानोपद्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं तच्च परमार्थतो निर्वाणं तयत इति शरणदयस्तेन, यथा हि लोके चक्षुर्मार्गशरणदानात् दुःस्थानां जीवितव्यं ददाति एवमिहापीति दर्शयन्नाह-जीवनं जीवो-भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्यर्थस्तं दयत इति जीवदयो जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयोऽतस्तेन, इदं चानन्तरोक्तं विशेषणकदम्बकं भगवतो धर्ममयमूर्तिवात्सम्पन्नमिति धर्मात्मकतामस्यान्यविशेषणपञ्चकनाह-धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतजन्तुधारणखभावं दयते-12 ददातीति धर्मदयस्तेन, तहानं चास्य तद्देशनादेवेत्यत आह-धर्मम्-उक्तलक्षणं देशयति-कथयतीति धर्मदेशकस्तेन, धर्मदेशकत्वं चास्य धर्मखामित्वे सति न पुनर्यथा नटस्येति दर्शयन्नाह-धर्मस्य-क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य नायकः-खामी यथावत्पालनाद्धर्मनायकस्तेन, तथा धर्मस्य सारथिर्धर्मसारथिः, यथा रथस्य सारथी रथं रथिकमश्वांश्च GAMCALCALCCALCASEARCOACAN Jain Education MXH For Personal & Private Use Only allanelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्माङ्गानां संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारथिर्भवतीति तेन धर्मसारथिना, तथा , यांगे त्रयःसमुद्राश्चतुर्थो हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः-पर्यन्तास्तेषु खामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्ती च श्रीअभय०४ चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ पृथिव्याः चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः धर्मविषये वरचातुवृत्तिः रन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भग॥४ ॥ वान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् तथोच्यत इति तेन धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्त्तिना, एतच धर्मदाय-12 कत्वादिविशेषणपञ्चकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्यत आह-अप्रतिहते-कटकुड्यपर्वतादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरस्तेन, एवंविधसंवेदनसंपदुपेतोऽपि छद्मवान् मिथ्योपदेशित्वान्नोपकारीति निश्छद्मताप्रतिपादनायास्याह, अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं सम्पन्नं ?, अत्रोच्यते, आवरणाभावाद्, एतदेवाह-व्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्य स तथा तेन व्यावृत्तछमना, मायावरणयोश्चाभावोऽस्य रागादिजयाजात इत्यत आह-जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनस्तेन, रागादिजयश्चास्य रागादिखरूपतजयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह-जानाति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञापकस्तेन, अनन्तरमस्य स्वार्थसम्पत्त्युपाय उक्तः, अधुना स्वार्थसम्पत्तिपूर्वकं परार्थसम्पादकत्वं विशेषणपदकेनाह-तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, तेन, तथा तारयति परानप्युपदेशवर्त्तिन CROCOCOCCESCOREOGHUSAX For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education I इति तारकस्तेन, तथा बुद्धेन जीवादितत्त्वं, तथा बोधकेन जीवादितत्त्वमेवापरेषां तथा मुक्तेन वाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनात्, मोचकेन तत एव परेषां तथा मुक्तत्वेऽपि सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषेणेव भाविजडत्वेन, तथा शिवं सर्वाबाधारहितत्वात्, अचलं स्वाभाविकप्रायोगिक चलनहेत्वभावात्, अरुजम् - अविद्यमानरोगं, शरीरमनसोरभावात्, अनन्तमनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात्, अक्षयम् - अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्, अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् पूर्णिमाचन्द्रमण्डलवत्, अव्याबाधमपीडाकारित्वात्, 'अपुनरावर्तकम्' अविद्यमान पुनर्भवाबतारं तद्वीजभूतकर्माभावात् सिद्धिगतिरिति नामधेयं यस्य तत्सिद्धिगतिनामधेयं तिष्ठति यस्मिन् कर्मकृद्वि| काररहितत्वेन सदाऽवस्थितो भवति तत्स्थानं - क्षीणकर्मणो जीवस्य खरूपं लोकाग्रं वा, जीवखरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, तदेवंभूतं स्थानं सम्प्राप्तुकामेन – यातुमनसा न तु तत्प्राप्तेन, तत्प्रातस्याकरणत्वेन प्रज्ञापनाभावात् प्राप्तुकामेनेति यदुच्यते तदुपचाराद्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति, 'मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तम' इति वचनादिति । तदेवमगणितगुणगणसम्पदुपेतेन भगवता 'इमं' ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षमासनं च द्वादशाङ्गानि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गं गणिनः- आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणिपिटकं, यथा हि वालञ्जुकवाणिजकस्य पिटकं सर्वखाधारभूतं भवति एवमाचार्यस्य द्वादशाङ्गं ज्ञानादिगुणरत्नसर्वखाधारकल्पं भवतीति भावः, प्रज्ञप्तं तीर्थङ्करनामकर्मोदयवर्तितया प्रायः कृतार्थेनापि परोपकाराय प्रकाशितं, 'तद्यथे' For Personal & Private Use Only Mnelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥५॥ Jain Education f त्युदाहरणोपदर्शने, आचार इत्यादि द्वादश पदानि वक्ष्यमाणनिर्वचनानीति कण्ठ्यानि, 'तत्थ णं'ति तत्र द्वादशाङ्गे णमित्यलङ्कारे यत्तच्चतुर्थमहं समवाय इत्याख्यातं तस्यायमर्थः - आत्मादिः अभिधेयो भवतीति गम्यते, 'तद्यथे 'ति वाचनान्तरद्वितीय सम्बन्धसूत्रव्याख्येति । इह च विदुषा पदार्थसार्थमभिदधता सक्रम एवासावभिधातव्य इति न्यायः, | तत्राचार्य एकत्वादिसङ्ख्याक्रमसम्बन्धानर्थान् वक्तुकाम आदावेकत्वविशिष्टानात्मनश्च सर्वपदार्थभोजकत्वेन प्रधानत्वादात्मादीन् सर्वस्य वस्तुनः सप्रतिपक्षत्वेन सप्रतिपक्षान् 'एगे आया' इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैराह, स्थानाङ्गोक्तार्थानि चैतानि प्रायस्तथापि किञ्चिदुच्यते - एक आत्मा, कथञ्चिदिति गम्यते, इदं च सर्वसूत्रेष्वनुगमनीयं, तत्र प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः, अथवा प्रतिक्षणं पूर्वस्वभावक्षया परखरूपोत्पादयोगेनानन्तभेदोऽ| पि कालत्रयानुगामि चैतन्यमात्रापेक्षया एक एव आत्मा, अथवा प्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनानन्तत्वेऽप्यात्मनां सग्रहनयाश्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वमात्मन इति । तथा न आत्मा अनात्मा - घटादिपदार्थः, सोऽपि प्रदेशार्थतया सत्यासयेयानन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूपद्रव्यार्थापेक्षया एक एव, एवं संतानापेक्षयाऽपि, तुल्यरूपापेक्षया तु अनुपयोगलक्षणैकस्वभावयुक्तत्वात्कथञ्चिद्भिन्नखरूपाणामपि धर्मास्तिकायादीनामनात्मनामेकत्वमवसेयमिति । तथा एको दण्डो दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामात्रं वा, एकत्वं चास्य सामान्यनयादेशाद, एवं सर्वत्रैकत्वमवसेयं । तथैकोदण्डः - प्रशस्तयोगत्रयमहिंसामात्रं वा । तथैका क्रिया- कायिक्यादिका आस्तिक्यमात्रं वा । तथैका अक्रिया For Personal & Private Use Only १ सम वायः ॥ ५ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगनिरोधलक्षणा नास्तिकत्वं वा । तथैको लोकः, त्रिविधोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थतया। तथा एकोऽलोका अनन्तप्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया, अथवैते लोकालोकयोबहुत्वव्यवच्छेदनपरे सूत्रे, अभ्युपगम्यन्ते च कैश्चित हवो लोकाः, अतस्तद्विलक्षणा अलोका अपि तावन्त एवेति, एवं सर्वत्र गमनिका कार्या । नवरं धर्मो-धर्मास्तिकायः, अधर्मः-अधर्मास्तिकायः, पुण्य-शुभं कर्म, पापम्-अशुभं कर्म, बन्धो-जीवस्य कर्मपुद्गलसंश्लेषः, स चैकः सामान्यतः, सर्वकर्मबन्धव्यवच्छेदावसरे वा पुनर्बन्धाभावाद्, अनेनोद्देशेन मोक्षाश्रवसंवरवेदनानिर्जराणामप्येकत्वमवसेयमिति । इह चानात्मग्रहणेन सर्वेषामनुपयोगवतामेकत्वं प्रज्ञाप्य पुनर्लोकादितया यदेकत्वप्ररूपणं तत्सामान्यविशेषापेक्षमवगन्तव्यमिति ॥ एवं चात्मादीनां सकलशास्त्रप्रपञ्चानामर्थानां प्रत्येकमेकत्वमभिधाय अधुनात्मपरिणामरूपाणामर्थानां तदेवाह-'जम्बू' इत्यादि सूत्रसप्तकमाश्रयविशेषाणां तथा 'इमीसे रयणे'त्यादिसूत्राष्टादशकमाश्रयिणां स्थित्यादिधर्माणां प्रतिपादनपरं सुबोधं, नवरं 'जम्बुद्दीवे दीये' इह सूत्रे 'आयामविक्खंभेणं'ति क्वचित्पाठो दृश्यते, क्वचित्तु 'चकवालविक्खंभेणं'ति तत्र प्रथमः सम्भवति, अन्यत्रापि तथा श्रवणात्, सुगमश्च, द्वितीयस्त्वेवं व्याख्येयः-चक्रवालविष्कम्भेन-वृत्तव्यासेन, इदं च प्रमाणयोजनमवसेयम् , यदाह-"आयङ्गलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥१॥" तथा पालक-यानविमानं सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियो १ आत्मांगुलेन वस्तु उत्सेधांगुलप्रमाणतो मिनु देहम् । नगपृथ्वीविमानानि मिनु प्रमाणांगुलेनैव ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ समवाय: श्रीसमवा- गिकपालकाभिधानदेवकृतं वैक्रियं, यानं-गमनं तदर्थ विमानं (यानविमानं) यायतेऽनेनेति यानं तदेव वा वि-12 यांगे मानं यानविमानं पारियानिकमिति यदुच्यते, अत्थी'त्यादि, अस्ति-विद्यते एकेषा-केषाञ्चिन्नैरयिकाणामेकं पल्योपमं ४ श्रीअभय | स्थितिरितिकृत्वा 'प्रज्ञप्ता' प्रवेदिता मया अन्यैश्च जिनैः, सा चतुर्थे प्रस्तटे मध्यमाऽवसेयेति, एवमेकं सागरोपमं त्रयोवृत्तिः दशे प्रस्तटे उत्कृष्टा स्थितिः इति ॥ 'असुरिन्दवजियाणं ति चमरबलिवर्जितानां 'भोमेजाणं'ति भवनवासिनां भूमौ॥६॥ पृथिव्यां रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात्तेषामिति, तेषां चै पल्योपमं मध्यमा स्थितियत उत्कृष्टा देशोने द्वे पल्योपमे सा, आह च-"दाहिण दिवड्ड पलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं"ति, 'असंखेजे'त्यादि, असङ्ख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा ते Xच ते सजिनश्च-समनस्कास्ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसङ्ग्येयवर्षायुःसज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्तेषा केषा|श्चिद् ये हेमवतैरण्यवतवर्षयोरुत्पन्नास्तेषामेकं पल्योपमं स्थितिः, एवं मनुष्यसूत्रमपि, नवरं गर्भ-गर्भाशये व्युत्क्रान्तिःउत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिका न समूर्च्छनजा इत्यर्थः। वाणमन्तराणं देवाणं'ति, देवानामेव न तु देवीनां, तासामर्द्धप-| ल्योपमस्य प्रतिपादितत्वात् , 'जोइसियाणं देवाणं ति चन्द्रविमानदेवानां, न सूर्यादिदेवानां, नापि चन्द्रादिदेवीनां, | 'पंलियं च सयसहस्सं चन्दाणवि आउयं जाण' इतिवचनात् , 'सोहम्मे कप्पे देवाणं'ति इह देवशब्देन देवा देव्यश्च गृहीताः, सौधर्मे हि पल्योपमाद्धीनतरा स्थितिर्जघन्यतोऽपि नास्ति, इयं च प्रथमप्रस्तटेऽवसेया, 'सोहम्मे कप्पे अत्थे देवाणं तिहार चन्द्रादिदेवी पताऽपि नास्ति. १ दाक्षिणात्यानां सार्ध पल्योपमं वे देशोने उत्तरत्यानाम् ॥ २ पल्योपमं च शतसहस्राधिकं चन्द्राणामप्यायुजर्जानीहि । For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गइयाणं देवाणं एग सागरोवम मिति, अत्र देवानामेव ग्रहणं न तु देवीनां, उत्कृष्टतोऽपि तत्र तासां पञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वात् , तथा एकं सागरोपममिति मध्यमस्थित्यपेक्षया, उत्कर्षतस्तत्र सागरोपमद्वयसद्भावात् , प्रस्तटापेक्षया त्वेषा सप्तमे प्रस्तटे मध्यमावसेया। 'ईसाणे कप्पे देवाण'मित्यत्र देवग्रहणेन देवा देव्यश्च गृह्यन्ते, यतस्तत्र सातिरेकपल्योपमादन्या जघन्यतः स्थितिरेव नास्ति, 'ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाण'मित्यत्र देवानामेव ग्रहणं न |देवीनां, तत्र तासामुत्कर्षतोऽपि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वादिति, तथा ये देवाःसागरं-सागराभिधानमेवं सुसागरं सागरकान्तं भवं मनुं मानुषोत्तरं लोकहितमिह चकारो द्रष्टव्यः, समुच्चयस्य द्योतनीयत्वाद्, विमानं-देवनिवासविशेषमासाद्येति शेषः, देवत्वेन न तु देवीत्वेन तासां सागरोपमस्थितेरसम्भवात् उत्पन्ना-जातास्तेषां देवीनामेकं सागरोपमं स्थितिः, एतानि च विमानानि सप्तमे प्रस्तटेऽवसेयानि ॥ स्थित्यनुसारेण च देवानामुच्छासादयो भवन्तीति तान दर्शयन्नाह ते णमित्यादि, येषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिस्ते देवा णमित्यलङ्कारे अर्द्धमासस्यान्ते इति शेषः आनन्ति प्राणन्ति, एतदेव क्रमेण व्याख्यानयन्नाह-उच्छ्सन्ति निःश्वसन्ति, वाशब्दाः विकल्पार्थाः, तथा तेषामेव वर्षसहस्रस्यान्ते इति शेषः, आहारार्थः-आहारप्रयोजनमाहारपुद्गलानां ग्रहणमाभोगतो भवति, अनाभोगतस्तु प्रतिसमयमेव विग्रहादन्यत्र भवतीति, गाथेह-जैस्स जइ सागरोवमाइं ठिइ तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिँ । ऊसासो दे २ स. १ यस्य यावन्तिः सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावद्भिः पक्षैः । उच्छवासो देवानां वर्षसहस्रराहारः ॥१॥ Jain Education For Personal & Private Use Only L uinelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FACES २समवायः यांग श्रीसमवा वाणं वाससहस्सेहिँ आहारो ॥१॥ त्ति, सन्ति–विद्यन्ते 'एगइया' एके केचन 'भवसिद्धियत्ति भवा-भाविनी | ६ सिद्धिः-मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः-भव्याः ‘भवग्गहणेणं ति भवस्य-मनुष्यजन्मनो ग्रहणम्-उपादानं भवग्रहणं| श्रीअभय तेन सेत्स्यन्ति अष्टविधमहर्द्धिप्राप्त्या भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्त्वं 'मोक्षन्ति' कर्मराशेः परिनिर्वास्यन्ति-कर्मकृतविकावृत्तिः रविरहाच्छीतीभविष्यन्ति, किमुक्तं भवति?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति ॥ सामान्यनयाश्रयणादेकतया वस्तून्यभिधायाधुना विशेषनयाश्रयणाद्वित्वेनाह दो दंडा पन्नत्ता, तं०-अट्ठादंडे चेव अणहादंडे चेव, दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव, दुविहे बन्धणे पन्नत्ते, तंजहा-रागबन्धणे चेव दोसबन्धणे चेव, पुव्वाफग्गुणीनक्खत्ते दुतारे पं०, उत्तराफग्गुणी नक्खत्ते दुतारे पं०, पुव्वाभद्दवया नक्खत्ते दुतारे पं०, उत्तराभवया नक्खत्ते दुतारे पं०, इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दो पलिओवमाई ठिई पं० दुचाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दो सागरोवमाइं ठिई पं० असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दो पलिओवमाइं ठिई पं० असुरकुमारिंदवजियाणं भोमिजाणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिई पं० असंखिजवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिआणं अत्थेगइयाणं दोपलिओवमाई ठिई ५० असंखिज्जवासाउयसन्नि० माणुस्साणं अत्थेगइयाणं देवाणं (च) दो पलिओवमाइं ठिई पं० सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाइं ठिई पं० ईसाणे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाइं ठिई पं० सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पं० ईसाणे कप्पे देवाणं उक्को dain Education International For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CANCHORECASCIENCACHECIAL सेणं साहियाइं दो सागरोवमाइं ठिई पं० सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमाइं ठिई पं० माहिंदे कप्पे देवाणं जहणणं साहियाइं दो सागरोवमाई ठिई प० जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवणं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पं० ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ । अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् २॥ 'दो दंडे'त्यादि सुगममाद्विस्थानकसमाप्तेः, नवरमिह दण्डराशिवन्धनार्थ सूत्राणां त्रयं नक्षत्रार्थ चतुष्टयं स्थित्यर्थ त्रयोदशकमुच्छासाद्यर्थ त्रयमिति, तत्रार्थेन-खपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो-हिंसा अर्थदण्डः एतद्विपरीतोऽनर्थदण्ड इति, तथा रत्नप्रभायां द्विपल्योपमा स्थितिश्चतुर्थप्रस्तटे मध्यमा, द्वितीयायां वे सागरोपमे स्थितिः षष्ठप्रस्तटे मध्यमा ज्ञेया, तथा असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिनां द्वे देशोने पल्योपमे स्थितिरौदीच्यनागकुमारादीनाश्रित्यावसेया, यत आह-दो देसूणुत्तरिल्लाणं'ति, तथा असङ्ख्येयवायुषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च हरिवपरम्यकवर्षजन्मनां द्विपल्योपमा स्थितिरिति ॥२॥ अथ त्रिस्थानकं तओ दंडा पं० तं०-मणदण्डे वयदंडे कायदंडे, तओ गुत्तीओ पं०, तंजहा-मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती, तओ सल्ला पं० तं०मायासल्ले णं नियाणसल्ले णं मिच्छादसणसल्ले णं, तओ गारवा पं० तं०-इद्धीगारवे णं रसगारवे णं सायागारवे णं, तओ विरा For Personal & Private Use Only rww.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांग ३समवायः श्रीअभय० वृत्तिः ॥८ ॥ CIRCLECISION हणा पं० २०-नाणविराहणा दंसणविराहणा चरित्तविराहणा, मिगसिरनक्खत्ते तितारे पं०, पुस्सनक्खत्ते तितारे पं० जेट्टानक्खत्ते तितारे पं० अभीइनक्खत्ते तितारे पं० सवणनक्खत्ते तितारे पं० अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पं० भरणीनक्खत्ते तितारे पं०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिई पं०, दोचाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पं०, तचाए णं पुढवीए नरेइयाणं जहण्णेणं तिणि सागरोवमाई ठिई पं०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिण्णि पलिओवमाई ठिई पं०, असंखिजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई ठिई पं०, असंखिजवासाउयसन्निगन्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं ठिई पं०, सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं तिण्णि पलिओवमाई ठिई पं०, सणकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई, पं०, जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकरपभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवणं चंदलेसं चंदज्झयं चंद सिंगं चंदसिह चंदकूडं चंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पं० ते णं देवा तिण्डं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ३॥ 'तओं' इत्यादि सर्व सुगम, नवरमिह दण्डगुप्तिशल्यगौरवविराधनार्थ सूत्राणां पञ्चकं, नक्षत्रार्थ सप्तकं, स्थित्यर्थ नवकम् , उच्छासाद्यर्थ त्रयमिति, तथा दण्ड्यते-चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः-दुष्प्रयुक्तमनः ॥८॥ Jain Education A nal For Personal & Private Use Only Lainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभृतयः मन एव दण्डो मनोदण्डो मनसा वा दुष्प्रयुक्तेनात्मनो दण्डो-दण्डनं मनोदण्डः एवमितरावपि, तथा गोपनानि गुप्तयः-मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभप्रवृत्तिकरणानि चेति । तथा तोमरादिशल्यानीव शल्यानि दुःखदायकत्वात् मायादीनि, तत्र माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यं 'ण'मित्यलङ्कारे एवमितरे अपि नवरं निदानं-देवादिऋद्धीनां दर्शनश्रवणाभ्यामितो ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठानान्ममैता भूयासुरित्यध्यवसायो मिथ्यादर्शनम्-अतत्त्वार्थश्रद्धानमिति । तथा गौरवाणि-अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि तानि च संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतुकर्मनिदानानि, तत्र ऋद्या-नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम् , ऋद्धिप्राप्त्यभिमानतदप्राप्तिप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवं रसगौरवं सातया गौरवं सातगौरवं चेति । तथा विराधनाः-खण्डनाः, तत्र ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना-ज्ञानप्रत्यनीकतानिवादिरूपा एवमितरे अपि, नवरं दर्शनं-सम्यग्दर्शनं क्षायिकादि चारित्रं-सामायिकादीति । तथा असङ्ख्यातवर्षायुपां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवकुरूत्तरकुरुजन्मनां त्रीणि पल्योपमानीति, तथा आभङ्करं प्रभङ्करं आभङ्करप्रभङ्करं चन्द्रं चन्द्रावतै चन्द्रप्रभ चन्द्रकान्तं चन्द्रवर्ण चन्द्रलेश्यं चन्द्रध्वजं चन्द्रशृङ्गं चन्द्रसृष्टं चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरावतंसकं विमानमित्यादि ॥३॥ चत्तारि कसाया प० तं०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, चत्तारि झाणा प० तं0-अट्टज्झाणे रुद्दज्झाणे धम्मज्झाणे सुक्कज्झाणे, चत्तारि विगहाओ प० त०-इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा, चत्तारि सण्णा प० तं०-आहार० JainEducation ) For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४सम यांगे वायः वृत्तिः श्रीसमवा- भय० मेहुण० परिग्गहसण्णा चउबिहे बन्धे प००-पगइबंधे ठिइबन्धे अणुभावबन्धे पएसबन्धे, चउगाउए जोयणे प०, अणु राहानक्खत्ते चउतारे प०, पुव्वासाढानक्खत्ते चउतारे प०, उत्तरासादानक्खत्ते चउतारे प०, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेश्रीअभय० गइयाणं नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नरेइयाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई प०, असुर कुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओ॥९ ॥ वमाइं ठिई प०, सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा किहिं सुकिहिँ किट्ठियावत्तं किढिप्पमं किद्विजुत्तं किट्ठिवणं किहिलेसं किट्ठिज्झयं किद्विसिंग किढिसिर्ट किटिकूडं किट्टत्तरवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा चउण्हद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसिं देवाणं चउहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, अत्थेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ४॥ चतुःस्थानकमपि सुनममेव, नवरं कषायध्यानविकथासज्ञाबन्धयोजनार्थ सूत्राणां पदकं, नक्षत्रार्थ त्रयं, स्थित्यर्थ है। है पदकं, शेषं तथैव, अन्तर्मुहूर्त्त यावञ्चित्तस्यैकाग्रता योगनिरोधश्च ध्यानं, तत्रात मनोज्ञामनोज्ञेषु वस्तुषु वियोगसंयो- ॥९॥ गादिनिबन्धनचित्तविक्लवलक्षणं रौद्रं हिंसानृतचौर्यधनसंरक्षणाभिसन्धानलक्षणं धर्नामाज्ञादिपदार्थस्वरूपपर्यालोच-2 नैकाग्रता शुक्लं पूर्वगतश्रुतावलम्बनेन मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति, तथा विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्यादिविषयाः dain Education International For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAUSAMACEUSALAMOROSCG कथा विकथाः, तथा सज्ञाः-असातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयसम्पाद्या आहाराभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषाः, तथा सकपायत्वाजीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धन-आदानं बन्धः, तत्र प्रकृतयः कर्मणोंऽशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां बन्धः प्रकृतिबन्धः तथा स्थितिः-तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निवर्तनं स्थितिबन्धः तथा अनभावो-विपाकस्तीत्रादिभेदो रसस्तस्य बन्धोऽनुभाववन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्धः-सम्बन्धनं प्रदेशबन्ध इति, तथा कृष्टिसुकृष्टयादीनि द्वादश विमानानि पूर्वोक्तविमाननामानुसारवन्तीति ॥ ४ ॥ पंच किरिया प० त०–काइया अहिगरणिया पाउसिआ पारितावणिआ पाणाइवायकिरिया, पंच महव्वया प० त०सवाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं सव्वाओ अदत्तादाणाओ वेरमणं सव्वाओ मेहूणाओ वेरमणं सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं, पंच कामगुणा प० तं०-सद्दा रूवा रसा गंधा फासा, पंच आसवदारा प० तं-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा, पंच संवरदारा प० तं—सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया, पंच निजरहाणा प० तं०-पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिग्गहाओ वेरमणं, पंच समिईओ प० तं०ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल पारिद्वावणियासमिई, पंच अत्थिकाया प० तं०-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए, रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे प०, dan Education For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५समवायः श्रीसमवा पुणवसुनक्खत्ते पंचतारे प०, हत्थनक्खत्ते पंचतारे ५०, विसाहानक्खत्ते पंचतारे प०, धणिहानक्खत्ते पंचतारे प०, इमीसे णं यांगे रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच पलिओवमाई ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नरेइयाणं पंच सागरोश्रीअभय०४ वमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पंच पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच वृत्तिः पलिओवमाइं ठिई प०, सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वा यप्पभं वायकंतं वायवण्णं वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिद्धं वायकूडं वाउत्तरवडिंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं ॥१०॥ सूरवणं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंगं सूरसिटुं सूरकूडं सूरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा पंचण्डं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं पंचर्हि वाससहस्सेहिं आहारठे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ५॥ पञ्चस्थानकमपि सुगम, नवरं क्रियामहाव्रतकामगुणाश्रवसंवरनिर्जरास्थानसमित्यस्तिकायार्थ सूत्राणामष्टकं, नक्षत्रार्थ पञ्चकं, स्थित्यर्थ पदकं, उच्छासाद्यर्थ त्रयमेवेति, तथा क्रियाः-व्यापारविशेषाः तत्र कायेन निवृत्ता कायिकी, यचेष्टेत्यर्थः, अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं तेन निवृत्ता आधिकरणिकी-खङ्गादिनिर्वर्तनादि- लक्षणेति, प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन निवृत्ता प्राद्वेषिकी परितापनं-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया प्रतीतेति, तथा काम्यन्ते-अभिलष्यन्ते इति कामास्ते च ते गुणाश्च-पुद्गलधर्माः शब्दादय इति ॥१०॥ JainEducation For Personal & Private Use Only rebrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामगुणाः कामस्य वा-मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणाः-शब्दादय इति, तथा आश्रवद्वाराणि-कर्मोपादानोपाया है। मिथ्यात्वादीनि संवरस्य-कर्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणि-मिथ्यात्वाद्याश्रवद्वारविपरीतानि सम्यक्त्वादीनि, तथा निर्जरा-देशतः कर्मक्षपणा तस्याः स्थानानि-आश्रयाः कारणानीतियावन्निर्जरास्थानानि-प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि महाव्रतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्राभिहितानि स्थूलशब्दविशेषितानि अणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहैषामभिहितं, तथा समितयः-सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्र्यासमितिः-गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारतः प्रवृत्तिः भाषासमितिः-निरवद्यवचनप्रवृत्तिः, एषणास-13 मितिः-द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्रयोरुपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणेअवस्थापने समितिः-सुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोचारस्य–पुरीषस्य प्रश्रवणस्य-मूत्रस्य खेलस्यनिष्ठीवनस्य सिंघाणस्य-नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य-देहमलस्य परिष्ठापनायां-परित्यागे समितिः-स्थण्डिलादिदोषपरिहारतः प्रवृत्तिरिति पञ्चमी, अस्तिकायाः-प्रदेशराशयः धर्मास्तिकायादयो गतिस्थित्यवगाहोपयोगस्पर्शादिलक्षणाः, स्थितिसूत्रेषु स्थितेरुत्कृष्टादिविभाग एवमनुगन्तव्यः, यदुत-सांगरमेगं १ तिय २ सत्त ३ दस य ४ सत्तरस ५ तह य बावीसा ६। तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसुवि कमेण मुढवीसु॥१॥ जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए १ सागरोपममेकं त्रीणि सप्त दश च सप्तदश तथा च द्वाविंशतिः । त्रयस्त्रिंशत् यावत् स्थितिः सप्तखपि कमेण पृथ्वीषु ॥१॥ या प्रथमायां ज्येष्ठा सा अग्रेतनायां - Jain Educati o n For Personal & Private Use Only B ainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा याग श्रीअभय वृत्तिः ॥११॥ SSSSSSSS कणिढिया भणिया। तरतमजोगो एसो दस वाससहस्स रयणाए ॥२॥ तथा-'दो १ साहि २ सत्त ३ साहिय ५-६ सम४ दस ५ चोदस ६ सत्तरेव, अयराइं । सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि इक्किकमारोवे ॥३॥पलियं १ अहियं २ दो सार PI वायौ ३ साहिय ४ सत्त ५ दस ६ चउद्दस ७ (तहय)। सत्तरस ८ सहस्सारे तदुवरि इकिकमारोवे ॥४॥"त्ति, तथा वातं सुवातमित्यादीनि द्वादश वाताभिलापेन विमाननामानि तावन्त्येव सूराभिलापेनेति ॥५॥ छ लेसाओ पण्णत्ता तंजहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा, छ जीवनिकाया प० तं०-पुढवीकाए आऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए, छबिहे बाहिरेत वोकम्मे प० तं०-अणसणे ऊणोयरिया वित्तीसंखेवो रसपरिचाओ कायकिलेसो संलीणया, छबिहे अभितरे तवोकम्मे प० तं०-पायच्छित्तं विणओ वेयावचं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो, छ छाउमत्थिया समुग्घाया प० तं०–वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतिअसमुग्याए वेउब्वियसमुग्घाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए, छविहे अत्थुग्गहे प० तं०-सोइंदियअत्थुग्गहे चक्खुइंदियअत्थुग्गहे पाणिंदिअअत्थुग्गहे जिभिदियअत्थुग्गहे फासिंदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्थुग्गहे, कत्तियानक्खत्ते छतारे प० असिलेसानक्खत्ते छतारे प०, ईमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ पलिओवमाइं ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छ पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई प०, १ जघन्या भणिता । तरतमयोग एष दश वर्षसहस्राणि रत्नप्रभायाम् ॥२॥द्वे साधिके सप्त साधिकानि दश चतुर्दश सप्तदशैव अतराणि । सौधर्मात् यावत् । शुक्रः तदुपर्येककमारोपयेत् ॥ ३॥ पल्यं अधिकं द्वे सागरोपमे साधिके सप्त दश चतुर्दश । सप्तदश सहस्रारे तदुपर्येकैकमारोपयेत् ॥ ४॥ R ॥११॥ Jain Education Lonal For Personal & Private Use Only Mod.jainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education सणंकुमारमाहिंदेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सयंभुं सयंभूरमणं घोसं सुघोरं महाघोसं किट्टि - घोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं विरसिंगं वीरसिहं वीरकूडं वीरुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा छहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सङ्घदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ सूत्रं ६ ॥ पदस्थानकमथ, तच्च सुबोधं, नवरमिह लेश्या १ जीवनिकाय २ बाह्या ३ऽऽभ्यन्तरतपः ४ समुद्घाता ५ऽवग्रहार्थानि सूत्राणि षट्, नक्षत्रार्थे द्वे, स्थित्यर्थानि षट्, उच्छासाद्यर्थं त्रयमेवेति तत्र लेश्यानां खरूपमिदं - ' कृष्णादि - द्रव्यसाचिव्यात, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १ ॥' इति, तथा बाह्यतपःबाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं - चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, तथा छद्मस्थः- अकेवली तत्र भवा छाद्मस्थिकाः तत्र सम् - एकीभावेनोत् - प्राबल्येन च घातानि - निर्जरणानि समुद्घाताः वेदनादिपरिणतो हि जीवो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, ते चेह वेदनादिभेदेन षडुक्ताः, तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्य कर्माश्रयः कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीय कर्माश्रयः मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयो वैकु For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्तिः ॥ १२ ॥ Jain Education I र्विक तैजसाहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशाटनं करोति कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुः कर्मपुद्गलघातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद्वहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वद्धान् शातयति, एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति, तथा अर्थस्य - सामान्यानिर्देश्यखरूपस्य शब्दादे: 'अवे' ति प्रथमं व्यञ्जनावग्रहानन्तरं ग्रहणं - परिच्छेदनमर्थावग्रहः, स चैकसामयिको नैश्चयिको व्यावहारिकस्त्वसङ्ख्येयसामयिकः, स च पोढा - श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैर्नो इन्द्रियेण च मनसा जन्यमानत्वादिति, स्थितिसूत्रे स्वयम्भ्वादीनि विंशतिर्विमानानीति ॥ ६ ॥ अथ सप्तमं स्थानकं वित्रियते सत्त भट्ठाणा प० तं० – इहलोगभए पर लोगभए आदाणभए अकमहाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए, सत्त समुग्धाया प० तं० – वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्धाए वेउब्वियसमुग्धाए तेयसमुग्धाए आहारसमुग्धाए केवलिसमुग्धाए, समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीओ उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था, इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपवया प० तं० - चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी मन्दरे, इहेव जम्बुद्दीवे दीवे सत्त वासा प० तं भर हे हेमवते हरिवा से महाविदेहे रम्मए एरण्णव एरवए, खीणमोहे भगवया मोहणिजवजाओ सत्त कम्मपयडीओ वेए ( ज ) ई, महानक्खते सत्ततारे प०, कत्ति आइआ For Personal & Private Use Only ६-७ समवायौ ॥ १२ ॥ ainelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त नक्खत्ता पुत्वदारिआ प० [पाठा० अभियाइया सत्त नक्खत्ता], महाइआ सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिआ प० अणुराहाइआ सत्त नक्खत्ता अवरदारिआ प० धर्णिट्ठाइआ सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिआप०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई प०, चउत्थीए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं सत्त सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्त पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं . देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई प०, सणकुमारे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं ठिई प०, माहिंदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाइं ठिई प०, बंभलोए कप्पे अत्यगइयाणं देवाणं सत्त साहिया सागरोवमाई ठिई प०,जे देवा समं समप्पमं महापभं पभासं भासुरं विमलं कंचणकूडं सणंकुमारवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं सत्तहिं वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे णं सत्तहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ७॥ तच कण्ठ्यं, नवरमिह भयसमुद्घातमहावीरवर्षधरवर्षक्षीणमोहार्थानि च सूत्राणि पद नक्षत्रार्थानि पञ्च स्थित्यर्थानि नव उच्छासाद्यर्थानि त्रीण्येवेति, तत्रेहलोकभयं यत्सजातीयात् परलोकभयं यद्विजातीयात् आदानभयं यद् द्रव्यमाश्रित्य जायते अकस्माद्भयं बाह्यनिमित्तनिरपेक्षं खविकल्पाजातं शेषाणि प्रतीतानि, नवरमश्लोकः-अकी[तिरिति, समुद्घाताः प्राग्वत्, नवरं केवलिसमुद्घातो वेदनीयनामगोत्राश्रय इति, तथा रनिः-वितताङ्गुलिहस्त H Jain Education memfonal For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमाष्टमी सम० श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥१३॥ REGOCIOSOSSESSORAS इति, ऊर्बोच्चत्वेन न तिर्यगुञ्चत्वेनेति ‘होत्था'बभूवेति, तथा अभिजिदादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि-पूर्व- दिशि येषु गच्छतः शुभं भवति, एवमश्विन्यादीनि दक्षिणद्वारिकाणि पुष्यादीन्यपरद्वारिकाणि खात्यादीन्युत्तरद्वारिकाणीति सिद्धान्तमतमिह तु मतान्तरमाश्रित्य कृत्तिकादीनि सप्त सप्त पूर्वद्वारिकादीनि भणितानि, चन्द्रप्रज्ञप्तौ तु बहुतराणि मतानि दर्शितानीहार्थ इति, स्थितिसूत्रे समादीन्यष्टौ विमाननामानीति ॥ ७॥ अट्ठ मयट्ठाणा प० तं०-जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए, अट्ठ पवयणमायाओ प० तं०-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती, वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, जंबू णं सुदंसणा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, अट्ठसामइए केवलिसमुग्घाए प० त०-पढमे समए दंडं करेइ बीए समए कवाडं करेइ तइए समए मंथं करेइ चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेइ पंचमे समए मंथंतराइ पडिसाहरइ छट्टे समए मंथं पडिसाहरइ सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ ततो पच्छा सरीरत्थे भवइ, पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणिअस्स अट्ट गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं०-सुभे य सुभघोसे य, वसिढे बंभयारि य । सोमे सिरिधरे चेव, वीरभद्दे जसे इय ॥१॥ अट्ट नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमई जोगं जोएंति, तं०-कत्तिया १ रोहिणी २ पुणव्वसू ३ महा ४ चित्ता ५ विसाहा ६ अणुराहा ७ जेहा ८, इमीसे णं रणप्पहाए पुढवीए ॥१३॥ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSACESSOIRES अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई प०, चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ट सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिई प०, बंभलोए कप्पे अत्यंगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा अच्चिं १ अच्चिमालिं २ वइरोयणं ३ पभंकरं ४ चंदामं ५ सूरामं ६ सुपइट्ठामं ७ अग्गिचाभं ८ रिट्ठामं ९ अरुणाभं १० अरुणुत्तरवडिंसगं ११ विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ट सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा अट्ठण्डं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं अट्ठहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ८॥ अथाष्टमस्थानकं व्याख्यायते, सुगम चैतत् , नवरमिह मदस्थानप्रवचनमातृचैत्यवृक्षजम्बूशाल्मलीजगतीकेवलिसमुद्घातगणधरनक्षत्रार्थानि सूत्राणि नव स्थित्यर्थानि षट् उच्छासाद्यर्थानि त्रीणीति, तत्र मदस्य-अभिमानस्य 8 स्थानानि-आश्रयाः मदस्थानानि-जात्यादीनि, तान्येव मदप्रधानतया दर्शयन्नाह-'जाइमए'इत्यादि, जात्या मदो जातिमद एवमन्यान्यपि, अथवा मदस्य स्थानानि-भेदाः मदस्थानानि, तान्येवाह-'जाइमए' इत्यादि, शेषं तथैव, तथा प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा सङ्घस्य मातर इव-जनन्य इव प्रवचनमातरः-ईयर्यासमित्यादयो, द्वादशाङ्गं हि ता आश्रित्य साक्षात्प्रसङ्गतो वा प्रवर्तते, भवति च यतो यत्प्रवर्तते तस्य तदाश्रित्य मातृकल्पनेति, सङ्घपक्षे -0656 Jain Education For Personal & Private Use Only D elibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्तिः ॥ १४ ॥ तु यथा शिशुर्मातरममुञ्चन्नात्मलाभं लभते एवं सङ्घस्ताममुञ्चन् सङ्घत्वं लभते नान्यथेतीर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृतेति, तथा व्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षाः तन्नगरेषु सुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि सर्वरत्नमया छत्रचामरध्वजादिभिरलङ्कृता भवन्ति, ते चैवं श्लोकाभ्यामवगन्तव्याः - 'कलंबो उ पिसायाणं, बडो जक्खाण चेहयं । तुलसी भूयाणं भवे, रक्खसाणं तु कंडओ ॥ १ ॥ असोगो किण्णराणं च, किंपुरिसाण य चंपओ । नागरुक्खो भुयंगाणं, गंधवाण य तुंबुरू ॥ २ ॥ त्ति, तथा 'जम्बु'त्ति उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः पृथिवीपरिणामः सुदर्शनेति तन्नाम, एवं कूटशाल्मली वृक्षविशेषः, एप देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाभिधानस्य देवस्यावास इति, जगती जम्बूद्वीपनगरस्य प्राकारकल्पा पालीति, तथा पार्श्वस्यार्हतः — त्रयोविंशतितमतीर्थकरस्य 'पुरिसादाणीयस्स' ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः - आदेयः पुरुषादानीयस्तस्याष्टौ गणाः - समानवाचनाक्रियाः साधुसमुदायाः अष्टौ गणधराः - तन्ना - मकाः सूरयः, इदं चैतत्प्रमाणं स्थानाने पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा, तत्र ह्युक्तम् — 'दस नवगं गणाण माणं जिनिंदाणं' ति, कोऽर्थः ? - प्रार्श्वस्य दश गणाः गणधराश्थ, तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुगन्तव्येति, 'सुभे' इत्यादि श्लोकः, तथा अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्धं प्रमई - चन्द्र ( : ) मध्येन तेषां गच्छतीत्येवंलक्षणं योगं-सम्बन्धं योजयन्ति - कुर्वन्ति, अत्रार्थेऽभिहितं लोकनियां - " पुणवसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणुराह कित्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोग "न्ति, यानि व दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमर्द्दयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो For Personal & Private Use Only अष्टमः समवायः ॥ १४ ॥ ww Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्- “एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिचन्द्रेण भेदमप्युपयान्ती"ति, तथाचिरादीन्येकादश विमाननामानीति ॥ ८॥ नव बंभचेरगुत्तीओ प० तं-नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सिजासणाणि सेवित्ता भवइ १ नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ २ नो इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ ३ नो इत्थीणं इंदियाणि मणोहराई मणौरमाइं आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ ४ नो पणीयरसभोई ५ नो पाणभोयणस्स अइमायाए आहारइत्ता ६ नो इत्थीणं पुव्वरयाई पुब्वकीलिआई समरइत्ता भवइ, नो सद्दाणुवाई नो रूवाणुवाई नो गन्धाणुवाई नो रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई ८ नो सायासोक्खपडिबद्धे याविभवइ ९ नव बंभचेरअगुतीओ प० तं०-इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणं सिजासणाणं सेवणया जाव सायासुक्खपडिबद्धे याविभवइ, नव बंभचेरा प० तं०-सत्थपरिण्णा लोगविजओ सीओसणिज सम्मत्तं । आवंति धुत विमोहायणं] उवहाणसुर्य महपरिण्णा ॥१॥ पासे णं अरहा पुरिसादाणीए नव रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं होत्था, अभीजीनक्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चन्देणं सद्धिं जोगं जोएइ, अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति तं०-अभीजि सवणो जाव भरणी, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिमागाओ नव जोयणसए उद्धं आबाहाए उवरिले तारारूवे चारं चरइ, जंबूद्दीवे णं दीवे नवजोयणिआ मच्छा पविसिंसु वा ३, विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव नव भोमा प०, वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्माओ नव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, दंसणावरणिजस्स णं कम्मस्स नव उत्तरपगडीओ प० ते०-निद्दा पयला निद्दानिद्दा पयलापयला थीणखी चक्खुदंसणावरणे dain Education For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्ति: ॥ १५ ॥ अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदंसणावरणे, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव पलिओवमाई ठिई प०, चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं नव पलिओमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं नव पलिओवमाई ठिई प०, बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पभ्रं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंगं पम्हसिहं म्हकूडं पम्हुत्तरवर्डिसगं सुखं सुसुखं सुखवित्तं सुज्जपभ्रं सुज्जकंतं सुजवण्णं सुजलेसं सुज्जज्झयं सुज्झसिंगं सुज्झसिद्धं सुजकूडं सुज्जुत्तरवर्डिसगं (रुइल्लं) रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइललेसं रुइलज्झयं रुइलसिंगं रुइलसिहं रुइल्लकूडं रुइल्लुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंतवा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं नवहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ९ ॥ अथ नवमस्थानकं सुखावबोधं, नवरमिह ब्रह्मगुप्त १ तदगुप्ति २ वह्मचर्याध्ययन ३ पार्श्वोर्थ ४ सूत्राणां चतुष्टयं ज्योतिष्कार्थं त्रयं मत्स्य १ भौम २ सभा ३ दर्शनावरणार्थ ४ चतुष्टयं स्थित्याद्यर्थानि तथैव, तत्र ब्रह्मचर्यगुप्तयो मैथुनविरतिपरिरक्षणोपायाः नो स्त्रीपशुपण्डकैः संसक्तानि - सङ्कीर्णानि शय्यासनानि - शयनीयविष्टराणि वसत्यासनानि वा| सेवयिता भवतीत्येका १ नो स्त्रीणां कथाः कथयिता भवतीति द्वितीया २ नो स्त्रीगणान् - स्त्रीसमुदायान् सेवयिता - Jain Educational For Personal & Private Use Only नवमः समवायः ॥ १५ ॥ ainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAARCLASANGAMRECORCLES उपासयिता भवतीति तृतीया ३ नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि-नयननाशावंशादीनि मनोहराणि आक्षेपकरत्वात् मनोर माणि रम्यतयाऽऽलोकयिता-द्रष्टा निाता-तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टैव भवतीति चतुर्थी ४ नो प्रणीतरसभोजीगलत्स्नेहरसबिन्दुकस्य भोजनस्य भोजको भवतीति पञ्चमी ५ नो पानभोजनस्यातिमात्रम्-अतिप्रमाणं यथा भवत्येव रकः सदा भवतीति षष्ठी ६ नो पूर्वरतं-पूर्वक्रीडितमनुस्मा भवति रतं-मैथुनं क्रीडितं-स्त्रीभिः सह तदन्या क्रीडेति सप्तमी, ७ नो शब्दानुपाती नो रूपानुपाती नो गन्धानुपाती नो रसानुपाती नो स्पर्शानुपाती नो श्लोकानुपाती कामोद्दीपकान् शब्दादीनात्मनो वर्णवादं च नानुपतति-नानुसरतीत्यर्थः इत्यष्टमी ८ नो सातसौख्यप्रतिबद्धचापि भवति सातात्-सातवेदनीयादुदयप्राप्ताद्यत्सौख्यं तत्तथा, अनेन च प्रशमसुखस्य व्युदास इति नवमी ९, इदं। च व्याख्यानं वाचनाद्वयानुसारेण कृतं, प्रत्येकवाचनयोरेवंविधसूत्रभावादिति, तथा कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्य तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति, तथा अभिजिनक्षत्रं साधिकानव मुहूतीश्चन्द्रेण सार्द्ध योग-सम्बन्धं योजयति-करोति, सातिरेकत्वं च तेषां चतुर्विशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागानां षट्षष्टया च द्विषष्टिभागस्य सप्तपष्टिभागानामिति, तथा अभिजिदादीनि नव नक्षत्राणि चन्द्रस्योत्तरेण योगं योजयन्ति, उत्तरस्यां दिशि स्थितानि दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः। 'बहुसमरमणिजाओ' इति अत्यन्तसमोबहुसमोऽत एव रमणीयो-रम्यस्तस्माद्भूमिभागान्न पर्वतापेक्षया नापि श्वभ्रापेक्षयेति भावः, रुचकापे SACCHOLOGANGACANCRECORROCES Jain Education For Personal & Private Use Only Enelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥१६॥ CAUSAMROSALAMANASAOST क्षयेति तात्पर्यम्, 'आवाहाए'त्ति अन्तरे कृत्वेति शेषः 'उवरिले'त्ति उपरितनं तारारूप-तारकजातीयं चार-भ्रमणं दशमः चरति-करोति, 'नवजोयणिय'त्ति नवयोजनायामा एव प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः समवायः सम्भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति, विजयद्वारस्य-14 जम्बूदीपसम्बन्धिनः पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य 'एगमेगाए'त्ति एकैकस्यां 'बाहाए'त्ति बाहौ पार्थे भौमानि-नगराणीत्येके विशिष्टस्थानानीत्यन्ये, तथा व्यन्तराणां सभा सुधर्मा नव योजनानि ऊर्द्धमुच्चत्वेन तथा पक्ष्मादीनि द्वादश सूर्यादीन्यपि द्वादशैव रुचिरादीन्येकादश विमाननामानीति ॥९॥ दसविहे समणधम्मे प० तं०-खंती १ मुत्ती २ अजवे ३ महवे ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए ९ बंभचेरवासे १०, दस चित्तसमाहिट्ठाणा प० तं-धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा समुप्पजिजा सव्वं धर्म जाणित्तए १ सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा अहातचं सुमिणं पासित्तए २ सण्णिनाणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पजिजा पुव्वभवे सुमरित्तए ३ देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुब्बे समुप्पजिजा दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ४ ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा ओहिणा लोगं जाणित्तए ५ ओहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा ॥१६॥ ओहिणा लोगं पासित्तए ६ मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा जाव मणोगए भावे जाणित्तए ७ केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा केवलं लोगं जाणित्तए ८ केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुपजिजा केवलं लोयं पासित्तए Jain Education a l For Personal & Private Use Only MANSinelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ केवलिमरणं वा मरिजा सव्वदुक्खप्पहीणाए १०, मंदरेणं पव्वए मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं प०, अरिहा गं अरिहनेमी दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था, कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, रामे णं बलदेवे दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था, दस नक्खत्ता नाणवुद्धिकरा प० तं-मिगसिर अद्दा पुस्सो तिण्णि अ पुव्वा य मूलमस्सेसा। हत्थो चित्तो य तहा दस वुद्धिकराई नाणस्स ॥१॥ अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया प० तं०—मत्तंगया य भिंगो तुडिअंगों दीवजोई चित्तंगी चित्तरसा मणिअंगी गेहागारां अनिगिणी य ॥१॥ इमीसे णं रयप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं दस पलिओवमाई ठिई प०, चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससयसहस्साइ प०, चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पं०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं जद्दण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, असुरिंदवजाणं भोमिजाणं देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दस पलिओवमाई ठिई प०, बायरवणस्सइकाइए णं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, वाणमतराणं देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं दस पलिओवमाई ठिई प०, बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई प०, लांतए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिज्जं मंगलावत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देव Jain Educati o nal For Personal & Private Use Only Ninjalnelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 श्रीसमवा त्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा दशमः यांगे उससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं समवायः श्रीअभय० भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १०॥ वृत्तिः दशमं स्थानकं सुबोधमेव तथापि किञ्चिल्लिख्यते, इह पञ्चविंशतिः सूत्राणि, तत्र लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता ॥१७॥ भावतो गौरवत्यागः त्यागः सर्वसङ्गानां संविग्नमनोज्ञसाधुदान वा ब्रह्मचर्येण वसनम्-अवस्थानं ब्रह्मचर्यवास इति, तथा चित्तस्य-मनसः समाधिः-समाधानं प्रशान्तता तस्य स्थानानि-आश्रया भेदा वा चित्तसमाधिस्थानानि, तत्र धर्मा-जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्पादादयः खभावास्तेषां चिन्ता-अनुप्रेक्षा धर्मस्य वा-श्रुतचारित्रात्मकस्य सर्वज्ञभाषितस्य हरिहरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽयमित्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता, वाशब्दो वक्ष्यमाणसमाधिस्थानान्तरापेक्षया विकल्पार्थः, 'स'इति यः कल्याणभागी तस्य साधोरसमुत्पन्नपूर्वा-पूर्वस्मिन्ननादौ अतीते कालेऽनुपजाता तदुत्पादे 1 पार्द्धपुद्गलपरावर्त्तान्ते कल्याणस्यावश्यंभावात् समुत्पद्येत-जायेत सः, किंप्रयोजनाय चेयमत आह–सर्व-नि-18 दरवशेष धर्म-जीवादिद्रव्यखभावमुपयोगोत्पादादिकं श्रुतादिरूपं वा 'जाणित्तए' ज्ञपरिज्ञया ज्ञातुं ज्ञात्वा च प्रत्या-1॥१७॥ ख्यानपरिज्ञया परिहरणीयकर्म परिहर्तुम् , इदमुक्तं भवति-धर्मचिन्ता धर्मज्ञानकारणभूता जायत इति, इयं च । समाधेरुक्तलक्षणस्य स्थानमुक्तलक्षणमेव भवतीति प्रथम, तथा स्वप्नस्य-निद्रावशविकल्पज्ञानस्य दर्शन-संवेदनं खाद Jain Education For Personal & Private Use Only M ahelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनं तद्वा कल्याणप्राप्तिसूचकमसमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्यते, तद् यथा भगवतो महावीरस्यास्थिकग्रामे शूलपाणियक्षकृतोपहै सर्गावसाने, किं प्रयोजनं चेदं ? इत्याह-'अहातचं सुमिणं पासित्तए'त्ति यथा-येन प्रकारेण तथ्यः-सत्यो यथा तथ्यः सर्वथा निर्व्यभिचार इत्यर्थः तं खप्नं-स्वप्नफलमुपचारात्तं द्रष्टुं-ज्ञातुम्, अवश्यंभाविनो मुक्त्यादेः शुभखप्नफलस्य दर्शनाय साधोः खप्नदर्शनमुपजायत इति भावः, क्वचित् 'सुजाणंति पाठः, तत्रावितथमवश्यंभावि सुयानं-सुगति द्रष्टुं-ज्ञातुं सुज्ञानं वा भाविशुभार्थपरिच्छेदं संवेदितुमिति, कल्याणसूचकावितथखप्नदर्शनाच भवति चित्तसमाधिरिति चित्तसमाधिस्थानमिदं द्वितीयं, तथा सज्ञानं सज्ञा सा च यद्यपि हेतुवाददृष्टिवाददीर्घकालिकोपदेशभेदेन । क्रमेण विकलेन्द्रियसम्यग्दृष्टिसमनस्कसम्बन्धित्वात्रिधा भवति तथापीह दीर्घकालिकोपदेशसज्ञा ग्राह्येति,सा यस्यास्ति स सञ्जी-समनस्कस्तस्य ज्ञानं सजिज्ञानं, तचेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेव, तद्वा 'से' तस्यासमुत्पन्न+ पूर्व समुत्पद्येत, कस्मै प्रयोजनाय ? इत्याह–'पुव्वभवे सुमरित्तए'त्ति पूर्वभवान् स्मर्तुं, स्मृतपूर्वभवस्य च संवेगात्सPमाधिरुत्पद्यते इति समाधिस्थानमेतत् तृतीयमिति, तथा देवदर्शनं वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्यते, देवा हि । तस्य गुणित्वाद्दर्शनं ददति, किं फलं ? इत्याह-दिव्यां देवद्धि-प्रधानपरिवारादिरूपां दिव्यां देवद्युति-विशिष्टां । शरीराभरणादिदीप्तिं दिव्यं देवानुभावं-उत्तमवैक्रियकरणादिप्रभावं द्रष्टम्, एतद्दर्शनायेत्यर्थः, देवदर्शनाचागमार्थेषु श्रद्धानदाय धर्मे बहुमानश्च भवतीति ततश्चित्तसमाधिरिति देवदर्शनं चित्तसमाधिस्थानमिति चतुर्थ, तथा अवधिज्ञानं A LCARRORIGANGASCIENCE HG HANGAAAAAA**** Jain Education For Personal & Private Use Only Planelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥ १८ ॥ वा ' से' तस्यासमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, किमर्थ इत्याह- अवधिना - मर्यादया नियतद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण लोकं ज्ञातुं लोकज्ञानायेत्यर्थः, भवति च विशिष्टज्ञानाच्चित्तसमाधिरिति पञ्चमं तदिति, एवमवधिदर्शनसूत्रमपीति षष्ठं, तथा मनः पर्यवज्ञानं वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्येत, किमर्थं अत आह— 'मणोगते भावे जाणित्तए' अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रेषु सञ्ज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् ज्ञातुम्, एतद्ज्ञानायेत्यर्थ इति सप्तमं, तथा केवलज्ञानं वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्येत, केवलः - परिपूर्णः लोक्यते - दृश्यते केवलालो केनेति लोको - लोकालोकखरूपं वस्तु तद् ज्ञातुं केवलज्ञानस्य च समाधिभेदत्वा [चित्तसमाधिभेदत्वा ] चित्तसमाधिस्थानता, इह चामनस्कतया केवलिनश्चित्तं चैतन्यमवसेयमित्यष्टमं, एवं केवलदर्शनसूत्रं नवरं द्रष्टुमिति विशेष इति नवमं, तथा केवलिमरणं वा म्रियेत-कुर्यात् इत्यर्थः, किमर्थ अत आह— 'सर्वदुःखप्रहाणाये 'ति, इदं तु केवलिमरणं सर्वोत्तमसमाधिस्थानमेवेति दशममिति, तथा अकर्मभूमिकानां - भोगभूमिजन्मनां मनुष्याणां दशविधा 'रुक्ख'त्ति कल्पवृक्षाः 'उपभोगत्ताए'त्ति उपभोग्यत्वाय 'उवत्थिय'त्ति उपस्थिता - उपनता इत्यर्थः, तत्र मत्ताङ्गकाः मद्यकारणभूताः 'भिंग'त्ति भाजनदायिनः 'तुडियंग' ति तूर्याङ्गसम्पादकाः 'दीव'त्ति दीपशिखा : - प्रदीपकार्यकारिणः 'जोइ'त्ति ज्योतिः - अग्निस्तत्कार्यकारिण इति 'चित्तंगत्ति चित्राङ्गाः पुष्पदायिनः चित्ररसा - भोजनदायिनः मण्यङ्गाः - आभरणदायिनः गेहाकाराः - भवनत्वेनोपकारिणः 'अणिगिण 'त्ति अनग्नत्वं - सवस्त्रत्वं तद्धेतुत्वादनना इति, घोषादीन्येकादश विमाननामानीति ॥ १० ॥ For Personal & Private Use Only दशमः समवायः ॥ १८ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारस उवासगपडिमाओप० तं०-दसणसावए १ कयन्वयकंमे २ सामाइअकडे ३ पोसहोववासनिरए ४ दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे ५ दिआवि राओवि बंभयारी असिणाई विअडभोई मोलिकडे ६ सचित्तपरिणाए ७ आरंभपरिणाए ८ पेसपरिणाए ९ उद्दिट्ठभत्तपरिण्णाए १० समणभूए ११ आवि भवइ समणाउसो!, लोगंताओ इक्कारसएहिं एक्कारेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसते पण्णत्ते, जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स एक्कारसहिं एक्कवीसेहिं जोयणसएहिं जोइसे चारं चरइ, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्था, तं०-इंदभूई अग्गिभूई वायुभूई विअत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अयलभाए मेअन्जे पभासे, मूले नक्खत्ते एक्कारसतारे प०, हेट्ठिमगेविजयाणं देवाणं एक्कारसमुत्तरं गेविजविमाणसतं भवइत्तिमक्खायं, मंदरे णं पव्वए धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्यंगइयाणं देवाणं एक्कारस पलिओवमाइं ठिई प०, लंतए कप्पे अत्यंगइयाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा बभं सुबंभ बंभावत्तं बंभप्पभं बंभकंतं बंभवणं बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंग बंभसिटुं बंभकूडं बंभुत्तरवाडिंसगं विमाणं देवताए उववण्णा तेसि णं देवाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा एकारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं एक्कारसण्हं वाससहस्साणं आहारढे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे एक्कारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ११॥ ४ स० Jain Education in For Personal & Private Use Only M ar 09 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे श्रीसमवा- अथैकादशस्थानं, तदपि गतार्थ, नवरमिह प्रतिमाद्यर्थानि सूत्राणि सप्त स्थित्याद्यर्थानि तु नवेति, तत्रोपासन्ते-से- ११ सम से वन्ते श्रमणान् ये ते उपासकाः-श्रावकास्तेषां प्रतिमाः-प्रतिज्ञाः अभिग्रहरूपाः उपासकप्रतिमाः, तत्र दर्शन-सम्यक्त्वं वायाध्य. श्रीअभय० तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनश्रावकः, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारात्प्रतिमावतो वृत्तिः निर्देशः कृतः, एवमुत्तरपदेष्वपि, अयमत्र भावार्थः-सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्थाणुव्रतादिगुणविकलस्य ॥१९॥ योऽभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति, तथा कृतम्-अनुष्ठितं व्रतानाम्-अनुव्रतादीनां कर्म-तच्छ्रवणज्ञानवाच्छाप्रतिपत्ति-18 लक्षणं येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरिति भाव इतीयं द्वितीया, तथा सामायिक-सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगासेवनखभावं कृतं-विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, आहिताम्यादिदर्शनात् तान्तस्योत्तरपदत्वं, तदेवमप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति, तथा पोष-पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपवसनम् अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधोपवास इति, अथवा पौषधं-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः-अभक्तार्थः पौषधोप|वास इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेष्विति, तत्र पौषधोप-15॥१९॥ वासे निरतः-आसक्तः पौषधोपवासनिरतः(यः) सः, एवंविधस्य श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः, अयमत्र भावःहै पूर्वप्रतिमात्रयोपेतः अष्टमीचतुर्दश्यमावास्यापौर्णमासीष्वाहारपौषधादि चतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् RECASSOCCASSAGE dain Education Internationa For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In यावच्चतुर्थी प्रतिमा भवतीति, तथा पञ्चमीप्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वे करात्रिकप्रतिमाकारी भवति, एतदर्थं च सूत्रमधिकृतसूत्र पुस्तकेषु न दृश्यते दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी 'रत्ती'ति रात्रौ किं ? अत आह—परीमाणं स्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति, अयमत्र भावो - दर्शनत्रत सामायिकाष्टम्यादियौषधोपेतस्य पर्वखेकरात्रिकप्रतिमा कारिणः शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रावत्रह्मपरिमाणकृतोऽस्नानस्यात्रिभो जिनः अबद्धकच्छस्य पंञ्च मासान् यावत्पञ्चमी प्रतिमा भवतीति उक्तं च- “अड़मीच उद्दसी पडिमं ठाएगराईयं ॥ [ पश्चार्द्ध] असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसवं भयारी य । रत्तिं परिमाणकडो | पडिमा जेसु दियहेसु ॥ १ ॥ 'ति ॥ तथा दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी 'असिणाइ' त्ति अस्नायी स्खानपरिवर्जकः, क्वचित्पठ्यते— 'अनिसाइ' त्ति न निशायामत्तीत्य निशादी' वियडभोई'त्ति विकटे प्रकटप्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः, दिवापि च। प्रकाशदेशे न भुङ्क्ते- अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी 'मोलिकडे' त्ति अवद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः, षष्ठी प्र तिमेति प्रकृतं, अयमत्र भावः - प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः पण्मासान् यावत्पष्ठ प्रतिमा भवतीति, तथा 'सचित्त' इति सचेतनाहारः परिज्ञातः- तत्खरूपादिपरिज्ञानात्प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतं इयमत्र भावना पूर्वोक्तप्रतिमाषट्कानुष्ठानयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् याव१ अष्टमीचतुर्दश्योः प्रतिमां करोत्येकरात्रिकीं । अम्नानो दिवसभोजी मुत्कलकच्छः दिवा ब्रह्मचारी च रात्रौ कृतपरिमाणः प्रतिमावर्जेषु दिवसेषु ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥ २० ॥ Jain Education त्सप्तमी प्रतिमा भवतीति, तथा आरम्भः - पृथिव्याद्युपमर्द्दनलक्षणः परिज्ञातः - तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धोऽष्टमी प्रतिमेति, इह भावना - समस्त पूर्वोक्तानुष्ठानयुक्तस्यारम्भवर्जनमष्टौ मासान् यावदष्टमी प्रतिमेति, तथा प्रेष्याः - आरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञाताः - तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्यपरिज्ञातः श्रावको नवमीति, भावार्थचेह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः आरम्भं परैरप्यकारयतो नव मासान् यावन्नवमी प्रतिमेति, तथा उद्दिष्टं - तमेव श्रावकद्दिश्य कृतं भक्तम् - ओदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतं, इहायं भावार्थ:पूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजनपरिहारवतः क्षुरमुण्डितशिरसः शिखावतो वा केनापि किञ्चिद्गृहव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीति अज्ञाने च सति न जानामीति ब्रुवाणस्य दश मासान् यावदुत्कर्षेण एवंविधविहारस्य दशमी प्रतिमेति, तथा श्रमणो-निर्ग्रन्थस्तद्वद्य स्तदनुष्ठान करणात् स श्रमणभूतः, साधुकल्प इत्यर्थः, चकारः समुच्चयेऽपिः सम्भावने, भवति श्रावक इति प्रकृतं, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति सुधर्मखामिना जम्बूखामिनमामत्रयतोक्तं इत्येकादशीति, इह चेयं भावना - पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य ईर्यासमित्या - दिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थ गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय भिक्षां दत्तेति भाषमाणस्य कस्त्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणस्यैकादश मासान् यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति, पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना - दंसणसावर प्रथमा कयवयकम्मे द्वितीया कयसामाइए तृतीया For Personal & Private Use Only ११ सम वायाध्य. ॥ २० ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसहोववासनिरए चतुर्थी राइभत्तपरिण्णाए पञ्चमी सचित्तपरिणाए षष्ठी दिया बंभयारी राओ परिमाणकडे सप्तमी दियावि राओवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति वोसहकेसरोमनहे अष्टमी आरंभपरिणाए पेसणपरिण्णाए नवमी उदिट्ठभत्तवजए दशमी समणभूए यावि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति, क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति, तथा जम्बूद्वीपे २ मन्दरस्य पर्वत|स्सैकादश 'एगवीस'त्ति एकविंशतियोजनाधिकानि वोजनशतानि 'अबाहाए' अबाधया व्यवधानेन कृत्वेति शेषः ज्योतिष-ज्योतिश्चक्रं चार-परिभ्रमणं चरति-आचरति, तथा लोकान्तात् णमित्यलङ्कारे एकादश शतानि 'एकारे'त्ति एकादशयोजनाधिकानि अबाधया-बाधारहितया कृत्वेति शेषः 'जोतिसंतेति ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति, इदं च वाचनान्तरं व्याख्यातं, उक्तं च-“एकारसेक्कवीसा सय एकाराहिया य एक्कारा । मेरुअलोगाबाहं जोइसचकं ४ है चरइ ठाइ ॥१॥” इति, अधिकृतवाचनायां पुनरिदमनन्तरं व्याख्यातमालापकद्वयं व्यत्ययेनाऽपि दृश्यते, 'विमाणसयं| भवतित्तिमक्खायंति इह मकारस्थागमिकत्वादयमों-विमानशतं भवतीतिकृत्वा आख्यातं-प्ररूपितं भगवता अन्यैश्च केवलिभिरिति सुधर्मखामिवचनं, तथा 'मंदरे णं पव्वए धरणितलाओ सिहरतले एकारसभागपरिहीणे उच्चतेणं पण्णत्ते' अस्थायमर्थः-मेरुभूतलादारभ्य शिखरतलमुपरिभागं यावद्विष्कम्भापेक्षयाऽङ्गुलादेरेकादशभागेनैकादशभागेन परिहीणो-हानिमुपगतः उच्चत्वेन-उपर्युपरि प्रज्ञप्तः, इयमत्र भावना-मन्दरो भूतले दश योजनसहस्राणि विष्क Jain Education a l For Personal & Private Use Only DIlainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांग श्री अभय ० वृत्तिः ॥ २१ ॥ Jain Education म्भतः, ततश्च चत्वेनाङ्गुले गतेऽङ्गुलस्यैकादशभागो विष्कम्भतो हीयते, एवमेकादशखङ्गुलेप्यङ्गुलं हीयते, एतेनैव न्यायेनैकादशसु योजनेषु योजनं एवं एकादशसहस्रेषु सहस्रं ततो नवनवत्यां योजनसहस्रेषु नव सहस्राणि हीयन्ते, ततो भवति सहस्रं विष्कम्भः शिखरे इति, अथवा धरणीतलात्- धरणीतलविष्कम्भात्सकाशाच्छिखरतलं - शिखरविष्कम्भ| माश्रित्य मेरुरेकादशभागेन परिहीणो भवति, कस्यैकादशभागेन ? इत्याह – 'उच्चत्तेणं' ति उच्चत्वस्य, तथाहि मे - | रोरुचत्वं नवनवतिः सहस्राणि तदेकादशभागो नव तैर्हीनो मूलविष्कम्भापेक्षया शिखरतले, शिखरस्य साहसिकत्वात्, | दशसाहस्रिकत्वाच्च मूल विष्कम्भस्येति, ब्रह्मादीनि द्वादश विमाननामानि ॥ ११ ॥ बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तंजहा - मासिआ भिक्खुपडिमा दोमासिआ भिक्खुपडिमा तिमासिआ भिक्खुपडिमा चउमासिआ भिक्खुपडिमा पंचमासिआ भिक्खुपडिमा छमासिया भिक्खुपडिमा सत्तामासिआ भिक्खुपडिमा पढमा सत्तरइंदिआ भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा तच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा अहोराइआ भिक्खुपडिमा एगराइया भिक्खुपडिमा, दुवालसविहे सम्भोगे प० ० – उवहीसुअभत्तपाणे, अंजलीपग्गहेत्ति य । दायणे य निकाए अ, अन्भुट्ठाणेति आवरे ॥१॥ किअकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणे इअ । समोसरणं संनिसिजा य, कहाए अपबन्धणे ॥ २ ॥ दुवालसावत्ते कितिकम्मे प० तं – दुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ १ ॥ विजया णं रायहाणी दुवालस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता, रामे णं बलदेवे दुवालस वाससयाई सव्वाउयं पालिता देवत्तं गए, मंदरस्स णं पव्वयस्स चूलिआ For Personal & Private Use Only १२ सम वायाध्य. ॥ २१ ॥ inelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOCHAKOREGARCACANCIEDORE मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता, जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइआ मूले दुवालस जोयणाई विक्खभेणं पण्णत्ता, सवजहपिणआ राई दुवालसमुहुत्तिआ पण्णत्ता, एवं दिवसोऽवि नायव्वो, सव्वट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लाओ थुभिअग्गाओ दुवालस जोयणाई उद्धं उप्पइआ ईसिपब्भारनामपुढवी पण्णत्ता, इसिपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहाईसित्ति वा इसिपन्भाराति वा तणूइ वा तणूयतरित्ति वा सिद्धित्ति वा सिद्धालएत्ति वा मुत्तीति वा मुत्तालएत्ति वा बभेत्ति वा बंभवडिसएत्ति वा लोकपडिपूरणेत्ति वा लोगग्गचूलिआइ वा, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइआणं नेरइयाणं बारस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं बारस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बारस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा महिंदं महिंदज्झयं कंबुं कंबुग्गीवं पुंखं सुपुखं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापुडं नरिंदं नरिंदकंतं नरिंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं ठिई प० ते णं देवा बारसण्डं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं बारसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १२॥ द्वादशस्थानमथ, तच्च सुगम, नवरं स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागेकादश सूत्राण्याह, तत्र भिक्षूणां विशिष्टसंहननश्रुतवतां JainEducation For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -420 वृत्तिः श्रीसमवा-२ प्रतिमाः-अभिग्रहा भिक्षुप्रतिमाः तत्र मासिक्यादयः सप्तमासिक्यन्ताः सप्त मासेन मासेनोत्तरोत्तरं वृद्धा एकैकाभिर्भ-II १२ समयांगे वायाध्य. क्तपानदत्तिभिश्चेति, तथा सप्त रात्रिन्दिवानि-अहोरात्राणि यासु ताः सप्तरात्रिन्दिवास्ताश्च तिस्रो भवन्तीति, सप्तानामु श्रीअभय पर्यष्टमी प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवा एवं नवमी द्वितीया दशमी तृतीया, आसां च तिसृणामप्यनुष्ठानकृतो विशेषः, तथा हि-अष्टम्यां चतुर्थभक्तं तपः प्रामादेवहिरवस्थानमुत्तानादिकं च स्थानमिति, नवम्यां तु उत्कटुकाद्यासनेन विशेषः, ॥२२॥ दशम्यां वीरासनादिना, तथा अहोरात्रप्रमाणाऽहोरात्रिकी एकादशी, सा च षष्ठभक्तेन भवतीति विशेषः, एकरात्रिकी-रात्रिप्रमाणा, सा चाष्टमभक्तपर्यन्तरात्री प्रलम्बभुजस्य संहतपादस्पदवनतकायस्यानिमेषनयनस्येति । तथासम्-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोगः, स चोपध्यादिलक्षणविषयभेदात् द्वादशधा, तत्र 'उवही'त्यादिरूपकद्वयं, तत्रोपधिर्वस्त्रपात्रादिस्तं सम्भोगिकः साम्भोगिकेन सार्द्धमुगमोत्पादनैषणादोषैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो वारत्रयं यावत्सम्भोगार्हश्चतुर्थवेलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि विसम्भोगार्ह इति, विसम्भोगिकेन-पावस्थादिना वा संयत्या वा सार्द्धमुपधिं शुद्धमशुद्धं वा निष्कारणं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रा यश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरि न सम्भोग्यः, एवमुपधेः परिकर्म परिभोगं वा कुर्वन सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, उक्तं IPIच-“एगं व दो व तिन्नि व आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं । [आलोचयत इत्यर्थः] आउटुंतेवि तओ परेण तिण्हं विसंयोगो ॥१॥" त्ति, 'सुयत्ति' सम्भोगिकस्सान्यसांभोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रच्छनादिकं विधिना कुर्वन् तथा Jain Education a l For Personal & Private Use Only Infinelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5154CCCCCCCCC शुद्धः, तस्यैवाविधिनोपसम्पन्नस्यानुपसम्पन्नस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा स्त्रिया वा वाचनादि कुर्वैस्तथैव वेलात्रयोपरि विसम्भोग्यः, तथा 'भत्तपाणे'त्ति उपधिद्वारवदवसेयं, नवरमिह भोजनं दानं च परिकर्मपरिभोगयोः स्थाने वाच्यमिति, तथा 'अंजलीपग्गहेत्ति य' इहेतिशब्दा उपदर्शनार्थाः चकाराः समुच्चयार्थाः, तत्रोपलक्षणत्वादञ्जलिप्रग्रहस्य वन्दना-3 दिकमपीह द्रष्टव्यं, तथाहि-सम्भोगिकानामन्यसम्भोगिकानां वा संविमानां वन्दनकं-प्रणाममअलिप्रग्रहं नमः । क्षमाश्रमणेभ्य इति भणनं, आलोचनासूत्रार्थनिमित्तनिषद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः पार्श्वस्थादेरेतानि कुर्वस्तथैव स म्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, तथा 'दायणे यत्ति दानं, तत्र सम्भोगिकः सम्भोगिकाय [वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहाहै समर्थे सम्भोगिके]ऽन्यसम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः, निष्कारणं विसम्भोगिकस्य पार्श्वस्थादेर्वा संयत्या वा तं यच्छंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, तथा निकाए यत्ति निकाचनं छन्दनं निमन्त्रणमित्यनान्तरं, तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन खाध्यायेन च सम्भोगिकः सम्भोगिकं निमनयन् शुद्धः,शेषं तथैव, तथा 'अब्भुट्ठाणेत्ति यावरे' | त्ति अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगासम्भोगस्थानमित्यर्थः, तत्राभ्युत्थानं पावस्थादेः कुर्वैस्तथैवासम्भोग्यः, है। उपलक्षणत्वादभ्युत्थानस्य किङ्करतां च-प्राघूर्णकग्लानाद्यवस्थायां किं विश्रामणादि करोमीत्येवंप्रश्नलक्षणां तथाऽ-18 भ्यासकरणं-पावस्थादिधर्माच्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षणं, तथा अविभक्तिं च-अपृथग्भावलक्षणां कुर्वन्त्रशुद्धोडसम्भोग्यश्चापि, एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति, तथा 'किइकम्मस्त य करणे'त्ति कृतिकर्म-वन्द NARESORTS Jain Education immemailonal For Personal & Private Use Only Awagainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्ति: ॥२३॥ Jain Education नकं तस्य करणं - विधानं तद्विधिना कुर्वन् शुद्धः, इतरथा तथैवासम्भोग्यः, तत्र चायं विधिः – यः साधुर्वातेन स्तब्धदेह उत्थानादि कर्तुमशक्तः स सूत्रमेवास्खलितादिगुणोपेतमुच्चारयति, एवमावर्त्तशिरोनमनादि यच्छक्कोति तत्करोत्येवं चाशठप्रवृत्तिर्वन्दनविधिरिति भावः तथा 'वेयावच्चकरणे इय'त्ति वैयावृत्त्यम् - आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिँश्च विषये सम्भोगासम्भोगौ भवत इति, तथा 'समोसरणं' ति जिनस्त्रपनरथानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र वहवः साधवो मिलन्ति तत्समवसरणं, इह च क्षेत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रहो भवति, वसतिमाश्रित्य साधारणोऽसाधारणश्चेति, अनेन चान्येऽप्यवग्रहा उपलक्षिताः, ते चानेके, तद्यथा - वर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति, एकैकश्चायं साधारणावग्रहः प्रत्येकावग्रहश्चेति द्विधा, तत्र यत् क्षेत्रं वर्षाकल्पाद्यर्थं युगपत् द्व्यादिभिः साधुभिर्भिन्नगच्छस्थैरनुज्ञाप्यते स साधारणो यत्तु क्षेत्रमेके साधवोऽनुज्ञाप्याश्रिताः स प्रत्येकावग्रह इति, एवं चैतेष्ववग्रहेषु आकुट्टया अनाभाव्यं सचित्तं शिष्यमचित्तं वा वस्त्रादि गृह्णन्तोऽनाभोगेन च गृहीतं तदनर्पयन्तः समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्त्यसंभोग्याश्च, पार्श्वस्थादीनां चावग्रह एव नास्ति तथापि यदि तत् क्षेत्रं क्षुल्लकमन्यत्रैव च संविग्ना निर्वहन्ति ततस्तत् क्षेत्रं परिहरन्त्येव, अथ पार्श्वस्थादीनां क्षेत्रं विस्तीर्ण संविग्नाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशन्ति सचित्तादि च गृहन्ति For Personal & Private Use Only १२ सम वायाध्य. ॥ २३ ॥ 17nelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चिन्तिनोऽपि न भवन्तीति, आह च–“संमणुन्नमसमणुन्ने अदिन्नणाभवगिण्हमाणे वा। सम्भोग वीसुकरणं [पृथ-8 करणमित्यर्थः ] इयरे य अलंभ पलंति ॥