Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० दि० जैन संघ पुस्तकमाला का दूसरा पुष्प जैनधर्म [जैनधर्मके इतिहास, सिद्धान्त, आचार, साहित्य, कला पुरातत्त्व, पन्थ, पर्व-तीर्थक्षेत्र आदि का प्रामाणिक परिचय] भूमिका लेखक श्री डा० सम्पूर्णानन्द राज्यपाल, राजस्थान सरकार लेखक सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री प्राचार्य, श्री स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय काशी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मंत्री, साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा प्रथम संस्करण १९४८ एक हजार द्वितीय संस्करण १९४६ दो हजार तृतीय संस्करण १९५५ दो हजार चतुर्थ संस्करण १९६६ दो हजार मूल्य चार रुपये [ सर्वाधिकार सुरक्षित ] मुद्रक महावीर प्रेस, बी० २० / ४४, भेलूपुर वाराणसी - १ Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 MER NEPAL - भगवान् ऋषभदेव की अति प्राचीन मूर्ति [जैनधर्म पृष्ठ ४] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मैं जैनधर्मका अनुयायी नहीं हूँ, इसलिये जब श्री कैलाशचन्द्र जैनने मुझसे जैनधर्मका प्राक्कथन लिखनेको कहा तो मुझको कुछ सङ्कोच हुआ । परन्तु पुस्तक पढ़ जानेपर सङ्कोच स्वतः दूर हो गया। यह ऐसी पुस्तक है जिसका प्राक्कथन लिखने में अपनेको प्रसन्नता होती है। छोटी होते हुए भी इसमें जैनधर्मके सम्बन्धकी सभी मुख्य बातोंका समावेश कर दिया गया है । ऐसी पुस्तकोंमें, स्वमत स्थापनके साथ साथ कहीं कहीं परमत दोषोंको दिखलाना अनिवार्य-सा हो जाता है । कमसे-कम अपने मतके आलोचकों को आलोचना तो करनी ही पड़ती है। प्रस्तुत पुस्तकमें, स्याद्वादके सम्बन्धमें श्रीशङ्कराचार्य्यने लेखककी सम्मतिमें इस सिद्धान्तके समझने में जो भूल की है उसकी ओर सङ्केत किया गया है। परन्तु कहीं भी शिष्टताका उल्लङ्घन नहीं होने पाया है। आजकल हम भारतीय इस बातको भूल से गये है कि गम्भीर विषयोंके प्रतिपादनमें अभद्र भाषाका प्रयोग निन्द्य है और सिद्धान्तका खण्डन सिद्धान्तोंपर कीचड़ उछाले विना भी किया जा सकता है । यह पुस्तक इस विषयमें अनुकरणीय अपवाद है । भारतीय संस्कृतिके संवर्द्धनमें उन लोगोंने उल्लेख्य भाग लिया है जिनको जैन शास्त्रोंसे स्फूर्ति प्राप्त हुई थी। वास्तुकला, मूर्तिकला, वाङ मय-सबपर हो जैन विचारोंकी गहिरो छाप है। जैन विद्वानों और श्रावकोंने जिस प्राणपणसे अपने शास्त्रोंकी रक्षा को थी वह हमारे इतिहासकी अमर कहानी है। इसलिए जैन विचारधाराका परिचय शिक्षित समुदायको होना ही चाहिए । कुछ बातें ऐसी हैं जिनमें जैनियोंको स्वभावतः विशेष अभिरुचि होगी । दिगम्बर-श्वेताम्बर विवादमें सबको स्वारस्य नहीं हो सकता और न सब लोगोंको उन खाद्याखाद्य व्रतादिके नियमोपनियमोंकी जानकारीकी विशेष आवश्यकता है। परन्तु जो लोग धर्म और दर्शनका अध्ययन करते हैं उनको यह तो जानना ही चाहिये कि ईश्वर, जीव, जगत्, मोक्ष जैसे प्रश्नोंके सम्बन्धमें जैन आचार्योने क्या कहा है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष और विस्तृत अध्ययनके लिये तो बड़े ग्रंथोंको देखना ही होगा प्रारम्भिक ज्ञानके लिए यह छोटी-सी पुस्तक बहुत उपयोगी है । और जैन दः जैन दर्शन जगत्को सत्य मानता है । यह बात शाङ्कर अद्वैत विरुद्ध तो है परन्तु आस्तिक विचारधारासे असंगत नहीं है । उसका श्वरवादी होना भी स्वतः निन्द्य नहीं है । परम आस्तिक सांख्य मीमांसा शास्त्रोंके प्रवर्तकों को भी ईश्वरकी सत्ता त्वीकार करने में श्यक गौरवको प्रतीति होती है । वेदको प्रमाण न माननेके कारण दर्शनकी गणना नास्तिक विचार शास्त्रोंमें है परन्तु कर्म्मसिद्धान्त, पु तप, योग, देवादि विग्रहोंमें विश्वास जैसी कई ऐसी बातें हैं जो उलटफेरके साथ भारतीय आस्तिक दर्शनों तथा बौद्ध समानरूपसे सम्पत्ति हैं । इन सबका उद्गम एक है । आर्य्य जातिने मूल पुरुषोंसे जो आध्यात्मिक दाय पाया था उसकी पहिली अभि उपनिषदोंमें हुई । देशकालके भेदसे किञ्चित् नये परिधान धारण फिर वही वस्तु हमको महावीर और गौतमके द्वारा प्राप्त हुई । अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गी न्याय जैन दर्शनका मुख्य सिद्धान प्रत्येक पदार्थके जो सात 'अन्त' या स्वरूप जैन शास्त्रोंमें कहे हैं ठीक उसी रूपसे स्वीकार करनेमें आपत्ति हो सकती है । कुछ विद्व सात में कुछको गौण मानते हैं । साधारण मनुष्यको यह समझने में व होती है कि एक ही वस्तुके लिए एक ही समयमें है और नहीं बातें कैसे कही जा सकती हैं । परन्तु कठिनाईके होते हुए भी वस् तो ऐसी ही है । जो लेखनी मेरे हाथमें है, वह मेज़पर नहीं है बच्चेका अस्तित्व आज है उसका अस्तित्व कल नहीं था । जो वस्तु रूपसे है वह कुर्सीरूपसे नहीं है । जो घटना एकके लिए भूतकालिक दूसरे के लिए वर्तमानकी और तीसरेके लिए भविष्यत्की है । अखण् पदार्थ भले ही एकरस और ऐकान्तिक हो परन्तु प्रतीयमान जग सभी वस्तुएँ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हों, अनैकान्ति शङ्कराचार्य्यजीने इस बातको स्वीकार नहीं किया है इसलिए उन्होंने को सत् और असत्से विलक्षण, अथच अनिर्वचनीया कहा है । मैं स न्यायको तो बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक ब Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जाना समझा हूँ परन्तु अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करता हूँ । इसीलिए चिद्विलाससे मैंने मायाको सत् और असत् स्वरूप, अतः अनिर्वचनया माना है । ५ अस्तु, सब लोग इन प्रश्नोंकी गहिराईमें न भी जान चाहें तब भी मैं आशा करता हूँ कि इस सुबोध और उपादेय पुस्तकका आदर होगा । ऐसी रचनाएँ हमको एक दूसरेके निकट लाती हैं। ऐसा भी कोई समय था जब 'हस्तिना पीड्यमानोऽपि न विशेज्जैनमन्दिरम्' जैसी उक्तियाँ निकली थीं । जैनोंमें भी इस जोड़को कहावतें होंगी। आज वह दिन गये । अब हमें दार्शनिक और उपासना सम्बन्धी बातोंमें वैषम्य रखते हुए एक दूसरेके प्रति सौहार्द रखना हैं | अपनी अपनी रुचिके अनुसार हम चाहे जिस सम्प्रदाय में रहें परन्तु हमको यह ध्यान में रखना है कि कपिल, व्यास, शङ्कराचार्य्य; बुद्ध और महावीर प्रत्येक भारतीयके लिए आदरास्पद हैं । और हमको निःश्र यसके पथपर ले जानेमें समर्थ है । वैशाख शु० १, २००५ } सम्पूर्णानन्द Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखकके दो शब्द यों तो जैनधर्मका साहित्य विपुल है, किन्तु उसमें एक ऐसी पुस्तककी कमी थी जिसे पढ़कर जन-साधारण जैनधर्मका परिचय प्राप्त कर सके। इस कमीको सभी अनुभव करते थे। उज्जैनके सेठ लालचन्द जो सेठीने तो ऐसी पुस्तक लिखनेवालेको अपनी ओरसे एक हजार रुपया पारितोषिक प्रदान करनेकी घोषणा भी कर दी थी। मुझे भी यह कमी बहुत खटक रही थी। अतः मैंने इस ओर अपना ध्यान लगाया, जिसके फल स्वरूप प्रस्तुत पुस्तक तैयार हो सकी। प्रत्येक धर्मके दो रूप होते हैं-एक विचारात्मक और दूसरा आचारात्मक । प्रथम रूपको दर्शन कहते हैं और दूसरेको धर्म । दर्शनके अभ्यासियोंके लिये दोनों ही रूपोंको जानना आवश्यक है। इसलिये मैंने इस पुस्तकमें जैनधर्मके विचार और आचारका परिचय तो कराया ही है, साथ ही साथ साहित्य, इतिहास, पन्थभेद, पर्व, तीर्थक्षेत्र आदि अन्य जानने योग्य बातोंका भी परिचय दिया है, जिसे पढ़कर प्रत्येक पाठक जैनधर्मके सभी अंगों और उपांगोंका साधारण ज्ञान प्राप्त कर सकता है और उसके लिये इधर उधर भटकनेकी आवश्यकता नहीं रहती। इस पुस्तकमें जैनधर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले जिन विषयोंकी चर्चा की गई है, सब लोगोंको वे सभी विषय रुचिकर हों यह सम्भव नहीं है, क्योंकि'भिन्नरुचिहि लोकः' । इसीसे विभिन्न रुचिवाले लोगोंको अपनी अपनी रुचिके अनुकूल जैनधर्मकी जानकारी प्राप्त कर सकनेका प्रयत्न किया गया है। भारतीय विद्वानोंको प्रायः यह एक आम मान्यता है कि भारत में प्रचलित प्रत्येक धर्मका मूल उपनिषद हैं। इस मान्यताके मूलमें हमें तो श्रद्धामूलक विचारसरणिका ही प्राधान्य प्रतीत होता है। पुस्तकके अन्तमें जैनधर्मके साथ इतर धर्मोकी तुलना करते हुए हमने उक्त विचारसरणिकी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना की है । तत्वजिज्ञासुओंसे हमारा अनुरोध है कि इस विचार - सरणि पर नये सिरेसे विचार करके तत्त्वकी समीक्षा करें । अपनी विद्वत्ता और अध्ययनशीलताके कारण श्री सम्पूर्णानन्द जी पर मेरी गहरी आस्था है । मेरी इच्छा थी कि वह इस पुस्तकका प्राक्कथन लिखें । मैंने भाई प्रो० खुशालचन्द्र से अपनी यह इच्छा व्यक्त की और संयुक्तप्रान्तके मंत्रित्वका भार वहन करते हुए भी उन्होंने हम लोगोंके अनुरोधकी रक्षा की । एतदर्थं हम श्री सम्पूर्णानन्दजीके अत्यन्त अभारी हैं । जिन ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओंके लेखोंसे हमें इस पुस्तकके लिखने में विशेष साहाय्य मिला है उन सभी लेखकोंके भी हम आभारी हैं । उनमें भी प्रोफेसर ग्लैजनपके जैनधर्मसे हमें बड़ी सहायता मिली है, उसका पर्यवेक्षण करके ही इस पुस्तककी विषय-सूची तैयार की गई है। श्री नाथूरामजी प्रेमी के 'जैन साहित्य और इतिहास' का उपयोग 'सम्प्रदायपन्थ' लिखनेमें विशेष किया गया है। जैन हितैषीके किसी पुराने अंकमें जगत्कर्तृ त्वके सम्बन्ध में स्व० बा० सूरजभानु वकीलका एक लेख प्रकाशित हुआ था । वह मुझे बहुत पसन्द आया था । प्रस्तुत पुस्तक में 'यह विश्व और उसकी व्यवस्था' उसीके आधारपर लिखा गया है । अतः उक्त सभी सुलेखकोंके हम आभारी हैं । अन्तमें पाठकोंसे अनुरोध है कि प्रस्तुत पुस्तकके सम्बन्धमें यदि वे कोई सूचना देना चाहें तो अवश्य देनेका कष्ट करें। दूसरे संस्करण में उनका यथासंभव उपयोग किया जा सकेगा । } श्रुतपञ्चमी वी० नि० सं० २४७४ कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे संस्करणके सम्बन्धमें जब मैंने 'जैनधर्म' पुस्तकको लिखकर समाप्त किया तो मुझे स्वप्नमें भी यह आशा नहीं थी कि इस पुस्तकका इतना समादर होगा और पहले संस्करणके प्रकाशनके ६ माह बाद ही दूसरा संस्करण प्रकाशित करना होगा। ___अनेक पत्र-पत्रिकाओं और लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे इसकी प्रशंसा की है। ऐसे विरले ही पाठक हैं जिन्होंने पुस्तकको पढ़कर प्रत्यक्ष या परोक्षरूपमें उसकी सराहना नहीं की है। ____काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी प्रख्यात शिक्षा संस्थाने दर्शनशास्त्र विषयक बी. ए. (आनर्स ) के परीक्षार्थियों के अध्ययन के लिये इसे स्वीकृत किया है । जैन कालिज बड़ौत आदि अनेक कालिजों और स्कूलोंने जैनधर्मके अध्ययनके लिये इसे पाठ्य-क्रमके रूपमें स्थान दिया है। इस तरह शिक्षाके क्षेत्रमें भी प्रस्तुत पुस्तकको यथेष्ट स्थान और ख्याति मिली है। उज्जनके साहित्यप्रेमी सेठ लालचन्द जी सेठीने ७५०) का पुरस्कार देकर लेखकको पुरस्कृत किया है। ___अनेक विद्वान् पाठकोंने अपने कुछ उपयोगी सुझाव भी दिये हैं। उनके अनुसार इस संस्करण में परिवर्तन और परिवर्धनके साथ साथ दो नये प्रकरण बढ़ाये गये हैं-एक जैनकला और पुरातत्त्वके सम्बन्ध में और दूसरा जैनाचार्यों के सम्बन्धमें । तथा अन्तमें जैन पारिभाषिक शब्दों की एक सूची भी दे दी गई है। प्रथम प्रकरणके लिखने में मुनि श्री कान्तिसागर जी से विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है। जिन महानुभावोंने उक्त प्रकारसे मेरे उत्साह को बढ़ाया है मैं उन सभीका आभार हृदयसे स्वीकार करता हूँ। आश्विन–२००६ } विनीत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरे संस्करण के सम्बन्धमें 'जैनधर्म' का तीसरा संस्करण उपस्थित है। पिछले एक वर्षसे यह पुस्तक अप्राप्य थी । पाठकों और पुस्तक विक्रेताओंके तकाजोंके साथ उलाहने भी आते थे । प्रकाशनकी सूचना देते ही पुस्तककी माँगें आनो शुरू हो गई और व्यग्रता भरे पत्र आने लगे — कबतक प्रकाशित होगी, अब तो छप गई होगी, आदि । यह सब इस बातका सूचक है कि पाठकों को यह पुस्तक कितनी अधिक प्रिय है । अ० भा० राजपूत जैन संघने एक सुझाव भेजा कि 'जैनधर्म - क्षात्र धर्म - वीरधर्म है । ऐसा एक अध्याय जो सम्पूर्ण क्षत्रिय जातिके लिये पूर्णतः आकर्षक हो, जिससे आजके भ्रांत एवं पथ - भ्रष्ट राजपूत पुनः सत्यके प्रकाशमें आ सकें, रखा जाये, तथा पुस्तकका टाइटिल - 'जैनधर्म ( क्षात्रधर्म ) - भारतका सार्वलौकिक सनातन सत्य आत्म धर्म' ऐसा रहे । तदनुसार इस संस्करण में 'कुछ जैनवीर' शीर्षक एक नया अध्याय जोड़ दिया गया है। टाइटिल बदलना कुछ जँचा नहीं, जैनेतर पाठकोंको उसमें मिथ्या अहंकारकी बू आ सकती थी । इस संस्करणमें अन्य भी कुछ सुधार किये गये हैं । इतिहास - भाग को पुनः व्यवस्थित किया गया है और उसमें 'कालाचूरि राज्यमें जैनधर्म' और 'विजयनगर राज्यमें जैनधर्म' दो नये शीर्षक जोड़े गये हैं । विविध नामक प्रकरण के पूर्वभाग को उससे अलग करके 'सामाजिक रूप नामसे दिया गया है । तथा 'स्थानकवासी सम्प्रदाय' और 'मूर्तिपूजा विरोधी तेरापन्थ सम्प्रदाय' को फिरसे लिखा गया है- क्योंकि उक्त सम्प्रदायों के व्यक्तियों की ओर से कुछ सुझाव प्राप्त हुए थे । आशा है पाठकों के लिये यह संस्करण और भी अधिक लाभप्रद साबित होगा । 1 फा० कृ० ११ २०११ विनीत Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ संस्करणके सम्बन्धमें जैनधर्मका चतुर्थ संस्करण पाठकोंके सामने है। इसका तीसरा संस्करण १९५५ में प्रकाशित हुआ था, ११ वर्ष बीतनेपर यह चौथा संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इसके इतिहास विभागमें तथा विविधमें कुछ वृद्धि की गई है। शेष सब पूर्ववत् है। इसका मराठी संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है। कनड़ी संस्करण भी तैयार हो रहा है। अंग्रेजी संस्करणको आवश्यकता है। क्योंकि अंग्रेजीमें भी इस प्रकारको पुस्तककी कमी है। पुस्तकको पृष्ठ संख्या पिछले संस्करणको अपेक्षा बढ़ गई है । कागज और छपाई वगैरहका भाव भी बहुत बढ़ गया है। फिर भी प्रचारको दृष्टिसे मूल्य पुराना ही रखा गया है । आशा है धर्मप्रेमी इससे लाभ उठावेंगे। वी. नि. सं० २४९२ ) भदैनी, वाराणसी कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन विषय-सूची १. इतिहास १-६४ | कलिंग चक्रवर्ती खारवेल ३६ १. आरम्भ काल बंगालमें जैनधर्म श्रीऋषभदेव जैनधर्मके गुजरातमें जैनधर्म राजपूतानेमें जैनधर्म प्रथम तीर्थङ्कर मध्यप्रान्तमें जैनधर्म भागवतमें ऋषभदेवका उत्तरप्रदेशमें जैनधर्म [ दक्षिण भारतमें जैनधर्म ऐतिहासिक अभिलेख गंग-वंश २. श्रीऋषभ देव होय्सल वंश ३. जैन धर्मके अन्य राष्ट्रकूट वंश प्रवर्तक कदम्ब वंश भगवान नेमिनाथ चालुक्य वंश भगवान पार्श्वनाथ कालाचुरि राज्यमें जैनधर्म ६१ भगवान महावीर विजयनगर राज्यमें , ६३] ४. भगवान महावीरके २. सिद्धान्त ६५-१५५ पश्चात् १. जैनधर्म क्या है ? ६५ [ बिहार में जैनधर्म २७ / २. अनेकान्तवाद राजा चेटक स्याद्वाद राजा श्रेणिक २८ सप्तभंगी ३. द्रव्य व्यवस्था नन्दवंश ३१ । ४. जीव द्रव्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त | ५. अजीव द्रव्य " अशोक पुद्गल द्रव्य " सम्प्रति धर्म-अधर्म द्रव्य [ उड़ीसामें जैनधर्म ३६ । आकाश द्रव्य अजातशत्रु Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालद्रव्य १०५ २ प्रतिक २०२ ६. यह विश्व और उसकी ३ सामायिको व्यवस्था १०८ ४ प्रोषधोपवासी २०७ ७. जैन दृष्टिसे ईश्वर ११९ ५ सचित्तविरत २०७ ८. उसकी उपासना १२५ ६ दिवामैथुनविरत ६. सात तत्व ७ ब्रह्मचारी २०६ १०. कर्म सिद्धान्त १४२ ८ आरम्भविरत २१० कर्म का स्वरूप १४२ परिग्रहविरत २१० कर्म अपना फल कैसे देते हैं १४५ १० अनुमतिविरत २११ कर्मके भेद १४८ ११ उद्दिष्टविरत कर्मोंकी अनेक दशाएँ १५२ साधक श्रावक २१४ ३. चारित्र १५६-२४६ ६. श्रावक धर्म और विश्व की समस्याएँ २१७ १. ससारम दुःख क्या ह १५५ ७. मुनिका चारित्र २२५ २. मुक्तिका मार्ग १६२ साधुको दिनचर्या २३२ ३. चारित्र या आचार १६६ ८.गुणस्थान २३६ ४. अहिंसा १७१ ९. मोक्ष या सिद्धि __गृहस्थकी अहिंसा १७७ १०. क्या जैनधर्म ५. श्रावकका चारित्र १८३ नास्तिक है २४५ अहिंसाणुव्रत १८४ ४.जैनसाहित्य२४७-२७३ रात्रिभोजन और जलगालन १८८ सत्याणुव्रत १६० दिगम्बर साहित्य २४८ अचौर्याणुव्रत श्वेताम्बर साहित्य २५७ ब्रह्मचर्याणुव्रत १९४ ४. कुछ प्रसिद्ध जैनाचार्य २६३ परिग्रह परिमाणवत १६५ गौतम गणधर श्रावकके मेद ११८ भद्रबाहु २६४ पाक्षिक श्रावक १९९ घरसेन २६४ [नैष्ठिक श्रावक २०० पुष्पदन्त और भूतबलि २६४ १ दर्शनिक २०० गुणधर २६५ २४३ २६३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ कुन्दकुन्द २६६ २६७ समद ३०१ rror wrror 99.04. २७० ३११ ३१२ २६५ । ३. सम्प्रदाय और पन्थ २९९ उमास्वामी [१ दिगम्बर सम्प्रदाय २९९ समन्तभद्र २६६ दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेन संघभेद देवनन्दि २६७ मूल संघके गण गच्छ पात्रकेसरी एवं अन्वय ३०४ ३०५ अकलंक काष्ठा संघ तेरह पन्थ और वीसपन्थ ३०७ विद्यानन्द माणिक्यनन्दि तारणपन्थ ३०८ [ २ श्वेताम्बर सम्प्रदाय ३०६ अनन्तवीर्य २६६ वीरसेन श्वेताम्बर चैत्यवासी जिनसेन मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके २७० गच्छ प्रभाचन्द्र २७१ स्थानकवासी ३१४ वादिराज २७१ मूर्तिपूजा-विरोधी नियुक्तिकार भद्रबाहु २७२ तेरापन्थ मल्लवादी २७२ यापनीय संघ ३१७ जिनभद्र गणि कूर्चक संघ ३१८ हरिभद्र अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय ३१६ अभयदेव २७३ हेमचन्द्र ७. विविध ३२१-३८१ यशोविजय १. कुछ जैनवीर ३२१ ५. जैनकला और राजा चेटक ३२२ पुरातत्व २७४-२८४ , उदयन सम्राट चन्द्रगुप्त चित्रकला २७४ खारवेल ३२२ मूर्तिकला कुमारपाल ३२३ स्थापत्यकला २७८ मारसिंह ६.सामाजिकरूप २८५-३२० चामुण्डराय १. जैन संघ गंगराज ३२४ २. संघ भेद २८९ कलचूरि राजा २७२ २७२ २७६ २७३ mr mr mr ३२२ ३२२ mr २७७ mr ३२३ r ३२३ mr २८५ mm Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोघ वर्ष वच्छावत सरदार धनराज जनरल इन्द्रराज वस्तुपाल तेजपाल सेनापति आभू जयपुरके दीवान १. जैन पर्व दशलक्षण पर्व अष्टान्हिका पर्व महावीर जयन्ती वीरशासन जयन्ती श्रुत पंचमी दीपावली रक्षाबन्धन २. तीर्थ क्षेत्र बिहार प्रदेश उत्तर प्रदेश बुन्देलखण्ड व मध्यप्रान्त राजपूताना व मालवा गुजरात तथा महाराष्ट्र प्रान्त मैसूर प्रान्त उड़ीसा प्रान्त ३२७ ३२७ ३२७ ३२८ ३२८ ३२८ ३२६ ३३० ३३० ३३२ ३३२ ३३२ ३३३ ३३४ ३३७ ३४० ३४१ ३४३ ३४६ ३५१ १४ ४. जैनधर्म और इतरधर्म ३६० १. जैनधर्म और हिन्दूधर्म वैदिक साहित्यका क्रमिक विकास वेदोंका प्रधान विषय ब्राह्मण साहित्य आरण्यक उपनिषद उपनिषदोंकी शिक्षा जैनधर्मका आधार नहीं है सर राधाकृष्णन्‌के मतकी आलोचना भारतीय धर्मोमें आदान प्रदान हिन्दू धर्म और जैनधर्ममें अन्तर २. जैनधर्म और बौद्ध धर्म दोनोंमें समानता दोनोंमें भेद ३६१ ३६१ ३६३ ३६३ ३६४ ३६४ ३६५ ३६७ ३७१ ३७६ ३७७ ३७७ ३७८ ३५४ ३. जैनधर्म और मुसलमान ३५७ धर्म ३७६ ३६० | ८. जैन सूक्तियाँ ३८२-३८७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C0000 ००० 0000000 ००००००००००००००००००००००००० जैनोंका मूल मंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । 6 णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ • एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो। • मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥: ० अर्हन्तोको नमस्कार, सिद्धोंको नमस्कार, आचार्यों० को नमस्कार, उपाध्यायोंको नमस्कार, लोकके सब साधु0 ओंको नमस्कार। यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापोंका * नाश करनेवाला है । और सब मंगलोमें आद्य मंगल है। 60०००००००००००००० &00000000000000000000००००० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म २. इतिहास १. आरम्भ काल एक समय था जब जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा समझ लिया गया था। किन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो चुकी है और नई खोजोंके फलस्वरूप यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्मसे न केवल एक पृथक् और स्वतन्त्र धर्म है किन्तु उससे बहुत प्राचीन भी है। अब अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरको जैनधर्मका संस्थापक नहीं माना जाता और उनसे अढाई सौ वर्ष पहले होनेवाले भगवान पार्श्वनाथको एक ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया गया है। इस तरह अब १ इस भ्रान्तिको दूर करनेका श्रेय स्व० डा० हर्मान याकोबीको प्राप्त है। उन्होंने अपनी जैनसूत्रोंकी प्रस्तावनामें इसपर विस्तृत विचार किया है। वे लिखते हैं-"इस बातसे अब सब सहमत हैं कि नातपुत्त, जो महावीर अथवा वर्धमानके नामसे प्रसिद्ध हैं, बुद्धके समकालीन थे। बौद्ध-ग्रन्थोंमें मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ़ करते हैं कि नातपुत्तसे पहले भी निर्ग्रन्थोंका, जो आज जैन अथवा आईतके नामसे अधिक प्रसिद्ध हैं, अस्तित्व था। जब बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिना जाता होगा। बौद्ध पिटकोंमें कुछ निग्रन्थोंका बुद्ध और उसके शिष्योंके विरोधीके रूपमें और कुछका बुद्ध के अनुयायी बन जानेके रूपमें वर्णन आता है। उसके ऊपरसे हम उक्त बातका अनुमान कर सकते हैं । इसके विपरीत इन ग्रन्थोंमें किसी भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखने में नहीं आता कि निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके संस्थापक हैं । इसके ऊपरसे हम अनुमान कर सकते हैं कि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म जैनधर्मका आरम्भकाल' सुनिश्चित रीतिसे ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व मान लिया गया है। किन्तु जहाँ अब कुछ विद्वान भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक मानते हैं वहाँ कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो उससे पहले भी जैनधर्मका अस्तित्व मानते हैं। उदाहरणके लिए प्रमिद्ध जर्मन विद्वान् स्व० डा० हर्मन याकोबी और प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक सर राधाकृष्णन का मत उल्लेखनीय है। डा० याकोबी लिखते हैं__ 'इसमें कोई भी सबूत नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको जैनधर्मका संस्थापक माननेमें एक मत है। इस मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी संभावना है।' बुद्धके जन्मसे पहले अतिप्राचीन कालसे निर्ग्रन्थोंका अस्तित्व चला आता है।" १ उत्तराध्ययन सूत्रके प्राक्कथनमें डा० चार्पेन्टर लिखते हैं-"हमें स्मरण रखना चाहिये कि जैनधर्म भ० महावीरसे प्राचीन है और महावीर के आदरणीय पूर्वज पार्श्वनाथ निश्चित रूपसे एक वास्तविक व्यक्तिके रूपमें वर्तमान थे। अतः जैनधर्मके मूल सिद्धान्त भ० महावीरसे बहुत पहले निर्धारित हो चुके थे। विवलोग्राफिया जैनकी प्रस्तावनामें, डा० गैरीनाट लिखते हैं-इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। जैन मान्यताके अनुसार वे सौ वर्ष तक जीवित रहे और महावीरसे २५० वर्ष पूर्व निर्वाणको प्राप्त हुए। अतः उनका कार्यकाल ईस्वी सन्से ८०० वर्ष पूर्व था। महावीरके माता-पिता पार्श्वनाथके धर्मको मानते थे।" P 'There is nothing to prove that Parshva was the founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabha the first Tirthankara (as its founder) there may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara.-Indian Antiquary Vol. TP. 163. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास डा० सर राधाकृष्णन् कुछ विशेष जोर देकर लिखते हैं· 'जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुतसी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थङ्करोंके नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' उक्त दो मतोंसे यह बात निर्विवाद हो जाती है कि भगवान पार्श्वनाथ भी जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे और उनसे पहले भी जैनधर्म प्रचलित था। तथा जैन परम्परा श्रीऋषभदेवको अपना प्रथम तीर्थङ्कर मानती है और जैनेतर साहित्य तथा उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रीसे भी इस बातकी पुष्टि होती है। नीचे इन्हीं बातोंको स्पष्ट किया जाता है । जैन-परम्परा जैन परम्पराके अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगतमें कालका चक्र सदा घूमा करता है। यद्यपि कालका प्रवाह अनादि और अनन्त है तथापि उस कालचक्रके छ विभाग हैं-१ अतिसुखरूप, १ 'There is evidence to sho.i' that so far back as the first century B. C. there were people who were worship. ping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parsvanath. The Yajurveda mentions the names of three tirthankaras-Rishabha, Ajitanath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism.'-Indian Philosophy. Vol. I. P. 287. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म २ सुखरूप, ३ सुख-दुःखरूप, ४ दुःखसुखरूप, ५ दुःखरूप और ६ अतिदुःखरूप। जैसे चलती हुई गाडीके चक्रका प्रत्येक भाग नीचेसे ऊपर और ऊपरसे नीचे जाता आता है वैसे ही ये छ भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते हैं। अर्थात् एक बार जगत् सुखसे दुःखकी ओर जाता है तो दूसरी बार दुःखसे सुखकी ओर बढ़ता है। सुखसे दुःखकी ओर जानेको अवसर्पिणीकाल या अवनतिकाल कहते हैं और दुःखसे सुखकी ओर जानेको उत्सर्पिणीकाल या विकासकाल कहते हैं। इन दोनों कालोंकी अवधि लाखों करोड़ों वर्षोंसे भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकालके दुःखसुखरूप भागमें २४ तीर्थङ्करोंका जन्म होता है, जो 'जिन' अवस्थाको प्राप्त करके जैनधर्मका उपदेश देते हैं। इस समय अवसर्पिणीकाल चालू है। उसके प्रारम्भके चार विभाग बीत चुके हैं और अब हम उसके पाँचवें विभागमेंसे गुजर रहे हैं। चूँकि चौथे विभागका अन्त हो चुका, इसलिये इस कालमें अब कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा। इस युगके २४ तीर्थङ्करोंमेंसे भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। तीसरे कालविभागमें जब तीन वर्ष ८॥ माह शेष रहे तब ऋषभदेवका निर्वाण हुआ और चौथे कालविभागमें जब उतना ही काल शेष रहा तब महावीरका निर्वाण हुआ। दोनोंका अन्तरकाल एक कोटा-कोटी सागर बतलाया जाता है। इस तरह जैन परम्पराके अनुसार इस युगमें जैनधर्मके प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। प्राचीनसे प्राचीन जैनशास्त्र इस विषयमें एक मत हैं और उनमें ऋषभदेवका जीवन-चरित्र बहुत विस्तारसे वर्णित है। जैनेतर साहित्य जैनेतर साहित्यमें श्रीमद्भागवतका नाम उल्लेखनीय है। इसके पाँचवें स्कन्धके, अध्याय २-६ में ऋषभदेवका सुन्दर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास वर्णन है, जो जैन साहित्यके वर्णनसे कुछ अंशमें मिलता-जुलता हुआ भी है । उसमें लिखा है की जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्यसंख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया | उनके 'प्रियव्रत नामका लड़का हुआ । प्रियव्रतका पुत्र अग्नीध हुआ । अग्नीध्र के घर नाभिने जन्म लिया । नाभिने मरुदेवीसे विवाह कया और उनसे ऋषभदेव उत्पन्न हुए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्यासे सौ पुत्र उत्पन्न किये, और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके संन्यास ले लिया । उस समय केवल शरीरमात्र उनके पास था और वे दिगंबर वेष में नग्न विचरण करते थे । मौनसे रहते थे, कोई डराये, मारे, ऊपर थूके, पत्थर फेंके, मूत्रविष्ठा फेंके तो इन सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे । यह शरीर असत् पदार्थोंका घर है ऐसा समझकर अहंकार ममकारका त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेवके समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उनका क्रियाकर्म बड़ा भयानक हो गया शरीरादिकका सुख छोड़कर उन्होंने 'आजगर' व्रत ले लिया था । इस प्रकार कैवल्यपति भगवान ऋषभदेव निरन्तर परम आनन्दका अनुभव करते हुए भ्रमण करते करते कौंक, बैंक, कुटक, दक्षिण कर्नाटक देशोंमें अपनी इच्छासे पहुँचे, और कुटकाचल पर्वतके उपवन में उन्मत्तकी नाई नग्न होकर विचरने लगे । जंगलमें बाँसोंकी रगड़से आग लग गई और उन्होंने उसीमें प्रवेश करके अपनेको भस्म कर दिया ।' इस तरह ऋषभदेवका वर्णन करके भागवतकार आगे लिखते हैं- ''इन ऋषभदेवके चरित्रको सुनकर कोंक बैंक १ " यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोर्वकुटकानां राजा अहंनामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयपहाय कुपथपाखण्डमसमंजसं निजमनीषया मन्दः सम्प्रवर्तयिष्यते ॥९॥ येन बाव कलौ मनुजापसदा देवमाया मोहिताः स्वविधिनियोगशौच चारित्र Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म कुटक देशोंका राजा अर्हन उन्होंके 'उपदेशको लेकर कलियुगमें जब अधर्म बहुत हो जायगा तब स्वधर्मको छोड़कर कुपथ पाखंड (जैनधर्म) का प्रवर्तन करेगा। तुच्छ मनुष्य मायासे विमोहित होकर, शौच आचारको छोड़कर ईश्वरकी अवज्ञा करनेवाले व्रत धारण करेंगे। न स्नान, न आचमन, ब्रह्म, ब्राह्मण, यज्ञ सबके निन्दक ऐसे पुरुष होंगे और वेद-विरुद्ध आचरणकरके नरकमें गिरेंगे। यह ऋषभावतार रजोगुणसे व्याप्त मनुष्योंको मोक्षमार्ग सिखलानेके लिये हुआ। श्रीमद्भागवतके उक्त कथनसे यदि उस अंशको निकाल दिया जाये, जो कि धार्मिक विरोधके कारण लिखा गया है तो उससे बराबर यह ध्वनित होता है कि ऋषभदेवने ही जैनधर्म का उपदेश दिया था क्योंकि जैन तीर्थकर ही केवलज्ञानको प्राप्त कर लेने पर 'जिन' 'अर्हत्' आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं और उसी अवस्थामें वे धर्मोपदेश करते हैं जो कि उनकी उस अवस्थाके नाम पर जैनधर्म या आर्हत धर्म कहलाता है । सम्भवतः दक्षिणमें जैनधर्मका अधिक प्रचार देख कर भागवतकारने उक्त कल्पना कर डाली है। यदि वे सीचे ऋषभदेवसे ही जैनधर्मकी उत्पत्ति बतला देते तो फिर उन्हें जैनधर्मको बुरा भला कहनेका अवसर नहीं मिलता। अस्तु, श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवजी के द्वारा उनके पुत्रोंको जो उपदेश दिया गया है वह भी बहुत अंशमें जैनधर्मके अनुकूल ही है । उसका सार निम्न प्रकार है (१) हे पुत्रो! मनुष्यलोकमें शरीरधारियोंके बीचमें यह विहीना देवहेलनान्यपव्रतानि निजेच्छया गृह्लाना अस्नानाचमनशौचकेशोल्लुंचनादीनि कलिनाऽधर्मबहुलेनोपहतधियो ब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुषलोकबिदूषकाःप्रायेण भविष्यन्ति ॥१०॥ ते च स्वह्यक्तिनया निजलोकयात्रया:न्धपरम्परया श्वस्ताः तमस्यन्धे स्वयमेव पतिष्यन्ति । अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः ॥" स्क० ५, अ०६ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास शरीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नहीं है । अतः दिव्य तप करो, जिससे अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है। (२) जो कोई मेरेसे प्रीति करता है, विषयी जनोंसे, स्त्रीसे, पुत्रसे और मित्रसे प्रीति नहीं करता, तथा लोकमें प्रयोजनमात्र आसक्ति करता है वह समदर्शी प्रशान्त और साधु है। _(३) जो इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये परिश्रम करता है उसे हम अच्छा नहीं मानते; क्योंकियह शरीर भी आत्माको क्लेशदायी है। (४) जब तक साधू आत्मतत्त्वको नहीं जानता तब तक वह अज्ञानी है। जब तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक सब कोका शरीर और मन द्वारा आत्मासे बन्ध होता रहता है। (५) गुणोंके अनुसार चेष्टा न होनेसे विद्वान् प्रमादी हो, अज्ञानी बन कर, मैथुनसुखप्रधान घरमें वसकर अनेक संतापोंको प्राप्त होता है। (६) पुरुषका स्त्रीके प्रति जो कामभाव है यही हृदयकी प्रन्थि है । इसीसे जीवको घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धनसे मोह होता है। (७) जब हृदयकी ग्रन्थिको बनाये रखनेवाले मनका बन्धन शिथिल हो जाता है तब यह जीव संसारसे छूटता है और मुक्त होकर परमलोकको प्राप्त होता है। (८) जब सार-असारका भेद करानेवाली व अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा, सुख दुःखका त्याग कर तत्वको जाननेकी इच्छा करता है, तथा तपके द्वरा सब प्रकारकी चेष्टाओं की निवृत्ति करता है तब मुक्त होता है। (९) जीवोंको जो विषयोंकी चाह है यह चाह ही अन्धकूपके समान नरकमें जीवको पटकती है। (१०) अत्यन्त कामनावाला तथा नष्ट दृष्टिवाला यह जगत अपने कल्याणके हेतुओंको नहीं जानता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म चहा (११) जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड़ कुमार्गमें चलता है उसे दयालु विद्वान कुमार्गमें कभी भी नहीं चलने देता।। (१२) हे पुत्रो ! सब स्थावर जंगम जीवमात्रको मेरे ही समान समझकर भावना करना योग्य है। ये सभी उपदेश जैनधर्मके अनुसार हैं। इनमें नम्बर ४ का उपदेश तो खास ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्डको बन्धका कारण बतलाता है। जैनधर्मके अनुसार मन, वचन और कायका निरोध किये बिना कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। किन्तु वैदिक धर्मों में यह बात नहीं पाई जाती। शरीरके प्रति निर्ममत्व होना, तत्त्वज्ञान पूर्वक तप करना, जीवमात्रको अपने समान समझना, कामवासनाके फन्दे में न फंसना, ये सब तो वस्तुतः जैनधर्म ही है। अतः श्रीमद्भागवतके अनुसार भी श्रीऋषभदेवसे ही जैनधर्मका उद्गम हुआ ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है। अन्य हिन्दू पुराणोंमें भी जैनधर्मकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें प्रायः इसी प्रकारका वर्णन पाया जाता है। ऐसा एक भी ग्रन्थ अभी तक देखनेमें नहीं आया, जिसमें वर्धमान या पार्श्वनाथसे जैनधर्मकी उत्पत्ति बतलाई गई हो। यद्यपि उपलब्ध पुराणसाहित्य प्रायः महावीरके बादका ही है, फिर भी उसमें जैनधर्मकी चर्चा होते हुए भी महावीर या पार्श्वनाथका नाम तक नहीं पाया जाता। इससे भी इसी बातकी पुष्टि होती है कि हिन्दू परम्परा भी इस विषयमें एक मत है कि जैनधर्मके संस्थापक ये दोनों नहीं है। ___इसके सिवा हम यह देखते हैं कि हिन्दू धर्मके अवतारोंमें अन्य भारतीय धर्मों के पूज्य पुरुष भी सम्मिलित कर लिये गये हैं, यहाँ तक कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में होनेवाले बुद्धको भी उसमें सम्मिलित कर लिया गया है जो बौद्धधर्मके संस्थापक थे। किन्तु उन्हींके समकालीन वर्धमान या महावीरको उसमें सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि वे जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे। जिन्हें हिन्दू परम्परा जैनधर्मका संस्थापक मानती थी के Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगह। इतिहास श्रीऋषभदेव पहलेसे ही आठवें अवतार माने हुए थे। यदि श्रीबुद्धकी तरह महावीर भी एक नये धर्मके संस्थापक होते तो यह संभव नहीं था कि उन्हें छोड़ दिया जाता। अतः उनके सम्मिलित न करने और ऋषभदेवके आठवें अवतार माने जानेसे भी इस बातका समर्थन होता है कि हिन्दू परम्परामें अति प्राचीनकालसे ऋषभदेवको ही जैनधर्मके संस्थापकके रूपमें माना जाता है। यही वजह है जो उनके बाद में होनेवाले अजितनाथ और अरिष्टनेमि नामके तीर्थङ्करोंका निर्देश यजुर्वेदमें मिलता है। ऐतिहासिक सामग्री इस प्रकार जैन और जैनेतर साहित्यसे यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव ही जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक थे । प्राचीन शिलालेखोंसे भी यह बात प्रमाणित है कि श्रीऋषभदेव जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीरके समयमें भी ऋषभदेवकी मूर्तियोंकी पूजा जैन लोग करते थे। मथुराके कङ्काली नामक टीलेकी खुदाई में डाक्टर फूहररको जो जैन शिलालेख प्राप्त हुए वे करीब दो हजार वर्ष प्राचीन हैं, और उनपर इन्डोसिथियन ( Indc-sythian ) राजा कनिष्क हुविष्क और वासुदेवका सम्वत् है। उसमें भगवान ऋपभदेवकी पूजाके लिये दान देनेका उल्लेख है। ___ श्रीविंसेण्ट' ए० स्मिथका कहना है कि 'मथुरासे प्राप्त सामग्री लिखित जैन परम्पराके समर्थनमें विस्तृत प्रकाश 8. "The discoveries liave to a very large extent supplicd corroboration to ile written Jain tradition and they offer tangible in controvertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its carly cxistence very much in its present form. The serics of twentyfour pontiffs (Tirthankaras ), each with his distinctive emblem, was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian era.-TheJain Stupa..Mathura Intro. P.6. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म डालती है और जैनधर्मकी प्राचीनताके विषयमें अकाट्य प्रमाण उपस्थित करती है। तथा यह बतलाती है कि प्राचीन समयमें भी वह अपने इसी रूपमें मौजूद था। ईस्वी सन् के प्रारम्भमें भी अपने विशेष चिह्नोंके साथ चौबीस तीर्थङ्करोंकी मान्यतामें दृढ़ विश्वास था'। ___ इन शिलालेखोंसे भी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि (उड़ीसा) की हाथी गुफासे प्राप्त हुआ है जो जैन सम्राट खारवेलने लिखाया था। इस २१०० वर्षके प्राचीन जैन शिलालेखसे स्पष्ट पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्रका पूर्वाधिकारी राजा नन्द कलिंग जीतकर भगवान श्रीऋषभदेवकी मूर्ति, जो कलिंगराजाओंकी कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावर सम्पत्ति थी, जयचिह्न स्वरूप ले गया था। वह प्रतिमा खारवेलने नन्दराजाके तीन सौ वर्ष बाद पुष्यमित्रसे प्राप्त की। जब खारवेलने मगधपर चढ़ाई की और उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्रने खारवेलको वह प्रतिमा लौटाकर राजी कर लिया। यदि जैनधर्मका आरम्भ भगवान महावीर या भगवान पार्श्वनाथके द्वारा हुआ होता तो उनसे कुछ ही समय बादकी या उनके समयकी प्रतिमा उन्होंकी होती। परन्तु जब ऐसे प्राचीन शिलालेखमें आदि तीर्थङ्करकी प्रतिमाका स्पष्ट और प्रामाणिक उल्लेख इतिहासके साथ मिलता है तो मानना पड़ता है कि श्रीऋषभदेवके प्रथम जैन तीर्थङ्कर होनेकी मान्यतामें तथ्य अवश्य है। ___ अब प्रश्न यह है कि वे कब हुए ? ऊपर बतलाया गया है कि जैन परम्पराके अनुसार प्रथम जैन तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेव इस अवसर्पिणीकालके तीसरे भागमें हुए, और अब उस कालका पाँचवाँ भाग चल रहा है अतः उन्हें हुए लाखों करोड़ों वर्ष हो गये। हिन्दू परम्पराके अनुसार भी जब ब्रह्माने सृष्टिके आरम्भ में स्वयंभू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया तो ऋषभदेव उनसे पाँचवी पीढ़ीमें हुए। और इस Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास तरह वे प्रथम सतयुगके अन्तमें हुए । तथा अब तक २८ सतयुग बीत गये हैं। इससे भी उनके समयकी सुदीर्घताका अनुमान लगाया जा सकता है। अतः जैनधर्मका आरम्भकाल बहुत प्राचीन है। भारतवर्ष में जब आर्योंका आगमन हुआ उस समय भारतमें जो द्रविड़ सभ्यता फैली हुई थी, वस्तुतः वह जैन सभ्यता ही थी। इसीसे जैन परम्परामें बादको जो संघ कायम हुए उनमें एक द्रविड़संघ भी था। २. ऋषभदेव कालके उक्त छ भागोंमें से पहले और दूसरे भागमें न कोई धर्म होता है, न कोई राजा और न कोई समाज । एक परिवारमें पति और पत्नी ये दो ही प्राणी होते हैं। पासमें लगे वृक्षोंसे, जो कल्पवृक्ष कहे जाते हैं उन्हें अपने जीवन के लिये आवश्यक पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, उसीमें वे प्रसन्न रहते हैं। मरते समय एक पुत्र और एक पुत्रीको जन्म देकर वे दोनों चल बसते हैं। दोनों बालक अपना-अपना अंगूठा चूसकर बड़े होते हैं और बड़े होनेपर पति और पत्नी रूपसे रहने लगते हैं। तीसरे कालका बहुभाग बीतने तक यही क्रम रहता है और इसे भोग-भूमिकाल कहा जाता है-; क्योंकि उस समयके मनुष्योंका जीवन भोगप्रधान रहता है। उन्हें अपने जीवन-निर्वाहके लिये कुछ भी उद्योग नहीं करना पड़ता। किन्तु इसके बाद परिवर्तन प्रारम्भ होता है। धीरे-धीरे उन वृक्षोंसे आवश्यकताकी पूर्तिके लायक सामान मिलना कठिन हो जाता है और परस्परमें झगड़े होने लगते हैं। तव चौदह मनुओंकी उत्पत्ति होती है। उनमेंसे पाँचवाँ मनु वृक्षोंकी सीमा निर्धारित कर देता है। जब सीमा पर भी झगड़ा होने लगता है तो छठवाँ मनु सीमाके स्थानपर १. मेजर जनरल जे. सी. आर. फर्लाग महोदय अपनी The Short Study in Science of Comparative Religion नामकी पुस्तकमें लिखते हैं-'ईसासे अगणित वर्ष पहलेसे जैनधर्म भारतमें फैला हुआ था। आर्य लोग जब मध्य भारत में आये तब यहाँ जैन लोग मौजूद थे। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म चिह्न बना देता है। तब तक पशुओंसे काम लेना कोई नहीं जानता था और न उसकी कोई आवश्यकता थी। किन्तु अब आवश्यक होनेपर सातवाँ मनु घोड़ोंपर चढ़ना वगैरह सिखाता है। पहले माता पिता सन्तानको जन्म देकर मर जाते थे। किन्तु अब ऐसा होना बन्द हो गया तो आगेके मनु बच्चोंके लालन-पालन आदिका शिक्षण देते हैं। इधर-उधर जानेका काम पड़नेपर रास्तेमें नदियाँ पड़ जाती थों, उन्हें पार करना कोई नहीं जानता था। तब बारहवाँ मनु पुल, नाव वगैरहके द्वारा नदी पार करनेकी शिक्षा देता है। ___पहले कोई अपराध ही नहीं करता था, अतः दण्डव्यवस्थाकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किन्तु जब मनुष्योंकी आवश्यकता पूर्तिमें बाधा पड़ने लगी तो मनुष्योंमें अपराध करनेकी प्रवृत्ति भी शुरू हो गई। अतः दण्डव्यवस्थाकी आवश्यकता हुई। प्रथमके पाँच मनुओंके समयमें केवल 'हा' कह देना ही अपराधीके लिये काफी होता था। वादको जब इतनेसे काम नहीं चला तो 'हा', अब ऐसा काम मत करना' यह दण्ड निर्धारित करना पड़ा। किन्तु जब इतनेसे भी काम नहीं चला तो अन्तके पाँच कुलकरोंके समयमें ‘धिक्कार' पद और जोड़ा गया। इस तरह चौदह मनुओंने मनुष्योंकी कठिनाइयोंको दूर करके सामाजिक व्यवस्थाका सूत्रपात किया। चौदहवें मनुका नाम नाभिराय था। इनके समयमें उत्पन्न होने वाले बच्चोंका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो इन्होंने उसको काटना बतलाया। इसीलिये इसका नाम नाभि पड़ा। इनकी पत्नीका नाम मरुदेवी था। इनसे श्रीऋषभदेवका जन्म. हुआ। यही ऋषभदेव इस युगमें जैनधर्मके आद्य प्रर्वतक हुए। इनके समयमें ही ग्राम नगर आदिको सुव्यवस्था हुई' इन्होंने १. 'पुरगामपट्टणादी लोयियसत्थं च लोयववहारो। धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो आदिबह्मण ॥८०२॥', -त्रि० सा० । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास १३ ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी और इन्होंने ही उस धर्मकी स्थापना की जिसका मूल अहिंसा है । इसीलिये इन्हें आदि ब्रह्मा भी कहा गया है । जिस समय ये गर्भ में थे, उस समय देवताओंने स्वर्णकी वृष्टि की इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ" भी कहते हैं। इनके समयमें प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गई थी, क्योंकि जिन वृक्षोंसे लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वीमें उगी थीं, उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। तब इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षु-दण्डों से रस निकाल कर खाना सिखलाया । इसलिये इनका वंश इक्ष्वाकुवंश के नामसे प्रसिद्ध हुआ, और ये उसके आदि पुरुष कहलाये । तथा प्रजाको कृषि, असि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन पटकर्मोंसे आजीविका करना बतलाया । इसलिये इन्हें प्रजापति भी कहा जाता है । सामाजिक व्यवस्थाको चलानेके लिये इन्होंने तीन वर्गो की स्थापना की। जिनको रक्षाका भार दिया गया वे क्षत्रिय कहलाये । जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि के कार्य में नियुक्त किया गया वे वैश्य कहलाये । और जो सेवावृत्ति करने के योग्य समझे गये उन्हें शूद्र नाम दिया गया । भगवान ऋषभदेव के दो पत्नियाँ थीं - एक का नाम सुनन्दा था और दूसरीका नन्दा | इनसे उनके सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई । बड़े पुत्रका नाम भरत था । यही भरत इस युगमें भारतवर्षके प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए । १ 'हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि यतस्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चैर्गीर्वाणैर्गीयसे त्वतः ॥ २०६ ॥ आकन्तीक्षुरसं प्रीत्या बाहुल्येन त्वयि प्रभो । प्रजाः प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कीर्त्यसे ॥ २१० ॥' २० पु० स० ८, । - हरि० २ 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिसु कर्मसु प्रजाः ' -स्वयं० स्तो० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनधर्म एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासनपर विराजमान थे । राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना नामकी अप्सरा नृत्य कर रही थी । अचानक नृत्य करते करते नीलाञ्जनाका शरीरपात हो गया । इस आकस्मिक घटनासे भगवानका चित्त विरक्त हो उठा । तुरन्त सव पुत्रोंको राज्यभार सौंप कर उन्होंने प्रव्रज्या ले ली और छ माहकी समाधि लगाकर खड़े हो गये । उनकी देखादेखी और भी अनेक राजाओंने दीक्षा ली। किन्तु वे भूख प्यासके कष्टको न सह सके और भ्रष्ट हो गये । छ माह के बाद जब भगवानकी समाधि भंग हुई तो आहारके लिये उन्होंने बिहार किया । उनके प्रशान्त नग्न रूपको देखनेके लिये प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भेंट करता था, कोई भूषण भेंट करता था, कोई हाथी घोड़े लेकर उनकी सेवामें उपस्थित होता था । किन्तु उनको भिक्षा देनेकी विधि कोई नहीं जानता था । इस तरह घूमते-घूमते ६ माह और बीत गये । इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुर में जा पहुँचे । वहाँका राजा श्रेयांस बड़ा दानी था । उसने भगबानका बड़ा आदर सत्कार किया । आदरपूर्वक भगवानको प्रतिग्रह करके उच्चासनपर बैठाया, उनके चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार करके बोला- भगवन् ? यह इक्षुरस प्रासुक है, निर्दोष है इसे आप स्वीकार करें। तब भगवानने खड़े होकर अपनी अञ्जलिमें रस लेकर पिया । उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है । भगवानका यह आहार वैशाख शुक्ला तीजके दिन हुआ था । इसीसे यह तिथि 'अक्षय तृतीया' कहलाती है । आहार करके भगवान फिर वनको चले गये और आत्म ध्यानमें लीन हो गये । एक बार भगवान 'पुरिमताल' नगरके उद्यानमें ध्यानस्थ थे । उस समय उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई । इस तरह 'जिन' पद प्राप्त करके भगवान बड़े भारी समुदायके साथ धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे । उनकी व्याख्यान सभा 'समवसरण' कहलाती थी । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास १५ उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पशुओं तकको धर्मोपदेश सुननेके लिये स्थान मिलता था और सिंह जैसे भयानक जन्तु शान्तिके साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे। भगवान जो कुछ कहते थे सबकी समझमें आ जाता था। इस तरह जीवनपर्यन्त प्राणिमात्रको उनके हितका उपदेश देकर भगवान ऋषभदेव कैलास पर्वतसे मुक्त हुए। वे जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर थे। हिन्दू पुराणोंमें भी उनका वर्णन मिलता है। इस युगमें उनके द्वारा ही जैनधर्मका आरम्भ हुआ। ३. जैनधर्म के अन्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेवके पश्चात् जैनधर्मके प्रवर्तक २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवें सुमतिनाथ और चौदहवें अनन्तनाथका जन्म अयोध्यानगरीमें हुआ। तीसरे संभवदेवका जन्म श्रावस्ती नगरीमें हुआ । छठे पद्मप्रभका जन्म कौशाम्बीमें हुआ। सातवें सुपार्श्वनाथ और तेईसवें पार्श्वनाथका जन्म वाराणसी नगरी में हुआ। आठवें चन्द्रप्रभका जन्म चंद्रपुरीमें हुआ। नौवें पुष्पदन्तका जन्म काकन्दी नगरीमें हुआ। दसवें शीतलनाथका जन्म भद्दलपुरमें हुआ। ग्यारहवें श्रेयांसनाथका जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ। बारहवें वासुपूज्यका जन्म चम्पापुरीमें हुआ। तेरहवें विमलनाथका जन्म कंपिला नगरीमें हुआ । पन्द्रहवें धर्मनाथका जन्म रत्नपुरमें हुआ। सोलहवें शान्तिनाथ, सतरहवें कुन्थुनाथ और अठारहवें अरनाथका जन्म हस्तिनागपुरमें हुआ। उन्नीसवें मल्लिनाथ और इक्कीसवें नमिनाथका जन्म मिथिलापुरीमें हुआ । बीसवें मुनिसुव्रतनाथका जन्म राजगृही नगरीमें हुआ। इनमेंसे धर्मनाथ, अरनाथ, और कुन्थुनाथका जन्म कुरुवंशमें हुआ, मुनिसुव्रतनाथका जन्म हरिवंशमें हुआ और शेषका जन्म इक्ष्वाकुवंशमें हुआ। सभीने अन्तमें प्रव्रज्या लेकर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भगवान ऋषभदेवकी तरह तपश्चरण किया और केवलज्ञानको प्राप्त करके उन्हींकी तरह धर्मोपदेश किया और अन्तमें निर्वाणको प्राप्त किया। इनमेंसे भगवान वासुपूज्यका निर्वाण चम्पापुरसे हुआ और शेप तीर्थङ्करोंका निर्माण सम्मेदशिखरसे हुआ । अन्तिम तीन तीर्थङ्करोंका वर्णन आगे पढ़िये । भगवान नेमिनाथ । भगवान नेमिनाथ वाईसवें तीर्थङ्कर थे। ये श्रीकृष्णके चचेरे भाई थे । शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णिके दस पुत्र हुए। सबसे बड़े पुत्रका नाम समुद्रविजय और सबसे छोटे पुत्रका नाम वसुदेव था। समुद्रविजयके घर नेमिनाथने जन्म लिया और वसुदेवके घर श्रीकृष्णने । जरासन्ध के भयसे यादवगण शौरीपुर छोड़कर द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे। वहाँ जूनागढ़के राजाकी पुत्री राजमतीसे नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ । बड़ी धूम-धामके साथ बारात जूनागढ़के निकट पहुंची। नेमिनाथ बहुतसे राजपुत्रोंके साथ रथमें बैठे हुए आसपासकी शोभा देखते जाते थे। उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा बहुतसे पशु एक बाड़ेमें बन्द हैं, वे निकलना चाहते हैं किन्तु निकलनेका कोई मार्ग नहीं है। भगवानने तुरन्त सारथिको रथ रोकनेका आदेश दिया और पूछा-ये इतने पशु इस तरह क्यों रोके हुए हैं। नेमिनाथको यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि उनकी बारातमें आये हुए अनेक राजाओंके आतिथ्य सत्कारके लिए इन पशुओंका वध किया जानेवाला है और इसी लिये वे बाड़ेमें बन्द हैं। नेमिनाथके दयालु हृदयको बड़ा कष्ट पहुँचा। वे बोले–यदि मेरे विवाहके निमित्तसे इतने पशुओंका जीवन संकट में है तो धिक्कार है ऐसे विवाहको । अब मैं विवाह नहीं करूँगा। वे रथसे तुरन्त नीचे उतर पड़े और मुकुट और कंगनको फेंककर वनकी ओर चल दिये । बारातमें इस समाचारके फैलते ही कोहराम मच गया। जूनागढ़के अंत: Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास १७ I पुर में जब राजमतीको यह समाचार मिला तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुतसे लोग नेमिनाथको लौटाने के लिये दौड़े, किन्तु व्यर्थ । वे पासमें ही स्थित गिरनार पहाड़पर चढ़ गये और सहस्राम्र वनमें भगवान ऋषभदेवकी तरह सब परिधान छोड़कर दिगम्बर हो आत्मध्यानमें लीन हो गये और केवलज्ञानको प्राप्तकर 'गिरनारसे ही निर्वाण लाभ किया । भगवान पार्श्वनाथ भगवान पार्श्वनाथ २३ वें तीर्थङ्कर थे । इनका जन्म आजसे लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी नगरीमें हुआ था । यह भी राजपुत्र थे । इनकी चित्तवृत्ति प्रारम्भसे ही वैराग्यकी ओर विशेष थी । माता - पिताने कई बार इनसे विवाह का प्रस्ताव किया किन्तु उन्होंने सदा हँसकर टाल दिया । एक वार ये गंगाके किनारे घूम रहे थे । वहाँपर कुछ तापसी आग जलाकर तपस्या करते थे । ये उनके पास पहुँचे और बोले— 'इन लक्कड़ोंको जलाकर क्यों जीवहिंसा करते हो ।' कुमारकी बात सुनकर तापसी बड़े झल्लाये और बोले— 'कहाँ है जीव ?' तब कुमारने तापसीके पाससे कुल्हाड़ी उठाकर ज्यों ही जलती हुई लकड़ीको चीरा तो उसमेंसे नाग और नागिनका जलता हुआ जोड़ा निकला । कुमारने उन्हें मरणोन्मुख जानकर उनके कानमें मूलमंत्र दिया और दुःखी होकर चले गये । इस घटनासे उनके हृदयको बहुत वेदना हुई । जीवनकी अनित्यताने उनके चित्तको और भी उदास कर दिया और वे राजसुखको तिलाञ्जलि देकर प्रत्रजित हो गये। एक बार वे १ महाभारत में भी लिखा है युगे युगे महापुण्यं दृश्यते द्वारिका पुरी । अवतोर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषणः ॥ रेवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिविमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म अहिच्छेत्रके वनमें ध्यानस्थ थे। ऊपरसे उनके पूर्वजन्मका वैरी कोई देव कहीं जा रहा था । इन्हें देखते ही उसका पूर्व संचित वैरभाव भड़क उठा। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरोंकी वर्षा करने लगा। जब उससे भी उसने भगवानके ध्यानमें विघ्न पड़ता न देखा तो मूसलाधार वर्षा करने लगा । आकाशमें मेघोंने भयानक रूप धारण कर लिया, उनके गर्जनतजनसे दिल दहलने लगा । पृथ्वीपर चारों ओर पानी ही पानी उमड़ पड़ा । ऐसे घोर उपसर्गके समय जो नाग और नागिन मरकर पाताल लोक में धरणेन्द्र और पद्मावती हुए थे, वे अपने उपकारीके ऊपर उपसर्ग हुआ जानकर तुरन्त आये । धरणेन्द्रने सहस्रफणवाले सर्पका रूप धारण करके भगवान के ऊपर अपना फण फैला दिया और इस तरह उपद्रवसे उनकी रक्षा की। उसी समय पार्श्वनाथको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई, उस वैरी देवने उनके चरणोंमें सीस नवाकर उनसे क्षमा याचना की । फिर करीब ७० वर्षतक जगह-जगह विहार करके धर्मोपदेश करनेके बाढ़ १०० वर्षकी उम्र में वे सम्मेदशिखर से निर्वाणको प्राप्त हुए । इन्हीं के नामसे आज सम्मेदशिखर पर्वत 'पारसनाथहिल कहलाता है। इनकी जो मूर्तियाँ पाई जाती हैं, उनमें उक्त घटनाके स्मृतिस्वरूप सिरपर सर्पका फन बना हुआ होता है । जैनेतर जनतामें इनकी विशेष ख्याति है । कहीं-कहीं तो जैनोंका मतलब ही पार्श्वनाथका पूजक समझा जाता है । १८ भगवान महावीर भगवान महावीर अन्तिम तीर्थङ्कर थे । लगभग ६०० ई० पू० बिहार प्रान्तके कुण्डलपुर नगरके राजा सिद्धार्थ के घर में उनका जन्म हुआ । उनको माता' त्रिशला वैशालीनरेश राजा चेटककी पुत्री थी । महावीरका जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके ( १ ) श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार भगवान महावीरकी माता त्रिशला चेटककी बहिन थी । तथा महावीरका विवाह भी हुआ था । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास १९ दिन हुआ था। इस दिन भारतवर्ष में महावीरकी जयन्ती बड़ी धूमसे मनाई जाती है । महावीर सचमुच में महावीर थे । एक बार बचपन में ये अन्य बालकोंके साथ खेल रहे थे । इतने में अचानक एक सर्प कहींसे आ गया और इनकी ओर झपटा। अन्य बालक तो डरकर भाग गये किन्तु महावीरने उसे निर्मद कर दिया । महावीर जन्मसे ही विशेष ज्ञानी थे। एक बार एक मुनि उनको देखनेके लिये आये और उनके देखते ही मुनिके चित्तमें जो शास्त्रीय शंकाएँ थीं वे दूर हो गई। जब महावीर बड़े हुए तो उनके विवाहका प्रश्न उपस्थित हुआ, किन्तु महावीरका चित्त तो किसी अन्य ओर ही लगा हुआ था । उस समय यज्ञादिकका बहुत जोर था और यज्ञोंमें पशु - बलिदान बहुतायतसे होता था । बेचारे मूक पशु धर्मके नामपर बलिदान कर दिये जाते थे और 'वैदिकी हिंसा - हिंसा न भवति' की व्यव स्था दे दी जाती थी । करुणासागर महावीरके कानोंतक भी उन मूक पशुओंकी चीत्कार पहुँची और राजपुत्र महावीरका हृदय उनकी रक्षाके लिये तड़प उठा । धर्मके नामपर किये जानेवाले किसी भी कृत्यका विरोध कितना दुष्कर है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं । किन्तु महावीर तो महावीर ही थे । ३० वर्षकी उम्र में उन्होंने घर छोड़कर वनका मार्ग लिया और भगवान ऋषभदेवकी ही तरह प्रत्रज्या लेकर ध्यानस्थ हो गये । महावीर के जन्म आदिका वर्णन करनेवाली कुछ प्राचीन गाथाएँ मिलती हैं जिनका भाव इस प्रकार है १ १ "सुरमहिदोच्चदकप्पे भोगं दिव्वाणुभागभणभूदो | पुप्फूत्तरणामादो विमाणदो जो चुदो संतो ॥ बाहत्तरवासाणि य थो विहीणाणि आसाढजो पक्खे छटठीए कुण्डपुरपुरंवरिस्सरसिद्धत्थक्खत्तियस्स लद्धपरमाऊ । जोणिमुवयादो ॥ णाहकुले । देवीसदसेवमाणाए । तिसिलाए देवीए अच्छिता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्तसियपक्खे | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म 'जो देवोंके द्वारा पूजा जाता था, जिसने अच्युत कल्प नामक स्वर्ग में दिव्य भोगोंको भोगा, ऐसे महावीर जिनेन्द्रका जीव कुछ कम बहत्तर वर्षकी आयु पाकर, पुष्पोत्तर नामक विमानसे च्युत होकर, आसाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन, कुण्डपुर नगरके स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रियके घर, नाथवंशमें, सैकड़ों देवियोंसे सेवित त्रिशला देवीके गर्भ में आया । और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीकी रात्रिमें उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए महावीरका जन्म हुआ ।' 'अठ्ठाईस वर्ष सात माह और बारह दिन तक देवोंके द्वारा किये गये मानुषिक अनुपम सुखको भोगकर जो आभिनिबोधिक ज्ञानसे प्रतिबुद्ध हुए, ऐसे देवपूजित महावीर भगवानने पष्ठोपवासके साथ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीके दिन जिनदीक्षा ली ।' 'बारह वर्ष पाँच माह और पन्द्रह दिन पर्यन्त छद्मस्थ अवस्थाको बिताकर (तपस्या करके) रत्नत्रयसे शुद्ध महावीर भगवानने जृम्भिक ग्रामके बारह ऋजुकूला नदीके किनारे सिलापट्ट के ऊपर षष्ठोपवासके साथ आतापन योग करते हुए, अपराह्नकालमें, जब छाया पादप्रमाण थी, वैशाख 'शुक्ला दसमी २० वारसमं ॥ तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए मणुवत्तणसुहमतुलं देवकयं सेविऊण अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य आभिणिबोहियबुद्धो छट्ठेण य दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो गमइय छदुमत्थत्तं वारसवासाणि पंचमासे य । मग्गसीसबहुलाए । णिक्खमणपुज्जो ॥ पण्णारसाणि दिणाणि य तिरदणसुद्धो महावोरो ॥ उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे बहि सिलबट्टे । छट्ठेणादावें वइसाहजोण्हपक्खे हंतूण धाइकमं अवरहे दसमीए केवलणाणं दु ॥ वासाइँ | पादछायाए । खबयसेढिमारूढो । समावण्णो ॥ " Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास २१ के दिन क्षपक श्रेणिपर आरोहण किया और चार घातिया कर्मोंका नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया।' ___ केवलज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद भगवान महावीरने ६६ दिनतक मौनपूर्वक विहार किया, क्योंकि तबतक उन्हें कोई गणधर गणका-संघका धारक, जो कि भगवानके उपदेशोंको स्मृतिमें रखकर उनका संकलन कर सकता, नहीं मिला था। विहार करते करते महावीर मगध देशकी राजधानी राजगृहीमें पधारे और उसके बाहर विपुलाचल पर्वतपर ठहरे । उस समय राजगृहीमें राजा श्रेणिक रानी चेलनाके साथ राज्य करते थे। __ वहींपर आसाढ़ शुक्ला पूर्णिमा, जिसे गुरुपूर्णिमा भी कहते हैं, के दिन' इन्द्रभूति नामका गौतमगोत्रीय वेद-वेदांगमें पारंगत एक शीलवान ब्राह्मण विद्वान जीव अजीव विपयक सन्देहको दूर करने के लिये महावीर के पास आया। और सन्देह दूर होते ही उसने महावीर के पादमूलमें जिनदीक्षा ले ली और उनका प्रधान गणधर बन गया। उसके बाद ही प्रातःकालमें भगवान महावीरकी प्रथम देशना हुई। जैसा कि प्राचीन गाथाओंमें लिखा है पंचशैलपुरमें ( पाँच पर्वतोंसे शोभायमान होनेके कारण १ 'गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउब्वेय-संडगवि । णामेण इंदभूदिति सीलवं ब्रह्मणुत्तमो ॥' -धवला १ खं०, पृ० ६५ । २ 'पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे ।। णाणादुमसमाइण्णे देवदाणववंदिदे । महावीरेणत्थो कहिओ भवियलोयस्स ।' ___-धव० १ खं०, पृ० ६१ । ३ 'श्वेताम्बर साहित्यमें लिखा है कि महावीरके प्रथम समवसरणमें केवल देवता ही उपस्थित थे, कोई मनुष्य नहीं था इससे धर्मतीर्थका प्रवर्तन-महावीरका प्रथमोपदेश वहाँ नहीं हो सका। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म राजगृहीको पंचशैलपुर या पंचपहाड़ी भी कहते हैं) रमणीक, नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त और देव-दानवसे वन्दित विपुलनामक पर्वतपर महावीरने भव्यजीवोंको उपदेश दिया। _ 'वर्पके' 'प्रथम मास अर्थात् श्रावणमासमें, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में, प्रतिपदाके दिन, प्रातःकालके समय, अभिजित नक्षत्रके उदय रहते हुए धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई।' 'इस प्रकार जिनश्रेष्ठ महावीरने लगभग ४२ वर्षकी महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति दिनके चौथे पहरमें हुई थी। उन्होंने जब यह देखा कि उस समय मध्यमा नगरी (वर्तमान पावापुरी) में सोमिलार्य ब्राह्मणके यहाँ यज्ञविषयक एक बड़ा भारी धार्मिक प्रकरण चल रहा है, जिसमें देश देशान्तरोंके बड़े-बड़े विद्वान् आमंत्रित होकर आये हुए हैं तो उन्हें यह प्रसंग अपूर्व लाभका जान पड़ा। और उन्होंने यह सोचकर कि यज्ञमें आये हुए ब्राह्मण प्रतिबोधको प्राप्त होंगे और मेरे धर्मतीर्थके आधार स्तम्भ बनेंगे, सन्ध्या समय ही विहार कर दिया और वे रातोंरात १२ योजन चलकर मध्यमाके महासेननामक उद्यानमें पहुँचे, जहाँ प्रातः कालसे ही समवसरणकी रचना हो गई। इस तरह वैसाख सुदी ११ को दूसरा समवसरण रचा गया उसमें महावीर भगवानने एक पहर तक बिना किसी गणधरकी उपस्थिति के ही धर्मोपदेश दिया। इसको खबर पाकर इन्द्रभूति आदि अपने शिष्योंके साथ समवसरणमें पहुँचे और शंका समाधान करके शिष्य बन गये । वादको वीरप्रभुने उन्हें गणधर पदपर नियुक्त कर दिया। इस द्वितीय समवसरणके बाद महावीरने राजगहकी ओर प्रस्थान किया, जहाँ पहुँचते ही उनका तृतीय समवसरण रचा गया और उन्होंने वर्षाकाल वहीं बिताया।' -श्रमण भगवान महावीर, पृ० ४८-७३ । १ 'वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावर्ण बहुले । पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि ।' -धव० १ खं०, पृ० ६३ । २ णिस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो। रागदोसभयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥' -ज० धव० १ खं०, पृ० ७३ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास अवस्थामें राग, द्वेष और भयसे रहित होकर अपने धर्मका उपदेश दिया।' भगवान महावीरने तीस वर्षतक अनेक देश-देशान्तरोंमें विहार करके धर्मोपदेश दिया। जहाँ वह पहुँचते थे वहीं उनकी उपदेश-सभा लग जाती थी, और उसमें हिंस्र पशु तक पहुँचते थे और जातिगतऋरताको छोड़कर शान्तिसे भगवानका उपदेश सुनते थे। इस तरह भगवान काशी, कोशल, पंचाल, कलिंग, कुरुजांगल, कम्बोज, वाल्हीक, सिन्धु, गांधार आदि देशोंमें विहार करते हुए अन्तमें पावा'नगरी (बिहार) में पधारे । और वहाँसे कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिमें अर्थात् अमावस्याके प्रातःकाल में सूर्योदयसे पहले मुक्तिलाभ किया । जैसा कि लिखा है___ "उनतीस वर्ष, पाँच मास और वीस दिनतक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियों और बारह गणों अर्थात् सभाओं के साथ विहार करनेके पश्चात् भगवान महावीर ने पावानगर में कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीके दिन स्वाति नक्षत्रके रहते हुए, रात्रिके समय शेष अघाति कर्मरूपी रजको छेदकर निर्वाणको प्राप्त किया।' १ पुज्यपाद रचित संस्कृत निर्वाणभक्तिमें लिखा है'पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्धमानजिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान प्रविधूतपाप्मा ॥२४॥" अर्थ-"पावापुरके बाहर स्थित, और कमलोंसे व्याप्त सरोवरके बीचमें, उन्नत भूमिदेशपर कर्मोका नाश करके भगवान् महावीरने निर्वाण लाभ किया। २ “वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य वीस दिवसे य । चउविह अणगारेहि य वारहदिणेहि ( गणेहि ) विहरित्ता । पच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्स किण्हचोद्दसिए । सादीए रत्तोए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ ॥३॥" -ज० धव० ख०, १, पृ० ८१ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनधर्म वर्तमानमें जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनोंमें प्रचलित है, उसके अनुसार ५२७ ई० पू० में वीरका निर्वाण हुआ माना जाता है । कुछ प्राचीन जैन-ग्रन्थोंमें शकराजासे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीरके निर्वाण होनेका उल्लेख मिलता है। उससे भी इसी कालकी पुष्टि होती है। ४. भगवान महावीर के पश्चात् जैनधर्मकी स्थिति भगवान महावीरके सम्बन्धमें जैन और बौद्धसाहित्यसे जो कुछ जानकारी प्राप्त होती है, उसपरसे यह स्पष्ट पता चलता है कि महावीर एक महापुरुप थे, और उस समयके पुरुषोंपर उनका मानसिक और आध्यात्मिक प्रभाव बड़ा गहरा था। उनके प्रभाव, दीर्घदृष्टि और निस्पृहताका ही यह परिणाम है जो आज भी जैनधर्म अपने जन्मस्थान भारतदेशमें बना हुआ है जब कि बौद्धधर्म शताब्दियों पूर्व यहाँसे लुप-सा हो गया था। भगवान महावीरका अनेक राजघरानोंपर भी गहरा प्रभाव था। भगवान महावीर ज्ञातृवंशी थे और उनकी माता लिच्छवि गणतंत्रके प्रधान चेटककी पुत्री थी। ईसासे पूर्व छठी शताब्दीमें पूर्वीय भारतमें लिच्छवि राजवंश महान और शक्तिशाली था। डा० याकोवीने लिखा है कि जब चम्पाके राजा कुणिकने एक बड़ी सेनाके साथ राजा चेटकपर आक्रमण करनेकी तैयारी को तो चेटकने काशी और कौशलके अट्ठारह राजाओंको तथा लिच्छवि और मल्लोंको बुलाया और उनसे पूछा कि आप लोग कुणिककी माँग पूरा करना चाहते हैं अथवा उससे लड़ना चाहते हैं ? महावीरका निर्वाण होनेपर इस घटनाकी स्मृतिमें उक्त अट्ठारह राजाओंने मिलकर एक महोत्सव भी मनाया था।" १ 'णिव्वाणे वीरजिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥१४६६॥" -त्रि० प्र० । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ इतिहास इससे स्पष्ट है कि उस समयके प्रमुख राजवंश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे महावीरसे प्रभावित थे। इसके सिवाय भगवान महावीरके ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिनमें मुख्य गौतम गणधर थे। भगवान महावीरके पश्चात उनके शिष्योंमेंसे तीन केवलज्ञानी हुए-गौतम गणधर, सुधस्विामी और जम्बू स्वामी। तथा इनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए-विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु मगधमें दुर्भिक्ष पड़नेपर एक बड़े जैन संघके साथ दक्षिण देशको चले गये, जिसके कारण तमिल और कर्नाटक प्रदेशमें जैनधर्मका खूब प्रसार हुआ। अतः भगवान महावीरके पश्चात जैनधर्मकी स्थितिका परिचय करानेके लिये उसे दो भागों में बाँट देना अनुचित न होगा-एक उत्तर भारतमें जैनधर्मकी स्थिति और दृसरा दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी स्थिति । उत्तर भारतमें जैनधर्म उत्तर भारतके विभिन्न प्रान्तोंमें जैनधर्मकी स्थिति तथा राजघरानोंपर उनके प्रभावका परिचय करानेसे पूर्व पूरी स्थितिका विहंगावलोकन करना अनुचित न होगा। विभिन्न बौद्ध इतिहासज्ञोंके कथनसे पता चलता है कि बुद्ध निर्वाणके पश्चात् प्रथम शतीमें उत्तर भारतके विभिन्न स्थानोंमें जैन लोग प्रमुख थे । चीनी यात्री हुएनत्सांग ईस्वी सन् की सातवीं शतीमें भारत आया था । वह अपने यात्रा विवरणमें नालन्दाके विहारका वर्णन करते हुए लिखता है कि निर्ग्रन्थ (जैन) साधुने जो ज्योतिप विद्याका जानकार था, नये भवनकी सफलताकी भविष्यवाणी की थी। इससे प्रकट है कि उस समय मगध राज्यमें जैनधर्म फैला हुआ था। जैनधर्मकी उन्नतिका सूचक दूसरा मुख्य प्रमाण अशोककी प्रसिद्ध घोषणा है, जिसमें निर्ग्रन्थोंको दान देनेकी आज्ञा है। जो बतलाती है कि अशोकके समयमें जैन-जो पहले निर्ग्रन्थके Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनधर्म नामसे ख्यात थे योग्य माने जाते थे तथा इतने प्रभावशाली थे कि अशोक की राज्यघोषणामें उनका मुख्य रूपसे निर्देश करना आवश्यक समझा गया। ___ उत्तर भारतमें जैनधर्मकी उन्नतिकी दृष्टिसे कलिंगका नाम उल्लेखनीय है । ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दीका प्रसिद्ध खारवेल शिलालेख कलिंगमें जैनधर्मकी प्रगतिको प्रमाणित करता है। श्री रंगा स्वामी आयंगरके मतानुसार बौद्धधर्मके प्रचारके प्रति अशोकने जो उत्साह दिखलाया उसके फलस्वरूप जैनधर्मका केन्द्र मगधसे उठकर कलिंग चला गया जहाँ हुएनत्सांगके समयतक जैनधर्म फैला हुआ था। __ खारवेल शिलालेखकी तरह ही प्रसिद्ध मथुराके शिलालेख प्रकट करते हैं कि ईसाकी प्रथम शताब्दीसे बहुत पहलेसे मथुरा जैनधर्मका एक मुख्य केन्द्र था। ___ इस प्रकार भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् लगभग पाँच शताब्दियों तक जैनधर्म उत्तर भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें बड़ी तेजीके साथ उन्नति करता रहा। किन्तु सातवीं शताब्दीके पश्चात् उसका पतन प्रारम्भ हो गया । ___ आगे उत्तर भारतके प्रत्येक प्रान्तमें भगवान महावीरके बादकी जैनधर्मको स्थितिका परिचय कराते हुए ऐसे राजवंशों और प्रमुख राजाओंका परिचय कराया जाता है, जिन्होंने जैनधर्मको अपनाया या जिनके साहाय्यसे जैनधर्म फूला और फला । उससे पहले उत्तर भारतके प्रारंभिक इतिहासका विहंगावलोकन कराना अनुचित न होगा। भगवान महावीरके समयमें मगधके सिंहासनपर शिशुनाग वंशी राजा बिम्बसार उपनाम श्रेणिक विराजमान थे। उनका उत्तराधिकारी उनका पुत्र अजात शत्रु (कुणिक) हुआ। अजातशत्रुने अपने नाना चेटकके राज्यपर आक्रमण करके वैशाली तथा लिच्छवि देशोंको मगधके साम्राज्यमें मिला लिया और राजगृहीके स्थानपर वैशालीको राजधानी बनाया। अजात शत्रुके Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास २७ पुत्र उदयनने पाटलीपुत्रको मगधकी राजधानी बनाया। इस वंशके राज्यच्युत होनेपर नन्दवंशका राज्य हुआ और चन्द्रगुप्त मौर्यने नन्दोंका सिंहासन छीन लिया । चन्द्रगुप्तके बाद उसका पुत्र विन्दुसार गद्दीपर बैठा । और विन्दुसारके बाद उसका पुत्र अशोक पदासीन हुआ। अशोकके बाद उसके चार उत्तराधिकारी और हुए। अन्तिम मौर्य सम्राट् वृहद्रथको उसके सेनापति पुष्पमित्रने मारकर सिंहासनपर कब्जा कर लिया और इस तरह शुंगवंशका राज्य हुआ । अभी पुष्यमित्र मगधके सिंहासनपर जम भी न पाया था कि उसे दो प्रबल शत्रुओंका सामना करना पड़ा - उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्तसे मनीन्द्रने उसके राज्यपर आक्रमण कर दिया और दक्षिणसे कलिंगराज खारवेलने । तीसरी पीढ़ीके बाद शुंगवंश भी समाप्त हो गया । उसके बाद आन्ध्रोंका राज्य हुआ जो दक्षिणी थे । ईसाकी चौथी शताब्दी के प्रारम्भ में आन्ध्रोंके एक अधिकारीने ही जिसका नाम या उपाधि गुप्त थी, गुप्तवंशकी नींव डाली । अस्तु, अव प्रकृत विषय पर आइये । १. विहार में जैनधर्म बिहार तो भगवान महावीरकी जन्मभूमि, तपोभूमि ओर निर्वाण भूमि होने के साथ-साथ कार्यभूमि भी रहा है। वहाँके राजघरानोंसे महावीर भगवानका कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था । फलतः उनके समय में और उनके बाद भी वहाँ जैनधर्मका अच्छा प्रसार हुआ और कई राजाओं और राजघरानोंने उसे अपनाया, जिनमें से कुछका परिचय इस प्रकार है राजा चेटक जैनसाहित्य में वैशालीके राजा चेटककी बड़ी ख्याति पाई जाती है । इसके कई कारण हैं । प्रथम तो यह राजा भगवान महावीरका महान उपासक था, दूसरे भगवान महावीरकी माता देवी त्रिशला राजा चेटककी पुत्री थी। राजा चेटकके आठ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैनधर्म कन्याएँ थीं और उस समयके प्रमुख राजघरानोंमें उनका विवाह हुआ था । सिन्धुसौवीर देशका राजा उदयन, अवन्तीनरेश प्रद्योत, कौशाम्वीका राजा शतानीक, चम्पाका राजा श्रेणिक ( बिंबसार ) ये सब राजा चेटकके जामाता थे । जैनसाहित्य में कुणिक और बौद्ध साहित्य में अजातशत्रुके नामसे प्रसिद्ध मगधसम्राट तथा जैन, बौद्ध और ब्राह्मण सम्प्रदायके कथासाहित्य में प्रसिद्ध वत्सराज उदयन, ये दोनो चेटक राजाके सगे दौहित्र थे । राजा चेटक भारतके तत्कालीन गणसत्ताक राज्यों में से एक प्रधान राज्यके नायक थे । वे जैन श्रावक थे, उन्होंने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि वे जैनके सिवा किसी दूसरेसे अपनी कन्याओंका विवाह न करेंगे। इससे प्रतीत होता है कि उक्त सब राजघराने जैनधर्मको पालते थे । राजा उदयनको तो जैनसाहित्य में स्पष्ट रूपसे जैन श्रावक बतलाया है । उदयनकी रानीने अपने महल में एक चैत्यालय बनवाया था और उसमें प्रतिदिन जिन भगवानकी पूजा किया करती थी। पहले राजा उदयन तापसधर्मियोंका भक्त था पीछे धीरे-धीरे जिन भगवानके ऊपर श्रद्धा करने लगा था । स्व॰ डा० याकोबी लिखते हैं कि चेटक जैनधर्मका महान आश्रयदाता था । उसके कारण वैशाली जैनधर्मका एक संरक्षणस्थान बना हुआ था । इसीसे बौद्धोंने उसे पाखण्डियोंका मठ बतलाया है । राजा श्रेणिक ( ई० पू० ६०१ - ५५२ ) भारत के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध मगघाधिपति राजा बिम्बसार जैनसाहित्य में श्रेणिकके