१॥" [ इतरान् पार्श्वस्थादीनित्यर्थः ] तथा 'सन्निसिज्जा यत्ति सन्निषद्या-आसनविशेषः, सा च सम्भोगासम्भोगकारणं भवति, तथाहि-संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्तनां करोति शुद्धः, अथामनोज्ञपार्श्वस्थादिसाध्वीगृहस्थैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति, तथा अक्षनिषद्यां विनाऽनुयोगं कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तं, तथा निषद्यायामुपविष्टः सूत्रार्थों पृच्छति अतिचारान् वाऽsलोचयति यदि तदा तथैवेति, तथा 'कहाए य पंबंधणे'त्ति कथा-वादादिका पञ्चधा तस्याः प्रबन्धनं-प्रबन्धेन करणं कथाप्रबन्धनं, तत्र सम्भोगासम्भोगौ भवतः, तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन व्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थन स छलजातिविरहितो भूतार्थान्वेषणपरो वादः, स एव छलजातिनिग्रहस्थानपरो जल्पः, यत्रैकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा, तथा प्रकीर्णकथा चतुर्थी, सा चोत्सर्गकथा द्रव्यास्तिकनयकथा वा, तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति, तत्राद्यास्तिस्रः कथाः श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती, चतुर्थवेलायां चालोचयन्नपि विसम्भोगार्ह इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थः विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशकभाष्यादवसेय इति, तथा 'दुवालसावत्ते किइकम्मे त्ति द्वादशावत कृतिकर्म-वन्दनकं १ समनोज्ञामनोज्ञयोरदत्तमनाभाव्ये गृह्णति वा । संभोगविष्वकरणं इतरांश्चालाभे प्रेरयन्ति ॥१॥ Sain duen For Personal & Private Use Only h ainelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- १२ समवायाध्य. यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥२४॥ प्रज्ञप्त, द्वादशावर्त्ततामेवास्थानुवदन् शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सुः रूपकमाह-'दुओणए'त्यादि, अवनतिरवनतम्-उत्त- माङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तद्वयवनतं, तत्रैकं यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिजाए निसीहियाए'त्ति अभिधायावग्रहानुज्ञापनायावनमतीति, द्वितीयं पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति, यथा जातं-श्रमणत्वभवनलक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहरणमुखवस्त्रिकाचोलपट्टमात्रया श्रमणो / जातो रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गत एवंभूत एव वन्दते तदव्यतिरेकाद्वा यथाजातं भण्यते, कृतिकर्म-वन्दनकं 'बारसावयंति द्वादशावर्ताः-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद् द्वादशावत, तथा 'चउसिरं"ति चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तचतुःशिरः प्रथमप्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना, तथा 'तिगुत्तंति तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः पाठान्तरेऽपि तिसृभिः (श्रद्धाभिः) गुप्तिभिरेवेति, तथा 'दुपयेसंति द्वौ प्रवेशौ यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशं तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति, 'एगनिक्खमणं'ति एक निष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां बवग्रहाज निर्गच्छति, पादपतित एव सूत्रं समापयतीति, तथा 'विजयराजधानी' असङ्ख्याततमे जम्बूद्वीपे आधजम्बूद्वीपविजयाभिधानपूर्वद्वाराधिपस्य विजयाभिधानस्य पल्योपमस्थितिकस्य देवस्य सम्बन्धिनीति, तथा रामो नवमो बलदेवः 'देवत्तं गए त्ति हा देवत्वं-पञ्चमदेवलोके देवत्वं गतः, तथा सर्वजघन्या रात्रिरुत्तरायणपर्यन्ताहोरात्रस्य रात्रिः, सा च द्वादशमौहूर्तिका-1 KARRESKUS ॥२४॥ Jain Education a l For Personal & Private Use Only M inelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिघटिकाप्रमाणा, एवं 'दिवसोऽवि' त्ति सर्वजघन्यो द्वादशमौहूर्तिक एवेत्यर्थः, स च दक्षिणायनपर्यन्तदिवस इति । माहेन्द्रमाहेन्द्रध्वजकम्बुकम्बुग्रीवादीनि त्रयोदश विमाननामानीति ॥ १२॥ तरेस किरियाठाणा प० तं०-अहादंडे अणट्ठादंडे हिंसादंडे अकम्हादंडे दिद्विविपरिआसिआदंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झथिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरिआवहिए नाम तेरसमे, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा प०, सोहम्मवडिंसगे णं विमाणे णं अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं प०, एवं ईसाणवडिंसगेवि, जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्साई प०, पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्थू प०, गब्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे प० त०-सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चामोसमणपओगे असच्चामोसमणपओगे सच्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइंपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीससरीरकायपओगे वेउन्विअसरीरकायपओगे वेउव्विअमीससरीरकायपओगे कम्मसरीरकायपओगे, सूरमंडलं जोयणेणं तेरसेहिं एगसद्विभागहिं जोयणस्स ऊणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस पलिओवमाइं ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेरस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं तेरस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे [सु अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा वजं सुवजं वजावत्तं वजप्पमं वजकंतं वजवण्णं वजलेसं वजरूवं वजसिंगं वजसिहं वजकूडं वजत्तरवडिंसगं वरं वइरावत्तं Jain Education For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृतिः ॥२५॥ SEGUISESEISVUSIUSIAIS वइरप्पमं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिहं वइरकूड वइरुत्तरवडिसगं लोगं लोगावत्तं लोगप्पमं लोगकंतं १३ समलोगवण्णं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंगं लोगसिढे लोगकूडं लोगुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववणा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वायाध्य. तेरस सागरोवमाइं ठिई प० ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीस्ससंति वा तेसि णं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १३॥ अथ त्रयोदशस्थानके किञ्चिलिख्यते, इह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागष्ट सूत्राणि, तत्र करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा तस्याः स्थानानि-भेदाः पर्यायाः क्रियास्थानानि, तत्रार्थाय-शरीरस्वजनधर्मादिप्रयोजनाय दण्डः-त्रसस्थावरहिंसा अर्थदण्डः क्रियास्थानमितिप्रक्रमः १ तद्विलक्षणोऽनर्थदण्डः २ तथा हिंसामाश्रित्य हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यति वा अयं वैरिकादिौमित्येवंप्रणिधानेन दण्डो-विनाशनं हिंसादण्डः ३ तथाऽकस्माद-अनभिसंधिनोऽन्यवधाय प्रवृत्त्या दण्डः-अन्यस्य विनाशोऽकस्माइण्डः ४ तथा दृष्टेः-बुद्धेर्विपर्यासिका विपर्यासिता वा दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा मतिभ्रम इत्यर्थः तया दण्डः-प्राणिवधो दृष्टिविपर्यासिकादण्डो दृष्टिविपर्यासितादण्डो वा, मित्रा-6 ॥२५॥ देरमित्रादिबुद्धया हननमिति भावः ५ तथा मृषावादः-आत्मपरोभयार्थमलीकवचनं तदेव प्रत्ययः-कारणं यस्य | दण्डस्य स मृषावादप्रत्ययः ६ एवमदत्तादानप्रत्ययोऽपि ७ तथा अध्यात्मनि-मनसि भव आध्यात्मिको बाह्यनिमि jain Education Y ra For Personal & Private Use Only Marw.jainelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानपेक्षः शोकाभि(दि)भव इति भावः ८ तथा मानप्रत्ययो-जात्यादिमदहेतुकः९तथा मित्रद्वेषप्रत्ययः-मातापित्रादीनामल्पेऽप्यपराधे महादण्डनिवर्त्तनमिति भावः १० मायाप्रत्ययो मायानिबन्धनः ११ एवं लोभप्रत्ययोऽपि १२ ऐाप-13 थिकः केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्धः-उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्धः १३॥ तथा 'विमाणपत्थड'त्ति विमानप्रस्तटा उत्तराधर्यव्यवस्थिताः, तथा 'सोहम्मवडिंसए'त्ति सौधर्मस्य देवलोकस्यार्द्धचन्द्राकारस्य पूर्वापरायतस्य दक्षिणोत्तरविस्तीर्णस्य मध्यभागे त्रयोदशप्रस्तटे शक्रावासभूतं विमानं सौधर्मावतंसकं सौधर्मदेवलोकस्यावतंसकः-शेखरकः स इवप्रधानत्वात् इत्येवं यथार्थनामकमिति, णंकारो वाक्यालङ्कारे, अर्द्ध त्रयोदशं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि तानि च तानि योजनशतसहस्राणि चेति विग्रहः सार्द्धानि द्वादशेत्यर्थः, तथाऽर्द्धत्रयोदशानि जाती-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतौ कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि-उत्पत्तिस्थानप्रभवानि यानि शतसहस्राणि तानि तथोच्यन्त इति, तथा 'पाणाउस्स'त्ति यत्र प्राणिनामायुर्विधान सभेदमभिधीयते तत्प्राणायुादशं पूर्व तस्य त्रयोदश वस्तूनि-अध्ययनवद्विभागविशेषाः, तथा गर्भ-गर्भाशये व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति विग्रहः, प्रयोजन-मनोवाकायानां व्यापारणं प्रयोगः स त्रयोदशविधः, पञ्चदशानां प्रयोगाणां मध्ये आहारकाहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात् , तौ हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संयतमनुष्याणामेव न तिरश्चामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयखभावाश्चत्वारो मनःप्रयोगाः वाक्प्रयोगाश्चेति अष्टौ पुनरौदारिकादयः पञ्च कायप्रयोगाः एवं त्र Jain Education MA nal For Personal & Private Use Only Alainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय १४ समवायाध्य. SAA% वृत्तिः ॥२६॥ योदशेति, तथा सूरमण्डलस्य-आदित्यविमानवृत्तस्य योजनं सूरमण्डलयोजनं तत् 'ण'मित्यलङ्कारे त्रयोदशभिरेकषष्टिभागैर्येषां भागानामेकपष्टया योजनं भवति तैर्भागैर्योजनस्य सम्बन्धिभिरूनं-न्यूनं प्रज्ञप्तमष्टचत्वारिंशद् योजनभागा इत्यर्थः । वज्राभिलापेन द्वादश वइराभिलापेन लोकाभिलापेन चैकादश विमानानीति ॥ १३॥ चउद्दस भूअग्गामा प० तं०–सुहुमा अपजत्तआ सुहुमा पञ्जत्तया बादरा अपजत्तया वादरा पज्जत्तया बेइंदिआ अपजत्तया बेइंदिया पजत्तया तेंदिआ अपजत्तया तेंदिया पन्जत्तया चउरिंदिआ अपज्जत्तया चरिंदिया पज्जत्तया पंचिंदिआ असन्निअपज्जत्तया पंचिंदिआ असन्निपजत्तया पंचिंदिआ सन्निअपजत्तया पंचेंदिआ सन्निपजत्तया, चउदस पुव्वा प० तं०-उप्पायपुब्वमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । अत्थीनत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥१॥ सञ्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च । कम्मप्पवायपुव्वं पञ्चक्खाणं भवे नवमं ॥२॥ विजाअणुप्पवायं अवंझपाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं पुव्वं तह बिंदुसारं च ॥३॥ अग्गेणीअस्स णं पुवस्स चउद्दस वत्थू प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्था, कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा प० तं०-मिच्छदिट्ठी सासायणसम्मदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी अविरयसम्मद्दिट्ठी विरयाविरए पमत्तसंजए अप्पमत्तसंजए निअट्टीबायरे अनिअट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगी केवली अयोगी केवली, भरहेरवयाओ णं जीवाओ चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साई चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगूणवीसे भागे जोयणस्स आयामेणं प०, एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउद्दस रयणा प० तं०-इत्थी ॥२६॥ 5 Jain Education For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANGALO RCASSACROSAROGRESCOCAL रयणे सणावइरयण गाहावइरयणे पुरोहियरयणे वड्डइरयणे आसरयणे हत्थिरयणे असिरयणे दंडरयणे चक्करयणे छत्तरयणे चम्मरयणे मणिरयणे कागिणिरयणे, जंबुद्दीवे णं दीवे चउद्दस महानईओ पुवावरेण लवणसमुदं समप्पंति, तं० गंगा सिंधू रोहिआ रोहिअंसा हरी हरिकंता सीआ सीओदा नरकन्ता नारिकांता सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवई, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउदस पलिओवमाइं ठिई प०, पञ्चमीए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चउद्दस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे सु] देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई प०, महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं चउदस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सिरिकंतं सिरिमहिअं सिरिसोमनसं लंतयं काविटं महिंदकंतं महिंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई प० ते णं देवा चउद्दसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं चउद्दसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे चउद्दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १४ ॥ अथ चतुर्दशस्थानकं सुबोधं, नवरमिहाष्टौ सूत्राण्याक् स्थितिसूत्रादिति, तत्र चतुर्दश भूतग्रामाः' भूतानि-जीवाः | तेषां ग्रामाः-समूहाः भूतग्रामाः, तत्र सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तित्वात् पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, किंभूता ?अपर्यासकाः-तत्कर्मोदयादपरिपूर्णखकीयपर्याप्तय इत्येको ग्रामः, एवमेते एव पर्याप्तकाः-तथैव परिपूर्णखकीयपर्या Jain Education onal For Personal & Private Use Only C inelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सम वायाध्य. श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥२७॥ सय इति द्वितीयः, एवं बादरा बादरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादय एव, तेऽपि पर्याप्तेतरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियादयो- ऽपि, नवरं पञ्चेद्रियाः सज्ञिनो-मनःपर्याप्त्युपेता इतरे त्वसज्ञिन इति । तथा 'उप्पायपुव्वेत्यादि गाथात्रयं, तथा 'उप्पायपुव्वमग्गेणियं चत्ति यत्रोत्पादमाश्रित्य द्रव्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तदुत्पादपूर्व, यत्र तेषामेवाग्रं-परिमा णमाश्रित्य तदग्रेणीयं, 'तइयं च वीरियं पुर्वति यत्र जीवादीनां वीर्य प्रोच्यते-प्ररूप्यते तद्वीर्यप्रवादं 'अत्थीनत्थिप४ वाय'ति यद्यथा लोके अस्ति नास्ति च तद्यत्र तथोच्यते तदस्तिनास्तिप्रवादं 'तत्तो नाणप्पवायं च'त्ति यत्र ज्ञानं-मत्यादिकं खरूपभेदादिभिः प्रोच्यते तत् ज्ञानप्रवादमिति । 'सच्चप्पवायपुवं' ति यत्र सत्यः-संयमः सत्यं वचनं वा सभेदं सप्रतिपक्षं च प्रोच्यते तत्सत्यप्रवादपूर्व, ततः 'आयप्पवायपुत्वं चत्ति यत्रात्मा-जीवोऽनेकनयैः प्रोच्यते तदात्मप्रवादमिति, 'कम्मप्पवायपुवंति यत्र ज्ञानावरणादि कर्म प्रोच्यते तत्कर्मप्रवादमिति, 'पचक्खाणं भवे नवमं ति यत्र प्रत्याख्यानखरूपं वर्ण्यते तत्प्रत्याख्यानमिति २। 'विजाअणुप्पवायंति यत्रानेकविधा विद्यातिशया वर्ण्यन्ते तद्विद्यानुप्रवादं, 'अवंझपाणाउ बारसं पुवंति यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवन्ध्याः -सफला वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यमेकादशं, यत्र प्राणा-जीवा आयुश्चानेकधा वर्ण्यन्ते तत्प्राणायुरिति द्वादशं पूर्व, 'तत्तो किरियविसालं'ति यत्र क्रियाः-कायिक्या|दिकाः विशाला-विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालं 'पुवं तह बिंदुसारं च' त्ति लोकशब्दोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यः, ततश्च लोकस्य बिन्दुरिवाक्षरस्य सारं-सर्वोत्तमं यत्तल्लोकबिन्दुसारमिति ३ तथा 'चोइस वत्थूणि त्ति द्वितीय For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्य वस्तूनि-विभागविशेषाः तानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति, तथा 'साहस्सिओत्ति सहस्राण्येव साहस्यं, तथा 'कम्मविसोही'त्यादि, कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामाश्रित्य चतुर्दश जीवस्थानानि-जीवभेदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टिः-उदितमि-13 ध्यात्वमोहनीयविशेषः, तथा 'सासायणसम्मदिहि'त्ति सहेपत्तत्त्वश्रद्धानरसाखादनेन वत्तेते इति साखादनः, घण्टालालान्यायेन प्रायःपरित्यक्तसम्यक्त्वः तदुत्तरकालं षडावलिकः, तथा चोक्तम्-"उवसमसंमत्ताओ चयओ मिच्छं अ-11 पावमाणस्स ।सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥१॥” इति, साखादनश्चासौ सम्यगृष्टिश्चेति विग्रहः, 'सम्मामिच्छतिमित्ति सम्यक च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यगमिथ्याष्टिः-उदितदर्शनमोहनीयविशेषः, तथाऽविरतसम्यगृष्टिदेशविरतिरहितः विरताविरतो-देशविरतः श्रावक इत्यर्थः, प्रमत्तसंयतः-किञ्चित्प्रमादवान् सर्वविरतः, अप्रमत्तसंयतः-सर्वप्रमादरहितः स एव, 'नियट्टी.' इह क्षपक श्रेणिमुपशमश्रेणिं वा प्रतिपन्नो जीवः क्षीणदर्शनसप्तक उप४ शान्तदर्शनसप्तको वा निवृत्तिबादर उच्यते, तत्र निवृत्तिः-यद्गुणस्थानकं समकालप्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसाय-| भेदः तत्प्रधानो बादरो-बादरसम्परायो निवृत्तिबादरः, 'अणियहिवायरे'त्ति अनिवृत्तिवादरः, स च कपायाष्टकक्षपणारम्भान्नपुंसकवेदोपशमनारम्भाचारभ्य बादरलोभखण्डक्षपणोपशमने यावद्भवतीति, 'सुहुमसंपराए'त्ति सूक्ष्मःसज्वलनलोभासङ्ख्येयखण्डरूपः सम्परायः-कषायो यस्य स सूक्ष्मसम्परायो-लोभानुवेदक इत्यर्थः, अयं च द्विविध SACRORSCOEACCIRCROCESCESS dain Education Internal For Personal & Private Use Only "winw.jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्री अभय० वृत्तिः ॥ २८ ॥ Jain Education I |इत्याह-उपशमको वा–उपशम श्रेणीप्रतिपन्नः क्षपको वा - क्षपकश्रेणिप्रतिपन्न इति दशमं जीवस्थानमिति, तथा उपशान्तः - सर्वथानुदयावस्थो मोहो - मोहनीयं कर्म यस्य स उपशान्तमोहः, उपशमवीतराग इत्यर्थः, अयं चोपशमश्रेणिसमाप्तावन्तर्मुहूर्त भवति, ततः प्रच्यवत एवेति तथा क्षीणो- निःसत्ताकीभूतो मोहो यस्य स तथा, क्षयवीतराग इत्यर्थः, अयमप्यन्तर्मुहूर्त्तमेवेति, तथा सयोगी केवली - मनःप्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानीति, तथाऽयोगी के वली - निरुद्धमनःप्रभृतियोगः शैलेशीगतो हखपञ्चाक्षरोद्गिरणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति, 'भरहे' इत्यादि, भरतैरावतयोर्जीवा, इह भरतमैरवतं चारोपितगुणकोदण्डाकारं यतस्त (तस्त) योजवे भवतः, तत्र भरतस्य हि - मवतोऽर्वागनन्तरप्रदेशश्रेणिर्जीवा ऐरावतस्य च शिखरिणः परतोऽनन्तरप्रदेश श्रेणीति भरतैरावतजीवा, 'चाउरंतचकवहिस्स' ति चत्वारोऽन्ता - विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः तत्र भवः खामितयेति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्त्ती चेति विग्रहः, रत्नानि - स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति, यदाह - "रलं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कृष्ट” मिति, 'गाहावइ' त्ति गृहपतिः - कोष्ठागारिकः 'पुरोहिय'त्ति पुरोहितः - शान्तिकर्मादिकारी 'वह' त्ति वर्द्धकिः - रथादिनिर्मापयिता मणिः - पृथिवीपरिणामः काकिणी - सुवर्णमयी अधिकरणीसंस्थानेति, इह सप्ताद्यानि पञ्चेन्द्रियाणि शेषायेकेन्द्रियाणीति, श्रीकान्तमित्यादीन्यष्टौ विमाननामानीति ॥ १४ ॥ पन्नरस परमाहम्मिआ प० तं०– 'अंबे अंबरिसी चैव, सॉमे सबैलेत्ति आवरे । रुंदोवरुंदकाँले अ, महाकालेत्ति आवरे ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only १५ सम वायाध्य. ॥ २८ ॥ www.melibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिपत्ते घेणु कुम्भे, वौलुए वेअरणीति अ। खरस्सरे महाघोसे, एते पन्नरसाहिआ ॥२॥ णमी णं अरहा पन्नरस धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, धुवराहू णं बहुलपक्खस्स पडिवए पन्नरसभागं पन्नरसभागेणं चंदस्स लेसं आवरेत्ताणं चिट्ठति, तंजहा-पढमाए पढमं भागं बीआए दुभागं तइआए तिभागं चउत्थीए चउभागं पञ्चमीए पञ्चभागं छट्ठीए छभागं सत्तमीए सत्तभागं अट्ठमीए अट्ठभागं नवमीए नवभागं दसमीए दसभागं एक्कारसीए एक्कारसभागं बारसीए बारसभागं तेरसीए तेरसभागं चउद्दसीए चउद्दसभागं पन्नरसेसु पन्नरसभागं, तं चेव सुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तंजहा-पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसभागं, छ णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता प० तं०-सतभिसय भरणि अद्दा असलेसा साई तहा जेठा । एते छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥१॥ चेतासोएसुणं मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति, एवं चेत्तमासेसु पण्णरसमुहुत्ता राई भवति, विजाअणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता, मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे प० तं०-सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चमोसमणपओगे असच्चामोसमणपओगे सच्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चमोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीससरीरकायपओगे वेउब्वियसरीरकायपओगे वेउविअमीससरीरकायपओगे आहारयसरीरकायप्पओगे आहारयमीससरीरकायप्पओगे कम्मयसरीरकायपओगे, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइआणं पण्णरस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइआणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाई ठिई प०, महासुक्के कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा dalt Educatio n al For Personal & Private Use Only A njainelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ समवायाध्य. वृत्तिः श्रीसमवा- णदं सुणदं गंदावत्तं गंदप्पभं गंदकंतं णंदवणं णंदलेसं गंदज्झयं णंदसिगं गंदसिटु णंदकूडं णंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए यांगे उववण्णा तेसि ण देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा श्रीअभय उस्ससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं पण्णरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सब्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १५॥ ॥२९॥ अथ पञ्चदशस्थानके सुगमेऽपि किञ्चिलिख्यते, इह स्थितेराक् सप्त सूत्राणि, तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्ट६ परिणामत्वात्परमाधार्मिकाः-असुरविशेषाः, ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्तीति, तत्रांबेत्यादि श्लोकद्वयं, एते च व्यापारभेदेन पञ्चदश भवन्ति, तत्र 'अंबे' ति यः परमाधार्मिकदेवो नारकान् हन्ति पातयति बनाति नीत्वा चाम्बरतले विमुञ्चति सोऽम्ब इत्यभिधीयते १, 'अम्बरिसी चेव' त्ति यस्तु नारकानिहतान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति सोऽम्बरिषीति २, 'साम' त्ति यस्तु रज्जुहस्तप्रहारादिना शातनपातनादि करोति ६ वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३, 'सबलेत्ति यावरे' त्ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स चात्रवसा-६ हृदयकालेयकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबलः कर्बुर इत्यर्थः ४, 'रुद्दोवरुद्दे' त्ति यः शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति ५, यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति ६, 'काले' ति यः कण्ड्वादिषु । पचति वर्णतः कालश्च स कालः ७, महाकाल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स च श्लक्ष्णमांसानि खण्ड BAHRRRRRRRASSE Jain Education O .. For Personal & Private Use Only www.alinelibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %95% 5 OCALSOCIENDSCAXANCE यित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल इति ८, 'असिपत्ते'त्ति असिः-खड्गस्तदाकारपत्रबद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रितान् | नारकानसिपत्रपातनेन तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्रः ९, 'धणु'त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिवाणैः कर्णादीनां छेदनभेदनादि करोति स धनुरिति १०, 'कुंभेत्ति यः कुम्भादिषु तान् पचति स कुम्भः ११, 'वालु'त्ति यः कदम्बपुष्पाकारासु वज्राकारासु वैक्रियवालुकासु तप्तासु चणकानिव तान् पचति स वालुका इति १२, 'वेयरणी इय'त्ति वैतरणीति च परमाधार्मिकः, सच पूयरुधिरत्रपुताम्रादिभिरतितापात्कलकलायमान तां विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथार्थी नदी विकुळ तत्तारणेन कदर्थयति नारकानिति १३, 'खरस्सरेत्ति यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरखरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स खरखर इति १४, 'महाघोस'त्ति यो भीतान् पलायमानान् नारकान् पशूनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वनिरुणद्धि स महाघोष इति १५, 'एवमेव (एमे) पन्नरसाहिय'त्ति 'एव'मित्यम्बादिक्रमेणैते परमाधार्मिकाः पञ्चदशाख्याता:-कथिता जिनैरिति ॥२॥ 'धुवराहू ण' मित्यादि, द्विविधो राहुः भवति-पर्वराहुर्बुवराहुश्च, तत्र यः पर्वणि-पौर्णमास्याममावास्थायां वा चन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुः, यस्तु चन्द्रस्य सदैव सन्निहितः सञ्चरति सध्रुवराहुः, आह च-'किण्हं राहुविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहि। चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ १॥" त्ति, ततोऽसौ ध्रुवराहुः 'ण'मित्यलङ्कारे बहुलपक्षस्य प्रतीतस्य 'पाडिवयं' ति १ कृष्णं राहुविमानमधस्तानित्यं चन्द्रेण भवत्यविरहितम् । चतुरङ्गुलमप्राप्तमधस्ताञ्चन्द्रस्य तच्चरति ॥ १॥ % E MOCRE-%E For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे १५ समवायाध्य. श्रीअभय वृत्तिः BR ॥३०॥ POSALA545454555 प्रतिपदं-प्रथमतिथिमादौ कृत्वेति वाक्यशेषः पञ्चदशभागं पञ्चदशभागेनेति वीप्सायां द्विवचनादि यथा पदं पदेन गच्छतीत्यादिषु, प्रतिदिनं पञ्चदशभागं पञ्चदशभागमिति भावः, चन्द्रस्य प्रतीतस्य लेश्यामिति लेश्या-दीप्तिस्तत्कारणत्वात् |मण्डलं लेश्या तामावृत्य-आच्छाद्य तिष्ठति, एतदेव दर्शयन्नाह-'तद्यथे' त्यादि 'पढमाई' त्ति प्रथमायां तिथ्यां प्रथमं भागं पञ्चदशांशलक्षणं चन्द्रलेश्याया आवृत्य तिष्ठतीति प्रक्रमः, अनेन क्रमेण यावत् 'पन्नरसेसु'त्ति पञ्चदशसु दिनेषु पञ्चदशं पञ्चदशभागमावृत्य तिष्ठति, 'तं चेव'त्ति तमेव पञ्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिषु चन्द्रलेश्याया उपदर्शयन २-पञ्चदशभागतः खयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयन् तिष्ठति ध्रुवराहुरिति, इह चायं भावार्थः-पोडश|भागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशभागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान राहुः प्रतिदिनमेकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्लपक्षे तु विमुञ्चतीति, उक्तं च ज्योतिष्करण्डके-'सोलसभागे काऊण उडुबई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवहई जोण्हा ॥१॥' इति, ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकपष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशैर्दिनैश्चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् ? इति, अत्रोच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्रायिकमिति राहोर्ग्रहस्य योजनप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते, लघीयसोऽपि वा राहुविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तस्यावरणान्न दोष इति, तथा षड् नक्षत्राणि SAS POSTORA ॥३०॥ १ षोडश भागान् कृत्वोडपतिहीयतेऽत्र पञ्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि परिवर्धते ज्योत्स्ना ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश मुहूर्त्तान् यावचन्द्रेण सह संयोगो येषा तानि पञ्चदशमुहूर्त्तसंयोगानि, तद्यथा-'सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥१॥' संयुक्तं संयोग इति, तथा 'चेत्तासोएसु मासेसु'त्ति,स्थूलन्यायमाश्रित्य चैत्रेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति रात्रिश्च, निश्चयतस्तु मेषसङ्क्रान्तिदिने तुलासंक्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । 'पओगे'त्ति प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते-संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः, तत्र सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनःप्रयोगः, एवं शेषेष्वपि, नवरमौदारिकशरीरकायप्रयोग औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् कायस्तस्य प्रयोग इति विग्रहः, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः, तथौदारिकमिश्रकायप्रयोगः अयं चापर्याप्तकस्येति, इह चोत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रारब्धस्य प्रधानत्वादीदारिकः कार्मणेन मिश्रः, यदा तु मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतियङ्बादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकस्य प्रारम्भकत्वेन प्रधानत्वादौदारिको वैक्रियेण मिश्रो यावद्वैक्रियपात्या न पर्याप्तिं गच्छति, एवमाहारकेणाप्यौदारिकस्य मिश्रताऽवसेयेति, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगस्तदपर्याप्तकस्य | देवस्य नारकस्य वा कार्मणेनैव लब्धिवैक्रियपरित्यागे वा औदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्तक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि मिश्रतेत्येके, तथा आहारकशरीरकायप्रयोगस्तदभिनिवृत्ती सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात् , तथा आ Jain Education For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIS MORE श्रीसमवा- हारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदारिकेण सहाहारकपरित्यागेनेतरग्रहणायोधतस्य, एतदुक्तं भवति-यदाहारकरी १६समयांगे हरीभूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावाद्यावत् सर्प-12 वायाध्य. श्रीअभय थैव न परित्यजत्याहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, आह-न तत्तेन सर्वथा मुक्तं पूर्वनिर्वर्त्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं वृत्तिः गृह्णाति ?, सत्यं, तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थ प्रवृत्त इति गृह्णात्येव, तथा कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घा॥३१॥ तगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवतीति ॥ १५॥ सोलस य गाहासोलसगा पं० त०-समए वेयालिए उवसग्गपरिन्नों इत्थीपरिणा निरयविभेत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासिएँ वीरिएं धम्मे' साँही मग्गे" समोसरणे आहातहिएँ गंथे जमईए गाहासोलसमे सोलॅसगे, सोलस कसाया पं० त०-अणंताणुबंधी कोहे अणंताणुबंधी माणे अणंताणुबंधी माया अणंताणुबंधी लोभे अपञ्चक्खाणकसाए कोहे अपञ्चक्खाणकसाए माणे अपच्चक्खाणकसाए माया अपञ्चक्खाणकसाए लोभे पच्चक्खाणावरणे कोहे पच्चक्खाणावरणे माणे पञ्चाक्खाणावरणा माया पञ्चक्खाणावरणे लोभे संजलणे कोहे संजलणे माणे संजलणे माया संजलणे लोभे, मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस नामधेया पं० तं-मंदरमेरुमणोरम सुदंसणे सयंपैमे य गिरिरायां । रयणुच्चय पियदंसग मज्झेलोगस्सैनाभी य॥१॥ अत्ये अ सूरिआवते सूरिओवरणेति। ॥३१॥ उत्तरे में दिसाई अ, वडिंसे इअ सोलसमे ॥२॥पासस्सणं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समण संपदा होत्था, आयप्पवायस्स णं पुवस्स णं सोलस वत्थू प०, चमरबलीणं उवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं S ELOGUES 4901 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०, लघणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढपीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमाए पुढविए अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस सागरोवमाठिती प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस पलिओवमाई ठिई प०, महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं सोलस सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा आवत्तं विआवत्तं नंदिआवत्तं महाणंदिआवत्तं अंकुसं अंकुसपलंब भई सुभदं महामदं सबओभई भदुत्तरवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा सोलसहिं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहिं आहारडे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतंकरिस्संति ॥ सूत्रं १६ ॥ अथ षोडशस्थामकमुच्यते सुगम चेदं, नवरं गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आरात्सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृतागस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां । तानि गाथाषोडशकानि, तत्र 'समए'त्ति नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय एवोच्यते, वैतालीयच्छन्दोजातिबद्धं वैतालीयम, एवं शेषाणां यथाभिधेयं नामानि, 'समोसरणे'ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्टयधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डनरूपं, 'अहातहिए'त्ति यथा वस्तु तथा प्रतिपाद्यते यत्र तद्यथातथिकं, ग्रन्थाभिधायकं ग्रन्थः, 'जम JainEducational For Personal & Private Use Only helbrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ समवायाध्य. यांगे वृत्तिः श्रीसमवा-टाइएत्ति यमका इए'त्ति यमकीयं यमकनिवद्धसूत्रं 'गाहेति प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य गानाद्गाथा गाथा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादिति, मेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च 'मज्झेलोगस्सनाभी यत्ति लोकमध्ये लोकनाभिश्चेत्यर्थः।१। 'उत्तरे यत्ति भरतादीनामुत्तश्रीअभय रदिगवर्त्तित्वाद, यदाह-सव्वेसिं उत्तरो मेरु'त्ति [सर्वेषामुत्तरो मेरुः] 'दिसाइय' त्ति दिशामादिदिंगादिरित्यर्थः 'वडिंसे हू इयत्ति अवतंसः-शेखरः स इवावतंस इति, 'पुरिसादाणीय'त्ति पुरुषाणां मध्ये आदेयस्वेत्यर्थः, तथा आत्मप्रवादपू॥३२॥ स्य सप्तमस्य, तथा चमरबल्योर्दक्षिणोत्तरयोरसुरकुमारराजयोः, 'उवारियालेणे'त्ति चमरचञ्चावलीचञ्चाभिधानराजधा न्योर्मध्यभागे तद्भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत्पार्श्वपीठरूपे आवतारिकलयने षोडश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्तयोरिति, तथा लवणसमुद्रे मध्यमेषु दशसु सहस्रेषु नगरप्राकार इव जलमूर्ध्व गतं तस्य चोत्सेधवृद्धिः षोडश सहस्राणि अत उच्यते-लवणसमुद्रः षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधपरिवृद्ध्या प्रज्ञप्त इति, आवर्तादीन्येकादश विमाननामानि ॥ १६ ॥ सत्तरसविहे असंजमे प० त०-पुढविकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे वाउकायअसंजमे वणस्सइकायअसंजमे बेइंदिअअसंजमे तेइंदियअसंजमे चउरिंदियअसंजमे पंचिंदिअअसंजमे अजीवकायअसंजमे पेहाअसंजमे उवेहाअसंजमे अवहट्टुअसंजमे अप्पमजणाअसंजमे मणअसजमे वइअसंजमे कायअसंजमे, सत्तरसविहे संजमे प० तं०-पुढवीकायसंजमे आउकायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वणस्सइकायसंजमे बेइंदिअसंजमे तेइंदिअसंजमे चउरिंदिअसंजमे पंचिंदिअसंजमे अजीवकायसंजमे MOCRACROGRAMS534344 ॥३२॥ Jain Education anal For Personal & Private Use Only wwwwwpainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहासंजमे उवेहासंजमे अवहट्टसंजमे पमजणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे, माणुसत्तरे णं पव्वए सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए उई उच्चत्तेणं प०, सब्वेसिपि णं वेलंधरअणुवेलंधरणागराईणं आवासपव्वया सत्तरसएकवीसाई जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं प०, लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सातिरेगाइं सत्तरस जोयणसहस्साइं उड्डे उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणाणं तिरिआ गती पवत्तति, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए सत्तरस एकवीसाई जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, बलिस्स णं असुरिंदस्स रुअगिंदे उप्पायपव्वए सत्तरस एक्कवीसाई जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, सत्तरसविहे मरणे प०-आवीईमरणे ओहिमरणे आयंतियमरणे वलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहाणसमरणे गिद्धपिट्ठमरणे भत्तपच्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पाओवगमणमरणे, सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति तं०-आभिणिबोहियणाणावरणे सुयणाणावरणे ओहिणाणावरणे मणपजवणाणावरणे केवलणाणापरणे चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहीदंसणावरणे केवलदसणावरणे सायावेयणिजं जसोकित्तिनामं उच्चागोयं दाणंतरायं लाभंतरायं भोगंतराय उवभोगंतरायं वीरिअअंतरायं, इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइआणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइआणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई प०, महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०, सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा सामाणं सुसामाणं Jain Education D onal For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७सपवायाध्य. यांगे श्रीसमवा- महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअंमहापोंडरीअं सुक्कं महासुक्कं सीहं सीहकंतं सीहवीचं भा विरं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०,ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति श्रीअभय० वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिआ वृत्तिः जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १७॥ अथ सप्तदशस्थानकं, तच व्यक्तं, नवरमिह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाग् दश, तथा अजीवकायासंयमो-विकटसुवर्णबहुमूल्यवस्त्रपात्रपुस्तकादिग्रहणं, प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा, स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षणमविधिप्रत्युपेक्षणं इवा, उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा, तथा अपहृत्यासंयमः अविधिनोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः स तथा, अप्रमार्जनाऽसंयमः-पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति, मनोवाकायानामसंयमास्तेषामकुशलानामुदीरणानीति । असंयमविपरीतः संयमः। वेलन्धरानुवेलन्धरावासपर्वतस्वरूपं क्षेत्रसमासगाथाभिरवगन्तव्यं, एताश्चैताः-“देस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगंतु ओगाढा ॥१॥ देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । अतिरेग २ परिवड्डइ हायए वावि ॥२॥ अभंतरियं वेलं साधरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीससहस्सा दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥३॥ सट्ठी नागसहस्सा धरति अग्गे १ दशयोजनसहस्राणि लवणशिखा चकवालतो विस्तीर्णा । षोडशसहस्रोच्चा सहस्रमेकं त्वगाढा ॥१॥ देशोनार्घयोजनं लवणशिखोपरि दकं तु कालद्विके । अतिरेकमतिरेक परिवर्धते हीयते वाऽपि ॥२॥ अभ्यन्तरां वेला धारयन्ति लवणोदधे गाना । द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विसप्ततिः सहस्राणि बाह्यां ॥३॥ षष्ठि नागसहस्राणि धारयत्ति अग्रे दकं समुद्रख । वेलन्धराणामावासाः लवणे चततसपु दिक्षु चत्वारः ॥ ४॥ ॥३३॥ Jain Educa For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N SURANGACASNA दगं समुदस्स । वेलंधर आवासा लवणे य चउदिसिं चउरो ॥४॥ पुबदिसा अणुकमसो गोथुभ १ दगभास २ संख ३ * दगसीमा ४ । गोथुभे १ सिवए २ संखे ३ मणोसिले ४ नागरायाणो ॥५॥ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिआ है चउरो । कक्कोडे १ विजुप्पमे २ केलास ३ ऽरुणप्पभे ४ चेव ॥६॥ कक्कोडय कद्दमए केलासऽरुप्पभेत्थ नागरायाणो। बायालीससहस्से गंतुं उयहिमि सव्वेवि ॥७॥ चत्तारि य जोयणसए तीसे कोसं च उग्गया भूमी । सत्तरस जोयणसए इगवीसे ऊसिआ सव्वे ॥८॥" त्ति 'चारणाणं'ति जङ्घाचारणानां विद्याचारणानां च 'तिरित्ति तिर्यग् रुचकादिद्वीपगमनायेति, तिगिन्छिकूट उत्पातपर्वतो यत्रागत्य मनुष्यक्षेत्राभिगमनायोत्पतति, स चेतोऽसङ्ख्याततमेऽरुणोदयसमुद्रे दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यतिक्रम्य भवति, रुचकेन्द्रोत्पातपर्वतस्त्वरुणोदयसमुद्र एव उत्तरतो एवमेव भवतीति, 'आवीईमरणे'त्ति आ-समन्ताद्वीचय इव वीचयः-आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिंस्तदावीचि अथवा वीचिः-विच्छेदस्तदभावादवीचि, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं-प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणं, तथाऽवधिः-मर्यादा तेन मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्व्यापेक्षया पुनस्तद्हणावधि । १ पूर्वदिगनुक्रमतो गोस्तूभदकभासशङ्खदकसीमानः । गोस्तूभशिवशङ्खमनःशिला नागराजाः ॥ ४ ॥ अनुवेलन्धरावासा लवणे विदिक्षु चत्वारः संस्थिताः । कर्कोटको विद्युत्प्रभः कैलासोऽरूणप्रभचैव ॥ ५॥ कर्कोटककर्दमककैलासोऽरुणप्रभोऽत्र राजानः । द्वाचलारिंशत् सहस्त्राणि गत्वोदधौ सर्वे ॥ ६ ॥ चत्वारि योजनशतानि त्रिंशत् कोश चोदता भूमिः । सप्तदशयोजनशतानि एकविंशान्युच्छ्रिताः सर्वे ॥ ७ ॥ IRCLOCARLOCACANCER Jain Educationa l For Personal & Private Use Only ANTainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्तिः ॥ ३४ ॥ यावज्जीवस्य मृतत्वादिति, तथा 'आयंतियमरणे'त्ति आत्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति, एवं यन्मरणं तद्द्रव्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, 'वलायमरणे'त्ति संयमयोगेभ्यो वलतां - भग्नत्रतपरिणतीना व्रतिनां मरणं वलन्मरणं तथा वशेन-इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता - वाधिता वशार्त्ताः स्त्रिग्धदीपकलिकावलोकनात् शलभवत् तथाऽन्तः - मध्ये मनसीत्यर्थः शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तः शल्यो – लज्जाभिमानादिभिरनालोचिताती चारस्तस्य मरणम् अन्तःशल्यमरणं, तथा यस्मिन् भवे - तिर्यगूमनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भव योग्यमेवायुर्बद्धा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भ वमरणं, एतच तिर्यगमनुष्याणामेव न देवनारकाणां तेषां तेष्वेवोत्पादाभावादिति, तथा बाला इव बालाः - अविर - तास्तेषां मरणं बालमरण, तथा पण्डिताः - सर्वविरतास्तेषां मरणं पण्डितमरणम्, बालपण्डिताः – देशविरतास्तेषां मरणं बालपण्डितमरणं, तथा उद्मस्थमरणम् - अकेवलिमरणं, केवलिमरणं तु प्रतीतं, 'वेहासमरणं' ति विहायसि - न्योमनि भवं वैहायसं विहायो भवत्वं च तस्य वृक्षशाखाद्युद्धद्धत्वे सति भावात्, तथा गृद्धेः- पक्षिविशेषैरुपलक्षणत्वाच्छकुनि काशिवादिभिश्च स्पृष्टं - स्पर्शनं यस्मिंस्तद्गुत्रस्पृष्टम् अथवा गृभ्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि यत्र तद्गुभ्रपृष्ठम्, इदं च करिकर भादिशरीर मध्यपातादिना गृध्रादिभिरात्मानं भक्षयतो महासत्त्वस्य भवति, तथा भक्तस्य - भोजनस्य यावजीवं प्रत्याख्यानं यस्मिंस्तत्तथा इदं च त्रिविधाहारस्य चतुर्विधाहारस्य वा नियमरूपं सप्रतिकर्म च भक्तपरिज्ञेति For Personal & Private Use Only १७ समवायाध्य. 1138 11 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्रूढम्, तथा इङ्ग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्यामनशनक्रियायामितीङ्गिनी तया मरणमिङ्गिनीमरणम्, तद्धि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यातुर्निष्प्रतिकर्मशरीरस्येङ्गितदेशाभ्यन्तरवर्त्तिन एवेति, तथा पादपस्येवोपगमनम्-अवस्थान यस्मिन् तत्पादपोपगमनं तदेव मरणमिति विग्रहः, इदं च यथा पादपः क्वचित् कथञ्चिद् निपतितः सममसममिति |चाविभावयन्निश्चलमेवास्ते तथा यो वर्त्तते तस्य तद्भवतीति । तथा सूक्ष्मसम्परायः उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभक पायकिट्टिकावेदको भगवान-पूज्यत्वात् सूक्ष्मसम्परायभावे वर्तमानः-तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागत४ सूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः सप्तदश कर्मप्रकृतीर्निबभाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बनातीत्यर्थः, पूर्वतर-1 गुणस्थानकेषु बन्धं प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु । बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह-"नाणं ५तराय १० दसगं दंसण चत्तारि १४ उच्च १५ जसकित्ती १६ । एया सोलसपयडी सुहुमकसायंमि वोच्छिन्ना ॥१॥" सूक्ष्मसम्परायात्परे न बनन्तीत्यर्थः, सामानादीनि सप्तदश विमानानां नामानीति ॥ १७॥ अट्ठारसविहे बंभे पं० तं०-ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ नोवि अण्णं वायाए सेवावेइ वायाए सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ ओरालिए कामभोगे णेव सयं कायेणं सेवइ णोवि यऽणं कारणं सेवावेइ कारणं सेवंतंपि अण्णं न स मणुजाणाइ, दिव्वे Jain Education For Personal & Private Use Only R elibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे १८ समवायाध्य श्रीअभय० वृत्तिः HOSANSARASHASGS कामभोगे णेव सेयं मणेणं सेवइ णोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ मणेणं सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ दिव्वे कामभोगेणेव सयं वायाए सेवइ णोवि अण्णं वायाए सेवावेइ वायाए सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ दिव्वे कामभोगे णेव सयंकाएणं सेवइ णोवि अण्णं कारणं सेवावेइ कारणं सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ, अरहतो णं अरिहनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था, समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्यविअत्ताणं अट्ठारस ठाणा प० तं-वयछक्कं ६ कायछक्कं १२, अकप्पो १३ गिहिभायणं१४ । पलियंक १५ निसिज्जा १६ य, सिणाणं १७ सोभवजणं १८॥१॥आयारस्स णं भगवतो सचूलिआगस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं प०, बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे प० तं०-बभी जवणी लियौदोसा ऊरिओं खरोटिओखरसाविओं पहाराइया उच्चत्तरी अकूखरपुट्टियों भोगवयतां वेणतियाँ णिण्हइयों अंकलिवि गणिअलिवी गंधवलिवी भूयलिवि आदंसलिंवी माहेसरीलिवी दामिलिवी बोलिंदिलिवी, अत्थिनत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू प०, धूमप्पभाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहलेणं प०, पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवइ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिई प०, सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, आणए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिटं सालं समाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिणगुम्मं पुंडरीअं पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ॥३५॥ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAUSANDSAMROSAROSADSO NGS ठिई प० ते णं देवा णं अटारसेहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं अट्ठारसवाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धियां जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १८॥ अथाष्टादशस्थानकम, इह चाष्टौ सूत्राणि स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वा सुगमानि च, नवरं 'बत्ति ब्रह्मचर्य यथौदारिककामभोगान्-मनुष्यतिर्यकसम्बन्धिविषयान् तथा दिव्यकामभोगान्-देवसम्बन्धिन इत्यर्थः । तथा 'सखुड्डगवियताणं ति सह क्षुद्रकैर्व्यक्तैश्च ये ते सक्षुद्रकव्यक्ताः तेषां, तत्र क्षुद्रका-वयसा श्रुतेन वाऽव्यक्ताः, व्यक्तास्तु ये वयःश्रुताभ्यां परिणताः, स्थानानि-परिहारसेवाश्रयवस्तूनि 'व्रतषट्कं' महाव्रतानि रात्रिभोजनविरतिश्च 'कायषद्कं' पृथिवीकायादि, अकल्पः-अकल्पनीयपिण्डशय्यावस्त्रपात्ररूपः पदार्थः, 'गृहिभाजनं'स्थाल्यादिः पर्यको-मञ्चकादि निषद्यास्त्रिया सहासनं 'स्नानं' शरीरक्षालनं 'शोभावर्जनं' प्रतीतं। तथा 'आचारस्य' प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य-चूडासमन्वितस्य, तस्य पिण्डैषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां, यदाह-"नवबंभचेरमइओ अट्ठारस पयसहस्सीओ वेओ। हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥१॥" त्ति,यच्च सचूलिकाकस्सेति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ताप्रतिपादनार्थ, न तु पदप्रमा १ नवब्रह्मचर्यमयोऽष्टादशपदसाहनिको वेदः । भवति च सपश्चचूलो बहुबहुतरकः पदाप्रेण ॥१॥ dain Education International For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे १९ समवायाध्य. श्रीसमवा- णाभिधानार्थ, यतोऽवाचि नन्दीटीकाकृता-'अट्ठारसपयसहस्साणि पुण पढमसुयखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं, विचित्तत्थाणि य सुत्ताणि गुरूवएसओ तेसिं अत्थो जाणियब्वोत्ति, पदसहस्राणीह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, 'पदाणेश्रीअभया ति पदपरिमाणेनेति, तथा 'बंभि'त्ति ब्राह्मी-आदिदेवस्य भगवतो दुहिता ब्राह्मी वा-संस्कृतादिभेदा वाणी तामावृत्तिः श्रित्य तेनैव या दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्राह्मीलिपिः अतस्तस्या ब्राया लिपेः 'ण' मित्यलङ्कारे लेखो-लेखनं ॥३६॥ तस्या विधानं-भेदो लेखविधानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-बंभीत्यादि, एतत्वरूपं न दृष्टमिति न दर्शितं। तथा यल्लोके यथा स्ति यथा वा नास्ति अथवा स्याद्वादाभिप्रायस्तत्तदेवास्ति नास्ति वेत्येवं प्रवदंतीत्यस्तिनास्तिप्रवादं, तच्च चतुर्थ पूर्वं तस्य, तथा धूमप्रभा पञ्चमी अष्टादशोत्तरं अष्टादशयोजनसहस्राधिकमित्यर्थः, 'बाहल्येन' पिण्डेन, 'पोसासाढे'त्यादेरेवं योजना-आषाढमासे 'सई' इति सकृदेकदा कर्कसङ्क्रान्तावित्यर्थः उत्कर्षेण-उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, षट्त्रिंशघटिका इत्यर्थः, तथा पौषमासे सकृदिति-मकरसङ्क्रान्तौ रात्रिश्चैवंविधेति, कालसुकालादीनि विंशतिर्विमानानि ॥१८॥ एगूणवीसं णायज्झयणा पं० २०-उक्खित्तणाएं संघाडे, अंडे कुम्मे अ सेलऐ । तुंबे अ रोहिणी मल्ली, मागंदी चंदिमाति अ ॥१॥ दावईवे उदगणाएं, मंडुक्के तेत्तली इअ। नंदिफैले अवरकंका. आईणे सुसमा इअ॥२॥ अवरे अपोण्डरीए, जोए एगूणवी__ समे। जंबूद्दीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगूणवीस जोयणसयाई उडमहो तवयंति, सुक्केणं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताई समं चारं चरित्ता अवरेणं अत्थमणं उवागच्छइ, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेअणाओ प०, एगूणवीसं ॥३६॥ dan Education International For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थयरा अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअंपव्वइआ, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइआणं एगूणवीस पलिओवमाई ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं एगूणवीससागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइआणं एगूणवीसपलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई प०, आणयकप्पे अत्थेगइआणं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई प०, पाणए कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं जहण्णेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई प०, जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाइं ठिई प०, तेणं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं एगूणवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १९॥ अथैकोनविंशतितमस्थानं, तत्र स्थितिसूत्रेभ्यः पञ्च सूत्राणि सुगमानि च, नवरं ज्ञातानि-दृष्टान्तास्तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि षष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्तीनि, 'उक्खित्ते'त्यादि सार्द्ध रूपकद्वयम्, इदं च षष्ठाङ्गाधिगमादवसेय-2 मिति, तथा 'जंबुद्दीवे णं' इत्यादौ भावना-सूर्यों खस्थानादुपरि योजनशतं तपतोऽधश्चाष्टादश शतानि, तत्र च समभूतलेऽष्टौ भवन्ति, दश चापरविदेहे जगतीप्रत्यासन्नदेशे, जम्बूद्वीपापरविदेहे हि निम्नीभवत् क्षेत्रमन्तिमे विजयद्वारस्य देशे अधोलोकदेशमधिगतमिति, द्वीपान्तरसूर्यास्तूड़े शतमधोऽष्टशतानि, क्षेत्रस्य समत्वादिति, तथा शुक्रसूत्रे 'नक्ख स. Jain Education inlemaina For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृति: ॥ ३७ ॥ ताई' ति विभक्तिपरिणामान्नक्षत्रैः समं सह चारं चरणं चरित्वा - विधायेति, तथा 'कलाओ'त्ति 'पंचसए छब्बीसे छच्च कला वित्थडं भरहवास' मित्यादिषु जम्बूद्वीपगणितेषु याः कला उच्यन्ते ता योजनस्यैकोनविंशतिभागच्छेदनाः, एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः, 'अगारमज्झे वसित्त'त्ति अगारं - गेहं अधिकं - आधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपालनतः आ-मर्यादया नीत्या वसित्वा - उषित्वा तत्र वासं विधायेति, अध्येष्टया प्रत्रजिताः, शेषास्तु पञ्च कुमारभाव एवेत्याह च - "वीरं अरिट्ठनेमिं पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ १ ॥” ति ॥ वीसं असमाहिठाणा पं० तं० - दवदवचारि यावि भवइ अपमज्जियचारि आवि भवई दुप्पमजियचारि आवि भवइ अतिरित्तसज्जासणिएँ रातिणिअपरिभासौ थेरोवघाइएँ भूओवघाइएँ संजलणे कोहणे पिट्टिमंसिंएं अभिक्खणं २ ओहारइत्ता भवई णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पात्ता भवई पोराणाणं अधिकरणाणं खामिअविउसविआणं पुणेोदीरेत्ता भवइ ससरक्खपाणिपाऐं अकालसज्झायकारए यावि_भवैइँ कल करे सदकरे झंझकरें सूरप्पमाणभोई एसणाऽसमिते आवि भवइ, मुणिसुव्व णं अरहा वीसं धणूइं उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था, सव्वेविअ णं घणोदही वीसं जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं प०, पाणयस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वीसं सामाणिअसाहस्सीओ प०, णपुंसयवेयणिजस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधुओ बंधठिई प०, पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू, उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं पलिओवमाई ठिई प०, छडीप पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं सागरोवमाई ठिई १०, For Personal & Private Use Only १९ सम वायाध्य. ॥ ३७ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Ira 66 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वीसं पलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई प०, पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई ठिई प०, आरणे कप्पे देवाणं जहण्णेणं वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं तिगिच्छं दिसासोवत्थियं पलंबं रुइलं पुष्पं सुपुष्कं पुप्फावत्तं पुप्फपभं पुप्फर्कतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुप्फज्झयं पुप्फसिंगं पुप्फसिद्धं पुप्फुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, सिणं देवाणं वीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे वीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २० ॥ अथ विंशतितमस्थाने किञ्चिल्लिख्यते, तत्र स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र समाधानं समाधिः – चेतसः स्वास्थ्य मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः न समाधिरसमाधिस्तस्याः स्थानानि - आश्रयभेदाः पर्याया वा असामाधिस्थानानि, तत्र 'दवदवचारित्तियो हि द्रुतं द्रुतं चरति गच्छति सोऽनुकरणशब्दतो दवदवचारीत्युच्यते, चापीत्युत्तरासमाधिस्थानापेक्षया समुच्चयार्थः, भवतीति प्रसिद्धं, स च द्रुतं द्रुतं संयमात्मनिरपेक्षो ब्रजन्नात्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ योजयति अन्यांश्च सत्त्वान् भन्नसमाधौ योजयति, सत्त्ववधजनितेन च कर्म्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधौ योजयति, अतो द्रुतगन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम्, एवमन्यत्रापि यथायोगमवसेयं १, तथा अप्रमार्जि For Personal & Private Use Only anelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा २० समवायाध्य. यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥३८॥ तचारी २ दुष्प्रमार्जितचारी च ३ स्थाननिषीदनत्वग्वर्तनादिष्वात्मादिविराधनां लभते, तथाऽतिरिक्ता-अतिप्रमाणा शय्या-वसतिरासनानि च-पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्तशय्यासनिकः, स च अतिरिक्तायां शय्यायां घड्यशालादिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवसन्ति इति तैः सहाधिकरणसम्भवादात्मपरावसमाधौ योजयतीति, एवमासनाधिक्येनापि वाच्यमिति ४, तथा 'रानिकपरीभाषी' आचार्यादिपूज्यपुरुषपराभवकारी, स चात्मानमन्यांश्चासमाधौ योजयत्येव ५, तथा स्थविरा-आचार्यादिगुरवः तानाचारदोषेण शीलदोषेण च ज्ञानादिभिर्वोपहन्ती| त्येवंशीलः स एव चेति स्थविरोपघातिकः ६, तथा भूतानि-एकेन्द्रियास्ताननर्थत उपहन्तीति भूतोपघातिकः ७, तथा सज्वलतीति सज्वलनः-प्रतिक्षणरोषणः ८, तथा क्रोधनः-सकृत् क्रुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति ९, तथा पृष्ठिमांसाशिकः-पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारी १०, 'अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारयित्त'त्ति अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता-शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता, अथवाऽवहारयिता-परगुणानामपहारकारी, यथा अदासादिकमपि परं भणति-दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि ११, तथाऽधिकरणानां-कलहानां यत्रादीनां वोत्पादयिता १२, 'पोराणाणं'ति पुरातनानां कलहानां क्षमितव्यवशमितानां-मर्षितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता भवति १३, तथा 'सरजस्कपाणिपादो' यः सचेतनादिरजोगुण्डितेन हस्तेन दीयमानां भिक्षां गृह्णाति, तथा योऽस्थण्डिलादेः स्थण्डिलादौ सामन्न पादौ प्रमार्टि अथवा यस्तथाविधे कारणे (ऽसति) सचित्तादिपृथिव्यां कल्पादिनाऽनन्त ॥३८॥ andrea For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारितायामासनादि करोति स सरजस्कपाणिपाद इति १४, तथा अकालखाध्यायादिकारकः प्रतीतः १५, तथा|| 'कलहकरः' कलहहेतुभूतकर्तव्यकारी १६, तथा 'शब्दकरः' रात्रौ महता शब्देनोल्लापखाध्यायादिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा १७, तथा 'झम्झाकरो' येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन वा गणस्य मनोदुःखं समुत्प-| द्यते तद्भाषी १८, तथा 'सूरप्रमाणभोजी' सूर्योदयादस्तमयं यावदशनपानाद्यभ्यवहारी १९, एषणाअसमितश्चापि भवति-अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभिः कलहायते, तथाऽनेषणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्त्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदं विंशतितममिति २०। तथा घनोदधयः-सप्तपृथिवीप्रतिष्ठानभूताः, सामानिकाः-इन्द्रसमानर्द्धयः साहस्यः-सहस्राणि, बन्धतो-बन्धसमयादारभ्य बन्धस्थितिः स्थितिबन्ध इत्यर्थः, प्रत्याख्याननामकं पूर्व नवम, सातादीनि चैकविंशतिर्विमाननामानीति ॥२०॥ एकवीसं सबला पण्णत्ता, तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे सबैले मेहुणं पडिसेवमाणे संबले राइभोअणं भुंजमाणे सबैले आहाकम्मं भुंजमाणे संबले सागारियं पिंडं भुंजमाणे सबैले उद्देसियं कीयं आह१ दिजमाणं भुंजमाणे सर्वले अभिक्खणं पडियाइक्खेत्ता णं भुंजमाणे सबैले अंतो छण्हं मासाणं गणाओ गणं संकममाणे सबैले अंतो मासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबैले अंतो मासस्स तओ माईठाणे सेवमाणे संबले रायपिंडं भुंजमाणे सबैले आउट्टिआए पाणाइवायं करेमाणे सबैले आउट्टिआए मुसावायं वदमाणे संबले आउट्टिआए अदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबैले आउट्टिआए अणंतरहिआए पुढवीए ठाणं वा निसीहियं वा din Education For Personal & Private Use Only Vinelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे २१ समवायाध्य. श्रीअभय० वृत्तिः ॥३९॥ ALSORROCROSORROREOGA चेतेमाणे संबैले एवं आउट्टिआ चित्तमंताए पुढवीए एवं आउट्टिआ चित्तमंताए सिलाए कोलावासंसि वा दारुए ठाणं वा सिज वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबैले जीवपइट्ठिए सपाणे सबीए सहरिए सउत्तिने पणगदगमट्टीमक्कडासंताणए तहप्पगारे ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेतेमाणे संबले आउट्टिआए मूलभोअणं वा कंदभोअणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पुष्फभोयषं वा फलभोयणं हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबैले अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबैले अंतो संवच्छरस्स दस माइठाणाइ सेवमाणे सबैले अभिक्खणं २ सीतोदयवियडवग्यारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे संबंले । णिजट्टिबादरस्स णं खवितसत्तयस्स मोहणिजस्स कम्मस्स एकवीस कम्मंसा संतकम्मा प० तं०-अपञ्चक्खाणकसाए कोहे अपच्चक्खाणकसाए माणे अपञ्चक्खाणकसाए माया अपञ्चक्खाणकसाए लोभे पच्चक्खाणावरणकसाए कोहे पच्चक्खाणावरणकसाए माणे पञ्चक्खा.णावरणकसाए माया पञ्चक्खाणावरणकसाए लोभे इत्थिवेदे पुंवेदेणपुंवेदे हासे अरति रति भय सोग दुगुंछा । एकमेक्काए णं ओसप्पिणीए पंचमछट्ठाओ समाओ एक्कवीसं एकवीसं वाससहस्साई कालेणं प०२०-दसमा समसमा, एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढमबितिआओ समाओ एकवीसं एकवीसं वाससहस्साई कालेणं प० तं-दसमसमाए दसमाए य, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यगइयाण . नेरइयाण एकवीसपलिओवमाई ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकवीस सांगरोवमाई ठिई १०, असुरकुमा राणं देवाणं अत्यंगइयाणं एगवीसपलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एकवीसं पलिओवमाई ठिई ५०, आरणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाइं ठिई प०. अच्चुते कप्पे देवाणं जहण्णेणं एक्कवीस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मलं किट्ट चावोण्णतं अरण्णवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं ४ ॥३९॥ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकवीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा. सेसि णं देवा एकवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे एकवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २१॥ अथैकविंशतितमस्थानकं, तत्र चत्वारि सूत्राणि स्थितिसूत्रैर्विना सुगमानि, नवरं शबलं-कर्बुर चारित्रं यः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवोऽपि, ते एवं-तत्र हस्तकर्म-वेदविकारविशेष कुर्वन्नुपलक्षणत्वात्कारयन् वा शबलो भवत्येकः १ एवं मैथुनं प्रतिसेवमानोऽतिक्रमादिभिस्त्रिभिः प्रकारैः२ तथा रात्रिभोजनं दिवागृहीतं दिवाभुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भिर्भङ्गकैरतिक्रमादिभिश्च भुजानः ३ तथा आधाकर्म ४ सागारिकः-स्थानदाता तपिण्डं ५ औद्देशिकं क्रीतमाहृत्य दीयमानं(च) भुजानः उपलक्षणत्वात्पामिचाच्छेद्यानिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति ६, यावत्करणोपात्तपदान्येवमर्थतोऽवगन्तव्यानि, अभीक्ष्णं २ प्रत्याख्यायाशनादि भुञ्जानः ७ अन्तः षण्णां मासानामेकतो गणाद्गणमन्यं सङ्क्रामन् ८ अन्तर्मासस्य त्रीनुदकलेपान् कुर्वन् , उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलावगाहनमिति, ९, अन्तर्मासस्य त्रीणि मायास्थानानि, स्थानमिति-भेदः १०, राजपिण्डं भुजानः ११, आकुट्या प्राणातिपातं कुर्वन् , उपेत्य पृथिव्यादिकं हिंसन्नित्यर्थः १२, आकुट्टया मृषावादं वदन् १३, अदत्तादानं गृहन् १४, आकुट्टयैवानन्तर्हितायां पृथिव्यां स्थानं वा नैषेधिकं वा चेतयन् कायोत्सर्ग खाध्यायभूमि वा कुर्वन्नित्यर्थः १५ एवमाकुट्टया Jain Educati o nal For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥४०॥ सस्निग्धसरजस्कायां पृथिव्यां सचित्तवत्यां शिलायां लेष्टौ वा कोलावासे दारुणि, कोला-घुणाः तेषामावासः १६ १२२ समअन्यस्मिंश्च तथाप्रकारे सप्राणे सबीजादौ स्थानादि कुर्वन् १७ आकुट्टया मूलकन्दादि भुञ्जानः १८ अन्तः संवत्सरस्य वायाध्य. दशोदकलेपान् कुर्वन् १९ तथाऽन्तः संवत्सरस्य दश मायास्थानानि च २० तथा अभीक्ष्णं-पौनःपुन्येन शीतोदकलक्षणं यद्विकटं-जलं तेन व्यापारितो-व्याप्तो यः पाणिः-हस्तः स तथा तेनाशनं प्रगृह्य भुञ्जानः शबलः इत्येकविंशतितमः २१॥ तथा निवृत्तिवादरस्य-अपूर्वकरणस्याष्टमगुणस्थानवर्त्तिन इत्यर्थः, णं वाक्यालङ्कारे, क्षीणं सप्तकम्-अनन्तानुबबन्धिचतुष्टयदर्शनत्रयलक्षणं यस्य स तथा, तस्य मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशतिः कर्माशा-अप्रत्याख्यानादिकषायद्वादशनोकषायनवकरूपा उत्तरप्रकृतयः सत्कर्म-सत्तावस्थं कर्म प्रज्ञसमिति, तथा श्रीवत्सं श्रीदामगण्डं माल्यं कृष्टिं चापोन्नतं आरणावतंसकं चेति षड् विमाननामानीति ॥ २१ ॥ बावीस परीसहा प० त०-दिगिंगछापरीसंहे पिवासापरीसंहे सीतपरीसहे उसिणपरीसँहे दंसमसगपरीसँहे अचेलपरीसंहे अरइपरीसहे इत्थीपरीसँहे चरिआपरीसंहे निसीहियापरीसंहे सिजापरीसहे अक्कोसपरीसहे वहपरीसहे जायणापरीसहे अलामपरीसहे रोगपरीसहे तणफासपरीसहे जलपरीसँहे सक्कारपुरकारपरीसहे पण्णापरीसहे अण्णाणपरीसहे दसणपरीसहे, दिढिवायस्स णं बावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताइं अछिन्नछेयणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताई तिकणइयाइं तेरासिअसुत्तपरिवाडीए बावीस सुत्ताई चउक्कणइयाइं समयसुत्तपरिवाडीए, बावीसविहे पोग्गलपरिणामे प० तं०-काल AAAA545453 ॥४०॥ For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्णपरिणामे नीलवण्णपरिणामे लोहियवण्णपरिणाम हालिद्दवण्णपरिणामे सुक्किलवण्णपरिणामे सुन्भिगंधपरिणामे दुन्भिगंधपरिणामे तित्तरसपरिणामे कडुयरसपरिणाम कसायरसपरिणाम अंबिलरसपरिणाम महुररसपरिणामे कक्खडफासपरिणामे मउयफासपरिणामे गुरुफासपरिणामे लहुफासपरिणामे सीतफासपरिणाम उसिणफासपरिणामे णिद्धफासपरिणामे लुक्खफासपरिणामे अगुरुलहुफासपरिणामे गुरुलहुफासपरिणामे, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिई ५०, छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं बावीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं पलिओवमाई ठिई प०, अचुते कप्पे देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, हेटिमहेटिमगेवेजगाणं देवाणं जहण्णेणं बावीस सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अचुतवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा णं बावीसाए अद्धमासएणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं बावीस वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २२ ॥ द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव, नवरं सूत्राणि षट् स्थितेराक, तत्र मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषद्यन्ते इति परीषहाः, 'दिगिछत्ति बुभुक्षा सैव परीषहो दिगिन्छापरीषह इति, सहनं चास्य मर्यादानुल्लबनेन, एवमन्यत्रापि १, तथा पिपासा-तृट् २ शीतोष्णे प्रतीते ३-४ तथा दंशाश्च मशकाश्च दंशमशका उभयेऽप्येते चतुरिन्द्रिया महत्त्वा For Personal & Private Use Only wrimainelibrary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ समवायाध्य. श्रीसमवा- महत्वकृतश्चैषां विशेषोऽथवा दंशो-दंशनं भक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः, एते च यूकामत्कुणमत्को यांगे टकमक्षिकादीनामुपलक्षणमिति ५ तथा चेलानां-वस्त्राणां बहुधननवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावः अचेश्रीअभय० लत्वमित्यर्थः ६ अरतिः मानसो विकारः ७ स्त्री प्रतीता ८ 'चर्या' ग्रामादिष्वनियतविहारित्वं ९ 'नषेधिकी' सोपद्रवृचिः वेतरा च खाध्यायभूमिः १० शय्या' मनोज्ञामनोज्ञवसतिः संस्तारको वा ११ 'आक्रोशो' दुर्वचनं १२ 'वधो| ॥४१॥ यष्टयादिताडनं १३ ‘याचना' भिक्षणं तथाविधे प्रयोजने मार्गणं वा १४ अलाभरोगौ प्रतीतौ १६ तृणस्पर्शः संस्तारका भावे तृणेषु शयानस्य १७ 'जलः' शरीरवस्त्रादिमलः १८ सत्कारपुरस्कारौ च वस्त्रादिपूजनाभ्युत्थानादिसंपादनेन सत्कारेण वा पुरस्करणं-सन्माननं सत्कारपुरस्कारः १९ ज्ञानं-सामान्येन मत्यादि क्वचिदज्ञानमिति श्रूयते २० दर्शनंसम्यग्दर्शनं, सहनं चास्य क्रियादिवादिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणं २१ 'प्रज्ञा' खयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मतिज्ञानविशेषभूत इति २२। 'दृष्टिवादो' द्वादशाङ्गः, स च पञ्चधा-परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वगत ३ प्रथमानु-10 योग ४ चूलिका ५ भेदात् , तत्र दृष्टिवादस्य द्वितीये प्रस्थान द्वाविंशतिः सूत्राणि, तत्र सर्व द्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, 'छिन्नच्छेयणइयाईति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नछेदनयः यथा 'धम्मो मंगलमुक्कट्ठ'मित्यादि ला श्लोकः सूत्रार्थतः छेदनयस्थितो न द्वितीयादिश्लोकानपेक्षते, इत्येवं यानि सूत्राणि छिन्नछेदनयवन्ति तानि छिन्नछेदननायिकानि, तानि च खसमया-जिनमताश्रिता या सूत्राणां परिपाटि:-पद्धतिस्तस्यां स्खसमयपरिपाट्यां भवन्ति तया ॥४१॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा भवन्तीति, तथा 'अछिन्नच्छेयणइयाई ति इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नछेदनयो यथा 'धम्मो मंगलमुक्कहमित्यादिश्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाण इत्येवं यान्यच्छिन्नच्छेदनयवन्ति तान्यछिन्नच्छेदनयिकानि तानि चाऽऽजीविकसूत्रपरिपाट्या-गोशालकमतप्रतिबद्धसूत्रपद्धत्त्यां तया वा भवन्ति,अक्षररचनाविभागस्थितानप्यर्थतो|ऽन्योऽन्यं प्रेक्षमाणानि भवन्तीति भावना, तथा 'तिकणइयाईति नयत्रिकाभिप्रायाचिन्त्यन्ते यानि तानि नयत्रिकवन्तीति त्रिकनयिकानीत्युच्यन्ते, त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या' इह त्रैराशिका गोशालकमतानुसारिणोऽभिधीयन्ते, यस्मात्ते सर्व व्यात्मकमिच्छन्ति, तद्यथा-जीवोऽजीवो जीवाजीवश्चेति, तथा लोकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधनयमिच्छन्ति, तद्यथा-द्रव्यास्तिकः पर्यायास्तिकः उभयास्तिकश्चेति, एतदेव नयत्रयमाश्रित्य त्रिकनयिकानीत्युक्तमिति, तथा 'चउक्कनइयाईति नयचतुष्काभिप्रायात्तैश्चिन्त्यन्ते यानि तानि चतुष्कनयिकानि, नयचतुष्कं चैवंनैगमनयो द्विविधः-सामान्यग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स सनहेऽन्तर्भूतो विशेषग्राही तु व्यवहारे, तदेवं सङ्ग्रहव्यवहारऋजूसूत्राः शब्दादित्रयं चैक एवेति चत्वारो नया इति, 'खसमये'त्यादि तथैवेति, तथा पुद्गलानाम्-अण्वादीनां परिणामो-धर्मः पुद्गलपरिणामः, स च वर्णपञ्चकगन्धद्वयरसपञ्चस्पर्शाष्टकभेदाविंशतिधा, तथा गुरुलघुरगुरुलघु इति भेदद्वयक्षेपाद् द्वाविंशतिः, तत्र गुरुलघु द्रव्यं यत्तिर्यग्गामि वाय्वादि अगुरुलधुर्यत् स्थिरं सिद्धिक्षेत्रं घण्टाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानादीति, तथा महितादीनि षड् विमाननामानि ॥२२॥ Jain Education a l For Personal & Private Use Only olinelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ समवायाध्य. श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥४२॥ तेवीसं सुयगडज्झयणा प०, तं०-समए वेतालिए उवसग्गपरिणी थीपरिणाँ नरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासिएँ विरिए धम्मे समाही मग्गे समोसरणे आहत्तहिएं गंथे जमईए गाथा पुंडरीए' किरियाठाणी आहारपरिणो अपञ्चक्खाणकिरिओं अणगारसुयं अद्दईजं णालंदईजं, जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहुत्तंसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे, जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुब्वभवे एक्कारसंगिणो होत्या तं०-अजित संभव अभिणंदण सुमई जाव पासो वद्धमाणो य, उसमे गं अरहा कोसलिए चोदसपुवी होत्था, जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थंकरा पुव्वभवे मंडलिरायाणो होत्था तं०-अजित संभव अभिणंदण जाव पासो वद्धमाणो य, उसमे णं अरहा कोसलिए पुब्वभवे चक्कवट्टी होत्था, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिई ५०, अहेसत्तमाए णं पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणाणं देवाणं अत्यंगइयाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिई प०, हेटिममज्झिमगेविजाणं देवाणं जहण्णणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा हेद्विमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा, तेसिणं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्रे समुप्पजइ. संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २३॥ ॥४२॥ dain Education URL For Personal & Private Use Only I nelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशतिस्थानकं सुगममेव, नवरं चत्वारि सूत्राणि अर्वाक् स्थितिसूत्रेभ्यः, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि द्वितीये सप्त, तेषां चान्वर्थस्तदधिगमाधिगम्य इति ॥ २३ ॥ चउव्वीसं देवाहिदेवा प० तं०-उसभअजितसंभवअभिणंदणसुमइपउमप्पहसुपासचंदप्पहसुविधिसीअलसिजंसवासुपुजविमलअणंतधम्मसंतिकुंथुअरमल्लीमुणिसुव्वयनमिनेमीपासवद्धमाणा, चुल्लहिमवंतसिहरीणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ चउव्वीसं चउव्वीसं जोयणसहस्साइं णवबत्तीसे जोयणसए एगं अट्ठत्तीसइभागं जोयणस्स किंचिविसेसाहिआओ आयामेणं प०, चउवीसं देवठाणा सइंदया प०, सेसा अहमिंदा अनिंदा अपुरोहिआ, उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसीछायं णिवत्तइत्ता णं णिअट्टति, गंगासिंधूओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीस कोसे वित्थारेणं प०, रत्तारत्तवतीओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पन्नत्ता, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थे० चउवीसं पलिओवमाइं० अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीस पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिओवमाई ठिई प०, हेट्ठिमउवरिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा हेडिममज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा, तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनि- . व्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २४ ॥ ८ सम Jain Education For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा. यांगे श्रीअभय० वृत्तिः २४ समवायाध्य. ॥४३॥ CARDIOCTAX चतुर्विंशतिस्थानके षट् सूत्राणि स्थितेः प्राक्, सुगमानि च, नवरं देवानाम्-इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वाद्देवा-1 धिदेवा इति, तथा 'जीवाओ'त्ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां वर्षधराणां (च) ऋज्वी सीमा जीवोच्यते, आरोपितज्याधनुर्जीवाकल्पत्वात्, तयोश्च लघुहिमवच्छिखरिसत्कयोः प्रमाणं २४९३२ अष्टत्रिंशद्भागश्च योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकः, अत्र गाथा-'चउवीस सहस्साई नव य सए जोयणाण बत्तीसे। चुल्लहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥ १॥" त्ति, कलार्द्धमिति-एकोनविंशतिभागस्याई, तच्चाष्टत्रिंशद्भाग एव भवतीति, चतुर्विंशतिर्देवस्थानानि-देव|भेदाः,दश भवनपतीनां, अष्टौ व्यन्तराणां, पञ्च ज्योतिष्कानां, एकं कल्पोपपन्नवैमानिकानां, एवं चतुर्विंशतिः, सेन्द्रा|णि चमरेन्द्रायधिष्ठितानि, शेषाणि च अवेयकानुत्तरसुरलक्षणानि अहं अहं इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्यात्मन्द्रकाणीत्यर्थः, अत एव अनिन्द्राणि-अविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि-अविद्यमानशान्तिकर्मकारीणि, उपलक्षणपरत्वादस्याविद्यमानसेवकजनानीति, तथोत्तरायणगतः-सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्रविष्टः सूर्यःकर्कसङ्क्रान्तिदिन इत्यर्थः चतुर्विशत्यङ्गुलिकां पौरुष्यां-प्रहरे भवा छाया पौरुषीया तां छायां हस्तप्रमाणशङ्कोरिति गम्यते, 'निर्वर्त्य' कृत्वा णं वाक्यालङ्कारे 'निवर्तते' सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयमण्डलमागच्छति, आह च-'आसाढमासे दुपये'त्यादि, 'पवह' इति यतः स्थानान्नदी प्रवहति-बोढुं प्रवर्त्तते, स च पद्महदात्तोरणेन निर्गम इह सम्भाव्यते, न पुनर्योऽ| न्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वा विवक्षितः, तत्र हि जंबूद्वीपप्रज्ञत्यामिह च पञ्च For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतिक्रोशप्रमाणा गङ्गादिनद्यो विस्तारतोऽभिहिताः ॥ २४ ॥ पुरिमपच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णत्ता, तंजहा-ईरिआसमिई मणगुत्ती वयगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई ५ अणुवीतिभासणया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे ५ उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुंजणया ५ इत्थीपसुपंडगसंसत्तगसयणासणवजणया इत्थीकहविवजणया इत्थीणं इंदियाणमालोयणवजणया पुव्वरयपुव्वकीलिआणं अणणुसरणया पणीताहारविवजणया ५ सोइंदियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई पाणिंदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फार्सिदियरागोवरई ५, मल्ली णं अरहा पणवीसं धणु उडू उच्चत्तेणं होत्था, सव्वेवि दीहवेयड्डपव्वया पणवीसं जोयणाणि उ8 उच्चत्तेणं प० पणवीसं पणवीसं गाऊआणि उव्विद्धेणं प०, दोच्चाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा ५० [ आयारस्स णं भगवओ सचूलिआयस्स पणवीसं अज्झयणा प० तं०सत्थपरिणां लोगविजओ सीओसणी सम्मत्तं । आवंति धुर्यविमोहँ उवहींणसुयं महपरिणौ ॥१॥ पिंडेसण सिर्जि'रिओ भासज्झयणा य वत्थ पाएसा । उग्गहपडिमा सत्तिक्कसत्तया भावण विमुत्ती ॥२॥ निसीहज्झयणं पणवीसइमं । मिच्छादिद्विविगलिंदिए णं अपजत्तए णं संकिलिट्ठपरिणामे णामस्स कम्मस्स पणवीसं उत्तरपयडीओ णिबंधति-तिरियगतिनामं विगलिंदियजातिनाम ओरालिअसरीरणाम तेअगसरीरणामं कम्मणसरीरनाम हुंडगसंठाणनामं ओरालिअसरीरंगोवंगणाम छेवट्ठसंघयणनाम वण्णनामं गंधणामं रसणामं फासणामं तिरिआणुपुग्विनाम अगुरुलहुनामं उवघायनामं तसनामं बादरणामं अपज्जत्तयणामं महपरिणों ॥ म तेअगसरीणामस्स कम्मण विमुत्ती For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा २५ समवायाध्य. यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥४४॥ पत्तेयसरीरणामं अथिरणामं असुभणामं दुभगणामं अणादेजनामं अजसोकित्तिनामं निम्माणनामं २५, गंगासिंधूओ णं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं दुहओ घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति, रत्तारत्तवईओणं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं मकरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति, लोगबिंदुसारस्स णं पुवस्स पणवीसं वत्यू प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं पणवीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं पणवीसं पलिओवमाइं ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइआणं पणवीस पलिओवमाइं ठिई प०, मज्झिमहेडिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा हेट्ठिमउवरिमगेवेजगविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा पणवीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीस्ससंति वा, तेसि णं देवाणं पणवीसं वाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पजइ, सतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २५॥ पञ्चविंशतिस्थानकमपि सुबोधं,नवरमिह स्थितेरवोंग नव सूत्राणि, तत्र "पंचजामस्स"त्ति पञ्चानां यामानां-महाव्रतानां समाहारः पञ्चयामं तस्य 'भावणाओ'त्ति प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्ते इति भावनास्ताश्च प्रतिमहाव्रतं पञ्च पञ्चेति, तत्र्यासमित्याद्याः पञ्च प्रथमस्य महाव्रतस्य, तत्रालोकभाजनभोजनं-आलो. ॥५४ JainEducation Mahal For Personal & Private Use Only ww.jainelibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64USAMSUGARCASGUSARAL कनपूर्व भाजने-पात्रे भोजनं-भक्तादेरभ्यवहरणम्, अनालोक्यभाजनभोजने हि प्राणिहिंसा सम्भवतीति, तथा अनविचिन्त्यभाषणतादिका द्वितीयस्य, तत्र विवेकः-परित्यागः, तथा अवग्रहानुज्ञापनादिकास्तृतीयस्य, तत्रावग्रहानुज्ञापना १ तत्र चानुज्ञाते सीमापरिज्ञानं २ ज्ञातायां च सीमायां खयमेव 'उग्गहण' मिति अवग्रहस्यानुग्रहणता पश्चात्वीकरणमवस्थानमित्यर्थः ३, साधर्मिकाणां-गीतार्थसमुदायविहारिणां संविनानामवग्रहो मासादिकालमानतः द पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूपः साधर्मिकावग्रहस्तं तानेवानुज्ञाप्य तस्यैव परिभोजनता-अवस्थानं साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यमिति भावः ४, साधारणं-सामान्यं यद्भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनं चेति ५, तथा स्यादिसंसक्तशयनादिवर्जनादिकाश्चतुर्थस्य, प्रणीताहारः अतिस्नेहवानिति, तथा श्रोत्रेन्द्रियरागोपरत्यादिकाः पञ्चमस्स, अयमभिप्रायो-यो यत्र सजति तस्य तत्परिग्रह इति, ततश्च शब्दादौ रागं कुर्वता ते परिगृहीता भवन्तीति परिग्रहविरतिर्विराधिता भवति, अन्यथा त्वाराधितेति, वाचनान्तरे आवश्यकानुसारेण दृश्यन्ते । तथा 'मिच्छदिट्ठी'त्यादि, मिथ्यादृष्टिरेव तिर्यग्गत्यादिकाः कर्मप्रकृतीबध्नाति न सम्यग्दृष्टिः, तासां मिथ्यात्वप्रत्ययत्वादिति मिथ्याइष्टिग्रहणं, विकलेन्द्रियो-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामन्यतमः, णमित्यलङ्कारे, पर्याप्तोऽन्या अपि बनातीत्यपर्याप्तग्रहणं, अपर्याप्तक एव ह्येता अप्रशस्ताः परिवर्त्तमानिका बनाति, सोऽप्येताः सक्लिष्टपरिणामो बनातीति सक्लिष्टपरिणाम इत्युक्तम्, अयमपि द्वीन्द्रियाद्यपर्याप्तकप्रायोग्यं बध्नाति, तत्र 'विगलिंदियजाइनाम'ति कदाचित् द्वीन्द्रियजात्यासह पञ्चविंशतिः RAHASIRSASARAR For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे 6-04 २५-२६ समवाया. + श्रीसमवा-2 कदाचिद् त्रीन्द्रियजात्या एवमितरथाऽपीति, 'गंगा' इत्यादि पञ्चविंशतिगव्यूतानि पृथुत्वेन यः प्रपातस्तेनेति शेषः, 'दुहओ'त्ति द्वयोर्दिशोः पूर्वतो गङ्गा अपरतः सिन्धुरित्यर्थः, पद्महृदाद्विनिर्गते पञ्च २ योजनशतानि पर्वतोपरि गत्वा श्रीअभय दक्षिणाभिमुखे प्रवृत्ते 'घडमुहपवित्तिएणं'ति घटमुखादिव पञ्चविंशतिक्रोशपृथुलजिहिकात् मकरमुखप्रणालात् प्रवृवृत्तिः तेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन प्रपातेन-प्रपतजलसंतानेन योजनशतोच्छ्रितस्य हिमवतोऽधोव-हूँ ॥४५॥ तिनोः स्वकीययोः प्रपातकुण्डयोः प्रपततः, एवं रक्तारक्तवत्यौ, नवरं शिखरिवर्षधरोपरिप्रतिष्ठितपुण्डरीकहदात्प्रकापतत इति, तथा लोकबिन्दुसारं-चतुर्दशपूर्वमिति ॥ २५ ॥ छव्वीसं दसकप्पववहाराणं उद्देसणकाला प० तं०-दस दसाणं छ कप्पस्स दस ववहारस्स, अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिजस्स कम्मस्स छन्वीसं कम्मंसा संतकम्मा प० तं०-मिच्छत्तमोहणिजं सोलस कसाया इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं अरति रति भयं सोगं दुगुंछा, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छब्बीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइणाणं छब्बीसं पलिओवमाइं ठिई ५०, मज्झिममज्झिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा मज्झिमहेडिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा छव्वीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा, ॥४५॥ Jain Education For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education 1 तेसि णं देवाणं छव्वीसं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २६ ॥ षड्विंशतिस्थानकं व्यक्तमेव, नवरं उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने च यावन्त्यध्ययनान्युद्देशका वा तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला - उद्देशावसराः श्रुतोपचाररूपा इति, तथा अभव्यानां त्रिपुञ्जीकरणाभावेन सम्यक्त्वमिश्ररूपं प्रकृतिद्वयं सत्तायां न भवतीति षड्विंशतिसत्कर्माशा भवन्तीति ॥ २६ ॥ सत्तावीसं अणगारगुणा प० तं० - पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिग्गहाओ वेरमणं सोइंदियनिग्गहे चक्खिंदियनिग्गहे घार्णिदियनिग्गहे जिम्मिदियनिग्गहे फासिंदियनिग्गहे कोहविवेगे. माणविवेगे मायाविवेगे लोभविवेगे भावसच्चे करणसच्चे जोगसच्चे खमा विरागया मणसमाहरणया वयसमाहरणया कायसमाहरणया णाणसंपण्णया दंसणसंपण्णया चरित्तसंपण्णया वेयणअहियासणया मारणंतिय अहियासणया, जंबुद्दीवे दीवे अभिइवजेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति, एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राईदियग्गेणं प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई बाहलेणं प०, वेयगसम्मत्तबन्धोवरयस्स णं मोहणिजस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतक्रम्मंसा प०, सावणसुद्धसत्तमीसु णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिव्वत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं नियट्टेमाणे रयणिखेत्तं अभिविट्टमाणे चारं चरइ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिओ माई ठिई प०, अहे For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ समवाया. श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥४६॥ सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तावीस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओवमाइं ठिई प०, मज्झिमउवरिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं सांगरोवमाइं ठिई प०, जे देवा मज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसिण देवाणं सत्तावीस वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २७॥ सप्तविंशतिस्थानमपि व्यक्तमेव, केवलं षट् सूत्राणि स्थितेराक, तत्र अनगाराणां-साधूनां गुणाः-चारित्रविशेषरूपाः अनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्चेन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः सत्यानि त्रीणि, तत्र भाव-| |सत्यं-शुद्धान्तरात्मता करणसत्यं यत्प्रतिलेखनाक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते योगसत्यं-योगाना-मनःप्रभृतीनामवितथत्वं १७ क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानखरूपस्य द्वेषसज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा क्रोधमानयो- रुदयनिरोधः,क्रोधमानविवेकशब्दाभ्यां तदुदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधःप्रागेवाभिहित इति न पुनरुक्तताऽपीति १८ विरागताअभिष्वङ्गमात्रस्याभावः, अथवा मायालोभयोरनुदयो, मायालोभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागभिहित इतीहापि न पुनरुक्ततेति १९, मनोवाकायानां समाहरणता, पाठान्तरतः समन्वाहरणता-अकुशलानां नि ॥४६ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AASHASA रोधास्त्रयः २२ ज्ञानादिसम्पन्नतास्तिस्रः २५ वेदनातिसहनता-शीताद्यतिसहनं २६ मारणान्तिकातिसहनताकल्याणमित्रबुवा मारणान्तिकोपसर्गसहनमिति २७, तथा जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादौ अभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैर्व्यवहारः प्रवर्त्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति, तथा मासो नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धितऋत्वादित्यमासभेदात्पञ्चविधोऽन्यत्रोक्तः, तत्र नक्षत्रमास:-चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकाललक्षणः सप्तविंशतिः रात्रि|न्दिवानि-अहोरात्राणि रात्रिन्दिवाणेति-अहोरात्रपरिमाणापेक्षयेदं परिमाणं नतु सर्वथा, तस्याधिकत्वाद्, आधिक्यं चाहोरात्रसप्तपष्टिभागानामेकविंशत्येति, “विमाणपुढवी"त्ति विमानानां पृथिवी-भूमिका, तथा वेदकसम्यक्त्वबन्धः-शायोपशमिकसम्यक्त्वहेतुभूतशुद्धदलिकपुञ्जरूपा दर्शनमोहनीयप्रकृतिस्तस्य 'उवरओ'त्ति प्राकृतत्वादुद्वलको-वियोजको जन्तुः तस्य मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्रकृतयः सत्कर्माशाः सत्तायामित्यर्थः, एकस्योद्वलितत्वादिति, तया श्रावणमासस्य शुद्धसप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यङ्गुलिकां हस्तप्रमाणशङ्कोरिति गम्यते पौरुषी छायां निर्त्य दिवसक्षेत्रं-रविकरप्रकाशमाकाशं निवर्द्धयन्-प्रकाशहान्या हानि नयन् रजनीक्षेत्रम्-अन्धकाराक्रान्तमाकाशमभिवर्धयन्-प्रकाशहान्या वृद्धि नयन् चारं चरति-व्योममण्डले भ्रमणं करोति, अयमत्र भावार्थः-इह किल स्थूलन्यायमाश्रित्य आषाढ्यां चतुर्विंशत्यङ्गुलप्रमाणा पौरुषीच्छाया भवति, दिनसप्तके सातिरेकं छायाऽङ्गुलं वर्द्धते, ततश्च श्रावणशुद्धसप्तम्यामङ्गुलत्रयं वर्द्धते, सातिरेकैकविंशतितमदिनत्वात्तस्याः, तदेव AGRA Jain Educationa l For Personal & Private Use Only helbrary org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सम श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय वृत्तिः वाया. PRESIASIS ॥४७॥ माषाढ्याः सत्कैरङ्गुलैः सह सप्तविंशतिरङ्गुलानि भवन्ति, निश्चयतस्तु कर्कसङ्क्रान्तेरारभ्य यत्सातिरेकैकविंशति- तमं दिनं तत्रोक्तरूपा पौरुषीच्छाया भवति ॥ २७॥ अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे प० तं०-मासिआ आरोवणा सपंचराईमासिया आरोवणा सदसराइमासिआ आरोवणा एवं चेव दोमासिआ आरोवणा सपंचराईदोमासिया आरोवणा एवं तिमासिआ आरोवणा चउमासिया आरोवणा उवघाइया आरोवणा अणुवघाइया आरोवणा कसिणा आरोवणा अकसिणा आरोवणा एतावता आयारपकप्पे एताव ताव आयरियव्वे, भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेगइयाणं मोहणिजस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मा प० त०-सम्मत्तवेअणिजं मिच्छत्तवेयणिजं सम्ममिच्छत्तवेयणिजं सोलस कसाया णव णोकसाया, आमिणिबोहियणाणे अट्ठावीसइविहे पतं०-सोइंदियअत्थावग्गहे चक्विंदियअत्थावग्गहे पाणिदियअत्यावग्गहे जिभिदियअत्थावग्गहे फासिंदियअत्थावग्गहे णोइंदियअस्थावग्गहे सोइंदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिंदियवंजणोग्गहे सोतिंदियईहा चक्खिदियईहा पाणिदियईहा जिभिदियईहा फासिंदियईहा णोइंदियईहा सोतिदियावाए चक्खिदियावाए घाणिंदियावाए जिभिदियावाए फार्सिदियावाए णोइंदियावाए सोइंदिअधारणा चक्खिदियधारणा घाणिदियधारणा जिभिदियधारणा फासिंदियधारणा णोइंदियधारणा, ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा प०, जीवे णं देवगइम्मि बंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीस उत्तरपगडीओ णिबंधति, तं०-देवगतिनामं पंचिंदियजातिनामं वेउब्वियसरीरनामं तेयगसरीरनामं कम्मणसरीरनाम ॥४७॥ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +ESCAESAKASAMACHAR समचउरंससंठाणणाम वेउब्वियसरीरंगोवंगणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासनामं देवाणुपुग्विणामं अगुरुलहुनाम उवधायनाम पराघायनाम उस्सासनामं पसत्यविहायोगइणामं तसनामं बायरणामं पजत्तनाम पत्तेयसरीरनामं थिराथिराणं सुभासुभाणं आएजाणाएजाणं दोण्हं अण्णयरं एगं नाम णिबंधइ जसोकित्तिनामं निम्माणनामं, एवं चेव नेरइआवि, णाणत्तं अप्पसत्थविहायोगइणाम हुंडगसंठाणणामं अथिरणाम दुब्भगणामं असुमनाम दुस्सरनाम अणादिजणाम अजसोकित्तीणाम निम्माणनाम, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहे सत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई प०, उवरिमहेडिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेन्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २८॥ अष्टाविंशतिस्थानकमपि व्यक्तं, नवरमिह पञ्च स्थितेः प्राक् सूत्राणि, तत्र आचारः-प्रथमाझं तस्य प्रकल्पः-अध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधानं आचारस्य वा-साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो-व्यवस्थापनमित्या ESCOURSAMACHAR in Education For Personal & Private Use Only elbrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृतिः ॥ ४८ ॥ चारप्रकल्पः, तत्र क्वचिद् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापन्नस्य कस्यचित् प्रायश्चित्तं दत्तं पुनरन्यमपराधविशेषमापन्नस्ततस्तत्रैव प्राक्तने प्रायश्चित्ते मासवहनयोग्यं मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येवं मासिक्यारोपणा भवति, तथा पञ्चरात्रिकशुद्धियोग्यं मासिकशुद्धियोग्यं चापराधद्वयमापन्नस्ततः पूर्वदत्ते प्रायश्चित्ते सपञ्चरात्रिमासिकप्रायश्चित्तारोपणात्सपञ्चरात्रमासिक्यारोपणा भवति, एवं मासिक्यारोपणाः षट् ६ एवं द्विमासिक्यः ६ त्रिमासिक्यः ६ चतुर्मासिक्योऽपि ६ चतुर्विंशतिरारोपणाः, तथा सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य चोपघातनेन लघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा उपघातिकारोपणा, यदाह - "अद्वेण छिन्नसेसं पुवद्वेणं तु संजुयं काउं । देज्जा य लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चैव ॥ १ ॥” त्ति, यथा-मासार्द्ध १५ पञ्चविंशतिकार्द्ध च सार्द्धद्वादश सर्वमीलने सार्द्धसप्तविंशतिरिति लघुमासः, तथा मासद्वयार्द्ध मासो मासिकस्यार्द्ध पक्ष उभयमीलने साद्ध मास इति लघुद्विमासिकं २५ तथा तेषामेव सार्द्धदिनद्रयाद्यनुद्घातनेन गुरूणामारोपणा अनुद्घातिकारोपणा २६, तथा यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्त्रारोपणा २७ तथा बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासान्तं तप इतिकृत्वा षण्मासाधिकं तपः कर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्स्त्रारोपणेत्यष्टाविंशतिः २८, एतच्च सम्यग् निशीथविंशतितमो| देशकादवगम्यम्, अत्रैव निगमनमाह - एतावांस्तावदाचारप्रकल्पः, इह स्थानके आरोपणामाश्रित्य विवक्षितोऽन्यथा तद्व्यतिरेकेणापि तस्योद्घातिकानुद्घातिकरूपस्य भावात्, अथवैतावानेवायं तावदाचार प्रकल्पः, शेषस्यात्रैवान्तर्भा For Personal & Private Use Only २८ समवाया. ॥ ४८ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50-50+% A5% वात, तथा एतावत्तावदाचरितव्यमित्यपि, तथैव देवगतिसूत्रे स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोरादेयानादेययोश्च परस्पर विरोधित्वेनैकदा बन्धाभावादन्यदन्यतरद्वनातीत्युक्तं, तत्र चैकशब्दग्रहणं भाषामात्र एवावसेयमिति, नारकसूत्रे विंशतिस्ता एव प्रकृतयोऽष्टानां तु स्थाने अष्टावन्या बनाति, एतदेवाह-‘एवं चेवे'त्यादि, नानात्व-विशेषः ॥ २८ ॥ एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे णं प० त०-भोमे उप्पाए सुमिणे अंतरिक्खे अंगे सरे वंजणे लक्खणे, भोमे तिविहे प० त०-सुत्ते वित्ती वत्तिए, एवं एक्ककं तिविहं, विकहाणुजोगे विजाणुजोगे मंताणुजोगे जोगाणुजोगे अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे, आसाढे ण मासे एगूणतीसराइंदिआई राइंदियग्गेणं प०, ( एवं चेव) भद्दवए णं मासे कत्तिए णं मासे पोसे णं मासे फग्गुणे णं मासे वइसाहे णं मासे, चंददिणे णं एगूणतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहुत्तग्गेणं प०, जीवे णं पसत्थज्झवसाणजुत्ते भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनामसहिआओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववजइ, इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिई प०, अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिई प०, उवरिममज्झिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा उवरिमहेहिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते ण देवा एगूणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं एगूणतीसं वाससहस्से - Jain Education neha For Personal & Private Use Only waplannelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा २९ समवायाध्य. यांगे श्रीअभय० वृति : ॥४९॥ ***ORASTAISUUS हिं बाहारडे समुप्पजइ, संतेगइया मवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसमवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २९॥ एकोनत्रिंशत्तमस्थानकमपि व्यक्तमेव, नवरं नवेह सूत्राणि स्थितेः प्राक्, तत्र पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषां प्रसङ्गः-तथाऽऽसेवनारूपः पापश्रुतप्रसङ्गः,सच पापश्रुतानामेकोमत्रिशद्विधत्वात् तद्विध उक्तः, पापश्रुतविपर्वतया पापश्रुतान्येवोच्यन्ते, अत एवाह-भोमे त्यादि, तत्र भौम-भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमित्तशाख, तथा 'उत्पात' सहजरुधिरवृष्टयादिलक्षणोत्पातफलनिरूपकं निमित्तशाख, एवं खन-खनफलाविभौवर्क, 'अन्तरिक्षम्' आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदकं अङ्गशरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोद्भावकं 'खरं' जीवामीवादिकाश्रितखखरूपफलाभिधायकं म्यअनं-मषादिव्यजनफलोपदर्शकं लक्षणं-लान्छनाचनेकविधलक्षणव्युत्पादकमित्यष्टी, एतान्येव सूत्रवृत्तिवार्तिकभेदाचतुर्विंशतिः, तत्रावर्जितानामन्येषां सूत्र सहलप्रमाणे तिर्लक्षप्रमाणा वार्तिक-वृत्तेाख्यानरूपं कोटिप्रमाणं, अङ्गस्य तु सूत्रं लक्षं वृत्तिः कोटी वार्तिकमपरिमितमिति, तथा विकयामुयोगः-अर्थकामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दकवात्स्यायनादीनि भारतादीनि वा शास्त्राणि २५ तथा विद्यानुयोगो-रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायकानि शास्त्राणि २६ मन्त्रानुयोगश्चेटकाहिमत्रसाधनोपायशास्त्राणि २७ योगानुयोगो-वशीकरणादियोगाभिधायकानि हरमेखलादिशास्त्राणि २८ अन्यतीर्थिकेभ्यः-कपिलादिभ्यः 5-%EXAAMAYA ॥४९॥ Main Education international For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUSNERSEARSA%AASARI-* सकाशापः प्रवृत्तः खकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुयोगो-विचारः तत्परस्करणार्थः शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः सोऽम्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग इति १९ तथाऽषाढादय एकान्तरिता पण्मासा एकोनत्रिंशद्रात्रिदिवा इति-रात्रिदिवसपरिमाणेन भवन्ति स्थूलन्यायेन, कृष्ण पक्षे प्रखेकं रात्रिन्दिवस्यैकस्य क्षयाद्, आह च- साढबहुलपक्खे भवए कसिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेस व बोद्धव्या ओमरत्ताओ" ॥१॥ति [आषाढकृष्णपक्षे भाद्रपदे कार्तिके च पीपे च । फाल्गुने वैशाखे च बोद्धव्या अवमरात्रयः ॥१॥ इयमत्र भावना-चन्द्रमासो हि एकोमत्रिंशहिनानि दिनख च द्विषष्टिभागानां द्वात्रिंशत्, ऋतुमासश्च त्रिंशदेव दिनानि भवन्तीति चन्द्रमासापेक्षया ऋतुमासोऽहोरात्रद्विषष्टिभागानां त्रिंशता साधिको भवति, ततश्च प्रलहोरात्रं चन्द्रदिनमेकैकेन द्विषष्टिभागेन हीयते इत्यवसीयते, एवं द्विषटया चन्द्रदिवसानामेकषष्ट्यहोरात्राणां भवतीत्येवं सातिरेके मासद्वये एकमवमरात्रं भवतीति, विशेषस्त्विह चन्द्रप्रज्ञसेरवसेय इति, तथा 'चंददिणे णं ति चन्द्रदिन-प्रतिपदादिका तिथिः, तच्चकोनत्रिंशत् मुहूत्तोंः सातिरेकमुहूर्तपरिमाणेनेति, कथं ?, यतः किल चन्द्रमास एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच दिनद्विषष्टिभागा भवन्ति, | ततश्चन्द्रदिनं चन्द्रमासस्य त्रिंशता गुणनेन मुहूर्तराशीकृतस्य त्रिंशता भागहारे एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वात्रिंशच | मुहूर्तस्य द्विषष्टिांगा लभ्यन्त इति, तथा जीवः प्रशस्ताध्यवसानादिविशेषणो वैमानिकेष्वुत्पत्तुकामो नामकर्मण | एकोनत्रिंशदुत्तरप्रकृतीबंभाति, ताश्चेमाः-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रियद्वयं ४ तैजसकार्मणशरीरे ६ सम ICKGROGr%8C Jaln Educationhemamonal For Personal & Private Use Only wallurjainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे ३० समवायाध्य. श्रीअभय. वृत्तिः ॥५०॥ चतुरस्रं संस्थानं ७ वर्णादिचतुष्कं ११ देवानुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ उपघातं १४ पराघात १५ उच्छासं १६ प्रशस्तविहायोगतिः १७ वसं १८ बादरं १९ पर्याप्त २० प्रत्येकं २१ स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयोरन्यतरत् २३ सुभगं २४ सुखरं २५ आदेयानादेययोरन्यतरत् २६ यशःकीर्त्ययशकीोरेकतरं २७ निर्माणं २८ तीर्थकरश्चेति ॥२९॥ तीसं मोहणीयठाणा पं० तं-जे यावि तसे पाणे, वारिमज्झे विगाहिआ। उदएण कम्मा मारेई, महामोहं पकुव्वइ ॥१॥ सीसविढेण जे केई, आवेढेइ अभिक्खणं । तिव्वासुभसमायारे, महामोहं पकुव्वइ ॥२॥ पाणिणा संपिहिताणं, सोयमावरिय पाणिणं । अंतोनदंतं मारेई, महामोहं पकुव्वइ ॥३॥ जायतेयं समारब्भ, बहुं ओरंभिया जणं । अंतोधूमेण मारेई(जा), महामोहं पकुव्वइ॥४॥ सिस्सम्मि जे पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा । विभन्न मत्थयं फाले, महामोहं पकुव्वइ ॥५॥ पुणो पुणो पणिधिए, हरित्ता उवहसे जणं । फलेणं अदुवा दण्डेणं, महामोहं पकुव्वइ ॥६॥ गूढायारी निगूहिजा, मायं मायाएँ छायए। असच्चवाई णिण्हाई, महामोहं पकुव्वइ ॥ ७॥ धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मणा । अदुवा तुम कासित्ति, महामोहं पकुव्वइ ॥ ८॥ जाणमाणो परिसओ, सच्चामोसाणि भासइ । अक्खीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वद ॥९॥ अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं, किचा णं पडिबाहिरं ॥१०॥ उवगसंतपि झंपित्ता; पडिलोमाहि वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुव्वइ ॥११॥ अकुमारभूए जे केई, कुमारभूएत्तिहं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए, महामोहं पकुव्वइ ॥ १२ ॥ अभयारी जे केई, बंभयारीत्तिहुं वए । गद्दहेव गवां मझे, विस्सरं नयई नदं ॥१३॥ ॥५०॥ dain Education L a For Personal & Private Use Only SHIKinelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Mmational अप्पणो अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए, महामोहं पकुव्व ॥ १४ ॥ १२ ॥ जं निस्सिए उब्वहर, जससाहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुब्बइ ॥ १५ ॥ १३ ॥ ईसरेण अदुवा गामेणं, अणिसरे ईसरीकए । तस्स संपयहीणस्स, सिरी अतुलमागया ॥ १६ ॥ ईसादोसेण आविट्ठे, कलुसाविलचेयसे । जे अंतराअं चेएइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ १७ ॥ १४ ॥ सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं, महामोहं पकुव्व ॥ १८ ॥ १५ ॥ जे नायगं च रट्ठस्स, नेयारं निगमस्स वा । सेट्ठि बहुरवं हंता, महामोहं पकुब्वइ ॥ १९ ॥ १६ ॥ बहुजणस्स णेयारं, दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ २० ॥ १७ ॥ उवट्ठियं पडिविरयं, संजयं सुतवस्सियं । वुक्कम्म धम्माओ भंसे, महामोहं पकुव्व ॥ २१ ॥ १८ ॥ तवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं । तेर्सि अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २२ ॥ १९ ॥ नेयाइअस्स मग्गस्स, दुट्ठे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावेइ, महामोहं पकुव्व ॥ २३ ॥ २० ॥ आयरियउवज्झाएहिं, सुयं विणयं च गाहिए । ते चैव खिंसई बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २४ ॥ २१ ॥ आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ । अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुव्व ॥ २५ ॥ २२ ॥ अबहुस्सुए य जे केई, सुएणं पविकत्थई । सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुव्व ॥ २६ ॥ २३ ॥ अतवस्सीए य जे केई, तवेण पविकत्थइ । सव्वलोयपरे तेणे, महामोहं पकुव्वइ ॥ २७ ॥ २४ ॥ साहारणट्ठा जे केई, गिलाणम्मि उवडिए । पभू ण कुणई किचं, मज्झपि से न कुव्वइ ॥ २८ ॥ सढे नियडीपण्णाणे, कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीय, महामोहं पकुव्व ॥ २९ ॥ २५ ॥ जे कहाहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो । सव्वतित्थाण भेयाणं, महामोहं पकुव्व ॥ ३० ॥ २६ ॥ जे अ आहम्मिए जोए, संपओजे पुणो पुणो । सहाहेउं For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ k श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृचिः ३० समवायाध्य. SOILOSONSA सहीहेउ, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३१ ।। २७ ॥ जे अमाणुस्सए मोए, अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयइ, महामोहं पकुध्वइ ॥ ३२ ॥२८॥ इड्डी जुई जसो वण्णो, देवाणं बलवीरियं । तेर्सि अवण्णवं पाले, महामोह पकुष्वइ ॥ ३३ ॥ २९॥ अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३४ ॥ ३०॥ थेरे में मंडियपुत्ते तीसं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, एगमेगे णं अहोरत्ते तीसमुहुत्ते मुहुत्तग्गेर्ण प०, एएसि णं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेजा प० तं०-हे. सत्ते मित्ते वाऊ सुपीए ५ अमिचंदे माहिंदे पलंबे बंभे सच्चे १० आणंदे विजए विस्ससेणे पायावच्चे उवसमे १५ ईसाणे तठे माविअप्पा वेसमणे वरुणे २० सतरिसभे गंधग्वे अग्गिवेसायणे आतवे भावत्ते२५ तटवे भूमहे रिसमे सव्वसिद्धे रक्खसे ३०, अरे णं अरहा तीसं धणुइं उड्ड उच्चत्तेणं होत्था, सहस्सारस्स णं देविंदस्स देवरण्णो तीस सामाणियसाहस्सीओ प०, पासे णं अरहा तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, समणे भगवं महावीरे तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारिय पब्वइए, रयणप्पभाए ण पुढवीए तीस निरयावाससयसहस्सा प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाण तीसं पलिओवमाई ठिई ५०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं तीस सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यगइयाणं तीसं पलिओवमाई ठिई प०, उपरिमउवरिमगेवेजयाणं देवाणे जहाणेणं तीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा उवरिममज्झिमगेवेजएसु विमाणेसु देवत्ताप उववण्णा तेसि ण देवाणं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा तीसाए मद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति पा उस्ससंति वा मीससंति वा, तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पाइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए R dain Education For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USANSSIOSSARY भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंत करिस्संति ॥ सूत्र ३०॥ त्रिंशत्तमं स्थानकं सुगमम् , नवरं स्थितेरागष्टी सूत्राणि, तत्र मोहनीयं सामान्येनाष्टप्रकार कर्म विशेषतचतुर्थी प्रकृतिः तस्य स्थानानि-निमित्तानि मोहनीयस्थानानि, तथा “जे भावि तसे" इत्यादि श्लोकः, यश्चापि सान् प्राणान्-ख्यादीन् बारिमध्ये विगाव-प्रविश्योदकेन शस्त्रभूतेन मारयति, कथं १, आक्रम्य पादादिना स इति गम्यते मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वात्सलिष्टचित्तत्वाच भवशतदुःखवेदनीयमात्मनो महामोहं प्रकरोति-जनयति १ तदेवंभूतं त्रसमारणेनैकं मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति । 'सीसा' श्लोकः, शीर्षावेष्टेन-आर्द्रचर्मादिमयेन यः कश्चिद्वेष्टयति ख्यादिवसानिति गम्यते अभीक्ष्णं-भृशं तीव्राशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात्स मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वेन आत्मनो महामोहं प्रकुरुत इति २, यावत्करणात् केषुचित्सूत्रपुस्तकेषु शेषमोहनीयस्थानाभिधानपराः श्लोकाः सूचिताः, केषुचित् दृश्यन्त एवेति ते व्याख्यायन्ते-पाणिना-हस्तेन संपिधाय-स्थगयित्वा, किं तत् ?-'श्रोतो रन्ध्र मुखमित्यर्थः तथा आवृत्य-अवरुध्य प्राणिनं ततः अन्तर्नदन्तं-गलमध्ये रवं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्यर्थः, मारयति स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति तृतीयं ३, 'जाततेजसं' वैश्वानरं 'समारभ्य' प्रज्वाल्य8 'बहुँ' प्रभूतं 'अवरुध्य' महामण्डपवाटादिषु प्रक्षिप्य 'जन लोकं अन्तः-मध्ये धूमेन-वह्निलिङ्गेन अथवा अन्तर्धू यस्यासावन्तधूमस्तेन जाततेजसा विभक्तिपरिणामात् मारयति योऽसौ महामोहं प्रकरोति चतुर्थं ४, शीर्षे dain Education For Personal & Private Use Only SOMDainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्ति: ॥ ५२ ॥ Jain Education & | शिरसि यः प्रहन्ति - खङ्गमुद्गरादिना प्रहरति प्राणिनमिति गम्यते, किंभूते स्वभावतः शिरसि ? - 'उत्तमाङ्गे' सर्वावयवानां प्रधानावयवे तद्विघातेऽवश्यं मरणात् चेतसा - सक्लिष्टेन मनसा न यथाकथञ्चिदित्यर्थः तथा विभज्य मस्तकं प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फोटयति-विदारयति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते, स इत्यस्य गम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीति पञ्चमं ५ । पौनःपुन्येन प्रणिधिना - मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय गलकर्त्तकाः पथि गच्छता सह गत्वा विजने मारयति तथा हत्वा - विनाश्य इति गम्यते उपहसेत् आनन्दातिरेकात् 'जनं' मूर्खलोकं हन्यमानं, केन हत्वा ? - 'फलेन' योगभावितेन मातुलिङ्गादिना 'अदुवा' अथवा दण्डेन प्रसिद्धेन स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति षष्ठम् ६ । 'गूढाचारी' प्रच्छन्नानाचारवान् निगृहयेत - गोपयेत्, खकीयं प्रच्छन्नं दुष्टमाचारं तथा मायां | परकीयां मायया खकीयया छादयेत् - जयेत् यथा शकुनिमारका श्छदैरात्मानमावृत्य शकुनीन् गृह्णन्तः खकीयमायया शकुनिमायां छादयन्ति तथा असत्यवादी 'निह्नवी' अपलापकः स्वकीयाया मूलगुणोत्तरगुणप्रति सेवायाः सूत्रार्थयोर्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तमं ७ । ध्वंसयति - छायया भ्रंशयति इति यः पुरुषोऽभूतेन-असद्भूतेन, कं ? - अकर्मकं - अविद्यमान| दुश्चेष्टितं आत्मकर्मणा - आत्मकृतऋषिघातादिना दुष्टव्यापारेण 'अदुवा' अथवा यदन्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्षमेवं | त्वमकार्षीरेतन्महापापमिति वदति, वदिक्रियायाः गम्यमानत्वात्स इत्यस्यापि गम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमं ८। जानानः यथा अनृतमेतत्परिषदः सभायां बहुजनमध्ये इत्यर्थः, सत्यामृपाणि-किञ्चित्स त्यानि बह्वसत्यानि वस्तूनि वा For Personal & Private Use Only ३० समवायाध्य. ॥ ५२ ॥ anelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sontARTARRAK क्यानि वा भाषते 'अक्षीणझञ्झः' अनुपरतकलहः यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति नवमं ९ । अनायकः-अविद्यमाननायको राजा तस्य नयवान्-नीतिमानमात्यः स तस्यैव राज्ञो 'दारान्' कलत्रं द्वारं वा-अर्थागमस्योपायं ध्वंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा ?-'विपुलं' प्रचुरमित्यर्थः, 'विक्षोभ्य' सामन्तादिपरिकरभेदेन संक्षोभ्य नायकं तस्य क्षोभं जनयित्वेत्यर्थः, 'कृत्वा' विधाय णमित्यलङ्कारे प्रतिबाधं-अनधिकारिणं दारेभ्योागमद्वारेभ्यो वा, दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः १० । तथा 'उपकसन्तमपि' समीपमागच्छन्तमपि, सर्वखापहारे कृते प्राभृतेनानुलोमैः करुणैश्च वचनैरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः, झम्पयित्वा-अनिष्टवचनावकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिःतस्य प्रतिकूलाभिर्वाग्भिः-वचनैरेतादृशस्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः, 'भोगभोगान्' विशिष्टान् शब्दादीन् विदारयति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति दशमं १० । अकुमारभूतः अकुमारब्रह्मचारी सन् यः कश्चित् कुमारभूतोऽहं कुमारब्रह्मचारी अहमिति वदति, अथ च स्त्रीषु गृद्धो-वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यर्थः, अथवा 'वसति' आस्ते स महामोहं प्रकरोतीत्येकादशं ११ । अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित्तत्काल एवासेव्याब्रह्मचर्य ब्रह्मचारी साम्प्रतमहमित्यतिधूर्ततया परप्रवञ्चनाय वदति, तथा य एवमशोभावहं सतामनादेयं भणन् गर्दभ इव गवां मध्ये विखरं न वृषभवन्मनोज्ञं नदति-मुञ्चति नदं-नादं शब्दमित्यर्थः, तथा य एवं भणन्नात्मनोऽहितो-न हितकारी बालोमूढो मायामृषा बहुशः-अनृतं प्रभूतं भापते, यश्चैवं निन्दितं भाषते, कया?-स्त्रीविषयगृया हेतुभूतया स इत्थंभूतो Jain Education A nal For Personal & Private Use Only Minelibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- महामोहं प्रकरोतीति द्वादशम् १२॥ यं राजानं राजामासादिकं वा निश्रितं-आश्रितं उद्वहते-जीविकालामेना समयांगे त्मानं धारयति, कथं ?-यशसा तस्य राजादेः सत्कोऽयमिति प्रसिया अभिगमनेन वा-सेवया आश्रितराजादेस्सस वायाध्य. भीअभयनिर्वाहकारणस्य राजादेलुभ्यति 'वित्ते' द्रव्ये यः स महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशं १३ । 'ईश्वरेण' प्रभुणा 'अदुवा'[8] वृत्तिः अथवा 'ग्रामेण' जनसमूहेन अनीश्वर ईश्वरीकृतः तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य सम्प्रगृहीतस्य पुरस्कृतस्य प्रभ्वादिना ॥५३॥ श्रीः-लक्ष्मीरतुला-असाधारणा आगता-प्रासा अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्रीः समागता आगतश्रीकश्च प्रभवाद्युपकार कविषये ईर्ष्णदोषेणाविष्टो-युक्तः कलुषेण-द्वेषलोभादिलक्षणपापनाविलं-गडुलमाकुलं वा चेतो यस्य स तथा यो|ऽन्तरायं-व्यवच्छेदं जीवितश्रीभोगानां 'चेतयते' करोति प्रभुत्वादेरसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशं १४ । 'सी' नागी यथा 'अण्डउडं' अण्डककूटं खकीयमण्डकसमूहमित्यर्थः, अण्डस्य वा पुटं-सम्बन्धदलद्वयरूपं हिनस्ति, एवं भारं-पोषयितारं यो विहिनस्ति सेनापति राजानं प्रशास्तारं-अमात्यं धर्मपाठकं वा स महामोहं प्रकरोतीति, तन्मरणे बहुजनदुःस्थता भवतीति पश्चदशं १५। यो नायकं वा-प्रभु राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमिति भावः, तथा 'नेतारं' प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्य-वाणिजकसमूहस्य, कं?-श्रेष्ठिन' श्रीदेवताङ्कितपट्टबद्धं, किंभूतं -'बहुरवं' भूरिशब्द ॥५३॥ प्रचरयशसमित्यर्थः हत्वा महामोहं प्रकरुत इति षोडशं १६ । 'बहजनस्य' पञ्चषादीनां लोकानां 'नेतार' नायक। द्वीप इव द्वीपः-संसारसागरगतानामाश्वासस्थानं अथवा दीप इव दीपोऽज्ञानान्धकारावृतबुद्धिरष्टिप्रसराणां शरीरिणां KAMACCESSOSIAS Jain Education Intern al For Personal & Private Use Only RW.jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R MEACCORNER AMACHCARE हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वात् तं, अत एव त्राणं-आपद्रक्षणं प्राणिनामेताशं यादृशा गणधरादयो भवन्ति, 'नवरं' प्रावचनिकादिपुरुष हत्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तदशं १७ । उपस्थितं प्रव्रज्यायां-अविव्रजिषुमित्यर्थः, 'प्रतिविरतं' सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तं प्रव्रजितमेवेत्यर्थः 'संयतं' साधु 'सुतपखिनं' तपांसि कृतवन्तं शोभनं वा ४/ तपः श्रितं-आश्रितं क्वचित् 'जे भिक्खु जगजीवणं ति पाठः, तत्र जगन्ति-जंगमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति जगजीवनस्तं विविधैः प्रकारैरुपक्रम्याक्रम्य व्यपक्रम्य वलादित्यर्थः, धर्मात्-श्रुतचारित्रलक्षणाझंशयति यः स| महामोहं प्रकरोतीति अष्टादशं १८ । यथैव प्राक्तनं मोहनीयस्थानं तथैवेदमपि, अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन अक्षयित्वेन वा जिनानां अहंतां वरदर्शिनां क्षायिकदर्शनत्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसम्पदुपेतत्वेन भुवनत्रये | प्रसिद्धाः 'अवर्णः' अवर्णवादो वक्तव्यत्वेन यस्यास्ति सोऽवर्णवान्, यथा नास्ति कश्चित् सर्वज्ञो, ज्ञेयस्यानन्तत्वात् , उक्तं च-"अजवि धावइ नाणं अजवि य अणंतओ अलोगोवि । अजविन कोइ विउहं पावन्ति सव्वन्नुयं जीवो॥१॥ अह पावति तो संतो होइ अलोओ न चेयमिटुंति" त्ति [ अद्यापि धावति ज्ञानं अद्याप्यनन्तोऽलोकोऽपि । अद्यापि || न कोऽपि ब्यूहं प्राप्नोति सर्वज्ञतां जीवः ॥ १॥ अथ प्राप्नोति तदा सान्तोऽलोको भवेत् न चेदमिष्टमिति] अदूषणं ६ चैतद्, उत्पत्तिसमय एव केवलज्ञानं युगपल्लोकालोको प्रकाशयदुपजायते, यथाऽपवरकान्तर्वर्त्तिदीपकलिका अपवरकमध्यप्रकाशखरूपेत्यभ्युपगमादिति, बाल:-अज्ञो महामोहं प्रकरोतीति एकोनविंशतितमं १९ । 'नया Jan Education or For Personal & Private Use Only Hainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- 18 श्रीअभय ॥५४॥ यिकस्य' न्यायमनतिक्रान्तस्य 'मार्गस्य' सम्यग्दर्शनादेः मोक्षपथस्य दुष्टो द्विष्ठो वा 'अपकरोति' अपकारं करोतीति, ३० सम'बहु' अत्यर्थ पाठान्तरेणापहरति बहुजनं विपरिणमयतीति भावः, तं मार्ग 'तिप्पयंतो'त्ति निन्दयन् भावयति वायाध्य. निन्दया द्वेषेण वा वासयति आत्मानं परं च यः स महामोहं प्रकरोतीति विंशतितम २० । आचार्योपाध्यायः श्रुतं-खाध्यायं विनयं च-चारित्रं 'ग्राहितः' शिक्षितः तानेव 'खिंसति' निन्दति-अल्पश्रुता एते इत्यादि ज्ञानतः || अन्यतीर्थिकसंसर्गकारिण इत्यादि दर्शनतः मन्दधर्माणः पार्थस्थादिस्थानवर्त्तिन इत्यादि चारित्रतः, यः स एवंभूतो | बालो महामोहं प्रकरोतीत्येकविंशतितम २१ । आचार्यादीन श्रुतदानग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तप्र्पितवतः|उपकृतवतः सम्यक् न तान् प्रति 'तपयति' विनयाहारोपध्यादिभिर्न प्रत्युपकरोतीति, तथा अप्रतिपूजको-न पूजाकारी तथा 'स्तब्धो मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविंशतितमं २२। अबहुश्रुतश्च यः कश्चित् श्रुतेन 'प्रविकत्थते' आत्मानं श्लाघते श्रुतवानहमनुयोगधरोऽहमित्येवं. अथवा कस्मिंश्चित्त्वमनुयोगाचार्यो वाचकोवेति पृच्छति प्रतिभणति आम, खाध्यायवादं वदति विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिकं यः स महामोहं-श्रुतालाभहेतुं प्रकरो-18 तीति त्रयोविंशतितमं २३ । 'अतवस्सीए' सुगम, पूर्वार्द्ध पूर्ववत्, नवरं 'सर्वलोकात्' सर्वजनात् सकाशात्परः-18||॥५४॥ प्रकृष्टः स्तेनः-चौरो भावचौरत्वात् महामोहं अतपखिताहेतुं प्रकरोतीति चतुर्विशतितमं २४ । साधारणार्थमुपकारार्थ यः कश्चिदाचार्यादिलाने-रोगवति 'उपस्थिते' प्रत्यासन्नीभूते 'प्रभुः समर्थ उपदेशेनौषधादिदानेन च For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतोऽन्यतश्चोपकारं न करोति, कृत्यमुपेक्षते इत्यर्थः, केनाभिप्रायेणेत्याह-ममाप्येष न करोति किंचनापि कृत्यं समर्थोऽपि सन्विद्वेषेण, असमर्थो वाऽयं बालत्वादिना किं कृतेनास्य ?, पुनरुपकर्तुमशक्तत्वादिति लोभेनेति, 'शठः' कैतवयुक्तः शक्तिलोपनात् निकृतिः-माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा, ग्लानःप्रतिचरणीयो मा भवत्विति ग्लानहै वेषमहं करोमीति विकल्पवानित्यर्थः, अत एव च कलुषाकुलचेताः आत्मनश्चाबोधिको-भवान्तराप्राप्तव्यजिनधमको ग्लानाप्रतिजागरेणाज्ञाविराधनात् , चशब्दात्परेषां चाबोधिकः अविद्यमाना बोधिरस्मादिति व्युत्पादनात् , ये हि तदीयं ग्लानाप्रतिजागरणमुपलभ्य जिनधर्मपराजुखा भवन्ति तेषामबोधिस्तत्कृतेति स एवम्भूतो महामोहं| प्रकरोतीति पञ्चविंशतितमं २५ । कथा-वाक्यप्रबन्धः शास्त्रमित्यर्थस्तद्रूपाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि-कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमर्दनप्रवर्तकत्वेन तेषामात्मनो दुर्गतावधिकारित्वकरणात्, कथया वा क्षेत्राणि कृषत गामसूयतेत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि, अथवा कथा-राजकथादिका अधिकरणानि च-यत्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि तानि सम्प्रयुंक्ते पुनः पुनः एवं 'सर्वतीर्थभेदाय' संसारसागरतरणकारणत्वात् तीर्थानि-ज्ञानादीनि तेषां सर्वथा नाशाय प्रवर्त्तमानः स महामोहं प्रकरोतीति षड्विंशतितम २६ । 'जे य आहम्मिए' कण्ठ्यम् , नवरं अधार्मिकयोगा-निमित्तवशीकरणादिप्रयोगाःकिमर्थ?-श्लाघाहेतोः सखिहेतोः-मित्रनिमित्तमित्यर्थः इति सप्तविंशतितमं २७ । यश्च मानुष्यकान् भोगान् अथवा पारलौकिकान् 'ते'त्ति विभक्तिपरिणामात्तैस्तेषु सम. dain Education For Personal & Private Use Only T anelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्तिः ॥ ५५ ॥ वा अतृप्यन् - तृप्तिमगच्छन् 'आखादते' अभिलपति आश्रयति वा स महामोहं प्रकरोतीति अष्टाविंशतितमं २८ । ऋद्धिः - विमानादिसम्पत् द्युतिः- शरीराभरणदीप्तिः यशः - कीर्तिः वर्णः - शुक्लादिः शरीरसम्बन्धी देवानां वैमानिकादीनां बलं - शारीरं वीर्य जीवप्रभवं अस्तीत्यध्याहारः, तेषामिह अपेर्गम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामनेकातिशायिगुणवता|मवर्णवान् - अश्लाघाकारी अथवा 'अवर्णवान्' केनोल्लापेन देवानामृद्धिर्देवानां द्युतिरित्यादि काक्वा व्याख्येयं न किञ्चि| देवानामृद्ध्यादिकमस्तीत्यवर्णवादवाक्यभावार्थः, य एवम्भूतः स महामोहं प्रकरोतीति एकोनत्रिंशत्तमं २९ । अपश्यनपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिखरूपेण, अज्ञानी जिनस्येव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी, गोशालकवत्, स महामोहं प्रकरोतीति त्रिंशत्तमम् ३० । रौद्रादयो मुहूर्त्ताश्चादित्योदयादारभ्य क्रमेण भवन्ति, एतेषां च मध्ये | मध्यमाः षट् कदाचिद्दिनेऽन्तर्भवन्ति कदाचिद्रात्राविति ॥ ३० ॥ एक्कतीसं सिद्धाइगुणा प० तंजहा - खीणे आभिणिबोहियणाणावरणे खीणे सुयणाणावरणे खीणे ओहिणाणावरणे खीणे मणपञ्जवणाणावरणे खीणे केवलणाणावरणे खीणे चक्खुदंसणावरणे खीणे अचक्खुदंसणावरणे खीणे ओहिदंसणावरणे खीणे केवलदंसणावरणे खीणे निद्दा खीणे णिद्दाणिद्दा खीणे पयला खीणे पयलापयला खीणे थीणद्धी खीणे सायावेयणिजे खीणे असा - यावेयणिञ्जे खीणे दंसणमोहणिजे खीणे चरित्तमोहणिजे खीणे नेरइआउए खीणे तिरिआउए खीणे मणुस्साउए खीणे देवाउए खीणे उच्चागोए खीणे निच्चागोए खीणे सुभणामे खीणे असुभणामे खीणे दाणंतराए खीणे लाभंतराए खीणे भोगांतराए खीणे For Personal & Private Use Only ३१ समवायाध्य. ॥ ५५ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगंतराए खीणे वीरिअंतराए ३१, मंदरे णं पव्वए धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्चेव तेवीसे जोयणसए किंचिंदेसूणा परिक्खेवेणं प०, जया णं सूरिए सव्वबाहिरियं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एक्कतीसेहिं जोयणसएहिं तीसाए सट्ठिभागे जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, अभिवड्डिए णं मासे एक्कतीसं सातिरेगाइं राइंदियाइं राइंदियग्गेणं प०, आइच्चे णं मासे एक्कतीसं राइंदियाई किंचि विसेसूणाई राइंदियग्गेणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं एक्कतीसं सागरोवमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कतीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कतीसं पलिओवमाई ठिई प०, विजयवेजयंतजयंतअपराजिआणं देवाणं जहण्णेणं एक्कतीसं पलिओवमाई ठिई प०, जे देवा उवरिमउवरिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकतीसं सागरो-' वमाइं ठिई प०, ते णं देवा एक्कतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा, तेसि णं देवाणं एकतीसं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३१॥ एकत्रिंशत्तमं स्थानकं सुगम,नवरं सिद्धानामादौ-सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः,ते चाभिनिबोधिका६ वरणादिक्षयखरूपा इति । मन्दरो-मेरुः, स च धरणीतले दशसहस्रविष्कम्भ इतिकृत्वा यथोक्तपरिधिप्रमाणो भवतीति । Jan Education For Personal & Private Use Only Winelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय ० वृत्ति: ॥ ५६ ॥ " जया णं सूरिए" इत्यादि, किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, मण्डलं च ज्योतिष्कमार्गोऽभिधीयते, तत्र जम्बूद्वीपस्यान्तः अशीत्यधिके योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि भवन्ति, तथा लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाह्यैकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वबाह्यं - समुद्रान्तर्गतमण्डलानां पर्यन्तिमं, तस्य चायामविष्कम्भो लक्षं षट् शतानि च योजनानां षष्ट्यधिकानि, परिधिस्तु वृत्तक्षेत्रगणितन्यायेन त्रीणि लक्षाणि | अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, एतावत् क्षेत्रमादित्योऽहोरात्रद्वयेन गच्छति, तत्र च षष्टिर्मुहूर्त्ता भवन्तीति पष्ठया भागापहारे यल्लब्धं तन्मुहूर्त्तगम्यक्षेत्र प्रमाणं भवति, तच्च पञ्च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चोत्तराणि शतानि पञ्चदश योजनषष्टिभागाः ५३०५।१, एतच्च दिवसार्द्धन गुण्यते, यदा च सर्ववाये मण्डले सूर्य श्वरति तदा दिनप्रमाणं द्वादश मुहूर्त्ताः, तदर्द्ध च षट्, अतः पद्भिर्मुहूर्त्तगुणितं मुहूर्त्तगतिप्रमाणं चक्षुःस्पर्शगतिप्रमाणं भवति, तत्र एकत्रिंशत्सहस्राणि अष्टौ च शतान्ये कत्रिंशदधिकानि त्रिंशच योजनषष्टिभागाः ३१८३१ ६० अभिवर्द्धितमासः - अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिंशदहोरात्रद्विषष्टिभागाधिकञ्यशीत्यधिकशतत्रयरूपस्य ३८३|१३ द्वादशो भागः, अभिवर्द्धितसंवत्सरश्चासौ यत्राधिकमासको भवति, तत्र त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्वाचन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च दिनद्विषष्टिभागानां भवतीति, 'साइरेगाई' ति अहोरात्रस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामेकविंशत्युत्तरशतेनाधिकानीति, आदित्यमासो येन कालेनादित्यो राशिं भुङ्क्ते 'किंचिविसेसूणाई' ति For Personal & Private Use Only ३१ समवायाध्य. ॥ ५६ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोरात्रार्द्धन न्यूनानीति ॥ ३१ ॥ बत्तीसं जोगसंगहा प०, तंजहा-आलोयण १ निरवलावे २, आवईसु दढवम्मया ३ । अणिस्सिओवहाणे ४ य, सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६ ॥१॥ अण्णायया अलोभे ८ य, तितिक्खा ९ अजवे १० सुई ११ । सम्मदिट्ठी १२ समाही १३ य, आयारे १४ विणओवए १५॥२॥ धिईमई १६ य संवेगे १७, पणिही १८ सुविहि १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सव्वकामविरत्तया २२ ॥३॥ पञ्चक्खाणे २३-२४ विउस्सग्गे २५, अप्पमादे २६ लवालवे २७ । झाणसंवरजोगे २८ य, उदए मारणंतिए २९ ॥ ४ ॥ संगाणं च परिण्णाया ३०, पायच्छित्तकरणेऽवि य ३१ । आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ५॥ बत्तीसं देविंदा प० तं०-चमरे बली धरणे भूआणंदे जाव घोसे महाघोसे चंदे सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे जाव पाणए अच्चए, कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसहिया बत्तीसं जिणसया होत्था, सोहम्मे कप्पे बत्तीस विमाणावाससयसहस्सा णं प०, रेवइणक्खत्ते बत्तीसइतारे प०, बत्तीसतिविहे गट्टे प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई प०, जे देवा विजयवेजयन्तजयन्तअपराजियविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं बत्तीसवाससहस्सेहिं in Educati For Personal & Private Use Only Sainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥५७॥ आहारवे समुप्पज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइ- । |३२ समस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३२॥ वायाध्य. द्वात्रिंशतं स्थानकमपि व्यक्तं, नवरं युज्यन्ते इति योगाः-मनोवाकायव्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षितास्तेषां * शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि सङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शकं श्लोकपञ्चकं 'आलोयणे' त्यादि, अस्य गमनिका-तत्र आलोयण'त्ति मोक्षसाधनयोगसङ्ग्रहाय शिष्येणाचार्यायालोचना दातव्या १ 'निरवलावे'त्ति आचार्योऽपि | मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात् , नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २, 'आवईसु दढधम्मय'-2 त्ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाय साधुनाऽऽपत्सु-द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या, सुतरां तासु दृढधर्मिणा भाव्यमित्यर्थः ३, ४ 'अणिस्सिओवहाणे य'त्ति शुभयोगसङ्ग्रहायैवानिश्रितं च-तदन्यनिरपेक्षमुपधानं च-तपोऽनिश्रितोपधानं परसाहाय्यानपेक्षं तपो विधेयमित्यर्थः४, 'सिक्ख'त्ति योगसहाय शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षाद्यासेवनात्मिका चेति द्विधा, ५, 'निप्पडिकम्मय'त्ति तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया ६ ॥१॥'अण्णायय' ॥५७॥ त्ति तपसोऽज्ञातता कार्या, यशःपूजाद्यर्थित्वेनाप्रकाशयद्भिस्तपः कार्यमित्यर्थः ७, 'अलोभे य'त्ति अलोभता विधेया ८, 'तितिक्ख'त्ति तितिक्षा परीषहादिजयः९, 'अजवेत्ति आर्जव:-ऋजुभावः १०, 'सुईत्ति शुचिः सत्यं संयम Jain Educationa l For Personal & Private Use Only rebrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUDIOROSCOREOGRAM इत्यर्थः ११ ‘सम्मदिढि'त्ति सम्यग्दृष्टिः-सम्यग्दर्शनशुद्धिः १२, 'समाही यत्ति समाधिश्च-चेतःखास्थ्यं १३, 'आयारे विणओवए'त्ति द्वारद्वयं तत्राचारोपगतः स्यात् न मायां कुर्यादित्यर्थः १४, विनयोपगतो भवेत् न मानं कुर्या|दित्यर्थः १५॥२॥ 'धिइमई यत्ति धृतिप्रधाना मतिधृतिमतिः-अदैन्यं १६ ‘संवेगोत्ति संवेगः-संसाराद्भयं मोक्षाभिलाषो वा १७ 'पणिहित्ति प्रणिधिः-मायाशल्यंन कार्यमित्यर्थः १८ 'सुविहि'त्ति सुविहि' सदनुष्ठानं १९ संवरश्च-आश्रवनिरोधः २० 'अत्तदोसोवसंहारे'त्ति खकीयदोषस्य निरोधः २१ 'सब्वकामविरत्तयत्ति समस्तविषयवैमुख्यं २२॥३॥ 'पञ्चक्खाणे'त्ति प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयं २३ उत्तरगुणविषयं च २४ 'विउस्सग्गे'त्ति व्युत्सर्गो द्रव्यभावभेदभिन्नः २५ 'अप्पमाए'त्ति प्रमादवर्जनं २६ 'लवालवे'त्ति कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य्यनुष्ठानं कार्य २७ 'झाणसंवरजोगे'त्ति ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः २८ 'उदए मारणंतिए'त्ति मारणान्तिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभः कार्यः २९॥४॥ 'संगाणं च परिण्णाय' त्ति सङ्गानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिक्षा कार्या ३० 'पायच्छित्तकरणे' इति प्रायश्चित्तकरणं च कार्य ३१ 'आराहणा य मरणंते'त्ति आराधना 'मरणान्ते' मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्रेत्येते द्वात्रिंशद्योगसङ्ग्रहा इति ३२॥ ५॥ इन्द्रसूत्रे यावत्करणात् “वेणुदेवे वेणुदाली हरिकंते हरि|स्सहे अग्गिसीहे अग्गिमाणवे पुण्णे वसिट्टे जलकंते जलप्पहे अमियगई अमियवाहणे वेलंबे पहंजणे" इति दृश्यं, पुनः यावत्करणात् “माहिंदे बंभे लंतए सुक्के सहस्सारे"त्ति द्रष्टव्यं, इह च षोडशानां व्यन्तरेन्द्राणां षोडशा JainEducationer For Personal & Private Use Only arunagainelibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा नामेव चाणपण्णीकादीन्द्राणामत्पर्द्धिकत्वेनाविवक्षितत्वादसङ्ख्यातानामपि चंद्रसूर्याणां जातिग्रहणेन द्वयोयांगे * वे विवक्षितत्वाद्वात्रिंशदुक्ता इति कुन्थुनाथस्य द्वात्रिंशदधिकानि द्वात्रिंशत् केवलिशतान्यभूवन, द्वात्रिंशद्विधं श्री अभय ० * नाट्यमभिनयविषयवस्तुभेदाद्यथा राजप्रश्नकृताभिधानद्वितीयोपाङ्ग इति सम्भाव्यते, द्वात्रिंशत्पात्रप्रतिबद्धमिति वृत्तिः | केचित् ॥ ३२ ॥ ।। ५८ ।। तेत्तीस आसायणाओ प०, तं०-सेहे राइणियस्स आसन्नं गंता भवइ आसायणा सेहस्स १ सेहे राइणियस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स २ सेहे राइणियस्स सपक्खं गंता भवइ आसायणा सेहस्स ३ सेहे राइणियस्स आसन्नं ठिच्चा भवइ आसायणा सेहस्स ४ जाव सेहे राइणियस्स आलवमाणस्स तत्थगए चेव पडिसुणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ३३ । च णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्मेक्कबाराए तेत्तीस तेत्तीस भोमा प०, महाविदेहे णं वासे तेत्तीस जोयणसहस्साई साइरेगाइं विक्खंभेणं प०, जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरयाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिई (१०), अहेसत्तमाए पुढवीए कालमहाकालरोरूयमहारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई (१०), अप्पइट्ठाणनरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं अत्थेगइयाणं देवानं त् पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओ माई ठिई प०, विजयवेजयन्तजयंतअपराजिएसु For Personal & Private Use Only ३३ समवायाध्य. ॥ ५८ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐRAKAASHAKRECE%ACESS विमाणेसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई ५०, जे देवा सव्वद्वसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा, तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३३॥ अथ त्रयस्त्रिंशत्तमं स्थानकं, तत्र आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः-खण्डनं निरुक्तादाशातनाः, तत्र शैक्षः-अल्पपर्यायो रानिकस्य-बहुपर्यायस्य आसन्नं-आसत्त्या यथा रजोऽञ्चलादिस्तस्य लगति तथा गन्ता भवतीसेवमाशातना शैक्षस्येत्येवं सर्वत्र, 'पुरओ'त्ति अग्रतो गन्ता भवति, 'सपक्ख'न्ति समानपक्ष-समपाच यथा भवति समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थः, 'ठिच'त्ति स्थाता-आसीनो भवति, यावत्करणाद्दशाश्रुतस्कन्धानुसारेणान्या इह द्रष्टव्याः, ताश्चैवमर्थतः-आसन्नं पुरः पार्श्वतः स्थानेन तिस्रोऽत्र निषीदनेन च तिस्रः तथा विचारभूमौ गतयोः पूर्वतरमाचमतः | शैक्षस्याशातना १० एवं पूर्व गमनागमनमालोचयतः ११ तथा रात्रौ को जागर्तीति पृष्टे रानिकेन तद्वचनमप्रति शृण्वतः १२ रात्निकस्य पूर्वमालपनीयं कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपतः १३ अशनादि लब्धमपरस्य पूर्वमालोचयतः | १४ एवमन्यस्योपदर्शयतः १५ एवं निमन्त्रयतः १६ रानिकमनापृच्छयान्यस्मै भक्तादि ददतः १७ स्वयं प्रधानतरं भुञानस्य १८ क्वचित प्रयोजने व्याहरतो रानिकस्य वचोऽप्रतिशृण्वतः १९ रानिकं प्रति तत्समक्षं वा बृहता an duen For Personal & Private Use Only P inelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे ३३ समवायाध्य. श्रीअभय वृत्तिः ॥५९॥ शब्देन बहुधा भाषमाणस्य २० व्याहृतेन मस्तकेन वन्दे इति वक्तव्ये किं भणसीति ब्रुवाणस्य २१ प्रेरयति रात्रिके |कस्त्वं प्रेरणायामिति वदतः २२ आर्य! ग्लानं किं न प्रतिचरसीत्याधुक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरसीत्यादि भणतः २३ धर्म कथयति गुरावन्यमनस्कतां भजतोऽननुमोदयत इत्यर्थः २४ कथयति गुरौ न स्मरसीति वदतः २५ धर्मकथामाच्छिन्दतः २६ भिक्षावेला वर्तते इत्यादिवचनतः पर्षदं भिन्दानस्य २७ गुरुपर्षदोऽनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थिताया धर्म कथयतः २८ गुरोः संस्तारकं पादेन घट्टयतः २९ गुरुसंस्तारके निषीदतः ३० उच्चासने निषीदतः ३१ समासनेऽप्येवं ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमा सूत्रोक्तैव, रानिकस्यालपतस्तत्रगत एव-आसनादिस्थित एव प्रतिशृणोति, आगत्य है |हि प्रत्युत्तरं देयमिति शैक्षस्याशातनेति ३३ । 'तेत्तीसं तेत्तीसं भोम'त्ति भौमानि-नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्यन्ये, तथा 'जया णं सुरिए' इत्यादि, इह सूर्यस्य मण्डलयोरन्तरे द्वे द्वे योजनेऽष्टचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागाः, एतद्द्विगुणं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः, एतावता हीनविष्कम्भं सर्ववाद्यमण्डलाद्वितीयं मण्डलं भवति, ततश्च वृत्तक्षेत्रपरिधिगणितन्यायेन परिधितः सप्तदशभिर्याजनैरष्टत्रिंशता चैकषष्टिभागैय॑नं द्वितीयमण्डलं सर्वबाबमण्डलाद्भवति, एवं तृतीयमण्डले एतद्विगुणेन हीनं भवति, तथाहि-तद्विष्कम्भस्तत एकादशभिर्योजनैनवभिश्चैकपष्टिभागैःप-1 यन्तिमाद्धीनं भवति, परिधितस्तु पञ्चत्रिंशता योजनैः पञ्चदशभिश्चैकपष्टिभागैय॑नं भवति, तच त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्युत्तरे षट्चत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा इति, तथा अन्तिममण्डलान्मण्डले मण्डले द्वाभ्यां ॥ ५९॥ Jain Education For Personal & Private Use Only Kijainelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागाभ्यां दिनवृद्धिर्भवति, तथा च तृतीये मण्डले यदा सूर्यश्चरति तदा द्वादश मुहूर्त्ताश्चत्वारश्चैकपष्टिभागा मुहूर्त्तस्य दिनप्रमाणं भवति, तद॰ चैकषष्टिभागीकृतेनाष्टषष्टयधिकशतत्रयलक्षणेन, स्थूलगणितस्य विव-2 क्षितत्वात् परित्यक्तांशाः ३१८२७९। तृतीयमण्डलपरिधौ गुणिते सति एकषष्टया च षष्टिगुणितया भागे हृते यल्लभ्यते ६ तत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तच्च द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकोत्तराणि ३२००१ अंशानामेकषष्टया भागे हृते लब्धाश्चैकोनपञ्चाशतषष्टिभागा योजनस्य त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनपष्टिभागस्य २३ एतत्तृती*यमण्डले चक्षुःस्पर्शस्य प्रमाणं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यामुपलभ्यते, इह तु यदुक्तं त्रयस्त्रिंशत्किञ्चिन्यूना, तत्र सातिरेकयो-: जनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षितेति सम्भाव्यते, पञ्चदश मण्डले पुनरिदं यथोक्तमेव प्रमाणं भवति, प्रतिमण्डलं योजनस्य चतुरशीयाः साधिकायाः प्रथममण्डलमाने प्रक्षेपणादिति ॥ ३३॥ चोत्तीसं बुद्धाइसेसा प०, तं०-अवढिए केसमंसुरोमनहे १ निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी १ गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए ३ पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४ पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५ आगासगयं चक्कं ६ आगासगयं छत्तं ७ आगासगयाओ सेयवरचामराओ ८ आगासफालिआमयं सपायपीढं सीहासणं ९ आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडिआभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छइ १० जत्थ जत्थवि य णं अरहंता भगवन्तो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थवि य णं जक्खा देवा संछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ ११ ईसिं पिट्ठओ मउडठाणंमि तेयमंडलं Lain dudan negara For Personal & Private Use Only vw.jainelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय ३४ समवायाध्य. वृत्तिः ॥६ ॥ अभिसंजायइ अंधकारेवि य णं दस दिसाओ पभासेइ १२ बहुसमरमणिजे भूमिभागे १३ अहोसिरा कंटया जायंति १५ उऊविवरीया सुहफासा भवंति १५ सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सबओ समंता संपमजिजइ १६ जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किजइ १७ जलथलयभासुरपभूतेणं बिंटट्ठाइणा दसवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुप्फोवयारे किजइ १८ अमणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ १९ मणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं पाउन्भावो भवइ २० पच्चाहरओवि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१ भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ २२ सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेर्सि सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयचउप्पअमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिवसुहयभासत्ताए परिणमइ २३ पुवबद्धवेरावि य णं देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिनरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्म निसामति २४ अण्णउत्थियपावयणियावि य णमागया वंदंति २५ आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति २६ जओ जओवि य णं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओवि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ २१ मारी न भवइ २८ सचक्कं न भवइ २९ परचक्कं न भवइ ३० अइबुट्ठी न भवइ ३१ अणावुट्ठी न भवइ ३२ दुभिक्खं न भवइ ३३ पुव्वुप्पण्णावि य णं उप्पाइया वाही खिप्पमिव उवसमंति ३४ जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवट्टिविजया प० तं०-बत्तीसं महाविदेहे दो भरहे एरवए, जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्डा प०, जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसयए चोत्तीसं तित्थंकरा समुप्पजंति, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा ५०, पढमपंचमछट्ठीसत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा प०॥ सूत्रं ३४ ॥ ॥६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतस्त्रिंशत्तमस्थानके किमपि लिख्यते-'बुद्धाइसेस' त्ति बुद्धानां-तीर्थकृतामतिशेषाः-अतिशया बुद्धातिशेषाः. अवस्थितं-अवृद्धिखभावं केशाश्व-शिरोजाः श्मश्रूणि च कूर्चरोमाणि रोमाणि च-शेषशरीरलोमानि नखाश्च प्रतीता इति द्वन्द्वैकत्वमित्येकः १ निरामया-नीरोगा निरुपलेपा-निर्मला गात्रयष्टिः-तनुलतेति द्वितीयः २ गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितमिति तृतीयः३तथा पमं च-कमलं [च गन्धद्रव्यविशेषो वा यत्पद्मकमिति रूढं उत्पलं च-नीलोत्पलमुत्पलकुष्ठं वा गन्धद्रव्यविशेषस्तयोर्यो गन्धः स यत्रास्ति तत्तथोच्छासनिश्वासमिति चतुर्थः ४ प्रच्छन्नमाहारनीहारअभ्यवहरणमूत्रपुरीषोत्सर्गी, प्रच्छन्नत्वमेव स्फुटतरमाह-अदृश्यं मांसचक्षुषा न पुनरवध्यादिलोचनेन पुंसा इति पञ्चमं ५ एतच द्वितीयादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययं । तथा 'आगासगय'ति आकाशगतं-व्योमवर्ति आका-11 शगतं (क) वा-प्रकाशमित्यर्थः, चक्र-धर्मचक्रमिति षष्ठः ६ एवमाकाशगं छत्रं छत्रत्रयमित्यर्थ इति सप्तमः ७ आकाशके-प्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः ८ 'आगासफालिआमय'त्ति आकाशमिव यदत्यन्तमच्छं स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सह पादपीठेन सपादपीठमिति नवमः ९ 'आगासगओ'त्ति आकाशगतोऽत्यर्थं तुङ्ग इत्यर्थः ‘कुडभि'त्ति लघुपताकाः संभाव्यन्ते ताभिः परिमण्डितश्चासावभिरामश्च-अभिरमणीय इति विग्रहः 'इंदज्झओ' त्ति शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्त्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचको ध्वज इति वा 'पुरओ' त्ति जिनस्या|ग्रतो गच्छतीति दशमः १. 'चिट्ठन्ति वा निसीयन्ति वत्ति तिष्ठन्ति गतिनिवृत्त्या निषीदन्ति-उपविशन्ति 'तक्ख ११ सम. For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांग श्रीअभय० ३४ समवायाध्य. वृत्तिः ॥६१॥ SEACHERSACADEMORECASOK णादेव'त्ति तत्क्षणमेव अकालहीनमित्यर्थः, पत्रैः संछन्नः पत्रसंछन्नः पत्रसंछन्न इति वक्तव्ये प्राकृतत्वात् संछन्नपत्र इत्युक्त स चासौ पुष्पपल्लवसमाकुलश्चेति विग्रहः, पल्लवा:-अङ्कराः, सच्छत्रः सध्वजः सघण्टः सपताकोऽशोकवरपादप इत्येकादशः ११ 'ईसित्ति ईषद्-अल्पं 'पिट्ठओ'त्ति पृष्ठतः पश्चाद्भागे 'मउडठाणमित्ति मस्तकप्रदेशे तेजोमण्डलं-प्रभाफटलमिति द्वादशः १२ बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति त्रयोदशः १३ 'अहोसिर'त्ति अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति चतुर्दशः १४ ऋतवोऽविपरीताः कथमित्याह-सुखस्पर्शा भवन्तीति पञ्चदशः १५ योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिः संवत्तेकवातेनेति षोडशः १६ 'जुत्तफसिएणं'ति उचितविन्दुपातेन 'निहयरयरेणयंति वातोत्खातमाकाशवर्ति रजो भूवती तु रेणुरिति गन्धोदकवर्षाभिधानः सप्तदशः १७ जलस्थलजं यद्भाखरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थायिना-ऊद्धमुखेन दशार्द्धवर्णेन-पञ्चवर्णेन जानुनोरुत्सेधस्य-उच्चत्वस्य यत्प्रमाणं तदेव प्रमाणं यस्य स जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोप|चारः-पुष्पप्रकर इत्यष्टादशः १८ तथा 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगन्धुद्धयाभिरामे भवई' त्ति का-| लागुरुश्च-गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दुरुकं च-चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुकं च-शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्व|स्तत एतलक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमानो-बहुलसौरभ्यो यो गन्ध उद्धतः-उद्भूतस्तेनाभिराम-अभिरमणीय यत्तत्तथा स्थानं-निषीदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः १९ तथा “उभयो पासिं च णं अरहताणं भगवताणं दुवे जक्खा कडयतडियर्थभियभुया चामरुक्खेवणं करंति"त्ति कटकानि-प्रकोष्ठाभरणविशेपाः त्रुटितानि For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECONOCRORSCORRORSCIENCE बाह्वाभरणविशेषाः तैरतिबहुत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ ययोस्तौ तथा यक्षौ-देवाविति विंशतितमः २०, बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयवयं नाधीयते, अतस्तस्यां पूर्वेऽष्टादशैव, अमनोज्ञानां शब्दादीनामपकर्षः-अभाव इत्येकोनविंशतितमः १९ मनोज्ञानां प्रादुर्भाव इति विंशतितमः २० 'पञ्चाहरओ'त्ति प्रत्याहरतो-व्याकुर्वतो भगवतः 'हिययगमणीओ'त्ति हृदयङ्गमः 'जोयणनीहारी ति योजनातिक्रमी खर इत्येकविंशः २१ 'अद्धमागहीए'त्ति प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोर्लसौ मागध्या मित्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितखकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते, तया धर्ममाख्याति, तस्या एवातिकोमलत्वादिति द्वाविंशः २२ 'भासिजमाणीति भगवताऽभिधीयमाना 'आरियमणारियाणं ति आर्यानार्यदेशोत्पन्नानां द्विपदा-मनुष्याश्चतुष्पदा-गवादयः 'मृगा'आटव्याः ‘पशवों' ग्राम्याः पक्षिणः प्रतीताः सरीसृपा-उरःपरिसप्पा भुजपरिसपश्चेिति, तेषां किम् ?-आत्मन आत्मनः-आत्मीयया आत्मीययेत्यर्थः भाषातया-भाषाभावेन परीणमतीति सम्बन्धः, किम्भूताऽसौ भाषा ? इत्याह-हितम्-अभ्युदयः शिवं-मोक्षः सुखं-श्रवणकालोद्भवमानन्दं ददातीति हितशिवसुखदेति त्रयोविंशः २३ 'पूर्वबद्धवरे'त्ति पूर्व-भवान्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्ययं बद्धं-निकाचितं वैरं-अमित्रभावो येषां ते तथा, तेऽपि चासतामन्ये देवा वैमानिका असुरा नागाश्च-भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः-शोभनवर्णोपेतत्वाज्योतिष्का यक्षराक्षसकिन्नराः किंपुरुषाः व्यन्तरभेदाः गरुडा-गरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः, गन्धवों K Jain Education For Personal & Private Use Only aryong Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ समवायाध्य. वृत्तिः श्रीसमवा- | महारगाश्च व्यन्तरविशेषा एव, एतेषा द्वन्द्वः, 'पसंतचित्तमाणसा' प्रशान्तानि-शमं गतानि चित्राणि-रागद्वेषाद्य यांगे नेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसानि-अन्तःकरणानि येषां ते प्रशान्तचित्तमानसा धर्म निशमयन्ति इति श्रीअभय चतुर्विशः २४ बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते, यदुत-अन्यतीर्थिकप्रावचनिका अपि च णं वन्दन्ते भगव न्तमिति गम्यते इति पञ्चविंशः २५ आगताः सन्तोऽहंतः पादमूले निष्प्रतिवचना भवन्ति इति षड्विंशः २६ ॥६२॥ 'जओ जओऽवि य णं'ति यत्र यत्रापि च देशे 'तओ तओ'त्ति तत्र तत्रापि च पञ्चविंशतौ योजनेषु ईतिः-धान्या ग्रुपद्रवकारी प्रचुरमूषकादिप्राणिगण इति सप्तविंशः २७ मारिः-जनमरक इत्यष्टाविंशः २८ खचक्रं-खकीयराजसैन्यं तदुपद्रवकारि न भवतीति एकोनत्रिंशः २९ एवं परचक्र-परराजसैन्यमिति त्रिंशः ३० अतिवृष्टिः-अधिकवर्ष इत्ये-12 कत्रिंशः ३१ अनावृष्टिः-वर्षणाभाव इति द्वात्रिंशः ३२ दुर्भिक्षं-दुष्काल इति त्रयस्त्रिंशः ३३ 'उप्पाइया वाहित्ति उत्पाताः-अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयस्तद्धेतुका येऽनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो-ज्वराद्यास्तदुपशमः-अभाव इति चतुस्त्रिंशत्तमः ३४ । अन्यच 'पञ्चाहरओ' इत आरभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः, शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति, एते च यदन्यथापि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यमिति । 'चक्कवद्दिविजय'त्ति चक्रवर्तिविजेतव्यानि क्षेत्रखण्डानि 'उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थगरा समुप्पजंति'त्ति समुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः न त्वेकसमये जायन्ते, चतुर्णामेवैकदा जन्मसम्भवात् , तथाहि-मेरी पूर्वापरशिलातलयोद्धे द्वे सिंहासने भवतोऽतो ॥६२॥ Jain Education a l For Personal & Private Use Only Knigainelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वौ द्वावेवाभिषिच्येते अतो द्वयोर्द्वयोरेव जन्मेति, दक्षिणोत्तरयोस्तु क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्भावात् न भरतैरावतयो|र्जिनोत्पत्तिरर्द्धरात्र एव जिनोत्पत्तेरिति, 'पढमे'त्यादि प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशन्नरकावासानां लक्षाणि, पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठया पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पञ्च नरकाः, एवं सर्वमीलने चतुस्त्रिंशलक्षाणि भवन्तीति ॥ ३४ ॥ पणतीसं सच्चवयणाइसेसा प०, कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूइं उर्दू उच्चत्तेणं होत्था, दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूई उहुं उच्चतेणं होत्था, नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेद्दा उवरिं च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिणसकहाओ प०, बितियचउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा प०॥ सूत्रं ३५॥ पञ्चत्रिंशत्तमस्थानकं सुगम, नवरं सत्यवचनातिशया आगमे न दृष्टाः, एते तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविताः, वचनं हि गुणवद्वक्तव्यं, तद्यथा-संस्कारवत् १ उदात्तं २ उपचारोपेतं ३ गम्भीरशब्दं ४ अनुनादि ५ दक्षिणं ६ है उपनीतरागं ७ महाथ ८ अव्याहतपौर्वापर्यं ९ शिष्टं १० असन्दिग्धं ११ अपहृतान्योत्तरं १२ हृदयग्राहि १३ देशकालाव्यतीतं १४ तत्त्वानुरूपं १५ अप्रकीर्णप्रसृतं १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतं १७ अभिजातं १८ अतिस्निग्धमधुरं १९ अपरमर्मविद्धं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतं २१ उदारं २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तं २३ उपगतश्लाघ २४ अनपनीतं २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलं २६ अद्भुतं २७ अनतिविलम्बित २८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तं २९ SAHARASHTRA Jain Education For Personal & Private Use Only Finelibrary.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीसमवा यांगे. श्रीअभय० वृत्तिः ॥६३॥ अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रं ३० आहितविशेष ३१ साकारं ३२ सत्त्वपरिग्रहं ३३ अपरिखेदितं ३४ अव्युच्छेदं ३५४ |३५ समचेति वचनं महानुभावैर्वक्तव्यमिति, [तत्र संस्कारवत्त्वं-संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं १ उदात्तत्वं-उच्चैवृत्तिता २ उपचा- वायाध्य. रोपेतत्वं-अग्राम्यता ३ गम्भीरशब्दं मेघस्येव ४ अनुनादित्वं-प्रतिरवोपेतता ५ दक्षिणत्वं-सरलत्वं ६ उपनीतरा-2 गत्वं-मालकोशादि ग्रामरागयुक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्वं-बृहदभिधेयता ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं-पूर्वापरवाक्याविरोधः ९ शिष्टत्वं-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १० असन्दिग्धत्वं-असंशयकारिता ११ अपहृतान्योत्तरत्वं-परदूषणाविषयता १२ हृदयग्राहित्वं-श्रोतृमनोह|रता १३ देशकालाव्यतीतत्वं-प्रस्तावोचितता १४ तत्त्वानुरूपत्वं-विवक्षितवस्तुखरूपानुसारिता १५ अप्रकीर्णप्रसृतत्वं-सुसम्बन्धस्य सतः प्रसरणं अथवाऽसम्बन्धानधिकारित्वातिविस्तरयोरभावः १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वं-पर-18 स्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७ अभिजातत्वं-वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं-अमृतगुडादिवत सुखकारित्वं १९ अपरमर्मवेधित्वं-परमानदघनखरूपत्वं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वंअर्थधर्मप्रतिबद्धत्वं २१ उदारत्वं-अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुणविशेषो वा २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति ॥६३॥ प्रतीतमेव २३ उपगतश्लाघत्वं-उक्तगुणयोगात्प्राप्तश्लाघता २४ अनपनीतत्वं-कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतुहलत्वं-खविषये श्रोतृणां जनितमविच्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्भा For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *SANAMROSAROKGAOCTOR वस्तत्त्वं २६ अद्भुतत्वं-अनतिविलम्बितत्वं च प्रतीतं २७-२८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तत्व-वि-10 भ्रमो-वक्तृमनसो भ्रान्तता विक्षेपः-तस्यैवाभिधेयार्थ प्रत्यनासक्तता किलिकिञ्चितं-रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपद्वा सकृत्करणमादिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा तद्भावस्तत्त्वं २९ अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वं, इह जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि ३० आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया ढौकितविशेषता ३१ साकारत्वंविच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वं-साहसोपेतता ३३ अपरिखेदितत्वं-अनायाससम्भवः ३४ अव्युच्छेदित्वं-विवक्षितार्थानां सम्यसिद्धिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५] तथा दत्तः-सप्तमवासुदेवः नन्दनः-सप्तमबलदेवः, एतयोश्चावश्यकाभिप्रायेण पइविंशतिर्धनुषामुच्चत्वं भवति, सुबोधं च तत्, यतोऽरनाथमल्लिखामिनोरन्तरे तावभिहिती, यतोऽवाचि-"अरमल्लिअंतरे दोणि केसवा पुरिसपुंडरीय दत्त"त्ति, अरनाथमल्लिनाथयोश्च क्रमेण त्रिंशत्पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वं, एतदन्तरालवर्तिनोश्च वासुदेवयोः षष्ठसप्तमयोरकोनत्रिंशत्पइविंशतिश्च धनुषां युज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चत्रिंशत् स्यात् यदि दत्तनन्दनौ कुन्थुनाथतीर्थकाले भवतो, न जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति । सौधर्मकल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्च पञ्च सभा भवन्ति-सुधर्मसभा १ उपपातसभा २ अभिषेकसभा ३ अलङ्कारसभा ४ व्यवसायसभा ५, तत्र सुधर्मसभामध्यभागे मणिपीठिकोपरि षष्टियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तत्र 'वइरामएसुत्ति वज्रमयेषु तथा गोलवद्वृत्ता dain Education For Personal & Private Use Only W inelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ समवायाध्य. श्रीसमवा-वर्तुला ये समुद्का-भाजनविशेषास्तेषु 'जिणसकहाओ'त्ति जिनसक्थीनि तीर्थकराणां मनुजलोकनितानां सक्थीनि यांगे अस्थीनि प्रज्ञप्तानीति । बितियचउत्थी'त्यादि द्वितीयपृथिव्यां पञ्चविंशतिनरकलक्षाणि चतुर्थी तु दशेति पञ्चत्रिंश्रीअभय० शत्तानीति ॥ ३५॥ वृत्तिः छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० तं०-विणयसुयं १ परीसहो २ चाउरंगिजं ३ असंखयं ४ अकाममरणिजं ५ पुरिसविजा ६ उर॥६४॥ भिजं ७ काविलियं ८ नमिपव्वज्जा ९ दुमपत्तयं १० बहुसुयपूजा ११ हरिएसिजं १२ चित्तसंभूयं १३ उसुयारिजं १४ स भिक्खुगं १५ समाहिठाणाई १६ पावसमणिजं १७ संजइजं १८ मियचारिया १९ अणाहपव्वज्जा २० समुद्दपालिज २१ रहनेमिजं २२ गोयमकेसिजं २३ समितीओ २४ जन्नतिजं २५ सामायारी २६ खलंकिजं २७ मोक्खमग्गगई २८ अप्पमाओ २९ तवोमग्गो ३० चरणविही ३१ पमायठाणाई ३२ कम्मपयडी ३३ लेसज्झयणं ३४ अणगारमग्गे ३५ जीवाजीवविभत्ती य ३६, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई उई उच्चत्तेणं होत्था, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छत्तीसं अजाणं साहस्सीओ होत्था, चेत्तासोएसु णं मासेसु सइ छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसीछायं निव्वत्तइ ॥ सूत्रं ३६॥ पत्रिंशत्स्थानकं स्पष्टमेव, नवरं चैत्राश्चयुजोर्मासयोः सकृद-एकदा पूर्णिमायामिति व्यवहारो निश्चयतस्तु मेषसङ्का|न्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चेत्यर्थः । पत्रिंशदङ्गलिकां पदत्रयमानां. आह च-"चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी"ति [चैत्राश्वयुजोर्मासयोस्त्रिपदा पौरुषी भवति ] ॥ ३६ ॥ ॥६४॥ Jain Education.immemalonal For Personal & Private Use Only jainelibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणा सत्ततीसं गणहरा होत्था, हेमवयहेरण्णवयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयणसहस्साई छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणाओ आयामेणं प०, सव्वासु णं विजयवेजयंतजयंतअपराजियासु रायहाणीसु पागारा सत्ततीसं सत्ततीसं जोयणाई उडे उच्चत्तेणं प०, खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला प०, कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ ॥ सूत्रं ३७॥ सप्तत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तं, नवरं कुन्थुनाथस्येह सप्तत्रिंशद्गणधरा उक्ताः आवश्यके तु त्रयस्त्रिंशत् श्रूयन्त इति मतान्तरं, तथा हैमवतादिजीवयोरुक्तप्रमाणसंवादगाथा-"सत्तत्तीस सहस्सा छच्च सया जोयणाण चउसयरा । हेमवयवासजीवा किंचूणा सोलस कला य ॥१॥"त्ति, कला एकोनविंशतिभागो योजनस्येति । तथा विजयादीनि पूर्वादीनि जम्बूद्वीपद्वाराणि तन्नायकास्तन्नामानो देवास्तेषां राजधान्यस्तन्नामिका एव पूर्वादिदिक्षु इतोऽसङ्ख्येयतमे जम्बूद्वीप इति । क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ कालिकश्रुतविशेषे, तत्र किल बहवो वर्गा-अध्ययनसमुदायात्मका भवन्ति, तत्र प्रथमे वर्गे प्रत्यध्ययनमुद्देशस्य ये कालास्त उद्देशनकाला इति । यदि चैत्रस्य पौर्णमास्यां षट्त्रिंशदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति तदा वैशाखस्य कृष्णसप्तम्यामङ्गुलस्य वृद्धिं गतत्वात्सप्तत्रिंशदङ्गुलिका भवतीति ३७ पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अकृतीसं अजिआसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था, हेमवयएरण्णवईयाणं जीवाणं धणूपिढे अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस एगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचिविसेसूणा परि Jain Education For Personal & Private Use Only SAValnelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांग श्रीअभय० वृति: ॥ ६५ ॥ Jain Education In क्खेवेणं प०, अत्थस्स णं पव्वयरण्णो बितिए कंडे अद्वतीसं जोयणसहस्साइं उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था, खुड्डियाए णं विमाणपवि - भत्ती बिति वग्गे अतीसं उद्देसणकाला प० ॥ सूत्रं ३८ ॥ अष्टत्रिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'धणुपिट्ठे'ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठवर्षाभ्यामवच्छिन्नस्यारोपितज्याधनुः पृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुःपृष्ठे इव धनुःपृष्ठे उच्येते तत्पर्यन्तभूते ऋजुप्रदेशपती तु जीवे इव जीवे इति एतत्सूत्रसंवादिगाथार्द्ध "चत्ताली सत्त सया अडतीस सहस्स दस कला य धणु" त्ति । तथा 'अत्थस्स'त्ति अस्तो - मेरुर्यतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य - गिरिप्रधानस्य द्वितीयं काण्डं - विभागोऽष्टत्रिंशद्योजन सहस्राण्युच्चत्वेन भवतीति, मतान्तरेण तु त्रिषष्टिः सहस्राणि यदाह - " मेरुस्स तिन्नि कंडा पुढबोवलवइरसक्करा पढमं । रयए य जायरूवे अंके फलिहे य वीयं तु ॥ १ ॥ एक्कागारं तइयं तं पुण जंबूणयमयं होइ । जोयणसहस्स पढमं बाहल्लेणं च वितीयं तु ॥ २ ॥ तेवद्विसहस्साई तइयं छत्तीस जोयणसहस्सा । मेरुस्सुवरिं चूला उबिद्धा जोयणदुवीसं ॥ ३ ॥ [ मेरोस्त्रीणि काण्डानि पृथ्व्युपलवज्रशर्करामयं प्रथमं । राजतं जातरूपं आकं स्फाटिकं च द्वितीयं ॥ १ ॥ एकाकारं तृतीयं तत् पुनर्जाम्बूनदमयं भवति । योजनसहस्रं प्रथमं वाहल्येन द्वितीयं तु ॥ २ ॥ त्रिषष्टिः सहस्राणि तृतीयं पत्रिंशत् सहस्राणि । मेरोरुपरि चूला उद्विद्धा योजनानि चत्वारिंशत् ॥ ३ ॥ ३८ ॥ For Personal & Private Use Only ३७-३८समवायाध्य. ॥ ६५ ॥ whelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educational नमिस्स णं अरहओ एगूणचत्तालीसं आहोहियसया होत्था, समयखेत्ते एगूणचत्तालीसं कुलपव्वया प० तं०-तीसं वासहरा पंच मंदरा चत्तारि उसुकारा, दोच्चच उत्थपंचमछट्टसत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगूणचत्तालीसं निरयावास सयसहस्सा प०, नाणावरजिस मोहणिजस्स गोत्तस्स आउयस्स एयासि णं चउन्हं कम्मपगडीणं एगूणचत्तालीसं उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्रं ३९ ॥ एकोनचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'आहोहिय'त्ति नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानिनस्तेषां शतानीति, 'कुलपवय'त्ति क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिबन्धनानि भवन्ती - तीह तैरुपमा कृता, तत्र वर्षधरास्त्रिंशद् जंबूद्वीपे धातकीखण्डपुष्करार्द्धपूर्वापरार्द्धषु च प्रत्येकं हिमवदादीनां षण्णां षण्णां भावात् मन्दराः पञ्चेषुकारा धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोः पूर्वेतरविभागकारिणश्चत्वारः, एवमेते एकोनचत्वारिंशदिति । 'दोघे 'त्यादि द्वितीयायां पञ्चविंशतिश्चतुर्थ्यां दश पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्यां पञ्चोनलक्षं सप्तम्यां पञ्चेति यथोक्ता संख्या नरकाणामिति । 'नाणावरणिजे 'त्यादि, ज्ञानावरणीयस्य पञ्च मोहनीयस्याष्टाविंशतिः गोत्रस्य द्वे आयुषश्चतस्रः इत्येवमेकोनचत्वारिंशदिति ॥ ३९ ॥ अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ होत्था, मंदरचूलियाणं चत्तालीसं जोयणाई उङ्कं उच्चत्तेणं प०, संती अरहा चत्तालीसं धणूई उड्डुं उच्चतेणं होत्था भूयाणंदस्स णं नागकुमारस्स नागरन्नो चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा प०, खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला प०, फग्गुणपुण्णिमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरि For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९-४० यांगे ४१ समवायाध्य. श्रीसमवा- सीछायं निव्वदृइत्ता णं चार चरइ, एवं कत्तियाएवि पुण्णिमाए, महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा प० ॥ सूत्रं ४०॥ चत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तं, नवरं 'वइसाहपुणिमासिणीए'त्ति यत्केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, 'फग्गुश्रीअभय णपुन्निमासिणीए'त्ति अत्राध्येयं, कथम् ?, उच्यते, 'पोसे मासे चउप्पया' इति वचनात् पौषपूर्णिमास्यामष्टचत्वारिंवृत्तिः शदङ्गुलिका सा भवति ततो माघे चत्वारि फाल्गुने च चत्वारि अङ्गुलानि पतितानीत्येवं फाल्गुनपौर्णमास्यां चत्वाहरिशंदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति, कार्तिक्यामप्येवमेव, यतः 'चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी' [चैत्राश्विनयोर्मासयोस्निपदा भवति पौरुषीत्युक्तं, ततः पदत्रयस्य पत्रिंशदङ्गलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरङ्गलवृद्धी चत्वारिंशदङ्गुलिका सा भवतीति ॥ ४०॥ नमिस्स णं अरहओ एकचत्तालीसं अजियासाहस्सीओ होत्था, चउसु पुढवीसु एक्कचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा प० त०रयणप्पभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एकचत्तालीसं उद्देसणकाला प०॥ सूत्र ४१॥ एकचत्वारिंशत्स्थानकं सुगम, नवरं 'चउसु' इत्यादिक्रमेण सूत्रोक्तासु चतसृषु प्रथमचतुर्थषष्ठसप्तमीषु पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलक्षाणां पञ्चोनस्य चैकस्य पञ्चानांच नरकाणां भावाद्यथोक्तसंख्यास्ते भवन्तीति ॥ ४१॥ . समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाई साहियाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं बायालीसं जोयणसहस्साई ॥६६॥ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREACHECCCC संखे दयसीमे य, कालोए णं समुद्दे पायालीसं चंदा जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा, बायालीस सूरिया पभासिँसु वा ३, संमुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई ठिई प०, नामकम्मे बायालीसविहे प०, तं०-गइनामे जाइनामे सरीरनामे सरीरंगोवंगनामे सरीरबंधणनामे सरीरसंघायणनामे संघयणनामे संठाणनामे वण्णनामे गंधनामे रसनामे फासनामे अगुरुलहुयनामे उवघायनामे पराघायनामे आणुपुब्बीनामे उस्सासनामे आयवनामे उज्जोयनामे विहगगइनामे तसनामे थावरनामे सुहुमनामे बायरनामे पज्जत्तनामे अपजत्तनामे साहारणसरीरनामे पत्तेयसरीरनामे थिरनामे अथिरनामे सुभनामे असुमनामे सुभयनामे दुभगनामे सुसरनामे दुस्सरनामे आएजनामे अणाएजनामे जसोकित्तिनामे अजसोकित्तिनामे निम्माणनामे तित्थकरनामे, लवणे णं समुद्दे बायालीसं नागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारंति, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे बायालीसं उद्देसणकाला प०, एगमेगाए ओसप्पिणीए पंचमछट्ठीओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं प०, एगमेगाए उस्सप्पिणीए पढमबीयाओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं प०॥ सूत्रं ४२॥ द्विचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'वायालीसं'ति छद्मस्थपर्याये द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्चेति केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद्वर्षाणीति पर्युषणाकल्पे द्विचत्वारिंशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोऽभिहितः, इह तु सा-12 धिक उक्तः, तत्र पर्युषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति, 'जाव'त्ति करणात् 'बुद्धे मुत्ते अन्तगडे परिनिव्वुडे सबदुक्खप्पहीणे'त्ति दृश्यं । 'जम्बूद्वीपस्खें'त्यादि 'पुरच्छिमिलाओ चरिमंताओ'त्ति जगतीबाह्यपरि १२ सम. Her Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only A wainelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृतिः । ४२ समवायाध्य. ॥६७॥ धेरपसृत्य गोस्तूभस्यावासपर्वतस्य वेलंधरनागराजसम्बन्धिनः पाश्चात्यचरमान्तः-चरमविभागो यावताऽन्तरेण भवति 'एस गंति एतदन्तरं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तं, अन्तरशब्देन विशेषोऽप्यभिधीयते इत्यत आह'अबाहाए'त्ति व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः । 'कालोए णन्ति धातकीखण्डपरिवेष्टके कालोदाभिधाने समुद्रे । 'गइनामे'त्यादि, गतिनाम यदुदयान्नारकादित्वेन जीवो व्यपदिश्यते, जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिर्भवति, शरीरनाम यदुदयादौदारिकादिशरीरं करोति, यदुदयादङ्गानां-शिरःप्रभृतीनां उपाङ्गानां च-अङ्गुल्यादीनां विभागो भवति तच्छरीराङ्गोपाङ्गनाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारणं शरीरबन्धननाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां गृहीतानां यदुदयाच्छरीररचना भवति तच्छरीरसङ्घातनाम, तथाऽस्मां यतस्तथाविधशक्तिनिमित्तभूतो रचनाविशेषो भवति तत्संहनननाम, संस्थानं समचतुरस्रादिलक्षणं यतो भवति तत्संस्थाननाम, तथा यदुदयावर्णादिविशेषवन्ति शरीराणि भवन्ति तद्वर्णादिनाम, तथा यदुदयादगुरुलघुत्वं स्वशरीरस्य जीवानां भवति तद-1 गुरुलघुनाम, तथा यतोऽङ्गावयवः प्रतिजिबिकादिरात्मोपघातको जायते तदुपघातनाम, तथा यतोऽङ्गावयव एव | विषात्मको दंष्ट्रात्वगादि परेषामुपपातको भवति तत्पराघातनाम. तथा यदुदयादन्तरालगतौ जीवो याति तदानुपूर्वीनाम, तथा यदुदयादुच्छासनिःश्वासनिष्पत्तिर्भवति तदुच्छासनाम, तथा यदुदयाजीवस्तापवच्छरीरो भवति तदातप-1 नाम, यथाऽऽदित्यबिम्बपृथिवीकायिकानां, तथा यतोऽनुष्णोद्योतवच्छरीरो भवति तदुद्योतनाम, तथा यतः शुभे -%-15RAMMARCH dain Education in For Personal & Private Use Only m.jainelibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरगमनयुक्तो भवति तद्विहायोगतिनाम, सनामादीन्यष्टौ प्रतीतार्थानि, तथा यतः स्थिराणा दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तस्थिरनाम, यतश्च भ्रजिह्वादीनामस्थिराणां निष्पत्तिर्भवति तदस्थिरनाम, तथा शिरःप्रभृतीनां शुभानां तच्छुभनाम, पादादीनामशुभानामशुभनाम इति, शेषाणि प्रतीतानि, नवरं यदुदयाजातौ जातो जीवदेहेषु ख्यादिलिङ्गाकारनियमो भवति तत्सूत्रधारसमानं निर्माणनामेति, 'पञ्चमछट्ठीओ समाओं'त्ति दुष्षमा एकान्तदुष्षमा चेत्यर्थः 'पढमबीयाउ'त्ति एकान्तदुष्षमा दुष्पमा चेति ॥४२॥ तेयालीसं कम्मविवागज्झयणा प०, पढमचउत्थपंचमासु पुढवीसु तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा प०, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स | पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउद्दिसिपि दगभागे संखे दयसीमे, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए तइये वग्गे तेयालीसं उद्देसणकाला प०॥ सूत्रं ४३॥ त्रिचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिलिख्यते, 'कम्मविवागज्झयण'त्ति कर्मणः-पुण्यपापात्मकस्य विपाकश्च-फलं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि कर्मविपाकाध्ययनानि, एतानि च एकादशाङ्गद्वितीयाङ्गयोः संभाव्यन्त इति । 'जंबुद्दी वस्स ण'मित्यादि, जंबूद्वीपस्य पौरस्त्यान्तागोस्तूभपर्वतो द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्भश्च सहस्रं तदहूधिकाया द्वाविंशतेरल्पत्वेनाविवक्षणादेवं त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्तीति, एवं 'चउद्दिसिपित्ति उक्तदिगन्त Jain Education asalanal For Personal & Private Use Only linelibrary.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥ ६८ ॥ र्भावेन चतस्रो दिश उक्ता अन्यथा एवं 'तिदिसिंपि 'त्ति वाच्यं स्यात्, तत्र चैवमभिलाप:- 'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ दओभासस्स णं आवासपवयस्स दाहिणिले चरिमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' एवमन्यत्सूत्रद्वयं, नवरं पश्चिमायां शङ्ख आवासपवंत उत्तरस्यां तु दकसीम इति ॥ ४३ ॥ चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुयाभासिया प०, विमलस्स णं अरहओ णं चउआलीसं पुरिसजुगाई अणुपिट्ठि सिद्धाइं जाव प्पहीणाई, धरणस्स णं नार्गिदस्स नागरणो चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा प०, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला प० ॥ सूत्रं ४४ ॥ चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, चतुश्चत्वारिंशत् 'इसिभासिय'त्ति ऋषिभाषिताध्ययनानि कालिकश्रुतविशेषभूतानि 'दियलोयचुयाभासिय'त्ति देवलोकच्युतैः ऋषिभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताभाषितानि, कचि - त्पाठः 'देवलोयचुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासियज्झयणा प० ' ' पुरिसजुगाई' ति पुरुषाः- शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यव| स्थिता युगानीव - कालविशेषा इव क्रमसाधर्म्यात्पुरुषयुगानि, 'अणुपिट्ठि'ति आनुपूर्व्या 'अणुवन्धेण 'ति पाठान्तरे | तृतीयादर्शनादनुबन्धेन - सातत्येन सिद्धानि 'जाव'त्ति करणेन 'बुद्धाई मुत्ताई अंतयडाई सवदुक्खष्पहीणाई' ति दृश्यं; 'महालियाए णं विमाणपविभत्तीए 'त्ति चतुर्थे वर्गे चतुश्चत्वारिंशदुद्देशन कालाः प्रज्ञप्ताः ॥ ४४ ॥ समयखेत्ते णं पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं प०, सीमंतए णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम For Personal & Private Use Only ४३-४४ ४५ समवायाध्य. ॥ ६८ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROGARIA ***** विक्खंभेणं प०, एवं उडुविमाणेवि, ईसिपन्भारा णं पुढवी एवं चेव, धम्मे णं अरहा पणयालीसं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, मंदरस्स णं पव्वयस्स चउदिसिपि पणयालीसं २ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, सव्वेवि णं दिवड्डखेत्तिया नक्खत्ता पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा-तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥ महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसणकाला प०॥ (सू०)४५॥ पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके विदं लिख्यते, 'समयखेत्तेत्ति कालोपलक्षितं क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, 'सीमंतए णं'ति है प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे मध्यभागवर्ती वृत्तो नरकेन्द्रः सीमन्तक इति । 'उडुविमाणे'त्ति सौधर्मेशानयोः प्रथमप्र। स्तटवर्ति चतसृणां विमानावलिकानां मध्यभागवर्ति वृत्तं विमानकेन्द्रकमुडविमानमिति,।'ईसिपब्भार'त्ति सिद्धिपृथिवी । 'मंदरस्स णं पचयस्से'त्यादि सूत्रे लवणसमुद्राभ्यन्तरपरिभ्यपेक्षयान्तरं द्रष्टव्यमिति । 'सब्वेवि म'मित्यादि, चन्द्रस्य त्रिं-13 शन्मुहूर्त्तभोग्यं नक्षत्रक्षेत्रं समक्षेत्रमुच्यते, तदेव सार्द्ध व्यर्द्ध द्वितीयमर्द्धमस्येति व्यर्द्धमित्येवं व्युत्पादनात् तथाविधं क्षेत्रं येषामस्ति तानि व्यर्द्धक्षेत्रकाणि नक्षत्राणि अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताःचन्द्रेण सार्द्ध योगः-सम्बन्धो योजितवन्ति, 'तिन्नेव' गाहा, त्रीण्युत्तराणि उत्तराफाल्गुन्य उत्तराषाढाउत्तराभाद्रपदाश्च ॥४५॥ दिट्टिवायस्स णं छायालीसं माउयापया प०, बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा प०, पमंजणस्स णं वाउकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा प०॥ सूत्र ४६॥ कस्कन * * * Jain Education DI For Personal & Private Use Only Kanelibrary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्ति: ॥ ६९ ॥ Jain Education अथ षट्चत्वारिंशत्स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, 'दिडिवायस्स' त्ति द्वादशाङ्गस्य 'माउयापय'त्ति सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकापदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन मातृकापदानि उत्पादविगमधौव्यलक्षणानि तानि च सिद्धश्रेणिमनुष्य श्रेण्यादिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिंशद्भवन्तीति सम्भाव्यन्ते, तथा 'बंभीए णं लिवीए'त्ति लेख्यविधौ षट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि तानि चाकारादीनि हकारान्तानि सक्षकाराणि ऋऋ ऌलू ळ | इत्येवं तदक्षरपञ्चकवर्जितानि सम्भाव्यन्ते, [ खरचतुष्टयवर्जनात् विसर्गान्तानि द्वादश पञ्चविंशतिः स्पर्शाः चतस्रोऽन्तःस्थाः ऊष्माणश्चत्वारः क्षवर्णश्चेति षट्चत्वारिंशद्वर्णाः ] तथा 'पभंजणस्स' त्ति औदीच्यस्येति ॥ ४६ ॥ जया णं सूरिए सव्वब्भितरमंडलं उवसङ्कमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवट्ठेहिं जोयणसएहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, थेरे णं अग्गिभूई सत्तचालीसं वासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए ॥ सूत्रं ४७ ॥ अथ सप्तचत्वारिंशत्स्थानके किमप्युच्यते, 'जया ण' मित्यादि, इह लक्षप्रमाणस्य जम्बूद्वीपस्योभयतोऽशीत्युत्तरेशीत्युत्तरे योजनशते ३६० अपनीते सर्वाभ्यन्तरस्य सूर्यमण्डलस्य विष्कम्भो भवति ९९६४० तत्परिधिस्त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि एकोननवत्यधिकानि ३१५०८९, एतच्च सूर्यो मुहूर्त्तानां षष्ट्या गच्छतीति षष्ट्याऽस्य भागहारे मुहूर्त्तगतिर्लभ्यते, सा च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशदुत्तरे योजनशते एकोनत्रिंशच षष्टिभागा योजनस्य onal For Personal & Private Use Only ४६-४७ समवा याध्य. ॥ ६९ ॥ inelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAC ५२५१॥३, यदा चाभ्यन्तरमण्डले सूर्यश्चरति तदाऽष्टादश मुहूर्त्ता दिवसप्रमाणं, तदर्द्धन नवभिर्मुहूतैः मुहूर्तगति| गुण्यते, ततश्च यथोक्तं चक्षुःस्पर्शप्रमाणमागच्छतीति, 'अग्गिभूइ'त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचदत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवास उक्तः, आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत् , सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्थासम्पूर्णत्वादविवक्षा, इह त्वसम्पूर्णस्यापि पूर्णत्वविवक्षेति सम्भावनया न विरोध इति ॥४७॥ एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा प०, धम्मस्स णं अरहओ अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा होत्था, सूरमंडले णं अडयालीसं एकसहिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं प०॥ सूत्रं ४८॥ अष्टचत्वारिंशत्स्थानके किमपि लिख्यते, 'पट्टण'त्ति विविधदेशपण्यान्यागत्य यत्र पतन्ति तत्पत्तनं-नगरविशेषः, पत्तनं रत्नभूमिरित्याहुरेके, 'धम्मस्स'त्ति पञ्चदशतीर्थङ्करस्य, इहाष्टचत्वारिंशद्गणा गणधराश्चोक्ताः आवश्यके तु त्रिचत्वारिंशत्पठ्यन्ते तदिदं मतान्तरमिति, 'सूरमंडले'त्ति सूर्यविमानं येषां भागानामेकषष्ट्या योजनं भवति तेषामष्टचत्वारिंशत् त्रयोदशभिस्तै!नं योजनमित्यर्थः ॥ ४८॥ सत्त सत्तमियाए णं भिक्खुपडिमाए एगूणपन्नाए राइदिएहिं छन्नउइभिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आराहिया भवइ, देवकुरुउत्तरकुरु एसु णं मणुया एगूणपन्ना राइंदिएहिं संपन्नजोवणा भवंति, तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगूणपन्ना राइंदिया ठिई प०॥ सूत्रं ४९॥ अथैकोनपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'सत्तसत्तमियाए णं' सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका-सस सस Jain Education Bonal For Personal & Private Use Only Malainelibrary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८-४९ ५० समवायाध्य. श्रीसमवा- दिनानि भवन्ति सप्तसु सप्तकेषु अतः सा सप्तदिनसप्तकमयत्वादेकोनपञ्चाशता दिनैर्भवतीति, 'पडिम'त्ति अभिग्रहः यांगे 'छन्नउएणं भिक्खासएणं ति प्रथमदिनसप्तके प्रतिदिनमेकोत्तरया भिक्षावृद्ध्या अष्टाविंशतिर्भिक्षा भवन्ति, एवं च श्रीअभय० सप्तखपि षण्णवतिभिक्षाशतं भवति, अथवा प्रतिसप्तमेकोत्तरया वृद्ध्या यथोक्तं भिक्षामानं भवति, तथाहि-प्रथमे वृत्तिः सप्तके प्रतिदिनमेकैकभिक्षाग्रहणात् सप्त भिक्षा भवन्ति, द्वितीये द्वयो २ ग्रहणाचतुर्दश, एवं सप्तमे सप्तानां ग्रह णादेकोनपञ्चाशदित्येवं सर्वमीलने (सङ्कलने) यथोक्तमानं भवतीति, 'अहासुतंति यथासूत्रं-यथागमं सम्यक् का॥७०॥ येन स्पृष्टा भवतीति शेषो द्रष्टव्यः, 'सम्पन्नजोवणा भवंति'त्ति न मातापितृपरिपालनामपेक्षन्त इत्यर्थः, 'ठिई'त्ति ६ आयुष्कम् ॥ ४९ ॥ मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ पंचासं अजियासाहस्सीओ होत्या, अणंते णं अरहा पन्नास धणूई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था, पुरिसुत्तमेणं वासुदेवे पन्नासं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, सब्वेवि णं दीहवेयड्डा मूले पन्नासं २ जोयणाणि विक्खंभेणं प०, लंतए कप्पे पन्नासं विमाणावाससहस्सा प०, सव्वाओ णं तिमिस्सगुहाखंडगप्पवायगुहाओ पन्नासं २ जोयणाई आयामेणं प०, सन्वेवि गं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं २ जोयणाई विक्खंभेणं प० ॥ सूत्रं ५० ॥ अथ पञ्चाशत्स्थानकं, तत्र 'पुरिसोत्तम'त्ति चतुर्थो वासुदेवोऽनन्तजिजिनकालभावी, तथा 'कंचण'चि उत्तरकुरुप नीलवदादीनां पञ्चानामानुपूर्वीव्यवस्थितानां महादानां पूर्वापरपाईयोः प्रत्येकं दश दश काञ्चनपर्वता भवन्ति, ते ॥७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education in all se च सर्वे शतं, एवं देवकुरुषु निषधादीनां महाहदानां शतं भवति, सर्व एव च ते जम्बूद्वीपे द्विशतमाना भवन्ति, ते योजनशतोच्छ्रिताः शतमूलविष्कम्भास्तन्नामकदेवनिवासभूतभवनालङ्कृतशिखरतलाः ॥ ५० ॥ नवण्हं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसणकाला प०, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावन्नखंभसयसंनिविट्ठा १०, एवं चैव बलिस्सवि, सुप्पमे णं बलदेवे एकावन्नं वाससयसहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, दंसणावरणनामा दोहं कम्माणं एकावन्नं उत्तरकम्मपगडीओ प० ॥ सूत्रं ५१ ॥ अथैकपञ्चाशत्स्थानकं, तत्र 'बंभचेराणं' ति आचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शस्त्रपरिज्ञादीनां तत्र प्रथमे ससोदेशका इति ससैवोद्देशनकालाः १ एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट् २ चत्वारः ३ चत्वारः ४ एवं षट् ५ पंच ६ | अष्टमे चत्वारः ८ सप्तमे महापरिज्ञायाः सप्तोद्देशाः, व्युच्छिन्नं च तदिति प्रान्ते प्रागप्यध्ययनोलेखे उद्दिष्टं प्रान्त्य एवात्रोद्दिष्टा उद्देशा अपि तस्य क्रमापेक्षया सप्तमस्य चेत्येवमेकपञ्चाशदिति, 'सुप्पहे' ति चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिजिननाथकालभावी, तस्येहैकपञ्चाशद्वर्षलक्षाण्यायुरुक्तमावश्यके तु पञ्चपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति, 'एकावनं उत्तरपगडीओ 'त्ति दर्शनावरणस्य नव नाम्नो द्विचत्वारिंशदित्येकपञ्चाशदिति ॥ ५१ ॥ मोहणिजस्स णं कम्मस्स बावन्नं नामधेजा प०, तं० - कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए १० माणे मदे दप्पे थंभे अत्तुक्कोसे गव्वे परपरिवार अक्कोसे अवक्कोसे ( परिभवे ) उन्नए २० उन्नामे माया उवही नियडी वलएं For Personal & Private Use Only Minelibrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥ ७१ ॥ गहणे णूमे कक्के कुरुए दंभे ३० कूडे जिम्हे किब्बिसे अणायरणया गूहणया वंचणया पलिकुंचणया सातिजोगे लोभे इच्छा ४० मुच्छा कंखा गेही तिण्हा भिजा अभिजा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा ५० नन्दी रागे ५२, गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं बावन्नं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे प०, एवं दगभासस्स णं केउगस्स संखस्स जूयगस्स दगसीमस्स ईसरस्स, नाणावरणिजस्स नामस्स अंतरायस्स एतेसिणं तिण्डं कम्मपगडीणं बावन्नं उत्तरपयडीओ प०, सोहम्मसणंकुमारमाहिंदेसु तिसु कप्पेसु बावन्नं विमाणवाससयसहस्सा प० ॥ सूत्रं ५२ अथ द्विपञ्चाशत्स्थानकं, तत्र 'मोहणिज्जस्स कम्मस्स'त्ति इह मोहनीय कर्मणोऽवयवेषु चतुर्षु क्रोधादिकषायेषु मो| हनीयत्वमुपचर्यावयवे समुदायोपचारन्यायेन मोहनीयस्येत्युक्तं, तत्रापि कषायसमुदायापेक्षया द्विपञ्चाशन्नामधेयानि न पुनरेकैकस्य कषायमात्रस्यैवेति, तत्र क्रोध इत्यादीनि दश नामानि क्रोधकषायस्य 'चंडिक्के' त्ति चाण्डिक्यं, तथा मानादीन्येकादश मानकषायस्य 'अतुकोसे'त्ति आत्मोत्कर्षः 'अवक्कोसे' त्ति अपकर्षः 'उन्नए'त्ति उन्नतः पाठान्तरेण 'उन्नामे' त्ति उन्नामः, तथा मायादीनि सप्तदश मायाकषायस्य 'णूमे 'ति न्यवमं 'कक्के' त्ति कल्कं 'कुरुए'त्ति कुरुकं 'जिम्हे' त्ति जैां, तथा लोभादीनि चतुर्दश लोभकषायस्य 'भिजा अभिज'त्ति अभिध्यानमभिध्येत्यस्य तीतं पिधानमित्यादाविव वैकल्पिके अकारलोपे भिध्याऽभिध्या चेति शब्दभेदान्नामद्वयमिति, 'गोथूभे'त्यादि गोस्तुभस्य प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्त्तिनो वेलन्धरनागराजनिवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याच्चरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालकलशस्य पाश्चा For Personal & Private Use Only ५१-५२समवायाध्य. ॥ ७१ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASHOCISGAOSALEMOCRACK त्यश्चरमान्तो येन व्यवधानेन भवतीति गम्यते, 'एस गंति एतदन्तरमबाधया व्यवधानलक्षणमित्यर्थः, द्विपञ्चाशयोजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघटना, भावार्थस्त्वयं-इह लवणसमुद्रं पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यवगाह्य पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारः क्रमेण वडवामुखकेतुकजूपकेश्वराभिधाना महापातालकलशा भवन्ति, तथा जम्बूद्वीपपर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशयोजनसहस्राण्यवगाह्य सहस्रविष्कम्भाश्चत्वार एव वेलन्धरनागराजपर्वता गोस्तुभादयो भवन्ति, ततश्च पञ्चनवत्यात्रिचत्वारिंशत्यपकर्पितायां द्विपञ्चाशत्सहस्राण्यन्तरं भवति, तथा सौधर्मे द्वात्रिंशद्विमानानां लक्षाणि सनत्कुमारे द्वादश माहेन्द्रे चाष्टाविति सर्वाणि द्विपञ्चाशत् ॥ ५२॥ देवकुरुउत्तरकुरुयाओ णं जीवाओ तेवन्नं २ जोयणसहस्साई साइरेगाई आयामेणं प०, महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ तेवन्नं तेवन्नं जोयणसहस्साइ नव य एगतीसे जोयणसए छच एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तेवन्नं अणगारा संवच्छरपरियाया पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु महाविमाणेसु देवत्ताए उववन्ना, संमुच्छिमउरपरिसप्पाणं उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई प० ॥ सूत्रं ५३॥ त्रिपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'महाहिमवंते'त्यादि सूत्रे संवादगाथा 'तेवन्नसहस्साई नव य सए जोयणाण इगतीसे । जीवा महाहिमवओ अद्धकला छच्च य कलाओं॥१॥त्ति । 'संवच्छरपरियाग'त्ति संवत्सरमेकं यावत् पर्यायःप्रव्रज्यालक्षणो येषां ते संवत्सरपर्यायाः 'महइमहालएसु महाविमणसु'त्ति महान्ति च तानि-विस्तीर्णानि च अतिमहाल Jain Educationa l For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा: यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥७२॥ याश्च-अत्यन्तमुत्सवाश्रयभूतानि महातिमहालयास्तेषु महान्ति च तानि प्रशस्तानि विमानानि चेति वि: ५३-५४चाप्रतीताः, अनुत्तरोपपातिकाङ्गे तु येऽधीयन्ते ते त्रयस्त्रिंशत् बहुवर्षपर्यायाश्चेति ॥ ५३॥ D५५ समभरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए ओसप्पिणीए चउवन्नं २ उत्तमपुरिसा उप्पजिंसु वा ३, तं०-चउवीसं तित्थकरा वायाध्य. बारस चक्कवट्टी नव बलदेवा नव वासुदेवा, अरहा णं अरिहनेमी चउवन्नं राइंदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सव्वनू सव्वभावदरिसी, समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिजाए चउप्पन्नाइं वागरणाई वागरित्था, अणंतस्स णं अरहओ चउपन्नं गणहरा होत्था ॥ सूत्रं ५४॥ चतुष्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'पाउणित्त'त्ति प्राप्य, 'एगणिसेजाए'त्ति एकनासनपरिग्रहेण 'वागरणाईति व्याकाक्रियन्ते-अभिधीयन्ते इति व्याकरणानि-प्रश्ने सति निवर्चनतयोच्यमानाः पदार्थाः 'वागरित्थ'त्ति व्याकृतवान् तानि चाप्रतीतानि, अनन्तनाथस्येह चतुष्पञ्चाशद्णा गणधराश्चोक्ताः । आवश्यके तु पञ्चाशदुक्तास्तदिदं मतान्तरमिति ॥ ५४॥ मलिस्स णं अरहओ पणपन्नं वाससहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, मंदरस्स णं पव्वयस्स पचच्छिमिल्लाओं चरमंताओ विजयदारस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं पणपन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउद्दिसिपि वेजयंतज ॥७२॥ यंतअपराजियंति, समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे ॥ सूत्रं ५५॥ Jain Education.M EE For Personal & Private Use Only w.jainelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54545505505ESCRAC% पढमबिइयासु दोसु पुढवीसु पणपन्नं निरयावाससयसहस्सा प०, दसणावरणिजनामाउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणपन्नं उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्रं ५५॥ पञ्चपञ्चाशत्स्थानके विदं लिख्यते, 'मन्दरस्ये'त्यादि, इह मेरोःपश्चिमान्तात् पूर्वस्य जम्बूद्वीपद्वारस्य पश्चिमान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि योजनानां भवतीत्युक्तं, तत्र किल मेरोर्विष्कम्भमध्यभागात् पञ्चाशत्सहस्राणि द्वीपान्तो भवति, लक्षप्रमाणत्वाद् द्वीपस्य, मेरुविष्कम्भस्य च दशसाहस्रिकत्वाद्वीपार्धे पञ्चसहस्रक्षेपेण पञ्चपञ्चाशदेव भवन्तीति, इह च यद्यपि विजयद्वारस्य पश्चिमान्त इत्युक्तं तथापि जगत्याः पूर्वान्त इति किल सम्भाव्यते, मेरुमध्यात् पञ्चाशतो योजनसहस्राणां जगत्या बाह्यान्ते पूर्यमाणत्वात् , जंबूद्वीपजगतीविष्कम्भेन च सह जम्बूद्वीपलक्षं पूरणीयं, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेन च सह लवणसमुद्रलक्षद्वयमन्यथा द्वीपसमुद्रमानाजगतीमानस्य पृथग्गणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिक्ता स्यात् , सा हिर पञ्चचत्वारिंशल्लक्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते, ततश्चैवमतिरिक्ता स्यादिति, अथवेह किञ्चिदूनापि पञ्चपञ्चाशत्पूर्णतया विवक्षितेति, 'अन्तिमरायंसित्ति सर्वायुःकालपर्यवसानरात्रौ रात्रेरन्तिमे भागे पापायां मध्यमायां नगर्या हस्तिपालस्य | राज्ञः करणसभायां कार्तिकमासामावास्यायां खातिनक्षत्रेण चन्द्रमसा युक्तेन नागकरणे प्रत्यूषसि पयङ्कासननिषण्णः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि 'कल्लाणफलविवागाईति कल्याणस्य-पुण्यस्य कर्मणः फलं-कार्य विपाच्यते व्यक्तीक्रियते यैस्तानि कल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि व्याकृत्य-प्रतिपाद्य सिद्धो बुद्धः यावत्करणात् 'मुत्ते अंतकडे परि १३ सम. Jain Education Inte r nal For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५-५६| ५७ समवायाध्य. 3- 5 4 श्रीसमवा-है निबुडे सम्बदुक्खप्पहीणे'त्ति दृश्य। 'पढमे'त्यादि,प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिरिति पञ्चपञ्चाशत्। यांगे 'दंसणे'त्यादि, दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयो नानो द्विचत्वारिंशत् आयुषश्चतस्र इत्येवं पञ्चपञ्चाशदिति ॥ ५५ ॥ श्रीअभय जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पन्नं नक्खत्ता चंदेण सद्धिं जोगं जोइंसु वा ३, विमलस्स णं अरहओ छप्पन्नं गणा छप्पन्नं गणहरा वृत्तिः होत्था ॥ सूत्रं ५६॥ ॥७३॥ अथ षट्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'जम्बुद्दीवे'इत्यादि, तत्र चन्द्रद्वयस्य प्रत्येकमष्टाविंशतेर्भावात् षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि भवन्ति, विमलस्खेह षट्पञ्चाशद्गणा गणधराश्चोक्ताः आवश्यके तु सप्तपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति ॥५६॥ तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावजाण सत्तावन्नं अज्झयणा प० तं-आयारे सूयगडे ठाणे, गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावन्नं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे प०, एवं दगभासस्स केउयस्स य संखस्स य जूयस्स य दयसीमस्स ईसरस्स य, मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावन्नं मणपजवनाणिसया होत्था, महाहिमवंतरूप्पीणं वासहरपब्वयाणं जीवाणं धणुपिटुं सत्तावन्नं २ जोयणसहस्साइं दोन्नि य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं प०॥ सूत्रं ५७॥ अथ सप्तपञ्चाशत्स्थानके किमपि लिख्यते, 'गणिपिडगाणंति गणिनः-आचार्यस्य पिटकानीव पिटकानि सर्वखभाजनानीति गम्यते गणपिटकानि तेषां आचारस्य श्रुतस्कन्धद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका-सवोन्तिममध्ययन CATEGORRISONGS - - ॥७३॥ 05 Jain Education and anal For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOCTOCOCCEAESAKACOCCA% विमुक्त्यभिधानमाचारचूलिका तद्वर्जाना, तत्राचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे नवाध्ययनानि द्वितीये षोडश निशीथाध्ययनस्यरा प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात् , षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परिहतत्वात् शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वि-13/ डश द्वितीये सप्त स्थानाङ्गे दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति, 'गोथूभे'त्यादौ भावार्थोऽयं-द्विचत्वा-है। रिंशत्सहस्राणि वेदिकागोस्तुभपर्वतयोरन्तरं सहस्रं गोस्तुभस्य विष्कम्भः द्विपञ्चाशद्दोस्तुभवडवामुखयोरन्तरं दशसहस्रमानत्वाद्वडवामुखविष्कम्भस्य तदर्दू पञ्चेति ततो द्विपञ्चाशतः पञ्चानां च मीलने सप्तपञ्चाशदिति, 'जीवाणं धणुपिट्ठन्ति मण्डलखण्डाकारं क्षेत्रं, इह सूत्रे संवादगाथार्द्ध-"सत्तावन्न सहस्सा धणुपिटुं तेणउय दुसय दस कल"त्ति ५७ पढमदोच्चपंचमासु तिसु पुढवीसु अट्ठावन्नं निरयावाससयसहस्सा प०, नाणावरणिजस्स वेयणियआउयनामअंतराइयस्स एएसि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं अट्ठावन्नं उत्तरपगडीओ प०, गोथुभस्स णं आवासपब्वयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिंपि नेयब्वं ॥ सूत्रं ५८॥ अष्टपञ्चाशत्स्थानकेऽपि लिख्यते, 'पढमे' त्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिः पञ्चम्या त्रीणीति सर्वाण्यष्टपञ्चाशदिति, 'नाणे'त्यादि, तत्र ज्ञानावरणस्य पञ्च वेदनीयस्य द्वे आयुषश्चतस्रो नाम्नो द्विचत्वारिंशत् अन्तरायस्य पञ्चेति सर्वा अष्टपञ्चाशदुत्तरप्रकृतयः 'गोथूभस्से'त्यादि, अस्य च भावार्थः पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः, “एवं चउहिसिंपि नेयचंति अनेन सूत्रत्रयमतिदिष्टं, तचैवं-'दओभासस्स णं आवासपचयस्स उत्तरिलाओ dain Education For Personal & Private Use Only ma n elibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिः श्रीसमवा- चरिमंताओ केउगस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभागे एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते,8 ५८-५९यांगे एवं संखस्स आवासपच्चयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ जूयगस्स महापातालस्स, एवं दगसीमस्स आवासपञ्च ६० समश्रीअभय० यस्स दाहिणिलाओ चरिमंताओ ईसरस्स महापायालस्स'त्ति ॥ ५८ ॥ वायाध्य. चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणसहि राइंदियाइं राइंदियग्गेणं प०, संभवे णं अरहा एगूणसहि पुव्वसयसहस्साई आ॥७४॥ गारमज्झे वसित्ता मुंडे जाव पव्वइए, मल्लिस्स णं अरहओ एगूणसहि ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्रं ५९॥ अथैकोनषष्टिस्थानके लिख्यते, 'चंदस्स ण'मित्यादि, संवत्सरो बनेकविधः स्थानाङ्गादिषूक्तः, तत्र यश्चन्द्रगति मङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तत्र च द्वादश मासाः षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकैक ऋतुरेकोनपष्टिरात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवाग्रेण भवति, कथं ?, एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि द्वात्रिंशच पष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणः कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति, द्वाभ्यां च ताभ्यामृतुर्भवति, तत एकोनषष्टिः अहोरात्राण्यसो भवति, यच्चेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवक्षितं, सम्भवस्यैकोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय है| इहोक्तः, आवश्यके तु चतुःपूर्वाङ्गाधिका सोक्तेति ॥ ५९॥ ॥७४॥ ___ एगमेगे णं मंडले सूरिए सहिए सहिए मुहुत्तेहिं संघाइए, लवणस्स णं समुदस्स सहिँ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति, विमले ___णं अरहा सहिं धणूई उहुं उच्चत्तेणं होत्था, बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स सहि सामाणियसाहस्सीओ प०, बंभस्स णं देविंदस्स Jan Eden For Personal & Private Use Only N inelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education देवरन्नो सट्ठि सामाणियसाहस्सीओ प०, सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सट्ठि विमाणावाससयसहस्सा प० ॥ सूत्रं ६० ॥ अथ पष्टिस्थानकं, तत्र ' एगमेगे' इत्यादि, चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां सूर्यमण्डलानामेकैकं मण्डलं - तथाविधचारभूमिः सूर्यः षष्ट्या पष्ट्या मुहूत्तैः - द्वाभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामित्यर्थः सङ्घातयति-निष्पादयति, अयमत्र भावार्थ:एकस्मिन्नहि यत्र स्थाने उदितः सूर्यस्तत्र स्थाने पुनर्द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामुदेतीति 'अग्गोदयं ति षोडशसहस्रोच्छ्रि ताया वेलाया यदुपरि गव्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं तदग्रोदकं, 'बलिस्स'त्ति औदीच्यस्य असुरकुमारनिकायराजस्य भवनं, 'बंभस्स' त्ति ब्रह्मलोकाभिधानपञ्चमदेवलोकेन्द्रस्य, 'स'ित्ति सौधर्मे द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिर्विमानलक्षाणीतिकृत्वा षष्टिस्तानि भवन्तीति ॥ ६० ॥ पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिउमासेणं मिजमाणस्स इगसट्ठि उऊमासा प०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे एमसट्ठिजोयणसहस्साइं उद्धुं उच्चत्तेणं प०, चंदमंडलेणं एगसट्ठिविभागविभाइए समंसे पं०, एवं सूरस्सवि ॥ सूत्रं ६१ ॥ अथ एकपष्टिस्थानकं, तत्र 'पञ्चेत्यादि, पञ्चभिः संवत्सरैर्निर्वृत्तमिति पञ्चसांवत्सरिकं तस्य णमित्यलङ्कारे युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन न चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः, इह चायं भावार्थ:युगं हि पञ्च संवत्सरा निष्पादयन्ति तद्यथा - चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितश्चेति, तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणेन २९ ६३ कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीनिष्ठितेन For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ समवायाध्य. श्रीसमवा- चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदं-त्रीणि शतान्यह्नां चतुष्पञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च यांगे द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३५४१२, तथा एकत्रिंशदहां एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येश्रीअभय० त्येवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमासो भवति, ३११३१, एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति, सच वृत्तिः प्रमाणेन त्रीणि शतान्यहां त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३६३ । तदेवं त्रयाणां च॥७॥ न्द्रसंवत्सराणां द्वयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि [दिनानां] अष्टादश शतानि त्रिंशदुत्तराणि अहोरात्राणां है |१८३०, ऋतुमासश्च त्रिंशताऽहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता भागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमासा इति । 'मंदरस्से'त्यादि, इह मेरुर्नवनवतियोजनसहस्रप्रमाणो द्विधा विभक्तः, तत्र प्रथमो भाग एकषष्टिः सहस्राण्युक्तः द्वितीयस्तु अष्टत्रिंशत्स्थानकेऽष्टत्रिंशदिति प्रोक्तः, क्षेत्रसमासे तु कन्देन सह लक्षप्रमाणस्त्रिधा विभक्तः, तत्र प्रथमकाण्डं सहस्रं द्वितीयं त्रिषष्टिस्तृतीयं पत्रिंशदिति । 'चन्द्रमण्डले' चन्द्रविमानं णमित्यलङ्कतौ 'एगसट्टित्ति योजनस्सैकपष्टितमै गर्विभाजितं-विभागैर्व्यवस्थापितं समांशं-समविभाग प्रज्ञप्तं, न विषमांशं, योजनस्यैकषष्टिभागानां षट्पञ्चाशद्भागप्रमाणत्वात्तस्यावशिष्टस्य च भागस्याविद्यमानत्वादिति, ‘एवं सूरस्सवित्ति एवं सूर्यस्यापि मण्डलं वाच्यं, अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागमात्रं हि तत् न चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति समांशतेति ॥६॥ पंचसंवच्छरिए णं जुगे बासटिं पुन्निमाओ बावहिं अमावसाओ प०, वासुपुज्जस्स णं अरहओ बासहि गणा बासढि गणहरा MAHARASHAN C-SCHOCOM For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होत्था, सुक्कपक्खस्स णं चंदे वासडिं भागे दिवसे दिवसे परिवड्डइ, ते चेव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायइ, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बासहिं विमाणा प०, सव्वे वेमाणियाणं बासहि विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं प० ॥ सूत्रं ६२॥ अथ द्विषष्टिस्थानकं, 'पञ्चे' त्यादि, तत्र युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति तेषु षट्त्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतः, तत्र चाभिवर्द्धितसंवत्सरस्त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैर्भवतीति तयोः पइविंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्या अपीति । वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिर्गणा गणधराश्वोक्ता आवश्यके तु षट्ष-15 |ष्टिरुक्तेति मतान्तरमिदमपीति, 'सुक्कपक्खस्से'त्यादि, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धी चन्द्रो द्विषष्टिभागान् प्रतिदिनं वर्द्धते, एवं कृष्णपक्षे चन्द्रः परिहीयते, अयं चार्थः सूर्यप्रज्ञत्यामप्युक्तः, तथाहि-"किण्हं राहुविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥१॥ बावडिं बावडिं दिवसे २ य सुक्तपक्खस्स । जं परिवहुइ चंदो खवेइ तं चेव कालेण ॥२॥ पन्नरसयभागेण य चंदं पन्नरसमेव तं चरइ । पण्णरसयभागेण य पुणोवि तं चेववक्कमइ ॥३॥ एवं वडइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हा वा एयणुभावेण चंदस्स Pu४॥ [कृष्णं राहुविमानं नित्यं चन्द्रेण भवत्यविरहितं । चतुरङ्गुलमप्राप्तमधस्ताचन्द्रस्य तचरति ॥१॥ द्वापष्टिं २ ४ दिवसे २ च शुक्लपक्षस्य । परिवर्धते चन्द्रः क्षपयति तावदेव कृष्णेन ॥२॥पञ्चदशभागेन च चन्द्रं पञ्चदशमेव तत् ACTOCOCCACANCECTECH Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ६२ समवायाध्य. ॥७६॥ चरति । पञ्चदशभागेन च पुनरपि तावदेवानामति ॥३॥ एवं वर्धते चन्द्रः परिहाणिरेवं भवति चन्द्रस्य । कृष्णता वा ज्योत्स्ना वैतदनुभावेन चन्द्रस्य ॥४॥] तथा तत्रैवोक्तम्- “सोलसभागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवड्डए जोण्हा ॥१॥” इति । [षोडशभागान् कृत्वोडपतिहीयतेऽथ पञ्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि परिवर्धते ज्योत्स्ना ॥१॥] तदेवं भणितद्वयानुसारेणानुमीयते यथा चन्द्रमण्डलस्य एकत्रिंशदुत्तरनवशतभागविकल्पितस्य एकांशोऽवस्थित एवास्ते, शेषाः प्रतिदिवसं द्विषष्टिं द्विषष्टिं कृत्वा वर्द्धन्ते, ततः पञ्चदशे चन्द्रदिने सर्वे समुदिता भवन्ति, पुनस्तथैव हीयन्ते पञ्चदशे दिने एकावशेषा भवन्तीति वचनद्वयसामर्थ्यलभ्यं ब्याख्यानमेतत् , जीवाभिगमे तु 'बावडिं २' गाहा तथा 'पन्नरसतिभागेण' गाथा, एते गाथे एवं व्याख्याते-'बावडिं' |२ इत्यत्र द्विषष्टि २ र्भागानां दिवसे २ च प्रत्यहमित्यर्थः, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धिनि यत् परिवर्द्धते चन्द्रश्चतुरः साधिकान् द्विषष्टिभागान् क्षपयति तदेव कालेनैतदेवाह-पन्नरस' इत्यादिना, चन्द्रविमानं द्विषष्टिभागान् क्रियते ततः पञ्चदशभिर्भागोऽपहियते ततश्चत्वारो भागाः समधिका द्विषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, अत उच्यते-पञ्चदशभागेन चोक्तलक्षणेन चन्द्रमधिकृत्य पञ्चदशैव दिवसांस्तद्राहुविमानं चरति, एवमपक्रामतीत्यपि भावनीय|मिति, अत्रास्माभिर्यथादृष्टे लिखिते उपनीते बहुश्रुतैर्निर्णयः कार्य इति ।[१ यद्यकमंशं दर्शयश्चंन्द्रश्चरति एकमेव चांशं राहुश्चरति तदा प्रत्यहं द्वावंशावाच्छादनीयो जायेते पञ्चदशभिश्च दिनराच्छादितोऽप्यंशद्वयमवतिष्ठते तस्याप्यर्ध For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माच्छादनीयमेकैकेनेति भाग एक आच्छाद्य इति द्विषष्टिभागीकरणं] 'सोहम्मी'यादि, तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदश ब्रह्मलोके षट् लान्तके पञ्च शुक्र चत्वार एवं सहस्रारे आनतप्राणतयोश्चत्वार एवमारणाच्युतयोः ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः २ अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति, एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुड्डविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तविमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भ-18 8 वन्ति, तत्पार्श्वतश्च पूर्वादिषु दिक्षु व्यस्रचतुरस्रवृत्तविमानक्रमेण विमानानामावलिका भवन्ति, तदेवं सौधर्मेशा-14 नयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे-सर्वाधस्तन इत्यर्थः 'पढमावलियाए'त्ति प्रथमा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया आद्याश्चतस्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र, अथवा प्रथमात् मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽसावावलिका-विमानानुपूर्वी तया अथवोत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा-आद्यावलिका तस्यां 'पढमावलिय'त्ति पाठान्तरे तु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमावलिका सा द्विपष्टिर्द्विपष्टिविमानप्रमाणेन प्रज्ञतेति, 'एगमेगाए'त्ति उडुविमानाभिधानदेवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यां पूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिर्द्विषष्टिविमानानि प्रज्ञप्तानि, द्वि|तीयादिषु पुनः प्रस्तटेपु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटे सर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकः पार्थे तदेकैकमेव भवतीति, तथा 'सो'त्ति सर्वे वैमानिकानां देवविशेषाणां सम्बन्धिनो द्विपष्टिविमानप्रस्तटा-विमानप्रस्तराः प्रस्तटाग्रण-प्रस्तटपरिमाणेन प्रज्ञप्ता इति ॥ ६२॥ din Education For Personal & Private Use Only helbrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३-६४समवायाध्य. वृत्तिः श्रीसमवा- उसमे णं अरहा कोसलिए तेसहि पुन्वसयसहस्साई महारायमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, हरिवासर यांगे म्मयवासेसु मणुस्सा तेवहिए राइदिएहिं संपत्तजोवणा भवंति, निसढे णं पव्वए तेवढि सूरोदया प०, एवं नीलवंतेवि ॥ सूत्रं ६३॥ श्रीअभय० अथ त्रिषष्टिस्थानकं, तत्र 'संपत्तजोवण'त्ति मातापितृपरिपालनानपेक्षा इत्यर्थः, 'निसहे णमित्यादि, किल सूर्य मण्डलानां चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां मध्यात् जम्बूद्वीपस्य पर्यन्तिम अशीत्युत्तरे योजनशते पञ्चषष्टिर्भवन्ति, तत्र च ॥७७॥ निषधवर्षधरपर्वतस्योपरि नीलवद्वर्षधरपर्वतस्योपरि च त्रिषष्टिः सूर्योदयाः-सूर्योदयस्थानानि सूर्यमण्डलानीत्यर्थः, तदूदन्ये तु द्वे जगत्या उपरि, शेषाणि तु लवणे त्रिपु त्रिंशदधिकेषु योजनशतेषु भवन्तीति भावार्थः ॥ ६३॥ अहमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव भवइ, चउसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा प०, चमरस्स णं रन्नो चउसहि सामाणियसाहस्सीओ प०, सब्वेवि णं दधिमुहा पव्वया पल्लासंठाणसंठिया सव्वत्थ समा विक्खंभुस्सेहेणं चउसहि जोयणसहस्साई प०, सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तिसु कप्पेसु चउसद्धिं विमाणावाससयसहस्सा ५०, सव्वस्सवि य णं रन्नो चाउरन्तचक्कवट्टिस्स चउसट्ठिलट्ठीए महग्धे मुत्तामणिहारे प० ॥ सूत्रं ६४॥ अथ चतुःषष्टिस्थानकं 'अट्टे'त्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां साऽष्टाष्टमिका यस्यां हि अष्टौ दिनाष्टकानि भवन्ति तस्यामष्टावष्टमानि भवन्त्येवेति. भिक्षप्रतिमा-अभिग्रहविशेषः अष्टावष्टकानि यतोऽसौ भवत्यतश्चतुःषष्ट्या रात्रिंदिवैः सा पालिता भवति, तथा प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा एवं द्वितीये द्वे द्वे यावदष्टमे अष्टावष्टाविति। NROLMARCIALONESS ॥७७॥ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्कलनया द्वे शते भिक्षाणामष्टाशीत्यधिके भवतः अत उक्तं-'द्वाभ्यां चेत्यादि, यावत्करणात् 'अहाकप्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया सम्म आणाए आराहियावि भवतीति दृश्यं, 'सवेवि ण'मित्यादि इतोऽष्टमे नन्दीश्वराख्य द्वीपे पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनकपर्वता भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु चतस्रः पुष्करिण्यो भवन्ति, तासां च मध्यभागेषु प्रत्येकं दधिमुखपर्वता भवन्ति, ते च षोडश पल्यङ्कसंस्थानसंस्थिताः, यतः सर्वत्र समा विष्कम्भेन, मूलादिषु दशसहस्रविष्कम्भत्वात्तेषां, क्वचित्तु 'विक्खंभुस्सेहेणंति पाठस्तत्र तृतीयैकवचनलोपदर्शनाद्विष्कम्भेनेति व्याख्येयं, तथा उत्सेधेनोचत्वेन चतुःषष्टिश्चतुःषष्टिरिति, 'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मे द्वात्रिंशदीशानेऽष्टाविंशतिः ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति, 'चउसट्ठिलट्ठीए'त्ति चतुःषष्टिर्यष्टीना-शरीराणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः 'मुत्तामणिमयेति मुक्ताश्च-मुक्ताफलानि मणयःचन्द्रकान्तादिरत्नविशेषाः मुक्तारूपा वा मणयो-रत्नानि मुक्तामणयस्तद्विकारो मुक्तामणिमयः ॥ ६४ ॥ जम्बुद्दीवे णं दीवे पणसहि सूरमंडला प०, थेरे णं मोरियपुत्ते पणसहिवासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणयारियं पव्वइए, सोहम्मवर्डिसयस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसहिँ पणसहि भोमा प० ॥ सूत्रं ६५॥ अथ पञ्चषष्टिस्थानकं, तत्र 'मोरियपुत्ते णं'ति मौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरस्तस्य पञ्चषष्टिवर्षाणि गृहस्थपर्यायः, आवश्यकेऽप्येवमेवोक्तो, नवरमेतस्यैव यो बृहत्तरो भ्राता मण्डितपुत्राभिधानः षष्ठो गणधरः तद्दीक्षा Jain Education Re For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्तिः 1112 11 | दिन एव प्रव्रजितस्तस्यावश्यकें. त्रिपञ्चाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमुपगच्छति यतो बृहत्तरस्य पञ्चषष्टिर्युज्यते लघुतरस्य त्रिपञ्चाशदिति, 'सोहम्मे त्यादि, सौधर्मावतंसकं विमानं सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्त्ति शक्रनिवासभूतं, 'एगमेगाए 'त्ति एकैकस्यां दिशि प्राकाराभ्यर्णव त्तनि भौमानि नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्येके ६५ दाहिणड्डूमाणुस्सखेत्ताणं छावहिं चंदा पभासिंसु वा ३ छावट्ठि सूरिया तर्विसु वा ३ उत्तरढमाणुस्सखेत्ताणं छावहिं चंदा पभासिंसु वा ३ छावट्ठि सूरिया तर्विसु वा ३, सेजंसस्स णं अरहओ छावहिं गणा छावहिं गणहरा होत्था, आभिणिबोहियनाणस्स णं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाई ठिई प० ॥ सूत्रं ६६ ॥ अथ षट्षष्टिस्थानकं, तत्र ‘दाहिणेत्यादि, मनुष्यक्षेत्र त्यार्द्धमर्द्धमनुष्यक्षेत्रं दक्षिणं च तत्तचेति दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रं तत्र भवा दाक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रा णमित्यलङ्कारे षट्षष्टिश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासनीयं अथवा लिङ्गव्यत्ययाद्दक्षि| णानि यानि मनुष्यक्षेत्राणामर्द्धानि तानि तथा तानि प्रकाशितवन्तः, पाठान्तरे दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रे प्रभासनीयं प्रभासितवन्तः, ते च एवं- द्वौ जम्बूद्वीपे चन्द्रौ चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीखण्डे द्विचत्वारिंशत्कालोदधिसमुद्रे द्विसप्ततिश्च पुष्करार्थे, सर्वे चैते द्वात्रिंशदधिकं शतं, एतदर्द्ध च पट्षष्टिर्दक्षिणपङ्कौ स्थिताः षट्षष्टिश्चोत्तरपङ्को, यदा चोत्तरा पङ्किः पूर्वस्यां गच्छति तदा दक्षिणा पश्चिमायामित्येवं सूर्यसूत्रमप्यवसेयमिति, 'छावट्ठि गण'त्ति आव| श्यके तु षट्सप्ततिरभिहितेतीदं मतान्तरमिति । 'छावहिं सागरोवमाई ठिइ'त्ति यच्चातिरिक्तं तदिह न विवक्षितं, यत For Personal & Private Use Only ६५-६६स मवायाध्य. ॥ ७८ ॥ www.jnelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सम० Jain Education एवमिदमन्यत्रोच्यते- 'दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽचुए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सङ्घद्धा ॥ १ ॥ इति [ द्वे वारे विजयादिषु गतस्य त्रीन् वारान् अथवाऽच्युते तानि । अतिरिक्तं नरभविकं नानाजीवानां सर्वाद्धा ॥ १ ॥ ] ॥ ६६ ॥ पञ्चसंवच्छरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिजमाणस्स सत्तसट्ठि नक्खत्तमासा प०, हेमवयएरन्नवयाओ णं बाहाओ सत्तट्ठि सत्तट्ठि जोयणसयाइं पणपन्नाइं तिण्णि य भागा जोयणस्स आयामेणं प०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोयमदीवस्स पुरच्छिमिले चरमंते एस णं सत्तसट्ठि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे प०, सवेर्सिपि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खंभेणं सत्तट्ठि भागं भइए समंसे प० ॥ सूत्रं ६७ ॥ अथ सप्तषष्टिस्थानके किञ्चिद्वित्रियते, तत्र 'पञ्चसंयच्छरी' त्यादि, नक्षत्रमासो येन कालेन चन्द्रो नक्षत्रमण्डलं भुङ्क्ते, स च सप्तविंशतिरहोरात्राणि एकविंशतिश्चाहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः २७।१७, युगप्रमाणं चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानीति प्राक् दर्शितम् १८३०, तदेवं नक्षत्रमासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापितेन त्रिंशदुत्तराष्टादशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशिः सप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापित एकं लक्षं द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दश चेत्येवंरूपो विभज्यमानः सप्तषष्टिनक्षत्रमासप्रमाणो भवतीति, 'बाहाओ'त्ति लघुहिमवजीवायाः पूर्वापरभागतो ये प्रवर्द्धमानक्षेत्र प्रदेशपङ्की हैमवतवर्षजीवां यावत्ते हैमवतवाहू उच्येते एवमैरण्यवतवाहू अपि भावनीये, For Personal & Private Use Only enelibrary.org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्री अभय ० वृति: ॥७९॥ इह प्रमाणसंवादः - ' बाहा सत्तट्ठिसए पणपन्ने तिन्निय कलाओ'त्ति कला- एकोनविंशतिभागः, एतच्च बाहुप्रमाणं | हैमवतधनुः पृष्ठात् 'चत्ताला सत्त सया अडतीससहस्स दस कला य धणुं' त्येवंलक्षणात् ३८७४०।१६ हिमवद्धनुःपृष्ठे 'घणुपिट्ठ कलचउकं पणवीससहस्स दुसय तीसहिय'न्त्येवंलक्षणे २५२३०। अपनीते यच्छेषं तदर्द्धकृतं सद्भवतीति, आयामेन - दैर्घ्यणेति । 'मंदरस्से' त्यादि, मेरोः पूर्वान्ताज्जम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगति बाह्यांतपर्यवसानः पञ्चपञ्चाशद्योजनसहस्राणि तावदस्ति, ततः परं द्वादशयोजनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमुद्रमध्ये गौतमद्वीपाभिधानो द्वीपोऽस्ति तमधिकृत्य सूत्रार्थः संभवति, पञ्चपञ्चाशतो द्वादशानां च सप्तषष्टित्वभावात्, यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गौतम - शब्दो न दृश्यते तथाप्यसौ दृश्यः, जीवाभिगमादिषु लवणसमुद्रे गौतमचन्द्ररविद्वीपान् विना द्वीपान्तरस्याश्रूयमाणत्वादिति । 'सवेसिंपि ण' मित्यादि, सर्वेषामपि णमित्यलङ्कारे नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः - पूर्वापरतश्चन्द्रस्य नक्षत्रभुक्तिक्षेत्र विस्तारः नक्षत्रेणाहोरात्रभोग्यक्षेत्रस्य सप्तषष्ट्या भागैर्भाजितो- विभक्तः समांशः- समच्छेदः प्रज्ञप्तः, भागान्तरेण तु भज्यमानस्य नक्षत्रसीमाविष्कम्भस्य विषमच्छेदना भवति, भागान्तरेण न भक्तुं शक्यते इत्यर्थः तथाहि - नक्षत्रे - णाहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सप्तषष्टिभागीकृतस्यैकविंशतिर्भागा अभिजिन्नक्षत्रस्य क्षेत्रतः सीमाविष्कम्भो भवति, एतावति क्षेत्रे चन्द्रेण सह तस्य योगो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा तस्यामेवैकविंशतौ त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्य त्रिंशता गुणितायां ६३० सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तत्कालसीमा भवति, चन्द्रेण सह तस्य योगकाल इत्यर्थः, सा For Personal & Private Use Only ६७ सम वाया. ॥ ७९ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च नव मुहूर्त्ताः सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः ९।६, आह च - " अभिइस्स चंदजोगो सत्तट्ठि खण्डिए अहोरत्ते । भागाओ एक्कवीसं स होंति अहिगा नव मुहुत्ता ॥ १ ॥” इति [ अभिजिति चन्द्रयोगः सप्तषष्ट्या खण्डितेऽहोरात्रे । | भागास्त्वेकविंशतिः स भवन्ति नवमुहूर्त्ताधिकाः ॥ १ ॥ ] क्षेत्रतः कालतस्तथा शतभिषग्भरण्यार्द्राश्लेषाखातिज्ये| ष्ठानां त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागास्तद्भागार्द्ध च क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिंशता गुणितायां १००५ सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालसीमा, तच पञ्चदश मुहूर्त्ताः, आह च – “सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छष्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥ १ ॥” इति [ शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा खातिर्ज्येष्ठा च । एतानि षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तसंयोगानि ॥ १ ॥ ] तथोत्तरात्रयः पुनर्वसुरोहिणीविशाखानां सप्तषष्टिभागानां शतं तद्भागार्द्धं च क्षेत्रसीमाविष्कम्भः भवति, तथा तस्मिन्नेव त्रिंशद्गुणिते ३०१५ तथैव हृतभागे यल्लब्धं तदेषां कालसीमा भवति सा च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता इति, आह च – “तिन्नेव उत्तराई पुणचसूरोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥ १ ॥” इति [ तिस्र एवोत्तराः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च । एतानि षड् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि ॥ १ ॥ ] शेषाणां पञ्चदशानां नक्षत्राणां सप्तषष्टिरेव सप्तषष्टिभागानां क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यां च तथैव गुणितायां २०१० हृतभागायां च यल्लब्धं तत्काल - सीमा, तच्च त्रिंशन्मुहूर्त्ताः, आह च - " अवसेसा नक्खत्ता पन्नरसवि हुंति तीसइमुहुत्ता । चंदस्स तेहिं जोगो समा Jain Education IBITI For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृति: ॥ ८० ॥ Jain Education I सओ एस वक्खामि ॥ १ ॥” [ अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्त्तानि चन्द्रस्य तैर्योगं समासत एष वक्ष्यामि ॥ १ ॥ ] एवं चैकस्य षण्णां २ पञ्चदशानां चेत्येवमष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि सप्तषष्टिभागानामेतदेव द्विगुणं षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां भवति, तच सहस्रत्रयं षट् शतानि षष्ट्यधिकानि ३६६० ६७॥ धाइसंडे णं दीवे अडसट्ठि चक्कवट्टिविजया अडसट्ठि रायहाणीओ प०, उक्कोसपर अडसट्ठि अरहंता समुप्पजिंसु वा ३ एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा, पुक्खरवरदीवड्डे णं अडसट्ठि विजया एवं चैव जाव वासुदेवा, विमलस्स णं अरहओ अडसट्ठि समसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था ॥ सूत्रं ६८ ॥ अथाष्टषष्टिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते - 'धायइसंडे' इत्यादि, इह यदुक्तम् ' एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव' सि तत्र यद्यपि चक्रवर्त्तिनां वासुदेवानां नैकदा अष्टषष्टिः सम्भवति यतो जघन्यतोऽप्येकैकस्मिन् महाविदेहे चतुर्णी २ तीर्थकरादीना| मवश्यं भावः स्थानाङ्गादिष्वभिहितः, न चैकक्षेत्रे चक्रवर्त्ती वासुदेवश्चैकदा भवतोऽतः अष्टषष्टिरेवोत्कर्षतश्चक्रवर्त्तिनां वासुदेवानां चाष्टषष्ट्यां विजयेषु भवति तथापीह सूत्रे एकसमयेनेत्यविशेषणात् कालभेदभाविनां चक्रवत्यदीनां विजयभेदेनाष्टषष्टिरविरुद्धा, अभिलप्यन्ते च जम्बूद्वीपप्रज्ञत्यां भारतकच्छाद्यभिलापेन चक्रवर्त्तिन इति ॥ ६८ ॥ समयखित्ते णं मंदरवजा एगूणसत्तरिं वासा वासधरपब्वया प० तं० पणतीसं वासा तीसं वासहरा चत्तारि उसुयारा, मंदरस्स पव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोयमद्दीवस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं एगूणसत्तरिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, मोहणि For Personal & Private Use Only ६८-६९ समवाया. ॥ ८० ॥ www.Janelibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवजाणं सत्तं कम्मपगडीणं एगूणसत्तरिं उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्रं ६९ ॥ अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते - 'समयेत्यादि, मंदरवर्जा - मेरुवर्जाः वर्षाणि च - भरतादिक्षेत्राणि वर्षधर| पर्वताश्च- हिमवदादयस्तत्सीमाकारिणो वर्षधरपर्वताः समुदिता एकोनसप्ततिः प्रज्ञप्ताः, कथं १, पञ्चसु मेरुषु प्रति बद्धानि सप्त सप्त भरतहैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि तथा प्रतिमेरु षट् षट् हिमवदादयो वर्षधरास्त्रिंशत्तथा चत्वार एवेषुकारा इति सर्वसंख्ययै कोनसप्ततिरिति, 'मंदरस्येत्यादि, लवणसमुद्रं पश्चिमायां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य द्वादशसहस्रमानः सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुद्राधिपतेर्भवनेनालङ्कृतो गौतमद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति, तस्य च पश्चिमान्तो मेरोः पश्चिमान्तादेकोनसप्ततिसहस्राणि भवन्ति, पञ्चचत्वारिंशतो जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्तरसम्बन्धिनां द्वादशानामेव द्वीपविष्कम्भसम्बन्धिनां च मीलनादिति । मोहनीयवर्द्धानां कर्म्मणामेकोनसप्ततिरुत्तरप्रकृतयो भवन्तीति, कथं ?, ज्ञानावरणस्य पञ्च दर्शनावरणस्य नव वेदनीयस्य द्वे आयुषश्चतस्रो नानो द्विचत्वारिंशद्गोत्रस्य द्वे अन्तरायस्य पञ्चेति ॥ ६९ ॥ समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइक्कंते सत्तरिएहिं राईदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ, पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तारं वासाईं बहुपडिपुन्नाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, वासुपुत्रे णं अरहा सत्तारं धणूई उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था, मोहणिजस्स णं कम्मस्स सत्तारं सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मनिसेगे प०, माहि Jain Education Inal stud For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय ० व्रत्तिः ॥ ८१ ॥ दसणं देविंदस्स देवरन्नो सत्तारं सामाणियसाहस्सीओ प० ॥ सूत्रं ७० ॥ अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते - 'समणे' इत्यादि, वर्षाणां चतुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे - विश| तिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः सप्तत्यां च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, वर्षाखावासो वर्षावासः वर्षावस्थानं 'पज्जोसवेइ'त्ति परिवसति सर्वथा वासं करोति, पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति भाद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति, 'पुरिसादाणीय'त्ति पुरुषाणामादानीयः - उपादेयः पुरुषादानीयः 'अबाहूणिया कम्मट्ठिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते'त्ति इह किलात्मा अविशिष्टमेव कर्म्मपुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं ज्ञानावरणीयादिकर्म्मणां स्वं स्वमवाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकेन वीर्येणोदयसहितं तद्दलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं रचयतीत्यर्थः, अतो द्विविधा स्थितिः - कर्म्मत्वापादनमात्ररूपा अनुभवरूपा च यतः स्थितिः - अवस्थानं तेन भावेनाप्रच्यवनं तत्र कर्म्मत्वापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः, अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षसहस्रोनेति, तत्र 'अवाह'त्ति किमुक्तं भवति ? - बन्धावलिकाया आरभ्य यावत्सप्तवर्षसहस्राणि तावत्कर्म न बाधते, नोदयं यातीत्यर्थः, ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिकं पूर्वनिषिक्तं उदये प्रवेशयति, निषेको नाम ज्ञानावरणादिकर्म्मदलिकस्यानुभवनार्थ रचना, तच प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं For Personal & Private Use Only ७० सम वाया. ॥ ८१ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावदुत्कृष्टस्थितिकर्मदलिकं तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति, तथा चोक्तम्-"मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईए बहुतरं| दत्वं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसन्ति सवासिं ॥१॥” इति [मुक्त्वा खकीयामबाधां प्रथमायां स्थितौ बहुतरं द्रव्यं ।। |शेषायां विशेषहीनं यावदुत्कृष्टां सर्वासां ॥ १ ॥] 'बाधृ लोडने' बाधत इति बाधा कर्मण उदय इत्यर्थः, न बाधा अबाधा, अन्तरं कर्मोदयस्येत्यर्थः, तया ऊनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषको भवतीत्येवमेके प्राहुः, अन्ये | पुनराहुः-अबाधाकालेन-वर्षसहस्रसप्तकलक्षणेनोना कर्मस्थितिः-सप्तसहस्राधिकसप्ततिसागरोपमकोटाकोटीलक्षणा, कर्मनिषको भवति, स च कियान् ?, उच्यते-'सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ'त्ति ॥७॥.. चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइदिएहिं वीइक्कतेहिं सव्वबाहिराओ मंडलाओ सूरिए आउट्टि करेइ, वीरियप्पवायस्स णं पुन्वस्स एक्कसत्तरं पाहुडा प०, अजिते णं अरहा एक्कसत्तरं पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भ- । वित्ता जाव पव्वइए, एवं सगरोवि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसत्तरं पुव्व जाव पव्वइएत्ति ॥ सूत्रं ७१॥ अथैकसप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते-'चउत्थस्से'त्यादि, इह भावार्थोऽयं-युगे हि पञ्च संवत्सरा भवन्ति, तत्राद्यौ चन्द्रसंवत्सरौ तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरश्चतुर्थश्चन्द्रसंवत्सर एव, तत्र च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च द्विषष्टिभागैर्दिनस्य चन्द्रमासो भवति, अयं च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरो भवति, त्रयोदशगुणश्चायमेवाभिवर्द्धितो भवति, ततश्चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितलक्षणे संवत्सरत्रये दिनानां सहस्रं द्विनवतिः षट् द्विषष्टिभागा भवन्ति १०९२।६, Jain Education For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे श्रीसमवातथा आदित्यसंवत्सरे दिनानां शतत्रयं षट्षष्टिश्च भवन्ति, तत्रितये च सहस्रमष्टनवत्यधिकं भवति, इह च किल |७१ समचन्द्रयुगमादित्ययुगं चाषाढ्यामेकं पूर्यतेऽपरञ्च श्रावणकृष्णप्रतिपदि आरभ्यते, एवं चादित्ययुगसंवत्सरत्रयापेक्षया वाया. श्रीअभय० चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं पञ्चभिर्दिनैः षट्पञ्चाशता च दिनद्विषष्टिभागैरूनं भवतीतिकृत्वा आदित्ययुगसंवत्सरत्रयं श्राववृत्तिः कृष्णपक्षस्य चन्द्रदिनपट्के साधिके पूर्यते युगसंवत्सरत्रयं त्वाषाढ्या, ततश्च श्रावणकृष्णपक्षसप्तमदिनादारभ्य दक्षिणा-18 16 यनेनादित्यश्चरन् चन्द्रयुगचतुर्थसंवत्सरस्य चतुर्थमासान्तभूतायामष्टादशोत्तरशततमदिनभूतायां कार्तिक्यां द्वादशो॥८२॥ त्तरशततमे खकीयमण्डले चरति, ततश्चान्यान्येकसप्ततिमण्डलानि तावत्खेव दिनेषु मार्गशीर्षादीनां चतुर्णा हैमन्तमासानां सम्बन्धिषु चरति, ततो द्विसप्ततितमे दिने माघमासे बहुलपक्षत्रयोदशीलक्षणे सूर्य आवृत्तिं करोति, दक्षिणायनानिवृत्त्योत्तरायणेन चरतीत्यर्थः, उक्ता च ज्योतिष्करण्डके पञ्चसु युगसंवत्सरेणूत्तरायणतिथयः क्रमेणैवं यदुत"बहुलस्स सत्तमीए १ सूरो सुद्धस्स तो चउत्थीए २। बहुलस्स य पाडिवए ३ बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ॥१॥ सुद्धस्स य दसमीए ५पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। एआ आउट्टीओ सबाओ माघमासंमि ॥२॥" त्ति, दक्षिणायनदिनानि चैवं-“पढमा बहुलपडिवए १ बीया बहुलस्स तेरसी दिवसे २। सुद्धस्स य दसमीए ३ बहुलस्स य सत्तमीए ४ उ॥१॥ सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। एया आउट्टीओ सबाओ सावणे मासे ॥२॥" ति । 'विरियपुवस्स'त्ति तृतीयपूर्वस्य 'पाहुड'त्ति प्राभृतमधिकारविशेषः । “अजिए'इत्यादि, तस्य हि अष्टादश पूर्वलक्षाणि - RAKASHARA ॥८२॥ 42447 For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारत्वं त्रिपञ्चाशञ्चैकपूर्वाङ्गाधिका राज्यमित्येकसप्ततिरिह च पूर्वाङ्गमधिकमल्पत्वान्न विवक्षितमिति ५, सगरो द्वितीयश्चक्रवर्ती अजितखामिकालीनः ॥ ७१॥ बावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा प०, लवणस्स समुदस्स बावत्तरि नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारंति, समणे भगवं महावीरे बावत्तरि वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जावप्पहीणे, थेरे णं अयलभाया बावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, अभितरपुक्खरद्धे णं बावत्तरिं चंदा पभासिंसु ३ बावत्तरि सूरिया तर्विसु वा ३, एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स बावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ प०, बावत्तरि कलाओ प० तं०-लेहं १ गणियं २ रूवं ३ नर्से ४ गीयं ५ वाइयं ६ सरगयं ७ पुक्खरगयं ८ समतालं ९ जूयं १० जणवायं ११ पोक्खचं १२ अट्ठावयं १३ दगमट्टियं १४ अन्नविहीं १५ पाणविहीं १६ वत्थविहीं १७ सयणविहीं १८ अजं १९ पहेलियं २० मागहियं २१ गाहं २२ सिलोगं २३ गंधजत्तिं २४ मधुसित्थं २५ आभरणविहीं २६ तरुणीपडिकम्मं २७ इत्थीलक्खणं २८ पुरिसलक्खणं २९ हयलक्खणं ३० गयलक्खणं ३१ गोणलक्खणं ३२ कुक्कुडलक्खणं ३३ मिंढयलक्खणं ३४ चक्कलक्खणं ३५ छत्तलक्खणं ३६ दंडलक्खणं ३७ असिलक्खणं ३८ मणिलक्खणं ३९ कागणिलक्खणं ४० चम्मलक्खणं ४१ चंदलक्खणं ४२ सूरचरियं ४३ राहुचरियं ४४ गहचरियं ४५ सोभागकरं ४६ दोभागकरं ४७ विजागय ४८ मंतगयं ४९ रहस्सगयं ५० सभासं ५१ चारं ५२ पडिचारं ५३ वूह ५४ पडिवूहं ५५ खंधावारमाणं ५६ नगरमाणं ५७ वत्थुमाणं ५८ खंधावारनिवेसं ५९ वत्थुनिवेसं ६० नगरनिवेसं ६१ dain Educatio n al For Personal & Private Use Only Amainelibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे S वृत्तिः श्रीसमवा-18 ईसत्थं ६२ छरुप्पवायं ६३ आससिक्खं ६४ हत्थिसिक्खं ६५ धणुव्वेयं ६६ हिरण्णपागं सुवन्न० मणिपागं धातुपागं ६७ बा ७२ सहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्धं अद्विजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाइं जुद्धं सुत्तखेडं ६८ नालियाखेडं वट्टखेडं धम्मखेडं चम्मखेडं ६९ पत्तछेजें मवाया. श्रीअभय० कडगच्छेजे ७० सजीवं निजीवं ७१ सउणरुयं ७२ समुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं बावत्तरि वासस हस्साई ठिई प०॥ सूत्रं ७२॥ अथ द्विसप्सतिस्थानके किमपि लिख्यते-सुवर्णकुमाराणां द्विसप्ततिर्लक्षाणि भवनानि, कथं ?, दक्षिणनिकाये अ॥८३॥ त्रिंशदुत्तरनिकाये तु चतुस्त्रिंशदिति, 'नागसाहस्सीओ'त्ति नागकुमारदेवसहस्राणि वेलां-पोडशसहस्रप्रमाणामुत्सेधतो विष्कम्भतश्च दशसहस्रमानां लवणजलधिशिखां बाह्यां-धातकीखण्डद्वीपाभिमुखीं। महावीरो द्विसप्ततिवर्षाण्यायुः पालयित्वा सिद्धः, कथं ?, त्रिंशद्गृहस्थभावे द्वादश सार्द्धानि पक्षश्च छद्मस्थभावे देशोनानि त्रिंशत्केवलित्वे इति द्विस-18 सतिः । 'अयलभाय'त्ति अचलो महावीरस्य नवमो गणधरः तस्यायुर्द्विसप्ततिवर्षाणि, कथं ?, षट्चत्वारिंशंद्गृहस्थत्वे - द्वादश छद्मस्थतायां चतुर्दश केवलित्वे इति । पुष्कराद्धे द्विसप्ततिश्चन्द्राः, तत्रैकयां पङ्को पत्रिंशदन्यस्यां पतौ च । IP तावन्त एवेति, 'बावत्तरि कलाओं'त्ति कलाः विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद्विसप्ततिर्भवन्ति, तत्र लेखनं ले-P॥८३॥ खोऽक्षरविन्यासः, तद्विषया कला-विज्ञानं लेख एवोच्यते एवं सर्वत्र. स च लेखो द्विधा-लिपिविषयभेदात्, तत्र लिपिरष्टादशस्थानकोक्ता अथवा लाटादिदेशभेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथाहि-पत्रवल्क Jain Educa For Personal & Private Use Only Ahelbrary.org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARROREGA% काष्ठदन्तलोहताम्ररजतादयो अक्षराणामाधारास्तथा लेखनोत्कीर्णनस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भवन्तीति, विषयापेक्षयाप्यनेकधा-खामिभृत्यपितृपुत्रगुरुशिष्यभार्यापतिशत्रुमित्रादीनां लेखविषयाणामप्यनेकत्वात्तथाविधप्रयोजनभेदाच, अक्षरदोषाश्चैते-'अतिकायमतिस्थौल्यं, वैषम्यं पतिवक्रता। अतुल्यानां च सादृश्यमभागोऽवयवेषु च ॥१॥' इति,१ तथा गणितं-सङ्ख्यानं सङ्कलिताधनेकभेदं पाटीप्रसिद्धं २ रूप्यं-लेप्यशिलासुवर्णमणिवस्त्रचित्रादिषु रूपनिर्माणं ३ नाट्यकला-भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानमित्यादिभेदादष्टधा नाट्यग्रहणात् नृत्यकलापि गृहीता, सा च अभिनयिका अङ्गहारिका व्यायामिका चेति त्रिभेदा, स्वरूपं चात्र भरतशास्त्रादवसेयं ४ तथा गीतकला, सा च निबन्धमार्ग-छलिकमार्ग-भिन्नमार्गभेदात् त्रिधा, तत्र 'सप्त खरास्त्रयो ग्रामा, मूर्च्छना एकविंशतिः।ताना एकोनपञ्चाशत्, समाप्तं खरमण्डलम् ॥१॥' इयं च विशाखिलशास्त्रादवसेयेति, ५ 'वाइयंति वाद्यकला, सा च ततविततशुषिरघनवाद्यानां चतुष्पञ्च(व्ये)कप्रकारतया त्रयोदशधा ६ इत्यादिकः कलाविभागो लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, इह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामान्युपलभ्यन्ते, तत्र च कासांचित् कासुचिदन्तर्भावोऽवगन्तव्य इति ॥ ७२॥ । हरिवासरम्मयवासयाओ णं जीवाओ तेवत्तरि २ जोयणसहस्साई नव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरस य एगूणवीसइभागे जोय णस्स अद्धभागं च आयामेणं प०, विजए णं बलदेवे तेवत्तरिं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे ॥ सूत्रं ७३ ॥ AR Jain Education A linal For Personal & Private Use Only N ainelibrary.org Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३-७४ समवाया. श्रीसमवा- अथ त्रिसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, 'हरिवासे ति अत्र संवादगाथा-'एगुत्तरा नवसया तेवत्तरिमे (व) जो यांगे यणसहस्सा । जीवा सत्तरस कला य अद्धकला चेव हरिवासेत्ति' ॥१॥ (७३९०१-१५.३ ) तथा विजयो-द्वितीयो श्रीअभय बलदेवस्तस्येह त्रिसप्ततिवर्षलक्षाण्यायुरुक्तमावश्यके तु पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तरमेव ॥ ७३ ॥ वृत्तिः थेरे जं अग्गिभूई गणहरे चोवत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, निसहाओ णं वासहरपव्वयाओ तिगिच्छिओ ॥८४॥ णं दहाओ सीतोयामहानदीओ चोवत्तरि जोयणसयाइं साहियाई उत्तराहिमुही पवहित्ता वइरामयाए जिभियाए चउजोयणायामाए पन्नासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुंडे महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठिएणं पवाएणं महया सद्देणं पवडइ, एवं सीतावि दक्खिणाहिमुही भाणियब्वा, चउत्थवजासु छसु पुढवीसु चोवत्तरि नरयावाससयसहस्सा प० ॥ सूत्र ७४॥ अथ चतुःससतिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, तत्राग्निभूतिरिति महावीरस्य द्वितीयो गणधरः-गणनायकः तस्येह चतुःसप्ततिवर्षाण्यायुः, अत्र चायं विभागः-षट्चत्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः द्वादश छद्मस्थपर्यायः षोडश केवलि पर्याय इति, 'निसहाओ णमित्यादि अस्य भावार्थः-किल निषधवर्षधरस्य विष्कम्भो योजनानां षोडश सहस्राणि ६ अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशत् कलाद्वयं चेति, तस्य च मध्यभागे तिगिच्छमहादः सहस्रद्वयविष्कम्भश्चतुःसहस्रायामः तदेवं पर्वतविष्कम्भार्द्धस्य हृदविष्कम्भार्द्धन न्यूनतायां सीतोदाया महानद्याः पर्वतस्योपरि चतुःसप्ततिशतान्येकविं-| शत्यधिकानि कला चैकत्येवं प्रवाहो भवति 'वइरामयाए जिभियाए'त्ति वज्रमय्या जिहिकया प्रणालस्थमकरमुख ॥८४॥ Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only SPi nelibrary.org Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितिकया चतुर्योजनदीर्घया पञ्चाशद्योजनविष्कम्भया 'वइरतले कुण्डे'त्ति निषधपर्वतस्याधोवर्तिनि वज्रभूमिके अ शीत्यधिकचतुर्योजनशतायामविष्कम्भे दशयोजनावगाहे सीतोदादेवीभवनाध्यासितमस्तकेन तवीपेनालतमध्यभागे * सीतोदाप्रपातहदे ‘महय'त्ति महाप्रमाणेन यत्पुनः ‘दुहओ'त्ति क्वचित् दृश्यते तदपपाठ इति मन्यते 'घडमुहपवत्तिएणं'ति घटमुखेनेव-कलशवदनेनेव प्रवर्त्तितः-प्रेरितो घटमुखप्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनां-मुक्ताफलशरीराणां सम्बन्धी हारस्तस्य यत्संस्थानं तेन संस्थितो यस्तेन प्रपातः-पर्वतात्प्रपतजलसमूहस्तेन महाशब्देन-महाध्वनिना प्रपतति, एवं सीतापि, नवरं नीलवर्षधराद्दक्षिणाभिमुखी प्रपततीति, 'चउत्थवजेत्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशत् द्वितीयायां पञ्चविंशतिः तृतीयायां पञ्चदश पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि षष्ठयां पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पञ्चेत्येतानि मीलितानि चतुःसप्ततिर्भवति ॥ ७४ ॥ सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ पन्नत्तरि जिणसया होत्था, सीतले णं अरहा पन्नत्तरि पुव्वसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, संती णं अरहा पन्नत्तरिवाससहस्साई अगारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ सूत्रं ७५॥ अथ पञ्चसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते 'सुविधेः' नवमतीर्थकरस्य नामान्तरतः पुष्पदन्तस्येति, तथा शीतलस्य पञ्चसप्ततिः पूर्वसहस्राणि गृहवासे, कथं ?, पञ्चविंशतिः कुमारत्वे पञ्चाशच राज्य इति, तथा शान्तिः पञ्चसप्ततिवर्ष १५सम. Jain Education For Personal & Private Use Only ww.jainelibrary.org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥ ८५ ॥ सहस्राणि गृहवासमध्युष्य प्रत्रजितः, कथं ?, पञ्चविंशतिः कुमारत्वं पञ्चविंशतिः माण्डलिकत्वे पञ्चविंशतिश्चक्रवर्त्तित्वे इति ॥ ७५ ॥ छावत्तरं विज्जुकुमारावाससयसहस्सा प०, एवं - 'दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुगलयाणं बावत्तरि सयसहस्साइं ॥ सूत्रं ७६ ॥ अथ षट्सप्ततिस्थानके लिख्यते किञ्चित्-तत्र विद्युत्कुमाराणां भवनावासलक्षाणि दक्षिणस्यां चत्वारिंशदुत्तरस्यां तु षट्त्रिंशदिति षट्सप्ततिरिति, 'एव' मिति इदमेव भवनमानं शेषाणां द्वीपकुमारादिभवनपतिनिकायानां, इहार्थे गाथा - 'दीवे' त्यादि 'युगलाना' मिति - दक्षिणोत्तरनिकायभेदेन युगलं, निकाये निकाये भवतीति ॥ ७६ ॥ भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सतहत्तरं पुव्वसय सहस्साइं कुमारवासमझे वसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते, अङ्गवंसाओ णं सतहरि रायाण मुंडे जाव पव्वइया, गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्तहत्तरं देवसहस्सपरिवारा प०, एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तहत्तरं लवे लवग्गेणं प० ॥ सूत्रं ७७ ॥ अथ सप्तसप्ततिस्थानके विव्रियते किञ्चित्-तत्र भरतचक्रवर्ती ऋषभखामिनः षट्सु पूर्वलक्षेष्यतीतेषु जातख्य| शीतितमे च तत्रातीते भगवति च प्रत्रजिते राजा संवृत्तः, ततश्च त्र्यशीत्याः षट्सु निष्कर्षितेषु सप्तसप्ततिस्तस्य कुमारवासो भवतीति, अङ्गवंशः - अङ्गराजसन्तानस्तस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्तती राजानः प्रत्रजिताः 'गद्दतोये' त्यादि ब्रह्म Jain Educational For Personal & Private Use Only ७५-७६ ७७ सम वाया. ॥ ८५ ॥ Mainelibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int लोकस्याधोवर्त्तिनीष्वष्टासु कृष्णराजिष्वष्टौ सारखतादयो लोकान्तिकाभिधाना देवनिकाया भवन्ति, तत्र गईतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवार संख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति, तथैकैको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिर्लवान् लवाग्रेण - लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः, कथं ?, उच्यते, 'हटुस्स अनवगलस्स, निरुवकिटुस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुचई ॥ १ ॥ सत पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, | एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ २ ॥' त्ति, [ हृष्टस्यानवग्लानस्य निरुपक्लिष्टस्य जन्तोः | एक उच्छ्वासनिःश्वास एष प्राण इति उच्यते ॥ १ ॥ सप्त प्राणास्ते स्तोकः सप्त स्तोकास्ते लवः । लवानां सप्तसप्तत्या एष मुहूर्त्तो व्याख्यातः ॥ २ ॥ ] ॥७७॥ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमारदीव कुमारावाससय सहस्साणं आहेवचं पोरवचं सामित्तं भट्टित्तं महारायत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ, थेरे णं अकंपिए अट्ठहत्तरं वासाईं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्टहत्तारं एगसट्टिभाए दिवसखेत्तस्स निबुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुत्ता णं चारं चरइ, एवं दक्खिणायणनियद्वेवि ॥ सूत्रं ७८ ॥ अथाष्टसप्ततिस्थान के किञ्चित् लिख्यते, 'सक्कस्से' त्यादि, 'वेसमणे महाराय'त्ति सोमयमवरुणवैश्रमणाभिधानानां लोकपालानां चतुर्थ उत्तरदिक्पालः, स हि वैश्रमणदेवनिकायिकानां सुपर्णकुमारदेवदेवीनां द्वीपकुमारदेवदेवीनां व्यन्तरव्यन्तरीणां चाधिपत्यं करोति, तदाधिपत्याच्च तन्निवासानामप्याधिपत्यमसौ करोतीत्युच्यते, 'अष्टसप्तत्याः सुवर्णकु For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ समवाया. श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥८६॥ मारद्वीपकुमारावासशतसहस्राणा'मिति, तत्र सुवर्णकुमाराणा दक्षिणस्यामष्टत्रिंशद्भवनलक्षाणि द्वीपकुमाराणां च चत्वारिंशदित्येवमष्टसप्ततिरिति, द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम्, 'आहेवचंति आधिपत्यम्-अधिपतिकर्म 'पोरेवचंति पुरोवर्त्तित्वं अग्रगामित्वमित्यर्थः, भट्टित्तंति भर्तृत्व-पोषकत्वं 'सामित्तंति स्वामित्वं-खामिभावं 'महारायत्तंति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः, 'आणाईसरसेणावचंति आज्ञाप्रधानसेनानायकत्वं 'कारेमाणे'त्ति अनुनायकैः सेवकानां कारयन् 'पालेमाणे'त्ति आत्मनापि पालयन् 'विहरईत्ति आस्ते । अकम्पितः स्थविरो महावीरस्याष्टमो गणधरस्तस्य चाष्टसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः, कथं ?, गृहस्थपर्याये अष्टचत्वारिंशत् छद्मस्थपर्याय नव केवलिपर्याये चैकविंशतिरिति । 'उत्तरायणनियट्टेणं ति उत्तरायणाद्-उत्तरदिग्गमनान्निवृत्तः उत्तरायणनिवृत्तः, प्रारब्धदक्षिणायन इत्यर्थः 'सूरिएत्ति आदित्यः ‘पढमाओ मंडलाओ'त्ति दक्षिणां दिशं । गच्छतो रवेर्यत्प्रथमं तस्मात् न तु सर्वाभ्यन्तरसूर्यमार्गात् ‘एकूणचत्तालीसइमे'त्ति एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले दक्षि-12 णायनप्रथममण्डलापेक्षया सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे 'अट्ठहत्तरिति अष्टसप्ततिः 'एगसट्ठिभाए'त्ति मुहूर्तस्यैकषष्टिभागान् 'दिवसखेत्तस्स'त्ति दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवेत्यर्थः, 'निबुड्ढेत्त'त्ति निवऱ्या हापयित्वेत्यर्थः, तथा 'रयणिखेत्तस्सत्ति रजन्या एव अभिनिवुड्डत्त'त्ति अभिनिवळ च वर्द्धयित्वेत्यर्थः, 'चारं चरइत्ति भ्राम्यतीत्यर्थः, भावार्थोऽस्यैव चन्द्रप्रज्ञप्तिवाक्यैरुपदर्यते-जम्बूद्वीपे यदैतौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारंचरतस्तदा dain Education a l For Personal & Private Use Only PILainelibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवनवतियोजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यन्योऽन्यमन्तरं कृत्वा चरतः, एतच जम्बूद्वीपेऽशी त्युत्तरं योजनशतं प्रविश्याभ्यन्तरं मण्डलं भवति एतस्मिंश्च द्विगुणे जंबूद्वीपप्रमाणादपकर्षिते यथोक्तमन्तरं भवतीति, है तथा तत्र तयोश्चरतोरुत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्यका च द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति, ततोऽभ्यन्तरम ण्डलान्निष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य यदा चारं चरतस्तदा नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चत्रिंशच एकषष्टिभागा योजनस्थान्तरं कृत्वा चारं चरतः, तदा चाष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूर्त्तस्यैकपष्टिभागाभ्यां न्यूनः, द्वादशमुहूर्ता च रात्रिर्भवति द्वाभ्यां मुहूत्र्तकषष्टिभागा भ्यामधिकेति, एवं दक्षिणायनस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योऽन्यान्तरप्रमाणस्य पञ्चभिः पञ्चभिर्योजनैः | ३ पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या, द्वाभ्यां द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनहानी रात्रिवृद्धिश्चेति, एवं च एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले सूर्ययोरन्तरं नवनवतिः सहस्राण्यष्टशतानि सप्तपञ्चाशच योजनानां त्रयोविंश|तिश्चैकषष्टिभागाः, दिनप्रमाणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्त्ताश्चतुश्चत्वारिंशचैकषष्टिभागा मुहूर्तस्य, रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां क्षिप्तायांत्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकषष्टिभागाश्चेति, एवं 'दक्खिणायणनियट्टे'त्ति यथोत्तरायणनिवृत्त एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान् हापयति वर्धयति च, एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान् हापयति वर्द्धयति च, केवलं दक्षिणायने दिनभागान् हापयति रात्रिभागांश्च Jain Education For Personal & Private Use Only DIshelibrary.org Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ समवाया. श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥८७॥ वर्द्धयति इह तु दिनभागान् वर्द्धयति रात्रिभागाश्च हापयति ॥७८ ॥ वलयामुहस्स णं पायालस्स हिहिलाओ चरमंताओ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए हेहिले चरमंते एस णं एगूणासिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं केउस्सवि जूयस्सवि ईसरस्सवि, छट्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेट्ठिले चरमंते एस णं एगूणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अन्तरे प०, जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स य एस णं एगूणासीइं जोयणसहस्साई साइरेगाइं अबाहाए अंतरे प० ॥ सूत्रं ॥ ७९ ॥ अथैकोनाशीतितमे स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र 'वलयामुहस्स'त्ति वडवामुखाभिधानस्य पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य 'पायालस्स'त्ति महापातालकलशस्याधस्तनचरमान्ताद्रनप्रभापृथ्वीचरमान्त एकोनाशीत्या(तौ)सहस्रेषु भवति, कथं ? रत्नप्रभा हि अशीतिसहस्राधिकं योजनानां लक्षं बाहल्यतो भवति, तस्याश्चैकं समुद्रावगाहसहस्रं परिहत्याधोलक्षप्रमाणावगाहो वलयामुखपातालकलशो भवति, ततस्तच्चरमान्तात् पृथिवीचरमान्तो यथोक्तान्तरमेव भवति, एवमन्येऽपि त्रयो वाच्या इति, 'छट्ठीए' इत्यादि, अस्य भावार्थ:-पष्टपृथिवी हि बाहल्यतो योजनानां लक्षं षोडश सहस्राणि च भवति, घनोदधयस्तु यद्यपि सप्तापि प्रत्येकं विंशतिसहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्थस्य मतेन षष्ठ्यामसावेकविंशतिः संभाव्यते, तदेवं षष्ठपृथिवीबाहल्यार्द्धमष्टपञ्चाशत् घनोदधिप्रमाणं चैकविंशतिरित्येवमेकोनाशीतिर्भवति, ग्रन्थान्तरमतेन तु सर्वघनोदधीनां विंशतियोजनसहस्रबाहल्यत्वात्पञ्चमीमाश्रित्येदं सूत्रमवसेयं, यतस्तद्वाहल्य JainEducation For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टादशोत्तरं लक्षमुक्तं, यत आह-“पढमासीइ सहस्सा १ बत्तीसा २ अटुवीस ३ वीसा य ४। अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुजा ॥ १॥” इति [प्रथमाऽशीतिः सहस्राणि द्वात्रिंशत् अष्टाविंशतिविंशतिश्च । अष्टादश है षोडशाष्टौ सहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् ॥१॥] अथवा षष्ठ्याः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो विवक्षितः, एवमर्थसू४ चकत्वाद्बहुशब्दस्खेति, तथा जम्बूद्वीपस्य जगत्याश्चत्वारि द्वाराणि विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताभिधानानि चतुश्च-15 तुर्योजनविष्कम्भानि गव्यूतपृथुलद्वारशाखानि क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु भवन्ति, तेषां च द्वारस्य च द्वारस्य चान्योऽन्यमित्यर्थः, 'एस णंति एतदेकोनाशीतियोजनसहस्राणि सातिरेकाणीत्येवंलक्षणमवाधया-व्यवधानेन व्यवधानरूपमित्यर्थान्तरं प्रज्ञसं, कथं ?, जम्बूद्वीपपरिधेः ३१६२२७ योजनानि कोशाः ३ धनूंषि १२८ अङ्गुलानि १३ सार्द्वानीत्येवंलक्षणस्यापकर्षितद्वारद्वारशाखाविष्कम्भस्य चतुर्विभक्तस्यैवंफलत्वादिति ॥ ७९ ॥ सेजंसे णं अरहा असीइं धणूइं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, तिविढे णं वासुदेवे असीइं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, अयले णं बलदेवे असीइं धणूई उडे उच्चत्तेणं होत्था, तिविढे णं वासुदेवे असीइवाससयसहस्साई महाराया होत्था, आउबहुले णं कण्डे असीइजोयणसहस्साई बाहल्लेणं प०, ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो असीई सामाणियसाहस्सीओ प०, जम्बुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसयं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्ठोवगए पढम उदयं करेइ ॥ सूत्रं ८०॥ अथाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते-श्रेयांसः-एकादशो जिनः, त्रिपृष्ठः श्रेयांसजिनकालभावी प्रथमवासुदेवः, dain Education M a l For Personal & Private Use Only M inelibrary.org Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा ८०-८१ समवाया. यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥८८॥ अचलः-प्रथमबलदेवः, तथा त्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशीतिवर्षलक्षाणि सर्वायुरिति, चत्वारि लक्षाणि कुमारत्वे शेष तु महाराज्ये इति । 'आउबहु' इत्यादि, किल रत्नप्रभाया अशीत्युत्तरयोजनलक्षवाहल्यायास्त्रीणि काण्डानि भवन्ति, तत्र प्रथमं रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यं द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिसहस्रमानं तृतीयमबहुलकाण्डमशीतिर्योजनसहस्राणीति, 'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, 'ओगाहित्तत्ति प्रविश्य 'उत्तरकटोवगय'त्ति उत्तरां काष्ठांदिशमुपगतः उत्तरकाष्ठोपगतः प्रथममुदयं करोति, सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः ॥ ८॥ नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासीइ राइदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं अहासुत्तं जाव आराहिया, कुंथुस्स णं अरहओ एक्कासीतिं मणपजवनाणिसया होत्था, विवाहपन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया प०॥ सूत्रं ८१॥ अथैकाशीतिस्थानके किञ्चिदुच्यते-'नवनवमिके'ति नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका भवंति च नवसु नवकेषु नव नवमदिनानि, तस्यां च भिक्षुप्रतिमायामेकाशीती रात्रिंदिनानि भवंति, एवं नवानां नवकानामेकाशीतिरूपत्वात् , तथा प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा एवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव नवेति सर्वासां पिण्डने चत्वारि पञ्चोत्तराणि भिक्षाशतानि भवन्तीत्यत उक्तं 'चउहि येत्यादि, इह च भिक्षाशब्देन दत्तिरभिप्रेता 'अहासुतंति यथासूत्रं-सूत्रानतिक्रमण 'जाव'त्तिकरणाद्यथाकल्पं यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यकायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञयाऽऽराधितेति द्रष्टव्यं 'विवाहपन्नत्तीए'त्ति व्याख्याप्रज्ञप्त्यामेकाशीतिमहायुग्मशतानि ॥८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EMAMANGALORECAST प्रज्ञप्तानि, इह च शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते, तानि कृतयुग्मादिलक्षणराशिविशेषविचाररूपाणि अत्रान्तराध्ययनखभावानि तदवगमावगम्यानीति ॥ ८१॥ जम्बुद्दीवे दीवे बासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरइ तं०-निक्खममाणे य पविसमाणे य, समणे भगवं महावीरे बासीए राइदिएहिं वीइक्वंतेहिं गन्माओ गम्भं साहरिए, महाहिमवतस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरमंते एस णं बासीइं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिस्सवि ॥ सूत्रं ८२॥ अथ व्यशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, अत्र जम्बूद्वीपे व्यशीत्यधिकं मण्डलशतं-सूर्यस्य मार्गशतं तद्भवतीति वाक्यशेषः, किंभूतं ?-यत् सूर्यो द्विकृत्वो-द्वौ वारौ सङ्कम्य-प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा-निष्क्रामंश्च जम्बूद्वीपात् प्रविशंश्च जम्बूद्वीप एवेति, अयमत्र भावार्थः-किल चतुरशीत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये | सकृदेव सङ्कामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति, इह च व्यशीतिविवक्षयैवेदं व्यशीतिस्थानकेऽधीतमिति भावनीयं, यद्यपि जम्बूद्वीपे पञ्चषष्टिरेव मण्डलानां भवति तथापि जम्बूद्वीपादिकसूर्यचारविषयत्वाच्छेषाण्यपि जम्बूद्वीपेन विशेषितानीति, 'समणे' इत्यादि आषाढस्य शुक्लपक्षषष्ठ्या आरभ्य यशीत्यां रात्रिन्दिवेष्वतिक्रान्तेषु त्र्यशीतितमे वर्तमाने अश्वयुजः कृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः, गर्भात्-गर्भाशयाद्देवानंदाबामणीकुक्षित इत्यर्थः गर्भ-त्रिशलाभिधान-2 क्षत्रियाकुक्षिं संहृतो-नीतो देवेन्द्रवचनकारिणा हरिणेगमेष्यभिधानदेवेनेति, इदं च सूत्रं यशीतिरात्रिन्दिवान्यधिकृत्य Jain Education For Personal & Private Use Only M ainelibrary.org Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे ८२-८३ समवाया. श्रीअभय० वृत्तिः ॥८९॥ ॐRCLECTROCIRCHECACCESC यशीतिस्थानकेऽधीयते, त्र्यशीतितमं रात्रिन्दिवमाश्रित्य तु ज्यशीतितमस्थानके इति, 'महाहिमवंतस्से'त्यादि महाहिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतस्य योजनशतद्वयोच्छ्रितस्य 'उवरिलाओ'त्ति उपरिमाचरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्वाधस्तनश्चरमान्तो यशीतिर्योजनशतानि, कथं ?, रत्नप्रभापृथिव्यां हि त्रीणि काण्डानि-खरकाण्डं पङ्ककाण्डमब्बहुलकाण्ड चेति, तत्र प्रथमं काण्डं पोडशविधं, तद्यथा-रत्नकाण्डं १ वज्रकाण्डं २ एवं बैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगड ५ हंसगर्भ ६ पुलक ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरस ९ अञ्जन १० अञ्जनपुलक ११ रजत १२ जातरूप १३ अङ्क १४ स्कमें टिक १५ रिष्ठकाण्डं चेति १६, एतानि च प्रत्येकं सहस्रप्रमाणानि, ततश्च सौगन्धिककाण्डस्याष्टमत्वादशीतिशतानि द्वे च शते महाहिमवदुच्छ्य इत्येवं अशीतिशतानि इति, एवं रुक्मिणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्य वाच्यं, महाहिमवत्समानोच्छ्यत्वात्तस्येति ॥ ८२॥ समणे भगवं महावीरे बासीइराइदिएहिं वीइक्कतेहिं तेयासीइमे राईदिए वट्टमाणे गन्माओ गभं साहरिए, सीयलस्स णं अरहओ तेसीई गणा तेसीई गणहरा होत्था, थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, उसमे णं अरहा कोसलिए तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारमज्ञ वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए, भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीइं पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे बसित्ता जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी ॥ सूत्रं ८३॥ . अथ त्र्यशीतितमस्थानके किमपि लिख्यते-इह शीतलजिनस्य ध्यशीतिर्गणाः व्यशीतिगणधरा उक्ता आवश्यके RKIRACLACIRCANER For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वेकाशीतिरिति मतान्तरमिदमिति, तथा स्थविरो मण्डितपुत्रो - महावीरस्य षष्ठो गणधरः तस्य च त्र्यशीतिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथं ? त्रिपञ्चाशद्गृहस्थपर्याये चतुर्दश छद्मस्थपर्याये षोडश केवलित्वे इत्येवं व्यशीतिरिति, तथा 'कोसलिए 'त्ति कोशलदेशे भवः कौशलिकः 'तेसीइं' ति विंशतिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे त्रिषष्टिः राज्ये इत्येवं त्र्यशीतिः, तथा भरतचक्रवर्ती सप्तसप्ततिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे षट् चक्रवर्त्तित्वे इत्येवं त्र्यशीतिमगारवासमध्युष्य जिनो जातः - राज्यावस्थस्यैव रागादिक्षयात्केवली - संपूर्णासहायविशुद्धज्ञानादित्रययोगात् सर्वज्ञो विशेषबोधात् सर्वभावदर्शी सामान्यवोधात्ततः पूर्वलक्षं प्रव्रज्याग्रहणपूर्वकं केवलित्वेन विहृत्य सिद्ध इति ॥ ८३ ॥ चउरासीड् निरयावाससयसहस्सा प०, उसमे णं अरहा कोसलिए चउरासीइं पुब्व्वसयसहस्साइं सब्बाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, एवं भरहो बाहुबली बंभी सुंदरी, सिजंसे णं अरहा चउरासीइं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, तिविट्ठे णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसहस्साइं सव्बाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरए नेरइयत्ताए उववन्नो, सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ प०, सव्वेवि णं बाहिरया मंदरा चउरासी २ जोयणसहस्साइं उड्डुं उच्च प०, सव्वेविणं अंजणगपब्बया चउरासीइं २ जोयणसहस्साइं उहुं उच्चत्तेणं पत्ता, हरिवासरम्मयवासियाणं जीवाणं धणुपिट्ठा चउरासीं जोयणसहस्साइं सोलस जोयणाई चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं प०, पंकबहुलस्स णं कण्डस्स उरिल्लाओ चरमंताओ हेहिले रमंते एस णं चोरासीइ जोयणसय सहस्साई अबाहाए अंतरे प०, विवाहपन्नत्तीए णं भगव For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ समवाया. श्रीसमवा- तीए चउरासीई पयसहस्सा पदग्गेणं प०, चोरासीइ नागकुमारावाससयसहस्सा प०, चोरासीइ पइन्नगसहस्साई प०, चोरा यांगे सीइं जोणिप्पमुहसयसहस्सा प०, पुवाइयाणं सीसपहेलियापज्जवसाणाणं सट्ठाणवाणंतराणं चोरासीए गुणकारे ५०, उसमस्स श्रीअभय णं अरहओ चउरासीइ समणसाहस्सीओ होत्था, सब्वेवि चउरासीइ विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं वृत्तिः च विमाणा भवंतीति मक्खायं ॥ सूत्रं ८४ ॥ ॥९ ॥ चतुरशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, चतुरशीतिर्नरकलक्षाण्यमुना विभागेन-तीसा य ३० पण्णवीसा २० पणरस ||१५ दसेव ९ तिन्नि य ३ हवंति । पचणसयसहस्सं १ पंचेव ५ अनुत्तरा निरया ॥१॥' इति, श्रेयांसः-एकादश स्तीर्थकरः एकविंशतिवर्षलक्षाणि कुमारत्वे तावन्त्येव प्रव्रज्यायां द्विचत्वारिंशद्राज्ये इत्येवं चतुरशीतिमायुः पालयित्वा सिद्धः, तथा 'तिविलृत्ति प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति अप्रतिष्ठानो नरकः-सप्तमपृथिव्या पञ्चानां मध्यम | इति, तथा 'सामाणिय'त्ति समानर्द्धयः तथा 'बाहिरयं ति जम्बूद्वीपकमेरुव्यतिरिक्ताश्चत्वारो मन्दराश्चतुरशीतिः |सहस्राणि प्रज्ञप्ताः "अंजणगपचय'त्ति जम्बूद्वीपादष्टमे नन्दीश्वराभिधाने द्वीपे चक्रवालविष्कम्भमध्यभागे पूर्वादिषु | दिक्षु चत्वारोऽञ्जनरत्नमया अञ्जनकपर्वताः, 'हरिवासे'त्यादि 'चत्तारि य भागा जोयणस्स'त्ति एकोनविंशतिर्भागाः, इहार्थे गाथा -'धणुपिट्टकलचउक्कं चलसीइसहस्स सोलसहिय'त्ति [८४०१६..] तथा पङ्कबहुलं काण्डं द्वितीय तस्य च बाहल्यं चतुरशीतिः सहस्राणीति यथोक्तः सूत्रार्थ इति, तथा व्याख्याप्रज्ञप्त्यां-भगवत्यां चतुरशीतिः K For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदसहस्राणि पदाग्रेण-पदपरिमाणेन, इह च यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, मतान्तरेण तु अष्टादशपदसहस्रपरिमाणत्वादाचारस्य एतद्विगुणत्वाच शेषाङ्गानां व्याख्याप्रज्ञप्ति लक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि पदानां भवन्तीति, तथा चतुरशीतिर्नागकुमारावासलक्षाणि-चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां चत्वारिंशतश्चोत्तरायां भावादिति, चतुरशीतिर्योनयो-जीवोत्पत्तिस्थानानि ता एव प्रमुखानि-द्वाराणि योनिप्रमुखानि तेषां शतसहस्राणि-लक्षाणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, कथं ?-"पुढविदगअगणिमारुय एकेके सत्त जोणिलक्खाओ। वण पत्तेय अणते दस चउदस जोणिलक्खाओ ॥ १॥ विगलिंदिएसु दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिएसु होंति चउरो चोदसलक्खा उ मणुएसु॥२॥" त्ति, [ पृथ्वीदकाग्निमरुतामेकैकस्मिन् सप्त योनिलक्षाः । वने प्रत्येकानन्तयोर्दश चतुर्दश योनिलक्षाः ॥१॥ विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे चतस्रः चतस्रश्च नारकसुरयोः। तिर्यक्षु भवन्ति चतस्रः चतुर्दश लक्षास्तु मनुजेषु ॥२॥ इह च जीवोत्पत्तिस्थानानामसंख्येयत्वेऽपि समानवर्णगन्धरसस्पर्शानां तेषामेकत्वविवक्षणान्न यथोक्तयोनिसंख्या-3 व्यभिचारो मन्तव्य इति, 'पुवाइयाण'मित्यादि, पूर्वमादिर्येषां तानि पूर्वादिकानि तेषां शीर्षप्रहेलिका पर्यवसाने येषां तानि शीर्षप्रहेलिकापर्यवसानानि तेषां स्वस्थानात्-पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्तिस्थानात् संख्याविशेषलक्षणात् गुणनीयादित्यर्थः 'स्थानान्तराणि' स्थानान्तराण्यपि अनन्तरस्थानान्यव्यवहितसङ्ख्याविशेषा गुणकारनिष्पन्ना येषु तानि खस्थानस्थानान्तराणि क्रमव्यवस्थितसङ्ख्यानविशेषा इत्यर्थः अथवा स्वस्थानानि १६ सम. dain Education For Personal & Private Use Only rebrary.org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्तिः ॥ ९१ ॥ Jain Education O च - पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि च - अनन्तरस्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि अथवा स्वस्थानात् - प्रथमस्थानात् पूर्वा|ङ्गलक्षणात् स्थानान्तराणि - विवक्षितस्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि तेषां चतुरशीत्या लक्षैरिति शेषः, गुणकारःअभ्यासराशिः प्रज्ञप्तः, तथाहि -किल चतुरशीत्या वर्षलक्षैः पूर्वाङ्गं भवतीति खस्थानं, तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं पूर्वमुच्यते तच्च स्थानान्तरमिति, एवं पूर्व स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमनन्तरस्थानं त्रुटिताङ्गाभिधानं भवतीति, इह सङ्ग्रहगाथा - 'पुत्रतुडियाडडावव हुहूय तह उप्पले य पउमे य । नणिच्छिनिउर अउए नउए पउए य नायो ॥ १ ॥ चूलियसीसपहेलिय चोदस नामा उ अङ्गसंजुत्ता । अट्ठावीसं ठाणा चउणउयं होइ ठाणसयं ॥ २ ॥' ति, अभिलापश्चैषां पूर्वाङ्गं पूर्व त्रुटिताङ्गं त्रुटितमित्यादिरिति, 'चउरासीति' मित्यादि, चतुरशीतिसंख्यास्थानकविवरणलेख्यं, इह विभागोऽयं - 'बत्तीस ३२ अट्टवीसा २८ बार १२ ८ चउर ४ सयसहस्साइं । आरेण बंभलोगा | विमाणसंखा भवे एसा ॥ १ ॥ पञ्चास ५० चत्त ४ छच्चेव ६ सहस्सा लंत सुक्क सहसारे । सय चउरो आणयपाणएस तिष्णारणच्चुयओ ॥ २ ॥ एकारसुत्तरं हेट्टिमे १११ सतुत्तरं च मज्झिमए १०७ । सयमेगं उवरिमए १०० | पञ्चेव अणुत्तरविमाणा ॥ ३॥ [ द्वात्रिंशदष्टाविंशतिर्द्वादशाष्ट च चतस्रो लक्षाः । अर्वाक् ब्रह्मलोकात् विमानसंख्या भवेदेपा ॥१॥ पञ्चाशचत्वारिंशत् पटू चैव सहस्राणि लान्तके शुक्रे सहस्रारे चतुःशतानि आनतप्राणतयोस्त्रीण्यारणाच्युतयोः ॥ २ ॥ एकादशोत्तरमधस्तनेषु सप्तोत्तरं च मध्यमेषु । शतमेकमुपरितनेषु पञ्चैवानुत्तरविमानानि ॥ ३ ॥ ] इति 'भवतीति For Personal & Private Use Only ८४ सम वाया. ॥ ९१ ॥ mainelibrary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatio मक्खायं ति एतानि विमानान्येवं भवन्ति इति हेतोराख्यातानि भगवता सर्वज्ञत्वात् सत्यवादित्वाच्चेति ॥ ८४ ॥ आयारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स पंचासीइ उद्देसणकाला प०, धायइसण्डस्स णं मंदरा पंचासीइ जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं प०, रुयए णं मंडलियपव्वए पंचासीइ जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं प०, नंदणवणस्स णं हेहिलाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं पंचासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प० ॥ ( सूत्रं ) ८५ ॥ अथ पञ्चाशीतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्राचारस्य - प्रथमाङ्गस्य नवाध्ययनात्मकप्रथम श्रुतस्कन्धरूपस्य 'सचूलि - यागस्स' इति द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्च चूलिकाः तासु च पञ्चमी निशीथाख्येह न गृह्यते भिन्नस्थानरूपत्वातस्याः, तासु च प्रथमद्वितीये सप्तसप्ताध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यावे के काध्ययनात्मिके तदेवं सह चूलिकाभिर्वर्त्तत | इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरुदेशन काला भवन्तीति, प्रत्यध्ययनं उद्देशन कालानामेतावत्संख्यत्वात्, तथाहिप्रथमश्रुतस्कन्धे नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्त ७ षट् १३ चत्वार १७ चत्वारः २१ षट् २७ पञ्च ३२ अष्ट ४० चत्वारः ४४ सप्त ५१ चेति, द्वितीयश्रुतस्कन्धे तु प्रथमचूलिकायां सप्तखध्ययनेषु क्रमेण एकादश ६२ त्रय ६५ स्त्रयः ६८ चर्तुषु द्वौ द्वौ ७६ द्वितीयायां सप्तैकसराणि ८३ अध्ययनान्येवं तृतीयैकाध्ययनात्मिका ८४ एवं चतुर्थ्यपीति ८५ | सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति । तथा धातकीखण्डमन्दरौ सहस्रमवगाढौ चतुरशीतिसहस्राण्युच्छ्रिताविति पञ्चाशीतियजनसहस्राणि सर्वाग्रेण भवतः, पुष्करार्द्धमन्दरावप्येवं, नवरं सूत्रे नाभिहितौ विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति, तथा For Personal & Private Use Only Jainelibrary.org Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा ८५-८६ समवाया. यांग श्रीअभय वृत्तिः ॥९२॥ RC5% 9C%C5%नन रुचको-रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव मण्डलिकपर्वतो, मण्डलेन व्यवस्थितत्वात् , स च सहस्रमवगाढश्चतुरशीतिरुच्छ्रित इति पञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाग्रेणेति, तथा 'नन्दनवनस्य' मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितायां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याधस्त्याचरमान्तात् 'सौगन्धिककाण्डस्य' रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्यावान्तरकाण्डभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य सौगन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्वरमान्तः पञ्चाशीतिर्योजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति, कथम् ?, पञ्च शतानि मेरोः सम्बन्धीनि प्रत्येक च सहस्रप्रमाणत्वादवान्तरकाण्डानामष्टमकाण्डमशीतिशतानीति ॥ ८५॥ सुविहिस्स णं पुप्फदन्तस्स अरहओ छलसीइ गणा छलसीइ गणहरा होत्था, सुपासस्स णं अरहओ छलसीई वाइसया होत्था, दोच्चाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागाओ दोच्चस्स घणोदहिस्स हेठिले चरमंते एस णं छलनीइ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०॥ (सूत्रं) ८६॥ अथ षडशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र सुविधेः-नवमजिनस्वेह षडशीतिर्गणा गणधराश्चोक्ता आवश्यके तु अष्टाशीतिरिति मतान्तरमिदं, तथा द्वितीया पृथिवी-शर्करप्रभा, सा च बाहल्यतो द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षमाना तदर्द्ध षट्षष्टिः सहस्राणि घनोदधिश्च तदधोवर्ती द्वितीयापृथिवीसम्बन्धित्वात् द्वितीयो विंशतिः सहस्राणि बाहल्यत इति षडशीतियथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ८६ ॥ Jain Education a l For Personal & Private Use Only M nelibrary.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपब्वयस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं सत्तासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, मंदरस्स णं पव्वयस्स दक्खिणिलाओ चरमंताओ दगभासस्स आवासपव्वयस्स उत्तरिले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं मंदरस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ संखस्सावा० पुरच्छिमिले चरमंते, एवं चेव मंदरस्स उत्तरिलाओ चरमंताओ दगसीमस्स आवासपव्वयस्स दाहिणिले चरमते एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, छण्हं कम्मपगडीणं आइमउवरिल्लवजाणं सत्तासीई उत्तरपगडीओ प०, महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिमंताओ सोगन्धियस्स कंडस्स हेट्ठिले चरमंते एस णं सत्तासीइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिकूडस्सवि ॥ सूत्रं ॥ ८७॥ अथ सप्ताशीतिस्थानके किञ्चिलिख्यते, 'मन्दरे'त्यादि, मेरोः पारस्त्यान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विचत्वारिंशच सहस्राणि लवणजलधिमवगाह्य गोस्तुभो वेलन्धरनागराजावासपर्वतः प्राच्यां दिशि भवति, एवं सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवमन्येषां त्रयाणामन्तरमवसेयमिति । तथा षण्णां कर्मप्रकृतीनामादिमोपरिमव-2 र्जानां-ज्ञानावरणान्तरायरहितानां दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रसंज्ञितानामित्यर्थः सप्ताशीतिरुत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, कथं ?, दर्शनावरणादीनां षण्णां क्रमेण नव द्वे अष्टाविंशतिः चतस्रो द्विचत्वारिंशद्वे चेत्यतस्तासां मीलने सूत्रोक्तसंख्या स्यादिति । महाहिमवन्ते'त्यादि. महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टौ सिद्धायतनकूटमहाहिमवत्कूटादीनि कूटानि भवन्ति, तानि पञ्चशतोच्छ्रितानि, तत्र महाहिमवत्कूटस्य पञ्च शतानि द्वे शते महाहिमव Jain Education, For Personal & Private Use Only Linelibrary.org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्तिः ॥ ९३ ॥ द्वर्षधरोच्छ्रयस्य अशीतिश्च शतानि प्रत्येकं सहस्रमानानामष्टानां सौगन्धिककाण्डावसानानां रत्नप्रभाखरकाण्डावान्त-|रकाण्डानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्तरं भवतीति, एवं 'रुप्पिकूडस्सवि'त्ति रुक्मिणि पञ्चमवर्षधरे यद्वितीयं रुक्मिकूटाभिधानं कूटं तस्याप्यन्तरं महाहिमवत्कूटस्येव वाच्यं समानप्रमाणत्वाद्वयोरपीति ॥ ८७ ॥ एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीइ अट्टासीइ महग्गहा परिवारो प०, दिट्ठिवायस्स णं अट्ठासीइ सुत्ताइं प०, तं०-उज्जुसुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियव्वाणि जहा नंदीए, मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासीइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे प०, एवं चउसुवि दिसासु नेयव्वं, बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति इगसट्टिभागे मुहुतस्स दिवसखेत्तस्स निवुत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुट्टेत्ता सूरिए चारं चरइ, दक्खिणकडाओ णं सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे चोयालीसतिभे मंडलगते अट्ठासीई इगसट्टिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता णं सूरिए चारं चरइ ॥ सूत्रं ८८ ॥ अष्टाशीतिस्थानके किञ्चिद्वित्रियते, एकैकस्यासंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः, चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रमः सूर्ये तस्य, चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्यर्थः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः, एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति । 'दिट्टिवाए' त्यादि, दृष्टिवादस्य - द्वादशाङ्गस्य परिकर्म्मसूत्रपूर्वगतप्रथमानु Jain Education Inmonal For Personal & Private Use Only ८७-८८ समवाया. ॥ ९३ ॥ mainelibrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगचूलिकाभेदेन पञ्चप्रकारस्य 'सुत्ताईति द्वितीयप्रकारभूतानि अष्टाशीतिभवन्ति 'जहा नंदीए'त्ति अतिदेशतः सूत्राणि दर्शितानि तानि चाग्रे व्याख्यास्यामः, 'मंदरस्से'सादि, मेरोः पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनस-| हस्रमानात् जम्बूद्वीपान्ताच द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्तुभस्य व्यवस्थितत्वात् तस्य च सहस्रविष्कम्भत्वाद् यथोक्तः सूत्रार्थो भवतीति, अनेनैव क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दकावभासशंखदकसीमाख्यान वेलन्धरनागराजनिवासपर्वतानाश्रित्य वाच्यमत एवाह-एवं चउसुवि दिसासु नेयत्व'मिति । 'बाहिराओ ण'मित्यादि, बायायाः सर्वाभ्यन्तरमण्डलरूपाया उत्तरस्याः काष्ठायाः क्वचित् 'बाहिराओ'त्ति न दृश्यते सूर्यः प्रथमं पण्मासं दक्षिणायनलक्षणं दक्षिणायनादित्वात् संवत्सरस्य 'अयमाणे'त्ति आयान्-आगच्छन् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽष्टाशीतिमेकषष्टिभा गान् , 'दिवसखेत्तस्स'त्ति दिवसस्यैव 'निवुड्ढेत्त'त्ति निवळ हापयित्वा 'रयणिखेत्तस्स'त्ति रजन्यास्तु अभिवळ है। 'सूरिए चारं चरइ'त्ति भ्राम्यतीति, इह च भावनैवं-प्रतिमण्डलं दिनस्य मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहानेर्दक्षिणायनापेक्षया चतुश्चत्वारिंशत्तमे अष्टाशीतिर्भागा हीयन्ते, रात्रेस्तु त एव वर्द्धन्त इति, द्विः सूर्यग्रहणं चेह दिनरात्र्याश्रितवाक्यद्वयभेदकल्पनया ततोन पुनरुक्तमवसेयं, इदं च सूत्रमष्टसप्ततिस्थानकसूत्रवद्भावनीयमिति, 'दक्षिणकट्ठाओ' इति आदिसूत्रं पूर्वसूत्रवदवगन्तव्यं नवरमिह दिनवृद्धिः रात्रिहानिश्च भावनीयेति ॥८८॥ उसमे णं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए सुसमदूसमाए पच्छिमे भागे एगूषणउए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए UNCA-NCCESSAMRACCRACKSONG Jain Education For Personal & Private Use Only Le rayon Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा ८९-९० समवाया. बांगे श्रीअभय० वृश्चिः ॥९४॥ जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थाए दूसमसुसमाए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगणनउई वाससयाई महाराया होत्था, संतिस्स णं अरहओ एगणनउई अजासाहस्सीओ उक्कोसिया अजियासंपया होत्था ।। सूत्र ८९॥ अथैकोननवतिस्थानके किञ्चिद्विचार्यते-'तईयाए समाए'त्ति सुपमदुष्षमाभिधानाया एकोननवत्यामर्द्धमासेषुत्रिषु वर्षेषु अर्द्धनवसु च मासेषु सखिति गम्यते, 'जाव'त्ति करणात् 'अन्तगडे सिद्धे बुद्धे मुत्तेत्ति दृश्यं, हरिषेणचक्रवर्ती दशमस्तस्य च दश वर्षसहस्राणि सर्वायुस्तत्र च शतोनानि नव सहस्राणि राज्यं शेषाण्येकादश शतानि कुमारत्वमाण्डलिकत्वानगारत्वेषु अवसेयानि, इह शान्तिजिनस्यैकोननवतिरार्यिकासहस्राण्युक्तान्यावश्यक त्वेकषष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्त इति मतान्तरमेतदिति ॥ ८९ ॥ सीयले णं अरहा नउई धणूइं उड़ उच्चत्तेणं होत्था, अजियस्स णं अरहओ नउई गणा नउई गणहरा होत्था, एवं संतिस्सवि, सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउइवासाइं विजए होत्था, सव्वेसि णं वट्टवेयड्डपब्बयाणं उवरिलाओ सिहरतलाओ सोगंधियकण्डस्स हेडिल्ले चरमंते एस णं नउइजोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०॥ सूत्रं ९०॥ अथ नवतिस्थानके किञ्चिद् व्याख्यायते, तत्राजितनाथस्य शान्तिनाथस्य चेह नवतिर्गणा गणधराश्चोक्ताः आवश्यके तु पञ्चनवतिरजितस्स पत्रिंशत्तु शान्तरुक्तास्तदिदमपि मतान्तरमिति, तथा स्वयम्भूः-तृतीयवासुदेवस्वस्थ BRRRRRRRR ॥९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतिवर्षाणि विजयः-पृथिवीसाधनव्यापारः, 'सवेसि णमित्यादि, सर्वेषा विंशतेरपि वर्तुलवैताख्यानां-शब्दापातिप्रभृतीनां योजनसहस्रोच्छ्रितत्वात् सौगन्धिककाण्डचरमान्तस्य चाष्टसु सहस्रेषु व्यवस्थितत्वात् नवसु सहस्रेषु नवतेः शतानां भावात् सूत्रोक्तमन्तरमनवद्यमिति ॥ ९ ॥ एकाणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ प०, कालोए णं समुद्दे एकाणउई जोयणसयसहस्साई सहियाइं परिक्खेवेणं प०, कुंथुस्स णं अरहओ एकाणउई आहोहियसया होत्था, आउयगोयवजाणं छण्हं कम्मपगडीणं एकाणउई उत्तरपगडीओ प०॥ सूत्रं ९१ ॥ अथैकनवतिस्थानके किञ्चिद्वितन्यते, तत्र परेषां-आत्मव्यतिरिक्तानां वैयावृत्यकर्माणि-भक्तपानादिभिरुपष्टम्भक्रियास्तद्विषयाः प्रतिमाः-अभिग्रहविशेषाः परवैयावृत्त्यकर्मप्रतिमाः, एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि क्वचि|दपिनोपलब्धानि, केवलं विनयवैयावृत्त्यभेदा एते स(म्भव)न्ति, तथाहि-दर्शनगुणाधिकेषु सत्कारादिर्दशधा विनयः,8 आह च-"सक्कार १ ब्भुट्ठाणे २ सम्माणे ३ आसण[भि]ग्गहो ४ तहय । आसणअणुप्पयाणं ५ किइकम्मं ६ अअलिगहो य ७॥१॥ इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पजुवासणा भणिया ९। गच्छंताणुवयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ' ॥२॥ [सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मानं आसनाभिग्रहः तथा च । आसनानुप्रदानं कृतिकर्म अञ्जलिप्रग्रहः ॥१॥]त्ति [ आयतोऽनुगमनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता। गच्छतोऽनुव्रजनं एष शुश्रूषाविनयः ॥२॥] तत्र सत्कारो-वन्दनस्तवनादिः १ अभ्युत्थानं-आसनत्यागः २ सन्मानो-वस्त्रादिपूजनं ३ आसनाभिग्रहः Jain Education For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्ति: ॥९५॥ Jain Education तिष्ठत एवासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनमिति ४ आसनानुप्रदानं - आसनस्य स्थानात् स्थानान्तरसञ्चारणं ५ कृतिकर्म्मादीनि प्रकटानि, तथा तीर्थङ्करादीनां पञ्चदशानां पदानामनाशातनादिपदचतुष्टयगुणितत्वे षष्टिविधोऽनाशातनाविनयो भवति, तथाहि - तित्थयर १ धम्म २ आयरिय ३ वायग ४ थेरे ५ (य) कुल ६ गणे ७ सङ्घ ८ । सम्भो इय ९ किरियाए १० मइनाणाई (ण) १५ य तहेव ॥ १ ॥ [ तीर्थकर धर्माचार्यवाचकस्थविरकुलगणसंघेषु । साम्भोगिकक्रिययोः मतिज्ञानादीनां तथैव ॥ १ ॥ ] अत्र भावना - तीर्थकराणामनाशातना तीर्थकरानाशातना, तीर्थङ्करप्रज्ञतस्य | धर्मस्य अनाशातनाविनयः, एवं सर्वत्र भावना कर्तव्या, "अणसायणा य भत्ती वहुमाणो तहय वण्णवाओ य । अरहंतमाइयाणं केवलणाणावसाणाणं ॥ १ ॥” इति [ अनाशातना च भक्तिर्वहुमानस्तथैव वर्णवादश्च । अर्हदादीनां | केवलज्ञानावसानानां ॥ १ ॥ ] तथौपचारिकविनयः सप्तधा, यदाह - " अन्भासासण १ छंदाणुवत्तणं २ कयपडिकिई तहय ३ । कारियनिमित्तकरणं ४ दुक्ख त्तगवेसणा तहय ॥ १ ॥ तह देसकालजाणण सबत्थे (सु) तहय अणुमई भणिया ७ । उवयारिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥ २ ॥ [ अभ्यासासनं छन्दोऽनुवर्त्तनं कृतप्रतिकृतिस्तथा च । कारितनिमित्तं करणं दुःखार्तगवेषणं तथैव ॥ १ ॥ तथा देशकालज्ञानं सर्वार्थेषु तथा चानुमतिर्भणिता औपचारिकस्तु | विनय एष भणितः समासेन ॥२॥ ] इति, अभ्यासासनं - उपचरणीय स्थान्तिकेऽवस्थानं छन्दोऽनुवर्त्तनं - अभिप्रायानुवृत्तिः कृतप्रतिकृतिर्नाम - प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति न नाम निर्जरेति मन्यमानस्याहारादिदानं कारितनिमि For Personal & Private Use Only ९१ स मवाया. 1154 11 winelibrary.org Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तिकरणं-सम्यकशास्त्रपदमध्यापितस्य विशेषेण विनये वर्त्तनं तदर्थानुष्ठानं च, शेषाणि प्रसिद्धानि, तथा वैयावृत्त्यं दशधा, यदाह-'आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सी गिलाणसेहाणं । साहम्मिय कुलगणसंघसङ्गयं तमिह कायचं ॥१॥' [आचार्योपाध्यायस्थविरतपखिग्लानशैक्षाणां । साधर्मिके कुलगणसंघानां संगतं तदिह कर्त्तव्यं ॥ १॥] इति, तत्र प्रजाजना १ दिगु २ देश ३ समुद्देश ४ वाचना ५ चार्यविनयो भवति, तथौपचारिकविनयोऽभ्यासवृत्त्यादिः सप्तधा, तथा वैयावृत्त्यं दशभेदादाचार्यस्य च पञ्चविधत्वात्तदेवं चतुर्दशधेत्येकनवतिर्विनयभेदा एते एव अभिग्रहविषयीभूताः प्रतिमा उच्यन्त इति । दर्श०१० अना०६० औप०७ वैया० १४॥ तथा 'कालोए णं'ति कालोदः समुद्रः, स चैकनवतिर्लक्षाणि साधिकानि परिक्षेपेण, आधिक्यं च सप्तत्या सहस्त्रैः पड्भिः शतैः पञ्चोत्तरैः सप्तदशभिर्धनुःशतैः पञ्चदशोत्तरैः सप्ताशीत्या चालैः साधिकैरिति 'आहोहिय'त्ति नियतक्षेत्रविषयावधयः । आयुर्गोत्रवर्जानां 'पण्णामिति ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयनामान्तरायाणां क्रमेण पञ्चनवद्यष्टाविंशतिर्द्विचत्वारिंशत्पञ्चभेदानामिति ॥११॥ बाण उई पड्रिमाओ पं०, थेरे णं इंदभूती वाणउइ वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे, मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं बाणउई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउण्डंपि आवासपव्वयाणं ॥ सूत्रं ॥ ९२॥ अथ द्विनवतिस्थानके किमप्यभिधीयते, द्विनवतिः प्रतिमाः-अभिग्रहविशेषाः, ताश्च दशाश्रुतस्कन्धनियुक्त्यनु in Education For Personal & Private Use Only Millainelibrary.org Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय ० वृत्तिः ॥९६॥ + -646 सारेण दर्श्यन्ते, तत्र किल पञ्च प्रतिमा उक्ताः, तद्यथा - समाधिप्रतिमा द्विविधा १ उपधानप्रतिमा २ विवेकप्रतिमा ३ प्रतिसंलीनताप्रतिमा ४ एकविहारप्रतिमा चेति ५, तत्र समाधिप्रतिमा द्विविधा श्रुतसमाधिप्रतिमा चारित्रसमाधिप्रतिमा च दर्शनं ज्ञानान्तर्गतमिति न भिन्ना दर्शनप्रतिमा विवक्षिता, तत्र श्रुतसमाधिप्रतिमा द्विषष्टिभेदा, कथं ?, आचारे प्रथमे श्रुतस्कन्धे पञ्च द्वितीये सप्तत्रिंशत् स्थानाङ्गे पोडश व्यवहारे चतस्र इत्येता द्विषष्टिः, एताश्च चारित्रस्वभावा अपि विशिष्टश्रुतवतां भवन्तीति श्रुतप्रधानतया श्रुतसमाधिप्रतिमात्वेनोपदिष्टा इति सम्भावयामः, पञ्च | सामायिकच्छेदोपस्थापनीयाद्याश्चारित्रसमाधिप्रतिमाः, उपधानप्रतिमा द्विविधा भिक्षुश्रावकभेदात्, तत्र भिक्षुप्रतिमा 'मासाइसत्ता' इत्यादिनाऽभिहितखरूपा द्वादश उपासप्रतिमास्तु 'दंसणवय' इत्यादिनाऽभिहितखरूपा एकादशेति सर्वास्त्रयोविंशतिर्विवेकप्रतिमा त्वेका क्रोधादेरारभ्यन्तरस्य गणशरीरोपधिभक्तपानादेर्वाह्यस्य च विवेच|नीयस्यानेकत्वेऽप्येकत्वविवक्षणादिति, प्रतिसंलीनताप्रतिमाऽप्येकैव इन्द्रियखरूपस्य पञ्चविधस्य नोइन्द्रियखभावस्य च योगकषायविविक्तशयनासनभेदतस्त्रिविधस्य प्रतिसंलीनताविषयस्य भेदेनाविवक्षणादिति पञ्चम्येकविहारप्रतिमैकैव, न चेह सा भेदेन विवक्षिता, भिक्षुप्रतिमाखन्तर्भावितत्वादित्येवं द्विषष्टिः पञ्च त्रयोविंशतिरेका एका च द्विनवतिस्ता भवन्तीति । स्थविर इन्द्रभूतिर्महावीरस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्याये पञ्चाशतं वर्षाणि त्रिंशतं छद्म| स्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्ध इति सर्वाणि द्विनवतिरिति । 'मंदरस्से' त्यादि, भावार्थः, मेरुमध्यभागात् For Personal & Private Use Only ९२ स मवाया. ॥ ९६ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत्सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तुभपर्वत इति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवं शेषाणामपि ॥ ९२ ॥ चंदप्पहस्स णं अरहओ तेणउई गणा तेणउई गणहरा होत्था, संतिस्स णं अरहओ तेणउई चउद्दसपुव्विसया होत्था, तेणउईमं डलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमाणे वा समं अहोरतं विसमं करेइ । सूत्रं ९३ ॥ ___ अथ त्रिनवतिस्थानके किमपि वितन्यते, 'तेणउईमंडले'त्यादि, तत्र अतिवर्तमानो वा-सर्वबाह्यात् सर्वाभ्यन्तरं प्रति गच्छन् निवर्तमानो वा-सर्वाभ्यन्तरात् सर्वबाचं प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यर्थः, अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रं तयोः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र | सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूर्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहूर्ता, सर्वबाह्ये तु व्यत्ययः, तथा त्र्यशीत्यधिकमण्डलशते द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ वर्द्धते हीयेते च, यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति, तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयवृद्ध्या त्रयो मुहूर्ता एकेनैकषष्टिभागेनाधिकाः वर्द्धन्ते वा हीयन्ते वा, तेषु च द्वादशमुहूर्तेषु मध्ये क्षिप्तेषु अष्टादशभ्योऽपसारितेषु वा पञ्चदश मुहूर्त्ता उभयत्रकेनकषष्टिभागे8/नाधिका हीना वा भवन्तो द्विनवतितममण्डलस्यार्द्ध समाहोरात्रता तस्यैव चान्ते विषमाहोरात्रता भवति, द्विनव तितमं मण्डलं चादित आरभ्य त्रिनवतितमं तत्र च मण्डले यथोक्तः सूत्रार्थ इति ॥ ९३ ॥ १७ सम. Jain Education L o nal For Personal & Private Use Only M ainelibrary.org Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे श्रीसमवा निसहनीलवंतियाओ णं जीवाओ चउणउइ जोयणसहस्साई एक छप्पन्नं जोयणसयं दोन्नि य एगूणवीसइभागे जोयणस्स आ- ९४-९५ यामेणं प०, अजियस्स णं अरहओ चउणउइ ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्रं ९४ ॥ समवाया. श्रीअभयदा अथ चतुर्नवतिस्थानके किञ्चिद्विविच्यते, 'निसहे'त्यादि, इह पादोना संवादगाथा 'चउणउइसहस्साई छप्पणवृत्तिः PIहियं सयं कला दो य । जीवा निसहस्सेस" [चतुर्नवतिः सहस्राणि षट्पञ्चाशदधिकं शतं कले द्वे च । जीवा निष॥९७॥ धस्यैषा] त्ति ॥ ९४॥ सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउइ गणा पंचाणउइ गणहरा होत्या, जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स चरमंताओ चउदिसिं लवणसमुई पंचाणउइ पंचाणउइ जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा प० तं०-वलयामुहे केऊए जूयए ईसरे, लवणसमुइस्स उभओपासंपि पंचाणउयं पंचाणउयं पदेसाओ उव्वेहुस्सेहपरिहाणीए प०, कुंथू णं अरहा पंचाणउइ वाससहस्साई परमाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे, थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे ॥सूत्रं ९५॥ अथ पञ्चनवतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, लवणसमुद्रस्योभयपार्थतोऽपि पञ्चनवतिः प्रदेशा उद्वेधोत्सेधपरिहान्या विषये प्रज्ञप्ताः, अयमत्र भावार्थः-लवणसमुद्रमध्ये दशसाहस्रिकक्षेत्रस्य समधरणीतलापेक्षया सहस्रमुद्वेधः, उण्डत्व- हा॥१७॥ मित्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्योद्वेधस्य प्रदेशो हीयते, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा उद्वेधस्य | प्रदेशः परिहीयते, एवं पञ्चनवतिरप्रदेशातिक्रमे प्रदेशमात्रस्य प्रदेशमात्रस्योद्वेधस्य हान्या पञ्चनवत्यां योजनसह dain Educ For Personal & Private Use Only wwjainelibrary.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # HASARLI SAYA स्रष्वतिक्रान्तेषु समुद्रतटप्रदेशेषु उद्वेधसहस्रस्थापि परिहानिर्भवतीत्यर्थः, समभूतलत्वं भवतीति, तथा समुद्रमध्यभागापेक्षया तत्तटस्य साहसिक उत्सेधो भवति, उत्सेधश्वोच्चत्वं, तत्र समधरणीतलरूपात्तत्तटात्पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्य एकप्रदेशिका उत्सेधस्य परिहानिर्भवति, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा प्रादेशिक्येवोत्सेधहानिर्भवति, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमेण प्रादेशिक्यां प्रादेशिक्यां उत्सेधहान्यां पञ्चनवत्यां योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु स| मुद्रमध्यभागे सहस्रमपि उत्सेधस्य परिहीयते, एवं साहसिकोत्सेधपरिहानौ साहनिकोद्वेधता भवति 'लवणस्से-12 ति, अथवोद्वेधार्थ योत्सेधपरिहानिस्तस्यां च पञ्चनवतिः प्रदेशाः-प्रज्ञप्तास्तेष्वतिलचितेषु उत्सेधतः प्रदेशपरिहान्यामु-है। द्वेधः प्रादेशिको भवतीति, तथा कुन्थुनाथस्य-सप्तदशतीर्थकरस्य कुमारत्वमाण्डलिकत्वचक्रवर्तित्वानगारत्वेषु प्रत्येकं । त्रयोविंशतेर्वर्षसहस्राणामर्द्धाष्टमवर्षशतानां च भावात्सर्वायुः पञ्चनवतिवर्षसहस्राणि भवन्तीति, तथा मौर्यपुत्रो-महावीरस्य सप्तमगणधरस्तस्य पञ्चनवतिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथं ?, गृहस्थत्वछद्मस्थत्वकेवलित्वेषु क्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दशषोडशानां वर्षाणां भावादिति ॥ ९५ ॥ एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स छण्णउई छणउई गामकोडीओ होत्था, वायुकुमाराणं छण्णउइ भवणावाससयसहस्सा प०, ववहारिए णं दंडे छण्णउइ अङ्गुलाई अंगुलमाणेणं, एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसलेवि हु, अभितरओ आइमुहुत्ते छण्णउइअंगुलछाए प०॥ सूत्रं ९६ ॥ Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- अथ षण्णवतिस्थानके किमपि व्याख्यायते, वायुकुमाराणां षण्णवतिर्भवनलक्षाणि दक्षिणस्यां पञ्चाशत उत्तरस्यां यांगे |च पट्चत्वारिंशतो भावादिति 'ववहारिए'त्ति व्यावहारिको येन गव्यूतादि प्रमाणं चिन्त्यते, अव्यावहारिकस्तु लघुः समवाया. श्रीअभय० दीर्घा वा भवत्युक्तप्रमाणात्, दण्डो हि चतुःकर उक्त करश्चतुर्विंशत्यङ्गुलः एवं चतुर्विंशतौ चतुर्गुणितायां षण्णवतिः । वृत्तिः स्थादेवेति। 'अभंतराओ' इत्यादि अभ्यन्तराद्, अभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्येत्यर्थः,आदिमुहूर्तः षण्णवत्यङ्गुलच्छायःप्रज्ञप्तः, ॥९८॥ अयमत्र भावार्थः-सर्वाभ्यन्तरमण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूर्तों द्वादशाङ्गुलमानं शङ्कमाश्रित्य पण्णवत्यङ्गुलच्छायो भवति, तथाहि-तदिनमष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टादशभागो दिनस्य भवति, ततश्च छायागणितप्रक्रियया छेदेनाष्टादशलक्षणेन द्वादशाङ्गलः शङ्कर्गुण्यत इति, ततो द्वे शते पोडशोत्तरे भवतः २१६, तयोरद्धीकृतयोरष्टोत्तरं शतं भवति १०८, ततश्च शङ्कप्रमाणे १२ ऽपनीते षण्णवतिरङ्गलानि लभ्यन्ते इति ॥९६ ॥ मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्ताणउइ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिंपि, अट्ठण्हं कम्मपगडीणं सत्ताणउइ उत्तरपगडीओ प०, हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउइ वाससयाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए ॥ सूत्रं ९७ ॥ ॥९८॥ अथ सप्तनवतिस्थानके किञ्चिदभिधीयते, 'मंदरे'त्यादि. भावार्थोऽयं-मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चपञ्चाPशत् सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशतो गोस्तुभ इति यथोक्तमवान्तरमिति, हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तन । Join Education International For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ति वर्षशतानि गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्यां पालितवान् दशवर्षसहस्रत्वात्तदायुष्कखेति ॥ ९७ ॥ नंदणवणस्स णं उवरिलाओ चरमंताओ पंडुयवणस्स हेहिले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे प०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिंपि, दाहिणभरहस्स णं धणुप्पिटे अट्ठाणउइ जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं प०, उत्तराओ कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अयमाणे एगूणपन्नासतिमे मण्डलगते अट्ठाणउइ एकसहिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता णं सूरिए चारं चरइ, दक्खिणाओ णं कट्ठाओ सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे एगूणपन्नासइमे मंडलगते अट्ठाणउइ एकसद्विभाए मुहुत्तस्स रयणिखित्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता णं सूरिए चारं चरइ, रेवईपढमजेद्यापजवसाणाणं एगूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउइ ताराओ तारग्गेणं प० ॥ सूत्रं ९८॥ । अथाष्टनवतिस्थानके किञ्चिदभिधीयते-'नंदणवणे' यादि, भावार्थोऽयं-नन्दनवन मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितप्रथPममेखलाभावि पञ्चयोजनशतोच्छ्रितं तद्गतपञ्चयोजनशतोच्छ्रितकूटाष्टकस्य तद्हणेन ग्रहणात् तथा पण्डकवनं च । मेरुशिखरव्यवस्थितं अतो नवनवत्या मेरोरुचैस्त्वस्य आये सहस्र अपकृष्टे यथोक्तमन्तरं भवतीति । गोस्तुभसूत्रभावार्थः पूर्ववन्नवरं गोस्तुभविष्कम्भसहस्र क्षिसे यथोक्तमन्तरं भवतीति । 'वेयहस्स ण'मित्यादि यः केचित्पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, सम्यक्पाठश्चायं-'दाहिणभरहवस्स णं धणुपिटे अट्ठाणउई जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं Jan Education For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८-९९ समवाया. S.पवार भावना श्रीसमवा- पण्णत्ते' इति, यतोऽन्यत्रोक्तं-'नव चेव सहस्साई छावट्ठाई सयाई सत्त भवे । सविसेस कला चेगा दाहिणभरहे ध यांगे णुप्पिटुं॥१॥ (९६०७६२) ति, वैताढ्यधनुःपृष्ठं त्वेवमुक्तमन्यत्र-“दस चेव सहस्साई सत्तेव सया हवंति ते श्रीअभय धणुपिटुं वेयड्ढे कला य पण्णारस हवंति ॥१॥” (१०७४३१५) 'उत्तराओ ण'मित्यादि, भावार्थः वृत्तिः है नुसारेणावसेयः, नवरमिह 'एकतालीसइमे' इति केषुचित्पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, 'एगूणपञ्चासइमेत्ति एकोन॥९९॥ पञ्चाशतो द्विगुणत्वे अष्टनवतिर्भवति, द्वयगुणनं च प्रतिमण्डलं मुहूर्त्तकषष्टिभागद्वयवृद्धेर्दिनस्य रात्रेवेति । वई'त्यादि, रेवतिः प्रथमा येषां तानि रेवतिप्रथमानि तथा ज्येष्ठा पर्यवसाने येषां तानि ज्येष्ठापर्यवसानानि तानि च तानि चेति कर्मधारयः तेषामेकोनविंशतेनक्षत्राणामष्टनवतिस्तारास्तारापरिमाणेन प्रज्ञप्ताः, तथाहि-रेवतिनक्षत्रं द्वात्रिंशत्तारं ३२ अश्विनी त्रितारं ३५ भरणी (त्रितारं) ३८ कृत्तिका षट्तारं ४४ रोहिणी पञ्चतारं ४९ मृगशिरस्त्रितारं ५२ आर्द्रा एकतारं ५३ पुनर्वसुः पञ्चतारं ५८ पुष्यस्त्रितारं ६१ अश्लेषा षट्तारं ६७ मघा सप्ततारं ७४ पूर्वाफाल्गुनी द्वितारं । ७६ उत्तराफाल्गुनी द्वितारं ७८ हस्तः पञ्चतारं ८३ चित्रा एकतारं ८४ खातिरेकतारं ८५ विशाखा पञ्चतारं ९० अनुराधा चतुस्तारं ९४ ज्येष्ठा त्रितारमित्येवं ९७ सर्वतारामीलने यथोक्तं ताराग्रमकोनं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, अधिकृतग्रन्थाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति ॥९८॥ मंदरे णं पव्वए णवणउइ जोयणसहस्साई उड्डे उच्चत्तेणं प०, नंदणवणस्स णं पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ पञ्चच्छिमिले चरमंते ॥९९॥ Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only Homjainelibrary.org Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SACARAAG एस णं नवनउइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प०, एवं दक्खिणिलाओ चरमंताओ उत्तरिले चरमंते एस णं णवणउइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प०, उत्तरे पढमे सूरियमंडले नवनउइजोयणसहस्साइं साइरेगाइं आयामविक्खंभेणं प०, दोच्चे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साहियाई आयामविक्खंभेणं प०, तइए सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साहियाई आयामविक्खंभेणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेहिलाओ चरमंताओ वाणमंतरभोमेजविहाराषं उपरिमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०॥ सूत्रं ९९॥ अथ नवनवतिस्थानके किमपि लिख्यते-'नंदणवणे'त्यादि, अस्य भावार्थः-मेरुविष्कम्भो मूले दश सहस्राणि, नन्दनवनस्थाने तु नवनवतिर्योजनशतानि चतुःपञ्चाशच योजनानि षट् योजनैकादशभागा बाह्यो गिरिविष्कम्भो नन्दनवनाभ्यन्तरस्तु मेरुविष्कम्भ एकोननवतिः शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् चैकादशभागास्तथा पञ्च शतानि नन्दनवनविष्कम्भः, तदेवमभ्यन्तरगिरिविष्कम्भो द्विगुणनन्दनवनविष्कम्भश्च मिलितो यथोक्तमन्तरं प्रायो भवति, पढमसूरियमंडले'त्ति, इह जम्बूद्वीपप्रमाणस्याशीत्युत्तरशते द्विगुणिते अपहृते यो राशिः स प्रथममण्डलस्यायामवि-2 ष्कम्भः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् च शतानि चत्वारिंशदधिकानि, द्वितीयं तु नवनवतिः सहस्राणि षट् शहै तानि पञ्चचत्वारिंशच्च योजनानि योजनस्य च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, कथं ?, मण्डलस्य मण्डलस्य चान्तरं द्वे द्वे योजने, सूर्यविमानविष्कम्भश्चाष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एतद्विगुणितं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशदेकवष्टिभागाधेति । JainEducational For Personal & Private Use Only sinelibrary.org Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे |९९-१०० समवाया. श्रीअभय० वृत्तिः ॥१०॥ जातमेतच पूर्वमण्डलविष्कम्भे क्षिप्तं जातमुक्तप्रमाणमिति, तृतीयमण्डलविष्कम्भोऽप्येवमेवावसेयः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि एकपञ्चाशत् योजनानि नवैकपष्टिभागाश्चेति । 'इमीसे 'मित्यादि, भावार्थोऽयंअञ्जनकाण्डं दशम, तत्र च रत्नप्रभोपरिमान्ताच्छतं शतानां भवति, प्रथमकाण्डे प्रथमशते च व्यन्तरनगराणि सन्तीति तस्मिन्नपसारिते नवनवतिशतान्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥ ९९ ॥ दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछटेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहियावि भवइ, सयभिसया नक्खत्ते एक्कसयतारे प०, सुविही पुप्फदंते णं अरहा एगं धणूसयं उर्दू उच्चत्तेणं होत्था, पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससय सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, एवं थेरेवि अजसुहम्मे, सब्वेवि णं दीहवेयड्डपब्वया एगमेगं गाउयसयं उर्दू उचत्तेणं प०, सब्वेवि णं चुल्लहिमवंतसिहरीवासहरपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्डे उच्चत्तेणं प० एगमेगं गाउयसयं उब्वेहेणं प० सब्वेऽवि णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उडे उच्चत्तेणं प० एगमगं गाउयसयं उब्वेहेणं प० एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं प०॥ सूत्रं १००॥ अथ शतस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका, या हि दिनानां दश दश । कानि भवन्ति, दश दशमदिनानि शतं च दिनानामत उच्यते एकेन रात्रिदिवसशतेनेति, यस्यां च प्रथमे दर प्रतिदिनमेकैका भिक्षा द्वितीये द्वे द्वे एवं यावदशमे दश दशेत्येवं सर्वभिक्षासङ्कलने सूत्रोक्तसंख्या भवत्येव इति, ॥१०॥ Jain Education For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है पार्श्वनाथस्त्रिंशद्वर्षाणि कुमारत्वं सप्ततिं चानगारत्वमित्येवं शतमायुः पालयित्वा सिद्धः, एवं 'थेरेवि अजसुहमे'त्ति आर्यसुधर्मो-महावीरस्य पञ्चमो गणधरः सोऽपि वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा सिद्धस्तथा च तस्यागारवासः पञ्चाइशद्वर्षाणि छद्मस्थपर्यायो द्विचत्वारिंशत्केवलिपर्यायोऽष्टौ, भवति चैतद्राशित्रयमीलने वर्षशतमिति । वैताड्यादिषूचत्व चतुर्थांशः उद्वेधः, काञ्चनका उत्तरकुरुषु देवकुरुषु क्रमव्यवस्थितानां पञ्चानां महाहदानामुभयतो दश दश व्यवस्थितास्ते च जम्बूद्वीपे शतद्वयसंख्याः समवसेया इति ॥१०॥ चंदप्पभे णं अरहा दिवढे धणुसयं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, आरणे कप्पे दिवड्ड विमाणावाससयं प०, एवं अच्चुएवि १५० सूत्रं १०१॥ सुपासे णं अरहा दो धणुसया उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था, सब्वेवि णं महाहिमवंतरुप्पीवासहरपव्वया दो दो जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, दो दो गाउयसयाई उव्वेहेणं प०, जम्बुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपन्वयसया प० ॥२०० सूत्रं १०२॥ अथैकोत्तरस्थानवृद्ध्या सूत्ररचनां परित्यज्य पञ्चाशच्छतादिवृद्ध्या तां कुर्वनाह-'चंदप्पहे'त्यादि, सुगम सर्वमाद्वादशाङ्कगणिपिटकसूत्रात् ॥२०॥ पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइजाई धणुसयाई उहूं उच्चत्तेणं होत्या, असुरकुमाराणं देवाणं पासायवडिंसगा अड्डाइजाई जोयणसयाइं उड् उच्चत्तेणं प० ॥ २५० सूत्रं ॥१.३॥ नवरं 'पासायवडिंसय'त्ति अवतंसकाः-शेखरकाः कर्णपूरांणि वा अवतंसका इव अवतंसकाः प्रधाना इत्यर्थः प्रा-1 सादाश्च ते अवतंसकाःप्रासादानां वा मध्ये अवतंसकाःप्रासादावतंसकाः ॥ २५ ॥ 25ACCORECASUAGRAT Join Education a l For Personal & Private Use Only V inelibrary.org Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे १०१-१०२ १०३-१०४ १०५-१०६ समवाया. श्रीअभय० वृत्तिः ॥१०१॥ सुमई णं अरहा तिण्णि धणुसयाई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, अरिहनेमी णं अरहा तिण्णि वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, वेमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा तिण्णि तिण्णि जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सयाणि चोहसपुब्बीणं होत्था, पंचधणुसइयस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगयस्स सातिरेगाणि तिण्णि धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा प० ॥३००॥ सूत्रं ॥१०४॥पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अद्भुट्ठसयाइं चोइसपुवीणं संपया होत्था, अभिनंदणे णं अरहा अधुट्ठाई धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था ॥ ३५० ॥ सूत्रं १०५॥ तथा 'पंचधणुस्सइयस्स ण'मित्यादि, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्य 'अंतिमसारीरियस्स'त्ति चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि त्रीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञप्ता, यतोऽसौ शैलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहत्रिभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देहविभागद्वयावगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवं 'तिन्नि सया तेत्ती-1 सा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धबो । एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिय ॥१॥' त्ति [त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशद् धनूंषि त्रिभागश्च भवति बोद्धव्यः। एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता ॥१॥]॥३००॥३५०॥ संभवे णं अरहा चत्तारि धणुसयाई उहूं उच्चत्तेणं होत्था, सब्वेवि णं णिसढनीलवंता वासहरपब्वया चत्तारि चत्तारि जोयणसयाइं उड्डे उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं प०, सब्वेवि णं वक्खारपव्वया णिसढनीलवंतवासहरपञ्चयए णं चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई उडे उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं प०, आणयपाणएसु दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया ॥१०॥ Jain Education ! For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुयासुरंमि लोगंमि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वा संपया होत्था ॥ ४०० ॥ सूत्रं १०६ ॥ ‘सवेऽवि णं वक्खारपच्चए’'त्यादि, वक्षस्कारपर्वता एकक्षेत्रप्रतिवद्धा विंशतिस्ते च वर्षधराः ते च चतुः चतुःशतोच्चाः ॥ Jain Educational अजिते णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसयाई उड्डुं उच्चतेणं होत्था, सगरे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी अद्धपंचमाई धणुसयाई उ उच्चत्तेणं होत्था ॥ ४५० ॥ सूत्रं १०७ ॥ सव्वेवि णं वक्खारपन्वय सीआ सीओओओ महानईओ मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उड्डुं उच्चतेणं पंच पंच गाउयसयाई उब्बेहेणं प०, सव्वेव णं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उड्डुं उच्चतेणं होत्था मूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं प०, उसमे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसयाई उड्ड उच्चत्तेणं होत्था, भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंचधणुसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था, सोमणसगंधमादणविज्जुप्पभमालवंताणं वक्खारपव्वयाणं मंदरपव्वयंतेणं पंच २ जोयणसयाई उडूं उच्चतेणं पंच पंच गाउयसयाई उब्वेहेणं प०, सव्वेवि णं वक्खारपव्वयकूडा हरिहरिस्सहकूडवजा पंच पंच जोयणसयाई उड्डुं उच्चतेणं मूले पंच पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं प०, सव्वेवि णं नंदणकूडा बलकूडवजा पंच पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चतेणं मूले पंच पंच जोयणसयाई आयाममविक्खंभेणं प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच २ जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं प० ॥ ५०० ॥ सूत्रं १०८ ॥ सविणं वक्खारेत्यादि शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मेरुप्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोच्चा इति, तथा 'सवेवि णं वासेत्यादि, तत्र For Personal & Private Use Only 6 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्तिः ॥ १०२ ॥ वर्षधरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकं, कथं ?, 'लहुहिमवं हिमवं निसढे एकारस अट्ठ नव य कूडाई । नीलाइसु तिसु नवगं अट्ठेकारस जहासंखं ॥ १ ॥ [ क्षुल्लहिमवति हिमवति निषधे एकादशाष्टौ नव च कूटानि । नीलादिषु त्रिषु नवकमष्टैकादश च यथासंख्यम् ॥ १ ॥ ] एतेषां च पञ्चगुणत्वात्, वक्षस्कारकूटानि त्वशीत्यधिकचतुःशतीसंख्यानि, कथं ?, “विज्जुपहमालयंते नव नव सेसेसु सत्त सत्तेव । सोलस वक्खारेसुं चउरो चउरो य कूडाई” ॥ १ ॥ [ विद्युत्प्रभमाल्यवतोर्नव नव शेषेषु सप्त सप्तैव । षोडश वक्षस्कारेषु चत्वारि चत्वारि च कूटानि ॥ १ ॥ ] एतेषां पञ्चगुणत्वात् पञ्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमेरुपलक्षितक्षेत्राणां पञ्चत्वात्, सर्वाण्येतानि पञ्चशतोच्छ्रितानि, एवं मानुषोउत्तरादिष्वपि वैताढ्यकूटानि तु सक्रोशषड्योजनोच्छ्रयाणि, वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यष्टयोजनोच्छ्रितानीति, ह रिकूटहरिसहकूटवर्जनं त्विह तयोः सहस्रोच्छ्रयत्वाद्, आह च - ' विज्जुप्पभहरिकूडो हरिस्तहो मालवंतवक्खारे । नंदणवणबलकूडो उचिद्धा जोयणसहस्सं ॥ १ ॥ [ विद्युत्प्रभहरिकूटे हरिसहो माल्यवद्वक्षस्कारः । नन्दनवने बलकूट उद्विद्धा योजन सहस्रं ॥ १ ॥ ] ॥ ५०० ॥ Jain Educational सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु विमाणा छजोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं प०, चुल्लहिमवंतकूडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं सिहरीकूडस्सवि, पासस्स णं अरहओ छ For Personal & Private Use Only १०७-१०८ १०९ समवाया. ॥१०२॥ ainelibrary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सया वाईणं सदेवमणुयासुरे लोए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्या, अभिचंदे णं कुलगरे छ धणुसयाई उड्डे उच्चतेणं होत्था, वासुपुजे णं अरहा छहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्चइए ॥ ६००॥ सूत्रं १०९॥ 'चुलहिमवंतकूडस्से'स्यादि, इह भावार्थो-हिमवान् योजनशतोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितं इति सूत्रोक्तमम्तरं भवतीति, 'अभिचंदे णं कुलकरे त्ति अभिचन्द्रः कुलकरोऽस्सामवसर्पिण्यां ससानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्यः षट् धनुःशतानि पञ्चाशदधिकानि ॥ ६.०॥ बंभलंतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाई उडे उच्चत्तेणं प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसया होत्था, समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त वेउब्वियसया होत्था, अरिहनेमी णं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिलाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिकूडस्सवि ॥ ७०० सूत्रं ११०॥ श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त जिनशतानि केवलिशतानीत्यर्थः, तथा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त वैक्रियशतानि वैक्रियलब्धिमत्साधुशतानीत्यर्थः, 'अरिडे'त्यादि, 'देसूणाईति चतुःपञ्चाशतो दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छन्नस्थकालखेति, 'महाहिमवंते'त्यादौ भावार्थोऽयं-महाहिमवान् योजनशतयोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति ॥