नामसे उति प्रसिद्ध है । यह राजा पहले बौद्ध भगवानका अनुयायी था। एक बार किसी चित्रकारने उसे एक राजकन्याका चित्र भेंट किया। राजा चित्र देखकर मोहित हो गया। चित्रकारसे उसने कन्याके पिताका Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास नाम पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि वह वैशालीके राजा चेटककी सबसे छोटी पुत्री चेलना है। श्रेणिकने राजा चेटकसे उसे माँगा किन्तु चेटकने यह कहकर अपनी कन्या देनेसे इन्कार कर दिया कि राजा श्रेणिक विधर्मी है और एक विधर्मीको वह अपनी कन्या नहीं दे सकता। तब श्रेणिकके बड़े पुत्र अभयकुमारने कौशलपूर्वक चेलनाका हरण करके उसे अपने पिताको सौंप दिया। दोनों प्रेमपूर्वक रहने लगे। धीरे-धीरे चेलनाके प्रयत्नसे राजा श्रेणिक जैनधर्मकी ओर आकृष्ट हुआ और भगवान महावीरका अनुयायी हो गया। वह महावीरकी उपदेश सभाका मुख्य श्रोता था। जैन शास्त्रोंके प्रारम्भमें इस बातका उल्लेख रहता है कि राजा श्रेणिकके पूछनेपर भगवानने ऐसा कहा । श्रेणिकके चेलनासे कुणिक (अजातशत्रु) नामका पुत्र हुआ। जब कुणिक मगधके सिंहासन पर बैठा तो उसने अपने पिता श्रेणिकको कैद करके एक पिंजरे में बन्द कर दिया। एक दिन कुणिक अपने पुत्रको प्यार कर रहा था। उसकी माता चेलना उसके पास बैठी हुई थी। उसने अपनी मातासे कहा-"माँ ! जैसा मैं अपने पुत्रको प्यार करता हूँ, क्या कोई अन्य भी अपने पुत्रको वैसा प्यार कर सकता है। यह सुनकर चेलनाकी आँखोंमें आँसू आ गये । कुणिकने इसका कारण पूछा तो चेलना बोली-पुत्र! तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते थे। एक बार जब तुम छोटे थे तो तुम्हारे हाथकी अंगुलीमें बहुत पीड़ा थी। तुम्हें रात्रिको नोंद नहीं आती थी। तब तुम्हारे पिता तुम्हारी रक्त और पीवसे भरी हुई अँगुलीको अपने मुँहमें रखकर सोते थे क्योंकि इससे तुम्हें शान्ति मिलती थी।' यह सुनते ही कुणिकको अपने कार्यपर खेद हुआ और वह पिंजरा तोड़कर पिताको बाहर निकालनेके लिये कुल्हाड़ा लेकर दौड़ा। राजा श्रेणिकने जो इस तरह आते हुए कुणिकको देखा तो समझा कि यह मुझे मारने आ रहा है। अतः कुणिकके पहुँचनेके पहले ही पिंजरेमें सिर मारकर मर गया। आजसे ८२ हजार वर्ष बाद Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनधर्म जब पुनः तीर्थङ्कर होने प्रारम्भ होंगे तो राजा श्रेणिक जैनधर्मका प्रथम तीर्थङ्कर होगा ।" अजातशत्रु ( ५५२ - ५१८ ई० पू० ) यद्यपि बौद्धसाहित्य में अजातशत्रुके बौद्धधर्म अंगीकार करनेका उल्लेख मिलता है, तथापि खोज करनेसे प्रतीत होता है कि अजातशत्रु जैनधर्मकी तरफ अधिक आकर्षित था । स्व० डा० याकोवी जैनसूत्रोंकी प्रस्तावना में लिखते हैं'अजातशत्रुने अपने राज्यके प्रारम्भकालमें बौद्धोंकी तरफ कोई सहानुभूति नहीं दिखलाई थी । किन्तु बुद्ध के निर्वाणसे ८ वर्ष पहले वह बुद्धका आश्रयदाता बना था । किन्तु उस समय वह सद्भावनापूर्वक बौद्धधर्मानुयायी बना था, यह तो हम नहीं मान सकते। कारण यह है कि जो मनुष्य खुली रीति अपने पिताका खूनी था तथा अपने नानाके साथ जिसने लड़ाई लड़ी थी वह मनुष्य अध्यात्मज्ञानके लिये बहुत उत्सुक हो यह असंभव है । उसके धर्मपरिवर्तन करनेका क्या उद्देश्य था इसका हम सरलतासे अनुमान कर सकते हैं। बात यह है कि उसने अपने नाना वैशालीके राजाके साथ युद्ध किया था । यह राजा महावीरका मामा (नाना ) था और जैनोंका संरक्षक था । इसलिये इसके ऊपर चढ़ाई करनेके कारण अजातशत्रु जैनोंकी सहानुभूति खो बैठा। इससे उसने जैन के प्रतिस्पर्धी बौद्धोंके साथ मिलनेका निश्चय किया था ।' आगे डा० याकोबी लिखते हैं अजातशत्रु एक तो वैशालीको जीतनेमें सफल हुआ था, दूसरे उसने नन्दों और मौर्योंके साम्राज्यका पाया खड़ा किया था । इस प्रकार मगध साम्राज्यकी सीमा बढ़नेसे जैन और बौद्ध दोनों धर्मोंके लिये नया क्षेत्र खुल गया था । इससे वे दोनों तुरन्त उस क्षेत्रमें फैल गये । जब दूसरे सम्प्रदाय स्थानीय और अस्थायी महत्त्व प्राप्त करके ही रह गये तब ये दोनों धर्म Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने में समर्थ हुए थे। इसका मुख्य कारण अन्य कुछ भी नहीं, केवल यह मंगलकारी राजनैतिक संयोग था।' __ हमारे मतसे जैनों और बौद्धोंकी सफलताका कारण केवल राजनैतिक संयोग नहीं था, किन्तु फिर भी वह एक प्रबल कारण अवश्य था । अस्तु । नन्दवंश __ (ई० पू० ३०५) उदायीके बाद मगधके सिंहासनपर नन्दवंशका अधिकार हुआ। महाराजा खारवेलके शिलालेखसे पता चलता है कि महाराज नन्दने अपने राज्यकालमें कलिंग देशपर चढ़ाई की थी। और वह कलिंगके राजघरानेसे श्रीऋषभदेवकी प्रतिमा उठाकर ले गये थे। इस घटनाके ३०० वर्ष बाद कलिंगाधिपति खारवेलने जब मगधपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्रने वह प्रतिमा खारवेलको लौटाकर उसे प्रसन्न कर लिया। एक पूज्य वस्तुका इस प्रकार ३०० वर्ष तक एक राजघरानेमें सुरक्षित रहना इस बातका साक्षी है कि नन्दवंशमें उसको पूजा होती थी। यदि ऐसा न होता और नन्दवंश जैनधर्मका विरोधी होता तो उक्त मूर्ति इस प्रकार सुरक्षित नहीं रहती। मुद्राराक्षस नाटकमें भी यह उल्लेख है कि चाणक्यने नन्द राजाके मंत्री राक्षसको विश्वास देकर फाँसनेके लिये अपने एक चर जीवसिद्धिको क्षपणक बनाकर भेजा था। और क्षपणकका अर्थ कोषग्रन्थोंमें नग्न जैन साधु पाया जाता है। अतः नन्दका मंत्री राक्षस जैन था और राजा नन्द भी सम्भवतः जैन था। मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त (ई० पू० ३२०) मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। इनके समयमें मगधमें १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था। उस समय ये अपने पुत्रको राज्य सौंपकर अपने धर्मगुरु जैनाचार्य भद्रबाहुके साथ दक्षि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म णकी ओर चले गये थे। और तपस्या करते हुए बारहवर्ष पश्चात चन्द्रगिरि पर्वतपर मृत्युको प्राप्त हुए थे। इस घटनाके पक्षमें अनेक प्रमाण पाये जाते हैं। अति प्राचीन जैनग्रन्थ तिलांयपण्णत्ति में लिखा है "मुकुटधारी गजाओंमें अन्तिम चन्द्रगुपने जिनदीमा धारण की । इसके पश्चात किमी मुकुटधारी राजाने जिनदीक्षा नहीं ली।' पहल इनिहासन इस कथनकी सत्यतामें विश्वास करनको तैयार नहीं थे। किन्तु जब मैसूर राज्यमें श्रवणबेलगुल नामक स्थानकं चन्द्रगिरि पर्वनपरके लेख प्रकाशमें आये तो इतिहासहोंको उसे स्वीकार करना पड़ा। लेविस राइसने सर्व प्रथम इन शिलालंग्योंकी खोज की और उनका अनुवाद करके विद्वानोंके लिये उन्हें मुलभ बना दिया। उनके इम मतका कि चन्द्रगुप्त जैन था और वह दक्षिण आया था. मि० थॉमस जैसे प्रमुख विद्वानांन जोरसे समर्थन किया । 'जैनधर्म अथवा अशोकका पूर्व धर्म' शीर्षक अपने लखमें वह कहते हैं:-चन्द्रगुप्त जैन था' इस बातको लेखकोंने स्वाभाविक घटनाके रूपमें लिया है और उसे इम रूपमें माना है जैसे वह एक ऐसी सत्य घटना है, जिसके लिये न तो किसी प्रमाण की आवश्यकता है और न प्रदर्शन की। इस घटनाके लेख्य प्रमाण अपेक्षाकृत प्राचीन हैं और स्पष्ट रूपसे सन्देह रहित हैं। क्योंकि उनकी सूचीमें अशोकका नाम नहीं है। अशोक अपने दादा चन्द्रगुप्तसे बहुत अधिक शक्तिशाली था और जैन लोग उसके सम्बन्धमें सयुक्तिक ढंगसे यह दावा कर सकते थे कि वह जैनधर्मका प्रबल समर्थक था। कहीं अशोकने अपना धर्म परिवर्तन तो नहीं कर लिया था। मेगास्थिनोजकी साक्षी भी यह सूचित १ पृ० १४६ । १ जर्नल आफ़ दी रायल सिरीज, लेख ८ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास करती है कि चंद्रगुपने श्रमणोंकी धार्मिक शिक्षाओंको स्वीकार किया था और ब्राह्मणोंके सिद्धान्तोंको वह नहीं मानता था।" इस प्रकार साधारणतया विद्वान इस विषयमें एकमत हैं कि चन्द्रगुप्त जैन था। चन्द्रगुमने राज्य त्याग दिया था और वह श्रवणवेलगोलामें जैन साधु होकर मरा, इस बातका समर्थन स्व० डा० वी० ए० स्मिथने अपने 'भारतका प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थके प्रथम संस्करणमें किया था। चन्द्रगुप्तकी मृत्युका उल्लेख करते हुए मि० स्मिथ कहते हैं कि-चन्द्रगुप्त छोटी अवस्थामें ही राजसिंहासनपर बैठ गया था और चूँकि उसने केवल चौबीस वर्प राज्य किया। अतः ५० वर्पकी अवास्थासे पूर्व अवश्य ही उसका मरण हो जाना चाहिये। इस प्रकार उसकी मृत्युके समयके विपयमें अनिश्चितताका वातावरण है । इतिहासज्ञ हमें यह नहीं बतलाते कि वह कैसे मरा । यदि वह युद्ध-स्थलमें मरा होता या अपने जीवनके सुदिनोंमें मरा होता तो इस घटनाका उल्लेख होता। लेविस राईसके द्वारा खोज निकाले गये श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोंको अविश्वसनीय मानना जैनोंकी समस्त परम्परा और उल्लेखोंको अविश्वसनीय मानना है। एक इतिहासज्ञके लिये इतनी दूर जाना बहुत अधिक आपत्तिजनक है। ऐसी स्थितिमें लेविस राईसके साथ यदि हम यह विश्वास करें कि चन्द्रगुप्त जैन व्रतोंको धारण करके महान भद्रबाहुके साथ चन्द्रगिरि पर्वत पर चला गया था तो क्या हम गल्ती पर हैं ?" ____अपनी पुस्तकके दूसरे संस्करणमें स्मिथने अपने उक्त मतमें परिवर्तन कर दिया था किन्तु तीसरे संस्करणमें उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए लिखा'मुझे अब विश्वास हो चला है कि जैनोंका यह कथन १. स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म, पृ० २२ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म प्रायः मुख्य-मुख्य बातोंमें यथार्थ है और चन्द्रगुप्त सचमुच राज्य त्यागकर जैन मुनि हुए थे। स्व० के० पी० जायसवालने लिखा है 'कोई कारण नहीं हैं कि हम जैनियोंके इस कथनको कि चन्द्रगुप्त अपने राज्यके अन्तिम दिनोंमें जैन हो गया था और पीछे राज्य छोड़कर जिन दीक्षा ले मुनिवृत्तिसे मरणको प्राप्त हुआ, न माने । मैं पहला ही व्यक्ति यह माननेवाला नहीं हूँ। मि. राईसने, जिन्होंने श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंका अध्ययन किया है, पूर्ण रूपसे अपनी सम्मिति इसी पक्ष में दी है। और मि० वि० स्मिथ भी अन्तमें इसी मतकी ओर झुके हैं। सम्राट अशोक ( ई० पृ० २७७) सम्राट अशोक चन्द्रगुप्त मौर्यका पौत्र था। जैन ग्रन्थों में इसके जैन होनेके प्रमाण मिलते हैं। कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोक पहले जैनधर्मका उपासक था. पीछे बौद्ध हो गया । इसमें एक प्रमाण यह दिया जाता है कि अशोकके उन लेखोंमें जिनमें उसके स्पष्टनः बौद्ध होनेके कोई संकेन नहीं पाये जाते, बल्कि जैन सिद्धान्तोंके ही भावांका आधिक्य है, राजाका उपनाम 'देवानांपिय पियदसी' पाया जाता है । 'देवनांपिय' विशेपतः जैनग्रन्थों में ही राजाकी उपाधि पाई जाती है। पर अशोकके २वें वर्षकी भावराकी प्रशस्तिमें, जिसमें उसके बौद्ध होनेके स्पष्ट प्रमाण हैं ; उसकी पदवी केवल 'पियदसि' पाई जाती है, 'देवानां पिय' नहीं। इसी बीचमें वह जैनसे बौद्ध हुआ होगा। विद्वानोंका यह भी मत है कि अशोकने अहिंसाके विषयमें जो नियम प्रचारित किये थे वे बौद्धोंकी १. जर्नल आफ दी विहार उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, जिल्द ३ । २. इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ५ में। ३. 'अरली फेथ ऑफ़ अशोक ।' Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास अपेक्षा जैनोंसे अधिक मिलते हैं। जैसे, बहुतसे पक्षियों और चौपायोंका, जो कि न भोगमें आते हैं न खाये जाते हैं, मारना वर्जित करना, केवल अनर्थ और विहिंसाके लिये जंगलोंको जलानेका निषेध करना और कुछ खास तिथियों और पर्वोपर जीवहिंसाको बन्द कर देना आदि। प्रो० कर्नलने, जो बौद्धशास्त्रोंके बहुत बड़े अधिकारी विद्वान् माने जाते रहे हैं यह स्वीकार किया है कि अशोककी राज्यनीतिमें बौद्धप्रभाव खोजने पर भी नहीं मिलता। उसकी घोपणाएँ, जो मितव्ययी जीवनसे सम्बद्ध हैं-बौद्धोंकी अपेक्षा जैन विचारोंसे अत्यधिक मेल खाती है। सम्राट सम्पति ( ई० पू० २२० ) 'सम्प्रति अशोकका पौत्र था। इसे जैनाचार्य सुहस्तीने उज्जैनमें जैनधर्मकी दीक्षा दी थी। उसके बाद सम्प्रतिने 'जैनधर्मके लिए वही काम किया जो अशोकने बौद्धधर्मके लिए किया । उत्तर पश्चिमके अनार्यदेशोंमें भी सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रचारक भेजे और वहाँ जैन साधुओंके लिए अनेक विहार स्थापित किये। अशोककी तरह उसने भी अनेक इमारतें बनवाई । राजपूतानाकी कई जैन रचनाएँ उसीके समयकी कही जाती हैं। कुछ विद्वानोंका मत है कि जो शिलालेख अब अशोकके नामसे प्रसिद्ध हैं, सम्भवतः वे सम्प्रतिने लिखवाये थे। १. देखो-भारतीय इतिहासको रूपरेखा, पृ० ६१६ ।। जिनप्रभ सूरिने पाटलिपुत्र कल्पग्रन्थमें एक स्थानपर लिखा है"कुणालसूनुस्त्रिखण्डभरताधिपः परमाहतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमणविहारः सम्प्रति महाराजाऽसौ अभवत् ।" इनका भाव यह है कि कुणालका पुत्र महाराज सम्प्रति हुआ, जो भारतके तीन खण्डोंका स्वामी था, अर्हन्त भगवानका भक्त-जैन था और जिसने अनार्य देशोंमें भी श्रमणों-जैन मुनियोंका विहार कराया था। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म इस प्रकार महावीर स्वामीसे लेकर चार सौ वर्ष तक जैनधर्मी राजा श्रेणिक और महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उनकी सन्तानोंके समयमें भारत और उसके बाहर भी जैनधर्मका खूब प्रचार रहा। इसके बाद मौर्य सम्राज्यका ह्रास होना प्रारम्भ हुआ और उसके अन्तिम सम्राट् बृहद्रथको उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्रने मारकर राजदण्ड अपने हाथमें ले लिया । इसने श्रमणोंपर बड़ा अत्याचार किया। उनके विहार और स्तूप नष्ट कर दिये। २. उड़ीसा में जैनधर्म कलिंग चक्रवर्ती खारवेल ( ई० पू० १७४) कलिंगमें बहुत प्राचीन कालसे जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। ई० पू० ४२४ के लगभग मगधसमम्राट् नन्द कलिंगको जीतकर वहाँसे प्रथम जिनकी मूर्ति मगध ले गया था। सम्राट् सम्प्रति के समय वहाँ चेदिवंशका पुनः राज्य हुआ, इसी वंशका प्रसिद्ध सम्राट् खारवेल था। कलिंग चक्रवर्ती महाराजा खारवेलको उस युगकी राजनीतिमें सबसे अधिक महत्त्वका व्यक्ति माना जाता है। इनके हाथीगुम्फामें पाये गये शिलालेखका उल्लेख पहले किया गया है । उस लेखके अनुसार खारवेल जैन था। बल्कि उड़ीसाका सारा राष्ट्र उस समय जैन ही था। स्व० के० पी० जायसवाल लिखते हैं____ 'जैनधर्मका प्रवेश उड़ीसामें शिशुनागवंशी राजा नन्दवर्धनके समयमें हो गया था। खारवेलके समयसे पूर्व भी उदयगिरि पर्वतपर अर्हन्तोंके मन्दिर थे, क्योंकि उनका उल्लेख खारवेलके लेखमें आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि खारवेलके १. देखो-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृ० ७१५ २. ज. वि० उ० रि० सो० जिल्द ३, पृ० ४४८ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ३७ समयमें जैनधर्म कई शताब्दियों तक उड़ीसाका राष्ट्रीय धर्म रह चुका था ।' महाराजा खारवेलने १५ वर्षकी अवस्थामें युवराज पद प्राप्त किया और २४ वर्षकी अवस्थामें इनका महाराज्याभिषेक हुआ । उसके बाद दूसरे ही वर्ष उसने सातकर्णिकी परवाह न करके पश्चिम देशको अपनी सेना भेजी और उस सेनाने मूषिक नगरको परास्त किया। चौथे वर्ष खारवेलने फिर पश्चिमपर चढ़ाई की और रठिकोंके भोजक अपने मुकुट और छत्र शृङ्गार छोड़कर उसके चरणोंपर झुकनेको बाध्य हुए। वाख्त्रीका यवनराजा एक भारी सेना ले मध्यदेशपर चढ़ आया । खारवेलने आगे बढ़कर दिमितको निकाल भगाया । मध्यदेशसे यवनोंको पूरी तरह खदेड़नेका श्रेय खारवेलको ही है । बारहवें वर्ष में उसने पञ्जाबपर चढ़ाई की । सातकर्णी के राज्यपर दो चढ़ाइयाँ करने और यवनराज दमितिको मध्यदेश से निकाल भगाने के बाद खारवेल अपने समय के सब भार - तीय राजाओं में प्रमुख माना जाने लगा। अभी तक उसने अपने देश कलिंगके पश्चिमी पड़ोसी राज्य मूषिक और महाराष्ट्रपर तथा उत्तर पड़ोसी राज्य मगधपर चढ़ाइयाँ की थीं। अब उसने उत्तर और दक्खिनमें दूर दूर तक दिग्विजय करना शुरू किया । उसकी शक्ति भारत के अन्तिम छोरों तक पहुँच गई। बारहवें वर्ष उसने उत्तरापथके राजाओंको त्रस्त किया । मगधपर चढ़ाई करके मगधके राजा पुष्यमित्रको पैरों गिरवाया। राजा नन्द द्वारा ले जायी गई हुई कलिंग जिनमूर्तिको स्थापित किया। इस महाविजयके बाद, जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके यवन सब दब गये, खारवेलने जैनधर्मका महा अनुष्ठान किया। उन्होंने भारतवर्ष भरके जैन यतियों, जैन तपस्वियों, जैन ऋषियों और पंडितों को बुलाकर एक धर्म-सम्मेलन किया । जैनसंघने खारवेलको 'महाविजयों' की पदवीके साथ 'खेमराजा', 'भिखुराजा' और धर्मराजाकी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जनधर्म पदवी दी। इसके समयमें जैनधर्मका बड़ा उत्कर्ष हुआ। इस शिलालेखमें सं० १६५ दिया है, जिसे स्व. जायसवालने मौर्य सम्वत् सिद्ध किया है, जो कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यारोहणकाल (ई० पू० ३२१ ) से चला होगा। एक स्वतंत्र गजाने दूसरे राजाकं चलाये हुए मम्बनका उपयोग क्यों किया ? इसके उत्तर में जायसवालजीका कहना है कि चन्द्रगुण मौर्यका जैन होना जैनग्रन्थों व शिलालेखोंसे सिद्ध है। अतः एक जैन राजाके चलाये हुए सम्बनका दूसरा जैन राजा उपयोग करे तो इसमें आश्चर्य क्या है ? ___ इस प्रकार बिहार व उड़ीसामें महावीरके पश्चात् भी जैनधर्मका खब उप्कर्ष हुआ। ईम्बी ३०८ में पाटलीपुत्र नगरके पास एक गाँवके छोटेसे गजा चन्द्रगुपको लिच्छविवंशकी कन्या कुमारदेवी व्याही थी। यह लिच्छविवंश वैशालीके राजा उसी चेटकका बंश है जिनकी कन्याओंसे महावीर स्वामीके पिता राजा सिद्धार्थ और मगधक राजा श्रेणिक वगैरहका विवाह हुआ था। चन्द्रगुप्तने ऐसे महान वंशकी कन्यासे विवाह होनेको अपना बहुत भारी गौरव माना। वास्तवमें इस सम्बन्धके प्रतापसे ही वह महाराज हो गया। उसने अपने सिक्कोंपर लिच्छवियोंकी बटीके नामसे अपनी स्त्रीकी भी मूर्ति बनवाई । उसकी सन्तान बड़े गर्वसे अपनेको लिच्छवियोंका दौहित्र कहा करती थी। किन्तु चन्द्रगुपने एक बौद्ध साधुके उपदेशसे बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया, और उसके पुत्र समुद्रगुप्तने ब्राह्मणधर्म स्वीकार कर लिया। फिर भी ई० सं० ६२९ में आये चीनी यात्री हुएनत्सांगने वैशाली, राजगृह, नालंदा और पुण्डवर्द्धनमें अनेक निर्ग्रन्थ साधुओंको देखा था। वह कलिंग देशको जैनोंका मुख्य स्थान कहता है। इससे स्पष्ट है कि खारवेलके बाद भी इतने सुदीर्घ कालनक जैनधर्म कलिंगमें बना रहा। सम्राट् खारवेलके बाद ऐसा प्रतापशाली जैन राजा अन्य नहीं हुआ। यद्यपि जैनधर्म प्रायः Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास सभी राजवंशोंके समयमें फलाफूला, और अनेक अन्य राजाओंने उसे साहाय्य भी दिया, किन्तु जिन्हें हम पूरी तरहसे जैन कह सके ऐसे राजा कम ही हुए। ३. बङ्गालमें जैनधर्म किन्हीं विद्वानोंकी दृष्टिसे जनधर्मका आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम बंगाल समझा जाता है। एक समय बंगालमें वौद्धधर्मकी अपेक्षा जैनधर्मका विशेप प्रचार बतलाया जाता है । वहाँके मानभून, सिंहभूम, वीरभूम और बर्दवान जिलोका नामकरण भगवान महावीर और उनके वर्षभान नामके आधारपर ही हुआ है। जब क्रमशः जैनधर्म लुप्र हो गया तो बौद्धधर्मने उसका स्थान ग्रहण किया। वंगालके पश्चिमी हिस्सेमें जो सराक जानी पाई जाती है वह जैन श्रावकोंकी पूर्वस्मृति कराती है । अब भी बहुतसे जैनमन्दिरोंके ध्वंसावशंप, जैनमूर्तियाँ, शिलालेख वगैरह जैन म्मृतिचिह्न बंगालके भिन्न-भिन्न भागांमें पाये जाते हैं। श्रीयुत के० डी० मित्राकी खोजके फलम्वरूप मुन्दरवनके एक भागसे ही दस जैनमूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । वाँकुरा और वीरभूम जिलों में अभी भी प्रायः जन प्रतिमाओंक मिलनेका समाचार पाया जाता है । श्री राखलदास वनर्जीने इस क्षेत्रको तत्कालीन जैनियोंका एक प्रधान केन्द्र बताया था । सन् १०४० में पूर्वी बंगालके फरीदपुर जिलेके एक गाँव में एक जैनमृति निकली थी जो २ फीट ३ इंच की है । बंगालके कुछ हिम्ममि विराट जैनमूर्तियाँ भैरवके नाम से पूजी जाती हैं। वाँकुड़ा मानभूम वगैरह स्थानोंमें और देहानोंमें आजकल भी जनमन्दिरोंके ध्वंसावशंप पाये जाते हैं। मानभूममें पंचकोटके राजाके अधीनस्थ अनेक गाँवोंमें विशाल जैनमूर्तियोंकी पूजा हिन्दू पुरोहित या ब्राह्मण करते हैं। वे भैरवके नामसे पुकारी जाती हैं, और नीच या शूद्र जातिके लोग वहाँ पशुबलि भी करते हैं। इन सव मूर्तियोंके नीचे अब Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनधर्म भी जैनलख मिल जाते हैं। इस प्रकारकी एक लेखयुक्त मूर्ति स्व० राखलदास बनर्जी पंचकोटके महाराजाके यहाँसे ले गये थे। शान्तिनिकेतनके आचार्य भितिमोहनसेन लिखते हैं'परीक्षा करनेसे बंगालके धर्म में, आचारमें और बनमें जैनधर्मका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । जैनोंके अनेक शब्द बंगालमें प्रचलित हैं। प्राचीन बंगाली लिपिक बहुतसे शब्द विशंप तौरसे युक्ताक्षर देवनागरीके साथ नहीं मिलते, परन्तु प्राचीन जैनलिपिसे मेल खाते हैं।' ४. गुजरातमें जैनधर्म गुजरानके माथ जैनधर्मका सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। २२ वें तीर्थकर श्रीनेमिनाथने यहींक गिरनार पर्वत पर जिनदीक्षा लेकर मुक्तिलाभ किया था। यहाँकी ही वल्भी नगरीमें वीर निर्वाण सम्बत ११३ में एकत्र हुए इवेताम्बर संघने अपने आगमग्रन्यांको व्यवस्थित करके उनको लिपिबद्ध किया था। जैसे दक्षिण भारतमें दिगम्बर जैनोंका प्राबल्य रहा है, लगभग वैसे ही गुजरातमें श्वेताम्बर जैनोंका प्राबल्य रहा है। गुजरातमें भी अनेक राजवंश जैनधर्मावलम्बी हुए हैं। राष्ट्रकूटोंका राज्य भी गुजरातमें रहा है। गुजरातके संजान स्थानसे प्राप्त एक शिलालेखमें अमोघवर्ष प्रथमकी प्रशंसा की गई है तथा अमोघवर्षके गुरु श्रीजिनसेनने अपनी जयधवला टीकाकी प्रशस्तिमें अमोघवर्षका उल्लेख 'गुर्जरनरेन्द्र नामसे १. विश्ववाणीका जैन संस्कृति अंक, पृ० २०४ । २. Architecture of Ahamdabad में लिखा है कि-'यह मालूम नहीं कि जैनधर्म गुजरातमें पैदा हुआ या कहींसे आया, किन्तु जहाँ तक हमारा ज्ञान जाता है यह प्रान्त इस धर्मका बहुत उपयोगी घर व मुख्य स्थान रहा है।' ३. देखो-जयधवला १ खं० की प्रस्तावना, पृ० ७४ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास किया है। इससे स्पष्ट है कि अमोघवर्षने गुजरातपर भी शासन किया और उसके राज्यमें जैनधर्म खुब फूला फला। राष्ट्रकूटोंके हाथसे निकलकर गुजरात पश्चिमी चालुक्योंके अधिकारमें चला गया। फिर चावडावंशी वनराजने इसपर अपना अधिकार कर लिया। इस वनराजका लालनपालन एक जैनसाधुकी देखरेख में हुआ था। जिसके प्रभावसे यह जैनधर्मी हो गया। जब इस राजाने अणहिलवाड़ाकी स्थापना की नब उममें जैनमन्त्रोंका ही उपयोग किया गया था तथा इसने एक जनमन्दिर भी उस नगरमें बनवाया था। चावड़ावंशसे निकलकर गुजरात पुनः चालुक्योंके अधिकार में चला गया। ये लोग भी जैनधर्म पालते थे। इनके प्रथम राजा मूलराजने अणहिलवाड़ामें एक जनमन्दिरका निर्माण कराया। भीम प्रथमके समयमें उसके सेनापति विमलने आबू पर्वतपर प्रसिद्ध, जैनमन्दिर बनवाया जिसे 'विमलवसही' कहते हैं। सिद्धराज जयसिंह बहुत प्रसिद्ध, राजा हुआ है। इसपर जैनाचार्य हेमचन्द्रका बड़ा प्रभाव था। इसके नामपर आचार्यने अपना सिद्धहेम व्याकरण रचा। यद्यपि इसने जैनधर्मको अंगीकार नहीं किया, किन्तु आचार्यके कहनेसे मिद्धपुरमें महावीर स्वामीका मन्दिर बनवाया और गिरनार पर्वतकी यात्रा भी की। जयसिंहके बाद कुमारपाल गुजरातकी राजगहीपर बैठा । इसपर हेमचन्द्राचार्यका बहुत प्रभाव पड़ा और इसने धीरे-धीरे जैनधर्म स्वीकार कर लिया। उसके बाद इस राजाने मांसाहार और शिकारका भी त्याग कर दिया, तथा अपने राज्यमें भी पशुहिंसा, मांसाहार और मद्यपानका निषेध कर दिया । कमाइयोंको तीन वर्षकी आय पेशगी दे दी गई। ब्राह्मणोंको यज्ञमें पशुके बदले अनाजसे हवन करनेकी आज्ञा दी। इमने अनेक जैनतीर्थोंकी यात्रा की, अनेक जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया । इसके समयमें आचार्य हेमचन्द्रने अनेक ग्रन्थोंको रचना की। चालुक्योंका अस्त होनेपर १३ वीं शताब्दीमें बघेलोंका Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनधर्म I राज्य हुआ । इनके समय में वस्तुपाल और तेजपाल नामक जैन मन्त्रियोंने आचूके प्रसिद्ध मन्दिर बनवाये तथा शत्रुंजय और गिरनारपर भी जैनमन्दिर बनवाये । इस प्रकार गुजरातमें भी राजाश्रय मिलने से जैनधर्मकी बहुत उन्नति हुई । इस तरह भगवान महावीरके पश्चात् बिहार, उड़ीसा, तथा गुजरात वगैरह में लगभग २००० वर्ष तक जैनधर्मका खूब अभ्युदय हुआ । इस कालमें अनेक प्रभावशाली जैनाचार्योंने अपने उपदेशों और शास्त्रार्थोंके द्वारा जैनधर्मका प्रभाव फैलाया । अकेले एक समन्तभद्रने ही समस्त भारतमें घूम-घूम कर अनेक राजदरबारोंको अपनी वक्तृत्व शक्ति और प्रखर तार्किक बुद्धिसे प्रभावित किया था । अन्य प्रान्तोंमें भी पाये जानेवाले जैन स्मारकोंसे जैनधर्म के विस्तारका सबूत मिलता है । । ५. राजपूताने में जैनधर्म स्व० ओझाजीने अपने 'राजपूतानेके इतिहासमें लिखा है कि- 'अजमेर जिलेके वर्ली नामक गाँव में वीर सम्वत् ८४ ( वि० स० ३८६ पूर्व - ई० सं० ४४३ पूर्व ) का एक शिलालेख मिला है जो अजमेर के म्यूजियम में सुरक्षित है । उस परसे यह अनुमान होता है कि अशोक से पहले भी राजपूताने में जैनधर्मका प्रसार था । जैन लेखकोंका यह मत हैं कि राजा सम्प्रतिने, जो अशोकका वंशज था, जैनधर्मकी खूब उन्नति की और राजपूताना तथा उसके आसपासके प्रदेशमें भी उसने अनेक जैनमन्दिर बनवाये । वि० सं० की दूसरी शताब्दी में बने मथुराके कंकाली टीलाके जैन स्तूपसे तथा वहींके कुछ अन्य स्थानोंसे प्राप्त प्राचीन शिलालेखों और मूर्तियांसे मालूम होता हैं कि उस समय राजपूताने में भी जैनधर्मका अच्छा प्रचार था । जैनियोंकी प्रसिद्ध प्रसिद्ध जातियों, जैसे ओसवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, पल्लीवाल आदिका उदय स्थान राजपूताना ही १. प्र० खं० पू० १०-११ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ४३ माना जाता है। चित्तौड़का प्रसिद्ध प्राचीन कीर्तिस्तम्भ जैनोंका ही निर्माण कराया हुआ है । उदयपुर राज्यमें केशरियानाथ जैनोंका प्राचीन पवित्र स्थान है जिसकी पूजा वन्दना जैनेतर भी करते हैं । 'राजपूतानेमें जैनोंने राजत्व, मंत्रित्व और सेना - पतित्वका कार्य जिस चतुराई और कौशलसे किया है उससे उन्हें राजपूतानेके इतिहासमें अमर नाम प्राप्त है। राजपूतानेने ही दुढारी हिन्दी कुछ ऐसे धार्मिक जैन विद्वानोंको पैदा किया जिन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषाके ग्रन्थोंपर हिन्दीमें टीकाएँ लिखकर जनताका भारी उपकार किया। राजपूताने के जैसलमेर, जयपुर, नागौद, आमेर आदि स्थानों में प्राचीन शास्त्र भडार हैं ६. मध्यप्रान्त में जैनधर्म मध्यप्रान्तका सबसे बड़ा राजवंश कलचूरि वंश था जिसका प्राबल्य आठवीं नौवीं शताब्दी में बहुत बढ़ा | ये कलचुरिनरेश प्रारम्भ में जैनधर्म के पोपक थे। कुछ शिलालेखों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि कलभ्र लोगोंने तमिल देशपर चढ़ाई की थी और वहाँके राजाओंको परास्त करके अपना राज्य जमाया था । प्रोफेसर रामस्वामी आयंगरने सिद्ध किया है कि ये कलवंशी राजा जैनधर्मके पक्के अनुयायी थे । इनके नमिल देशमें पहुँचनेसे वहाँ जैनधर्मकी बड़ी उन्नति हुई। इन कलको कलचुरिवंशकी शाखा समझा जाता है । इनके वंशज नागपुरके आसपास अब भी मौजूद हैं जो कलार कहलाते हैं । ये कभी जैन थे | मध्यप्रान्तके कलचुरि-नरेश जैनधर्मक पोषक थे इसका एक प्रमाण यह भी है कि इनका राष्ट्रकूट नरेशोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध था । दोनों राजवंशोंमें अनेक विवाह सम्वन्ध हुए 汁 और राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मके उपासक थे । 1 १. 'राजपूताने के जैन वीर' । २. Studies in South Indian Jainism P. 53-56. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनधर्म कलचुरी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर में अब भी अनेक प्राचीन जैन मूर्तियाँ और खण्डहर विद्यमान हैं। __ इस प्रान्तमें जैनोंके अनेक तीर्थ हैं-बैतूल जिलेमें मुक्तागिरि, सागर जिलेमें दमोहके पास कुण्डलपुर और निमाड़ जिलेमें सिद्धवर क्षेत्र अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये भी प्रसिद्ध हैं। भलसाक समीपका 'वीसनगर' जैनियोंका बहुत प्राचीन स्थान है । शीतलनाथ तीर्थङ्करकी जन्मभूमि होनेसे वह अतिशय क्षेत्र माना जाता है। जनग्रन्थोंमें इसका नाम भद्दलपुर पाया जाना है। बुन्देलखण्डमें भी अनेक जैनतीर्थ हैं जिनमें, सोनागिर, देवगढ़, नयनागिर और द्रोणगिरिका नाम उल्लेखनीय है। खजुराहाके प्रसिद्ध जैनमन्दिर आज भी दर्शनार्थियोंको आकृष्ट करते हैं। सतरहवीं शताब्दीसे यहाँ जैनधर्मका ह्रास होना आरम्भ हुआ । जहाँ किसी समय लाखों जैनी थे वहाँ अब जैनधर्मका पता जैन मन्दिरोंके खण्डहरों और टूटी-फूटी जैन मूर्तियोंसे चलता है। ७. उत्तरप्रदेशमें जैनधर्म उत्तर प्रदेशमें जैनधर्मका केन्द्र होनेको दृष्टिसे मथुराका नाम उल्लेखनीय है । यहाँके कंकाली टोलेसे जो लेख प्राप्त हुए हैं वे ई० पू० री शताब्दीसे लेकर ई० स० ५वीं शताब्दी तकके हैं, और इस तरह ये बहुत प्राचीन हैं। इनसे पता चलता है कि इतने सुदीर्घ काल तक मथुरा नगरी जैनधर्मका प्रधान केन्द्र थी। जैनधर्मके इतिहासपर इन शिलालेखोंसे स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। इनसे पता चलता है कि जैनधर्मके सिद्धान्त और उसकी व्यवस्था अति प्राचीन है। यहाँके प्राचीनतम शिलालेखसे भी यहाँका स्तूप कई शताब्दी पुराना है इसके सम्बन्धमें फुहरर सा० 'लिखते है १. म्यूजियम रिपोर्ट, १८६०-६१ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ इतिहास 'यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इस लेखके लिखे जानेके समय स्तूपका आदि वृत्तान्त लोगोंको विस्मृत हो चुका था। असलमें उत्तर प्रदेशमें जैनधर्मका इतिहास अभी तक अन्धकार में है। इसलिये उत्तर प्रदेशके राजाओंका जैनधर्मके साथ कैसा सम्बन्ध था यह स्पष्ट रूपसे नहीं कहा जा सकता। फिर भी उत्तर प्रदेशमें सर्वत्र जो जैन पुरातत्त्वकी सामग्री मिलती है उससे यह पता चलता है कि कभी यहाँ भी जैनधर्मका अच्छा अभ्युदय था, और अनेक राजाओंने उसे आश्रय दिया था। उदाहरणके लिये हर्षवर्द्धन बड़ा प्रतापी राजा था। लगभग समस्त उत्तर प्रदेशमें उसका राज्य था। इसने पाँच वर्ष तक प्रयागमें धार्मिक महोत्सव कराया। उसमें उसने जैनधर्मके धार्मिक पुरुषोंका भी आदर सत्कार किया था। जो राजा जैनधर्मका पालन नहीं करते थे, किन्तु जैनधर्मके मार्गमें बाधा भी नहीं देते थे, ऐसे धर्मसहिष्णु राजाओंके कालमें जैनधर्मकी खूब उन्नति हुई। समग्र उत्तर और मध्य भारतके सभी प्रदेशोंमें पाये जानेवाले जैनधर्मके चिह्न इसके साक्षी हैं। उत्तर प्रदेशके जिन जिलोंमें आज नाममात्रको जैनी रह गये हैं उनमें भी प्राचीन जैन चिह्न पाये जाते हैं। उदाहरणके लिये गोरखपुर जिलेमें तहसील देवरियामें कुहाऊँ, व खुखुन्दोके नाम उल्लेखनीय हैं। इलाहाबादसे दक्षिण पश्चिम ११ मीलपर देवरिया और भीतामें बहुतसे पुरातन खण्डित स्थान हैं। कनिंग्घम सा० का कहना है कि यहाँ जादोवंशके उदयन राजा रहते थे, जो जैनधर्म पालते थे। उन्होंने श्री महावीर स्वामीकी एक प्रसिद्ध मूर्तिका निर्माण कराया था, जिसे लेनेके लिए उज्जैन के राजा और उदयनसे एक बड़ा युद्ध हुआ था। बलरामपुर ( अवध ) से पश्चिम १२ मीलपर 'सहेठ महेठ' नामका स्थान है। यहाँ खुदाई की गई थी। यह स्थान ही श्रावस्ती नगरी है। इसके सम्बन्धमें डॉ० फुहररने अपनी रिपोर्टमें लिखा है कि ११ वीं शताब्दीमें श्रावस्तीमें जैनधर्मकी बहुत Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनधर्म उन्नति थी क्योंकि खुदाई में तीर्थकरोंकी कई मूर्तियाँ जिनपर संवत् १११२ से ११३३ तक खुदा है यहाँ प्राप्त हुई हैं । सुहृद्ध्वज श्रावस्तीके जैन राजाओंमें अन्तिम राजा था । यह महमूद गजनीके समयमें हुआ था । तीर्थस्थान है । राजा हो गया बरेली जिलेमें अहिच्छत्र नामका एक जैन इस पर राज्य करनेवाला एक मोरध्वज नामका हैं जो जैन बतलाया जाता है । यहाँ किसी समय जैनधर्म की बहुत उन्नति थी । यहाँ अनेक खेड़े हैं जिनसे जैनमूर्तियाँ मिली हैं । इसी तरह इटावासे उत्तर दक्षिण २७ मीलपर परवा नामका एक स्थान है जहाँ जैनमन्दिरके ध्वंस पाये जाते हैं। डॉ० फुहरर का कहना है कि किसी समय यहाँ जैनियोंका प्रसिद्ध नगर आलभी बसा था । ग्वालियर के किलेमें विशाल जैनमूर्तियोंकी बहुतायत वहाँके प्राचीन राजघरानोंका जैनधर्म से सम्बन्ध सूचित करती है । इस प्रकार उत्तर भारतमें जैन राजाओं का उल्लेखनीय बता न चलने पर भी अनेक राजाओंका जैनधर्मसे सहयोग सूचित होता है और पता चलता है कि महावीरके पश्चात् उत्तर भारत में भी जैनधर्म खूब फूला फला । ८. दक्षिण भारतमें जैनधर्म उत्तर भारतमें जैनधर्मकी स्थितिका दर्शन करानेके पश्चात् दक्षिण भारतमें आते हैं । चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़नेपर जैनाचार्य भद्रबाहुने अपने विशाल जैनसंघके साथ दक्षिण भारतकी ओर प्रयाण किया था। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारतमें उस समय भी जैनधर्मका अच्छा प्रचार था और भद्रबाहुको पूर्ण विश्वास था कि वहाँ उनके संघको किसी प्रकारका कष्ट न होगा । यदि ऐसा न होता तो वे इतने बड़े संघको दक्षिण भारतकी ओर ले जानेका साहस Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ४७ न करते। जैन संघकी इस यात्रासे दक्षिण भारतमें जैनधर्मको और भी अधिक फलने और फूलनेका अवसर मिला। ___ श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृतिसे सदा उदार रही है, उसमें भाषा और अधिकारका वैसा बन्धन नहीं रहा जैसा वैदिक संस्कृतिमें पाया जाता है। जैन तीर्थङ्करोंने सदा लोकभाषाको अपने उपदेशका माध्यम बनाया । जेनसाधु जैनधर्मके चलतेफिरते प्रचारक होते हैं। वे जनतासे अपनी शरीरयात्राके लिये दिनमें एक बार जो रूखा-सूखा किन्तु शुद्ध भोजन लेते हैं उसका कई गुना मूल्य वे सशिक्षा और सदुपदेशके रूपमें जनताको चुका देते हैं और शेप समयमें साहित्यका सृजन करके उसे भावी सन्तानके लिए छोड़ जाते हैं। ऐसे कर्मट और जनहितनिरत साधुओंका समागम जिस देशमें हो उस देशमें उनके प्रचारका कुछ प्रभाव न हो यह सम्भव नहीं । फलतः उत्तरभारतके जैनसंघकी दक्षिण यात्राने दक्षिण' भारतके जीवनमें १. प्रो० राम स्वामी आयंगर अपनी 'स्टडीज इन माउथ इण्डियन जैनिज्म'-पुस्तकमें लिखते है-'सुशिक्षित जैन साधु छोटे-छोटे ममह वनाकर समस्त दक्षिणभारतमें फैल गये और दक्षिणकी भाषाओंम अपने धार्मिक साहित्यका निर्माण करके उसके द्वारा अपने धार्मिक विचारोंको धीरे-धीरे किन्तु स्थायी रूपमें जनतामें फैलाने लगे। किन्तु यह कल्पना करना कि ये साधु साधारणतया लौकिक कार्योम उदासीन रहते थे, गलत है। एक सीमा तक यह सत्य है कि ये संसारमें सम्बद्ध नहीं होते थे। किन्तु मेगास्थनीजके विवरणसे हम जानते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दीतक राजा लोग अपने दूतोंके द्वारा वनवासी जैन श्रमणोंसे राजकीय मामलोंमें स्वतन्त्रतापूर्वक सलाह-मशविरा करते थे। जैन गुरुओंने राज्योंकी स्थापना की थी, और वे राज्य शताब्दियों तक जैन धर्मके प्रति सहिष्णु बने रहे। किन्तु जैनधर्मग्रन्थोंमें रक्तपात के निषेधपर जो अत्यधिक जोर दिया गया उसके कारण समस्त जैन जाति राजनैतिक अधोगतिको प्राप्त हो गई।" पृ० १०५-१०६। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैनधर्म एक क्रान्ति पैदा कर दी। उसका साहित्य खूब समृद्ध हुआ और वह जैनाचार्योंकी खनि तथा जैन संस्कृतिका संरक्षक और संवर्धक बन गया। जैनधर्मक प्रसारकी दृष्टिसे दक्षिण भारतको दो भागों में बाँटा जा सकता है-तमिल तथा कर्नाटक । तमिल प्रान्तमें चोल और पांड्यनरेशोंने जैनधर्मको अच्छा आश्रय दिया। खारवेलके शिलालेखसे पता चलता है कि सम्राट् खारवेलके राज्याभिषेकके अवसरपर पांड्यनरेशने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे । सम्राट् खारवेल जैन था और पांड्यनरेश भी जैन थे। पांड्यवंशने जैनधर्मको न केवल आश्रय ही दिया किन्तु उसके आचार और विचारोंको भी अपनाया। इससे उनकी राजधानी मदुरा दक्षिण भारतमें जैनोंका प्रमुख स्थान बन गई थी। तमिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्धमें कहा जाता है कि उत्तर भारतमें दुष्काल पड़नेपर आठ हजार जैन साधु पांड्यदेशमें आये थे। जब वे वहाँसे वापिस जाने लगे तो पांड्यनरेशने उन्हें वहीं रखना चाहा। तब उन्होंने एक दिन रात्रिके समय पांड्यनरेशकी राजधानीको छोड़ दिया किन्तु चलते समय प्रत्येक साधुने एक-एक ताड़पत्रपर एक-एक पद्य लिखकर रख दिया। इन्हींके समुदायसे नालिदियर प्रन्थ बना। जैनाचार्य पूज्यपादके शिष्य बननन्दिने पांड्योंकी राजधानी मदुरामें एक विशाल जैनसंघकी स्थापना की थी। तमिल साहित्यमें 'कुरल' नामका नीतिग्रन्थ सबसे बढ़कर समझा जाता है। यह तमिलवेद कहलाता है। इसके रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते हैं, जिनका एक नाम कुन्दकुन्द भी था । पल्लववंशी शिवस्कन्दवर्मा महाराज इनके शिष्य थे। ईसाकी दसवीं शताब्दी तक राज्य करनेवाले महाप्रतापी पल्लव राजा भी जैनोंपर कृपादृष्टि रखते थे। इनकी राजधानी कांची सभी धर्मोंका स्थान थी। चीनी यात्री हुएनत्सांग सातवीं शताब्दीमें कांची आया था। इसने इस नगरीमें फलते-फूलते हुए जिन धर्मोको देखा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ४९ उनमें वह जैनोंका भी नाम लेता है। इससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि उस समय कांची जैनोंका मुख्य स्थान था । यहाँ जैन राजवंशोंने बहुत वर्षोंतक राज्य किया । इस तरह तमिल देशके प्रत्येक अंगमें जैनोंने महत्त्वपूर्ण भाग लिया । सर वाल्टर इलियट के मतानुसार दक्षिणकी कला और कारीगरीपर जैनोंका बड़ा प्रभाव हैं, परन्तु उससे भी अधिक प्रभाव तो उनका तमिल साहित्यके ऊपर पड़ा है । विशप काल्डवेल ' का कहना है कि जैनों की उन्नतिका युग ही तमिल साहित्यका महायुग है। जैनोंने तमिल, कनड़ी और दूसरी लोकभाषाओंका उपयोग किया इससे जनताके सम्पर्क में वे अधिक आये और जैनधर्मके सिद्धान्तोंका भी जन साधारणमें खूब प्रचार हुआ । ४ एक समय कनड़ी और तेलगु प्रदेशोंसे लेकर उड़ीसा तक जैनधर्मका बड़ा प्रभाव था । शेषगिरि रावने अपने Andhra karna Jainism में जो काव्य-संग्रह किया है उससे पता चलता है कि आजके विजगापट्टम, कृष्ण, नेलोर वगैरह प्रदेशों में प्राचीनकालमें जैनधर्म फैला हुआ था और उसके मन्दिर बने हुए थे। किन्तु जैनधर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान तो कर्नाटक प्रान्तके इतिहास में मिलता है । यह प्रान्त प्राचीनकाल से ही दिगम्बर जैन सम्प्रदायका मुख्य स्थान रहा है । इस प्रान्तमें मौर्य साम्राज्यके बाद आन्ध्रवंशका राज्य हुआ, आन्ध्र राजा भी जैनधर्मके उन्नायक थे । आन्ध्रवंशके पश्चात् उत्तर पश्चिम १. Coins of Southern India ( London 1886 ) पृ० ३८, ४०, १२६ । R. "Comperative Grammar of the Dravidian or South Indian family of languages" तीसरी आवृत्ति ( लंडन १९१३ )। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में कदम्बोंने और उत्तरपूर्वमें पल्लवोंने राज्य किया। कदम्बवंशक अनेक शिलालेख मिले हैं, जिनमेंसे बहुतसे लेखोंमें जैनोंको दान देनेका उल्लेख मिलता है। इस राजवंशका धर्म जैन था । सन १९२२-२३ की एपिग्राफी रिपोर्ट में वर्णित है कि वनवासीके प्राचीन कदम्ब और चालुक्य, जिन्होंने पल्लवोंके पश्चात् तुलुव देशमें राज्य किया, निस्सन्देह जैन थे। तथा यह भी बहुत संभव है कि प्राचीन पल्लव भी जैन थे; क्योंकि संस्कृतमें मत्तविलास नामका एक प्रहसन है जो पल्लवराज महेन्द्रदेववर्माका बनाया हुआ कहा जाता है । इस ग्रन्थमें उस समयके प्रचलित सम्प्रदायोंकी हँसी उड़ाई गई है, जिनमें पाशुपत, कापालिक और एक बौद्ध भिक्षुको हँसीका पात्र बनाया गया है । इनमें जैनोंको सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे पता चलता है कि जिस समय महेन्द्र वर्माने इस ग्रन्थको रचा उस समय वह जैन था तथा पीछेसे शैव हो गया क्योंकि शैव-परम्परामें ऐसी ख्याति है कि शैव साधु अप्परने महेन्द्रवर्माको शैव बनाया था। अतः कदम्बोंकी तरह चालुक्य भी जैनधर्मके प्रमुख आश्रयदाता थे। चालुक्योंने अनेक जैनमन्दिर बनवाये, उनका जीर्णोद्धार कराया, उन्हें दान दिया और कनड़ीके प्रसिद्ध जैन कवि आदि पम्प जैसे कवियोंका सम्मान किया। इसके सिवा इतिहाससे यह भी पता चलता है कि कर्नाटकमें महिलाओंने भी जैनधर्मके प्रचार में भाग लिया है। इन 8. "Ewly kadanabats of Banbasi and Chalukyas, who succeedel pallavas its overlords of Tuut were undoutedly Jains and it is probable that early pailevas tiere the same." २. 'साउथ इण्डियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर', भा० १, पृ० ५८४ । ३. स्मिथ-अर्ली हिस्ट्री आफ़ इण्डिया, पृ० ४४४ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास महिलाओंमें जहाँ राजघरानेकी महिलाएँ स्मरणीय हैं वहाँ साधारण घरानेकी स्त्रियोंकी सेवाएँ भी उल्लेखनीय हैं। सबसे प्रथम परमगूलकी पत्नी कंदाच्छिका नाम उल्लेखनीय है। उसने श्रीपुर नामक स्थानके उत्तरी भागमें एक जैनमन्दिर बनवाया था। परमगृलकी प्रार्थनापर गंगनृपति श्रीपुरुषने इस मन्दिरको एक प्राम तथा कुछ अन्य भू-भाग प्रदान किये थे। इस महिलाका गंग राजपरिवारपर काफी प्रभाव था। दूसरी उल्लेखनीय महिला जक्कियब्वे है। यह सत्तरस नागार्जुनकी पत्नी थी जो नागर खण्डका शासक था। पतिके मरनेपर राजाने 'उसकी जगह उसकी पत्नीको नियुक्त किया। पत्नीने अपूर्व साहस और वीरताका परिचय दिया और सल्लेखना पूर्वक प्राणोंका त्याग किया। ईसाकी दसवीं शतीमें पश्चिमी चालुक्य राजा तैलपका सेनापति मल्लप्प था। उसकी पुत्री अत्तिमव्वे आदर्श धर्मचारिणी थी। उसने अपने व्ययसे सोने और कीमती पत्थरों की डेढ़ हजार मूर्तियाँ बनवाई थां । राजेन्द्र कोंगाल्वकी माता पोचव्वरासिने ई० १०५० में एक वसदि बनवाई थी। कदम्बराजा कीर्तिदेवकी प्रथम पत्नी माललदेवीका स्थान भों धर्मप्रेमी महिलाओं में अत्यन्त ऊँचा है । इसने १०७७ ई० में पद्मनन्दि सिद्धान्तदेवके द्वारा पार्श्वनाथ चैत्यालय बनवाया और प्रमुख ब्राह्मणोंको आमंत्रित करके उन्होंके द्वारा उस जिनालयका नामकरण 'ब्रह्मजिनालय' करवाया। नागर खण्डके धार्मिक इतिहास में चट्टल देवीका खास स्थान है । यह सान्तर परिवारकी थी। सान्तर परिवार जैनमतावलम्बी था और उसका धर्मप्रेम विख्यात है। इस महिलाने सान्तरोंकी राजधानी पोम्वुच्चपुरमें जिनालयोंका निर्माण कराया और अनेक परोपकार सम्बन्धी कार्य किये। यहाँ दक्षिण भारतके राजनैतिक इतिहासके सम्बन्धमें थोड़ा प्रकाश डालना उचित होगा । गंग राजाओंने मैसूरके एक बहुत Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनधर्म बड़े भागपर ईसाकी दूसरी शताब्दीसे लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक राज्य किया। उसके पश्चान वे चोलोंके द्वारा पराजित हुए। किन्तु चोल लम्बे समय तक राज नहीं कर सके और शीघ्र ही होयसलोंके द्वारा निकाल बाहर किये गये । होयसलोंने एक पृथक राजवंश स्थापित किया जो ११वीं शती तक कायम रहा। प्राचीन चालुक्योंने छठी शतीके लगभग अपना राज्य स्थापित किया और प्रबल शासनके पश्चात दो भागोंमें बँट गये-एक पूर्वीय चालुक्य और दूसरा पश्चिमीय चालुक्य । पूवीय चालुक्योंने ७५० ई० से ११ वीं शती तक राज्य किया। उसके पश्चात् उनके राज्य चोलोंके द्वारा मिला लिये गये। पश्चिमीय चालुक्य ७५० ई० के लगभग राष्ट्रकूटोंसे पराजित हुए। राष्ट्रकूटोंने ९७३ ई० नक अपनी: स्वतंत्रता कायम रखी। उसके पश्चात् वे पश्चिमीय चालुक्योंसे पराजित हुए । चालुक्योंने लगभग दो सौ वर्ष तक राज्य किया। उसके पश्चात् कालाचूरियोंसे वे पराजित हुए। कालाचूरियोंने तीस वर्ष राज्य किया। अब प्रत्येक राजांशके समयमें जैनधर्मकी स्थितिका दिग्दर्शन कराया जाता है। १. गंगवंश इस वंशकी स्थापना ईसाकी दूसरी शतीमें जैनाचार्य सिंहनन्दिने की थी। इसका प्रथम राजा माधव था, जिसे कोंगणी वर्मा कहते हैं । मुष्कार अथवा मुखारके समयमें जैनधर्म राजधर्म बन गया था। तीसरे और चौथे राजाओंको छोड़कर उसके शेष पूर्वज निश्चय से जैनधर्मके सहायक थे। माधवका उत्तराधिकारी अवनीत जैन था । अवनीतका उत्तराधिकारी दुर्विनीत प्रसिद्ध वैयाकरण जैनाचार्य पूज्यपादका शिष्य था। ईसाकी चौथीसे बारहवीं शताब्दी तकके अनेक शिखालेखोंसे यह बात प्रमाणित है कि गंगवंशके शासकोंने जैनमन्दिरोंका १ 'स्टोज इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' पृ० १०७ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ५३ निर्माण किया, जैनप्रतिमाओंकी स्थापना की, जैन तपस्वियोंके निमित्त गुफाएँ तैयार कराई और जैनाचार्योंको दान दिया। ___इस वंशके एक राजाका नाम मारसिंह द्वितीय था । इसका शासनकाल चेर, चोल और पाण्ड्य वंशोंपर पूर्ण विजय प्राप्तिके लिये प्रसिद्ध है । यह जैन सिद्धान्तोंका सच्चा अनुयायी था। इसने अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्वक राज्य करके राजपद त्याग दिया और धारवार प्रान्तके वांकापुर नामक स्थानमें अपने गुरु अजितसेनके सन्मुख समाधिपूर्वक प्राणत्याग किया। एक शिलालेखके आधारपर इसकी मृत्यु तिथि ९७५ ई. निश्चित की गई है। ___ चामुण्डराय राजा मारसिंह द्वितीयका सुयोग्य मंत्री था। उसके मरनेपर वह उसके पुत्र राजा राचमल्लका मंत्री और सेनापति हुआ। इस मंत्रीके शौर्यके कारण ही मारसिंह अनेक विजय प्राप्त कर सका। श्रवणवेलगोला (मैसूर) के एक शिलालेखमें इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है, धरमधुरन्धर वीरमार्तण्ड, रणरंगसिंह, त्रिभुवनवीर, वैरीकुलकालदण्ड, सत्ययुधिष्ठिर, सुभटचूड़ामणि आदि उसकी अनेक उपाधियाँ थीं, जो उसकी शूरवीरता और धार्मिकताको बतलाती हैं । चामुण्डरायने ही श्रवणवेलगोला (मैसूर ) के विन्ध्यगिरिपर गोमटेशकी विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी, जो मूर्ति आज दुनियाकी अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओंमें गिनी जाती है । वृद्धावस्थामें चामुण्डरायने अपना अधिकांश समयधार्मिक कार्यों में बिताया। चमुण्डराय जैनधर्मके उपासक तो थे ही, मर्मज्ञ विद्वान भी थे। उनका कनड़ी भाषाका त्रिपष्ठि-लक्षण महापुराण प्रसिद्ध है। संस्कृतमें भी उनका बनाया हुआ चारित्रसार नामक ग्रन्थ है। चामुण्डरायकी गणना जैनधर्मके महान उन्नायकोंमें की जाती हैं । इनके समयमें जैन साहित्यकी भी श्रीवृद्धि हुई । सिद्धान्त ग्रन्थोंका सारभून श्रीगोमट्टसार नामक महान जैन ग्रन्थ इन्होंके निमित्तसे रचा गया था। और उन्हींके गोम्मटराय नामपर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म इसका नामकरण किया गया था। यह कनड़ीके प्रसिद्ध कवि रनके आश्रयदाता भी थे। गंगराज परिवारकी महिलाएं भी अपनी धर्मशीलताके लिये प्रसिद्ध हैं। एक प्रशस्तिमें गंग महादेवीको 'जिनेन्द्रके चरण कमलोंमें लुब्ध भ्रमरी' कहा है। यह महिलाभुजबल गंग हेम्माडि मान्धाता भूपकी पत्नी थी। राजा मारसिंहकी छोटी बहनका नाम मुग्गिपव्वरसि था। यह जैन मुनियोंकी बड़ी भक्त थी और उन्हें सदा आहार दान किया करती थी। जब चोल राजाने ई०म० १००४ में गंगनरेशकी राजधानी तलकादको जीत लिया, तबसे इस वंशका प्रताप मंद हो गया। बादको भी इस वंशके राजाओंने राज तो किया, किन्तु फिर वे उठ नहीं सके । इससे जैनधर्मको भी क्षति पहुंची। २. होयसल वंश इस वंशकी उन्नतिमें भी एक जैनमुनिका हाथ था। इस वंशका पूर्वज राजा सल था । एक बार यह राजा अपनी कुलदेवीके मन्दिरमें सुदत्तनामके जैन साधुसे विद्या ग्रहण करता था । अचानक वनमेंसे निकलकर एक बाघ सलपर टूट पड़ा। साधुने एक दण्ड सलको देकर कहा-'पोप सल' (मार सल)। सलने वाघको मार डाला । इस घटनाको स्मरण रखनेके लिये उसने अपना नाम 'पोपसल' रखा, पीछेसे यही 'होयसल' हो गया। . गंगवंशकी तरह इस वंशके राजा भी विट्टिदेव तक बराबर जैनधर्मी रहे और उन्होंने जैनधर्मके लिये बहुत कुछ किया । 'दीवान बहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने विष्णु वर्द्धन विट्टिदेवके समयमें मैसूर राज्यकी धार्मिक स्थिति बतलाते हुए लिखा है-'उस समय मैसूर प्रायः जैन था। गंग राजा जैनधर्मके १. Ancient India P. 738-739. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ५५ अनुयायी थे । किन्तु लगभग ई० १००० में जैनोंके विरुद्ध वातावरण ने जोर पकड़ा। उस समय चोलोंने मैसूरको जीतनेका प्रयत्न किया । फलस्वरूप गंगवाड़ी और नोलम्बवाड़ीका एक बड़ा प्रदेश चोलोंके अधिकारमें चला गया, और इस तरह मैसूर देशमें चोलोंके शैवधर्म और चालुक्योंके जैनधर्मका आमना सामना हो गया । जब विष्णुवर्धनने मैसूरकी राजनीति में भाग लिया उस समय मैसूरकी धार्मिक स्थिति अनिश्चित थी । यद्यपि जैनधर्म प्रवल स्थितिमें था फिर भी शेवधर्म और वैष्णव धर्म के भी अनुयायी थे । ई० १११६ के लगभग विट्टिदेवको रामानुजाचार्यने वैष्णव बना लिया और उसने अपना नाम विष्णुवर्धन रखा ।' विष्णुवर्धनकी पहली पत्नी शान्तलदेवी जैन थी । श्रवणवेलगोला तथा अन्य स्थानोंसे प्राप्त शिलालेखों में उसके धर्मकायोंकी बड़ी प्रशंसा की गई है। शांतल देवीका पिता कट्टर शैव और माता जैन थी । शान्तल देवीके मर जाने पर जब उसके माता पिता भी मर गये तो उनका जामाता अपने धर्मसे च्युत हो गया । किन्तु फिर भी जैनधर्मसे उसकी सहानुभूति बनी रही । उसने अपनी विजयके उपलक्ष में हलेवीडके जिनालय में स्थापित जैनमूर्तिका नाम 'विजय पार्श्वनाथ' रक्खा। उसके मंत्री गंगराज तो जैनधर्मके एक भारी स्तम्भ थे । उनकी धार्मिकता और दानवीरताका विवरण अनेक शिलालेखोंमें मिलता है। इनकी पत्नीका नाम भी जैनधर्मके प्रचारके सम्बन्धमें अति प्रसिद्ध है । उसने कई जिनमन्दिरोंका निर्माण कराया था जिनके लिये गंगराजने उदारतापूर्वक भूमिदान दिया था । विट्टिदेव के पश्चात् नरसिंह प्रथम राजा हुआ। इसके मंत्री हुल्लप्पने जैनधर्मकी बड़ी उन्नति की । उसने जैनोंके खोये हुए प्रभावको फिरसे स्थापित करनेका प्रयत्न किया । किन्तु होयसल राजाओंके द्वारा संरक्षित वैष्णव १. 'स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म धर्मकी दूत अभ्युन्नति, रामानुज तथा कुछ शैव नेताओंका व्यवस्थिन और क्रमबद्ध विरोध, और लिंगायतोके भयानक आक्रमणने मैसूर प्रदेशमें जैनधर्मका पतन कर दिया। किन्तु भूल कर भी यह कल्पना नहीं करनी चाहिए कि वहाँसे जनधर्मकी जड़ ही उखड़ गई। किन्तु वैष्णव तथा अन्य वैदिक सम्प्रदायोंके क्रमिक अभ्युत्थानके कारण उसका चैतन्य जाता रहा । यों तो जैनधर्मके अनुयायियोंकी तब भी अच्छी संख्या थी किन्तु फिर वे कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं प्राप्त कर सके। बादके मैसूर राजाओंने जैनोंको कोई कष्ट नहीं दिया। इतना ही नहीं, किन्तु उनकी सहायता भी की। मुस्लिम शासक हैदर नायक तक ने भी जैन मन्दिरोंको गाँव प्रदान किये थे यद्यपि उसने श्रवणवेलगोला तथा अन्य प्रदेशोंके महोत्सव बन्द कर दिये थे। ३. राष्ट्रकूट वंश राष्ट्रकूट राजा अपने समयके बड़े प्रतापी राजा थे। इनके आश्रयसे जैनधर्मका अच्छा अभ्युत्थान हुआ। इनकी राजधानी पहले नासिकके पास में थी। पीछे मान्यखेटको इन्होंने अपनी राजधानी बनाया । इस वंशके जैनधर्मी राजाओंमें अमोघवर्ष प्रथमका नाम उल्लेखनीय है। यह राजा दिगम्बर जैनधर्मका बड़ा प्रेमी था । अपनी अन्तिम अवस्थामें इसने राजपाट छोड़कर जिन दीक्षा ले ली थी। इनके गुरु प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन थे। जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने अपने उत्तरपुराणमें लिखा है कि अमोघवर्ष अपने गुरु जिनसेनके चरणकमलों की वन्दना करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था। इसने जैन मन्दिरोंको दान दिया, तथा इसके समयमें जैन साहित्यकी भी खूब उन्नति हुई । दिगम्बर जैन सिद्धान्त अन्थोंकी धवला और जयधवला नामको टीकाओंका नामकरण इसीके धवल और अतिशय धवल नामके ऊपर हुआ समझा जाता है। शाकटायन वैया Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ५७ करणने अपने शाकटायन नामक जैन व्याकरणपर इसीके नाम से अमोघवृत्ति नामकी टीका बनाई। इसीके समय में जैनाचार्य महावीर ने अपने गणितसारसंग्रह नामक ग्रन्थको रचना की, जिसके प्रारम्भमें अमोघवर्षकी महिमाका वर्णन विस्तारसे किया गया है । अमोघवर्पने स्वयं भी 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' नामकी एक पुस्तिका रची। स्वामी जिनसेनने भी अनेक ग्रन्थ रचे । अमोघवर्षने जिनसेनके शिष्य गुणभद्रको भी आश्रय दिया । गुणभद्रने अपने गुरु जिनसेनके अधूरे ग्रन्थ आदिपुराणको पूर्ण किया और अन्य भी अनेक ग्रन्थ रचे । अमोघवर्षका पुत्र अकालवर्ष भी जैनधर्मका प्रेमी था। इसके समयमें गुणभद्रने अपना उत्तरपुराण पूर्ण किया। इसने भी जैनमन्दिरोंको दान दिया और जैन विद्वानोंका सम्मान किया । जब पश्चिमके चालुक्योंने राष्ट्रकूटों की सत्ताका अन्त कर दिया तो इस वंशके अन्तिम राजा 'इन्द्रने अपने राज्यको पुनः प्राप्त करनेका यत्न किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली । अन्तमें उसने जिन दीक्षा धारण करके श्रवणबेलगोला में समाधिपूर्वक प्राणोंका त्याग किया । लोकादित्य इनका सामंत और वनवास देशका राजा था । गुणभद्राचार्यने इसे भी जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाला और महान् यशस्वी बतलाया है । ४. कदम्ब वंश यद्यपि यह वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी था, किन्तु इसके कुछ नरेशोंकी धार्मिक नीति बड़ी उदार थी और कुछ तो जैनधर्मके प्रतिपालक भी थे । इस वंशके पाँचवे राजा काकुत्स्थवर्माने अपने एक जैन सेनापति श्रुतकीर्तिको अर्हन्तोंके लिये भूमिदान किया था। काकुत्स्थवर्माके पौत्र मृगेशवर्माने अपने राज्यके तीसरे वर्षमें अर्हन्तदेवके पूजनादिके लिये भूमिदान किया था । तथा अपने राज्यके चतुर्थ वर्ष में एक गांवको तीन भागों में Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनधर्म विभाजित करके एक भाग जिनेन्द्रके लिये, दूसरा भाग श्वेताम्बर श्रमणसंघको तीसरा भाग दिगम्बर श्रमण संघके लिये प्रदान किया था । आठवें वर्ष में उसने पलासिका नामक स्थानमें एक जिनालय बनवाकर कुछ भूमि यापनीयोंके तथा नियंर्थ सम्प्रदायके कूर्चकोंके लिये प्रदान की थी । मृगेशवर्मा के तीन बेटोंमें से रविवर्मा उसका उत्तराधिकारी हुआ । सेनापति श्रुतकीर्तिके पौत्र जयकीर्तिने कदम्ब राजाओंके द्वारा परम्परासे प्राप्त पुरुखेटक गांव रविवर्माकी आज्ञासे यापनीय संघके कुमारदत्त प्रमुख आचार्योंको दानमें दे दिया । रविवर्माका राज्यकाल साधारणतः सन् ४७८ से ५१३ ई० के लगभग माना जाता है । रविवर्माका उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा हुआ। उसने अपने राज्यके चतुर्थ वर्षमें अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे पलाशिका में सिंहसेनापतिके पुत्र मृगेशवर्माके द्वारा निर्मार्पित जैन मन्दिरको अष्टाह्निका पूजाके लिये तथा सर्वसंघके भोजनके हेतु कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघके हाथमें वसुन्तवाटक प्राम दानमें दिया । तथा अपने राज्यके पांचवे वर्ष में राजा भानुवर्मा की प्रार्थनापर अहिरिष्ट नामक दूसरे श्रमण संघके लिये मरदे नामक गांव दानमें दिया । हरिवर्माका राज्यकाल सन् ५१३ से ५३४ ई० में माना जाता है । ५८ ५. चालुक्य वंश इस वंशकी एक शाखा, जिसे पश्चिमी चालुक्य कहा जाता है, वातापी (बादामी ) नामक स्थानमें ६ वीं ईस्वीसे ८ वीं ईस्वी तक राज्य करती रही। पीछे दो शताब्दी बाद १०वीं से १२ वीं तक कल्याणी नामक स्थान से शासन करती रही । पूर्वी चालुक्य नामसे प्रसिद्ध दूसरी शाखा आन्ध्रप्रदेशके वेंगी नामक स्थानसे ७ वीं शताब्दीसे ११-१२ वीं शताब्दी तक राज्य करती रही । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास पश्चिमी चालुक्य इस वंशका सबसे प्राचीन दानपत्र शक सं० ४११ (४८९ ई० ) का आड़ते से मिला है । यह सत्याश्रय पुलकेशीका है । उसके अनुसार राजा पुलकेशीने चोल, चेर, केरल, सिंहल और कलिंगके राजाओंको अपना करढ़ बना लिया था । तथा पाण्ड्य आदि राजाओंको दण्डित किया था । लेखका मुख्य उद्देश्य यह है कि राजा पुलकेशीके शासनकालमें सेन्द्रकवंशी सामन्त सामियारने अलक्तक नगरमें एक जैन मन्दिर बनवाया था, और राजाज्ञा लेकर चन्द्र ग्रहण के समय कुछ जमीन और गांव दान में दिये थे । ५९ पुलकेशी प्रथमका उत्तराधिकारी उसका पुत्र कीर्तिवर्मा था । उसने कुछ सरदारोंके निवेदन पर जिन मन्दिरकी पूजाके लिये कुछ भूमिदान दी थी । कीर्तिवर्मा प्रथमका पुत्र पुलकेशी द्वितीय हुआ । उसके कालका एक प्रसिद्ध लेख एहोलेसे प्राप्त हुआ है उसे जैन कवि रविकीर्तिने रचा है । भारतवर्षका तत्कालीन राजनीतिक इतिहास जाननेके लिये यह लेख बड़े महत्त्व - का है । लेखके अनुसार पुलकेशी उत्तरभारतके सम्राट हर्षवर्द्धनका समकालीन था । उसने दक्षिणकी ओर बढ़ते हुए हर्षवर्द्धनका हर्ष विगलित कर दिया था। रविकीर्ति पुलकेशीका आश्रित था और उसने शक सं० ५५६ में एक जैनमन्दिर बनवाया था । इसी वंशके विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगेरे नगर में धवल जिनालयकी मरम्मत तथा सजावट कराई थी । तथा मूलसंघ देवगणके विजयदेव पण्डिताचार्य के लिये जिनपूजा प्रबन्धके हेतु भूमिदान दिया था । विक्रमादित्य द्वितीयके बाद चालुक्यवंशके बुरे दिन आये । गंग और राष्ट्रकूट राजाओंने उसका साम्राज्य नष्ट भ्रष्ट कर डाला । लगभग २०० वर्षों तक यह फिर पनप न सका । इस कालमें उसका स्थान राष्ट्रकूट वंशको मिला । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म सन् ९७४ के लगभग तैलप द्वितीयने इस वंशका पुनरुद्धार करके कल्याणीको अपनी राजधानी बनाया । यह तैलप द्वितीय महान कन्नड़ जैन कवि रन्नका : आश्रयदाता था । यह धारानरेश मुंज और भोजका समकालीन था । इसके हाथसे ही मुंजकी मृत्यु हुई थी। इसके पुत्र और उत्तराधिकारी सत्याश्रय इरिववेडेंगके जैन गुरु द्रविड़संघ कुन्दकुन्दान्वयके विमलचन्द्र पण्डितदेव थे । इसने ९९७ ई० से १००९ ई० तक राज्य किया । तैलप द्वितीयका पौत्र तथा सत्याश्रयका भतीजा जयसिंह तृतीय था । यह नरेश अनेक जैन विद्वानोंका आश्रयदाता था । इसके समय के प्रमुख जैन विद्वान थे वादिराज, दयापाल एवं पुष्पषेण सिद्धान्तदेव । वादिराजकी एक उपाधि जगदेकमल्लवादी थी । यह उपाधि जयसिंह तृतीयने अपने दरबार में उन्हें ही थी । ६० इस राजाका पुत्र एवं उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम था । इसकी उपाधियां आहवमल्ल और त्रैलोक्यमल्ल थीं। इसने १०४२ ई० से १०६८ ई० तक राज्य किया । इसकी रानी केतलदेवीके अधीन चांकिराजने त्रिभुवनतिलक जिनालय में तीन वेदियां बनवाई। इस राजाने अजितसेन भट्टारकको शब्दचतुर्मुखकी उपाधि दी थी । अजितसेन भट्टारककी अन्य उपाधियां वादीभसिंह और तर्किक चक्रवर्ती थीं । इस राजाके ज्येष्ठपुत्र सोमेश्वर द्वितीयने भो जैनधर्मका संरक्षण किया था । इसने सन् २०७४ में शान्तिनाथ मन्दिरके लिये मूलसंघान्वय तथा काणूरगणके कुलचन्द्रदेवको भूमिदान किया था । सोमेश्वर द्वितीयके भाई विक्रमादित्य पष्ठने सन् १०७६ से ११२६ तक राज्य किया । यह बड़ा प्रतापी राजा था । इसीको लेकर कवि विल्डने विक्रमाङ्कदेव चरित काव्य लिखा है, इसकी एक उपाधि गंगपेमनडि थी क्योंकि उसकी मां गंगवंशकी राजकुमारी थी। उसने चालुक्य गंगपेर्मानडि चैत्यालय बनवाया Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास था ।। और उसके प्रबन्धके लिए एक गाँव मूलसंघ, सेनगण और पोगरिगच्छके रामसेन मुनिको दानमें दिया था। इस राजाने वेल्गोला प्रदेशमें कई जिनालय बनवाये थे जिन्हें राजाधिराज चोलने जला दिया । __पूर्वीय चालुक्य वंशको शाखाको परम्परा पुलकेशी द्वितीयके भाई कुब्ज विष्णुवर्द्धनसे चलती है। इसने सन ६१५ से ६२३ ई० तक राज्य किया था। इस शके कुछ राजाओंने जैनधर्मका अच्छी तरह संरक्षण किया था। अम्माराज विजयादित्यने कटकाभरण जिनालयकी पूजादिके हेतु यापनीयसंघ नन्दिगच्छके एक मुनिको ग्राम दानमें दिया था। तथा मर्नलोकाश्रय जिन भवनकी मरम्मत आदिके लिए वलहारिगण, अडुकलि गच्छके अर्हनन्दि मुनिको कलचुम्बरू नामक गाँवदानमें दिया था। ६. कालाचुरि राज्यमें जैनोंका विनाश चालुक्योंका राज्य बहुत थोड़े समय तक ही रहा; क्योंकि उन्हें कालाचूरियोंने निकाल बाहर किया । यद्यपि कालाचूरियोंका राज्य भी बहुत थोड़े समय तक ही रह सका किन्तु जैनधर्मके विनाशकी दृष्टिसे वह स्मरणीय है। ___महान कालाचूरिनरेश विज्जल जैन था। किन्तु उसका समय लिंगायत सम्प्रदायके उद्गम और शिवभक्तिके पुनरुज्जीवन की दृष्टिसे उल्लेखनीय है। विज्जलके अत्याचारी मन्त्री वसवके नेतृत्वमें इस सम्प्रदायने जैनोंको वहुत कष्ट दिया। _ विजलराज चरितके अनुसार वसवने अपने स्वामी जैन राजा विजलकी हत्याके लिए क्या-क्या नहीं किया। फलतः उसे देशसे निकाल दिया गया। और निराश होकर वह स्वयं एक कुएं में गिर गया। किन्तु उसके अनुयायिओंने उसके इस प्राणत्यागको “धर्मपर वलिदान' का रूप दिया और लिंगायत सम्प्रदायके विषयमें ललित और सरल भाषामें साहित्य तैयार करके देशमें सर्वत्र वितरित किया। तथा जिन लिंगायत नेताओं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनधर्म ने कालाचूरि साम्राज्यके अन्दर जैनोंके विनाशमें बहुत बड़ी सहायता की उनके नामोंके चारों ओर अनेक कपोलकल्पित कथाएँ जुट गईं । ऐसी एक कथा जो उस समयके शिलालेख में अंकित है यहाँ दी जाती है शिव और पार्वती एक शैव सन्तके साथ कैलास पर्वतपर विचर रहे थे। इतने में नारद आये, उन्होंने जैनों और बौद्धोंकी बढ़ती हुई शक्तिकी सूचना दी। शिवने वीरभद्रको आज्ञा दी कि तुम संसार में जाकर मानव योनिमें जन्म लो और इन धर्मोंको नष्ट करो | आज्ञानुसार वीरभद्रने पुरुषोत्तम पट्ट नामके व्यक्तिको स्वप्न दिया कि मैं तुम्हारे घरमें पुत्ररूपमें जन्म लूँगा । स्वप्न सत्य हुआ । बालकका नाम राम रखा गया और शैवके रूपमें उसका लालन पालन हुआ । शिवका भक्त होनेसे उसे एकान्तद रामैया कहते थे। किंवदन्तीके अनुसार यह रामैय्या ही उस देशमें जैनधर्मके विनाशके लिए उत्तरदायी है । कथामें लिखा है कि एक दिन रामैया शिवकी पूजा करता था । उस समय जैनोंने उसे चैलेंज दिया कि वह अपने देवताका देवत्व सिद्ध करे । रामैयाने चैलेंज स्वीकार कर लिया । यह तय हुआ कि रामैया अपना सिर काटकर फिर जोड़ दे । यदि वह ऐसा कर सका तो जैनोंने अपने मन्दिर खाली करके उस देशको छोड़ देनेका वचन दिया । रामैयाने सिर काटकर फिर जोड़ लिया और जैनोंसे अपना वादा पूरा करनेके लिए कहा | जैनोंने अस्वीकार कर दिया। यह सुनते ही रामैयाने जैनोंके मन्दिरोंको नष्ट-भ्रट करना प्रारम्भ किया। जैनोंने विज्जलसे जाकर शिकायत की। विज्जल शैवोंपर बहुत क्रुद्ध हुआ । किन्तु रामैयाने विज्जलको अपना चमत्कार दिखाकर शैव बना लिया । विज्जलने जैनोंको आदेश दिया कि वे शैवोंके साथ शान्तिपूर्वक बर्ताव करें। १. स्टडीज़ इन सा० इ० जैनिज्म, पृ० ११३ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास कल्चुरी राज्यमें जेनोंके विनाशकी साक्षी देनेवाली इस तरह की कथाएँ और घटनाएँ शैव ग्रन्थों में अनेक मिलती हैं। ७. विजयनगर राज्य इस तरह दक्षिण भारतमें यद्यपि जैनधर्म राजाश्रय विहीन हो गया। फिर भी गुणग्राही राजा लोग जैन गुरुओं, विद्वानों और नेताओंका यथोचित आदर करते थे। ऐसे राजाओंमें विजयनगर साम्राज्यके शासकोंका नाम उल्लेखनीय है। यह राज्य वैदिकधर्मका पोषक था किन्तु इसके राजा विभिन्न मतवालोंके प्रति उदारताका व्यवहार करते थे। तथा इस राज्यके उच्च पदस्थ कर्मचारियोंमें अधिकांश जैनधर्मावलम्बी थे । इसलिये राजाओंको भी जैनधर्मका विशेप ख्याल रखना पड़ता था। हरिहर द्वितीयके सेनापति इरुगप्प कट्टर जैनधर्मानुयायी थे। उन्होंने ५९ वर्ष तक विजयनगर राज्यके ऊँचे पदोंको योग्यतापूर्वक निवाहा और जैनधर्मकी उन्नतिके लिये बराबर प्रयत्न करते रहे । इरुगप्पके अन्य सहयोगियोंने भी जैनधर्मकी पूरी सहायता की और उसके प्रचार में काफी योगदान दिया। विजयनगरकी रानियाँ भी जैनधर्म पालती थीं। श्रवणवेलगोलके एक शिलालेखसे देवराय महाराजकी रानी भीमादेवीका जैन हाना प्रकट ह १३६८ के एक शिलालेखसे पता चलता है कि जैनोंने वुक्काराय प्रथमसे प्रार्थना की कि वैष्णव लोग जैनोंके साथ अन्याय करते हैं । राजाने काफी जाँच पड़तालके बाद जैनों और वैष्णवोंमें मेल करा दिया तथा यह आज्ञा प्रकाशित की "यह जैन दर्शन पहलकी ही भाँति पञ्च महाशद और कलशका अधिकारी है। यदि कोई वैष्णव किसी भी प्रकार जैनियोंको क्षति पहुँचावे तो वैष्णवोंको उसे वैष्णवधर्मकी अति समझना चाहिये । वैष्णव लोग जगह-जगह इस बातकी ताकीदके लिये शासन कायम करें। जब तक सूर्य और चन्द्रका Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म अस्तित्व है तब तक वैष्णव लोग जैन दर्शनकी रक्षा करेंगे। वैष्णव और जैन एक ही हैं उन्हें अलग अलग नहीं समझना चाहिये । वैष्णवों और जैनोंसे जो कर लिया जाता है उससे श्रवणबेलगोलाके लिये रक्षकोंकी नियुक्ति की जाय और यह नियुक्ति वैष्णवोंके द्वारा हो। तथा उससे जो द्रव्य वचे उससे जिनालयोंकी मरम्मत कराई जाये और उनपर चूनापोता जाये। इस प्रकार वे प्रतिवर्प धनदान देनेसे न चूकेंगे और यश तथा सम्मान प्राप्त करेंगे। जो इस आज्ञाका उल्लंघन करेगा वह राजद्रोही और संप्रदायद्रोही होगा।" एक दूसरे शिलालेखसे जैनों और वीर शवोंके विवादका पता चलता है । यह लेख १६३८ ई० का है, यह जैनधर्मकी प्रशंसासे शुरू होता है ओर शिवकी प्रशंसासे इसका अन्त होता है। - मामला यह था कि किसी वीर शैवने विजयपाव वसदिके खम्भेपर शिवलिंगकी स्थापना कर दी और विजयप्पा नामके एक धनी जैन व्यापारीने उसे नष्ट कर दिया। इससे बड़ा क्षोभ फैला और जैनोंने वीर शैव मतके नेताओंके पास इस मामलेके निपटारेके लिये प्रार्थना की। यह निश्चय किया गया कि जैन लोग पहले विभूति और वेलपत्र शिवलिंगको चढ़ाकर अपना आराधनपूजन करें। इसके उपलक्ष्यमें वीर शैवेनेि जैनियोंके प्रति अपना सौहार्द प्रदर्शित करनेके लिये उक्त निर्णयमें इतना जोड़ दिया'जो कोई भी जैधर्मका विरोध करेगा वह शिवद्रोही समझा जायेगा । वह विभूति रुद्राक्ष तथा काशी और रामेश्वरके शिव लिंगोंका द्रोही समझा जायेगा। शिलालेखके अन्तमें जिन शासनकी जय हो' इस आशयका वाक्य लिखा हुआ है। __इस तरह चौदहवीं शतीमें आकर साम्प्रदायिक द्वेष कुछ कम हुआ और जैनधर्मका दक्षिण भारतसे यद्यपि समूल नाश तो नहीं हो सका, फिर भी वह क्षीणप्रभ हो गया। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ २. सिद्धान्त जैनधर्म क्या है ? जैनधर्म के सिद्धान्त जाननेसे पहले यह जान लेना आवश्यक कि जैनधर्म है क्या ? जैनधर्म शब्द दो शब्दोंके मेलसे बना हैं - एक शब्द है 'जैन' और दूसरा शब्द है 'धर्म' । जैसे विष्णुको देवता माननेवाले वैष्णव और शिवको देवता माननेवाले शैव कहलाते हैं, और उनके धर्मको वैष्णवधर्म या शैवधर्म कहते हैं वैसे ही 'जिन' को देवता माननेवाले जैन कहलाते हैं और उनके धर्मको जैनधर्म कहते हैं । साधारणतया 'जैनधर्म' का यही अर्थ समझा जाता है । किन्तु इसका एक दूसरा अर्थ भी हैं, जो इस अर्थसे कहीं महत्त्वपूर्ण है । वह अर्थ है - 'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म । अर्थात् 'जिन' ने जिस धर्मका कथन किया है, उपदेश किया है वह धर्म है जैनधर्म | शैवधर्म या वैष्णवधमं में यह अर्थ नहीं घटना ; क्योंकि शिव या विष्णुने स्वयं किसी धर्मका उपदेश नहीं किया। वे तो देवता माने गये हैं । और वाद में जब बहुदेवतावादकं स्थान में एकेश्वर भावनाका उदय हुआ तो दोनों ईश्वर के रूप कहलाये । पीछेसे श्रीकृष्णको विष्णुका पूर्णावतार मान लिया गया। उनके भक्तोंका धर्म तो मूलमें वेदविहित क्रियानुष्ठान ही है । किन्तु 'जिन' ईश्वरीय अवतार नहीं होते, वे तो स्वयं अपने पौरुपके बलपर अपने कामक्रोधादि विकारोंको जीतकर 'जिन' बनते हैं । 'जिन' शब्दका अर्थ होता है— जीतनेवाला। जिसने अपने आत्मिक विकारोंपर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली वही 'जिन' है। जो 'जिन' बनते हैं वे हम प्राणियोंमेंसे ही बनते हैं । प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। जीवात्मा और Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म परमात्मामें इतना ही अन्तर है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम-क्रोधादि विकारों और उनके कारण कर्मोंसे घिरा होता हैं, जिनकी वजहसे उसके स्वाभाविक गुण - अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट नहीं हो पाते। जब वह उन कर्मोंका नाश कर देता है तो वही परमात्मा बन जाता है, वही जिन कहलाता है । 'जिन' हो जानेपर प्रत्येक जीव सर्वज्ञ और वीतराग हो जाता है, उसे मबका ज्ञान रहता है और उसके अन्दरसे राग और द्वेषका मूलोच्छेद हो जाता हैं । उस अवस्थामें वह जो उपदेश देना है वह उपदेश प्रामाणिक होता है; क्योंकि अप्रामाणिकताके दो ही कारण हैं, एक अज्ञान और दूसरा रागद्वेष | मनुष्य या तो अज्ञानसे, ज्ञान न होनेसे नासमझीके कारण गलत बात बोलता है या ज्ञानवान होकर भी किसीसे राग और किसी से द्वेप होनेसे गलत बात वोलता है । उदाहरण के लिए जैन पुराणोंमें और महाभारत में एक कथा है । जैन पुराणोंके अनुसार नारद, पर्वत और वसु ये तीनों गुरु भाई थे। इनमें से पर्वत गुरुपुत्र था और शेष दोनों उसके पिताके शिष्य थे। एक बार 'अजैर्यष्टव्यम्' के अर्थके सम्बन्ध में नारद और पर्वत में विवाद हुआ। महाभारतके अनुसार देवताओं और ऋषियोंमें विवाद हुआ। पर्वत या देवताओंका कहना था कि इसका अर्थ है 'बकरेसे हवन करना चाहिए' और नारद या ऋषियों कहना था कि इसका अर्थ हैं 'पुराने धान्य से हवन करना चाहिए ।' दोनों पक्ष राजा वसुके पास गये | वसु सत्यवादी था इसलिए उसका सिंहासन पृथ्वीसे ऊपर उठा रहता था । किन्तु वसुने गुरुपुत्र पर्वत या देवताओंके प्रेमवश जानते हुए भी यही फैसला दिया कि जो पर्वत या देवता कहते हैं वही ठीक है । इस असत्यवादिता के कारण वसुका सिंहासन पृथ्वीमें धँस गया । यहाँ पर्वत तो अज्ञानसे 'अजैर्यष्टव्यम्' का अर्थ गलत बतलाता था किन्तु वसुने जानते हुए भी गुरुपुत्रके प्रेमवश झूठ बोला । अतः असत्य बोलनेके दो ही कारण हैं ६६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ६७ I अज्ञान या रागद्वेष । इन दोनोंके नष्ट हो जानेसे 'जिन' सत्यवादी होते हैं । और उनकी सत्यवादिताका प्रबल प्रमाण है, उनके द्वारा कहा गया स्याद्वाद सिद्धान्त, जो वस्तुका पूर्ण या अपूर्ण किन्तु सत्यदर्शन करनेवाले सभी व्यक्तियोंके साथ न्याय करनेका मार्ग बतलाता है । प्रत्येक धर्मके दो अंग होते हैं विचार और आचार | जैनधर्मके विचारोंका मूल है स्याद्वाद और आचारका मूल है अहिंसा, न किसीके विचारोंके साथ अन्याय हो और न किसी प्राणी जीवनके साथ खिलवाड़ हो । सब सबके विचारोंको समझें और सबके जीवनोंकी रक्षा करें। यही उन जिनोंके उपदेशका मूल है। इससे उन्हें हितोपदेशी कहा जाता है । वे किसी व्यक्तिविशेष, वर्गविशेष या सम्प्रदायविशेषके हितकी दृष्टिसे उपदेश नहीं देते। वे तो प्राणिमात्रके हितकी दृष्टिसे उपदेश देते हैं। वे केवल मनुष्योंके ही हितकी बात नहीं बतलाते, किन्तु जंगम और स्थावर सभी प्राणियोंके हितकी बात बतलाते हैं । उनका मूलमंत्र ही यह है - ' मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ' -- किसी भी प्राणीकी हिंसा मत करो।' न वे पशुओंको बाध्य बतलाते हैं और न किसी वर्गविशेषको अवध्य । उनकी वीतराग दृष्टिमें सब बराबर हैं । न वे ब्राह्मणकी पूजा करनेका उपदेश देते हैं और न चाण्डालसे घृणा करनेका । ऐसे वे वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी 'जिन' होते हैं। और उनके द्वारा जो उपदेश दिया जाता है वही जैनधर्म कहलाता है । अन्य धर्मोने भी सर्वज्ञाताको हो अपने अपने धर्मका प्रवर्तक माना हैं, क्योंकि जो अल्पज्ञ है, अज्ञानी है उससे सार्गत्रिक और सार्वदेशिक सत्य उपदेश मिलनेकी आशा नहीं की जा सकती । किन्तु उन्होंने ईश्वर खुदा या गॉडको सर्वज्ञ मानकर उसीको अपने २ धर्मका प्रवर्तक माना है । उनमें भी जो ईश्वरको नहीं मानते, उन्होंने वेदको अपने धर्मका मूल माना है, किन्तु वे वेदको किसी पुरुषके द्वारा रचा गया नहीं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म ६८ मानते । इस तरह प्रायः सभी धर्मोंने पुरुषको अल्पज्ञ मानकर उसे अपने धर्मका प्रवर्तक स्वीकार नहीं किया। किन्तु पुरुषके मध्यमें हुए बिना न तो ईश्वरीय ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है, और न उसके अर्थका व्याख्यान हो सकता है; क्योंकि ईश्वर स्वयं शरीर रहित होनसं हमे अपना ज्ञान किसी न किसी पुरुषके द्वारा ही दे सकता है, तथा उसका व्याख्यान भी पुरुष ही कर सकता है। किन्तु यदि वह पुरुष अल्पज्ञ हुआ या रागद्वपी हुआ तो उसके व्याख्यानमें भ्रम भी हो सकता है। अतः उसे भी कमसे कम विशिष्ट ज्ञानी तो मानना ही पड़ता है। यह