७..॥ १८ सम. Jain Educatio n For Personal & Private Use Only 4lanelibrary.org Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ स वाया. श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृतिः ॥१०॥ महासुक्कसहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अद्वसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेजविहारा प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ अट्ठहिं जोयणसएहिं सूरिए चारं चरति, अरहओ णं अरिहनेमिस्स अट्ट सयाई वाईणं सदेवमणुयासुरंमि लोगंमि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्था ॥८०० सूत्रं १११॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, प्रथमं काण्डं खरकाण्डं खरकाण्डस्य षोडशविभागस्य प्रथमविभागरूपं रत्नकाण्डं, तत्र योजनसहस्रप्रमाणे अध उपरि च योजनशतद्वयं विमुच्यान्येष्वष्टसु योजनशतेषु वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्च तेषां सम्बन्धिनः भूमिविकारत्वाद्भौमयकास्ते च ते विहरन्ति-क्रीडन्ति तेष्विति विहाराश्च-नगराणि वानव्यन्तरभौमेयकविहारा इति, 'अट्ठ सय'त्ति अष्ट शतानि, केषामित्याह-'अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं'ति देवेषूत्पत्स्यमानत्वात् देवा द्रव्यदेवा इत्यर्थः तेषां गतिः-देवगतिलक्षणा कल्याणं येषां ते गतिकल्याणास्तेषामेवं स्थितिःत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणा कल्याणं येषां ते तथा तेषां, तथा ततश्युतानामागमिष्यद्-आगामि भद्रं-कल्याणं निर्वाणगमनलक्षणं येषां ते आगमिष्यद्भद्राः तेषां, किमित्याह-'उक्कोसिए'त्यादि ॥ ८.०॥ आणयपाणयआरणअच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव नव जोयणसयाई उडू उच्चत्तेणं प०, निसढकूडस्स णं उवरिलाओ सिहरतलाओ Jain Education Interatonal For Personal & Private Use Only Nww.jainelibrary.org Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationblocal णिसदस्स वासहरपव्वयस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प०, एवं नीलवंतकूडस्सवि, विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव धणुसयाई उहुं उच्चत्तेणं होत्था, इमीसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ नवहिं जोयणसएहिं सव्वुवरिमे तारारूवे चारं चरइ, निसदस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओं सिहरतलाओ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं नीलवंतस्सवि ॥ ९०० सूत्रं ११२ ॥ 'निसह कूडस्स ण' मित्यादि, इहायं भावः - निषधकूटं पञ्चशतोच्छ्रितं निषधश्च चतुःशतोच्छ्रित इति यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ९०० ॥ सव्वेवि णं गेवेजविमाणे दस दस जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं प०, सव्वेवि णं जमगपव्वया दस दस जोयणसयाई उड्डुं उच्चते प० दस दस गाउयसयाई उब्वेहेणं प० मूले दस दस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं प०, एवं चित्तविचित्तकूडावि भा`णियव्वा, सव्वेवि णं वट्टवेयड्डुपव्वया दस दस जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं प० दस दस गाउयसयाई उव्वेहेणं प० मूले दस दस जोयणसयाइं विक्खंभेणं प०, सव्वत्थ समा पलगसंठाणसंठिया प०, सव्वेवि णं हरिहरिस्सहकूडा वक्खारकूडवजा दस दस जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं प०, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं, एवं बलकूडावि नंदणकूडवजा, अरहावि अरिट्ठनेमी दस वाससयाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, पासस्स णं अरहओ दस सयाइं जिणाणं होत्था, पासस्स णं अरहओ दस अन्तेवासीसयाई कालगयाई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई, पउमद्दहपुंडरीयद्दहा य दस दस जोयणसयाई आयामेणं प० ॥ १००० सूत्रं ११३ ॥ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं प०, पासस्स णं अरहओ इक्कारस For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा १२८ समवाया. यांगे -ROHIGAO श्रीअभय० वृत्तिः ॥१०४॥ सयाई वेउब्वियाणं होत्था ॥ ११०० सूत्रं ११४ ॥ महापउममहापुंडरीवदहाणं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं प० ॥ २००० सूत्र ११५॥ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिलाओ चरमंताओ लोहियक्खकंडस्स हेहिले चरमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प० ॥३००० सूत्रं ११६॥ तिगिच्छिकेसरिदहाणं चत्वारि चत्वारि जोयणसहस्साई आयामेणं प० ॥४००० सूत्रं ११७ ॥ धरणितले मंदरस्स णं पब्वयस्स बहुमज्झदेसभाए स्यगनाभीओ चउदिसिं पञ्च २ जोयणसहस्साई अथाहाए अंतरे मंदरपध्वए प०॥ ५००० सूत्रं ११८॥ सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा प०॥६००० सूत्रं ११९ ॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिलाओ चरमंताओ पुलगस्स कंडस्स हेछिल्ले चरमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प० ॥ ७००० सूत्र १२०॥ हरिवासरम्मयाणं वासा अट्ठ जोयणसहस्साई साइरेगाई वित्थरेणं प० ॥ ८००० सूत्रं १२१ ॥ दाहिणड्डभरहस्स णं जीवा पाईपडीणायया दुहओ समुदं पुट्ठा नव जोयणसहस्साई आयामेणं प०॥ ९००० सूत्रं १२२ ॥ मंदरे णं पव्वए धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं प० ॥१०००० सूत्रं १२३ ॥ जम्बूदीवेणं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं प० ॥१००००० सूत्र १२४ ॥ लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं प०॥ २००००० सूत्रं १२५॥ पासस्स णं अरहओ तिन्नि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्था ॥ ३००००० सूत्रं १२६ ॥ धायइखंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं प०॥४००००० सूत्रं १२७॥ लवणस्स णं समुहस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ पञ्चच्छिमिल्ले चरमते एस णं पंच जोयणसयसहस्साई अपाहाए अंतरे प० ॥ ५००००० सूत्रं १२८ ॥ मरहे गं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्वस ॥ लवणे अरहो ॥१०॥ सूत्र १२६ N GS JainEducation For Personal & Private Use Only Thelibrary.org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसहस्साई रायमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ६००००० सूत्रं १२९ ॥ जम्बूदीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेइयंताओ धायइखंडचक्कवालस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते सत्त जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे प०॥ ७००००० सूत्रं १३० ॥ माहिंदे णं कप्पे अट्ट विमाणावाससयसहस्साई प०८०००००॥ सूत्रं १३१॥ अजियस्स णं अरहओ साइरेगाइं नव ओहिनाणिसहस्साई होत्था ॥ ९००० सूत्रं १३२ ॥ पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता पञ्चमाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने॥१०००००० सूत्रं १३३॥ समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छट्टे पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामनपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्वट्ठविमाणे देवत्ताए उववन्ने ॥१००००००० सूत्रं १३४ ॥ उसभसिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी अबाहाए अंतरे प० ॥ १०००००००००००००० सूत्रं १३५॥ 'सवेवि णं जमगे'त्यादि, उत्तरकुरुषु नीलवर्षधरस्य-उत्तरतः शीताया महानद्या उभयोः कूलयो: यमकाभिधानी पर्वतौ स्तः, ते च पञ्चखप्युत्तरकुरुषु द्वयोवयोर्भावाश, एवं 'चित्तविचित्तकूडाविति पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत्तत्सद्भावात् पञ्च चित्रकूटाः पञ्च विचित्रकूटा इति, 'सवेविण'मित्यादि, सर्वेऽपि वृत्ता वैताब्या विंशतिः शब्दापात्यादयः, 'सधेवि णं हरी'लादि, हरिकूटं विद्यत्प्रभाभिधाने गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वते हरिसहकूटं तु माल्यवद्वक्षस्कारे, तानि च पश्चखपि मन्दरेषु भावात् पञ्च पञ्च भवन्ति सहस्रोच्छ्रितानि च, 'वक्खारकूडषजत्ति शेषवक्षस्कारकूटेम्वेवमुञ्चत्वं नास्त्येतेष्वेवास्तीत्यर्थः, एवं 'बलकूडावित्ति पञ्चसु मन्दरेषु पञ्च नन्दनवनानि तेषु प्रत्ये Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only K ainelibrary.org Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ स मवाया. वृत्तिः श्रीसमवा- कमैशान्या दिशि बलकूटाभिधानं कूटमस्ति, ततः पञ्च, तानि सहस्रोच्छ्रितानि च, 'नन्दनकूडवज'त्ति शेषाणि यांगे | नन्दनवनेषु प्रत्येकं पूर्वादिदिग्विदिग्व्यवस्थितानि चत्वारिंशत्संख्यानि नन्दनकूटानि वर्जयित्वा, तानि साहनिश्रीअभय० काणि न भवन्तीत्यर्थः । 'अरहंते'यादि, कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यनगारत्वे सप्तेत्येवं दश शतानि, 'पउमद्दहपुंडरी-1 यहह'त्ति पद्मदः श्रीदेवीनिवासो हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्ती पुण्डरीकहदो लक्ष्मीदेवीनिवासः शिखरिवर्षधरोपरि॥१०५॥ वर्तीति ॥१०.०॥११०० ॥ तथा महापद्ममहापुण्डरीकहूदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुपरिवर्तिनी हीबुद्धिदेव्यो निवासभूताविति ॥ २०००॥ 'इमीसे णं रयणे'त्यादि, अयमिह भावार्थः-रत्नप्रभापृथिव्याः प्रथमस्य षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य प्रथमं रत्नकाण्डं वज्रकाण्डं नाम काण्डं द्वितीयं वैडूर्यकाण्डं तृतीयं लोहिताक्षकाण्डं चतुर्थ तानि च प्रत्येकं साहस्रिकाणीति त्रयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ३०.०॥ तिगिच्छिकेसरिहूदी | निषधनीलवद्वर्षधरोपरिस्थितौ धृतिकीर्तिदेवीनिवासाविति ॥४००० ॥ 'धरणितले' इत्यादि, धरणितले-धरण्यां समे भूभाग इत्यर्थः, 'रुयगनाभीओ'त्ति 'अट्ठपएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एसप्पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१॥ [अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यग्लोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेप एव भवेदनुदिशां ॥१॥] ति, रुचक एव नाभिचक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्षु पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरुस्तस्य दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति ॥ ५०००॥६०००॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, रत्नकाण्डं प्रथम पुलककाण्डं सप्तममिति ॥१०॥ dain Education International For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education सप्तसहस्राणि ॥ ७००० ॥ 'हरिवासे' त्यादि, इहार्थे गाथार्द्ध - ' हरिवासे इगवीसा चुलसी य सया कला य एक्का यति ॥ ८००० ॥ ' दाहिणेत्यादि दक्षिणो भागो भरतस्येति दक्षिणार्द्ध भरतं तस्य जीवेव जीवा - ऋज्वी सीमा प्राचीनं- पूर्वतः प्रतीचीनं-पश्चिमतः आयता - दीर्घा प्राचीन प्रतीचीनायता 'दुहओ' त्ति उभयतः पूर्वापरपाचयरित्यर्थः, समुद्रं लवणसमुद्रं स्पृष्टा छुप्तवती नव सहस्राण्यायामत इहोक्ता, स्थानान्तरे तु तद्विशेषोऽयं नव सहस्राणि सप्त शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला' इति ॥ ९००० ॥ १०००० ॥ १००००० | २००००० ।। ३००००० ॥ ४००००० ॥ 'लवणे त्यादि, तत्र जम्बूद्वीपस्य लक्षं चत्वारि च लवणस्येति पञ्च ॥ ५००००० || 'जम्बूदीवस्से'त्यादि, तत्र लक्षं जम्बूद्वीपस्य द्वे लवणस्य चत्वारि धातकीखण्डस्येति सप्त लक्षाण्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ७००००० || अजितस्यार्हतः सातिरेकाणि नवावधिज्ञानिसहस्राणि, अतिरेकश्चत्वारि शतानि, इदं च सहस्रस्थानक - मपि लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् सहस्रशब्दसाधर्म्याद्विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेर्लेखकदोषाद्वेति ॥ ९००००० ॥ | पुरुषसिंहः पञ्चमवासुदेवः ॥ १०००००० ॥ 'समणेत्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधानराजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोटिं प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यो जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने | देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तत्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति For Personal & Private Use Only Jainelibrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ सश्रीसमवा- पञ्चमस्ततख्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचन मवाया. यांगे कारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं श्रीअभय० षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्लू वृत्तिः च्यते तीर्थकरभवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ॥ १०००००००॥ 'उसभे'त्यादि, 'उसभसिरिस्स'त्ति प्राकृत-18 ॥१०६॥ त्वेन श्रीऋषभ इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः, एका सागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः किञ्चित्साधिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति ॥ १०००००००००००००० ॥ इह य एते अनन्तरं । ||संख्याक्रमसम्बन्धमात्रेण सम्बद्धा विविधा वस्तुविशेषा उक्तास्त एव विशिष्टतरसम्बन्धसम्बद्धा द्वादशाङ्गे प्ररूप्यन्त | र इति द्वादशाङ्गस्यैव खरूपमभिधित्सुराह दुवालसंगे गणिपिडगे प००-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपन्नत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुए दिहिवाए। से किं तं आयारे?, आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं ॥१०६॥ आयारगोयरविणयवेणइयट्ठाणगमणचंकमणपमाणजोगजुंजणभासासमितिगुत्तीसेजोवहिभत्तपाणउग्गमउप्पायणएसणाविसोहिसुद्धासुग्गहणवयणियमतवोवहाणसुप्पसत्थमाहिजइ, से समासओ पञ्चविहे प०, तं०-णाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे विरियायारे, आयारस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पडिवत्तीओ संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखे A%ACANARASACREGARA Jain Education For Personal & Private Use Only delibrary.org . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाओ निज्जुत्तीओ, से णं अंगठ्याए पढमे अंगे दो सुयक्खंधा पणवीसं अज्झयणा पंचासीइं उद्देसणकाला पंचासीइं समुद्देसणकाला अट्ठारस पदसहस्साई पदग्गेणं संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, से एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति । सेत्तं आयारे ॥ सूत्रं १३६ ॥ 'दुवालसंगे' इत्यादि, अथवोत्तरोत्तरसंख्याक्रमसंबद्धार्थप्ररूपणमनन्तरमकारि, साम्प्रतं संख्यामात्रसंबद्धपदार्थप्ररूपणायोपक्रम्यते-'दुवालसंगे' इत्यादि, तत्र श्रुतपरमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि, द्वादशाङ्गानि-आचारादीनि यस्-ि3 तवादशाहं, गुणानां गणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं-सर्वखभाजनं गणिपिटकं, अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनः, तथा चोक्तम्-"आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारंधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥१॥ [आचारेऽधीते यत् ज्ञातो भवति श्रमणधर्मस्तु । तस्मादाचारधरो भण्यते प्रथमं ग|णिस्थानं ॥१॥] परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततश्च परिच्छेदसमूहो गणिपिटकं, अत्र चैवं पदघटना-यदेतद्गणिपिटकं तत् द्वादशाङ्गं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आचारः सूत्रकृत इत्यादि । 'से किं तमित्यादि, अथ किं तदाचारवस्तु ? यद्वा अथ कोऽयमाचारः, आचर्यत इति वा आचारः साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरितिभावार्थः, एतत्प्रतिपादको प्र Jan Education a l For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः 1120011 Jain Education न्थोऽप्याचार एवोच्यते, 'आयारे णं'ति अनेनाचारण करणभूतेन श्रमणानामाचारो व्याख्यायत इति योगः, अथवा आचारेऽधिकरणभूते णमिति वाक्यालङ्कारे 'श्रमणानां' तपःश्रीसमालिङ्गितानां 'निर्ग्रन्थानां' सवाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां, आह-श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्तीति विशेषणं किमर्थमिति ?, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थम्, उक्तं च"निग्गंथसक्कताव सगेरुयआजीव पंचहा समण'त्ति [ निर्ग्रन्थशाक्य तापसगैरिकाजीविकाः पञ्चधा श्रमणाः ] तत्राचारो - ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः गोचरो - भिक्षाग्रहणविधिलक्षणो विनयो- ज्ञानादिविनयः वैनयिकं तत्फलं कर्म्मक्षयादि स्थानं - कायोत्सर्गोपवेशनशयनभेदात् त्रिरूपं गमनं - विहारभूम्यादिषु गतिश्चङ्क्रमणं - उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहार्थमितस्ततः सञ्चरणं प्रमाणं - भक्तपानाभ्यवहारोपध्यादेर्मानं योगयोजनं - स्वाध्यायप्रत्युपेक्षणादिव्यापारेषु परेषां नियोजनं भाषाः - संयतस्य भाषाः सत्यासत्यामृषारूपाः समितयः - ईर्यासमित्याद्याः पञ्च गुप्तयो– मनोगुत्यादयस्तिस्रः तथा शय्या च - वसतिरुपधिश्व - वस्त्रादिको भक्तं च-अशनादि पानं च-उष्णोदकादीति द्वन्द्वः, तथा उद्गमोत्पादनैषणालक्षणानां दोषाणां विशुद्धिः - अभाव उद्गमोत्पादनैषणाविशुद्धिस्ततः शय्यादीनामुद्रमादिविशुद्ध्या शुद्धानां तथाविधकारणेऽशुद्धानां च ग्रहणं शय्यादिग्रहणं, तथा व्रतानि मूलगुणा नियमाः - उत्तरगुणास्तपउपधानं - द्वादशविधं तपः, तत आचारश्च गोचरश्चेत्यादि यावगुप्तयश्च शय्यादिग्रहणं च व्रतानि च नियमाश्च तपउपधानं चेति समाहारद्वन्द्वस्ततस्तच्च तत्सुप्रशस्तं चेति कर्म्मधारयः, एतत्सर्वमाख्यायते - अभिधीयते, एतेषु आचारादिपदेषु यत्र क्वचि For Personal & Private Use Only १३६ स मवाया. ॥१०७॥ linelibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education | | दन्यतरोपादाने अन्यतरस्य गतार्थस्याभिधानं तत्सर्वं तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यवसेयमिति । 'से समासओ' इत्यादि, | सः आचारो यमधिकृत्य ग्रन्थस्याचार इति संज्ञा प्रवर्त्तते 'समासतः' संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ज्ञानाचार इत्यादि, तत्र ज्ञानाचारः - श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययनविनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा 'दर्शनाचारः' सम्यक्त्ववतां व्यवहारो निःशङ्कितादिरूपोऽष्टधा 'चारित्राचारः' चारित्रिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारः 'तपआचारो' द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः 'वीर्याचारो' ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्यागोपनमिति, 'आयार'ति आचारग्रन्थस्य णमित्यलङ्कारे 'परित्ता' संख्येया आद्यन्तोपलब्धेर्नानन्ता भवन्तीत्यर्थः, काः ? - वाचनाः- सूत्रार्थप्रदानलक्षणाः, अवसप्पिण्युत्सप्पिणीकालं वा प्रतीय, 'परीते 'ति संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि - उपक्रमादीनि, अध्ययनानामेव संख्येयत्वात् प्रज्ञापकवचनगोचरत्वाच्च 'संखेजाओ पडिवत्तीओ'त्ति द्रव्यार्थे पदार्थाभ्युपगमा मतान्तराणीत्यर्थः, प्रति| पाद्यनि (माद्यभि ) ग्रहविशेषा वा 'संखेजा वेढ'त्ति वेष्टकाः - छन्दोविशेषाः, एकार्थप्रतिबद्धवचनसङ्कलिकेत्यन्ये, 'संखेजा सिलोग 'ति श्लोकाः- अनुष्टुप्छन्दांसि 'संख्याताः 'निर्युक्तयः' निर्युक्तानां सूत्रेऽभिधेयतया व्यवस्थापितानामर्थानां युक्तिः - घटना विशिष्टा योजना निर्युक्तयुक्तिः, एतस्मिंश्च वाक्ये युक्तशब्दलोपान्निर्युक्तिरित्युच्यते एताश्च निक्षेपनिर्यु - क्त्याद्याः संख्येया इति । 'से ण' मित्यादि स आचारो णमित्यलङ्कारे 'अङ्गार्थतया' अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्गं स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशम, प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वादिति, द्वौ श्रुतस्कन्धौ For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज" श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥१०८॥ अध्ययनसमुदायलक्षणो, पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तद्यथा-'सत्थपरिण्णा १ लोगविजओ २ सीओसणिज ३ संमत्तं ४॥ १३६ सआवंति५ धुय ६ विमोहो ७ महापरिणो ८ वहाणसुयं९॥१॥' इति प्रथमःश्रुतस्कन्धः, 'पिंडेसण १ सेजि २रिया ३ मवाया. भासज्जाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ । उग्गहपडिमा ७ सत्तसत्तिक्कया १४ भावण १५ विमुत्ती १६ ॥२॥' इति द्वि तीयः श्रुतस्कन्धः, एवमेतानि निशीथवर्जानि पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तथा पञ्चाशीतिरुद्देशनकालाः, कथं ?, उच्यते, अङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैतेषां चतुर्णामप्येक एवोद्देशनकालः, एवं शस्त्रपरिज्ञादिषु पञ्चविंशतावध्ययनेषु क्रमेण सप्त १ षट् २ चतु ३ श्चतुः ४ षट् ५ पञ्च ६ अष्ट ७ सप्त ८ चतु ९ रेकादश १०त्रि ११ त्रि १२ द्वि-131 |१३ द्वि १४ द्वि १५ द्वि १६ संख्या उद्देशनकालाः षोडशखध्ययनेषु शेषेषु नवसु नवैवेति, इह सङ्ग्रहगाथा-'सत्त य छ चउ चउरो छ पञ्च अद्वैव सत्त चउरो य । एक्कारा ति ति दो दो दो दो सत्तेक एको य॥१॥'त्ति, एवं समुद्दे|शनकाला अपि भणितव्याः, अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण प्रज्ञप्तः, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, ननु यदि द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति ततो यद्भणितं "नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपदसहस्सिओ वेउ"त्ति तत्कथं न विरुध्यते !, उच्यते, यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत्पु- ॥१०८॥ नरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं, विचित्रार्थवद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति. संख्येयानि अक्षराणि, वेष्टकादीनां संख्येयत्वात् , अनन्ता गमाः, इह गमाः-अ For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगमा गृह्यन्ते अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव सूत्रात्तत्तद्धर्मविशिष्टानन्तधात्मकवस्तुप्रतिपत्तेः, अन्ये तु व्याचक्षते-अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते चानन्ताः, अनन्ताः पर्यायाः खपरभेदभिन्ना अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः, परित्तास्त्रसा आख्यायन्त इति योगः, त्रसन्तीति त्रसाः-द्वीन्द्रियादयस्ते च परीत्ता नानन्ताः, एवंरूपत्वादेव तेषां, अनन्ताः स्थावरा वनस्पतिकायसहिताः, किंभूता एते ?-'सासया कडा निबद्धा निकाइय'त्ति शाश्वताः द्रव्यार्थतया अविच्छेदेन प्रवृत्तेः कृताः पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वावासेर्निबद्धाः-सूत्र एव प्रथिता निकाचिता-निर्यक्तिसङ्ग्रहणिहेतूदाहरणादिभिः प्रतिष्ठिता जिनैः प्रज्ञप्ता भावाः-पदार्था अन्येऽप्यजीवादयः “आघ|विजंति'त्ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते-सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते नामादिखरूपकथनेन, यथा 'पजायाणभिधेय'मित्यादि, दयन्ते उपमामात्रतः 'यथा गौर्गवयस्तथा' इत्यादि, निदयन्ते हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्श्यन्ते उपनयनिगमनाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वेति, साम्प्रतमाचाराङ्गग्रहणफलप्रतिपादनायाह-से एव'मित्यादि, स इत्याचाराङ्गग्राहको गृह्यते, 'एवं आय'त्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सत्येवमात्मा भवति, तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः, इदं च सूत्रं पुस्तकेषु न दृष्टं नन्द्यां तु |दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति, एवं क्रियासारमेव ज्ञानमिति ख्यापनार्थ क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकृत्य आह-'एवं नाय'त्ति इदमधीय एवं ज्ञाता भवति यथैवेहोक्तमिति, "एवं विनाय'त्ति विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता १९ सम. Jain Education a l For Personal & Private Use Only linelibrary.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृतिः ॥१०९॥ BOLSASSAGE विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति-तत्रान्तरीयज्ञाता भवति, तत्रान्तरीयज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः, 'एवमित्यादि नि- १३७मू. गमनवाक्यं, एवं-अनेन प्रकारेणाचारगोचरविनयाद्यभिधानरूपेण 'चरणकरणप्ररूपणता आख्यायत' इति चरण- त्रकृताङ्ग. व्रतश्रमणधर्मसंयमाद्यनेकविधं करणं-पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधं तयोः प्ररूपणता-प्ररूपणैव आख्यायते इ-18 त्यादि पूर्ववदिति, 'सेत्तं आयारे'त्ति तदिदमाचारवस्तु अथवा सोऽयमाचारो यः पूर्व दृष्ट इति ॥१॥ से किं तं सूअगडे ?, सुअगडे णं ससमया सूइज्जंति परसमया सूइजंति ससमयपरसमया सूइजंति जीवा सूइजंति अजीवा सूइजंति जीवाजीवा सूइज्जति लोगो सूइज्जति अलोगो सूइजति लोगालोगो सुइजति, सूअगडे णं जीवाजीवपुण्णपावासवसंवरनिजरणबंधमोक्खावसाणा पयत्था सुइजंति, समणाणं अचिरकालपब्वइयाणं कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं संदेहजायसहजबुद्धिपरिणामसंसइयाणं पावकरमलिनमइगुणविसोहणत्थं असीअस्स किरियावाइयसयस्स चउरासीए अकिरियवाईणं सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेवढीणं अण्णदिट्ठियसयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविजति णाणदिटुंतवयणणिस्सारं सुटु दरिसयंता विविहवित्थराणुगमपरमसन्भावगुणविसिट्ठा मोक्खपहोयारगा उदारा अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूआ सोवाणा चेव सिद्धिसुगइगिहुत्तमस्स णिक्खोभनिप्पकंपा सुत्तत्था, सुयगडस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पडिवतीओ संखेजा वेद्य संखेजा सिलोगा संखेजाओ निज्जुत्तीओ, से णं अङ्गयाए दोच्चे अंगे दो सुयक्खंधा तेवीसं अज्झयणा ६॥१०९॥ तेत्तीसं उद्देसणकाला तेत्तीसं समुद्देसणकाला छत्तीसं पदसहस्साई पयग्गेणं प० संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति निदं ASSASSAGARLS Join Educatio n al For Personal & Private Use Only I nelibrary.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCCCASHRUGALGAOCACCROCED सिजंति उवदंसिजंति, से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविजंति पण्णविजंति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति, से तं सूअगडे २ ॥ सूत्रं १३७ ॥ 'से किं तं सूयगडे' 'सूच सूचायां' सूचनात् सूत्रं सूत्रेण कृतं सूत्रकृतमिति रूढयोच्यते, 'सूयगडेणं ति सूत्रकृतेन सूत्रकृते वा खसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यं, तथा सूत्रकृतेन जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षावसानाः पदार्थाः सूच्यन्ते, तथा 'समणाणमित्यादि, अत्र श्रमणानां मतिगुणविशोधनार्थ खसमयः स्थाप्यत इति वाक्यार्थः,13 तत्र श्रमणानां किंभूतानां ?-अचिरकालप्रव्रजितानां, चिरकालप्रव्रजिता हि निर्मालमतयो भवन्ति, अहर्निशं शास्त्रपरिचयाबहुश्रुतसंपर्काचेति, पुनः किंभूतानां ?-'कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं ति कुत्सितः समयः सिद्धान्तो येषां ते कुसमयाः-कुतीर्थिकास्तेषां मोहः-पदार्थेष्वयथावबोधः कुसमयमोहस्तस्माद्यो मोहः-श्रोतृमनोमूढता तेन मतिर्मोहिता-मूढतां नीता येषां ते कुसमयमोहमतिमोहिताः, अथवा कुसमयाः-कुसिद्धान्तास्तेषां ओघःसंघो मकारस्तु प्राकृतत्वात् तस्माद्यो मोहः-श्रोतृमनोमूढता तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसुमयौघमोहमतिमोहिताः, अथवा कुसमयानां-कुतीर्थिकानां मोहो.मोघो वा-शुभफलापेक्षया निष्फलो यो मोहस्तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिमोहिताः कुसमयमोघमोहमतिमोहिता वा तेषां, तथा संदेहाः-वस्तुतत्त्वं प्रति संशयाः कुसमयमोहमतिमोहितानामिति विशेषणसान्निध्यात् कुसमयेभ्यः सकाशात् (ते) जाता येषां ते सन्देहजाताः, JainEducation For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे त्रकृतात. श्रीअभय वृत्तिः ॥११०॥ तथा सहजात्-खभावसम्पन्नात् न कुसमयश्रवणसम्पन्नाद्बुद्धिपरिणामातू-मतिखभावात् संशयो जातो येषा ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताः सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताश्च येते तथा तेषां श्रमणानामिति प्रक्रमः, किमत आह-पापकरो' विपर्ययसंशयात्मकत्वेन कुत्सितप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादशुभकर्महेतुरत एव च मलिनः-खरूपाच्छादनादनिर्मलो यो मतिगुणो-बुद्धिपर्यायस्तस्य विशोधनाय-निर्मलत्वाधानाय पापकरमलिनमतिगुणविशोधनार्थ । 'असीयस्स किरियावाइयसयस्स'त्ति अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य व्यूहं कृत्वा स्वसमयः स्थाप्यत इति योगः, एवं शेषेष्वपि पदेषु क्रिया योजनीयेति, तत्र न कर्तारं विना क्रिया संभवतीति तामात्मसमवायिनी है वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षण अमुनोपायेनाशीत्यधिकशता संख्या विज्ञेयाः-जीवाजीवाश्रवबन्धसम्वरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान्नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्थाधः खपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदी, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिखभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनरित्थं विकल्पाः कर्त्तव्याः-अस्ति जीवः खतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पो, विकल्पार्थश्वायंविद्यते खल्वात्मा खेन रूपेण नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिकस्य, तृतीयः आत्मवादिनश्चतुर्थो नियतिवादिनः पञ्चमः खभाववादिनः, एवं खत इत्यपरित्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्च लभ्यन्ते, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशतिर्जीवपदा ॥११०॥ Jain Education me For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टास्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिनवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावा दिनामिति, 'चउरासीए अकिरियवाईणं'ति एतेषां च खरूपं यथा नन्दादिषु तथा वाच्यं, नवरमेतद्याख्याने पुण्याBIपुण्यवर्जाः सप्त पदार्थाः स्थाप्यन्ते, तदधः खतः परतश्चेति पदद्वयं, तदधः कालादीनां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते. ततश्च नास्ति जीवः खतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमेते चतुरशीतिर्भवन्ति । 'सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं'ति एतेऽपि तथैव, नवरं जीवादीन्नव पदार्थानुत्पत्तिदशमानुपरि व्यवस्थाप्याधः सप्त सदादयः स्थाप्याः, तद्यथा-सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं सदवाच्यत्वमसदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति, तत्र को जानाति जीवस्य सत्त्वमित्येको विकल्पः, एवमसत्त्वमित्यादि, तत एते सप्त नवकास्त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्त्वाद्या एव चत्वारो वाच्याः, इत्येवं सप्तपष्टिरिति, तथा 'बत्तीसाए वेणइयवाईणं'ति, एते चैवं-सुरनृपतिज्ञातियतिस्थविराधममातृपितॄणां प्रत्येकं कायवाङ्मनोदानश्चतुर्की विनयः कार्य इत्यभ्युपगमवन्तो द्वात्रिंशदिति । एवं चैतेषां चतुणों वादिप्रकाराणां मीलने त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि अन्यदृष्टिशतानि भवन्त्यत उच्यते-तिण्ह'मित्यादि, 'वूह किच'त्ति प्रतिक्षेपं कृत्वा 'खसमयो' जैनसि|द्धान्तः स्थाप्यते, यत एवं सूत्रकृतेन विधीयते अतस्तत्सूत्रार्थयोः खरूपमाह-'नाणे'त्यादि, नाना-अनेकविधाः बहै हुभिः प्रकारैरित्यर्थः, 'दिटुंतवयणनिस्सारंति स्याद्वादिना पूर्वपक्षीकृतानां प्रवादिनां खपक्षस्थापनाय यानि दृष्टा न्तवचनान्युपलक्षणत्वाद्धेतुवचनानि च तदपेक्षया निस्सारं-सारताशून्यं परेषां मतमिति गम्यते, सुष्टु-पुनरप्रतिक्षेप Jain Education a l For Personal & Private Use Only Alinelibrary.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे त्रकृताङ्ग श्रीअभय वृत्तिः ॥११॥ COMCHOCOCALSOCIRCASUREGC णीयत्वेन दर्शयन्तौ-प्रकटयन्तौ तथाविधश्चासौ सत्पदप्ररूपणाद्यनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तारानुगमश्च-अनुगम- १३७ मूनीयानेकजीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपादनं विविधविस्तारानुगमः तया परमसद्भावः-अत्यन्तसत्यता वस्तूनामैदम्पर्यमित्यर्थस्तावेव गुणौ ताभ्यां विशिष्टौ विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्टौ ‘मोक्खपहोयारग'त्ति मोक्षपथाव-2 तारको, सम्यग्दर्शनादिषु प्राणिनां प्रवर्तकावित्यर्थः, 'उदार'त्ति उदाराः सकलसूत्रार्थदोषरहितत्वेन निखिलतद्गुणसहितत्वेन च, तथाऽज्ञानमेव तमः-अन्धकारमात्यन्तिकान्धकारमथवा प्रकृष्टमज्ञानमज्ञानतमं तदेवान्धकारमज्ञानतमोऽन्धकारमज्ञानतमोऽन्धकारमज्ञानतमान्धकारं वा तेन ये दुर्गा-दुरधिगमास्ते तथा तेषु तत्त्वमार्गेष्विति गम्यते 'दीवभूय'त्ति प्रकाशकारित्वाहीपोपमो 'सोवाणा चेव'त्ति सोपानानीव-उन्नतारोहणमार्गविशेष इव सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्य-सिद्धिलक्षणा सुगतिः सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च-सुदेवत्वसुमानुषत्वलक्षणा सिद्धिसुगती तलक्षणं यद्गृहाणामुत्तमं गृहोत्तम-वरप्रासादस्तस्य सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्यारोहण इति गम्यते 'निक्खोभनिप्पकंपत्ति निःक्षोभौ वादिना क्षोभयितुं-चालयितुमशक्यत्वात् निष्प्रकम्पो खरूपतोऽपीपदव्यभिचारलक्षणकम्पाभावात् , कावित्याह ?'सूत्रार्थों' सूत्रं चार्थश्च-नियुक्तिभाष्यसङ्ग्रहणिवृत्तिचूर्णिपजिकादिरूप इति सूत्रार्थों, शेष कण्ठ्यं यावत् 'सेत्तं सूय-18 ॥१११॥ गडे'त्ति, नवरं त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाः-'चउ ४ तिय ३ चउरो ४ दो २ दो २ एक्कारस चेव हुंति एक्कसरा । सत्तेव महज्झयणा एगसरा बीयसुयखंधे ॥१॥' इत्यतो गाथातोऽवसेया इति ॥२॥ ACTRECOROGRECEOCOCCA Jain Educational For Personal & Private Use Only mainelibrary.org Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं तं ठाणे १, ठाणं ससमया ठाविजन्ति परसमया ठाविजंति ससमयपरसमया ठाविति जीवा ठाविजंति अजीवा ठाविखंति जीवाजीवा • लोगा • अलोगा० लोगालोगा ठाविअंति, ठाणेणं दव्वगुणखेत्तकालपज्जव पयत्थाणं- 'सेला सलिला य समुद्दा सूभवणविमाण आगर नदीओ । णिहिओ पुरिसजाया सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥ १ ॥ एक्कविहवत्तव्वयं दुविह जाव दसविहवत्तव्यं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया आघविज्जंति, ठाणस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ संगहणीओ, से णं अंगट्टयाए तइए अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा एक्कवीसं उद्देसणकाला बावत्तरिं पयसहस्साइं पयग्गेणं प०, संखेजा अक्खरा अणंता पजवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविअंति निदंसिजंति उवदंसिजंति, से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति, सेत्तं ठाणे ३ ॥ सूत्रं १३८ ॥ 'से किं तं ठाणे' इत्यादि, अथ किं तत् स्थानं ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानं, तथा चाह - 'ठाणेण 'मित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते यथावस्थितस्वरूपप्रतिपादनायेति हृदयं, शेषं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं ठाणेण इत्यस्य पुनरुच्चारणं सामान्येनैव पूर्वोक्तस्यैव स्थापनीयविशेषप्रतिपादनाय वाक्यान्तरमिदमिति ज्ञापनार्थ, तत्र 'दवगुणखेत्तकालपज्जव त्ति प्रथमा बहुवचनलोपाद्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्ययाः पदार्थानां -जीवादीनां स्थानेन स्थाप्यन्ते इति प्रक्रमः, तत्र द्रव्यं द्रव्यार्थता यथा जीवास्तिकायोऽनन्तानि द्रव्याणि गुणः - स्वभावो यथोपयोगखभावो जीवः क्षेत्र - यथा असंख्येयप्रदेशावगाहनोऽसौ, कालो यथा अनाद्यपर्यवसितः पर्यवाः - कालकृता अवस्था Jain Education onal For Personal & Private Use Only jainelibrary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्री अभय० वृत्तिः ॥११२॥ Jain Education: यथा नारकत्वादयो बालत्वादयो वेति, 'सेला' इत्यादि गाथाविशेषः, तत्र शैला - हिमवदादिपर्वताः स्थाप्यन्ते स्थानेनेति योगः सर्वत्र, सलिलाश्च गङ्गाद्या महानद्यः समुद्राः - लवणादयः सूराः - आदित्या भवनानि :- असुरादीनां विमानानि चन्द्रादीनां आकराः - सुवर्णाद्युत्पत्तिभूमयो नद्यः - सामान्या महीको सीप्रभृतयो निधयः - चक्रवर्त्तिसम्बन्धिनो नैसपदियो नव 'पुरिसजाय'त्ति पुरुषप्रकारा उन्नतप्रणतादिभेदाः पाठान्तरेण 'पुरसजोय'त्ति उपलक्षणत्वात् पुष्यादिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्चिमाग्रिमोभयप्रमर्द्दकादियोगाः खराश्च षड्जादयः सप्त गोत्राणि च - काश्यपादीनि एकोनपञ्चाशत्, 'जोइसंचालय'त्ति ज्योतिषः - तारकरूपस्य सञ्चलनानि 'तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा' इत्यादिना सूत्रेण स्थाप्यन्ते स्थानेनेति प्रक्रमः । १ । तथा एकविधं च तद्वक्तव्यं च तदभिधेयमित्येकविधवक्तव्यं प्रथमे अध्ययने स्थाप्यत इति योगः, एवं द्विविधवक्तव्यकं द्वितीयेऽध्ययने, एवं तृतीयादिषु यावद्दशविधवक्तव्यकं दशमेऽध्ययने, तथा जीवानां पुद्गलानां च प्ररूपणताऽऽख्यायत इति योगः, तथा 'लोगट्ठाई च णं'ति लोकस्थायिनां चधर्माधर्मास्तिकायादीनां परूपणता - प्रज्ञापना, शेषमाचारसूत्रव्याख्यानवदवसेयं, नवरमेकविंशतिरुद्देशन कालाः, कथं?, द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशकाः पञ्चमे त्रय इत्येते पञ्चदश, शेषास्तु षट्, षण्णामध्ययनानां पडुद्देशन कालत्वादिति 'बावत्तरिं पदसहस्साई ति अष्टादशपद सहस्रमानादाचाराद्विगुणत्वात् सूत्रकृतस्य ततोऽपि द्विगुणत्वात् स्थानस्येति ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only १३८स्था नाङ्ग. ॥११२॥ anelibrary.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं समवाए, समवाएणं ससमया सूइजंति परसमया सूइज्जति ससमयपरसमया सूइजंति जाव लोगालोगा सूइज्जति. सम. वाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिवुड्डीए दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइजइ ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समोयारे आहिजति, तत्थ यणाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य व. णिया वित्थरेण अवरेवि अ बहुविहा विसेसा नरगतिरियमणुअसुरगणाणं आहारुस्सासलेसाआवाससंखआययप्पमाणउववायचवणउग्गहणोवहिवेयणविहाणउवओगजोगइंदियकसाय विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाण चक्कीणं चेव चक्कहरहलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिजंति, समवायस्स णं परित्ता वायणा जाव से णं अङ्गट्टयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्खंधे एगे उद्देसणकाले एगे चउयाले पदसहस्से पदग्गेणं प०, संखेजाणि अक्खराणि जाव चरणकरणपरूवणया आघविजंति, सेत्तं समवाए ४ ॥ सूत्रं १३९॥ से किं तमित्यादि, अथ कोऽसौ समवायः?, सूत्रेषु प्राकृतत्वेन वकारलोपात् समाये इत्युक्तं, समवायनं समवायः है सम्यक् परिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुश्च ग्रन्थोऽपि समवायः, तथा चाह-समवायेन समवाये वा खसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यं, तथा समवायेन समवाये वा 'एगाइयाणंति एकद्वित्रिचतुरादीनां शतान्तानां कोटाकोट्यन्तानां वा 'एग-2 त्थाणंति एके च ते अर्थाश्चेत्येकार्थास्तेषां, अयमर्थः एकेषां केषाञ्चित् न सर्वेषां निखिलानां वक्तुमशक्यत्वादर्थानां Jain Education a l For Personal & Private Use Only brary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे १३० मवाया. -45 P श्रीसमवा जीवादीनां 'एगुत्तरिय'त्ति एक उत्तरो यस्यां सा एकोत्तरा सैव एकोत्तरिका, इह प्राकृतत्वात् इखत्वं, 'परिवुड्डि य'त्ति परिवृद्धिश्चेति समनुगीयते समवायेनेति योगः, तत्र च परिवर्द्धनं संख्यायाः समवसेयं, चशब्दस्य चान्यत्र श्रीअभय० सम्बन्धादेकोतरिका अनेकोतरिका च, तत्र शतं यावदेकोतरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति, तथा द्वादशाङ्गस्य च गणिवृत्तिः पिटकस्य 'पल्लवग्गे'त्ति पर्यवपरिमाणं अभिधेयादितद्धर्मसंख्यानं यथा 'परित्ता तसा' इत्यादि पर्यवशब्दस्य च ॥११३॥ 'पल्लव'त्ति निर्देशः प्राकृतत्वात् पर्यङ्कः पल्यङ्क इत्यादिवदिति, अथवा पल्लवा इव पल्लवाः-अवयवास्तत्परिमाणं 'स मणुगाइजतित्ति-समनुगीयते-प्रतिपाद्यते, पूर्वोक्तमेवार्थ प्रपञ्चयन्नाह–'ठाणगसयस्स'त्ति स्थानकशतस्यैकादीनां । शतान्तानां संख्यास्थानानां तद्विशेषितात्मादिपदार्थानामित्यर्थः, तथा द्वादशविधो विस्तरो यस्याचारादिभेदेन तत् द्वादशविधविस्तरं तस्य श्रुतज्ञानस्य-जिनप्रवचनस्य, किंभूतस्य ?-जगजीवहितस्य, 'भगवतः' श्रुतातिशययुक्तस्य 'समासेन' संक्षेपेण समाचारः-प्रतिस्थानं प्रत्यङ्गं च विविधाभिधायकत्वलक्षणो व्यवहारः 'आहिजईत्ति आख्यायते, अथ समाचाराभिधानानन्तरं यदुक्तं तदभिधातुमाह-'तत्थ येत्यादि, 'तत्थ यत्ति तत्रैव समवाये इति योगः नानाविधःप्रकारो येषां ते नानाविधप्रकाराः तथाहि-एकेन्द्रियादिभेदेन पञ्चप्रकारा जीवाः पुनरेकैकः प्रकारः पर्याप्ता-18 है पर्याप्तादिभेदेन नानाविधः, 'जीवाजीवा य'त्ति जीवा अजीवाश्च वर्णिता 'विस्तरेण' महता वचनसन्दर्भेण, अपरेऽपि च बहुविधा 'विशेषा' जीवाजीवधर्मा वर्णिता इति योगः, तानेव लेशंत आह-'नरये'त्यादि, 'नरय'त्ति निवासनिवा ASSASSION ॥११३॥ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिनामभेदोपचारान्नारकाः, ततश्च नारकतिर्यग्मनुजसुरगणानां सम्बन्धिन आहारादयः, तत्र आहारः - ओजआहारादिराभोगिकानाभोगिकखरूपोऽनेकधा उच्छ्वासोऽनुसमयादिकालभेदेनानेकधा लेश्या कृष्णादिका पोढा आवाससंख्या यथा नरकावासानां चतुरशीतिर्लक्षाणीत्यादिका आयतप्रमाणमावासानामेव संख्यातासंख्यातयोजनायामता उपलक्षणत्वादस्य विष्कम्भबाहल्यपरिधिमानान्यप्यत्र द्रष्टव्यानि उपपात एकसमयेनैतावतामेतावता वा कालव्यव - धानेनोत्पत्तिः च्यवनमेकसमयेनैतावतामियता वा कालव्यवधानेन मरणं, अवगाहना - शरीरप्रमाणमङ्गुलासंख्येयभागादि अवधिः - अङ्गुला संख्येयभागक्षेत्रविषयादि वेदना - शुभाशुभस्वभावा विधानानि - भेदा यथा सप्तविधा नारका इत्यादि उपयोगः - आभिनिवोधिकादिर्द्वादशविधः योगः - पञ्चदशविधः इन्द्रियाणि पञ्च द्रव्यादिभेदाद् विंशतिर्वा श्रोत्रादिच्छिद्राद्यपेक्षयाऽष्टौ वा कषायाः - क्रोधादयः आहारश्वोच्छ्वासश्चेत्यादिर्द्वन्द्वस्ततः कषायशब्दात्प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः तथा विविधा च जीवयोनिः सचित्तादिकं जीवानामुत्पत्तिस्थानं, तथा विष्कम्भोत्सेधपरिरयप्रमाणं विधिविशेषाश्च मन्दरादीनां महीधराणामिति, तत्र विष्कम्भो - विस्तार उत्सेधः - उच्चत्वं परिरयः - परिधिः विधि - विशेषा इति विधयो-भेदा यथा मन्दरा जम्बूद्वीपीय धातकीखण्डीयपौष्करार्द्धिकभेदात्रिधा तद्विशेषस्तु जम्बूद्वी|पको लक्षोचः शेषास्तु पञ्चाशीतिसहस्रोच्छ्रिता इति एवमन्येष्वपि भावनीयं, तथा कुलकरतीर्थकरगणधराणां तथा समस्त भरताधिपानां चक्रिणां चैव तथा चक्रधरहलधराणां च विधिविशेषाः समाश्रीयन्त इति योगः, तथा वर्षाणां Jain Educationonal For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय ० वृत्ति: ॥११४॥ च - भरतादिक्षेत्राणां निर्गमाः - पूर्वेभ्यः उत्तरेषामाधिक्यानि 'समाए 'ति समवाये चतुर्थे अङ्गे वर्णिता इति प्रक्रमः, | अथैतन्निगमयन्नाह – एते चोक्ताः पदार्था अन्ये च घनतनुवातादयः पदार्थाः, एवमादयः - एवंप्रकाराः अत्र समवाये विस्तरेणार्थाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतखरूपगुणभूषिता बुद्ध्याऽङ्गीक्रियन्त इत्यर्थः, अथवा समस्यन्ते - कुप्ररूपणाभ्यः सम्यक्प्ररूपणायां क्षिप्यन्ते, शेषं निगदसिद्धमानिगमनादिति ॥ ५ ॥ से किं तं वियाहे ?, वियाहेणं ससमया विआहिजंति परसमया विहिअंति ससमयपरसमया विआहिअंति जीवा विआहिजंति अजीवा विआहिजंति जीवाजीवा विआहिअंति लोगे विआहिजइ अलोए वियाहिजइ लोगालोगे विआहिज्जइ, वियाहेणं नाणाविहसुर नरिंदराय रिसिविविहसंसइअपुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्वगुणखेत्तकाल पजवपदेसपरिणामजहच्छिट्ठियभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाण सुनि उणोवक्कम विविहप्पकारपगडपयासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुद्द रुंद उत्तरणसमत्थाणं सुरवइसंपूजियाणं भवियजणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणं सुदिट्ठदीवभूयईहामतिबुद्धिवद्भणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दंसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहियत्था य गुणमहत्था, वियाहस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, से णं अंगट्टयाए पञ्चमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अज्झयणसते दस उद्देसगसहस्साइं दस समुद्देसगसहस्साइं छत्तीसं वागरणसहस्साइं चउरासीई पयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेजाई अक्खराई अणंता गमा अनंता पजवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिण For Personal & Private Use Only १३९ स मवाया. ॥११४॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA%25 पण्णत्ता भावा आपविजंति पण्णविजंति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, से एवं आया से एवं णाया एवं विणाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति, सेत्तं वियाहे ५॥ सूत्रं १४०॥ 'से किं तं वियाहे' इत्यादि, अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते अर्था यस्यां सा व्याख्या, वियाहे इति च पुँल्लि-18 ङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , 'वियाहेणं ति व्याख्यया व्याख्यायां वा ससमया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वादिह कण्ठ्यानि, 'वियाहेण मित्यादि, नानाविधैः सुरैः नरेन्द्रः राजर्षिभिश्च 'विविहसंसइय'त्ति विविधसंशयितैः-विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा तेषां नानाविधसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयितपृष्टानां व्याकरणानां पत्रिंशत्सहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति पूर्वापरेण वाक्यसंबन्धः, पुनः किंभूतानां व्याकरणाना ?'जिनेने ति भगवता महावीरेण 'वित्थरेण भासियाणं' विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूताना ?-'दवे'त्यादि, द्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यवप्रदेशपरिणामावस्थायथास्तिभावाऽनुगमनिक्षेपनयप्रमाणसुनिपुणोपक्रमैर्विविधप्रकारैः प्रकटः प्रदर्शितो यैर्व्याकरणैस्तानि तथा तेषां, तत्र द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि गुणा-ज्ञानवर्णादयः क्षेत्रं-आकाशं काल:समयादिः पर्यवाः-स्वपरभेदभिन्ना धर्माः अथवा कालकृता अवस्था नवपुराणादयः पर्यवाः प्रदेशा-निरंशावयवाः परिणामाः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनानि यथा-येन प्रकारेणास्तिभावः अस्तित्वं-सत्ता यथाऽस्तिभावं अनुगमःसंहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारकलापात्मको वा निक्षेपो-नामस्थापनाद्रव्यभावैर्वस्तुनो २०सम Jain Education For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥११५॥ न्यासः 'नयप्रमाणं नया-नैगमादयः सप्त द्रग्यास्तिकपर्यावास्तिकभेदात् ज्ञाननयक्रियानयभेदानिश्चयव्यवहारभेदावा १४०व्यावो ते एव ताचेव वा प्रमाणं-वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणं तथा सुनिपुगः-सुसूक्ष्मः सुनिपुणो वा सुठु निश्चित ख्याप्रज्ञगुण उपक्रमः-आनुपूर्व्यादिः, विविधप्रकारता चैषां भेदभणनत एवोपदर्शितेति, पुनः किंभूतानां व्याकरणानां ?, प्तिसूत्रा. लोकालोको प्रकाशितो येषु तानि तथा तेषां, तथा 'संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणति संसारसमुद्रस्य रुंदस्य-वि-13 स्तीर्णस्य उत्तरणे-तारणे समर्थानामित्यर्थः अत एव सुरपतिसंपूजिताना-प्रच्छकनिर्णायकपूजनात् सूक्तत्वेन श्लाषितत्वाद्वा तथा 'भवियजणपयहिययाभिणंदियाणं'ति भव्यजनानां भव्यप्राणिनां प्रजा-लोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा तस्यास्तस्य वा हृदयैः-चित्तैरभिनन्दिताना-अनुमोदितानामिति विग्रहः, तथा तमोरजसी-अज्ञानपातके विध्वंसयति-नाशयति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं तच्च तद् ज्ञानं च तमोरजोविध्वंसज्ञानं तेन सुष्ठ दृष्टानि-निर्णीतानि यानि तानि तथा अत एव तानि च तानि दीपभूतानि चेति, अत एव तानि ईहामतिबुद्धिवर्द्धनानि चेति, तेषां तमोरजोविध्वंसज्ञानसुदृष्टदीपभूतेहामतिबुद्धिवर्द्धनानां, तत्र ईहा-वितर्को मतिः-अवायो निश्चय इत्यर्थः बुद्धिः-औत्पत्तिक्यादिचतुर्विधेति, अथवा तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेव पदं पाठान्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा 'छत्तीससहस्समणूणयाणं ति अन्यूनकानि षट्त्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातश्च प्राकृतत्वादनवद्य इति, 'वागरणाणं'ति व्याक्रियन्ते-प्रश्नानन्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि ५॥ For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषां दर्शनात्-प्रकाशनादुपनिवन्धनादित्यर्थः, अथवा तेषा दर्शना-उपदर्शका इत्यर्थः, क इत्याह-'सुतत्थबहुविह-13 * प्पयारे'त्ति श्रुतविषया-अर्थाः श्रुतार्था अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः श्रुता वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुतार्थाः, अथवा श्रुतमिति सूत्रं अर्था-नियुक्त्यादय इति श्रुतार्थास्ते च ते बहुविधप्रकाराश्चेतिविग्रहः श्रुता नां वा बहवो विधाः-प्रकारा इति विग्रहः, किमर्थं ते व्याख्यायन्त इत्याह-शिष्यहितार्थाय' शिष्याणां हितं-- अनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपं तदेवार्थः प्रार्थ्यमानत्वात्तस्य तस्मै इति, किंभूतास्ते अत आह-गुणहस्ता-गुण एवार्थप्रात्यादिलक्षणो हस्त इव हस्तः प्रधानावयवो येषां ते तथा (गुणमहत्था-गुणोत्सवार्थाः), 'वियाहस्से'त्यादि तु| निगमनान्तं सूत्रसिद्धं, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा, चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाणेति समवायापेक्षया द्विगुणताया इहानाश्रयणादन्यथा तद्विगुणत्वे द्वे लक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति ॥५॥ से किं तं णायाधम्मकहाओ ?, णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराई उजाणाई चेइआई वणखंडा रायाणो ५ अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइअइड्डीविसेसा १० भोगपरिचाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहातवोवहाणाई परियागा १५ संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपञ्चायायाई २० पुणबोहिलामा अंतकिरियाओ २२ य आधविजंतिजाव नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरणजिणसामिसासणवरे संजमपईण्णपालणधिइमइववसायदुब्बलाणं १ तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभरभग्गयणिस्सहयणिसिट्ठाणं २ घोरपरीसहपराजियाणं सहपारद्धरुद्धसिद्धालयमग्गनिग्गयाणं ३ विसयसुहतु Jain EducationHUNT For Personal & Private Use Only K inelibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअमय० १४१ज्ञाताधर्मकथाधिकारः वृचिः ॥११६॥ च्छआसावसदोसमुच्छियाणं ४ विराहियचरित्तनाणदसणजइगुणविविहप्पयारनिस्सारसुन्नयाणं ५ संसारअपारदुक्खदुग्गइमवविविहपरंपरापवंचा ६ धीराण य जियपरिसहकसायसेण्णधिइधणियसंजमउच्छाहनिच्छियाणं ७ आराहियनाणदंसणचरित्तजोगनिस्सलसुद्धसिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसुक्खाई अणोवमाइं भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि ततो य कालक्कमचुयाणं जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया चलियाण य सदेवमाणुस्सधीरकरणकारणाणि बोधणअगुसासणाणि गुणदोसदरिसणाणि दिलुते पच्चये य सोऊण लोगमुणिणो जहट्ठियसासणम्मि जरमरणनासणकरे आराहिअसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता ओवेन्ति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं, एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य, णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए छठे अंगे दो सुअक्खंधा एगूणवीसं अज्झयणा, ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-चरिता य कप्पिया य, दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयासयाई एवमेव सपुव्वावरेणं अद्भुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ, एगूणतीसं उद्देसणकाला एगूणतीसं समुद्देसणकाला संखेजाई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आपविजंति, सेत्तं णायाधम्मकहाओ ६॥ सूत्रं १४१॥ 'सेकिंत'मित्यादि, अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथा?-ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा दीर्घत्वं | संज्ञात्वाद् अथवा प्रथमश्रुतस्कन्धोज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः, ततश्च ज्ञातानि च धर्म ॥११६॥ JainEducation For Personal & Private Use Only hinelibrary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARASSASALARIAK कथाश्च ज्ञाताधर्मकथाः, तत्र प्रथमं व्युत्पत्त्यर्थे सूत्रकारो दर्शयन्नाह-नायाधम्मकहासु णमित्यादि, ज्ञाताना-उदाहरणभूतानां मेघकुमारादीनांनगरादीन्याख्यायन्ते, नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि कण्ठ्यानि च, नवरमुद्यानं-पत्रपुष्पफलच्छायोपगतवृक्षोपशोभितं विविधवेषोन्नतमानश्च बहुजनो यत्र भोजनार्थ यातीति, चैत्यं-व्यन्तरायतनं, वनखण्डोऽनेकजातीयैरुत्तमैवृक्षरुपशोभित इति, 'आपविजंति' इह यावत्करणादन्यानि पंच पदानि दृश्यानि यावदयं सूत्रावयवो यथा 'नायाधम्मेत्यादि, तत्र ज्ञाताधर्मकथासु णमित्यलङ्कारे प्रव्रजितानां, व?-'विनयकरणजिनखामिशासनवरे' कर्मविनयकरे जिननाथसम्बन्धिनि शेषप्रवचनापेक्षया प्रधाने प्रवचने इत्यर्थः, पाठान्तरेण 'समणाणं |विणयकरणजिणसासणंमि पवरे' किंभूतानां?-संयमप्रतिज्ञा-संयमाभ्युपगमः सैव दुरधिगम्यत्वात् कातरनरक्षोभकत्वागम्भीरत्वाच पातालमिव पातालं तत्र धृतमतिव्यवसाया दुर्लभा येषां ते तथा, पाठान्तरेण संयमप्रतिज्ञापालने ये धृतिमतिव्यवसायास्तेषु दुर्बला येते तथा तेषां, तत्र धृतिः-चित्तवास्थ्यं मतिः-बुद्धिर्व्यवसायः-अनुष्ठानोत्साह इति, तथा तपसि नियमः-अवश्यकरणं तपोनियमो नियत्रितं तपः स च तप उपधानं चानियत्रितं तप एव श्रुतोपचारः तपोनियमतपउपधाने ते एव रणश्च-कातरजनक्षोभकत्वात सङ्कामो 'दुद्धरभर'त्ति श्रमकारणत्वाहुर्द्धरभरश्च-दुर्वहलोहादिभारस्ताभ्यां भग्ना इति(एव)-भग्नका:-पराखीभूतास्तथा 'निस्सहगनिसट्ठाणं'ति निःसहा-नितरामशक्तास्त एव निःसहका निसृष्टाश्च-निसृष्टाङ्गा मुक्ताका ये ते तपोनियमतपउपधानरणदुर्धरभरभरकनिःसहकनिसृष्टाः, पाठान्त Jain Educati o nal For Personal & Private Use Only Olainelibrary.org Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥११७॥ OCRACHCRACANCE रण निःसहकनिविष्टास्तेषा, इह च प्राकृतत्वेन ककारलोपसन्धिकरणाभ्या भग्ना इत्यादौ दीर्घत्वमवसेयं, तथा घोर १४१ज्ञापरीपहैः पराजिताश्चासहाश्च-असमर्थाः सन्तः प्रारब्धाश्च-परीषहैरेव वशीकर्तुं रुद्धाश्च मोक्षमार्गगमने ये ते घोर- ताधर्मकपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धाः अत एव सिद्धालयमार्गात्-ज्ञानादेर्निर्गताः-प्रतिपतिता ये ते तथा ते च ते चेति थाधिकारः तेषां घोरपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानां, पाठान्तरेण घोरपरीपहपराजितानां तथा सहयुगपदेव परीषहैर्विशिष्टगुणश्रेणिमारोहन्तः प्ररुद्धरुद्धाः-अतिरुद्धाः सिद्धालयमार्गनिर्गताश्च ये ते तथा तेषां| सहप्ररुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानां, तथा विषयसुखेषु तुच्छेषु खरूपतः आशावशदोषेण-मनोरथपारतव्यवैगुण्येन मूञ्छिता-अध्युपपन्ना ये ते तथा तेषां विषयसुखतुच्छाशावशदोषमूर्छितानां पाठान्तरेण विषयसुखे या महेच्छा कस्यांचिदवस्थायां या चावस्थान्तरे तुच्छाशा तयोर्वशः-पारतन्त्र्यं तल्लक्षणेन दोषेण मूञ्छिता येते तथा तेषां विषयसुखमहेच्छातुच्छाशावशदोषमूर्छितानां, तथा विराधितानि चारित्रज्ञानदर्शनानि यैस्ते तथा, तथा यतिगुणेषु विविधप्रकारेषु मूलगुणोत्तरगुणरूपेषु निःसाराः-सारवर्जिताः पलञ्जिप्रायगुणधान्या इत्यर्थः, तथा तैरेव यतिगुणैः शून्यकाः सर्वथा अभावाद्ये ते तथेति, पदत्रयस्य च कर्मधारयोऽतस्तेषां विराधितचारित्रज्ञानदर्शनयतिगुणविविधप्रकारनिः-४॥११७॥ सारशून्यकानां, किमत आह-संसारे-संसृतौ अपारदुःखा-अनन्तक्लेशा ये दुर्गतिषु-नारकतिर्यकुमानुपकुदेवत्वरूपासु भवा-भवग्रहणानि तेषां ये विविधाः परम्पराः-पारम्पर्याणि तासां ये प्रपञ्चास्ते संसारापारदुर्गतिभवविविधपरम्परा For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AASAR प्रपञ्चाः, आख्यायन्ते इति पूर्वेण योगः, तथा धीराणां च-महासत्त्वानां, किंभूतानां ?-जितं परीषहकषायसैन्यं यैस्ते तथा, धृतेः-मनःस्वास्थ्यस्य धनिकाः-स्वामिनो धृतिधनिकाः, तथा संयमे उत्साहो-वीर्य निश्चितः-अवश्यंभावी येषां(ते)संयमोत्साहनिश्चितास्ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषां जितपरीषहकषायसैन्यधृतिधनिकसंयमोत्साहनिश्चि-| तानां, तथा आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते तथा निःशल्यो-मिथ्यादर्शनादिशल्यरहितः शुद्धश्च-अतीचारविमुतो यः सिद्धालयस्य-सिद्धेर्यो(:)मार्गस्तस्याभिमुखा येते तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयःअतस्तेषामाराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगनिःशल्यशुद्धसिद्धालयमार्गाभिमुखानां, किमत आह-सुरभवने-देवतयोत्पादे यानि विमानसौख्यानि तानि सुरभवनविमानसौख्यानि अनुपमानि ज्ञाताधर्मकथाखाख्यायन्त इति प्रक्रमः, इह च भवनशब्देन भवनपतिभवनानि नव्याख्यातान्यविराधितसंयमप्रवजितप्रस्तावात् ,ते हि भवनपतिषु नोत्पद्यन्त इति, तथा भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान्-मनोज्ञशब्दादीन् तांस्तथाविधान् दिव्यान्-खर्गभवान् ‘महान्'ि महतः-आत्यन्तिकान् अन्-िप्रशस्ततया पूज्यानिति भावः, ततश्च-देवलोकात् कालक्रमच्युतानां यथा पुनर्लब्धसिद्धिमार्गाणां-मनुजगताववाप्तज्ञानादीनामन्तक्रिया-मोक्षो भवति तथाऽऽख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथा चलितानां च-कथञ्चित्कर्मवशतः परीषहादावधीरतया संयमप्रतिज्ञायाः प्रभ्रष्टानां सह देवैर्मानुषाः सदेवमानुषास्तेषां सम्बन्धीनि धीरकरणे-धीरत्वोत्पादने यानि कारणानि-ज्ञातानि तानि | सदेवमानुषधीरकरणकारणानि आख्यायन्त इति प्रक्रमः, इयमत्र भावना-यथा आर्याषाढो देवेन धीरीकृतो यथा वा dain Education For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- मेघकुमारो भगवता शैलकाचार्यो वा पन्थकसाधुना धीरीकृतः एवं धीरकरणकारणानि तत्राख्यायंते, किंभूतानि | १४१ ज्ञायांगे तानीत्याह-'बोधनानुशासनानि' बोधनानि-मार्गभ्रष्टस्य मार्गस्थापनानि अनुशासनानि-दुःस्थस्य सुस्थतासम्पाद ताधमेकश्रीअभय. नानि अथवा बोधनं-आमन्त्रणं तत्पूर्वकान्यनुशासनानि बोधनानुशासनानि, तथा गुणदोषदर्शनानि-संयमाराधनायां थाधिकार वृत्तिः गुणा इतरत्र दोषा भवन्तीत्येवंदर्शनानि वाक्यान्याख्यायन्त इति योगः, तथा दृष्टान्तान् ज्ञातानि प्रत्ययांश्च बोधि॥११८॥ कारणभूतानि वाक्यानि श्रुत्वा 'लोकमुनयः' शुकपरिव्राजकादयो 'यथा' येन प्रकारेण स्थिताः शासने जरामरणनाशनकरे जिनानां सम्बन्धिनीति भावः, तथाऽऽख्यायन्त इति योगः, तथा 'आराहितसञ्जम'त्ति एत एव लौकिकमुनयः संयम वलिताश्च जिनप्रवचनं प्रपन्नाः पुनः परिपालितसंयमाश्च सुरलोकं गत्वा चैते सुरलोकप्रतिनिवृत्ता उपयान्ति यथा शाश्वतं-सदाभाविनं शिवं-अबाधाकं सर्वदुःखमोक्षं निर्वाणमित्यर्थः, एते चोक्तलक्षणाः अन्ये च 'एवमादिअत्यत्ति एवमादय आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवंप्रकारा अर्थाः-पदार्थाः, 'वित्थरेण यत्ति विस्तरेण चश-| ब्दात् कचित्केचित् संक्षेपेण आख्यायन्त इति क्रियायोगः 'नायाधम्मकहासु ण'मित्यादि कण्ठ्यमानिगमनात्, नवरं |'एकूणवीसमज्झयण'त्ति प्रथमश्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दशेति, तथा 'दस धम्मकहाणं वग्गा' इत्यादी भाPI वनेयं-इहैकोनविंशतिज्ञताध्ययनानि दार्टान्तिकार्थज्ञापनलक्षणज्ञातप्रतिपादकत्वात्तानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, द्वितीये | ॥११८॥ त्वहिंसादिलक्षणधर्मस्य कथा धर्मकथा-आख्यानकानीत्युक्तं भवति, तासां च दश वर्गाः, वर्ग इति समूहः, तत dain Education a l For Personal & Private Use Only wijainelibrary.org Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5SALAMMARCCCHANCE वार्थाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा द्रष्टव्याः, तत्र ज्ञातेष्वादिमानि दश यानि तानि ज्ञातान्येव, न तेप्वाख्यायिकादिसम्भवः, शेषाणि नव ज्ञातानि, तेषु पुनरेकैकस्मिन् पञ्च पञ्च चत्वारिंशदधिकानि आख्यायिकाश-2 तानि, तत्राप्येकैकस्यामाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्यायिकाशतानि, तत्राप्येकैकस्यामुपाख्यायिकायां पञ्च पञ्चाख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि, एवमेतानि संपिण्डितानि किं सजातं ?-'इगवीसं कोडिसयं लक्खा पण्णासमेव बोद्धवा । १२१५००००००। एवं ठिए समाणे अहिगयसुत्तस्स पत्थारो ॥१॥ तद्यथा 'दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं |एगमेगाए धम्मकहाए पञ्च पञ्च अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पञ्च पञ्चउवक्खाइयासयाई एगमगाए उवक्खाइयाए पञ्च पञ्च अक्खाइउवक्खाइयासयाईति, एवमेतानि सम्पिण्डितानि कि संजातं ?-'पणवीसं कोडिसयं १२५००००००० एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा । नवनाययसंबद्धा अक्खाइयमाइया तेणं ॥१॥ते सोहिजंति फुडं इमाउ रासीओ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमेयं विणिदिटुं॥२॥' शोधिते चैतस्मिन् सति अर्द्धचतुर्था एव । कथानककोट्यो भवन्तीति, अत एवाह-'एवमेव सपुवावरेणं'ति भणितप्रकारेण गुणनशोधने कृते सतीत्युक्तं भवति || 'अद्भुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवन्तीतिमक्खाओ'त्ति आख्यायिकाः-कथानकानि एता-एवमेतत्संख्या भवन्तीति-18 | कृत्वा आख्याता भगवता महावीरेणेति, तथा संख्यातानि 'पदसयसहस्साणी'ति किल पञ्च लक्षाणि षट्सप्ततिश्च । सहस्राणि पदाग्रेण अथवा सूत्रालापकपदाग्रेण संख्यातान्येव पदसहस्राणि भवन्तीत्येवं सर्वत्र भावयितव्यमिति॥६॥ dain Educat onal For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्ति: ॥११९॥ से किं तं उवासगदसाओ ?, उवासगदसासु णं उवासयाणं णगराई उज्जाणाई चेइआई वणखंडा रायाणी अम्मापियरों समीसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइडिविसेसा उवासयाणं सीलव्वय वेरमण गुणपञ्चक्खाणपोसहोववासपडिवज्रणयाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणा पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुणो बोहिलामा अंतकिरियाओ आघविअंति, उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्यरधम्मस्वणाणि बोहिलाभअभिगमसम्मत्तविसुद्धया थिरत्तं मूलगुणउत्तरगुणाइयारा ठिईविसेसा य बहुविसेसा पडिमाभिग्गहग्गहणपालणा उवसग्गाहियासणा णिरुवसग्गा य तवा य विचित्ता सीलव्वयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपो सहोववासा अपच्छिममारणंतिया य संलेहणाझोसणा अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तमेसु जह अणुभवंति सुरवरविमाणवरपोंडरीएसु सोक्खाई अणोवमाई कमेण भुत्तूण उत्तमाई तओ आउक्खएणं चुया समाणा जह जिणमयम्मि बोहिं लद्धूण य संजमुत्तमं तमरयोघविप्पमुक्का उवेंति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं, एते अन्नेय एवमाइअत्था वित्थरेण य, उवासयदसासु णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगट्टयाए सत्तमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झणा दस उद्देणकाला दस समुद्देसणकाला संखेजाई पयस्यसहस्साइं पयग्गेणं प० संखेजाई अक्खराई जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविअंति, सेत्तं उवासगदसाओ ७ ॥ सूत्रं १४२ ॥ 'से किं तमित्यादि अथ कास्ता उपासकदशाः १, उपासकाः श्रावकास्तद्गतक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशाः - दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः, तथा चाह - ' उपासकदसासु णं' उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनखण्डा Jain Educationonal For Personal & Private Use Only १४२ उ पासकदशाङ्गाधि कारे. ॥११९ ॥ inelibrary.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education l राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या धर्मकथा ऐहलौकिकपारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकानां च शीलव्रतविरमणगुणप्रत्याख्यानपौषधोपवासप्रतिपादनताः, तत्र शीलव्रतानि - अणुव्रतानि विरमणानि - रागादिविरतयः गुणा - गुणत्रतानि प्रत्याख्यानानि - नमस्कारसहितादीनि पौषधः - अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहारशरीरसत्कारादित्यागः पौषधोपवासः, ततो द्वन्द्वे सत्येतेषां प्रतिपादनताः - प्रतिपत्तय इति विग्रहः, श्रुतपरिग्रहास्तपउपधानानि प्रतीतानि 'पडिमाओ'त्ति एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गा वा उपसर्गा-देवादिकृतोपद्रवाः संलेखना - भक्तपानप्रत्याख्यानानि, पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि सुकुलप्रत्यायातिः पुनर्वोधिलाभोऽन्तक्रिया चाख्या - यन्ते पूर्वोक्तमेवेतो विशेषत आह - 'उवासगे 'त्यादि, तत्र ऋद्धिविशेषा-अनेक कोटी संख्याद्रव्यादिसम्पद्विशेषाः तथा परिषदः - परिवारविशेषा यथा मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषत् दासीदासमित्रादिका वायपरिषदिति, विस्तरधर्मश्रवणानि महावीरसन्निधौ, ततो बोधिलाभोऽभिगमः - सम्यक्त्वस्य विशुद्धता स्थिरत्वं सम्यक्त्वशुद्धिरेव मुलगूणोत्तरगुणा - अणुव्रतादयः अतिचारास्तेषामेव-वधवन्धादितः खण्डनानि स्थितिविशेषाश्च - उपासकपर्यायस्य कालमानभेदाश्च बहुविशेषाः प्रतिमाः - प्रभूतभेदाः सम्यग्दर्शनादिप्रतिमाः अभिग्रहग्रहणानि तेषामेव च पालनानि उपसर्गाधिसहनानि निरुपसर्गश्च - उपसर्गाभावश्चेत्यर्थः, तपांसि च विचित्राणि शीलत्रतादयोऽनन्तरोक्तरूपा अपश्चिमाः For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिः श्रीसमवा- पश्चात्कालभाविन्यः अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थं मरणरूपे अन्ते भवा मारणान्तिक्यः आत्मनः-शरीरस्य जीवस्य च |१४२ उयांगे रागादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मसंलेखनाः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयस्तासां, 'झोसणं' तिपासकंदश्रीअभय. जोषणाः सेवनाः कारणानीत्यर्थः, ताभिरपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखनाजोषणाभिरात्मानं यथा च भावयित्वा शाङ्गाधि|बहूनि भक्तानि अनशनतया च-नि जनतया छेदयित्वा-व्यवच्छेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते, केषु?-क कारे. ॥१२०॥ कल्पवरेषु यानि विमानानि उत्तमानि तेषु, तथा यथानुभवन्ति सुरवरविमानानि वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि यानि हातेषु कानि-सौख्यान्यनुपमानि क्रमेण भुक्त्वोत्तमानि ततः आयष्कक्षयेण च्यताः सन्तो यथा जिनमते बोधि लब्धा इति शेषः लब्ध्वा च संयमोत्तम-प्रधानं संयम तमोरजओघविप्रमुक्ता-अज्ञानकर्मप्रवाहविप्रमुक्ता उपयान्ति, यथा & अक्षयं-अपुनरावृत्तिकं सर्वदुःखमोक्षं कर्मक्षयमित्यर्थः, तथोपासकदशाखाख्यायन्त इति प्रक्रमः, एते चान्ये चेत्यादि प्राग्वन्नवरं 'संखेजाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं'ति किलेकादश लक्षाणि द्विपञ्चाशच सहस्राणि पदानामिति ॥७॥ से किं तं अंतगडदसाओ?, अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराई उजाणाई चेइयाइं वणाइं राया अम्मापियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइयपरलोइअइड्डिविसेसा भोगपरिचाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ बहुविहाओ ॥१२०॥ खमा अजवं मद्दवं च सोमं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउन्विहकम्म KARRAR RECRUAE4564CHRON dain Education International For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं पायोवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोघविप्पमुक्को मोक्खसुहमणतरं च पत्ता एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थारेणं परूवेई, अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, जाव से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेजाइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता संखेजा अक्खरा जाव एवं चरणकर.णपरूवणया आघविजंति, सेत्तं अंतगडदसाओ ॥८॥ (सूत्रं १४३) 'से किं तमित्यादि, अथ कास्ता अन्तकृद्दशाः, तत्रान्तो-विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृतास्ते च तीर्थकरादयस्तेषा दशाः-प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः, तथा चाह'अंतगडदसासु णमित्यादि कण्ठ्यं, नवरं नगरादीनि चतुर्दश पदानि षष्ठाङ्गवर्णकाभिहितान्येव, तथा 'पडिमाओ'त्ति द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिक्यादयो बहुविधाः तथा क्षमा मार्दवं आर्जवं च शौचं च सत्यसहितं, तत्र शौचं-परद्रव्यापहारमालिन्याभावलक्षणं सप्तदशविधश्च संयम उत्तमं च ब्रह्म-मैथुनविरतिरूपं 'आकिंचणिय'त्ति आकिञ्चन्यं तपस्त्याग इति-आगमोक्तं दानं समितयो गुप्तयश्चैव तथा अप्रमादयोगः खाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोयोरपि लक्षणानि-खरूपाणि, तत्र खाध्यायस्य लक्षणं 'सज्झाएण पसत्थं झाण'मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा-"अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुमी"त्यादि, व्याख्यायन्त इति सर्वत्र योगः, तथा प्राप्तानां च संयमोत्तम-सर्वविरतिं जितपरीषहाणां चतुर्विधक २१ सम. Jain Education For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय वृत्तिः १४३अन्तकृतदशाः ॥१२१॥ र्मक्षये सति-पातिकर्मक्षये सति वथा केवलख ज्ञानादेभिः पर्यावः-वन्यालक्षणो याबाश्च-याचद्वर्षादिप्रमाणो 'यथा' बेन तपोचिशेषाश्रयणादिना प्रकारेण पालितो मुनिभिः पादपोषगतश्च-पादपोपगमाभिधानमनशनं प्रतिपनो यो मुनियंत्र शत्रुञ्जयपर्वतादौ यावन्ति च भक्तानि-भोजनानि छेदयित्वा, अनशनिना हि प्रतिदिनं भक्तद्वयच्छेदो भवति, अन्तकृतो मुनिवरो जात इति शेषः, तमोरजओघषिप्रमुक्तः, एवं च सर्वेऽपि क्षेत्रकालादिविशेषिता मुनयो मोक्षसुखमनुत्तरं च प्राप्ता आख्यायन्त इति क्रियायोगः, एते अन्ये चेत्यादि प्राग्वत् , नवरं 'दस अज्झयण'त्ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटन्ते, नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात् , यच्चेह पठ्यते 'सत्त बग्गत्ति तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्ट वर्गाः, नन्द्यामपि तथा पठितत्वात् , तद्वृत्तिश्चेयं “अट्ठ वग्ग'त्ति” अत्र वर्गःसमूहः, स चान्तकृतानामध्ययनानां वा, सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, ततो भणितं 'अट्ठ उद्देसणकाला'इत्यादि, इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः, तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति, तानि च किल त्रयोविंशतिलक्षाणि चत्वारि च सहस्राणीति ॥ ८॥ से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ?, अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तसेववाइयाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोगपरलोगइडिबिसेसा भोगपरिचाया पब्बजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपाणपच्चक्खाणाई पाओगमणाई अणुत्तरोववाओ सुकुलपञ्चायाया पुणो बोहिलाभो अंतकिरि ॥१२॥ Jain Educational For Personal & Private Use Only nebrar og Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याओ य आधविजंति, अणुत्तरोबवाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाई परमंमल्लजमहियाणि जिणातिसेसा य बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिरजसाणं परिसहसेण्णरिउबलपमद्दणाणं तवदित्तचरित्तणाणसम्मत्तसारविविहप्पगारवित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं जह य जगहियं भगवओ जारिसा इड्डिविसेसा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं जह य उवासंति जिणवरं जह य परिकहंति धम्मं लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुवेति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुमयमहियं भासित्ता जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लद्रूण य समाहिमुत्तमज्झामजोगजुत्ता उववना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं तओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा य अंतकिरियं एए अन्ने य एवमाइअत्या वित्थरेण, अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा संखेजा अशुओगदारा संखेजाओ संगहणीभो, से णं अंगट्ठयाए नवमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा तिन्नि वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेजाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं प०, संखे आणि अक्खराणि जाव एवं चरणकरणपरूवणया अघविजंति, सेत्तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ॥९॥ (सूत्रं १४४) 'से किं त'मित्यादि, नास्मादुत्तरो विद्यते इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः अनुत्तरः-प्रधानः संसारे अन्यस्य तथाविधस्याभावादुपपातो येषां ते तथा त एवानुत्तरोपपातिकाः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा-दशाध्ययमोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः, तथा चाह-'अणुत्तरोक्वाइयदसासु म'मिसादि, तत्रानुत्तरोपपातिकानामिति-साधून विहपगारं जह वहाण वसोड्ण य तस्स भासिय अक्सावा य जिगसमीपं जहर SAURAHASANSAR in Education For Personal & Private Use Only netbrary.org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि ज्ञाताधर्मकथावर्णकोक्तानि यथा तथा ( ज्ञेयानि), एतेषामेव च प्रपञ्च रचयन्नाह- १४४ अयांगे || अनुत्तरोपपातिकदशासु तीर्थकरसमवसरणानि, किम्भूतानि ?-परममाङ्गल्यत्वेन जगद्धितानि परममाङ्गल्यजगद्धि-18/नुत्तरोपपाश्रीअभय० दूतानि जिनातिशेषाश्च-बहुविशेषा 'देहं विमलसुयंध'मित्यादयश्चतुस्त्रिंशदधिकतरा वा तथा जिनशिष्याणां चैव-गण- तिकदशाः वृत्तिः धरादीनां, किम्भूतानामत आह-श्रमणगणप्रवरगन्धहस्तिनां-श्रमणोत्तमानामित्यर्थः, तथा स्थिरयशसां तथा परी पहसैन्यमेव-परीषहवृन्दमेव रिपुबलं-परचक्रं तत्प्रमईनानां, तथा दववद्-दावाग्निरिव दीसानि-उज्ज्वलानि पाठान्तरेण ॥१२२॥ तपोदीप्तानि यानि चारित्रज्ञानसम्यक्त्वानि तैः साराः-सफलाः विविधप्रकारविस्तारा-अनेकविधप्रपञ्चाः प्रशस्ताश्च ये क्षमादयो गुणास्तैः संयुतानां, क्वचिगुणध्वजानामिति पाठः, तथा अनगाराश्च ते महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयस्तेषामनगारगुणानां वर्णकः-श्लाघा आख्यायन्त इति योगः, पुनः किम्भूतानां जिनशिष्याणा ?-उत्तमाश्च ते जात्यादिभिर्वरतपसश्च ते विशिष्टज्ञानयोगयुक्ताश्चेत्यतस्तेषामुत्तमवरतपोविशिष्टज्ञानयोगयुक्तानां, किच्चापरं ?, यथा च जगद्धितं भगवत इत्यत्र जिनस्य शासनमिति गम्यते, यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा देवासुरमानुषाणां रत्नोज्ज्वललक्षयोजनमानविमानरचनं सामानिकायनेकदेवदेवीकोटिसमवायनं मणिखण्डमण्डितदण्डपटुप्रचलत्पताकिकाशतोपशोभितमहाध्वजपुरःप्रवर्त्तनं वि ॥१२२॥ विधातोद्यनादगगनाभोगपूरणं चैवमादिलक्षणाः प्रतिकल्पितगन्धसिन्धुरस्कन्धारोहणं चतुरङ्गसैन्यपरिवारणं छत्रचामरमहाध्वजादिमहाराजचिह्नप्रकाशनं च एवमादयश्च सम्पद्विशेषाः समवसरणगमनप्रवृत्तानां वैमानिकज्योतिष्काणा Jain Education For Personal & Private Use Only Magainelibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपतिव्यन्तराणां राजादिमनुजानां च अथवा अनुत्तरोपपातिकसाधूनां ऋद्धिविशेषा देवादिसम्बन्धिनस्तादृशा | आख्यायन्त इति क्रियायोगः, तथा पर्षदां च 'संजयवेमाणित्थी संजइ पुत्वेण पविसिउं वीर'मित्यादिनोक्तखरूपाणां प्रादुर्भावाश्च-आगमनानि, व?-'जिणसमीति जिनसमीपे यथा-येन च प्रकारेण पञ्चविधाभिगमादिना उपासतेसेवन्ते राजादयो जिनवरं तथाऽऽख्यायत इति योगः, यथा च परिकथयति धर्म लोकगुरुरिति-जिनवरोऽमरनरा-14 |सुरगणानां, श्रुत्वा च तस्येति-जिनवरस्य भाषितं अवशेषाणि क्षीणप्रायाणि कर्माणि येषा ते तथा ते च ते विषय-16 विरक्ताश्चेति अवशेषकर्मविषयविरक्ताः, के ?-नराः, किं ?-यथा अभ्युपयन्ति धर्ममुदारं, किंखरूपमत आह–संयम तपश्चापि, किम्भूतमित्याह-बहुविधप्रकारं, तथा यथा बहूनि वर्षाणि 'अणुचरित्त'त्ति अनुचर्य आसेव्य संयम तपश्चेति वर्तते, तत आराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगास्तथा 'जिणवयणमणुगयमहियभासिय'त्ति जिनवचनं-आचारादि अनुगतं-सम्बद्धं नाईवितर्दमित्यर्थः महितं-पूजितमधिकं वा भाषितं यैरध्यापनादिना ते तथा, पाठान्तरे जिनवचनमनुगत्या-आनुकूल्येन सुष्ठ भाषितं यैस्ते जिनवचनानुगतिसुभाषिताः, तथा 'जिणवराण हियएणमणुण्णेत्त'त्ति इति षष्ठी द्वितीयार्थे तेन जिनवरान् हृदयेन-मनसा अनुनीय-प्राप्य ध्यात्वेतियावत् , ये च यत्र यावन्ति च भक्तानि छेदयित्वा लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं ध्यानयोगयुक्ताः उपपन्ना मुनिवरोत्तमा यथा अनुत्तरेषु तथा आख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथा प्राप्नुवन्ति यथाऽनुत्तरं 'तत्थ'त्ति अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं तथाऽऽख्यायन्ते इति योगः, 'तत्तो यत्ति अनुत्त 15 Jain Educationa l For Personal & Private Use Only D Enelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय० वृत्तिः १४५प्रश्वव्याकरणदशा: ॥१२३॥ रविमानेभ्यश्च्युताः क्रमेण करिष्यन्ति संवता यथा चान्तक्रियां ते समाऽऽस्यायन्ते अनुत्तरोपपातिकदशाखिति प्रकतं,एते चान्ये चेस्यादि पूर्ववत् , नवरं 'दस अज्झयमा तिन्नि पम्पत्ति, इहाध्ययनसमूहो वर्गो, वर्गे दशाध्ययनानि, वर्गश्च युगपदवोदिश्यते इत्यतस्त्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीत्येवमेव च नन्धामभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यत्राकिप्रायो न ज्ञायत्त इति, तथा संख्यातानि 'पदसयसहस्साइं पयग्गेणं ति किल षट्चत्वारिंशलक्षाण्यष्टौ च सहस्राणि॥९॥ से किं तं पण्हावागरणाणि?, पण्हावागरणेसु अहुत्तरं पसिणसयं अटूत्तरं अपसिणसयं अट्ठत्तरं पसिणापसिणसयं विजाइसया नागसुवन्नेहिं सद्धिं दिवा संवाया आघविजंति, पण्हावागरणदसासु णं ससमयपरसमयपण्णवयपत्तेअबुद्धविविहत्थभासाभासियाणं अइसयगुणउवसमणाणप्पगारआयरियभासियाणं वित्थरेणं वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अदागंगुट्ठबाहुअसिमणिखोमआइच्चभासियाणं विविहमहापसिणविजामणपसिणविजादेवयपयोगपहाणगुणप्पगासियाणं सब्भूयदुगुणप्पभावनरगणमइविम्हयकराणं अईसयमईयकालसमयदमसमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगमदुरवगाहस्स सबसवन्नुसम्मअस्स अबुहजणविबोहणकरस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं पण्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविजंति, पण्हावागरणेसु णं परिचा वायणा संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे एगे सुयक्खंधे पणयालीसं उद्देसणकाला पणयालीसं समुद्देसणकाला संखेन्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं प०, संखेजा अक्खरा अणंता गमा जाव चरणकरणपरूवणया आघविजंति, सेत्तं पण्हावागरणाई ॥१०॥ (सूत्रं १४५) ॥१२॥ Sain due For Personal & Private Use Only M mainelibrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGRICORNOSAURA से किंत'मित्यादि, प्रश्न:-प्रतीतस्तन्निर्वचनं-व्याकरणं प्रश्नानां च व्याकरणानां च योगात्प्रश्नव्याकरणानि तेष 'अत्तरं पसिणसयं तत्राअष्टबाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्याः प्रश्ना या पुनर्विद्या मत्रविधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शु. भाशुभं कथयन्ति एताः अप्रश्नाः तथाऽङ्गुष्ठादिप्रश्नभावंतदभावंच प्रतीस या विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्चाप्रश्नाः 'विजाइसय'ति तथा अन्ये विद्यातिशयाः स्तम्भस्तोभवशीकरणविद्वेषीकरणोचाटनादयः नागसुपर्णेश्च सह-भवनपतिविशेषैरुपलक्षणत्वाद्यक्षादिभिश्च सह साधकस्येति गम्यते दिव्याः-तात्त्विकाः संवादाः-शुभाशुभगताः संलापाः आख्यायन्ते, एतदेव प्रायः प्रपञ्चयन्नाह-'पण्हावामरणदसे खादि, स्वसमयपरसमयप्रज्ञापका ये प्रत्येकबुद्धास्तैः करकड्यादिसदृशैर्विविधार्था यका भाषा गम्भीरत्यर्थः तवा भाषिताः-गदिताः खसमयपरसमयप्रज्ञापकप्रत्येकबुद्धविविधा-18 र्थभाषाभाषितास्तासां, किम् ?-आदर्शाङ्गुष्ठादीनां सम्बन्धिनां प्रश्नानां विविधगुणमहार्थाः प्रश्नव्याकरणदशाखावायन्त इति योगः, पुनः किम्भूतानां प्रश्नानां?-'अइसयगुणउबसमनाणप्पगारआयरिवभासियाणं'ति अतिशयाथ-आमघोषध्यादयो गुणाश्च-ज्ञानादय उपशमश्च-खपरभेदः एते नावात्रकारा येषां ते तथा ते च ते प्राचार्याश्च तैर्भाषिता यास्तास्तथा तासां, कथं भाषितानामिखाह-'वित्वरेणं ति विस्तरेण-महता वचनसन्दर्भेण तथा स्थिरमहर्षिभिः पाठान्तरे वीरमहर्षिभिः 'विविहवित्थरभासियाणं च'त्ति विविधविस्तरेण भाषितानां च, चकारस्तृतीयप्रणायकभेदसमुखवार्थः, पुनः कथंभूतानां प्रश्नानां ?-'जगहियाणं'ति जगद्धितानां पुरुषार्थोपयोगित्वात्, किंसम्बन्धिनीलामिलाह T Jain Educatio n For Personal & Private Use Only T a nelibrary.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ प्र. व्याकर णदशाः श्रीसमवा-2'अदाग'त्ति आदर्शश्वाङ्गुष्ठश्च बाहू च असिश्च मणिश्च क्षौमं च-वस्त्रं आदित्यश्चेति द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां कुज्यशङ्खघंटा- यांगे दीनां ते तथा तेषां सम्बन्धिनीनां, प्रश्नविद्याभिरादर्शकादीनामावेशनात् , किंभूतानां प्रश्नानामत आह-विविध- श्रीअभय महाप्रश्नविद्याश्च-वाचैव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्यः मनःप्रश्वविद्याश्च-मनःप्रनितार्थोत्तरदायिन्यस्तासां देवतानि-तदधिवृत्तिः ठातृदेवतास्तेषां प्रयोगप्राधान्येन-तद्यापारप्रधानतया गुणं-विविधार्थसंवादनलक्षणं प्रकाशयन्ति-लोके व्यञ्जयन्ति ॥१२४॥ |यास्ता विविधमहाप्रश्नविद्यामनःप्रश्नविद्यादैवतप्रयोगप्राधान्यगुणप्रकाशिकास्तासां, पुनः किंभूतानांप्रश्नानां ?-सद्भूतेनतात्त्विकेन द्विगुणेन पुनः उपलक्षणत्वाल्लौकिकप्रश्नविद्याप्रभावापेक्षया बहुगुणेन पाठान्तरे विविधगुणेन प्रभावेन-माहात्म्येन नरगणमतेः-मनुजसमुदयबुद्धेविस्मयकार्य:-चमत्कारहेतवो याः प्रश्नास्ताः सद्भतद्विगुणप्रभावनरगणमतिविस्मयकार्यस्तासां, पुनः किंभूतानां तासां ?-'अतिसयमतीतकालसमयेति अतिशयेन योऽतीतः कालः समयः स तथा तत्र, अतिव्यवहिते काले इत्यर्थः, दमः-शमस्तत्प्रधानः तीर्थकराणां-दर्शनान्तरशास्तृणामुत्तमो यः स तथा भगवान्-जिनस्तस्य दमतीर्थकरोत्तमस्य स्थितिकरणं-स्थापनं, आसीद् अतीतकाले सातिशयज्ञानादिगुणयुक्तः सकल प्रणायकशिर शेखरकल्पः पुरुषविशेषः एवंविधप्रश्नानामन्यथानुपपत्तेरित्येवंरूपं, तस्य प्रतिष्ठापनस्य कारणानि-हेकातवो यास्तास्तथा तासां, पुनस्ता एव विशिनष्टि-दुरभिगम-दुःखबोधं गम्भीरं सूक्ष्मार्थत्वेन दुरवगाहं च-दुःखाध्येयं सूत्रबहुत्वाद्यत्तस्य सर्वेषां सर्वज्ञानां सम्मतं-इष्टं सर्वसर्वज्ञसम्मतं अथवा सर्व च तत्सर्वज्ञसम्मतं चेति सर्वसर्वज्ञसम्मतं ॥१२॥ For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनतत्त्वमित्यर्थः, तस्य अबुधजनविबोधनकरस्य एकान्तहितस्येति भावः ‘पञ्चक्खयपचयकराणं'ति प्रत्यक्षकेनज्ञानेन साक्षादित्यर्थो यः प्रत्ययः-सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनमित्येवंरूपाप्रति पत्तिः अथवा प्रत्यक्षेणेवानेनार्थाः प्रतीयन्त इति प्रत्यक्षमिवेदमित्येवं प्रत्ययः प्रत्यक्षकप्रत्ययस्तत्करणशीला:-प्रत्यक्षकप्रत्ययकार्यः प्रत्यक्षताप्रत्ययकार्यो वा तासां प्रत्यक्षकप्रत्ययकारीणां प्रत्यक्षताप्रत्ययकारीणां वा, कासामित्याह-प्रश्नानां-प्रश्वविद्यानां उपलक्षणत्वादन्यासां च यासामष्टोत्तरशतान्यादौ प्रतिपादितानि, विविधगुणा-बहुविधप्रभावास्ते च ते महार्थाश्च-महान्तोऽभिधेयाः-पदार्थाः शुभाशुभसूचनादयो विविधगुणमहार्थाः, किंभूता ?-जिनवरप्रणीताः, किमित्याह-आपविजंति'त्ति आख्यायन्ते शेषं पूर्ववत् , नवरं 'पणयालीस'मित्यादि यद्यपीहाध्ययनानां दशत्वादशैवोद्देशनकाला भवन्ति तथापि वाचनान्तरापेक्षया पञ्चचत्वारिंशदिति सम्भाव्यते इति 'पणयालीसमित्याद्यविरुद्धमिति. 'संखेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं'ति तानि च किल द्विनवतिर्लक्षाणि षोडश च सहस्राणीति ॥१०॥ से किं तं विवागसुयं ?, विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आपविजंति, से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहादुहविवागे चेव सुहविवागे चेव, तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि, से किं तंदुहविवागाणि ?, दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाइं वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आपविजंति, सेत्तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाणि ?, सुहविवागेसु सुइविवागाणं णगराई उजाणाई Jain Educationaksha For Personal & Private Use Only Linelibrary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा १४६ वि. पाकश्रुतं. यांगे श्रीअमय वृत्तिः ॥१२५॥ 5OCESSORCHES चेहयाई वषखंडा राबायो अम्मापियरी समोसरचाई धम्मायरिया धम्मकहाणो इहलोइयारलोइयाइडिविसमा मोबपरिचाया पर जाओ सुवपरिग्बहा तपोवहामाई परियाणा पडिमाको संलेहमाओ भत्तपरक्खापाई पागोषवमनाई देवलोधगमणाई सुकुलपचापाषा पुणवोहिलाहा अंतकिरियाओ य माधविनंति, दुहविवागेसु णं पाणाइवायअलिववयणचोरिककरणपरदारबेहुणससंगवाए महतिवकसाथईदियणमाषपाक्प्पओवासुहज्ज्ञवसाणसंचिवाणं कम्माणं पावमाणं पावअनुभागफलविवागा गिरवमतितिरिक्खजोणिबहुविहवसणसवपरंपरापबद्धार्थ मणुवसेवि बागया जहा पाक्कम्बसेसेण पावमा होन्ति फलविवागा वहनासमापिणासनालाकजुटुंगुटुकरचरणनहछेवणजिम्मछेअणअंजणकडग्गिदाहगयचलणमलपकालणउल्लंबणसूललयालउडलटिभंजणतउसीसमतत्ततेलकलकलअहिसिंचणकुंभिषागकंपणविरपंधणहचकत्तध्यपतिययकरकरपल्लीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अपोक्माणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा प नुवंति पावकम्मवलीए, अबेयइत्ता हु गस्थि मोक्खो तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण साहेणं तस्स बावि हुन्जा, एस्खे य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियमगुणतवोवाणेसु साहूसु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओगतिकालमइविसुद्धभत्तपापाइं पययमणसा हियसुहनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाइं जह य निव्वत्तेंति उ बोहिलामं जह य परित्तीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियट्टअरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं अन्नाणतमंधकारचिक्खिलसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु जह य अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोममागयाणं आउवषुपुण्णरूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा मित्तजणसयणधणधण्णविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाय सोक्खाण सुहविधागोत्तमेसु, अणु 4% ARANASI ॥१२५॥ jain Education HINI For Personal & Private Use Only M ainelibrary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरवपरंपराणुचद्धा वसुभाणं सुभाष चेव कम्मा भासिया बहुविन विवागा विषागसुवम्मि भगक्या जिणवरेण संवेगकारणस्था अन्नेवि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूषणया आपविजंति, विवानसुअस्स गं परित्ता वायणा संखेजा अनुओगदारा जाव संखेन्जाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए एक्कारसमे अंमे वीसं अजयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुद्देसणकाला, संखेजाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं प०, संखेजआणि अक्खराणि अणंता गमा अर्णता पजवा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आधविजंति, सेत्तं विवागसुए॥११॥ (सूत्रं १४६) 'से किं तमित्यादि, विपचनं विपाकः-शुभाशुभकर्मपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं विवागसुए ण'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'फलविपाके ति फलरूपो विपाकः फलविपाकः तथा 'नगरगमणाईति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थ नगरप्रवेशनानीति, एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह-'दुहविषागेसु ण'मित्यादि, तत्र प्राणातिपातालीकवचन-1 चौर्यकरणपरदारमैथुनैः सह 'ससंगयाए'त्ति या ससङ्गता-सपरिग्रहता तया संचितानां कर्मणामिति योगः, महातीनकषायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगाशुभाध्यवसायसञ्चितानां कर्मणां पापकानां पापानुभागा-अशुभरसा ये फलविपाका-विपाकोदयास्ते तथा ते आख्यायन्त इति योगः, केषामित्याह-निरयगतौ तिर्यग्योनौ च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः प्रबद्धाः ते तथा तेषां, जीवानामिति गम्यते, तथा 'मणुयत्तेत्ति मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेषेण पापका भवन्ति फलविपाका अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः, तथा आख्यायन्ते इति प्रकृतं, तथाहि-वधो-यष्ट्यादिताडनं वृषणविनाशो-वर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च ओष्ठस्य चाङ्गुष्ठानां च करयोश्च चरणयोश्च नखानां CONSC4 Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय १४६ विपाकश्रुतं. वृत्तिः ॥१२६॥ च यच्छेदनं तत्तथा जिहाछेदनं 'अंजण'त्ति अञ्जनं तप्तायःशलाकया नेत्रयोः म्रक्षणं वा देहस्य क्षारतैलादिना 'कडग्गिदाहणं'ति कटानां-विदलवंशादिमयानामग्निः कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनं, कटेन परिवेष्टितस्य बाधनमित्यर्थः, तथा गजचलनमलनं फालनं-विदारणं उल्लम्बनं-वृक्षशाखादावुद्वन्धनं तथा शूलेन लतया लकुटेन यष्ट्या च भञ्जनं गात्राणां तथा त्रपुणा-धातुविशेषेण सीसकेण च-तेनैव तप्तेन तैलेन च 'कलकल'त्ति सशब्देनाभिषेचनं तथा कुम्भ्यां-भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः कम्पनं-शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननं तथा |स्थिरबन्धनं-निबिडनियन्त्रणं वेधः-कुन्तादिना शस्त्रेण भेदनं वर्द्धकर्त्तनं-त्वगुत्रोटनं प्रतिभयकर-भयजननं तच तत् करप्रदीपनं च-वसनावेष्टितस्य तैलाभिषिक्तस्य करयोरग्निप्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च वधश्च वृषणविनाशश्चेत्यादि यावत्प्रतिभयकरकरप्रदीपनं चेति द्वन्द्वः, ततस्तानि आदिर्येषां दुःखानां तानि च तानि दारुणानि चेति ककर्मधारयः, कानीमानीत्याह-दुःखानि, किंभूतानि ?-अनुपमानि दुःखविपाकेष्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथेदमाख्यायते बहुविविधपरम्पराभिः दुःखानामिति गम्यते, अनुबद्धाः-सन्ततमालिङ्गिता बहुविधपरम्परानुबद्धा जीवा इति गम्यते न मुच्यन्ते-न त्यज्यन्ते, कया ?-पापकर्मवल्ल्या दुःखफलसम्पादिकया, किमित्याह-यतोऽवेदयित्वाअननुभूय कर्मफलमिति गम्यते हुर्यस्मादर्थे नास्ति-न भवति मोक्षो-वियोगः कर्मणः सकाशात्, जीवानामिति गम्यते, किं सर्वथा नेत्याह-तपसा-अनशनादिना किम्भूतेन ?-धृतिः-चित्तसमाधानं तद्रूपा 'धणिय'त्ति अत्यर्थ ॥१२६॥ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धा-निष्पीडिता कच्छा-बन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन, धृतिबलयुक्तेनेत्यर्थः, शोधनं-अपनयनं तस्य कर्मविशेषस्य | 'वावित्ति सम्भावनायां 'होजा' सम्पद्यत नान्यो मोक्षोपायोऽस्तीति भावः, 'एत्तो येत्यादि इतश्चानन्तरं सुखविपाकेषु द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनेष्वित्यर्थः यदाख्यायते तदभिधीयत इति शेषः, शीलं-ब्रह्मचर्य समाधिर्वा संयमः-प्राणातिपातविरतिनियमा-अभिग्रहविशेषाः गुणाः-शेषमूलगुणाः उत्तरगुणाश्च तपोऽनशनादि एतेषामुपधानं-विधानं येषां ते तथा अतस्तेषु शीलसंयमनियमगुणतपउपधानेषु, केष्वित्याह-साधुषु-यतिषु, किम्भूतेषु ?-सुष्टु विहितं-अनुष्ठितं येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादि दत्त्वा यथा बोधिलाभादि निवर्तयन्ति तथेहाख्यायत इति सम्बन्धः, इह च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दुष्टा, विषयस्य विवक्षणात्, अनुकम्पा-अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशयः-चित्तं तस्य प्रयोगो-18 व्यावृत्तिरनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन, तथा 'तिकालमति'त्ति त्रिषु कालेषु या मतिः-बुद्धिर्यदुत दास्यामीति परितोषो दीयमाने परितोषो दत्ते च परितोष इति सा त्रैकालिमतिस्तया च यानि विशुद्धानि तानि तथा तानि च तानि भक्तपानानि चेति अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्तपानानि प्रदायेति क्रियायोगः, केन प्रदायेत्याह-प्रयतमनसा-आदरभूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखहेतुत्वात् सुखः शुभो वा 'नीसेस'त्ति निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् तीव्रः-प्रकृष्टः परिणामः-अध्यवसानं यस्याः सा तथा सा निश्चिता-असंशया मतिः-बुद्धिर्येषां ते हितसुखनिःश्रेयसतीव्रपरिणामनिश्चितमतयः किं ?-पयच्छिऊणं'ति प्रदाय, किंभृतानि भक्तपानानि ?-प्रयोगेषु शुद्धानि दाय २२ सम० dan Education For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ विपाकश्रुतं. श्रीसमवा-2 कदानव्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोषरहितानि ग्राहकग्रहणव्यापारापेक्षया चोद्गमादिदोपवर्जितानि, ततः किं ?-| यांगे यथा च-येन च प्रकारेण पारम्पर्येण-मोक्षसाधकत्वलक्षणेन निवर्तयन्ति, भव्यजीवा इति गम्यते, तुशब्दो भाषाश्रीअभयद मात्रार्थः, बोधिलामं, यथा च परित्तीकुर्वन्ति-हसतां नयन्ति संसारसागरमिति योगः, किंभूतं ?-नरनिरयतिर्यक्सुवृत्तिः रगतिषु यजीवानां गमनं-परिभ्रमणं स एव विपुलो-विस्तीर्णः परिवों-मत्स्यादीनां परिवर्तनमनेकधा सञ्चरणं यत्र ॥१२७॥ स तथा, तथा अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वान्येव शैलाः-पर्वतास्तैः सङ्कटः-सङ्कीर्णो यः स तथा ततः कर्मधा-1 रयोऽतस्तं, इह च विपादो-दैन्यमानं शोकस्त्वाक्रन्दनादिचिह्न इति, तथा अज्ञानमेव तमोऽन्धकारं-महान्धकार | यत्र स तथा अतस्तं, 'चिक्खिलसुदुत्तारंति चिक्खिलं-कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खिलं-विषयधनखजनादिप्रतिबन्धस्तेन सुदुस्तरो-दुःखोत्तार्यो यः स तथा तं, तथा जरामरणयोनय एव संक्षुभितं-महामत्स्यमकराधनेकजलजन्तुजातसम्मर्दैन प्रविलोडितं चक्रवालं-जलपारिमाण्डल्यं यत्र स तथा तं, तथा पोडश कषाया एव खापदानि-मकरग्राहादीनि प्रकाण्डचण्डानि-अत्यर्थे रौद्राणि यत्र स तथा तं, अनादिकमनवदग्रमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निबध्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदानप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि, ततश्चकालान्तरेण च्युतानाम् 'इहेव'त्ति तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायुर्वेपुर्वर्ण रूपजातिकुलजन्मारोग्यबुद्धिमेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुषो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं ॥१२७॥ Bain Education For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है दीर्घत्वं च एवं वपुः-शरीरं तस्य स्थिरसंहननता वर्णस्योदारगौरत्वं रूपस्यातिसुन्दरता जातरुत्तमत्वं कुलस्याप्येवं जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकालौ निरावाधत्वं आरोग्यस्य प्रकर्षः बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका तस्याः प्रकृष्टता मेधा अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिस्तस्या विशेषः प्रकृष्टतैवेति, तथा मित्रजनः-सुहृल्लोकः खजनः-पितृपितृव्यादिः धनधान्यरूपो यो विभवोलक्ष्मीः स धनधान्यविभवस्तथा समृद्धेः-पुरान्तःपुरकोशकोष्ठागारबलवाहनरूपायाः सम्पदो यानि साराणि-प्रधानानि वस्तूनि तेषां यः समुदयः-समूहः स तथा इत्येतेषां द्वन्द्वस्तत एषां ये विशेषाः-प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां विशेषा इतीहापि सम्बन्धनीयं, शुभविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमास्तेषु जीवेष्विति गम्यं, इह चेयं षष्ठ्यर्थे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्ययनवाच्यानां साधूनामायुष्कादिविशेषाः शुभविपाकाध्ययनेष्वाख्यायन्ते इति प्रकृतं, अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये पुण्यपापविपाकरूपे प्रतिपाद्य तयोरेव योगपघेन ते आह-'अणुवरये' त्यादि, अनुपरता-अविच्छिन्ना ये परम्परानुबद्धाः-पारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के ?-विपाका इति योगः, केषां?-अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः क्रमेणैव च भाषिताः-उक्ता बहुविधा विपाकाः विपाकश्रुते एकादशाङ्गे भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः-संवेगहेतवो भावाः अन्येऽपि चैवमादिका आख्यायन्त इति पूर्वोक्तक्रियया वचनपरिणामाद्वोत्तरक्रियया योगः, एवं च बहुविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता आ Jain Education a l For Personal & Private Use Only R inelibrary.org Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः १४७१ष्टिवाद: ॥१२८॥ ख्यायन्त इति, शेषं कण्ठ्यं, नवरं संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च 2 लक्षाणि द्वात्रिंशच सहस्राणीति ॥ ११॥ से किं तं दिद्विवाए, ? दिठिवाए णं सव्वभावपरूवणया आघविजंति, से समासओ पंचविहे प० त०-परिकम्म सुत्ताई पुव्वयं अणुओगो चूलिया, से किं तं परिकम्मे ?-परिकम्मे सत्तविहे प० तं-सिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणियापरिकम्मे ओगाहणसेणियापरिकम्मे उवसंपजसेणियापरिकम्मे विप्पजहसेणियापरिकम्मे चुआचुअसेणियापरिकम्मे, से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ?, सिद्धसेणिआपरिकम्मे चोदसविहे प० तं०-माउयापयाणि एगट्ठियपयाणि पादोद्वपयाणि आगासपयाणि केउभूयं रासिबद्धं एगगुणं दुगुणं तिगुणं केउभूयं पडिग्गहो संसारपडिग्गहो नंदावतं सिद्धबद्धं, सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे, से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे ?, मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोद्दसविहे पण्णते, तं जहा-ताई चेव माउआपयाणि जाव नंदावत्तं मणुस्सबद्धं, सेतं मणुस्ससेणियापरिकम्मे, अवसेसा परिकम्माई पुट्ठाइयाइं एक्कारसविहाई पन्नत्ताई, इच्चेयाई सत्त परिकम्माई ससमइयाई सत्त आजीवियाई छ चउक्कणइयाइं सत्त तेरासियाई, एवामेव सपुव्वावरेणं सत्त परिकम्माई तेसीति भवंतीतिमक्खायाई, सेत्तं परिकम्माई, से किं तं सुत्ताई?, सुत्ताइं अट्ठासीति भवंतीतिमक्खाया, तंजहा-उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पञ्चइयं [विन(ज)यचरियं] अगंतरं परंपरं समाणं संजूहं [मासाणं] सं भिन्नं अहाच्चयं [अहव्वायं नन्द्यां] सोवत्थि(वत्तं) यं णंदावत्तं बहुलं पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूल्ढं सव्वओभदं पणाम[पस्सासंनन्यां] दुपडिग्गहं इच्चेयाई बावीसं सुत्ताई छिण्णछेअणइआई ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआईबावीसं सुत्ताई अछिन्नछेयनइयाइं आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई बावीसं सुत्ताइ तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडिए, इच्चे ॥१२८॥ Bain Education Internasional For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interasional आई बावीसं सुत्ताइं चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए, एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीति सुत्ताई भवतीतिमक्खयाई, सेत्तं सुत्ताई । से किं तं पुव्वगयं १, पुव्वगयं चउदसविहं पन्नत्तं, तंजहा - उप्पायपुव्वं अग्गेणीयं वीरियं अत्थिणत्थिष्पवायं नाणप्पवायं सच्चप्पवायं आयप्पवायं कम्मप्पवायं पच्चक्खाणप्पवायं विजाणुप्पवायं अवंश ० पाणाऊ० किरियाविसालं लोगबिंदुसारं १४, उष्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू प० चत्तारि चूलियावत्थू प०, अग्गेणियस्स णं पुव्वस्स चोद्दस वत्थू बारस चूलियावत्थू, वीरियपवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठ वत्थू अट्ठ चूलियावत्थू प०, अत्थिणत्थिष्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू दस चूलियावत्थू प०, नाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू प०, सच्चप्पवायस्स णं पुव्वस्स दो वत्थू प०, आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू प०, कम्मप्पवायपुव्वस्स तीसं वत्थू प०, पञ्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू प०, विजाणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पनरस वत्थू प०, अवंझस्स णं पुव्वस्सबारस वत्थू प०, पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू प०, किरियाविसालस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू प०, लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणवीसं वत्थू प०, दस चोद्दस अट्ठट्ठारसे व बारस दुवे य वत्थूणि । सोलस तीसा वीसा पन्नरस अणुप्पवायंमि ॥ १ ॥ बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पनवीसाओ ॥ २ ॥ चत्तारि दुवालस अट्ठचैव दस व चूलवत्थूणि । अतिल्लाण चउन्हं सेसाणं चूलिया णत्थि ॥ ३ ॥ सेत्तं पुव्वगयं, से किं तं अणुओगे ?, अणुओगे दुविहे पन्नत्ते, तंजा - मूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य, से किं तं मूलपढमाणुओगे ?, एत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवा देवलोगगमणाणि आउंचवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पव्वज्जाओ तवा य भत्ता केवलणाणुप्पाया अतित्थपवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउं वन्नविभागो सीसा गणा गणहरा य अज्जा पवत्तणीओ संघस्स चउन्विहस्स जं वावि For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ASE ष्टिवादः ॥१२९॥ परिमाणं जिणमणपजवओहिनाणसम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पाओवगआ य जे जहिं जत्तियाई भत्ताइ छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तमरओघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमाइया भावा मूलपढमाणुओगे कहिआ आघविजंति पण्णविजंति परू० सेत्तं मूलपढमाणुओगे, से किंतं गंडियाणुओगे?, अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-कुलगरगंडियाओ तित्थगरगंडियाओ गणहरगंडियाओ चक्कहरगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओ वासुदेवगंडियाओ हरिवंसगंडियाओ भद्दबाहुगंडियाओ तवोकम्मगंडियाओ चित्तंतरगंडियाओ उस्सप्पिणीगंडियाओ ओसप्पिणीगंडियाओ अमरनरतिरियनिरयगइगमणविविहपरियट्टणाणुओगे, एवमाइयाओ गंडियाओ आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति, सेत्तं गंडियाणुओगे, से किं तं चूलियाओ ?, जण्णं आइलाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुवाई अचूलियाई, सेत्तं चूलियाओ, दिहिवायस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखजाओ पडिवत्तीओ संखेजाओ निज्जुत्तीओ संखेजा सिलोगा संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगट्टयाए बारसमे अंगे एगे सुयखंधे चउद्दस पुत्वाइं संखेजा वत्थू संखेजा चूलवत्थू संखेजा पाहुडा संखेजा पाहुडपाहुडा संखेजाओ पाहुडियाओ संखेजाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पन्नत्ता, संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पन्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आधविजंति, सेत्तं दिठिवाए, सेतं दुवालसंगे गणिपिडगे ॥१२॥ (सूत्रं १४७) 'से किं तं दिद्विवाए'त्ति दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीना वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः ॥१२९॥ Jain Education Internationa For Personal & Private Use Only ww.jainelibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह-'दिट्ठिवाए णमित्यादि, दृष्टिवादेन दृष्टिपातेन वा सर्वभावप्ररूपणाऽऽख्यायते, ‘से समासओ पंचविहे' इत्यादि सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि यथादृष्टं किमपि लिख्यते, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकाणि गणितपरिकर्मवत्, तच्च परिकर्मश्रुतं सिद्धश्रेणिकादिपरिकर्म-18 मूलभेदतः सप्तविधं, उत्तरभेदतस्तु त्र्यशीतिविधं मातृकापदादि, एतच सर्व समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नं, एतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकाणि खसामयिकान्येव, गोशालकप्रवर्त्तिताजीविकपाखण्डिकसिद्धातमतेन पुनः च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्मसहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते, इदानीं परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नैगमो द्विविधः-साङ्घाहिकोऽसाङ्घाहिकश्च, तत्र साझाहिकः सङ्ग्रहं प्रविष्टोऽसाझाहिकश्च व्यवहारं, तस्मात्सङ्ग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नयाः, एतैश्चतुर्भिर्नयैः षट् खसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं 'छ चउक्कनयाईति भवन्ति, त एव चाजीविकास्त्रैराशिका भणिताः, कस्माद् ?, उच्यते, यस्मात्ते सर्व व्यात्मकं इच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवः लोकोऽलोको लोकालोकः सत् असत् सदसत् इत्येवमादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति, तद्यथा-द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः उभयार्थिकः, अतो भणितं 'सत्त तेरासिय'त्ति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाखण्डिकास्त्रिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः, 'सेत्तं परिकम्मे'त्ति निगमनं, 'से किं तं सुत्ताई'मित्यादि, तत्र सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि अष्टाशीत्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नानि SCAPACER Jain Education For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगे ष्टिवादः वृत्तिः श्रीसमवा तथापि दृष्टानुसारतः किञ्चिलिख्यते, एतानि किल ऋजुकादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि, तान्येव विभागतोऽष्टाशीति भवन्ति, कथम् ?, उच्यते, 'इचेइयाई बावीसं सुत्ताई छिन्नछेयनइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए'त्ति इह यो नयः सूत्रं श्रीअभय छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयो यथा “धम्मो मंगलमुक्किट"मित्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः प्रत्येकच्छेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकमपेक्षते, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एतान्येव द्वाविंशतिः खसमयसूत्रपरिपाट्या सूत्राणि स्थितानि, ॥१३०॥ तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदनयिकान्याजीविकसूत्रपरिपाट्येति, अयमर्थः-इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो यथा 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ'मित्यादि श्लोक एवार्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणो द्वितीयादयश्च प्रथममिति अन्योऽन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एतानि द्वाविंशतिराजीविकगोशालकप्रवर्तितपाखण्डसूत्रपरिपाट्या अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योऽन्यमपेक्षमाणानि भवन्ति, 'इचेइयाई' इत्यादि सूत्रं, तत्र 'तिकनइयाई' ति नयत्रिकाभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इत्यर्थस्त्रैराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते इति, तथा 'इचेइयाई' इत्यादि सूत्र, तत्र ६'चउक्कनइयाईति नयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इति भावना, ‘एवमेवे'त्यादिसूत्रं, एवं चतस्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः है। सूत्राणि भवन्ति 'सेत्तं सुत्ताईति निगमनवाक्यं, से किंतं पुवगर्य' इत्यादि, अथ किं तत् पूर्वगतं ?, उच्यते, यस्मात्ती- र्थकरः तीर्थप्रवर्तनाकाले गणधराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थ भाषते तस्मात्पूर्वाणीति भणितानि, गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमहता | SHRSHA ॥१३०॥ Jain Educa For Personal & Private Use Only againelibrary.org Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैभाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्व रचितं पश्चादाचारादि, नन्वेवं यदाचारनियुक्त्यामभिहितं 'सव्वेसिं आयारो // पढमो' इत्यादि तत्कथम्?, उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनांप्रतीत्य भणितं पूर्व पूर्वाणि कृतानीति, तच पूर्वगतं चतुदर्शविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'उप्पाये'त्यादि, तत्रोत्पादपूर्व प्रथम, तत्र च सर्वद्रव्याणां पर्यवाणां चोत्पादभावमङ्गीकृत्य प्रज्ञापना कृता, तस्य च पदपरिमाणमेका कोटी, अग्गेणीयं द्वितीयं, तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्यवाणां जीवविशेषाणां चाग्रं-परिमाणं वर्ण्यत इत्यग्रेणीयं तस्य पदपरिमाणं षण्णवतिः पदशतसहस्राणि, 'पीरियं'ति वीर्यप्रवाई तृतीयं, तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मेतराणां वीर्य प्रोच्यत इति वीर्यप्रवादं, तस्यापि सप्ततिः पदशतसहस्राणि परिमाणं, अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थ, यद्यलोके यथास्ति यथा वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदेवास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति अस्तिनास्तिप्रवादं भणितं, तदपि पदपरिमाणतः षष्टिः पदशतसहस्राणि, ज्ञानप्रवादं पञ्चमं, तस्मिन् मतिज्ञानादिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात् कृता तस्मात् ज्ञानप्रवाद, तस्मिन् पदपरिमाणमेका कोटी एकपदो नेति, सत्यप्रवादं पष्ठं सत्यं-संयमः सत्यवचनं वा तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत्सत्यप्रवादं, तस्य पदपरिमाणं ६ एका पदकोटी षट् च पदानीति, आत्मप्रवादं सप्तमं 'आय'त्ति आत्मा सोऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्र-13 वादं, तस्य पदपरिमाणं षड्विंशतिः पदकोट्यः कर्मप्रवादमष्टमं ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्मप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशादिभिर्भेदैरन्यैश्चोत्तरोत्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत्कर्मप्रवाद, तत्परिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च सहस्राणीति, प्रत्या-| Jain Education s For Personal & Private Use Only netbrary.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥१३१॥ Jain Education 1 ख्यानं नवमं तत्र सर्व प्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यत इति प्रत्याख्यानप्रवादं तत्परिमाणं चतुरशीतिः पदशतसहस्राणीति, विद्यानुप्रवादं दशमं तत्रानेके विद्यातिशया वर्णितास्तत्परिमाणमेका पदकोटी दश च पदशतसहस्राणीति, अवन्ध्यमे कादर्श, वन्ध्यं नाम निष्फलं न वन्ध्यमवन्ध्यं सफलमित्यर्थः, तत्र हि सर्वे ज्ञानतपःसंयमयोगाः शुभफलेन सफला वर्ण्यन्ते अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला वर्ण्यन्ते अतोऽवन्ध्यं तस्य च परिमाणं षडूविंशतिः पदकोटयः, प्राणायुर्द्वादशं तत्राप्यायुः प्राणविधानं सर्वं सभेदमन्ये च प्राणा वर्णितास्तत्परिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच पदशतसहस्राणीति, क्रियाविशालं त्रयोदशं तत्र कायिक्यादयः क्रिया विशालत्ति - सभेदाः संयमक्रिया छन्दक्रिया विधानानि च वर्ण्यन्त इति क्रियाविशालं, तत्पदपरिमाणं नव पदकोट्यः, लोकविन्दुसारं च चतुर्दशमं तचास्मिन् | लोके श्रुतलोके वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं भणितं, तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदश पदकोट्य इति । ' उपाय पुवस्से त्यादि कण्ठ्यं, नवरं वस्तु नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवदिति, तथा चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्म्मसूत्रपूर्वगतानुयोगोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहपरा ग्रंथपद्धतयश्रूडा इति, 'सेत्तं पुत्रगते' त्ति निगमनं, 'से किं तमित्यादि, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः, स च द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मूलप्रथमानुयोगश्च गण्डिकानुयोगश्च, 'से किं तमि त्यादि, इह धर्म्मप्रणयनात् मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमसम्यक्त्वासिलक्षणपूर्व भवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानु For Personal & Private Use Only १४७ ह ष्टिवादः ॥१३१॥ nelibrary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगः, तथा चाह-से किं तं मूलपढमाणुओगे' इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् ‘सेत्तं मूलपढमाणुओगे', 'से किं तमित्यादि इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोगः-अर्थकथनविधिः गण्डिकानुयोगः, तथा चाह-'गंडियाणुओगे अणेगे'त्यादि, तत्र कुलकरगण्डिकासु कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वजन्माद्यभिधीयत इति, एवं शेषाखपि अभिधानवशतो भावनीयं, यावत् चित्रान्तरगण्डिकाः, नवरं दशार्हाः-समुद्रविजया-18 दयो दश वसुदेवान्ताः तथा चित्रा-अनेकार्था अन्तरे-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे गण्डिका-एकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतास्ततश्च चित्राश्च ता अन्तरगण्डिकाश्च चित्रान्तरगण्डिकाः, एतदुक्तं भवति-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरगण्डिका इति, ताश्च 'चोदसलक्खा सिद्धा निवईणेको य होइ सबढे । एवेकेकट्ठाणे पुरिसजुगा हुंति संखेजे ॥१॥' त्यादिना ग्रन्थेन नन्दिटीकाया मभिहितास्तत एवावधार्याः, इह सूत्रगमनिकामात्रस्य विवक्षितत्वादिति, शेषं सूत्रसिद्धमानिगमनात् , नवरं 'संखेजा । वत्थु'त्ति पञ्चविंशत्युत्तरे द्वे शते 'संखेजा चूलवत्थुत्ति चतुस्त्रिंशत् ॥ १२॥ साम्प्रतं द्वादशाङ्गे विराधनानिष्पन्नं कालिकं फलमुपदर्शयन्नाहइच्चेइयं दुगालसंग गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटिंसु इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटृति इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं COCCASSACREASONICALCCAX dan Education Inter For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय ० वृति: ॥१३२॥ Jain Education अणागए काले अनंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिस्संति, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं वीईवइंसु एवं पडुप्पण्णेऽवि एवं अणागएवि, दुवालसंगे णं गणिपिsaण कयावि णत्थि कयाइ णासी ण कयाइ ण भविस्सइ भुविं च भवति य भविस्सति य धुवे णितिए सासए अक्खए अश्वए safe fu से जहा णामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सति भुविं च भवति य भविस्सति य धुवा णितिया सासया अक्खया अवया अवट्टिया णिच्चा एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुविं च भवति य भविस्सइ य धुवे जाव अवट्ठिए णिचे, एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अनंता भावा अणंता अभावा अनंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा अणंता अकारणा अणंता जीवा अनंता अजीवा अणंता भवसि - द्धिया अनंता अभवसिद्धिया अनंता सिद्धा अनंता असिद्धा आघविजंति पण्णविअंति परूविअंति दंसिजंति निदंसिजंति उवदंसिअंति, एवं दुवालसँगं गणिपिडगं इति ( सूत्रं १४८ ) 'इच्चेय'मित्यादि, इत्येतद्द्वादशाङ्गं गणिपिटकमतीतकाले अनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसार कान्तारं 'अणुपरियर्द्विसु 'त्ति अनुपरिवृत्तवन्तः, इदं हि द्वादशाङ्गसूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं ततश्च आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनि| वेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं नारकतिर्यग्नरामरविविधवृक्ष| जालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत् अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया For Personal & Private Use Only १४८ गणि पिटकवि राधनाराधनाफलं. | ॥१३२॥ inelibrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोष्ठामाहिलवत उभयाज्ञया पुनः पञ्चविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगुवोदेशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलि धार्यनेकश्रमणवत् सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षमागमोक्तानुष्ठानमेवाज्ञा तया तदकरणेनेत्यर्थः, 'इचेय'मित्यादि गतार्थमेव, नवरं 'परित्ताजीवा' इति संख्येया जीवाः, वर्तमाने विशिष्टविराधकमनुष्यजीवानां संख्येयत्वात् 'अणुपरियदृति'त्ति अनुपरावर्त्तन्ते भ्रमन्तीत्यर्थः, 'इचेय'मित्यादि इदमपि भावितार्थमेव, नवरम् 'अणुपरियट्टिस्संति'त्ति अनुपरावर्तिष्यन्ते पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः, 'इच्चेय'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'विइवइंसुत्ति व्यतित्रजितवन्तः चतुर्गतिकसंसारोलबनेन मुक्तिमवाप्सा इत्यर्थः, एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, नवरं अयं विशेषः-'विइवयंति'त्ति व्यतिब्रजन्ति-व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः, अनागतेऽप्येवं, नवरं वीइवइस्संति'त्ति व्यतित्रजिष्यन्ति-व्यतिक्रमिष्यन्तीत्यर्थः, यदिदमनिप्टेतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत्सदावस्थायित्वे सति द्वादशाङ्गस्योपजायत इत्याह-'दुवालसंगे' इत्यादि, द्वादशाङ्गं णमित्यलङ्कारे गणिपिटकं न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् न कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात्, किं तर्हि ?, 'भुविं चेत्यादि अभूच भवति च भविष्यति च, ततश्चेदं त्रिकालभावित्वादचलं अचलत्वाच ध्रुवं मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव नियतं पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत् नियतत्वादेव शाश्वतं समयावलिकादिषु का-18 लवचनवत् शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं गङ्गासिन्धुप्रवाहेऽपि पद्मइदवत् अक्षयत्वादेवाव्ययं मानुषोत्तराद्वहिः समुद्रवत् अव्ययत्वादेव खप्रमाणेऽवस्थितं जम्बूद्वीपादिवत् अवस्थितत्वादेव नित्यमाकाशवदिति, साम्प्रतं दृष्टा २३ सम. Jain Education.inand For Personal & Private Use Only IMinelibrary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TE १४८ द्वादशाझ्या श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः राधनविराधनाफलं. ॥१३३॥ AAAAAA न्तमत्रार्थे आह–से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा नाम पञ्चास्तिकाया-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासन्नित्यादि प्राग्वत् , 'एवमेवे'त्यादि दार्टान्तिकयोजना निगदसिद्धैवेति । 'एत्थ णमित्यादि अत्र द्वादशाङ्गे गणिपिटके अनन्ता भावा आख्यायन्त इति योगः, तत्र भवन्तीति भावा-जीवादयः पदार्थाः, एते च जीवपुद्गलानामनन्तत्वादनन्ता इति, तथा अनन्ता अभावाः, सर्वभावानामेव पररूपेणासत्त्वात्त एवानन्ता. अभावा इति, खपरसत्ताभावाभावोभयाधीनत्वाद्वस्तुतत्त्वस्य, तथाहि-जीवो जीवात्मना भावोऽजीवात्मना चाभावोऽन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गादिति, अन्ये तु ध आपेक्षया अनन्ता भावाः अनन्ता अभावाः (च) प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते, तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्ते चानन्ताः, वस्तुनोऽनन्तधात्मकत्वात् , तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच हेतोः सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः, तथा अनन्तानि कारणानि मृत्पिण्डतन्त्वादीनि घटपटादिनिवर्तकानि, तथा अनन्तान्यकारणानि सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात् ,नहि मृत्पिण्डः पटं निवर्तयतीति, तथा अनन्ता जीवाः-प्राणिनः एवमजीवाः-घणुकादयःभवसिद्धिका-भव्याः सिद्धा-निष्ठितार्था इतरे-संसारिणः, आघविजंती'त्यादि पूर्ववदिति । द्वादशाङ्गस्य खरूपमनन्तरमभिहितमथ तदभिधेयस्य राशिद्वयान्तर्भावतः खरूपमभिधित्सुराह| दुवे रासी पन्नत्ता, तंजहा जीवरासी अजीवरासी य, अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूवीअजीवरासी अरूवीअजीवरासी ॥१३॥ dain Education international For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425% ROCCARO SCHUSALMANASACRECIRG य, से किं तं अरूवी अजीवरासी?, अरूविअजीवरासी दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए, रूवीअजीवरासी अणेगविहा०प० जाव से किं तं अणुत्तरोववाइआ ?, अत्तणुरोववाइआ पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-विजयवेजयंतजयंतअपराजितसव्वद्वसिद्धिआ, सेत्तं अणुतरोववाइआ, सेत्तं पंचिंदियसंसारसमावण्णजीवरासी, दुविहा णेरइया पन्नत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपज्जत्ता य, एवं दंडओ भाणियब्वो जाव वेमाणियत्ति, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णता ?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठसत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया, ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया असुभाओ णिरएसु वेयणाओ, एवं सत्तवि भाणियव्वाओ जं जासु जुज्जइ-'आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अहुत्तरमेव बाहलं ॥१॥ तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई । तिण्णेगं पंचूणं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥२॥ चउसही असुराणं चउरासीइं च होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्नाण वाउकुमाराण छण्णउइ ॥३॥ दीवदिसाउदहीणं विजकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुवलयाणं बावत्तरिमो य सयसहसा ॥४॥ बत्तीसट्ठावीसा बारस अड चउरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥५॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणचुए तिन्नि । सत्त विमाणसयाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥६॥ एक्कारसुत्तरं हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥७॥ दोचाए णं पुढवीए तचाए णं पुढवीए चउत्थीए पुढवीए पंचमीए पुढवीए छट्ठीए पुढवीए सत्तमीए पुढवीए गाहाहिं भाणियब्वा, सत्तमाए पुढवीए पुच्छा, गोयमा ! सत्तमाए HASKARN945%AA%. Jain Education in For Personal & Private Use Only elibrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायोग श्रीअभय ० वृत्ति: ॥१३४॥ Jain Educatio पुढवीए अद्भुत्तरजोयणसयसहस्साई बाहल्लाए उवरि अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता हेट्ठावि अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साई वजित्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे नामं पंचमे, ते णं निरया वट्टे य तंसा य अहे खुरप्पसंठाणसंठिया जाव असुभा नरगा असुभाओ नरपसु वेयणाओ ( सूत्रं १४९ ) इह च प्रज्ञापनायाः प्रथमपदं प्रज्ञापनाख्यं सर्वं तदक्षरमध्येतव्यं, किमवसानमित्याह - 'जाव से किं तमित्यादि, केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चायं विशेषः, इह 'दुवे रासी पण्णत्ता' इत्यभिलापसूत्रं (तत्र) तु 'दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता - | जीवपणवण्णा अजीवपण्णवणा य'त्ति, अतिदिष्टस्य च सूत्रतः सर्वस्य प्रज्ञापनापदस्य लेखितुमशक्यत्वादर्थतस्तलेश उपदर्श्यते-तत्राजीवराशिर्द्विविधो रूप्यरूपिभेदात्, तत्रारूण्यजीवराशिदेशधा-धर्मास्तिकायस्तद्देशास्तत्प्रदेशश्चेत्येवमधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायावपि वाच्यावेवं नव दशमोऽद्धासमय इति, रूप्यजीवराशिचतुर्द्धा -स्कन्धा देशाः प्रदेशाः परमाणवश्चेति, ते च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदतः पञ्चविधाः संयोगतोऽनेकविधा इति । जीवराशिर्द्विविधः संसारसमापन्नोऽसंसारसमापन्नश्च तत्रासंसारसमापन्ना जीवा द्विविधाः अनन्तर परम्पर सिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशप्रकाराः, परम्परसिद्धास्त्वनन्तप्रकारा इति, संसारसमापन्नास्तु पञ्चधैकेन्द्रियादिभेदेन तत्रैकेन्द्रियाः पञ्चविधाः पृथिव्यादिभेदेन, पुनः प्रत्येकं द्विविधाः - सूक्ष्मवादरभेदेन, पुनः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विधा, एवं द्वित्रिचतुरिन्द्रिया Jonal For Personal & Private Use Only १४९ रा शिप्रज्ञाप नास्था नानि. ॥१३४॥ jainelibrary.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपि, पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्द्धा नारकादिभेदात्, तत्र नारकाः सप्तविधाः रत्नप्रभादिपृथ्वीभेदात् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रिधाजलस्थलखचरभेदात्, तत्र जलचराः पञ्चविधा मत्स्यकच्छपग्राहमकरसुंसुमारभेदात् पुनर्मत्स्या अनेकधा - लक्ष्णमत्स्यादिभेदात्, कच्छपा द्विधा अस्थिकच्छपमांसकच्छपभेदात्, ग्राहाः पञ्चधा दिलिवेष्टकमगुपुलक सीमाकारभेदात् मकरा - मत्स्यविशेषा द्विविधाः - शुण्डामकरा करिमकराश्च, सुंसुमारास्त्वेकविधाः, स्थलचरा द्विधा - चतुष्पदपरिसर्पभेदात्, तत्र चतुष्पदाश्चतुर्द्धा - एकखुरद्विखुरगण्डी पदसनखपदभेदात् क्रमेण चैते अश्वगोहस्तिसिंहादयः, परिसर्पा द्विधा - उरः परिसर्प भुजपरिसर्पभेदात्, उरः परिसर्पाश्चतुर्द्धा - अहिअजगराशालिकमहोरगभेदात्, तत्राहयो द्विधा - दर्वीकरा मुकुलिनश्चेति, खचराश्चतुर्द्धा - चर्मपक्षिणो लोमपक्षिणः समुद्गपक्षिणो विततपक्षिणश्च तत्राद्यौ द्वौ वल्गुलीहंसादिभेदावितरौ द्वीपान्तरेष्वेव स्तः, सर्वे च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च द्विधा सम्मूर्च्छिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च तत्र संमूच्छिमाः नपुंसका एव, इतरे तु त्रिलिङ्गा इति, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिधा - कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा अन्तरद्वीपजाश्चेति, कर्म्मभूमिजा द्विविधाः - आर्या म्लेच्छाथ, आर्या द्वेधा-ऋद्धिप्राप्ता इतरे च, तत्र प्रथमा अर्हदादयः, द्वितीया नवविधाः - क्षेत्रजातिकुलकर्मशिल्पभाषाज्ञानदर्शन चारित्रभेदात्, देवाश्चतुर्विधाः भवनवास्यादिभेदाद्भवनपतयो दशधा असुरनागादयः व्यन्तरा अष्टविधा पिशाचादयः ज्योतिष्काः पञ्चधा चन्द्रादयः वैमानिका द्विधाकल्पोपगाः कल्पातीताश्च, कल्पोपगा द्वादशधा सौधर्मादिभेदात्, कल्पातीता द्वेधा - मैवेयका अनुत्तरोपपातिकाश्च Jain Educationonal For Personal & Private Use Only Rainelibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे श्रीअभय वृतिः वेयका नवधा अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चधेति, एतत्समस्तं सूचयतोक्तं 'जाव से किं तं अणुत्तरे'त्यादि, पूर्वोक्तमेव | १४९ राण्डकक्रमेण द्विधा दर्शयन्नाह-'दुविहे'त्यादि, सुगमं नवरं 'दण्डओ'त्ति 'नेरइया १ असुराई १० शिप्रज्ञापबेइंदियादओ४ मणुया ११वंतर १ जोइस १ वेमाणिया य१अह दंडओ एवं ॥१॥ अथानन्तरं प्रज्ञप्तानां नारका नास्थादीनां पर्याप्तापर्याप्तभेदानां स्थाननिरूपणायाह-'इमीसे णमित्यादि, अवगाहनासूत्रादाक् सर्व कण्ठ्यं, नवरं 'ते णं नानि. निरया' इत्यादि, अत्र च जीवाभिगमचूर्ण्यनुसारेण लिख्यते-किल द्विविधा नरका भवन्ति आवलिकाप्रविष्टाः आवलिकाबाह्याश्च, तत्रावलिकाप्रविष्टा अष्टासु दिक्षु भवन्ति, ते च वृत्तव्यस्रचतुरस्रक्रमेण प्रत्यवगन्तव्याः, एतेषां च मध्ये इन्द्रकाः सीमन्तकादयो भवन्ति, आवलिकाबाह्यास्तु पुष्पावकीर्णा दिविदिशामन्तरालेषु भवन्ति, नानासंस्थानसंस्थिता इति निरयसंस्थानव्यवस्था, तत्र च बाहुल्यमङ्गीकृत्येदमभिधीयते-'अंतो वट्टे' त्यादि, उक्तंच सूत्रकृत्तिकता-"नारकाः सीमन्तकादिका बाहुल्यमंगीकृत्यान्तः-मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधश्च क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, एतच संस्थानं पुष्पावकीर्णकानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात् , आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्तव्यस्रचतुरस्रसंस्थाना भवन्ती"ति, तत्रान्तवृत्ता मध्ये शुषिरमाश्रित्य बहिश्च चतुरस्रा कुड्यपरिधिमाश्रित्य, यावत्करणादिदं दृश्यं यदुत अधः अधः ॥१३५॥ क्षरप्रसंस्थानसंस्थिताः-भूतलमाश्रित्य क्षुरप्राकारास्तद्भतलस्य संचारिसत्त्वपादच्छेदकत्वात् अन्ये वाहुः-तेषामधस्तनांशः क्षुरप्र इवाग्रेऽग्रे प्रतलो विस्तीर्णश्चेति क्षुरप्रसंस्थानता, तथा निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइस AAAAS Jain Education int o nal For Personal & Private Use Only ww.jainelibrary.org Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALSANDSAMACROSAMEEDO प्पहा मेयवसापूयरहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुन्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दरहियासा' इति तत्र नित्यं-सर्वदा अन्धकार-अन्धत्वकारकं बहलबलाहकपटलाच्छादितगगनमण्डलामावास्थार्द्धरात्रान्धकारवत्तमः-तमिस्रं येषु ते नित्यान्धकारतमसः, अथवा नित्येनान्धकारेण सार्वकालिकेनेत्यर्थः तमसःतमिस्रा नित्यान्धकारतमसः, जात्यन्धमेद्यान्धकारामावास्यानिशीथतुल्या इत्यर्थः, कथमित्यत आह–व्यपगता-अविद्यमाना ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां-ज्योतिष्कलक्षणविमानविशेषाणां ज्योतिषो वा-दीपाद्यग्नेः प्रभाप्रकाशो येषु ते तथा, 'पह'त्ति पथशब्दो वाऽयं व्याख्येयः, तथा मेदोवसापूयरुधिरमांसानि शरीरावयवास्तेषां यच्चिक्खिलं-कर्दमस्तेन लिप्त-उपदिग्धमनुलेपनेन सकृल्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं-भूमिका येषां ते मेदोवसापूयरु|घिरमांसचिक्खिल्ललिप्सानुलेपनतलाः, यद्यपि च तत्र मेदःप्रभृतीन्यौदारिकपञ्चेन्द्रियशरीरावयवरूपाणि न सन्ति वैक्रियशरीरत्वान्नारकाणां तथापि तदाकारास्तदवयवास्तत्र प्रोच्यन्त इति, अशुचयो विश्राः-आमगन्धयः पूतिगन्धय इत्यर्थः, अत एव परमदुरभिगन्धाः 'काऊअगणिवण्णाभत्ति कृष्णाग्निर्लोहादीनां ध्मायमानानां तद्वर्णवदाभा येषां ते कृष्णाग्निवर्णाभाः, तथा कर्कशः स्पर्शो येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव दुःखेन-कृच्छ्रेणाधिसोढुं शक्यते वेदना येषु ते 8 दुरधिसह्याः, अत एवाशुभा नरका अशुभा नरकेषु वेदना इति एवं सत्तवि भाणिय'त्ति प्रथमाममुञ्चता सप्त इत्युक्तं, 'जं जासु जुजई'त्ति यच्च यस्यां पृथिव्यां बाहलयस्य नरकाणां च परिमाणं युज्यते स्थानान्तरोक्तानुसारेण तच्च तस्यां Jain Education a l For Personal & Private Use Only A nelibrary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः १४९ रा. शिप्रज्ञापनास्था नानि. ॥१३६॥ वाच्यं, तचेदं-'आसीतं' गाहा'तीसा य' गाहा अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षं रत्नप्रभायां बाहल्यमेवं शेषासु भावनीयं, तथा त्रिंशल्लक्षाणि प्रथमायां नरकावासानामित्येवं शेषाखपि नेयमिति, आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि दशानां सौधर्मादीनां च कल्पेतराणां सूत्रैर्वक्ष्यतीति, तन्निवासपरिमाणसङ्ग्रहे 'चउसट्ठी' इत्यादि गाथाः पञ्च, एवं चैव सूत्राभिलापो दृश्यः, 'सक्करप्पभाए णं पुढवीए केवइयं ओगाहित्ता केवइया निरया पण्णत्ता ?, गोयमा ! सकरप्पभाए गं पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं पणवीसं निरयावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खाया, ते णं निरया' इत्यादि, एवं गाथानुसारेणान्येऽपि पञ्चालापका वाच्या इति, एतदेवाह-'दोचाए' इत्यादि 'वेयणाओं' इत्येतदन्तं सुगम, नवरं 'गाहाहिति गाथाभिः करणभूताभिर्गाथानुसारेणेत्यर्थः, भणितव्या-वाच्या नरकवासा इति प्रक्रमः, तथा 'चट्टे यतंसा यत्ति मध्यमो वृत्तः शेषाख्यत्रा इति, अथासुराद्यावासविषयमभिलापं दर्शयति केवइया णं भंते ! असुरकुमारावासा प० १, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेहा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा प०, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पोक्खरकण्णिआसंठाणसंठिया उक्किणं 152554555555 ॥१३६॥ For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरविउलगंभीरखायफलिहा अट्टालयचरियदारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारेदसभागा जंतमुसलमुसंढिसयग्धिपरिवारिया अउज्झा अडयालकोहरइया अडयालकयवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झंतधूवमघमतगंधुदुयाभिरामा सुगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पमा समिरीया सउज्जोआ पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा, एवं जं जस्स कमती तं तस्स जंजं गाहाहिं भणियं तह चेव वण्णओ। केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावासा प०१, गोयमा! असंखेजा पुढवीकाइयावासा प०, एवं जाव मणुस्सत्ति, केवइया णं भंते ! वाणमंतरावासा प०१, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वजेत्ता मज्झे अहसु जोयणसएसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजा नगरावाससयसहस्सा ५०, ते णं भोमेजा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा, एवं जहाँ भवणवासीणं तहेव णेयव्वा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ केवइया णं भंते! जोइसियाणं विमाणावासा प०१, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाई जोयणसयाई उड्डे उप्पइत्ता एत्थ णं दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंखेजा जोइसियविमाणावासा प०, ते णं जोइसियविमाणावासा अब्भुग्गयमूसियपहसिया विविहरमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्दयविजयवेजयंतीपडागछत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयणपञ्जरुम्मिलियब्व मणिकणगथूभियागा वियसियसयपत्तपुण्डरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ता अंतो बाहिं च सण्हा तवणिजवालुआपत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा ॥ Jain Educatiorial For Personal & Private Use Only Alnelibrary.org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय पूचिः वर्णनम्. ॥१३७॥ केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा प०?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उ8 चंदिमसू १५० भरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं वीइवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि (बहूणि जोयणसयसह वनादिस्साणि) बहुइओ जोयणकोडीओ बहुइओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ उद्दुदूरं वीइवइत्ता एत्थ णं विमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअचुएसु गेवेजगमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया, ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाभा अरया नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्टा मट्ठा णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा । सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता?, गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं ईसाणाइसु अट्ठावीस बारस अट्ठ चत्तार एयाइ सयसहस्साइं पण्णासं चत्तालीसं छ एयाई सहस्साई आणए पाणए चत्तारि आरणचुए तिन्नि एयाणि सयाणि, एवं गाहाहिं भाणियब्वं ( सूत्रं १५०) 'केवईत्यादि सुगम, नवरं तानि भवनानि बहिवृत्तानि वृत्तप्राकारावृतनगरवत् अन्तः समचतुरस्राणि तदवकाशदेशस्य चतुरस्रत्वात, अधःपुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः, सा चोन्नतसमचित्रबिन्दुकिनी भवतीति, तथा 'उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखेति उत्कीर्ण-भुवमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमन्तरं-अन्तरालं ययोस्ते. पाव-R॥१३७॥ उत्कीर्णान्तरे ते विपुलगम्भीरे खातपरिखे येषां तानि तथा, तत्र खातमध उपरि च समं परिखा तूपरि विशाला अधः सङ्कुचिता तयोरन्तरेषु पाली यत्रास्तीति भावः, तथा अट्टालका-प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः चरिका-नगरप्राका CAR Jain Education toonal For Personal & Private Use Only wwjainelibrary.org Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः पाठान्तरेण 'चतुरयन्ति चतुरकाः समाविशेषाः ग्रामप्रसिद्धाः 'दारगोउर'त्ति गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो-नगरस्यैव कपाटानि प्रतीतानि तोरणान्यपि तथैव प्रतिद्वाराणि-अवांतरद्वाराणि तत एतेषां द्वन्द्व एतानि देशलक्षणेपु भागेषु येषां तानि तथा, इह देशो भागश्चानेकार्थः, ततोऽन्योऽन्यमनयोर्विशेष्यविशेषणभावो दृश्य इति, तथा जंताणि-पाषाणक्षेपणयत्राणि मुशलानि प्रतीतानि मुसुंढ्यः-प्रहरणविशेषाः शतभ्यः-शतानामुपैघातकारिण्यो महाकायाः काष्ठशैलस्तम्भयष्टयः ताभिः 'परिवारियत्ति-परिवारितानि परिकलितानीत्यर्थः, तथा अयोध्यानि-योधयितुंसङ्गामयितुंदुर्गत्वान्न शक्यन्ते परबलानि तान्ययोध्यानि अविद्यमाना वायोधाः-परबलसुभटा यानि प्रति तान्ययोधानि, तथा अडयालकोटगरइय'त्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविचित्रच्छन्दगोपुररचितानि, अन्ये भणन्ति-अडयालिय(ल)शब्दः किल प्रशंसावाचकः, तथा 'अडयालकयवणमाल'त्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नाः प्रशंसाः कृतावनमाला-वनस्पतिपल्लवस्त्रजो येषु तानि तथा, 'लाइयंति यद्भमेश्छगणादिनोपलेपनं 'उल्लोइयंति कुड्यमालानां सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणं ततस्ताभ्यामिव महितानि-पूजितानि लाउलोइयमहितानि, तथा गोशीर्ष-चन्दनविशेषः सरसं च-रसोपेतं यद्रक्तचन्दनं-चन्दनविशेषः ताभ्यां दर्दराभ्यां-घनाभ्यां दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तकाः कुड्यादिषु येषु, अथवा गोशीर्षसरसरक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरेण-चपेटाभिघातेन दर्दरेषु वा-सोपानवीथीषु दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि, तथा कालागुरु:-कृष्णागुरुर्गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरः-प्रधानः कुन्दुरुकः-चीडा Jain Education a l For Personal & Private Use Only alinelibrary.org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्ति: ॥१३८॥ तुरुष्कः- सिल्हकं गन्धद्रव्यमेव एतानि च तानि 'डज्यंति' त्ति दह्यमानानि यानि तानि तथा तेषां यो धूमो 'मघमघेत 'त्ति अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगन्ध इत्यर्थः तेनोद्धुराणि - उत्कटानि यानि तानि तथा तानि च तान्यभिरामाणि - रमणीयानीति समासः, तथा सुगन्धयः- सुरभयो ये वरगन्धाः - प्रधानवासास्तेषां गन्धः - आमोदो येष्वस्ति तानि सुगन्धिवरगन्धिकानि, तथा गन्धवर्त्तिः - गन्धद्रव्याणां गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निर्वर्त्तितगुटिका तद्भूतानि-तत्कल्पानीति गन्धवर्त्तिभूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः, तथा अच्छानि आकाशस्फटिकवत् 'सह' त्ति लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धकनिष्पन्नत्वात् श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् 'लण्ड' त्ति लक्ष्णानि मसृणानीत्यर्थः, घुटितपटवत्, 'घट्ट' त्ति | घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठत्ति मृष्टानीव सृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'नीरय'त्ति नीरजांसि रजोरहितत्वात् 'निम्मल'त्ति निर्मलानि कठिनमलाभावात् 'वितिमिर'त्ति वितिमिराणि निरन्धकारत्वात् 'विसुद्ध'त्ति विशुद्धानि निष्कलङ्कत्वान्न चन्द्रवत् सकलङ्कानीत्यर्थः तथा 'सप्पह' ति सप्रभाणि सप्रभावाणि अथवा खेन- आत्मना प्रभान्ति - शोभन्ते प्रकाशन्ते वेति खप्रभाणि यतः 'समिरीय'त्ति समरीचीनि - किरणानि, अत एव 'सउज्जोय'त्ति सहोद्योतेन - वस्त्वन्तरप्रकाशनेन वर्त्तन्ते इति सोद्यो - | तानि 'पासाईय'त्ति प्रासादीयानि मनःप्रसत्तिकराणि 'दरिसणिज्ज' त्ति दर्शनीयानि तानि हि पश्यंश्चक्षुषा न श्रमं गच्छतीति भावः, 'अभिरुव' त्ति अभिरूपाणि कमनीयानि 'पडिरुव' त्ति प्रतिरूपाणि द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयानि Jain Educational For Personal & Private Use Only १५० भ वनादिवर्णनम्. ॥१३८॥ ainelibrary.org Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः, 'एव'मित्यादि, यथाऽसुरकुमारावाससूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमिति-तथा यद्भवनादिपरिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते-घटतेतत्तस्य वाच्यमिति, किंविधं तस्य परिमाणमत आह-जंज गाहाहि भणियं' यद्यद् गाथाभिः 'चउसट्टि असुराण'मित्यादिकाभिरभिहितं, किं परिमाणमेव तथा वाच्यं नेत्याह-'इह चेव वण्णओ'त्ति यथा असुरकुमारभवनानां वर्णक उक्तस्तथा सर्वेषामसौ वाच्य इति, तथाहि-'केवइया णं भंते ! नागकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्टा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए चुलसीई नागकुमारावाससयसहस्सा भवन्तित्तिमक्खायंति, ते णं भवणा' इत्यादि, द्वीपकुमारादीनां तु षण्णां प्रत्येकं षट्सप्ततिर्वाच्येति । केवइया णं भंते! पुढवी'त्यादि गतार्थ, नवरं मनुष्याणां संख्यातानामेव गर्भव्युत्क्रान्तिकानां असंख्यातानामभावात् संख्याता एवावासाः, सम्मूछिमानां त्वसंख्येयत्वेन प्रतिशरीरमावासभावादसंख्येयानि | इति भावनीयमिति । 'केवइया णं भंते! जोइसियाणं विमाणावासा' इत्यादि, 'अब्भुग्गयमुसियपहसिय'त्ति अभ्युद्ता-सञ्जाता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सिताः-शुक्ला इत्यभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः, तथा विविधा-अनेकप्रकारा मणयः-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्वाभिश्चित्राः-चित्रवन्तः आश्चर्यवन्तो वेति विविधमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथा वातोद्भूता-वातकम्पिता विजया-अ २४ सम. Jain Education For Personal & Private Use Only Herelibrary.org Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअमय ० वृति: ॥१३९॥ भ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीत्यभिधाना याः पताका अथवा विजयाँ इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना या वैजयंत्यस्ताश्च तद्वर्जिताः पताकाश्च छत्रातिच्छत्राणि च - उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलिता-युक्ता वातो|द्धूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिता इति, तुङ्गा उच्चैस्त्वगुणयुक्ता, अत एव 'गगनतलमणुलिहंत सिहरति गगनतलं - अम्बरतलमनुलिखद्-अभिलङ्घयच्छिखरं येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः, तथा जालान्तरेषु - जालकमध्यभागेषु रत्नानि येषां ते जालान्तररत्नाः, इह प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, जालकानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतान्येव तदन्तरेषु च शोभार्थ रत्नानि सम्भवन्त्येवेति, तथा पअरोन्मीलिता इव पञ्जरबहिष्कृता इव, यथा किल किञ्चिद्वस्तु पञ्जराद्-वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहिः कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वाच्छोभते एवं तेऽपीति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका- शिखरं येषां ते मणिकनकस्तूपिकाकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्रपुण्डरीकाणि | द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन तिलकाश्र-भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाश्च ये अर्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रा ये ते विकसि तशतपत्र पुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्र चित्राः, तथा अन्तर्बहिश्च लक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः, तथा तपनीयं - सुवर्णविशेषस्त|न्मय्या वालुकायाः - सिकतायाः प्रस्तटः - प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः, अथवा सण्हशब्दस्य वालुकाविशेषणत्वात् श्लक्ष्णतपनीयवालुकाप्रस्तटा इति व्याख्येयं तथा सुखस्पर्शाः शुभस्पर्शा वा, तथा सश्रीकं - सशोभं रूपं - आकारो येषां अथवा सश्रीकाणि - शोभावन्ति रूपाणि- नरयुग्मादीनि रूपकाणि येषु ते सश्रीकरूपाः, प्रासादनीया For Personal & Private Use Only १५० भ वनाद्यावास. ॥१३९॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैदर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपा इति पूर्ववत् । 'केवइए'त्यादि, रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिमागाओ'त्ति बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य ऊर्द्ध-उपरि तथा चन्द्रमसः-सूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणि णमित्यलङ्कारे किं?चीइवइत्त'त्ति व्यतिव्रज्य-व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथा 'बहूनी'त्यादि, किमित्याहऊर्द्धम्-उपरि दूरमत्यर्थ व्यतिबज्य चतुरशीतिविमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः, 'इतिमक्खाय'त्ति इति-एवंप्रकारा अथवा यतो भवन्ति तत आख्याताः सर्ववेदिनेति, 'ते णं'ति तानि विमानानि णमिति वाक्यालङ्कारे 'अच्चिमालि-3 प्पभ'त्ति अर्चिालि:-आदित्यस्तद्वत्प्रभान्ति-शोभन्ते यानि तान्यर्चिालिप्रभाणि, तथा भासाना-प्रकाशानां राशि:भासराशिः-आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा-छायावर्णो येषां केषांचित्तानि भासराशिवर्णाभानि, तथा अरय'त्ति अरजांसि खाभाविकरजोरहितत्वात् 'नीरय'त्ति नीरजांसि आगन्तुकरजोविरहात् 'निम्मल'त्ति निर्मलानि कक्खड(कर्कश)मलाभावात् 'वितिमिर'त्ति वितिमिराणि आहार्यान्धकाररहितत्वात् विशुद्धानि स्वाभाविकतमोविरहात् सकलदोषविरामाद्वा सर्वरत्नमयानि न दार्यादिदलमयानीत्यर्थः, अच्छान्याकाशस्फटिकवत् श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धमयत्वात् घृष्टानीव घृष्टानि 8 खरशाणया पाषाणप्रतिमेव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेवेति निष्पङ्का निकलङ्कविकलत्वात् कमविशेषरहितत्वाद्वा निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेत्यर्थः छाया-दीप्तिर्येषां तानि निष्कण्टकच्छायानि सप्रभा CARLOCASESSMANGALOCALCOME Jain Education For Personal & Private Use Only arlhinelibrary.org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ नारकादिस्थितिः श्रीसमवा मणि-प्रभावन्ति समरीचीनि-सकिरणानीत्यर्थः 'सोद्योतानि-वस्त्वन्तरप्रकाशनकारीणीत्यर्थः, 'पासाईए' त्यादि प्राग्वत् । यांगे 'सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता ?, गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता' एवश्रीअभय० मीशानादिष्वपि द्रष्टव्यं, एतदेवाह–'एवं ईसाणाइसुत्ति, 'गाहाहिं भाणियवंति 'बत्तीस अट्ठवीसा इत्यादिकाभिः वृत्तिः पूर्वोक्तगाथाभिस्तदनुसारेणेत्यर्थः, प्रतिकल्पं भिन्नपरिमाणा विमानावासाभणितव्यास्तद्वर्णकश्च वाच्यो 'जाव ते णं विमाणे'त्यादि यावत् 'पडिरूवा', नवरमभिलापभेदोऽयं यथा "ईसाणेणंभंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा! अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया, ते णं विमाणा जाव पडिरूवा' एवं सर्वे पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाद्वितीयपदानुसारेण च वाच्यमिति ॥ अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थानान्युक्तानि, अथ तेषामेव स्थितिमुपदर्शयितुमाह नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई प०, अपजत्तगाणं नरेइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई प०१, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तगाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए एवं जाव विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई प० ?, गोयमा! जहन्नेणं बत्तीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, सबढे अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता (सूत्रं १५१) ॥१४०॥ Hain Education For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नेरहया णं भंते!' इत्यादि सुगम, नवरं स्थितिः-नारकादिपर्यायेण जीवानामवस्थानकालः 'अपजत्तयाणं ति Pनारकाः किल लब्धितः पर्याप्सका एव भवन्ति, करणतस्तूपपातकाले अन्तर्मुहर्च यावदपर्याप्तका एव भवन्ति ततः पर्याप्तकाः, ततस्तेषामपर्याप्तकत्वेन स्थितिर्जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोऽपि चान्तर्मुहूर्तमेव, पर्याप्तकानां पुनरौधिक्येव जघ-3 न्योत्कृष्टा चान्तर्महोना भवतीति, अयं चेह पर्याप्तकापर्याप्तकविभाग:-'नारयदेवा तिरिमणुयगब्भया जे असंखवासाऊ । एते उ अपजत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ॥१॥ सेसा य तिरियमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । दुहओविय भइयचा पजत्तियरे य जिणवयणं ॥२॥'ति, उक्ता सामान्यतो नारकाणां स्थितिर्विशेषतस्तामभिधातुमिदमाह'इमीसे णमित्यादि, स्थितिप्रकरणं च सर्व प्रज्ञापनाप्रसिद्धमित्यतिदिशन्नाह-'एव'मिति यथा प्रज्ञापनायां सामान्यपर्याप्तकापर्याप्तकलक्षणेनगमत्रयेण नारकाणांनारकविशेषाणांतिर्यगादिकानां च स्थितिरुक्ता एवमिहापि वाच्या, किय यावदित्याह-'जाव विजये'त्यादि, अनुत्तरसुराणामोघिकापर्याप्तकपर्याप्तकलक्षणं गमत्रयं यावदित्यर्थः, इह चैवमतिदिष्टसूत्राण्यर्थतो वाच्यानि रत्नप्रभानारकाणां भदन्त ! कियती स्थितिः?, गौतम ! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सागरोपमं १, अपर्याप्तकरत्नप्रभापृथिवीनारकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिःप्रज्ञप्ता ?, गौतम ! उभयथापि अन्तमुहूर्तमेव, पर्याप्तकानां तु सामान्योक्तैवान्तर्मुहूर्तोना वाच्या, एवं शेषपृथ्वीनारकाणां प्रत्येकं दशानामसुरादीनां पृथिवीकायिकानां तिरश्चां गर्भजेतरभेदानां मनुष्याणां व्यन्तराणामष्टविधानां ज्योतिष्काणां पञ्चप्रकाराणां सौधर्मादीनां SUUR PAPRICCA Jain Education a l For Personal & Private Use Only WInelibrary.org Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय ० वृति: ॥१४९॥ वैमानिकानां च गमत्रयं वाच्यं, कियद्दूरं यावदित्याह - 'जाव विजये' त्यादि, इह च विजयादिषु जघन्यतो द्वात्रिंशत्सागरोपमाण्युक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनायां त्वेकत्रिंशदुक्तेति मतान्तरमिदं पर्याप्तकापर्यासकगमद्वयमिह समूह्यम्, एवं सर्वार्थसिद्धिस्थितिरपि त्रिभिर्गमैर्वाच्येति ॥ अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थितिरुक्तेदानीं तच्छरीराणामवगाहनाप्रतिपादनायाह कति णं भंते! सरीरा प० १, गोयमा ! पंच सरीरा प०, तं० - ओरालिए उत्रिए आहारए तेयए कम्मए, ओरालियसरीरे णं भंते । कइविहे प० १, गोयमा ! पंचविहे प०, तं० - एगिंदियओरालियसरीरे जाव गन्भवक्कंतियमणुस्संप चिंदियओरालियसरीरे य, ओरालियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता १, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुल असंखेजतिभागं उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमागं तहा निरवसेसं, एवं जाव मणुस्सेत्ति उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई | कवि णं भंते! वेउब्वियसरीरे प० १, गोयमा दुविहे प०, एगिंदियवेउब्वियसरीरे य पंचिंदियवेउब्वियसरीरे अ, एवं जाव सणकुमारे आढत्तं जाव अणुत्तराणं भवधारणिजा जाव तेसिं रयणी रयणी परिहायइ । आहारयसरीरे णं भंते! कइविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! एगाकारे प०, जइ एगाकारे प० किं मणुस्स आहारयसरीरे अमणुस्स आहारयसरीरे १, गोयमा ! मणुस्स आहारगसरीरे णो अमणुस्सआहारगसरीरे, एवं जइ मणुस्स आहारगसरीरे किं गन्भवक्कंतियमणुस्स आहारगसरीरे संमुच्छिममणुस्स आहारगसरीरे १, गोयमा !. गब्भवक्कंतियमणुस्स आहारयसरीरेनो संमुच्छिममणुस्स आहार यसरीरे, जइ गब्भवक्कंतिय० किं कम्मभूमिगा० अकम्मभूमिगा ०१, गोयमा ! कम्मभूमिगा० नो अकम्मभूमिगा०, जइ कम्मभूमिग० किं संखेजवासाउय० असंखेजवासाउय ० १, गोयमा ! संखेजवासाउय० नो For Personal & Private Use Only १५२ श. रीरसूत्रं. ॥ १४१ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेजवासाउय०, जइ संखेजवासाउय० किं पजत्तय० अपजत्तय ?, गोयमा! पजत्तय० नो अपज्जत्तय०, जइ पजतय किं समद्दिट्टी० मिच्छदिट्ठी० सम्मामिच्छदिट्ठी० १, गोयमा ! सम्मदिट्ठी० नो मिच्छदिट्ठी नो सम्मामिच्छदिट्ठी, जइ सम्मदिट्ठी किं संजय० असंजय० संजयासंजय० १, गोयमा! संजय० नो असंजय० नो संजयासंजय०, जइ संजय० किं पम्मत्तसंजय० अपम्मत्तसंजय० ?, गोयमा! पमत्तसंजय० नो अपमत्तसंजय०, जइ पमत्तसंजय० किं इड्डिपत्त० अणिविपत्त० ?, गोयमा ! इड्डिपत्त० नो अणिड्पित्त० वयणा विभाणियत्वा आहारयसरीरे समचउरंससंठाणसंठिए, आहारयसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं देसूणा रयणी उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी । तेआसरीरे णं भंते ! कतिविहें पन्नत्ते ?, गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, एगिदियतेयसरीरे बितिचउपंच. एवं जाव गेवेजस्स णं भंते! देवस्स णं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स समाणस्स केमहालिया सरीरोगाहणा. पन्नत्ता ?, गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहलेणं आयामेणं जहन्नेणं अहे जाव विजाहरसेढीओ उक्कोसेणं जाव अहोलोइयग्गामाओ, उड्ढे जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं, एवं जाव अणुत्तरोववाइया, एवं कम्मयसरीरं भाणियव्वं ( सूत्रं १५२) 'कइ णं भंते' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरमेकेन्द्रियौदारिकशरीरमित्यादौ यावत्करणाद् द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीराणि पृथिव्यायेकेन्द्रियजलचरादिपञ्चेन्द्रियभेदेन प्रागुपदर्शितजीवराशिक्रमण वाच्यानि, कियद्रमित्याह-'गब्भवकंतियेत्यादि, 'ओरालियसरीरस्से'त्यादि, तत्रोदारं-प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य अथवोरालं-विस्तरालं विशालं समधिकयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् वनस्पत्यादि प्रतीत्य अथवा उरालं-खल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच भेण्ड Jain Education For Personal & Private Use Only library.org Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा १५२ शरीरसूत्रं.. यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥१४२॥ CIENCERCACANCHECCLOCALS वदिति, अथवा मांसास्थिपूयवद्धं यच्छरीरं तत्समयपरिभाषया उरालमिति, तच तच्छरीरं चेति प्राकृतत्वादोरालियं शरीरं, तस्यावगाहन्ते यस्यां साऽवगाहना-आधारभूतं क्षेत्रं शरीराणामवगाहना शरीरावगाहना अथवौदारिकशरीरस्य जीवस्य औदारिकशरीररूपावगाहना सा भदन्त ! केमहालिया-किम्महती प्रज्ञप्ता ?, तत्र जघन्यनामुलासंख्येय - |भागं यावत् पृथिव्याद्यपेक्षया उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रमिति बादरवनस्पत्यपेक्षयेति ‘एवं जाव माणुस्से'त्ति इह एवं यावत्करणादवगाहनासंस्थानाभिधानप्रज्ञापनकविंशतितमपदाभिहितग्रन्थोऽर्थतोऽयमनुसरणीयः, तथाहिएकेन्द्रियौदारिकस्य पृच्छा निर्वचनं च तदेव, तथा पृथिव्यादीनां चतुर्णा बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्सानां जघन्यत उत्कृटतश्चाङ्गुलासंख्येयभागो, वनस्पतीनां बादरपर्याप्तानामुत्कर्षतः साधिकं योजनसहस्रं, शेषाणां त्वङ्गुलासंख्येयभाग है एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानामुत्कर्षतोऽनुक्रमेण द्वादश योजनानि त्रीणि गव्यूतानि चत्वारि चेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां जलचराणां पर्याप्तानां गर्भजानां संमूर्छनजानां चोत्कर्षतो योजनसहस्रं, एवं स्थलचराणां चतुष्पदानां संमूर्छनजानांपर्याप्तानां गव्यूतपृथक्त्वं गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तेषां षड् गव्यूतानि उरःपरिसप्पाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां योजनसहस्रं एषामेव सम्मूर्छनजानां योजनपृथक्त्वं भुजपरिसाणांगर्भजानां गन्यूतपृथक्त्वं सम्मूर्छनजानां च धनु:पृथक्त्वं खचराणां गर्भजानां सम्मूर्छनजानां च धनुःपृथक्त्वमेव, तथा मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां गव्यूतत्रयं सम्मूर्च्छनजानामङ्गुलासंख्येयभागः, एष एव सर्वत्र जघन्यपदे अपर्याप्तपदे चेति, तथा 'कइविहे ण'मित्यादि स्पष्टं, नवरं ॥१४२॥ Jain Education For Personal & Private Use Only helorary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति वा. तत्रैकेन्द्रियवैक्रियशरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं नारकादीनां 'एवं जावे'त्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यं, यदुत 'जइ एगिदियवेउब्वियसरीरए किं वाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरए अवाउकाइयएगिदियवेउब्वियसरीरए १, गोयमा! वाउकाइयएगिदियसरीरए नो अवाउकाइय' इत्यादिनाऽभिलापेनायमर्थो दृश्यः, यदि वायोः किं सूक्ष्मस्य बादरस्य वा ?, बादरस्यैव, यदि बादरस्य किं पर्याप्तकस्यापर्याप्तकस्य वा ?, पर्याप्तकस्यैव, यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकस्य पञ्चे|न्द्रियतिरश्चो मनुजस्य देवस्य वा ?, गौतम! सर्वेषां, तत्र नारकस्य सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, यदि तिरश्चः किं सम्मूछिमस्य इतरस्य वा १, इतरस्य, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तस्य, तस्यापि च जलचरादिभेदेन त्रिविधमें स्थापि, तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव, तस्यापि कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुषः पर्याप्तकस्यैव, तथा देवस्य भवनवास्थादेः, तत्रासुरादेर्दशविधस्य पर्याप्तकस्खेतरस्य च, एवं व्यन्तरस्याष्टविधस्य ज्योतिष्कस्य पञ्चविधस्य, तथा यदि वैमानिकस्य किं कल्पोपपन्नस्य कल्पातीतस्य ?, उभयस्यापि पर्याप्तस्यापर्याप्तस्य चेति, तथा वैक्रियं भदन्त ! किंसंस्थितं ?,13 | उच्यते, नानासंस्थितं, तत्र वायोः पताकासंस्थितं, नारकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थितं, पञ्चेन्द्रियतिर्य* ग्मनुष्याणां नानासंस्थितं, देवानां भवधारणीयं समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रियं नानासंस्थितं, केवलं कल्पातीतानां भवधारणीयमेव, तथा वैक्रियशरीरावगाहना भदन्त ! किंमहती ?, गौतम! जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयभागमुत्कर्षतः साति Jain Education AL For Personal & Private Use Only anelibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S + यांगे श्रीसमवा- श्रीअभय० वृत्तिः ॥१४॥ CATEGORECAUSESA5 रेक योजनलक्षं, वायोरुभयथा अङ्गुलासंख्येयभागं, एवं नारकस्य जघन्येन भवधारणीयं, उत्कर्षतः पञ्च धनु शतानि | १५२ शएषा च सप्तम्यां, षष्ठ्यादिषु त्वियमेव अर्वार्द्धहीनेति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्वेषामप्यङ्गुलसंख्येयभागमुत्कर्ष रीरमूत्रं. तश्च नारकस्य भवधारणीयद्विगुणेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां योजनशतपृथक्त्वमुत्कर्षतः, मनुष्याणां तूत्कर्षतः सातिरेकं योजनानां लक्षं, देवानां तु लक्षमेवोत्तरवैक्रियं, भवधारणीया तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानानां सप्त हस्ताः । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षट् ब्रह्मलान्तकयोः पञ्च महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वार आनतादिपु त्रयो ग्रैवेयकेषु द्वावनुत्तरेष्वेक इति, अनन्तरोक्तं सूत्र एवाह-एवं जाव सणंकुमारे'त्यादि, एवमिति-दुविहे पन्नत्ते एगिन्दिय इत्यादिना पूर्वद|र्शितक्रमेण प्रज्ञापनोक्तं वैक्रियावगाहनामानसूत्रं वाच्यं, कियहरमित्याह-यावत्सनत्कुमारे आरब्धं भवधारणीयवैक्रियशरीरपरिहानिमिति गम्यं ततोऽपि यावदनुत्तराणि-अनुत्तरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि भवन्ति तेषां रत्नी रतिः परिहीयत इति, एतदर्थसूत्रं भवेत् तावदिति, पुस्तकान्तरे त्विदं वाक्यमन्यथापि दृश्यते, तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण कार्येति । 'आहारयेत्यादि सुगम, नवरं 'एव'मिति यथा पूर्व आलापकः परिपूर्ण उच्चारित एवमुत्तरत्रापि, तथाहि 'जइमणुस्स'त्ति-जइ मणुस्साहारगसरीरे किंगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरे किं संमुच्छिममणुस्सा ॥१४३॥ हारगसरीरे ?, गोयमा! गब्भवतियमणुस्साहारगसरीरे नो समुच्छिममणुस्साहारगसरीरे, जइ गब्भवतिय'इत्यादि सर्वमूचं 'जाव जइं पमत्तसंजयसम्महिद्विपजत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमिगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरे SALASSAGARALSASAREECASS dain Education International For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमिगगब्भवकंतियमणुस्साहारगसरीरे अणिविपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमिगगब्भवतियमणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा!' द्वितीयस्य निषेधः प्रथमस्य चानुज्ञा वाच्या, एतदेवाह–'वयणा विभाणियचत्ति सूचितवचनान्यप्युक्तन्यायेन सर्वाणि भणनीयानि, वि-R भागेन पूर्णान्युच्चारणीयानीत्यर्थः, 'आहारयत्ति 'आहारगसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा! इत्येतत् सूचितं, 'जहण्णणं देसूणा रयणीति कथम्?, उच्यते, तथाविधप्रयत्नविशेषतस्तथारम्भकद्रव्यविशेषतश्च प्रारम्भकालेऽप्युक्तप्रमाणभावात् , न हीहौदारिकादेरिवाङ्गुलासंख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः । 'तेयासरीरे णं भंते' इत्यादि, एवं यावत्करणात् प्रज्ञापनासत्कैकविंशतितमपदोक्तातैजसशरीरवक्तव्यता इह वाच्या, सा चेयमर्थतः-'एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?,गोयमा !पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढवीजाववणस्सइकाइयएगिदियतेयगसरीरे,' एवं जीवराशिप्ररूपणाऽनुसारेण सूत्रं भावनीयं, यावत् 'सवठ्ठसिद्धगअणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेन्दियतेयगसरीरेणंभंते! किंसंठिए?, नाणासंठाणसंठिए' यस्य पृथिवादिजीवस्य यदौदारिकादिशरीरसंस्थानं तदेव तैजसस्य कार्मणस्य च, तथा जीवस्य मारणान्तिकसमुद्घातगतस्य कियती तैजसी शरीरावगाहना ?, शरीरमात्रा विष्कम्भबाहल्याभ्यामायामतस्तु जघन्येनाङ्गुलस्यासंख्येयभाग उत्कर्षत ऊर्द्धमधश्च लोकान्ताल्लोकान्तं यावदेकेन्द्रियस्य, ततस्तत्रोत्पत्तिमङ्गीकृत्येति भावः, एवं सर्वेषामेवैकेन्द्रियाणांद्वीन्द्रियाणांतु आयामत उत्कर्षेण तिर्यग्लोकालोकान्तं यावत्प्रायस्तियंग् SUSASAASAASAASASIRANGAY jain Education a l For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - SC श्रीसमवा-1 लोके द्वीन्द्रियादितिरश्चां भावात् , नारकस्य जघन्यतो योजनसहस्रं, कथं ?, नरकात्पातालकलशस्य सहस्रमानं कुड्यं १५२ श यांगे भित्त्वा तत्र मत्स्यतयोत्पद्यमानस्य, उत्कर्षेण तु अधःसप्तमी यावत् सप्तमपृथ्वीनारकं समुद्रादिमत्स्येपूत्पद्यमानं प्रतीत्य, रीरमू श्रीअभय तिर्यक् खयम्भूरमणं यावत् ऊर्ध्व पण्डकवनपुष्करिणी यावत् , यतस्तयोर्नारक उत्पद्यते, न परतः, मनुष्यस्य लोकान्तं वृत्तिः यावत् , भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयतमभागः खस्थान एव पृथिव्यादितयोत्पा॥१४४॥ दात्, उत्कर्षतस्तु अधस्तृतीयपृथ्वीं यावत् तिर्यक् खयम्भूरमणबहिर्वेदिकान्तं ऊर्ध्वमीपत्प्राग्भारां यावत् , यत एते शुभपर्याप्सवादरेष्वेव पृथिव्यादिषूत्पद्यन्ते अतो न परतोऽपीति, सनत्कुमारादिसहस्रारान्तदेवानां तु जघन्यतोऽङ्गुला-18 संख्येयभागः, कथं ?, पण्डकवनादिपुष्करिणीमजनार्थमवतारे मृतस्य तत्रैव मत्स्यतयोत्पद्यमानत्वात् पूर्वसम्बन्धिनी वा मनुष्योपभुक्तस्त्रियं परिष्वज्य मृतस्य तदूगर्भे समुत्पादादिति, उत्कर्षतस्तु. अधो यावन्महापातालकलशानां द्विती|यस्त्रिभागः, तत्र हि जलसद्भावान्मत्स्येषुत्पद्यमानत्वात् , तिर्यक् खयम्भूरमणसमुद्रं यावत् , ऊर्ध्वमच्युतं यावत् , तत्र हि सङ्गतिकदेवनिश्रया गतस्य मृत्वेहोत्पद्यमानत्वादिति, आनतादीनामच्युतानां तु जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येय भागः । कथं ?, इहागतस्य मरणकालविपर्यस्तमतेर्मनुष्योपभुक्तस्त्रियमप्यभिष्वज्य मृतस्य तत्रैवोत्पत्तेरिति, उत्कर्षतस्त्वधो या- ॥१४॥ नवदधोलोकग्रामान् तिर्यअनुष्यक्षेत्रे ऊर्ध्वमच्युतविमानानि यावत् मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते इति भावना तथैव कार्या, अवे यकानुत्तरोपपातिकदेवानां जघन्यतो विद्याधरश्रेणी यावत् उत्कर्षतोऽधो यावदधोलोकमामान् तिर्यमनुष्यक्षेत्रं ऊर्ध्व | dain Education International For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्विमानान्येवेति, एवं कार्मणस्याप्यवगाहना दृश्या समानत्वादेव तयोरिति । उक्तार्थमेव सूत्रांशमाह-गेवेजगस्स ण' मित्यादि। अनन्तरं शरीरिणामवगाहनाधर्म उक्तोऽधुना त्ववधिधर्मप्रतिपादनायाह-'भेय विसयसंठाणे अभितर बाहिरे यदेसोही । ओहिस्स वुड्डिहाणी पडिवाई चेव अपडिवाई ॥१॥' द्वारगाथा, तत्र भेदोऽवधेर्वक्तव्यो, यथा द्विविधोऽवधिर्भवति-भवप्रत्ययः क्षायोपशमिकश्च, तत्र भवप्रत्ययो देवनारकाणां क्षायोपशमिको मनुष्यतिरश्चामिति, तथा विषयो-गोचरोऽवधेर्वाच्यः, स च चतुर्द्धा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जघन्येन तेजोभाषयोरग्रहणप्रा-| योग्यानि द्रव्याणि जानाति, उत्कर्षतस्तु सर्वमेकाणुकाद्यनन्ताणुकान्तं रूपिद्रव्यजातं जानाति, क्षेत्रं जघन्यतोऽङ्गुला-3 संख्येयभागं जानाति उत्कर्षतोऽसंख्येयान्यलोके लोकमात्राणि खण्डानि जानाति, कालं जघन्यत आवलिकाया असंख्येयभागमतीतमनागतं च जानाति, उत्कर्षतः संख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्जानाति, भावतो जघन्यतः। प्रतिद्रव्यं चतुरो वर्णादीन् उत्कर्षतःप्रतिद्रव्यमसंख्येयान् सर्वद्रव्यापेक्षया त्वनन्तानिति, तथा संस्थानमवधेर्वाच्यं, यथा | नारकाणां तप्राकारोऽवधिः पल्याकारो भवनपतीनां पटहाकारो व्यन्तराणां झलाकृतियॊतिष्काणां मृदङ्गाकारः क-18 ल्पोपपन्नानां पुष्पावलीरचितशिखरचङ्गाकारो ग्रैवेयकाना कन्याचोलकसंस्थानोऽनुत्तरसुराणां लोकनाल्याकृतिरित्य तिर्यमनुष्याणां तु नानासंस्थान इति, तथा 'अभितर'त्ति के अवधिप्रकाशितक्षेत्रस्याभ्यन्तरे वर्तन्ते इति वाच्यं, 94- 950% AC-C २५ सम० dain Educationala For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15454 श्रीसमवा- यथा 'नेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंती'त्यादि, तथा बाहिरे य'त्ति केऽवधिक्षेत्रस्य बाह्या भवन्तीति वाच्यं, १५३ अ यांगे तत्र शेषा जीवा बाह्यावधयोऽभ्यन्तरावधयश्च भवन्ति, तथा 'देसोहि'त्ति अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाशी अवधिA-16 वधिवेदश्रीअभयाशावधिः स केषां भवतीति वाच्यं, तद्विपरीतस्तु सर्वावधिः, तत्र मनुष्याणां उभयमन्येषां देशावधिरेव, यतः सर्वा-1 नालेश्यावृत्तिः वधिः केवलज्ञानलाभप्रत्यासत्तावेवोत्पद्यत इति, तथाऽवधेद्धिानिश्च वाच्या, यो येषा भवति, तत्र तिर्यग्मनुष्याणां ॥१४५॥ वर्द्धमानो हीयमानश्च भवति, शेषाणामवस्थित एष, तत्र वर्द्धमानोऽङ्गुलासंख्येयभागादि दृष्ट्वा बहु बहुतरं पश्यति, K विपरीतस्तु हीयमान इति, तथा प्रतिपाती चाप्रतिपाती चावधिर्वाच्यः, तत्रोत्कर्षतो लोकमात्रः प्रतिपात्यतः परम-| प्रतिपाती, तत्र भवप्रत्ययस्तं भवं यावन्न प्रतिपतति, क्षायोपशमिकस्तूभयथेति । एतदेव दर्शयति कइविहे गं भंते ! ओही पन्नत्ता ?, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, भवपच्चइए य खओवसमिए य, एवं सव्वं ओहिपदं भाणियवं, सीया य दव सारीर साया तह वेयणा भवे दुक्खा । अन्भुवगमवक्कमिया णीयाए चेव अणियाए ॥१॥ नेरइया णं भंते ! किं सीतं वेयणं वेयंति उसिणं वेयणं वेयंति सीतोसिणं वेयणं वेयंति?, गोयमा ! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियत्वं ॥ कइ णं भन्ते ! लेसाओ पं० १, गो०! छ लेसाओ पं०, तं०-किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा सुक्का, एवं लेसापयं भाणियव्वं ॥ अणंतरा य आहारे ॥१४५॥ आहाराभोगणा इय। पोग्गला नेव जाणंति, अज्झवसाणे य सम्मत्ते ॥१॥ नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विकुव्वणया?, हंता गोयमा! एवं आहारपदं भाणियव्वं (सूत्रं१५३) SAR Jain Education anal For Personal & Private Use Only wwijainelibrary.org Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HES C MONOMOUSAMACOCARE 'काविहे'इत्यादि, अत्रावसरे प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिंशत्तमं पदमन्यूनमध्येयमिति, अनन्तरमुपयोगविशेषः क्षायोपशमिको जीवपर्यायः उक्तोऽधुना स एवौदयिको वेदनालक्षणोऽभिधीयते-'सीया'इत्यादि द्वारगाथा, तत्र 'सीया यत्ति चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये तेन त्रिविधा वेदना-शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तत्र शीतामुष्णां च वेदयन्ति नारकाः, शेषानिविधामपि, वेत्ति उपलक्षणत्वाचतुर्विधा वेदना द्रव्यादिभेदेन, तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धात् द्रव्यवेदना नारकाधुपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना नारकाद्यायुःकालसम्बन्धात् कालवेदना वेदनीयकर्मोदयाद्भाववेदना, तत्र नारकादयो वैमानिकान्ताश्चतुर्विधामपि वेदनां वेदयन्तीति, तथा 'सारीर'त्ति त्रिविधा वेदना शारीरी मानसी शारीरमानसी च, तत्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वे त्रिविधामपि इतरे तु शारीरीमेवेति, तथा 'साय'त्ति त्रिविधा वेदना-साता असाता सातासाता चेति, तत्र सर्वे जीवाः त्रिविधामपि वेदयन्तीति, 'तह वेयणा भवे दुक्ख'त्ति त्रिविधा वेदना-सुखा दुःखा सुखदःखा चेति, तत्र सर्वेऽपि त्रिविधामपि वेदयन्ति, नवरं सातासातयोः सुखदुःखयोश्चायं विशेषः-सातासाते क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवलक्षणे सुखदुःखे तु परेण उदीर्यमाणवेदनीयकर्मानुभवलक्षणे, तथा 'अब्भुवगमुवक्कमिय'त्ति द्विधा वेदना-आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी चेति, तत्राद्यामभ्युपगमतो वेदयन्ति जीवा यथा साधवः शिरोलुञ्चनब्रह्मचर्यादिकां द्वितीया तु खयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य वेदनीयस्यानुभवतः, तत्र पञ्चे|न्द्रियतिर्यअनुष्या द्विविधामपि शेषास्त्वोपक्रमिकीमेव वेदयन्तीति, तथा 'णीयाए चेव अणियाए'त्ति द्विविधा वेदना, CANCHOCKGEOR sain Education a l For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः १५३ अवधिवेदनालेश्या CONDOLLARGES हाराः ॥१४६॥ तत्र निदया आभोगतः अनिदया त्वनाभोगतः, तत्र संज्ञिन उभयतोऽसंज्ञिनस्त्वनिदयेति, एतद्द्वारविवरणाय 'नेरइया-1 ण'मित्यादि, इहावसरे प्रज्ञापनायाः पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्यं पदमध्येयमिति । अनन्तरं वेदना प्ररूपिता, सा च लेश्यावत एव भवतीति लेश्याप्ररूपणायाह–'कइ णं भंते'इत्यादि, इह स्थाने प्रज्ञापनायाः सप्तदशं षड्डद्देशकं लेश्याभिधानं पदमध्येतव्यं, तच्चास्माभिरतिबहुत्वादर्थतोऽपि न लिखितमिति तत एवावधारणीयमिति । अनन्तरं लेश्या उक्ताः, सलेश्या एव चाहारयन्तीत्याहारप्ररूपणायाह-'अणंतरा येत्यादिद्वारश्लोकमाह, तत्र 'अणंतरा य आहारे'त्ति अनन्तराश्च-अव्यवधानाचाहारविषये अनन्तराहारा जीवा वाच्या इत्यर्थः, तथाऽऽहारस्याभोगता, अपिचेति वचनादनाभोगता च वाच्या, तथा पुद्गलान्न जानन्त्येव एवकारान्न पश्यन्तीति चतुर्भङ्गी सूचिता, तथा अध्यवसानानि सम्यक्त्वं च वाच्यमिति, तत्राद्यद्वारार्थमाह-'नेरइए'त्यादि, 'अनन्तराहार'त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः 'ततो निवत्तणया'इति ततः शरीरनिवृत्तिः, ततो 'परियाइयणय'त्ति ततः पर्यादानमङ्गप्रत्यङ्गैः समतात्पा (दादा)नमित्यर्थः, 'ततो परिणामय'त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः 'ततो पच्छा विउवणय'त्ति ततः पश्चाद्विक्रिया नानारूपा इत्यर्थः, हन्ता गौतम!, एवमेतदिति भावः, एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां वक्तव्यं, नवरं देवानां विकुर्वणा पश्चात्परिचारणा शेषाणां तु पूर्व परिचारणा पश्चाद्विकुर्वणा, एकेन्द्रियादीनामप्येवं प्रश्ने, निर्वचने तु यत्र वैक्रियसम्भवो नास्ति तत्र विकुर्वणा निषेधनीयेति, 'एवमाहारपयं भाणिय'ति यथाऽऽद्यद्वारस्य प्रश्न उक्तस्तथा ॥१४६॥ C O For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationise तदुत्तरं शेषद्वाराणि च भणद्भिः प्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं चात्राहा - रविचारप्रधानतया आहारपदमुक्तमिति, तत्पुनरेवमर्थतस्तत्र ' आहारा भोगणाइय'त्ति एतस्य विवरण - नारकाणा | किमाभोगनिर्वर्त्तित आहारोऽनाभोगनिर्वर्त्तितो वा ?, उभयथापीति निर्वचनं, एवं सर्वेषां नवरमेकेन्द्रियाणामनाभोगनिर्वर्त्तित एवेति, तथा 'पोग्गला नेव जाणंति'त्ति अस्यार्थः - नारका यान् पुद्गलान् आहारयन्ति तानवधिनापि न जानन्ति अविषयत्वात्तदवधेस्तेषां न पश्यन्ति चक्षुषाऽपि लोमाहारत्वात् तेषां एवमसुरादयस्त्रीन्द्रियान्ताः केवलं एकेन्द्रिया अनाभोगाहारत्वाद्वित्रीन्द्रियाश्च मत्यज्ञानित्वान्न जानन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावाच्च न पश्यन्तीति, चतुरिन्द्रियास्तु चक्षुः सद्भावेऽपि मत्यज्ञानित्वात् प्रक्षेपाहारं न जानन्ति, चक्षुषापि न पश्यन्ति, तथा त एव लोमाहारमाश्रित्य न जानन्ति न पश्यन्तीति व्यपदिश्यते, चक्षुषोऽविषयत्वात्तस्य, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च केचिज्जानन्ति पश्यन्ति चावधिज्ञानादिषु युक्ताः लोमाहारप्रक्षेपाहाराच, तथाऽन्ये जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं जानन्त्यवधिना न पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति पश्यन्ति, तत्र न जानन्ति प्रक्षेपाहारं मत्यज्ञानित्वात्पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न | जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं निरतिशयत्वादिति, व्यन्तरज्योतिष्का नारकवत्, वैमानिकास्तु ये सम्यग्दृष्टयस्ते जा|नन्ति विशिष्टावधित्वात् पश्यन्ति चक्षुषोऽपि विशिष्टत्वात्, मिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रत्यक्ष परोक्षज्ञानयोस्तेषामस्पष्टत्वादिति, तथा 'अज्झवसाणे य'त्ति द्वारं, नारकादीनां प्रशस्ताप्रशस्तान्यसंख्येयान्यध्यवसायस्थाना For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहाकः श्रीसमवा- नीति, तथा 'संमत्ते'त्ति द्वारं, तत्र नारकाः किं सम्यक्त्वाभिगमिनो मिथ्यात्वाभिगमिनः सम्यक्त्वमिथ्यात्वाभिगमि- १५४ आ. यांगे नश्चेति, त्रिविधा अपि, एवं सर्वेऽपि, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया मिथ्यात्वाभिगमिन एवेति । अनन्तरमाहारप्ररूपणा 3 | युबन्धमेश्रीअभय दोत्पादोवृत्तिः II कृता आहारश्चायुर्बन्धवतामेव भवतीत्यायुर्वन्धप्ररूपणायाह द्वर्त्तनाविकइविहे णं भंते! आउगबन्धे पन्नते ?, गोयमा! छविहे आउगवन्धे पन्नत्ते, तंजहा-जाइनामनिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ॥१४७॥ ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए, नेरइयाणं भंते! कइविहे आउगबन्धे पन्नत्ते ?, गोयमा! छविहे पन्नत्ते, तंजहा-जातिनाम० गइनाम० ठिइनाम० पएसनाम० अणुभागनाम० ओगाहणानाम० एवं जाव वेमाणियाणं ॥ निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पं०१, गोयमा! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते, एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई, सिद्धिगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया सिज्मणयाए पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासे, एवं सिद्धिवजा उव्वट्टणा, इमीसे णं भते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं?, एवं उववायदंडओ माणियव्वो उवट्टणादंडओ य, नेरइया णं भते! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसेहिं पगरंति ?, गो० सिय १ सिय २।३।४।५।६।७। सिय अट्ठहिं, नो चेव णं नवहि, एवं सेसाणवि आउगाणि जाव वेमाणियत्ति ॥ सूत्रं १५४ ॥ ॥१४७॥ 'कइविहे'त्यादि, तत्रायुषो बन्धनिषेक आयुर्वन्धः, निषेकश्च प्रतिसमयं बहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनाथ रचना, निधत्तमपीह निषेक उच्यते, अत एवाह-'जाइनामनिधत्ताउए, जातिनाना सह निधत्तं-निषिक्तमनुभ AGRORECACARRORICALLER Jain Education S onal For Personal & Private Use Only Dinelibrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है वनार्थ बह्वल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितमायुर्जातिनामनिधत्तायुः, अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्मणाऽऽयुर्विशेष्यते ?, है आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थ, यस्मानारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपनाहकं चायुरेव, यस्माद्याख्याप्रज्ञप्त्यामुक्तं-"नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजइ अनेरइए नेरइएसु उववजइ ?, गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववजइ नो अनेरइए नेरइएसु उववजई" एतदुक्तं भवति-नारकायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारक इत्युच्यते; तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति, तथा 'गतिनामनिधत्ताउए'त्ति गतिनारकगत्यादिः तल्लक्षणं नामकर्म तेन सह निधत्तं-निषिक्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः, तथा 'ठिइनामनिधत्ताउए'त्ति स्थितियत् स्थातव्यं तेन भावनायुर्दलिकस्य सैव नामः-परिणामो धर्म इत्यर्थः स्थितिनाम, गतिजात्यादिकर्मणां च प्रकृत्यादिभेदेन चतर्विधानां यः स्थितिरूपो भेदस्तत् स्थितिनाम तेन सह निधत्तमायुः स्थितिनामनिधत्तायुरिति, तथा 'पएसनामनिधत्ताउए'त्ति प्रदेशानां-प्रमितपरिमाणानामायुःकर्मदलिकानां नाम-परिणामो यः तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनाम जातिगत्यवगाहनाकर्मणां वा यत्प्रदेशरूपं नामकर्म तत्प्रदेशनाम तेन सह निधत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुरिति, तथा 'अणुभागनामनिधत्ताउए'त्ति अनुभागः-आयुष्कर्मद्रव्याणां तीव्रादिभेदो रसः स एव तस्य वा नामः-परिणामोऽनुभागनाम अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागवन्धरूपो भेदोऽनुभागनाम तेन सह निधत्तमायुरनुभागनामनिधत्तायुरिति, तथा ओगाहणानामनिधत्ताउए'त्ति अवगाहते जीवो यस्यां साऽवगाहना-शरीरमौदा JainEducatioriko.na For Personal & Private Use Only nerbrary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥१४८॥ | रिकादिपञ्चविधं तत्कारणं कर्माप्यवगाहना तद्रूपं नामकर्म्मावगाहनानाम तेन सह निधत्तमायुरवगाहनानामनिधत्तायु| रिति ॥ ' नेरइयाण' मित्यादि स्पष्टं । अनन्तरमायुर्बन्ध उक्तोऽधुना बद्धायुषां नारकादिगतिषूपपातो भवतीति तद्विरहकाल| प्ररूपणायाह - ' निरयगई ण' मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं यद्यपि रत्नप्रभादिषु चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिविरहकालो, यथोक्तं'चउवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तहय पन्नरसा । मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालोत्ति ॥ १ ॥' तथापि सामान्यगत्यपेक्षया द्वादश मुहूर्त्ता उक्ताः, तथा एवंकरणाद्यत्तिर्यङ्मनुष्यगत्योः सामान्येन द्वादश मुहूर्त्ता उक्ताः तद्दर्भव्युत्क्रान्तिकापेक्षया, दैवगतौ तु सामान्यत एव 'सिद्धिवजा उधट्टणे' ति नारकादिगतिषु द्वादशमुहूर्त्ता विरहकाल उद्वर्त्तनायामिति, सिद्धानां तुद्वर्त्तनैव नास्ति, अपुनरावृत्तित्वात्तेषामिति, 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केव| इयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ?, एवं उववायदंडओ भाणियचो 'त्ति, स चायं - " गोयमा ! जहणणेणं एकं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ताई' अनेनाभिलापेन शेषा वाच्याः, तथाहि - 'सकरप्पभाए णं उक्कोसेणं सत्त राईदियाणि वालुयप्पभाए अद्धमासं पंकप्पभाए मासं धूमप्पभाए दो मासा तमप्पभाए चउरो मासा आहेसत्तमाए छमास ति असुरकुमारा 'चउवीसह मुहुत्ता' एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइया अविरहिया उववाएणं एवं सेसावि, बेइंदिया अंतोमुहुत्तं, एवं तेइंदियचउरिंदिय संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियावि गन्भवकंतियतिरिया मणुया य वारस मुहुत्ता संमुच्छिममणुस्सा चउवीसई मुहुत्ता विरहिआ उववाएणं, वंतरजोइसिया चउवीसं मुहुत्ताई, एवं सोहम्मी For Personal & Private Use Only १५४ आयुर्वन्धभे दोत्पादो द्वर्त्तनाविरहाकर्षाः ॥ १४८ ॥ www.jalnelibrary.org Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। साणेवि, सणंकुमारे णव दिणाई वीसा य मुहुत्ता, माहिंदे बारस दिवसाइं दस मुहुत्ता बंभलोए अद्धतेवीसं राइंदि-1 याइं लंतए पणयालीसं महासुक्के असीई सहस्सारे दिणसयं आणए संखेजा मासा एवं पाणएवि आरणे संखेजा है वासा एवं अच्चुएवि गेवेजपत्थडेसु तिसु कमेण संखेज्जाई वाससयाई वाससहस्साई वाससयसहस्साई विजयाइसु ६ असंखेजं कालं, सबट्ठसिद्धे पलिओवमस्साखेज्जइभार्गति ‘एवं उवट्टणादंडओवित्ति । उपपात उद्वर्त्तना चायु-12 बन्धे एव भवतीत्यायुर्वन्धे विधिविशेषप्ररूपणायाह-'नेरइए'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानं, यथा गौः पानीयं पिबन्ती भयेन पुनः पुनः आबृहति, एवं जीवोऽपि तीव्रणायुर्वन्धाध्यवसानेन सकृदेव जातिनामनिधत्तायुः प्रकरोति, मन्देन द्वाभ्यामाकर्षाभ्यां मन्दतरेण त्रिभिर्मन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षभिः सप्तभिरष्टाभिर्वा न पुनर्नवभिः, एवं शेषाण्यपि, 'आउगाणि'त्ति गतिनामनिधत्तायुरादीनि वाच्यानि यावद्वैमानिका इति, अयं चैकाद्याक-16 |पनियमो जात्यादिनामकर्मणामायुर्वन्धकाल एव बध्यमानानां शेषकालमायुर्वन्धपरिसमाप्रुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येव, एषां ध्रुवबन्धिनीनां च ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनिवृत्तिर्भवति, एतास्तु परावृत्य बध्यन्त इति, अनन्तरं जीवानामायुर्वन्धप्रकार उक्तोऽधुना तेषामेव संहननसंस्थानवेदप्रकारमाहकइविहे णं भंते ! संघयणे पन्नते ?, गोयमा! छबिहे संघयणे पन्नत्ते, तंजहा-वइरोसभनारायसंघयणे रिसभनारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे कीलियासंघयणे छेवट्ठसंघयणे, नेरइया णं भंते ! किंसंघयणी ?, गोयमा ! छण्डं संघयणाणं असंघयणी Jain Education For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18| हननसं श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः ॥१४९॥ णेव अढि णेव छिरा णेव पहारू जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया अणाएजा असुभा अमणुण्णा अमणामा अमणाभिरामा ते १५५ संतेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति, असुरकुमारा णं भंते ! किंसंघयणा पन्नत्ता ?, गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी णेव छिराणेव पहारू जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति, एवं जाव थणि है स्थानानि. यकुमाराणं, पुढवीकाइया णं भंते ! किंसंघयणी पन्नत्ता ?, गोयमा! छेवट्ठसंघयणी प०, एवं जाव समुच्छिमपञ्चिन्दियतिरिक्खजोणियत्ति, गन्भवतिया छव्विहसंघयणी, समुच्छिममणुस्सा छेवट्ठसंघयणी गब्भवकंतियमणुस्सा छविहे संघयणे प०, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य ॥ कइविहे णं भंते! संठाणे पन्नते?, गोयमा! छविहे संठाणे प०, तं०समचउरंसे १ णिम्योहपरिमण्डले २ साइए ३ वामणे ४ खुजे ५ हुंडे ६, णेरइया णं भंते ! किंसंठाणी प० १, गोयमा! हुंडसंठाणी प०, असुरकुमारा किंसंठाणी प०१, गोयमा! समचउरंससंठाणसंठिया प०, एवं जाव थणियकुमारा, पुढवी मसूरसंठाणा प०, आऊ थिबुयसंठाणा पन्नत्ता, तेऊ सूइकलावसंठाणा पन्नत्ता, वाऊ पडागासंठाणा पन्नत्ता, वणस्सई नाणासंठाणसंठिया पन्नत्ता, बेइंदियतेइंदियचउरिदियसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खा हुंडसंठाणा प०, गम्भवक्कंतिया छन्विहसंठाणा संमुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता, गब्भवक्कंतियाणं मणुस्साणं छव्विहा संठाणा पन्नत्ता, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणियावि ॥ (सूत्रं१५५) ॥१४९॥ 'कइविहे णमित्यादि, दण्डकत्रयं कण्ठ्यं, नवरं संहननमस्थिबन्धविशेषः, मर्कटस्थानीयमुभयोः पार्श्वयोरस्थि नाराचं. ऋषभस्तु पट्टः वजं कीलिका, वज्रश्च ऋषभश्च नाराचं च यत्रास्ति तद्ववर्षभनाराचसंहननं, मर्कटपट्टकीलिकारचना SSSS Jain Education Immenalonal For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 युक्तः प्रथमोऽस्थिवन्धः मर्कटपट्टाभ्यां द्वितीयः मर्कटयुक्तस्तृतीयः मर्कटकैकदेशबन्धनद्वितीयपार्श्वकीलिकासम्बन्धश्च तर्थः अङ्गलिद्वयसंयुक्तस्य मध्यकीलिकैव दत्ता यत्र तत्कीलिकासंहननं पञ्चमं यत्रास्थीनि चर्मणा निकाचितानि केवलं तत्सेवा, स्नेहपानादीनां नित्यपरिशीलना सेवा तया ऋतं व्याप्तं सेवार्चमिति षष्ठं, 'छण्हं संघयणाणं असंघयणे'त्ति उक्तरूपाणां षण्णां संहननानामन्यतमस्याप्यभावेनासंहनिनः-अस्थिसञ्चयरहिताः, अत एवाह-'नेवट्ठी'नैवास्थीनि तच्छरीरके 'नेव छिर'त्ति नैव शिरा-धमन्यः 'णेव पहारु'त्ति नैव स्नायूनीतिकृत्वा संहननाभावः, तत्सहितानां हि प्रचुरमपि दुःखं न बाधाविधायि स्यात्, नारकास्त्वत्यन्तशीतादिवाधिता इति, न चास्थिसञ्चयाभावे शरीरं नोपपीड्यते, स्कन्धवत्तदुपपत्तेः, अत एवाह–'जे पोग्गले'त्यादि, ये पुद्गला अनिष्टाः-अवल्लभाः सदैवैषां सामान्येन तथा अकान्ता-अकमनीयाः सदैव तद्भावेन तथा अप्रिया-द्वेष्याः सर्वेषामेव तथाऽशुभाः-प्रकृत्यसुन्दरतया अमनोज्ञा-अम-18 नोरमाः कथयापि तथा अमनःआपा-न मनःप्रियाश्चिन्तयापि ते एवंभूताः पुद्गलास्तेषां-नारकाणां 'असंघयणत्ताएत्ति अस्थिसञ्चयविशेषरहितशरीरतया परिणमंति, 'कइविहे गं भंते! संठाणे' यादि, तत्र मानोन्मानप्रमाणानि I अन्यूनान्यनतिरिक्तानि अङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत्समचतुरस्रसंस्थानं, तथा नामित उपरि सर्वावयवाश्चतुरस्रा-लक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तन्यग्रोधसंस्थानं तथा नाभितोऽधः सर्वावयवाश्चतुरस्रा लक्षणाविसंवादिनो यस्योपरि च यत्तदनुरूपं न भवति तत्सादिसंस्थानं, तथा ग्रीवा हस्तपादाश्च समचतुरस्रा लक्ष SANSARSARKARNAKALA For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे १५६ वेदः १५७ समवसरणं. श्रीअभय वृत्तिः ॥१५०॥ णयुक्ता यत्र संक्षिप्तं विकृतं च मध्ये कोष्ठं तत् कुब्जसंस्थानं, तथा यलक्षणयुक्तं कोष्ठं चतुरस्रलक्षणापेतं ग्रीवाद्यवयवहस्तपादं च तद्वामनं, तथा यत्र हस्तपादाद्यवयवाः बहुप्रायाः प्रमाणविसंवादिनश्च तदुण्डमित्युच्यते । कइविहे णं भंते ! वेए प०१, गोयमा! तिविहे वेए प०, तं० इत्थीवेए पुरिसवेए नपुंसवेए, नेरइया णं भंते! किं इत्थीवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया प०?, गोयमा! णो इत्थी० णो पुंवेए णपुंसगवेया प०, असुरकुमारा णं भंते! किं इत्थी०पुरिस नपुंसगवेया ?, गोयमा! इत्थी० पुरिसवेया णो णपुंसगवेया जाव थणियकुमारा, पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणस्सई बितिचउरिदियसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खसमुच्छिममणुस्सा णपुंसगवेया गब्भवक्कंतियमणुस्सा पंचिंदियतिरिया य तिवेया, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसियवेमाणियावि (सूत्रं १५६) तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जाव गणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिणा जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्था तं-मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे । विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए ओसप्पिणीए दस कुलगरा होत्था, तंजहा-सयंजले सयाऊ य, अजियसेणे अणंतसेणे य। कजसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे य सत्तमे ॥२॥ दढरहे दसरहे सयरहे ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए सत्त कुलगरा होत्या, तंजहा-पढमेत्थ विमलवाहण [चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥३॥] एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराण सत्त भारिआ होत्था, तंजहा-चंदजसा चंदकंता [सुरूवपडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥४॥] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं पियरो होत्था, तंजहा-णाभी य जियसत्तु य [ जियारी संवरे इय, मेहे धरे पइढे य महसेणे ॥१५०॥ W Jain Education For Personal & Private Use Only helibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सम० Jain Education 1 य खत्तिए ॥५॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपूजे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे भाणू विस्ससणे इय ॥ ६ ॥ सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्त विजए समुद्दविजये य। राया य आससेणे य सिद्धत्थेच्चिय खत्तिए ॥ ७ ॥ ] उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं एए पियरो जिणवराणं ॥ ८ ॥ जंबूद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं मायरो होत्था तं०-मरुदेवी विजया सेणा [ सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहवी लखणा रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ ९ ॥ सुजसा सुवय अइरा सिरिया देवी पभावई पउमा । वप्पा सिवा य वामा तिसला देवी य जिणमाया ॥ १० ॥ ] जंबूद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्या, तंजहा उसम १ अजिय २ संभव ३ अभिनंदण ४ सुमइ ५ पउमप्पह ६ सुपास ७ चंदप्पभ ८ सुविहिपुप्फदंत ९ सीयल १० सिजंस ११ वासुपुज १२ विमल १३ अनंत १४ धम्म १५ संति १६ कुंथु १७ अर १८ मलि १९ मुणिसुवय २० णमि २१ णेमि २२ पास २३ वडमाणो २४ य, एएसिं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पुवभवया णामधेया होत्या, तं०- 'पढमेत्थ वइरणाभे विमले तह विमलवाहणे चैव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ॥ ११ ॥ सुंदरबाहु तह दीहबाहु जुगबाहु लट्ठबाहू य। दिण्णे य इंददत्ते सुंदर माहिंदरे चैव ॥ १२ ॥ सीहरहे मेहरहे रुप्पी अ सुंदसणे य बोद्धवे । तत्तो य नंदणे खलु सीहगिरी चेव वीसइमे ॥ १३ ॥ अदीणसत्तु संखे सुदंसणे नंदणे य बोद्धव्वे ॥ [ इमीसे ] ओसप्पिणीए एए, तित्थकराणं तु पुव्वभवा ॥ १४ ॥ एएसिं चउव्वीसाए तित्थकराणं चउव्वीसं सीयाओ होत्या, तंजहा - सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धाय । विजया य वेजयंती जयंती अपराजिया चेव ॥ १५ ॥ अरुणप्पभ चंदप्पभ सूरप्पह अग्गि सप्पभा चेव । विमला य पंचवण्णा सागरदत्ता य णागदत्ता य ॥ १६ ॥ For Personal & Private Use Only Sinelibrary.ora Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे १५७ अव: सर्पिणीजिनादि श्रीअभय० वृत्तिः ॥१५॥ अभयकर निबुइकरा मणोरमा तह मणोहरा चेव । देवकुरूत्तरकुरा विसाल चंदप्पभा सीया ॥१७॥ एआओ सीआओ सवेर्सि चेव जिणवरिंदाणं । सव्वजगवच्छलाणं सव्वोउगसुभाए छायाए ॥१८॥ पुलिं ओखित्ता माणुसेहिं साह(ह) रोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सी असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ १९॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउब्वियाभरणधारी। सुरअसुरवंदिआणं वहति सीधे जिणंदाणं ॥२०॥ पुरओ वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि । पञ्चच्छिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ॥२१॥ उसभो अ विणीयाए बारवईए अरिटवरणेमी । अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥ २२॥ सव्वेवि एगदूसेण [णिगया जिणवरा चउव्वीसं । ण य णाम अण्णलिंगे ण य गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥२३॥] एक्को भगवं वीरो [पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहिं । भगवंपि वासुपुजो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो॥ २४ ॥] उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं [च खत्तियाणं च । चउहि सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ २५॥] सुमइत्थ णिच भत्तेण [णिग्गओ वासुपुज चोत्थेणं । पासो मल्ली य अट्ठमण सेसा उ छट्टेणं ॥ २६ ॥] एएसिं णं चउव्वीसाए तित्थगराण चउव्वीसं पढमभिक्खादायारो होत्था, तंजहा-'सिजंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत्ते य । पउमे य सोमदेवे माहिदे तह सोमदत्ते य ॥२६ ॥ पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद सुणंदे जये य विजये य । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह वग्गसीहे अ॥२७॥ अपराजिय विस्ससेणे वीसइमे होइ उसमसेणे य। दिण्णे वरदत्ते धणे बहुले य आणुपुवीए ॥ २८॥ एए विसुद्धलेसा जिणवरमत्तीइ पंजलिउडा उ।तं कालं तं समयं पडिलाई जिणवरिंदे ॥ २९ ॥ संवच्छरेण भिक्खा [लद्धा उसमेण लोयणाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥३०॥] उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं परमणं अमियरसरसोवमं आसि ॥ ३१॥] सब्वेसिपि जिणाणं 545445CACAE- ॥१५१॥ an Educa For Personal & Private Use Only wwwjanelibrary.org Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education onal जहियं लद्धाउ पढमभिक्खाउ । तहियं वसुधाराओ सरीरमेत्तीओ बुट्ठाओ ॥ ३२ ॥ एएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चवीसं चेइयरुक्खा होत्था, तंजहा- गग्गोहसत्तिवण्णे साले पियए पियंगु छत्ताहे । सिरिसे य णागरुक्खे माली य पिलंक्खुरुक्खे य ॥ ३३ ॥ तिंदुग पाडल जंबू आसत्ये खलु तदेव दहिवण्णे । गंदीरुक्खे तिलए अंबयरुक्खे असोगे य ॥ ३४ ॥ चंपय बउले य तहा वेडसरुक्खे य धायईरुक्खे । साले य वडमाणस्स चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३५ ॥ बत्तीसं धणुयाई चेइयरुक्खी य वद्धमाणस्स । णिच्चोउगो असोगो ओच्छण्णो सालरुक्खेणं ॥ ३६ ॥ तिण्णे व गाउआई चेइयरुक्खो जिणस्स उसमस्स । सेसाणं पुण रुक्खा सरीरओ बारसगुणा उ ॥ ३७ ॥ सच्छत्ता सपडागा सवेइया तोरणेहिं उववैया । सुरअसुरनरुलमहिया चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३८ ॥ एएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसीसा होत्या, तंजहा - 'पढमेत्थ उसभसेणे बीइए पुण होइ सीहसेणे य । चारू य वज्जणाभे चमरे तह सुव्वय विदन्भे ॥ ३९ ॥ दिष्णेय वराहे पुण आणंदे गोधुमे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिट्टे चक्काह सयंभु कुंभे य ॥ ४० ॥ इंदे कुंभे य सुभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूई य । उदितोदितकुलवंसा विसुवसा गुणेहि उववेया । तित्थष्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥ ४१ ॥ एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसिस्सिणी होत्या, तंजहा - बंभी य फग्गु सामा अजिया कासवीरई सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा ॥ ४२ ॥ पढम सिवासुयी तह अंजुया भावियप्पा य रक्खी य । बंधुवती पुप्फवती अज्जा अमिला य अहिया ॥ ४३ ॥ जक्खिणी पुप्फचूला य चंदणऽञ्ज य आहियाउ ॥ उदितो दियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥ ४४ ॥ गाहा । ( सूत्रं १५७ ) जंबुद्दीवे णं भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्क - For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृत्तिः |१५८ अबसर्पिणीचक्र्यादि ॥१५२॥ SALAASASASARAN पियरो होत्था, तंजहा-उसमे सुमित्ते विजए समुद्दविजए य आससेणे य । विस्ससेणे य सूरे सुदंसणे कत्तवीरिए चेव ॥४५॥ पउमुत्तरे महाहरी, विजए राया तहेव य । बंभे बारसमे उत्ते, पिउनामा चक्कवट्टिणं ॥४६॥ जंबूद्दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिमायरो होत्था, तंजहा-सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवी अइरा सिरिदेवी तारा जाला मेरा वप्पा चुल्लणि अपच्छिमा ॥ जंबुद्दीवे. बारस चक्कवट्टी होत्था, तंजहा-भरहो सगरो मघवं [ सणंकुमारो य रायसहलो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ॥४७॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसङ्कलो । जयनामो य नरवई, बारसमो बंभदत्तो य ॥४८॥] एएसिं बारसण्हं चक्कवट्टीण बारस इत्थिरयणा होत्था, तंजहा-पढमा होइ सुभद्दा भद्द सुणंदा जया य विजया य । किण्हसिरी सूरसिरी पउमसिरी वसुंधरा देवी ॥४९॥ लच्छिमई कुरुमई इत्थीरयणाण नामाइं ॥ जंबूद्दीवे. नवबलदेवनववासुदेवपितरो होत्था, तंजहा-पयावई य बंभो [ सोमो रुद्दो सिवो महसिवो य । अग्गिसिहो य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो ॥५०॥ जंबूद्दीवे णं. णव वासुदेवमायरो होत्था, तंजहा-मियावई उमा चेव पुहवी सीया य अम्मया । लच्छिमई सेसमई, केकई देवई तहा ॥५१॥ जंबूद्दीवेणं. णवबलदेवमायरो होत्था, तंजहा-भद्दा तह सुभद्दा य, सुप्पमा य सुदंसणा । विजया वेजयंती य, जयंती अपराजिया ॥५२॥णवमीया रोहिणी य, बलदेवाण मायरो ॥ जंबूदीवेणं नव दसारमंडला होत्था, तंजहा-उत्तमपुरिसा मज्झमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी वचसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदसणा सुरूआ सुहसीला सुहाभिगमा सव्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमहणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुलपलावहसिया गंभीरमधुरपडिपुण्णसच्चवयणा अन्भुवगयव ॥१५२॥ Bain Education Internasional For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणोववेआ माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसवंगसुंदरंगा ससिसोमागारकंतपियदंसणा अमरिसणा पयंडदंडप्पभारा गंभीरदरसणिजा तालद्धओविद्धगरुलकेऊमहाधणुविकट्टया महासत्तसारा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्तिपुरिसा विउलकुलसमुन्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा हलमुसलकणकपाणी संखचक्कगयसत्तिनंदगधरा पवरुजलसुक्कंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोइयाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकण्ठलइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभिकुसुमरचितपलंबसोमंतकंतविकसंतविचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविरइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई सारयनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्धोसदुंदुभिसरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेजवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अन्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलगपीयगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो होत्था, तंजहा-तिविद् जाव कण्हे अयले जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥ ५३ ॥ एएसि णं णवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुब्बभविया नव नामधेजा होत्था, तंजहा-विस्समूई पश्चयए धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले । पियमित्त ललियमिते पुणवसू गंगदत्ते य ॥५४॥ एयाई नामाई पुत्वभवे आसि वासुदेवाणं । एत्तो बलदेवाणं जहक्कम कित्तइस्सामि ॥५५॥ विसनंदी य सुबन्धू सागरदत्ते असोगललिए य । वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य ॥५६॥ एएसिं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था, तंजहा-संभूय सुभद्द सुदंसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते आसागरसमुद्दनामे दुमसेणे यणवमए ॥५७॥ एए धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे एआसिं जत्थ नियाणाई कासीय ॥५८॥ एएसिं नवण्हं वासुदेवाणं पुव्वभवे नव नियाणभूमिओ होत्था, तंजहा-महुरा य० हत्थिणाउरं च ॥ ५९॥ एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव in Ede For Personal & Private Use Only Majainelibrary.org Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांग १५९ ऐरवतादौजिनादि भीअभय वृत्तिः ॥१५३॥ नियाणकारणा होत्था, तंजहा-गावी जुवे० जाप माउआ॥६०॥ एएसिं नवण्हं वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्या, तंजहाअस्सग्गीवे जाव जरासंधे ॥६१॥ एए खलु पडिसत्तू जाव सचक्केहिं ॥ ६२॥ एको य सत्तमीए पंच य छट्ठीऍ पंचमी एक्को। एक्को य चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥६३॥ अणिदाणकडा रामा [ सव्वेवि य केसवा नियाणकडा । उडुंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥६४॥] अटुंतकडा रामा एगो पुण बंभलोयकप्पंमि । एक्कस्स गब्भवसही सिज्झिस्सइ आगमिस्सेणं ॥६५॥ (सूत्रं १५८) जंबूद्दीवे. एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसं तित्थयरा होत्था, तंजहा-चंदाणणं सुचंदं अग्गीसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं ववहारि वंदिमो सोमचंदं च ॥६६॥ वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तहेव सिवसेणं । बुद्धं च देवसम्म सययं निखित्तसत्थं च ॥ ६७॥ असंजलं जिणवसहं वंदे य अणंतयं अमियणाणिं । उक्संतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥ ६८॥ अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेवं । निव्वाणगयं च वरं खीणदुहं सामकोटं च ॥ ६९ ॥ जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरायमग्गिउत्तं च । वोक्कसियपिजदोसं वारिसेणं गयं सिद्धिं ॥ ७० ॥ जंबूद्दीवे. आगमिस्साए उस्सप्पिणीए मारहे वासे सत्त कुलगरा भविस्संति, तंजहा-मियवाहणे सुभूमे य, सुप्पभे य सयंपमे । दत्ते सुहुमे सुबन्धू य, आगमिस्साण होक्खति ॥७१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए एरवए वासे दस कुलगरा भविस्संति, तंजहा-विमलवाहणे सीमंकरे . सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दडधणु दसधणू सयधणू पडिसूई सुमइत्ति । जंबुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा भविस्संति, तंजहा-महापउमे सूरदेवे, सुपासे य सयंपमे । सव्वाणभूई अरहा, देवस्सुए य होक्खई ।। ७२॥ उदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिले सत्तकित्ति य । मुणिसुब्बए य अरहा, सव्वभावविऊ जिणे ॥७३ ॥ अममे णिक्कसाए य, निप्पुलाए ॥१५३॥ Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only F inelibrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education य निम्ममे । चित्तउत्ते समाही य, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ७४ ॥ संवरे अणियट्टी य, विजए विमलेति य । देवोववाए अरहा, अणंतविजए इय ॥ ७५ ॥ एए बुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली । आगमिस्सेण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥ ७६ ॥ एएसि णं चवीसाए तित्थकराणं पुव्वभविया चउव्वीसं नामधेजा भविस्संति, तंजहा - सेणिय सुपास उदए पोट्टिल्ल अणगार तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा नंद सुनंदे य सतए य ॥ ७७ ॥ बोद्धव्वा देवई य सञ्चइ तह वासुदेव बलदेवे । रोहिणि सुलसा चैव तत्तो खलु रेवई चेव ॥ ७८ ॥ ततो हवइ सयाली बोद्धव्वे खलु तहा भयाली य । दीवायणे य कण्हे तत्तो खलु नारए चैव ॥ ७९ ॥ अंबड दारुमडे य साई बुद्धे य होइ बोद्धव्वे । भावी तित्थगराणं णामाई पुब्वभवियाई ॥ ८० ॥ एएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पियरो भविस्संति चउव्वीसं मायरो भविस्संति चउव्वीसं पढमसीसा भविस्संति चउव्वीसं पढमसिस्सणीओ भविस्संति चउव्वीसं पढमभिक्खादायगा भविस्संति चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति, जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए बारस चक्कवट्टिणो भविस्संति, तंजहा - भरहे य दीहदंते गूढदंते य सुद्धदंतेय । सिरिउत्ते सिरिभूई सिरिसोमे य सत्तमे ॥८१॥ पउमे य महापउमे विमलवाहणे ( लेतह) विपुलवाहणे चैव । वरिट्ठे बारसमे बुत्ते आगमिसा भरहाहिवा ॥ ८२ ॥ एएसि णं बारसहं चक्कवट्टीणं बारस पियरो भविस्संति, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति, जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति, नववासुदेवमायरो भविस्संति, नव चलदेवमायरो भविस्संति, नव दसारमंडला भविस्संति, तंजा - उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी एवं सो चैव वण्णओ भाणियव्वो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, तंजहा - नंदे य नंदमिते दीहबाहू तहा For Personal & Private Use Only ainelibrary.org Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे १५९ऐरवतादौजिनादि श्रीअभय वृत्तिः FACAMAC ॥१५४॥ महाबाहू । अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे ॥८॥ दुविद् य तिविद् य आगमिस्साण वण्हिणो । जयंते विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आणंदे नंदणे पउमे, संकरिसणे य अपच्छिमे ॥८४॥ एएसि णं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वमविया णव नामधेजा भविस्संति, नव धम्मायरिया भविस्संति, नव नियाणभूमीओ भविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्संति, तंजहा-तिलए य लोहजंधे, वइरजंघे य केसरी पहराए । अपराइए य भीमे, महाभीमे य सुग्गीवे ॥८५॥एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वेवि चक्कजोही हम्मिहिंति सचक्केहिं ॥ ८६ ॥ जंबुद्दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सपिणीए चउव्वीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा-सुमंगले अ सिद्धत्थे, णिव्वाणे य महाजसे।धम्मज्झए य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥ ८७ ।। सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥८८॥ सिद्धत्त्ये पुण्णघोसे य, महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥ ८९ ॥ सूरसेणे य अरहा, महासेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खई ॥ ९॥ सुपासे सुव्वए अरहा, अरहे य सुकोसले । अरहा अणंतविजए, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ९१॥. विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ९२ ॥ एए वुत्ता चउव्वीस, एरवयम्मि केवली । आगमिस्साण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥९३॥ बारस चक्कवट्टिणो भविस्संति, बारस चक्कवट्टिपियरो भविस्संति, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति, नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति, णव वासुदेवमायरो भविस्संति, णव बलदेवमायरो भविस्संति, णव दसारमंडला भविस्संति, उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा जाव दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, नव पुन्वभवणामधेजा णव धम्मायरिया णव णियाणभूमीओ णव णियाणकारणा, 8 ॥१५४॥ HAR For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाए एवए आगमिस्साए भाणियव्वा, एवं दोसुवि आगमिस्साए भाणियव्वा (सूत्रं १५८) इचेयं एवमाहिजंति, तंजहा -कुलगरवंसेइ य एवं तित्थगरवंसेइ य चक्कवट्टिवंसेइ य गणधरवंसेइ य इसिवंसेइ य जइवंसेइ य मुणिवंसेइ य सुएइ वा सुअंगेइ वा सुयसमासे वा सुखंधेइ वा समवाएइ वा संखेइ वा सम्मत्तमंगमक्खायं अज्झयणन्तिबेमि ॥ ( सूत्रं १५९) इति समवायं चउत्थमंगं समत्तम् ॥ 'कइविहे वेए'त्यादि, तत्र स्त्रीवेदः - पुंस्कामिता पुरुषवेदः - स्त्री कामिता नपुंसकवेदः - स्त्रीपुंस्कामितेति, एते च पूवदिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति समवसरणवक्तव्यतामाह - 'तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयचं' इह णङ्कारौ वाक्यालङ्कारार्थी अतस्ते इति प्राकृतत्वात् तस्मिन् काले सामान्येन दुष्षमसुषमालक्षणे तस्मिन् समये विशिष्टे यत्र भगवानेवं विहरति स्मेति ' कप्पस्स समोसरणं नेयवं'ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमेण समवसरणवक्तव्यताऽध्येया, सा चावश्यकोक्काया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितं, कियद्दूरमित्याह - 'जाव गणेत्यादि, तत्र गणधरः पञ्चमः सुधर्माख्यः सापत्यः शेषा निरपत्याः - अविद्यमानशिष्यसन्ततय इत्यर्थः 'वोच्छिन्न'त्ति सिद्धा इति, तथाहि - ' परिनिबुया गणहरा जीयन्ते नायए नव जणा उ । इन्दभृइ सुहम्मो य रायगिहे निधुए वीरे ॥ १ ॥ त्ति, अयं च समवसरणनायकः कुलकरवंशोत्पन्नो महापुरुषश्चेति कुलकराणां वरपुरुषाणां च वक्तव्यतामाह - 'जंबुद्दीवे' इत्यादि, सुगमं नवरं 'पढमेत्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभि Jain Educationonal For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय० वृति: ॥१५५॥ चंदे । तत्तो य पसेणइए मरुदेवे चैव नाभीय ॥ ३ ॥' त्ति तथा 'चंदजस चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । | सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाई ॥ ४ ॥ ति, तथा 'नाभी य जियसत्तू य जिवारी संवरे इय । मेहे घरे पट्टे य, महसेणे य खत्तिए ॥ ५ ॥ सुग्गीवे दृढरहे विण्हू वसुपुजे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससणे इअ ॥ ६ ॥ सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुहविजये य । राया य अस्ससेणे य सिद्धत्थे चिप खत्तिए ॥ ७ ॥ त्ति, तथा 'मरुदेवी विजयासेणा सिद्धत्था मङ्गला सुसीमा य पुहवी लखणा रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ ९ ॥ सुजसा सुच्चय अइरा, सिरिआ देवी पभावई पउमा वप्पा सिवा य वामा, तिसलादेवी य जिणमाय ॥ १० ॥ ति तथा 'सोउगसुभयाए छायाए 'त्ति सर्वर्त्तुकया - सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया छायया - प्रभया आतपाभावलक्षजया युक्ता इति शेषः ॥ १७ ॥ तथा 'सा हट्ठरोमकूवेहिं 'ति सा शिविका यस्यां जिनोऽध्यारूढः हृष्टरोमकूपैः - उदुषितरोमभिरित्यर्थः ॥ १८ ॥ तथा 'चलचबलकुंडलधर 'त्ति चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति वाक्यं, तथा स्वच्छन्देन - खरुच्या विकुर्वितानि यान्याभरणानि - मुकुटादीनि तानि धारयन्ति ये ते तथेति ॥ १९ ॥ तथा असुरेन्द्रादय इति योगः 'गरुल' ति गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः ॥ २१ ॥ ' तथा सच्चेवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउवीसं । न य णाम अण्णलिंगे नय गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥ २२ ॥ त्ति ' दूसेण' त्ति एकेन वस्त्रेणेन्द्रसमर्पितेन नोपधिभूतेन युक्ता निष्क्रान्ता इत्यर्थः न चान्यलिङ्गे - स्थविरकल्पिकादिलिङ्गेन तीर्थंकरलिङ्ग एवेत्यर्थः, कुलिङ्गे - शाक्यादिलिङ्गे, तथा 'एको For Personal & Private Use Only १५९ जिनचक्रिवासुदेवादि ॥१५५॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहिं । भयपि वासुपुज्जो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो ॥ २३ ॥ उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं च खतियाणं च।चउहि सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥२क्षा तथा 'सुमइत्व निचभत्तेण निग्गओ वासुपुज्ज चोत्थेणं । पासो मल्लीविय अट्टमेण सेसा उ छट्टेणं ॥२५॥ ति, सुमतिरत्र नित्यभक्तनानुपोषितो निष्क्रान्त इत्यर्थः, तथा 'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसमेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ॥३०॥ त्ति तथा 'उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोवमं आसि ॥३१॥ 'सरीरमेत्तीओ'त्ति पुरुषमात्रा 'चेइयरुक्खेति बद्धपीठवृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति, 'बत्तीसं धणुयाई गाहा 'निच्चोउगो'त्ति नित्यं-सर्वदा ऋतुरेव-पुष्पादिकालो यस्य स नित्य कः 'असोगो'त्ति अशोकाभिधानो यः समवसरणभूमिमध्ये भवति, 'ओच्छन्नो सालरुक्खेणं'ति अवच्छन्नः शालवृक्षेणेत्यत एव वचनादशोकस्योपरि शालवृक्षोऽपि कथञ्चिदस्तीत्यवसीयत इति ॥३६॥ 'तिण्णेव गाउयाई' गाहा, ऋषभखामिनो द्वादशगुण इत्यर्थः ॥३७॥ 'सवेइयति वेदिकायुक्ताः, एते चाशोकाः समवसरणसम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति ॥३८॥ तथा 'भरहो सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसद्दलो। संती कुंथू य अरहो हवइ सुभूमो य कोरवो ॥४६॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसहूलो । जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य ॥ ४७ ॥ तथा 'पयावती य बंभो सोमो रुद्दो सिवो महसिवोय । अग्गिसिहो दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवोत्ति दशाराणां-वासुदेवानां मण्डलानि-बलदेववासुदेवद्वयद्व ** 25* * dain Educati o nal For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे |१५९ जिनचक्रिवा|सुदेवादि श्रीअभय वृत्तिः ॥१५६॥ यलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि अत एव 'दो दोरामकेसव'त्ति वक्ष्यति, दशारमण्डलाव्यतिरिक्तत्वाच बलदेववासुदेवानां दशारमण्डलानीति पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमण्डलव्यक्तिभूतानां तेषा विशेषणार्थमाह-'तद्यथे'त्यादि. तद्यथेति बलदेववासुदेवखरूपोपन्यासारम्भार्थः, केचित्तु 'दशारमण्डणाईति, तत्र दशाराणां-वासुदेवकुलीनप्रजानां मण्डनाःशोभाकारिणो दशारमण्डना उत्तमपुरुषा इति, तीर्थकरादीनां चतुष्पञ्चाशत उत्तमपुरुषाणा मध्यमवर्त्तित्वात् मध्यमपुरुषाः, तीर्थकरचक्रिणां प्रतिवासुदेवादीनां च बलाद्यपेक्षया मध्यवर्तित्वात्, प्रधानपुरुषास्तत्कालिकपुरुषाणां शौयादिभिः प्रधानत्वात् , ओजखिनो मानसबलोपेतत्वात् , तेजखिनो दीप्तशरीरत्वात् , वर्चखिनः शारीरबलोपेतत्वात्, यशखिनः पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धिप्राप्तत्वात्, 'छायंसित्ति प्राकृतत्वात् छायावन्तः शोभमानशरीरा अत एव कान्ताः कान्तियोगात् सौम्या अरौद्राकारत्वात् सुभगा जनवल्लभत्वात् प्रियदर्शनाः चक्षुष्यरूपत्वात् सुरूपाः समचतुरस्रसंस्थानत्वात् शुभं सुखं वा सुखकरत्वाच्छीलं-खभावो येषां ते शुभशीलाः सुखशीला वा सुखेनाभिगम्यते-सेव्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः सर्वजनगम्याः सर्वजननयनानां कान्ता-अभिलाष्या ये ते तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, ओघबलाः-प्रवाहबलाः अव्यवच्छिन्नबलत्वात् अतिबलाः शेषपुरुषबलानामतिक्रमात् महाबलाः-प्रश- स्तबलाः अनिहता-निरुपक्रमायुष्कत्वादुरोयुद्धे वा भूम्यामपातित्वात् अपराजितास्तैरेव शत्रूणां पराजितत्वात् , एतदेवाह-शत्रुमर्दनास्तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थनाद् रिपुसहस्रमानमथनास्तद्वान्छितकार्यविघटनात् सानुक्रोशाः प्रणतेष्वद्रो En JainEducation international For Personal & Private Use Only www.anelibrary.org Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सम० Jain Education | हकत्वात् अमत्सराः परगुणलवस्यापि ग्राहकत्वात् अचपला मनोवाक्कायस्थैर्यात् अचण्डा निष्कारणप्रबलकोपरहितत्वात् मिते- परिमिते मञ्जुले - कोमले प्रलापश्च - आलापो हसितं च येषां ते मितमञ्जलप्रलापहसिताः गम्भीरं - अद|र्शितरोषतोपशोकादिविकारं मेघनादवद्वा मधुरं श्रवणसुखकरं प्रतिपूर्णम्-अर्थप्रतीतिजनकं सत्यम् - अवितथं वचनं वाक्यं येषा ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, अभ्युपगतवत्सलास्तत्समर्थनशीलत्वात् शरण्यास्त्राणकरणे साधुत्वात् लक्षणानि - मानादीनि वज्रखस्तिक चक्रादीनि वा व्यञ्जनानि - तिलकैमषादीनि तेषां गुणा-महर्द्धिप्रात्यादयस्तैरुपेताः शकन्ध्यादिदर्शनादुपपेता - युक्ता लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेताः, मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरता, कथं ?, उदकपूर्णायां द्रोण्या निविष्टे पुरुषे यज्जलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं स्यात् तदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते, उन्मानं अर्द्धभारपरिमाणता, कथं ?, तुलारोपितस्य पुरुषस्य यद्यर्द्धभारस्तौल्यं भवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणमष्टोतरशतमङ्गुलानामुच्छ्रयः, मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्ण – अन्यूनं सुजातमागर्भाधानात् पालनविधिना सर्वाङ्गसुन्दरं -निखिलावयवप्रधानं अङ्गं शरीरं येषां ते तथा, शशिवत् सौम्याकार मरौद्रमबीभत्सं वा कान्तं-दीसं प्रियं जनानां प्रमो दोत्पादकं दर्शनं रूपं येषां ते तथा, 'अमरिसण'त्ति अमसृणाः - प्रयोजनेष्वनलसाः अमर्षणा वा अपराधेष्वपि कृतक्षमाः प्रकाण्ड - उत्कटो दण्डप्रकार आज्ञाविशेषो नीतिभेदविशेषो वा येषा ते तथा, अथवा प्रचण्डो- दुःसाध्यसाधकत्वाद्दण्डप्रचारः - सैन्यविचरणं येषां ते तथा, गम्भीरा - अलक्ष्यमाणान्तर्वृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः, For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥१५७॥ १५९ जिनचक्रिवासुदेवादि ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्रचण्डदण्डप्रचारेण वा ये गम्भीरा दृश्यन्ते, तथा तालस्तलो वा वृक्षविशेषो ध्वजो येषां ते तालध्वजाः बलदेवा उद्विद्धः-उच्छ्रितो गरुडलक्षितः केतुः-ध्वजो येषां ते उद्विद्धगरुडकेतवो वासुदेवाः तालध्वजाश्च उद्विद्धगरुडकेतवश्च तालध्वजोद्विद्धगरुडकेतवः महाधनुर्विकर्षकाः महाप्राणत्वात् महासत्त्वलक्षणजलस्य सागरा इव सागरा आश्रयत्वान्महासत्त्वसागराः दुर्द्धरा रणाङ्गणे तेषां प्रहरतां केनापि धन्विना धारयितुमशक्यत्वात्, धनुर्धराः-कोदण्डप्रहरणाः, धीरष्वेवैतेषु च ते पुरुषाः-पुरुषकारवन्तो न कातरेष्विति धीरपुरुषाः, युद्धजनिता या कीर्तिस्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्तिपुरुषाः, विपुलकुलसमुद्भवा इति प्रतीतं, महारत्नं-वजं तस्य महाप्राणतया विघटका-अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां चूर्णका महारत्नविघटकाः, वज्रं हि अधिकरण्यां धृत्वा अयोधनेनाऽऽस्फोट्यते न च भिद्यते तावेव भिनत्तीति, दुर्भेदं तदिति, अथवा महती या रचना सागरशकटव्यूहादिना प्रकारेण सिसामयिषोर्महासैन्यस्य रणरङ्गरसिकतया महाबलतया च विघटयन्ति–वियोजयन्ति ये ते महारचनाविघटकाः, पाठान्तरेण तु महारणविघटकाः, अर्द्धभरतखामिनः सौम्या नीरुजा राजकुलवंशतिलकाः अजिताः अजितरथाः, 'हलमुशलकणकपाणयः' तत्र हलमुशले प्रतीते ते प्रहरणतया पाणी-हस्ते येषां ते तथा बलदेवाः येषां तु कणका-बाणाः पाणी ते शाङ्गधन्वानो वासुदेवाः, शंखश्च पाञ्चजन्याभिधानः चक्रं तु सुदर्शननामकं गदा च कौमोदकीसंज्ञा लकुटविशेषः शक्तिश्च त्रिशूलविशेषो नन्दकश्च नन्दकाभिधानः खड्गस्तान् धारयन्तीति शंखचक्रगदाशक्तिनन्दकधराः वासुदेवाः, प्रवरो वरप्रभाव ॥१५७॥ Jain Education For Personal & Private Use Only nelibrary.org Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9AROSADCASEACHECCANCESCRey योगादुज्ज्वलः शुक्लत्वात् खच्छतया वा शुक्लान्तः कान्तियोगात् पाठान्तरे सुकृतः-सुपरिकर्मितत्वात् विमलो मलवर्जितत्वात् गोथुभत्ति-कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषस्तं तिरीडंति-किरीटं च मुकुट धारयन्ति ये ते तथा, कुण्डलोद्योतिताननाः पुण्डरीकवन्नयने येषां ते तथा, एकावली-आभरणविशेषः सा कण्ठे ग्रीवायां लगिता-अवल|म्बिता सती वक्षसि-उरसि वर्तते येषां ते एकावलीकण्ठलगितवक्षसः, श्रीवत्साभिधानं सुष्टु लाञ्छनं महापुरुषत्वसूचकं वक्षसि येषां ते श्रीवत्सलाञ्छनाः, वरयशसः सर्वत्र विख्यातत्वात् सर्वर्तुकानि-सर्वऋतुसंभवानि सुरभीणि-सुगन्धीनि यानि कुसुमानि तैः सुरचिता-कृता या प्रलम्बा-आप्रदीपना सोभंतत्ति-शोभमाना कान्ता-कमनीया विकसन्ती-फुल्लन्ती चित्रा-पञ्चवर्णा वरा-प्रधाना माला-स्रक रचिता-निहिता रतिदा वा-सुखकारिका वक्षसि येषां ते सर्वतुकसुरभिकुसुमरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसचित्रवरमालारचितवक्षसः, तथा अष्टशतसंख्यानि विभक्तानिविविक्तरूपाणि यानि लक्षणानि-चक्रादीनि तैः प्रशस्तानि-मङ्गल्यानि सुन्दराणि च-मनोहराणि विरचितानि-विहितानि 'अंगमंग'त्ति अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽङ्गुल्यादीनि येषां ते अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः, तथा मत्तगजवरेन्द्रस्य यो ललितो-मनोहरो विक्रमः-संचरणं तद्वद्विलासिता संजातविलासा गतिः-गमनं येषां ते महै त्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविलासितगतयः, तथा शरदि भवः शारदः स चासौ नवं स्तनितं-रसितं यस्मिन्निर्घोषे स नव-|| स्तनितः स चेति समासः स चासौ मधुरो गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः-पक्षिविशेषनिनादस्तद्वद् दुन्दुभिखरो-वर्च JainEducation For Personal & Private Use Only albrary.org Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- यांगे १५९ जिनचक्रिवा सुदेवादि. वृत्तिः ॥१५८॥ खरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रौञ्चनिर्घोषदुन्दुभिखराः, इह च शरत्काले हि क्रौञ्चा माद्यन्ति मधु- रध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणं, तथा पौनःपुन्येन शब्दप्रवृत्तौ तद्भङ्गादमनोज्ञता तस्य स्यादिति नवस्तनितग्रहणं पदर्शनार्थ मधुरगभीरग्रहणमिति, तथा कटीसूत्रकं-आभरणविशेषस्तत्प्रधानानि नीलानि बलदेवानां पीतानि 8 वासुदेवानां कौशेयकानि-वस्त्रविशेषभूतानि वासांसि-वसनानि येषां ते कटीसूत्रनीलपीतकौशेयवाससः, प्रवरदीसतेजसो वरप्रभावतया वरदीप्सितया च, नरसिंहा विक्रमयोगात् नरपतयः तन्नायकत्वात् नरेन्द्राः परमैश्वर्ययोगात् नरवृपभा उक्षिप्तकार्यभरनिर्वाहकत्वात् मरुद्भुषभकल्पाः-देवराजोपमा अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः, नीलकपीतकवसना इति पुनर्भणनं निगमनार्थ, कथं ते नवेत्याह-'दुवे दुवे' इत्यादि, एवं च नव वासुदेवा नव बलदेवा इति, 'तिविटे य'यावत्करणात् 'दुविढे य, सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिसपुंडरीये दत्ते नारायणे कण्हे ॥ ५२ ॥ ति, 'अयले विजये भद्दे, सुप्पभे य सुदंसणे । आनंदे णंदणे पउमे रामे यावि अपच्छिमे ४॥५३॥' त्ति 'कित्तीपुरिसाणं'ति कीर्तिप्रधानपुरुषाणामिति ॥ ५८ ॥ महुरा य कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च 8 रायगिहं । कायंदी कोसम्बी मिहिलपुरी हत्थिणपुरं च ॥ ५९॥ तथा 'गावि जुए संगामे तह इत्थी पराइओ रङ्गे। भजाणुराग गोट्ठी परइड्ढी माउया इय ॥६०॥ त्ति तथा 'अस्सग्गीवे तारए मेरए महुकेढवे निसुंभे य । बलि पहराए तह रावणे य नवमे जरासंधे ॥ ६१॥' ति 'एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सबेवि चक्क ॥१५॥ Jain Education in For Personal & Private Use Only Oww.jainelibrary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोही सब्वेवि हया सचक्केहिं ॥ ६२॥' ति 'अणियाणकडा रामा सब्वेवि य केसवा नियाणकडा । उहंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ ६४ ॥' ति 'आगमिस्सेणं ति आगमिष्यता कालेन 'आगमेस्साणंति पाठान्तरे आ-* गमिष्यता-भविष्यतां मध्ये सेत्स्यन्ति ॥ ६५ ॥' त्ति जंबूद्वीपैरवते अस्थामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा अभूवन् , तांश्च स्तुतिद्वारेणाह-तद्यथा-'चंदाणणं' गाहा, चन्द्राननं सुचन्द्रं अग्निसेनं च नन्दिसेनं च, कृचिदात्मसेनोऽप्ययं दृश्यते, ऋषिदिन्नं व्रतधारिणं च वन्दामहे श्यामचन्द्रश्च ॥६६॥ 'वन्दामि' गाहा, वन्दे युक्तिसेनं क्वचिदयं दीर्घबाहुर्दीर्घसेनो वोच्यते, अजितसेनं क्वचिदयं शतायुरुच्यते, तथैव शिवसेनं क्वचिदयं सत्यसेनोऽभिधीयते, सत्यकिश्चेति , बुद्धं चावगततत्त्वं च देवशर्माणं देवसेनापरनामकं सततं सदा वंद इति, प्रकृतं निक्षिप्तशस्त्रं च नामान्तरतः श्रेयांसः ॥ ६७ ॥ 'असंजलं' गाहा, असंज्वलं जिनवृषभं पाठान्तरेण वयंजलं वंदे अनन्तकं जिनममितज्ञानिनं सर्वज्ञमित्यर्थः, नामान्तरेणायं सिंहसेन इति, उपशान्तं च-उपशान्तसंज्ञं धूतरजसं वन्दे खलु गुमिसेनं च ॥ ६८ ॥ 'अइपास' गाहा, अतिपार्श्व च सुपार्श्व देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवं निर्वाणगतं च धरं-धरसंशं प्रक्षीणदुःखं श्यामकोष्ठं च ॥ ६९ ॥ 'जिय' गाहा, जितरागमग्निसेनं महासेनमपरनामकं वन्दे क्षीणरजसममिपुत्रं च व्यवकृष्टप्रेमद्वेषं च वारिषेणं गतं सिद्धिमिति, स्थानान्तरे किञ्चिदन्यथाप्यानुपूर्वी नाम्नामुपलभ्यते ॥ ७० ॥ महापद्मादयो विजयान्ताश्चतुर्विशतिः ॥ ७५ ॥ एवमिदं सर्व सुगम ग्रंथसमाप्तिं यावत्, नवरं 'आयाए'त्ति बलदेवादेरायातं देवलोकादेश्युतस्य मनु Jain Educational For Personal & Private Use Only inelibrary.org Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा- येपूत्पादः सिद्धिश्च यथा रामस्येति, एवं 'दोसुवित्ति भरतैरावतयोरागमिष्यन्तो वासुदेवादयो भणितव्याः। इत्येवमने- निगमनं. यांगे कधार्थानुपदाधिकृतग्रन्थस्य यथार्थान्यभिधानानि दर्शयितुमाह-इत्येतदधिकृतशास्त्रमेवमनेनाभिधानप्रकारेणाss-12 श्रीअभय० ख्यायते-अभिधीयते, तद्यथा-कुलकरवंशस्य-तत्प्रवाहस्य प्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इति च, इतिरुपदर्शने चशब्दः | वृत्तिः है समुच्चये, एवं तित्थगरवंसेइ यत्ति यथा देशेन कुलकरवंशप्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इत्येतदाख्यायते एवं देशतस्ती॥१५९॥ र्थकरवंशप्रतिपादकत्वात् तीर्थकरवंश इति च आख्यायते एतदिति, एवं चक्रवर्तिवंश इति च तत्प्रतिपादकत्वात् दशारवंश इति च गणधरवंश इति च गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तद्वंशप्रतिपादकत्वादषिवंश इति च तत्प्रतिपादनं चात्र पर्युषणाकल्पस्य ऋषिवंशपर्यवसानस्य समवसरणप्रक्रमेण भणितत्वादत एव यतिवंशो मुनिवंशश्चैतदुच्यते, यतिमुनिशब्दयोः ऋषिपर्यायत्वात्, तथा श्रुतमिति चैतदाख्यायते, परोक्षतया त्रैकालिकार्थावबोधनसहत्वादस्य, तथा 'श्रुताङ्गमिति वा' श्रुतस्य-प्रवचनस्य पुरुषरूपस्याङ्गं-अवयव इतिकृत्वा, तथा 'श्रुतसमास इति वा' समस्तसूत्रार्थानामिह संक्षेपेणाभिधानात् 'श्रुतस्कन्ध इति वा' श्रुतसमुदायरूपत्वादस्य 'समाए वत्ति समवाय इति वा, समस्तानां जीवानां-जीवादिपदार्थानामभिधेयतयेह समवायनात् मीलनादित्यर्थः, तथा एकादिसंख्याप्रधानतया ॥१५९॥ पदार्थप्रतिपादनपरत्वादस्य संख्येति व्याख्यायते, तथा समस्तं-परिपूर्ण तदेतदङ्गमाख्यातं भगवता, नेह श्रुतस्कन्धद्वयादिखण्डनेनाचारादिवदङ्गतेति भावः, तथा 'अज्झयणंति'त्ति समस्तमेतदध्ययनमित्याख्यातं नेहोदेशकादिखण्ड SANSARAMSAROSAROKAR C din Educato For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASUSCRECESSAGROCARENCE नाऽस्ति शस्त्रपरिज्ञादिष्विवेति भावः, इतिशब्दः समाप्तौ 'ब्रवीमी ति किल सुधर्मखामी जम्बूखामिनं प्रत्याह स्म, ब-18 वीमि-प्रतिपादयामि, एतत् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिनः समीपे यदवधारितमित्यनेन गुरुपारम्पर्यमर्थस्य प्रतिपा-1* दितं भवति, एवं च शिष्यस्य ग्रन्थे गौरवबुद्धिरुपजनिता भवति, आत्मनश्च गुरुषु बहुमानो दर्शित औद्धत्यं च परिहतं, अयमेवार्थः शिष्यस्य सम्पादितो भवति मुमुक्षूणां चायं मार्ग इत्यावेदितमिति समवायाख्यं चतुर्थमङ्गं वृत्तितः समाप्तम् ॥ नमः श्रीवीराय प्रवरवरपार्थाय च नमो, नमः श्री वाग्देव्यै वरकविसभाया अपि नमः ॥ नमः श्रीसङ्घाय स्फुटगुणगुरुभ्योऽपि च नमो, नमः सर्वस्मै च प्रकृतविधिसाहाय्यककृते ॥१॥ यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो चतुर्मिरधिका मानं पदानामभूत् ॥ तस्योचैश्चलकाकृति निदधतः कालादिदोषात्तथा, दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः? ॥२ खं कष्टेऽतिनिधाय कष्टमधिकं मा मेऽन्यदा जायतां, व्याख्यानेऽस्य तथा विवेत्तुमनसामल्पश्रुतानाममुम् ॥ इत्यालोचयता तथापि किमपि प्रोक्तं मया तत्र च, दुर्व्याख्यानविशोधनं विदधतु प्राज्ञाः परार्थोद्यताः॥३॥ इह वचसि विरोधो नास्ति सर्वज्ञवाक्यात् , वचन तदवभासो यः स मान्द्यान्नृबुद्धेः । वरगुरुविरहाद्वाऽतीतकाले मुनीशैर्गणधरवचनानां श्रस्तसङ्घातनाद्वा ॥४॥ GANGACASSOCCASSEURES Jain Educationa lonal For Personal & Private Use Only MULinelibrary.org Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवा यांगे श्रीअभय वृत्तिः - // 160 // ACTRESPARROR व्याख्यानं यद्यपीदं प्रवरकविवचःपारतंत्र्येण दृष्टं(ब्ध)सम्भाव्योऽस्मिंस्तथापि क्वचिदपि मनसो मोहतोऽर्थादिभेदः / | प्रशस्तिः किन्तु श्रीसक्चबुद्धेरनुशरणविधेर्भावशुद्धेश्च दोषो, मा मेऽभूदल्पकोऽपि प्रशमपरमना अस्तु देवी श्रुतस्य // 5 // निःसम्बन्धविहारहारिचरितान् श्री वर्द्धमानाभिधान् , सूरीन् ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः // श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दप्पीयसां वाग्ग्मिनां, तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि // 6 // शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता॥ श्रीमतः समवायाख्यतुर्याङ्गस्य समासतः // 7 // एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् / अणहिलपाटकनगरे रचिता समवायटीकेयम् // 8 // प्रत्यक्षरं निरूप्यास्याः, ग्रन्थमानं विनिश्चितम् / त्रीणि श्लोकसहस्राणि, पादन्यूना च षट्शती // 9 // सूत्रसंख्या श्लोक 1667 वृत्तिः३५७५ उभयोर्मीलनेन 5242 // AssiMMSMSANASISAMANISONAKSeasosastsASHOMSANE , इति चन्द्रकुलाम्बरनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यदृब्धा समवायाङ्गसूत्रवृत्तिः समाप्ता // NewsSASUSPSINISASU SASISARAIPSMSANIASISASINISPSPANISHAN Jain Education Themational For Personal & Private Use Only Shayainelibrary.org