सब इसलिये किया गया है कि वे धर्म पुरुपकी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टिसे पुरुषकी आत्माका इतना विकास नहीं हो सकता। किन्तु जैनधर्म इस तरहके किसी ईश्वरकी सत्तामें विश्वास नहीं करता। वह जीवात्माका सर्वज्ञ हो सकना स्वीकार करता है। अतः जैनधर्म किसी ईश्वर या किसी स्वयंसिद्ध पुस्तकके द्वारा नहीं कहा गया है। बल्कि मानवके द्वारा, उस मानवके द्वारा जो कभी हम ही जैसा अल्पज्ञ और रागद्वेषी था किन्तु जिसने अपने पौरुषसे प्रयत्न करके अपनी अल्पज्ञता और रागद्वेषके कारणोंसे अपने आत्माको मुक्त कर लिया और इस तरह वह सर्गज्ञ और वीतरागी होकर जिन बन गया, कहा गया है। अतः 'जिन' हुए उस मानवके अनुभवोंका सार ही जैनधर्म है। ____अब हम 'धर्म' शब्दके वारेमें विचार करेंगे। धर्मशब्दके दो अर्थ पाये जाते हैं-एक, वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं जैसे अग्निका जलाना धर्म है, पानीका शीतलता धर्म है, वायुका बहना धर्म है, आत्माका चैतन्य धर्म है । और दूसरा, आचार या चारित्रको धर्म कहते हैं। इस दूसरे अर्थको कोई इस प्रकार भी कहते है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयसमुक्तिकी प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। चूंकि आचार या चारित्रसे इनकी प्राप्ति होती है इसलिये चारित्र ही धर्म है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ६६ इस प्रकार धर्म शब्दसे दो अथका बोध होता है एक वस्तुस्वभावका और दूसरे चारित्र या आचारका । इनमें से स्वभावरूप धर्म तो क्या जड़ और क्या चेतन, सभी पदार्थोंमें पाया जाता है; क्योंकि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसका कोई स्वभाव न हो । किन्तु आचाररूप धर्म केवल चेतन आत्मामें ही पाया जाता है । इसीलिए धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है । प्रत्येक तत्त्वदर्शी धर्मप्रवर्तकने केवल आचाररूप धर्मका ही उपदेश नहीं किया किन्तु वस्तु स्वभावरूप धर्मका भी उपदेश दिया है जिसे दर्शन कहा जाता है । इसीसे प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन भी रखता है । दर्शनमें, आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर क्या है ? आदि समस्याओंको सुलझानेका प्रयत्न किया जाता है। और धर्मके द्वारा आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाया जाता है । यद्यपि दर्शन और धर्म या वस्तु स्वभावरूप धर्म और आचाररूप धर्म दोनों जुदे - जुदे विषय हैं परन्तु इन दोनोंका परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध है । उदाहरण के लिये, जब आचाररूप धर्म आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है तब यह जानना आवश्यक हो जाता हैं कि आत्मा और परमात्माका स्वभाव क्या है ? दोनोंमें अन्तर क्या है और क्यों है ? यह जाने बिना आचारका पालना वैसे ही लाभकारी नहीं हो सकता जैसे सोनके गुण और स्वभावसे अनजान आदमी यदि सोनेको शोधनेका प्रयत्न भी करे तो उसका प्रयत्न लाभकारी नहीं हो सकता । तथा यह बात सर्वविदित है कि विचार के अनुसार ही मनुष्यका आचार होता है । उदाहरण के लिये, जो यह मानता है कि आत्मा नहीं है और न परलोक हैं उसका आचार सदा भोगप्रधान ही रहना है, और जो यह मानता है कि आत्मा हैं, परलोक है, प्राणी अपने २ शुभाशुभ कर्म के अनुसार फल भोगता है तो उसका आचार उससे बिलकुल विपरीत ही होता है । अतः विचारोंका मनुष्यके आचारपर, बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसीसे दर्शनका Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म प्रभाव धर्मपर बड़ा गहरा होता है, और एकको समझे विना दूसरेको नहीं समझा जा सकता। अतः जैनधर्मका भी एक दर्शन है जो जैनदर्शन कहा जाता है। किन्तु चूँकि वह वस्तु स्वभावरूप धर्म में ही अन्नभूत हो जाता है अतः उसे भी हम धर्मका ही एक अंग समझते हैं। और इसलिये जैनधर्मसे 'जिन' देवके द्वारा कहा, हुआ विचार और आचार दोनों ही लेना चाहिये। __प्रकारान्तरसे भी धर्म के दो भेद किये जाते हैं एक साध्यरूप धर्म और दूसरा साधनरूप धर्म। परमात्मत्व साध्यरूप धर्म है और आचार या चारित्र साधनरूप धर्म है, क्योंकि आचार या चारित्रके द्वारा ही आत्मा परमात्मा बनता है। अतः यहाँ दोनों ही प्रकारके धर्मोंका निरूपण किया गया है। २. जैनदर्शनका प्राण अनेकान्तवाद ऊपर लिख आये हैं कि जनविचारका मूल स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है । अतः प्रथम उसे समझ लेना आवश्यक है। जैन दृष्टिसे इस विश्वके मूलभूत तत्त्व दो भागोंमें विभाजित हैं एक जीवतत्त्व और दूसरा अजीव या जड़तत्व । अजीव या जड़तत्त्व भी पाँच भागों में विभाजित है-पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । इस तरह यह संसार इन छै तत्त्वोंसे बना हुआ है। इन छहोंको छै द्रव्य कहते हैं। इन छै द्रव्योंके सिवा संसारमें अन्य कुछ भी नहीं है, जो कुछ है, उस सवका समावेश इन्हीं छै द्रव्योंमें हो जाता है। गुण, क्रिया. सम्बन्ध आदि जो अन्य तत्त्व दुसरं दार्शनिकोंन माने हैं, जैन दृष्टि से वे सब द्रव्यकी ही अवस्थाएँ हैं, उससे पृथक् नहों; क्योंकि जो कुछ सत् है वह सब द्रव्य है। सत् ही द्रव्यका लक्षण है । असत् या अभाव नामका कोई स्वतंत्र तत्त्व जैनदर्शनमें नहीं है। किन्तु जो सत् है दृष्टिभेदसे वही असत भी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ७१ है। न कोई वस्तु केवल सत्स्वरूप ही है और न कोई वस्तु केवल असत्स्यरूप ही है। यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो सव वस्तुओंके सर्वथा मत्म्वरूप होनेसे उन वस्तुओंके बीच में जो अन्दर देखने में आता है, उसका लोप हो जायेगा और उसके लोप हो जानेसे सब वस्तुएँ सब रूप हो जायेगों। उदाहरणके लिये-घट (घड़ा) और पट ( कपड़ा) ये दोनों वस्तु हैं, घट भी वस्तु है और पट भी वस्तु है। किन्तु जब हम किसीसे घट लाने को कहते हैं तो वह घट ही लाना है, पट नहीं लाता। और जब पट लानेको कहते हैं तो वह पट ही लाता है, घट नहीं लाना । इमसे प्रमाणित है कि घट-घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही है, घट नहीं है। नघट पट है और न पट घट है, किन्तु हैं दोनों। परन्तु दोनोंका अस्तित्व अपनी-अपनी मर्यादामें ही सीमित है, उसके बाहर नहीं है। अतः प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादामें है और उससे बाहर नहीं है। यदि वस्तुएँ इस मर्यादाका उल्लंघन कर जायें तो फिर घट और पटकी तो बात ही क्या, सभी वस्तुएँ सत्र रूप हो जायगी और इस तरहसे संकर दोप उपस्थित होगा। अनः प्रत्येक वस्तु स्वरूप की अपेक्षासे मन कही जाती है और पररूपकी अपेक्षाने असन कही जाती है । इमी दृष्टान्तको गुरु शिप्यके मंवादके रूपमें यहाँ दिया जाता है, उससे पाठक और भी अधिक म्पष्ट रूपसे उसे समझ सकेंगे। गु०-एक मनुष्य अपने सेवकको आज्ञा देता है कि 'घट टाओ' तो सेवक तुरन्त घट ले आता है और जब वस्त्र लानेकी आज्ञा देना है तो वह वस्त्र उठा लाता है। यह तुम व्यवहारमें प्रतिदिन देखते हो । किन्तु क्या कभी तुमने इस वानपर विचार किया कि मुननेवाला 'घट' शब्द सुनकर घट ही क्यों लाता है और वस्त्र शब्द सुनकर वस्त्र ही क्यों लाता है ? शि०-घटको घट कहते हैं और वस्त्रको वस्त्र कहते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनधर्म इसलिये जिस वस्तुका नाम लिया जाता है, सेवक उसे ही ले आता है। गु० - घटको ही घट क्यों कहते हैं ? वस्त्रको घट क्यों नहीं कहते ? शि० - घटका काम घट ही दे सकता है. वस्त्र न Aw सकता । गु० - घटका काम घट ही क्यों देता है, वस्त्र क्यों नहीं देता ? शि० - यह तो वस्तुका स्वभाव है, इसमें प्रश्नके लिये स्थान नहीं है। गु० - क्या तुम्हारे कहने का यह अभिप्राय है कि जो स्वभाव का है वह वस्त्रका नहीं, और जो वस्त्रका हैं वह घटका नहीं ? शि० - जी हाँ, प्रत्येक वस्तु अपना जुदा स्वभाव रखती है । गु० - अब तुम यह बतलाओ कि क्या हम घटको असत् भी कह सकते हैं ? शि० - हाँ, घटके फूट जानेपर असत् कहते ही हैं । गु० - टूट फूट जानेपर तो प्रत्येक वस्तु असत् कही जाती है । हमारा मतलब हैं कि क्या घटके रहते हुए भी उसे असत् कहा जा सकता है ? शि० - नहीं, सकता है ? कभी नहीं, जो 'है' वह 'नहीं' कैसे हो गु० - किनारे पर आकर फिर बहना चाहते हो । अभी तुम स्वयं स्वीकार कर चुके हों कि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव जुदाजुदा होता है और वह स्वभाव उसी वस्तुमें रहता है दूसरी वस्तु नहीं । शि० - हाँ, यह तो मैं अब भी स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो आग पानी हो जायेगी और पानी आग हो जायेगा। कपड़ा मिट्टी हो जायगा और मिट्टी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त कपड़ा हो जायेगी। कोई भी वस्तु अपने स्वभावमें स्थिर न रह सकेगी। ____ गु०-यदि हम तुम्हारी ही बातको इस तरहसे कहें कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से नहीं है तो उन्हें कोई आपत्ति तो नहीं ? शि०-नहीं, इसमें किसको आपत्ति हो सकती है। गु०-अब तुमसे फिर पहला प्रश्न किया जाता है कि क्या मौजूदा घटको असन कह सकते हैं ? शि०-(चुप) गु०-चुप क्यों हो ? क्या फिर भ्रममें पड़ गये हो ? शि०-पर स्वभावकी अपेक्षासे मौजूदा घटको भी असत कह सकते हैं। गु०-अब रास्तेपर आये हो । जब हम किसी वस्तुको सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उस वस्तुके स्वरूपकी अपेक्षास ही उस सन कहा जाता है। अपनेसे अन्य वस्तुके म्वरूपकी अपेक्षासे संसारको प्रत्येक वस्तु असन है। देवदत्तका पुत्र संसार भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भरके पुत्रोंका पिता है। क्या इससे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते कि देवदत्तका पुत्र-पुत्र है और नहीं भी है। इसी तरह देवदत्तका पिता पिता है और नहीं भी है । अतः संसारमें जो कुछ है वह किसी अपेक्षामे नहीं भी है। सर्वथा सन् या सर्वथा असन कोई वस्तु नहीं है। किन्तु जब जनदर्शन यह कहना है कि प्रत्येक वस्तु मन भी है और अमन भी है तो श्रोता इस असंभव ममझना है क्योंकि जो सत है वह असन कैसे हो सकता है ? परन्तु ऊपर बनलाये गये जिन दृष्टिकोणोंको लक्ष्य करके जैनदर्शन वस्तुको मन और असत् कहता है यदि उन दृष्टिकोणोंको भी समझ लिया जाये तो फिर उसे असंभव कहनका साहस नहीं हो सकता। किन्तु जिसे समझनेमें बादरायण जैसे सूत्रकारों और शंकराचार्य Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म जैसे उसके व्याख्याताओंको भी भ्रम हुआ, उसमें यदि साधारणजनोंको व्यामोह हो तो अचरज ही क्या है। __ वादगयणके सूत्र 'नकम्मिन्नसंभवात्' (२-५-३३) की व्याख्या करते हुए स्वामी शंकराचार्यने इस सिद्धान्तपर जो सबसे बड़ा दृपण दिया है वह है अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है ऐसा कहना अनिश्चितताको बतलाता है। अर्थात् ससे वस्नुका कोई निश्चित स्वरूप नहीं ग्हता । और अनिश्चितता संशयकी जननी है। अतः यदि जैन सिद्धान्तके अनुमार वस्तु अनिश्चित है तो उसमें निःसंशय प्रवृत्ति नहीं हो सकी। किन्तु ऊपरके उदाहरणोंसे इस आपत्तिका परिहार स्वयं हो जाता है। हम व्यवहार में भी परस्पर विरोधी दो धर्म एक ही वस्तुमें पाते हैं जैसे भारत स्वदेश भी है और विदेश भी. देवदत्त पिता भी है और पुत्र भी। इसमें न कोई अनिश्चितता है और न संशय । क्योंकि भारतीयोंकी दृष्टिसे भारत स्वदेश है और विदेशियोंकी दृष्टिसे विदेश है। यदि कोई भारतीय भारतको स्वदेश ही समझता है तो वह भारतको केवल अपने ही दृष्टिकोणसे देखता है, दूसरे भारतीयेतरोंके दृष्टिकोणसे नहीं, और इसलिए उसका भारतदर्शन एकांगी है। पूर्ण दर्शनके लिए सब दृष्टिकोणोंको दृष्टिमें रखना आवश्यक है । अतः शंकराचार्यका यह कथन कि-"एक धर्मी में परस्परमें विरुद्ध सत्त्व और असत्त्व धर्मोका होना असंभव है ; क्योंकि सत्त्वधर्मके रहनेपर असत्वधर्म नहीं रह सकता और असत्त्वधर्मकं रहनेपर सत्त्वधर्म नहीं रहता, अतः आहेत मत असंगत है" कहाँ तक संगन है यह निष्पक्ष पाठक ही विचार करें। स्याद्वाद इस प्रकार जब प्रत्येक वस्तु परस्परमें विरोधी प्रतीत होने१. ब्रह्मसूत्र २-२-३३ का शांकरभाष्य । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ७५ वाले धर्मोका समूह है तो उस अनेक धर्मात्मक वस्तुका जानना उतना कठिन नहीं है, जितना शब्दोंके द्वारा उसे कहना कठिन है ; क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मोको एक साथ जान सकता हैं, किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तुके एक ही धर्मका आंशिक व्याख्यान कर सकता है । इसपर भी शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन है । वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचन व्यवहार करता है । जैसे, देवदत्तको एक ही समय उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता है । पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है किन्तु पिता भी है और पुत्र भी है । इसलिए पिताकी दृष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं और पुत्रकी दृष्टि देवदत्तका पितृत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं; क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुमेंसे जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता है और इतर धर्म गौण । अतः जब वस्तु अनेक धर्मात्मक प्रमाणित हो चुकी और शब्द में इतनी सामर्थ्य नहीं पाई गई जो उसके पूरे धर्मोका कथन एक समय में कर सके । तथा प्रत्येक वक्ता अपनी-अपनी दृष्टिमं वचन व्यवहार करता हुआ देखा गया तो वस्तुका स्वरूप समझ में श्रोताको कोई धोखा न हो, इसलिये स्याद्वादका आविष्कार हुआ। 'स्याद्वाद' सिद्धान्त के अनुसार विवक्षित धर्म से इतर धर्माका द्योतक या सूचक 'स्थान' शब्द समस्त वाक्योंके साथ गुप्तरूपसे सम्बद्ध रहता है । स्यान शब्दका अभिप्राय 'कथंचिन' या 'किसी अपेक्षा' से है । अतः संसार में जो कुछ है वह किसी अपेक्षा नहीं भी है । इसी अपेक्षावादका सूचक 'म्यान' शब्द है, जिसका प्रयोग अनेकान्तवादके लिये आवश्यक है; क्योंकि 'स्यात्' शब्द के बिना 'अनेकान्त' का प्रकाशन संभव नहीं है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनधर्म अतः अनेकान्त दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु 'स्यात् सत्' और 'स्यात् असत' है। ___ कोई कोई विद्वान 'स्यात्' शब्दका प्रयोग 'शायद' के अर्थ में करते हैं। किन्तु शायद शब्द अनिश्चितताका सूचक है, जब कि स्यात् शब्द एक निश्चित अपेक्षावादका सूचक है। इस प्रकार अनेकान्तवादका फलितार्थ स्याद्वाद है, क्योंकि स्याद्वादके बिना अनेकान्तवादका प्रकाशन संभव नहीं है । अतः एक ही वस्तुके सम्बन्धमें उत्पन्न हुए विभिन्न दृष्टिकोणोंका समन्वय स्याद्वादके द्वारा किया जाता है। हम ऊपर लिख आये हैं कि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन है, अतः प्रत्येक वस्तुमें दोनों धर्मोके रहनेपर भी वक्ता अपने अपने दृष्टिकोणसे उन धर्मोंका उल्लेख करते हैं। जैसे-दो आदमी कुछ खरीदनके लिये एक दुकानपर आते हैं । वहाँ किसी वस्तुको एक अच्छी बतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है। दोनोंमें बात बढ़ जाती है । तब तीसरा आदमी उन्हें समझाता है-'भई क्यों झगड़ते हो ? यह वस्तु अच्छी भी है और बुरी भी । तुम्हारे लिये अच्छी है और इनके लिये बुरी है। अपनी अपनी दृष्टि ही तो है। ये तीनों व्यक्ति तीन प्रकारका वचन व्यवहार करते हैं। पहला विधि करता है, दूसरा निषेध, और तीसरा विधि और निषेध । ___ वस्तुके उक्त दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता; क्योंकि एक शब्द एक समयमें विधि और निषेधसे एकका ही कथन कर सकता है ऐसी अवस्थामें वस्तु अवाच्य ठहरती है अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता । उ पार वचन व्यवहारोंको दार्शनिक भाषामें स्यात् सत्, स्यात् अमन , स्यात् सदसत् और स्यात् अवक्तव्य कहते हैं। सप्तभंगीके मूल यही चार भंग हैं। इन्होंके संयोगसे सात भंग होते हैं । अर्थात् चतुर्थ भंग स्यात् अवक्तव्यके साथ क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पाँचवाँ, छठा और Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ७७ सातवाँ भंग बनता है। किन्तु लोक व्यवहारमें मूल चार तरह के वचनोंका व्यवहार देखा जाता है। __स्वामी शंकराचार्यने चौथे भंग 'स्यादवक्तव्य' पर भी आपत्ति की है। वे कहते हैं कि-"पदार्थ अवक्तव्य भी नहीं हो सकते । यदि वे अवक्तव्य हैं तो उनका कथन नहीं किया जा सकता है। कथन भी किया जाय और अवक्तव्य भी कहा जाये ये दोनों बातें परस्परमें विरुद्ध हैं"। किन्तु यदि जैन वस्तुको सर्वथा अवक्तव्य कहते तव तो आचार्य शंकरका उक्त दोषदान उचित होता । किन्तु वे नो अपेक्षा भेदसे अवक्तव्य कहते हैं, इसीका सूचन करने के लिये स्यात शब्द अवक्तव्यकं साथ लगाया है जो बतलाता है कि वस्तु सर्वथा अवक्तव्य नहीं है, किन्तु किसी एक दृष्टिकोणसे अवक्तव्य है। ___ इससे स्पष्ट है कि आचार्यशंकर स्याद्वादको समझ नहीं सके। इसलिये स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा ने लिखा है_ “जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खण्डन पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है, जिसे वेदान्तके आचार्योंने नहीं समझा। और जो कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्मको उसके मूलग्रन्थोंसे देखनेका कष्ट उठाते नो उन्हें जैनधर्मका विरोध करनेकी कोई बात नहीं मिलती।" हिन्दू विश्वविद्यालयके दर्शन शास्त्रके भूतपूर्व प्रधान अध्यापक श्रीफणिभूषण अधिकारीने श्रीस्याद्वाद महाविद्यालय काशीके वार्षिकोत्सवके अध्यक्ष पदसे अपने भाषणमें कहा था 'जैनधर्मक स्याद्वादसिद्धान्तको जितना गलत समझा गया १. "न चैपां पदार्थानामवक्तव्यत्वं संभवति । अवक्तव्यश्चेन्नोच्येरन् । उच्यन्ते चावक्तव्याश्चेति विप्रतिपिद्धम्" ।-ब्रह्मसू० शां० २-२-३३ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनधर्म है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दीपसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया। यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारतके इस महान विद्वानके लिये तो अक्षम्य ही कहूँगा। यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्रके मूलग्रन्थोंके अध्ययन करनेकी परवाह नहीं की। ऐसी स्थितिमें भी जब हम किसी विद्वानको', उस विद्वानको जो कि अनेकान्तवादको संशयवादका रूपान्तर नहीं मानते और उसे जैनदर्शनकी बहुमूल्य देन स्वीकार करते हैं, यह लिखते हुए पाते हैं कि शंकराचार्यने स्याद्वादका मार्मिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्यमें प्रबल युक्तियोंके द्वारा किया है तो हमें अचरज होता है, अस्तु । सप्तभंगीवादका विकास दार्शनिक क्षेत्रमें हुआ था, इसलिये उसका उपयोग भी वहीं हुआ। उपलब्ध जैनवाङमयमें दार्शनिक क्षेत्रमें सप्तभंगीवादको चरितार्थ करनेका श्रेय सर्वप्रथम स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है । उन्होंने अपनी आप्तमीमांसामें सांख्यको सदैकान्तवादी, माध्यमिकको असदैकान्तवादी, वैशेषिकको सदसदैकान्तवादी और बौद्धको अवक्तव्यैकान्तवादी बतलाकर मूल चार भंगोंका उपयोग किया और शेष तीन भंगोंका उपयोग करनेका संकेत मात्र कर दिया। उनके पश्चात् आममीमांसापर 'अष्टशी' नामक भाष्यके रचयिता श्रीअकलंकदेवने शेष तीन भंगीका उपयोग करके उस कमीको पूरा कर दिया। उनके मतसे शंकराचार्यका अनिर्वचनीयवाद सदवक्तव्य, १. देखो-भारतीयदर्शन (पं०बल्देव उपाध्याय) पृ० १७७ । २. कारिका मं०९-२०। ३. अष्टसहस्री पृ० १३८-१४२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ७९ बौद्धोंका अन्यापोहवाद असदवक्तव्य और यौगका पदार्थवाद सदसदवक्तव्य कोटिमें गर्भित है । इस तरह सातों भंगोंका उपयोग हो जाता है । ३. द्रव्य - व्यवस्था जैनदर्शनके मूलतत्त्व अनेकान्तवाद और उसके फलितार्थ स्याद्वाद और सप्तभंगीवादका परिचय कराकर अब द्रव्यव्यवस्थाको बतलाते हैं । यद्यपि द्रव्यका लक्षण सत् है तथापि प्रकारान्तरसे गुण और पर्यायोंके समूह को भी द्रव्य कहते है । जैसे, जीव एक द्रव्य है, उसमें सुख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर नारकी आदि पर्यायें पाई जाती है किन्तु द्रव्यसे गुण और पर्यायकी पृथक सत्ता नहीं है । ऐसा नहीं है कि गुण पृथक हैं, पर्याय पृथक् हैं और उनके मेलसे द्रव्य बना है । किन्तु अनादिकालसे गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है । साधारण रीतिसे गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती हैं । अतः द्रव्यको नित्य-अनित्य कहा जाता है । जैनदर्शनमें सत्का लक्षण उत्पाद, व्यय और धौव्य माना गया है । अर्थात् जिसमें प्रति समय उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता पाई जाती है वही सत् है । जैसे, मिट्टीसे घट बनाते समय मिट्टीकी पिण्डरूप पर्याय नष्ट होती है, घट पर्याय उत्पन्न होती है और मिट्टी कायम रहती है। ऐसा नहीं है कि पिण्ड पर्यायका नाश पृथक समय में होता है और घट पर्यायकी उत्पत्ति पृथकू समयमें होती है । किन्तु जो समय पहली पर्यायके नाशका है, वही समय आगेकी पर्यायके उत्पादका हैं । इस तरह प्रतिसमय पूर्व पर्यायका नाश और आगेकी पर्यायकी उत्पत्तिके होते हुए भी द्रव्य कायम रहता है अतः वस्तु प्रतिसमय उत्पाद व्यय और धौव्यात्मक कही जाती है । आशय यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील हैं, और उसमें वह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है । जैसे, एक बच्चा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म कुछ समय बाद युवा हो जाता है और फिर कुछ काल के बाद बूढ़ा हो जाता है। बचपनसे युवापन और युवापनसे बुढ़ापा एकदम नहीं आ जाता, किन्तु प्रतिसमय बच्चे में जो परिवर्तन होता रहता है वही कुछ समय बाद युवापनके रूपमें दृष्टिगोचर होता है। प्रति समय होनेवाला परिवर्तन इतना सूक्ष्म है कि उसे हम देख सकने में असमर्थ हैं। इस परिवर्तनके होते हुए भी उस बच्चेमें एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण बड़ा हो जाने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं। यदि ऐसा न मानकर द्रव्यको केवल नित्य ही मान लिया जाये तो उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं हो सकेगा, और यदि केवल अनित्य ही मान लिया जाये तो आत्माके सर्वथा क्षणिक होनेसे पहले जाने हुएका म्मरण आदि व्यापार नहीं बन सकेगा। अतः प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, विनाश और प्रौव्य स्वभाववाला है। चूंकि द्रव्यमें गुण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद विनाशशील होती हैं; अतः गुणपर्यायात्मक कहो या उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक कहो, दोनोंका एक ही अभिप्राय है। द्रव्यके इन दोनों लक्षणोंमें वास्तवमें कोई भेद नहीं है, किन्तु एक लक्षण दूसरे लक्षणका व्यञ्जकमात्र है। द्रव्यका स्वरूप बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें कहा है 'दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं । दवियं तं भण्णंते अणण्णभदं तु सत्तादो ॥९॥' अर्थ-'द्र धातुसे, जिसका अर्थ जाना है, द्रव्य शब्द वना है। अतः जो अपनी उन उन पर्यायोंको प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते हैं । वह द्रव्य सत्तासे अभिन्न है।' ___ इससे यह बतलाया है कि द्रव्य सत्स्वरूप है। और जैसे पर्यायोंका प्रवाह सतत् जारी रहता है, एकके पश्चात् दूसरी और दूसरीके पश्चात् तीसरी पर्याय होती रहती है, वैसे ही Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त द्रव्यका प्रवाह भी सतत् जारी रहता है । अर्थात् द्रव्य अनादि और अनन्त है। 'दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तरांजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह ॥१०॥ अर्थ-'भगवान जिनेन्द्रदेव द्रव्यका लक्षण सत् कहते हैं। अथवा जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त है वह द्रव्य है। अथवा जो गुण और पर्यायका आश्रय है वह द्रव्य है।' द्रव्यके इन तीनों लक्षणों से एकके कहनेसे शेष दो लक्षण स्वतः ही कहे जाते हैं, क्योंकि जो सत है वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तथा गुण और पर्यायसे संयुक्त है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाला है वह सत है और गुण पर्यायका आश्रय भी है, तथा जो गुण पर्यायवाला है वह मत है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त भी है। ___ चूंकि सत् नित्यानित्यात्मक है अतः सनके कहनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यपना प्रकट होता है तथा ध्रुवत्वसे गुणोंके साथ और उत्पादव्ययसे विनाशशील पर्यायोंके साथ एकात्मकता प्रकट होती है। इसी तरह वस्तुको उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य म्वरूप बतलानेसे उसकी नित्यानित्यात्मकता और गुणपर्यायविशिष्टता प्रकट होती है । तथा वस्तुको गुणपर्यायात्मक बतलानेसे गुणोंसे ध्रौव्यका और पर्यायसे उत्पाद विनाशका सूचन होता है और उससे नित्यानित्यात्मक सन् है यह प्रतीत होता है। अतः तीनों लक्षण प्रकारान्तरसे द्रव्यका विश्लेषण करते हैं और बतलाते हैं कि "उप्पत्तीव विणासो दम्बस्स य त्थि अत्थि सम्भावो । विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ।। ११ ॥' अर्थ-"द्रव्यका न तो उत्पाद होता है और न विनाश, वह तो सत्स्वरूप है। किन्तु उसीकी पर्यायें उसके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको करती हैं।" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म इसका यह मतलब है कि द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है, किन्तु उसकी पर्यायें उत्पन्न होती और नष्ट होतो हैं और वे पर्यायें चूँकि द्रव्यसे अभिन्न हैं अतः द्रव्य भी उत्पादव्ययशील है । ८२ जैन दर्शनके इस सिद्धान्तका प्रतिपादन महर्षि पतञ्जलिने भी अपने महाभाष्यके पपशाह्निक में निम्नलिखित शब्दों में किया है " द्रव्यं नित्यम्, आकृतिरनित्या | सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाऽऽकृत्या युक्तः खदिरांगारसदृशे कुण्डले भवतः । आकृतिरन्या च अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते । " अर्थात् - 'द्रव्य नित्य है और आकार यानी पर्याय अनित्य है। सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकारसे पिण्डरूप होता है । पिण्डरूपका विनाश करके उससे माला बनाई जाती है । मालाका विनाश करके उससे कड़े बनाये जाते हैं । कड़ोंको तोड़कर उससे स्वस्तिक बनाये जाते हैं । स्वस्तिकोंको गलाकर फिर सुवर्णपिण्ड हो जाता है । उसके अमुक आकारका विनाश करके खदिर अङ्गारके समान दो कुण्डल बना लिये जाते हैं । इस प्रकार आकार बदलता रहता है परन्तु द्रव्य वही रहता है । आकार के न होनेपर भी द्रव्य शेष रहता ही है ।' इससे द्रव्यकी नित्यता और पर्यायकी अनित्यता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन भी ऐसा ही मानता है और इसीसे वह वस्तु का लक्षण उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य करता हैं । उसके मत से तत्त्व त्रयात्मक है | आचार्य समन्तभद्रने दो दृष्टान्त देकर इसी बातको प्रमाणित किया है। आप्तमीमांसा में वे लिखते हैं 1 1 'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५९॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त 'एक राजाके एक पुत्र है और एक पुत्री। राजाके पास एक सोनेका घड़ा है । पुत्री उस घटको चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घटको तोड़कर उसका मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्रकी हठ पूरी करनेके लिए घटको तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है। घटके नाशसे पुत्री दुखी होती है, मुकुटके उत्पादसे पुत्र प्रसन्न होता है और चूंकि राजा सुवर्णका इच्छुक है जो कि घट टूटकर मुकुट बन जानेपर भी कायम रहता है अतः उसे न शोक होता है और न हर्ष । अतः वस्तु त्रयात्मक (तीनरूप) है।' दूसरा उदाहरण ‘पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसबतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ॥६०॥ 'जिसने केवल दूध ही खानेका व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता । जिसने केवल दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नहीं खाता । और जिसने गोरसमात्र न खानेका व्रत लिया है वह न दूध खाता है और न दही; क्योंकि दूध और दही दोनों गोरस की दो पायें हैं अतः गोरमत्व दोनोंमें है। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक-उत्पादन्ययधोव्यात्मक है। मीमांसादर्शनके पारगामी महामति कुमारिल भी वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप मानते हैं। उन्होंने भी उसके समर्थनके लिए स्वामी समन्तभद्रके उक्त दृष्टान्तको ही अपनाया है । वे उसका खुलासा करते हुए लिखते हैं 'वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥२१॥ हेमाधिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥३२॥' -मी० श्लो० वा० । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म अर्थात्–'जब सुवर्णके प्यालेको तोड़कर उसकी माला बनाई जाती है तब जिसको प्यालेकी जरूरत है, उसको शोक होता है, जिसे मालाकी आवश्यकता है उसे हर्ष होता है और जिसे सुवर्णकी आवश्यकता है उसे न हर्ष होता है और न शोक । अतः वस्तु त्रयात्मक है । यदि उत्पाद, स्थिति और व्यय न होते तो तीन व्यक्तियोंके तीन प्रकारके भाव न होते, क्योंकि प्यालेके नाशके बिना प्यालेकी आवश्यकतावालेको शोक नहीं हो सकता, मालाके उत्पादके बिना मालाकी आवश्यकतावालेको हर्ष नहीं हो सकता और सुवर्णकी स्थिरताके बिना सुवर्ण इच्छुकको प्यालेके विनाश और मालाके उत्पादमें माध्यस्थ्य नहीं रह सकता । अतः वस्तु सामान्यसे नित्य है ।' ( और विशेष अर्थात पर्यायरूपसे अनित्य है ) । निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शनमें द्रव्य ही एक तत्त्व हैं, जो ६ प्रकारका है और वह प्रति समय उत्पाद व्यय और धौव्य स्वरूप है । अतएव वह द्रव्यदृष्टिसे नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य है । अब प्रत्येक द्रव्यका परिचय कराया जाता है । ४. जीवद्रव्य जैनाचार्य श्रीकुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें जीवका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है— 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमरिणद्दिट्ठसंठाणं || २-८०|' 'जिसमें न कोई रस है न कोई रूप है और न किसी प्रकार - की गन्ध है, अतएव जो अव्यक्त है, शब्दरूप भी नहीं है, किसी M भौतिक चिह्नसे भी जिसे नहीं जाना जा सकता और न जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है, उस चैतन्यगुण विशिष्ट द्रव्यको जीव कहते हैं।' इसका यह आशय है कि जिसमें चेतनागुण है, वह जीव Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त है। और वह जीव पुद्गल द्रव्यसे जुदा है, क्योंकि पुद्गलद्रव्य रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणवाला तथा साकार होता है, किन्तु जीवद्रव्य ऐसा नहीं है। अतः जीवद्रव्य जड़तत्त्वसे जुदा एक वास्तविक पदार्थ है । और भी 'जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥२७॥' -पंचास्ति० _ 'यह जीव चैतन्यस्वरूप है, जानने देखनेरूप उपयोगवाला है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है और अपने शरीरके बराबर है। तथा यद्यपि वह मूर्तिक नही है तथापि कमोंसे संयुक्त है।' इस गाथाके द्वारा जीवद्रव्यके सम्बन्धमें जैनदर्शनकी प्रायः सभी मुख्य मान्यताओंको बतला दिया है। उनका खुलासा इस प्रकार है जोव चेतन है जीवका असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने और देखनेरूप है। अर्थात् जो जानता और देखता है वह जीव है। सांख्य भी चेतनाको पुरुषका स्वरूप मानता है, किन्तु वह उसे ज्ञानरूप नहीं मानता। उसके मतसे ज्ञान प्रकृतिका धर्म है। वह मानता है कि ज्ञानका उदय न तो अकेले पुरुषमें ही होता है और न बुद्धिमें ही होता है। जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य पदार्थोंको बुद्धिके सामने उपस्थित करती हैं तो बुद्धि उपस्थित पदार्थके आकारको धारण कर लेती है। इतने पर भी जब बुद्धिमें चैतन्यात्मक पुरुषका प्रतिबिम्ब पड़ता है तभी ज्ञानका उदय होता है । परन्तु जैनदर्शनमें बुद्धि और चैतन्यमें कोई भेद ही नहीं हैं। उसमें हर्ष, विषाद आदि अनेक पर्यायवाला ज्ञानरूप एक आत्मा ही अनुभवसे सिद्ध है । चैतन्य, बुद्धि, अध्यवसाय, ज्ञान आदि उसीकी पर्यायें कहलाती हैं। अतः चैतन्य ज्ञानरूप ही है। उसकी दो अवस्थाएँ होती हैं। एक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैनधर्म अन्तर्मुख और दूसरी बहिर्मुख । जब वह आत्मस्वरूपको ग्रहण | करता है तो उसे दर्शन कहते हैं और जब वह बाह्य पदार्थको ग्रहण करता है तो उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञान और दर्शनमें मुख्य भेद यह है कि जैसे ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि रूपसे वस्तुकी व्यवस्था होती है, उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती । अतः जीव चैतन्यात्मक हैं, इसका आशय है कि जीव ज्ञानदर्शनात्मक है, ज्ञान दर्शन जीवके गुण या स्वभाव हैं । कोई जीव उनके बिना रह नहीं सकता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जो ज्ञानवान है वह जीव है । जैसे आग अपने उष्ण गुणको छोड़कर नहीं रह सकती, वैसे ही जीव भी ज्ञानगुणके बिना नहीं रह सकता । एकेन्द्रिय वृक्षमें रहनेवाले जीवसे लेकर मुक्तात्माओं तकमें हीनाधिक ज्ञान पाया जाता है । सबसे कम ज्ञान वनस्पतिकायके जीवोंमें पाया जाता है और सबसे अधिक यानी पूर्णज्ञान मुक्तात्मामें पाया जाता है । जैनेतर दार्शनिकोंमें नैयायिक वैशेषिक भी ज्ञानको जीवका गुण मानते हैं । किन्तु उनके मतानुसार गुण और गुणी ये दोनों दो पृथक पदार्थ हैं और उन दोनोंका परस्परमें समवायसम्बन्ध है | अतः उनके मतसे आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं हैं, किन्तु उसमें ज्ञानगुण रहता है इसलिये वह ज्ञानवान् कहा जाता हैं । किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है तो वह अज्ञानस्वरूप ठहरता है । और उसके अज्ञानस्वरूप होनेपर आत्मा और जड़ में कोई अन्तर नहीं रहता । इसपर नैयायिकका कहना है कि आत्माके साथ तो ज्ञानका सम्बन्ध होता है किन्तु जड़ घटादिकके साथ ज्ञानका सम्बन्ध नहीं होता । इसलिये आत्मा और जड़में अन्तर है । इसपर जैन दार्शनिकोंका कहना है कि जब आत्मा भी ज्ञानस्वरूप नहीं है और जड़ भी ज्ञानस्वरूप नही है, फिर भी ज्ञानका सम्बन्ध आत्मासे ही क्यों होता है, जड़से क्यों नहीं होता ? यदि कहा जायेगा कि आत्मा चेतन है इसलिये उसीके साथ ज्ञानका सम्बन्ध होता है Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त तो इस पर जैन दार्शनिकोंका यह कहना है कि नैयायिक आत्माको स्वयं चेतन भी नहीं मानता किन्तु चैतन्यके सम्बन्धसे ही चेतन मानता है । ऐसी स्थितिमें ज्ञानकी ही तरह चेतनके सम्बन्धमें भी वही प्रश्न पैदा होता है कि चैतन्यका सम्बन्ध आत्माके ही साथ क्यों होता है घटादिकके साथ क्यों नहीं होता ? अतः इस आपत्तिसे बचनेके लिए आत्माको स्वयं चेतन और ज्ञानस्वरूप मानना चाहिये । जैसा कि कहा है 'गाणी गाणं च सदा अत्यंतरिदो दु अण्णमण्णस्स | दोहं अदत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥ ४८ ॥ ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दु णाणदो णाणी । अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधकं होदि ॥४६॥ - पञ्चास्ति ० ८७ अर्थात्- 'यदि ज्ञानी और ज्ञानको परस्पर में सदा एक दूसरे से भिन्न पदार्थान्तर माना जायगा तो दोनों अचेतन हो जायेंगे । यदि कहा जायेगा कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है तो प्रश्न होता है कि ज्ञानके साथ समवाय सम्बन्ध होनेसे पहले वह आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी था तो उसमें ज्ञानका समवाय मानना व्यर्थ है । यदि अज्ञानी था तो अज्ञानके समवायसे अज्ञानी था या अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे अज्ञानी था ? अज्ञानीमें अज्ञानका समवाय मानना तो व्यर्थ ही है । तथा उस समय उसमें ज्ञानका समवाय न होनेसे उसे ज्ञानी भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी ही ठहरता है । ऐसी स्थिति में जैसे अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी हुआ वैसे ही ज्ञानके साथ भी आत्माका एकत्व मानना चाहिये ।' सारांश यह है जैनदर्शन गुण और गुणीके प्रदेश जुदे नहीं मानता । जो आत्माके प्रदेश हैं वे ही प्रदेश ज्ञानादिक गुणोंके Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भी हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है। और जुदे वे ही कहलाते हैं जिनके प्रदेश भी जुदे हों। अतः जो जानता है वही ज्ञान है । इसलिये ज्ञानके सम्बन्धसे आत्मा ज्ञाता नहीं है, किन्तु ज्ञान ही आत्मा है । जैसा कि कहा है णाणं अप्प ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥२७॥ -प्रवच० अर्थात्-ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है। चूंकि ब्रान आत्माके बिना नहीं रहता अतः ज्ञान आत्मा ही है। किन्तु आत्मामें अनेक गुण पाये जाते हैं अतः आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य गुणरूप भी है।' प्रभु है प्रत्येक जीव अपने पतन और उत्थानके लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। अपने कार्योंसे ही वह बँधता है और अपने कार्योंसे हो वह उस बन्धनसे मुक्त होता है। अन्य कोई न उसे बाँधता है और न •बन्धनसे मुक्त करता है। वह स्वतः ही भिखारी बनता है और स्वतः ही भिखारीसे भगवान् बन सकता है। अतः वह प्रमु-समर्थ कहा जाता है। कर्ता है अपने द्वारा बाँधे गये कर्मोके फलको भोगते समय जीवके जो भाव होते हैं, वह जीव उन अपने भावोंका कर्ता कहा जाता है। आशय यह है कि जीवके भाव पाँच प्रकारके होते हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक । कोका उपशम होनेसे-अर्थात् उदयमें न आ सकनेके योग्य कर देनेपर जो भाव होते हैं, उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं। कर्मोंका क्षयविनाश हो जानेसे जो भाव होते हैं, उन्हें क्षायिक भाव कहते हैं। कोका क्षयोपशम-कुछका क्षय और कुछका उपशम होनेसे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। कर्मोके उदयसे जो भाव होते हैं उन्हें औदायिक कहते हैं और कर्मोंके निमित्तके बिना जो भाव होते हैं उन्हें पारिणामिक कहते हैं। वस्तुतः अपने इन भावोंका कर्ता जीव ही है, कर्म तो उसमें निमित्तमात्र है । किन्तु कर्मका निमित्त मिले बिना उक्त भाव नहीं होते इसलिये उन भावोंका कर्ता कर्मको भी कहा जाता है। सांख्य पुरुष-आत्माको कर्ता नहीं मानता। उसके मतानुसार आत्मा अलिप्त और अकर्ता हैं, जगतके व्यापारके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसपर जैन-दर्शनकी यह आपत्ति है कि यदि आत्मा अकर्ता है तो बन्ध और मोक्षकी कल्पना व्यर्थ है। 'मैं सुनता हूँ' इत्यादि प्रतीति सभीको होती ह अतः आत्माका अकर्तृत्व अनुभवविरुद्ध है। यदि कहा जाये कि इस प्रकारकी प्रतीति अहंकारसे होती है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि सांख्य अनुभवको अहंकारजन्य नहीं मानता। और अनुभवके अहंकार जन्य न होनेसे ही आत्माका कर्तृत्व स्वीकार करना पड़ता है । अतः आत्मा कर्ता है । भोक्ता है जिस तरह जीव अपने भावोंका कर्ता है उसी तरह उनका भोक्ता भी है । यदि आत्मा सुख दुःखका भोक्ता न हो तो सुख दुःखको अनुभूति ही नहीं हो सकती और अनुभूति चैतन्यका धर्म ह । सांख्यका कहना है कि 'पुरुष स्वभावसे भोक्ता नहीं है किन्तु उसमें भोक्तृत्वका आरोप किया जाता है, क्योंकि सुख दुःखका अनुभव बुद्धिके द्वारा होता है और बुद्धि अचेतन है। बुद्धिमें संक्रान्त सुख दुःखका प्रतिबिम्ब शुद्ध स्वभावमें पड़ता है, अतः पुरुषको सुख दुःखका भोक्ता मान लिया जाता है। इस पर जैनोंका कहना है कि जैसे स्फटिकमें जपाकुसुमका प्रतिबिम्ब पड़नेसे स्फटिक मणिका लाल रूपसे परिणमन मानना पड़ता है वैसे ही पुरुषमें सुख दुःखका प्रतिबिम्ब माननेसे पुरुषमें सुख Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म दुःखरूप परिणाम मानना ही पड़ता है। उसके बिना सुख दुःखकी अनुभूति नहीं हो सकती। अपने शरीरप्रमाण है __ जैन दर्शनमें जीवको शरीरप्रमाण माना गया है। जैसे दीपक छोटे या बड़े जिस स्थानमें रखा जाता है, उसका प्रकाश उसके अनुसार ही या तो सकुच जाता है या फैल जाता है, वैसे ही आत्मा भी प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीरके आकारका हो जाता है। किन्तु न तो संकोच होने पर आत्माके प्रदेशोंकी हानि होती है और न विस्तार होनेपर नये प्रदेशोंकी वृद्धि होती है। प्रत्येक दशामें असंख्यातप्रदेशीका असंख्यातप्रदेशी ही रहता है। ____ आत्माको शरीरप्रमाण मानने में यह आपत्ति की जाती है कि यदि आत्मा शरीरके प्रत्येक प्रदेशमें प्रवेश करता है तो शरीरकी तरह आत्माको भी सावयव मानना पड़ता है और सावयव माननेसे आत्माका विनाश प्राप्त होता है; क्योंकि जैसे घट सावयव है जब उसके अवयवोंका संयोग नष्ट होता है तो घट भी नष्ट हो जाता है, उसी तरह आत्माको सावयव माननेसे उसका भी नाश हो सकता है । इस आपत्तिका उत्तर जैनदर्शन देता है कि जैन दृष्टिसे आत्मा कथंचित् सावयव भी है; किन्तु उसके अवयव घटके अवयवोंकी तरह कारणपूर्वक नहीं हैं। अर्थात् घट एक द्रव्य नहीं है किन्तु अनेक द्रव्य है; क्योंकि अनेक परमाणुओंके समूहसे घट बना है और प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है । अतः घटके अवयव उसके कारणभूत परमाणुओंसे उत्पन्न हुए हैं । किन्तु आत्मामें यह बात नहीं है । आत्मा एक अखण्ड और अविनाशी द्रव्य है। वह अनेक द्रव्योंके संयोगसे नहीं बना है। अतः घटकी तरह उसके विनाशका प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होता। जैसे आकाश एक सर्वव्यापक अमूर्तिक द्रव्य है, किन्तु उसे भी जैनदर्शनमें अनन्त प्रदेशी माना गया Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो मथुरा , काशी और कलकत्ता एक प्रदेशवर्ती हो जायेंगे। चूंकि ये भिन्न-भिन्न प्रदेशवर्ती हैं अतः सिद्ध है कि आकाश बहुप्रदेशी हैं। बहुप्रदेशी होनेपर भी न तो आकाशका विनाश ही होता है और न वह अनित्य ही है, उसी तरह आत्माको भी जानना चाहिये। दूसरी आपत्ति यह की जाती है कि यदि आत्मा शरीरप्रमाण है तो बालकके शरीर प्रमाणसे युवा शरीररूप वह कैसे बदल जाता है ? यदि बालकके शरीर प्रमाणको छोड़कर वह युवाके शरीर प्रमाण होता है तो शरीर की तरह आत्मा भी अनित्य ठहरता है । यदि बालक के शरीर प्रमाणको छोड़े बिना आत्मा युवा शरीररूप होता है तो यह संभव नहीं है। क्योंकि एक परिमाणको छोड़े विना दूसरा परिमाण नहीं हो सकता। इसके सिवा यदि जीव शरीरपरिमाण है तो शरीरके एकाध अंशके कट जाने पर आत्माके भी अमुक भागकी हानि माननी पड़ती है । इसका उत्तर यह है कि आत्मा वालकके शरीरपरिमाणको छोड़कर ही युवा शरीरके परिमाणको धारण करता है। जैसे सर्प अपने फण वगैरहको फैलाकर बड़ा कर लेता है वैसे ही आत्मा भी संकोच-विस्तार गुणके कारण भिन्न-भिन्न समयमें भिन्न-भिन्न आकारवाला हो जाता है । इस अपेक्षासे आत्माको अनित्य भी कहा जा सकता है। किन्तु द्रव्यदृष्टिमे तो आत्मा नित्य ही है। शरीरके खण्डित हो जानेपर भी आत्मा खण्डित नहीं होता किन्तु शरीर के खण्डित हुए भागमें आत्माके प्रदेश न माने जायँ नो शरीरमे कटकर अलग हुए भागमें जो कंचन देखा जाता है उसका कोई दूसरा कारण दृष्टिगोचर नहीं होता; क्योंकि उस भागमें दूसरी आत्मा तो नहीं हो सकती, और बिना आत्माके परिस्पन्द नहीं हो सकता; क्योंकि कुछ देरके बाद आत्मप्रदेश सकुच जाते हैं तो कटे भागमें क्रिया नहीं रहती। अतः शरीरके दो भाग हो जानेपर भी आत्माके दो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भाग नहीं होते । अतः आत्मा शरीर परिमाणवाला हैं क्योंकि मैं सुखी हूँ, इत्यादि रूपसे शरीरमें ही आत्माका ग्रहण होता है। इस प्रकार आत्म क शरीरपरिमाणवाला सिद्ध करके जैनदार्शनिक आत्माके व्यापकत्वका खण्डन करते हैं। वे कहते हैं कि यदि आत्मा व्यापक है तो उसमें क्रिया नहीं हो सकती और क्रियाके बिना वह पुण्य-पापका कर्ता नह हो सकता। तथा कर्तृत्वके बिना बन्ध और म भकी व्यवस्था नह बनती। कर्मोंसे संयुक्त है जैनदर्शन प्रत्येक संसारी आत्माको कर्मोंसे बद्ध मानता है। यह कर्मबन्धन उसके किसी अमुक समयमें नहीं हुआ, किन्तु अनादिसे ह । जैस, खानसे सोना सुमैल ही निकलता है वैसे ही संसारी आत्माएँ भी अनादिकालसे कर्मबन्धमें जकड़े हुए ही पाये जाते हैं। यदि आत्माएँ अनादिकालसे शुद्ध ही हों तो फिर उनके कमबन्धन नह हो सकता; क्योंकि कर्मबन्धनके लिये आन्तरिक अशुद्धिका होना आवश्यक ह । उसके बिना भी यदि कर्मबन्धन होने लगे तो मुक्त आत्माओंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग उपस्थित हो सकता है और ऐसी अवस्थामें मुक्तिके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ हो जायेगा। ___इस प्रकार जैन दृष्टि से जीव जानने देखनेवाला, अमूर्तिक, कर्ता, भोक्ता, शरीर परिमाणवाला और अपने उत्थान और पतन के लिये स्वयं उत्तरदायी ह । जीवके भेद __उस जीवके मूल भेद दो हैं-संसारी जीव और मुक्त जीव । कर्मबन्धनसे बद्ध जो जीव एक गतिसे दूसरी गतिमें जन्म लेते और मरते हैं वे संसारी हैं और जो उससे छूट चुके हैं वे मुक्त हैं। मुक्त जीवोंमें तो कोई भेद होता ही नहीं, सभी समान गुणधर्मवाले होते हैं। किन्तु संसारी जीवोंमें अनेक भेद प्रभेद पाये जाते हैं। संसारी जीव चार प्रकारके Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ सिद्धान्त होते हैं, नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव | इस पृथिवीके नीचे सात नरक हैं, उनमें जो जीव निवास करते हैं वे नारकी हैं। ऊपर स्वर्गों में जो निवास करते हैं वे देव कहाते हैं । हम आप सब मनुष्य हैं और पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, वृक्ष आदि शेष सव तिर्यञ्च कहे जाते हैं. नारकी, देव और मनुष्योंके तो पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, किन्तु तिर्यश्वोंमें ऐसा नहीं है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उसीके द्वारा वे जानते हैं। इन जीवोंको स्थावर कहते हैं। जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कोड़े, मकोड़े आदिके सिवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिमें भी जीव है। मिट्टीमें कीड़े आदि जीव तो हैं ही, किन्तु मिट्टी पहाड़ आदि स्वयं पृथ्वीकायिक जीवोंके शरीरका पिण्ड है। इसी तरह जलमें यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोंके अतिरिक्त जल स्वयं जलकायिक जीवोंके शरीरका पिण्ड है। यही बात अग्निकाय आदिके विषयमें भी जाननी चाहिय । लट आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। चींटी वगैरहके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भौरे आदिके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं और सर्प, नेवला, पशु, पक्षी आदिके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। इन इन्द्रियोंके द्वारा वे जीव अपने अपने योग्य स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दका ज्ञान करते हैं। जैन शास्त्रोंमें इन सभी जीवोंकी योनि, जन्म और शरीर वगैरहका विस्तारसे वर्णन किया गया है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जैनदर्शन जीव बहुत्ववादी हैं। वह प्रत्येक जीवकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। उसका कहना है कि यदि सभी जीव एक होते तो एक जीवके सुखी होनेसे सभी जीव सुखी होते, एक जीवके दुःखी होनेसे सभी जीव दुःखी होते, एकके बन्धनसे सभी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म बन्धनबद्ध होते और एककी मुक्तिसे सभी मुक्त हो जाते। जीवोंकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको देखकर ही सांख्यने भी जीवोंकी अनेकताको स्वीकार किया है। जैनदर्शनका भी यही मत है । ४ ५. अजीवद्रव्य जिन द्रव्योंमें चैतन्य नहीं पाया जाता वे अजीवद्रव्य कहे जाते हैं। वे पाँच हैं। उनका परिचय इस प्रकार है १. पुद्गलद्रव्य यह बात उल्लेखनीय है कि जैनदर्शनमें पुद्गल शब्दका प्रयोग बिल्कुल अनोखा है, अन्य दर्शनों में इसका प्रयोग नहीं पाया जाता । जो टूटे फूटे, बने और बिगड़े वह सब पुद्गलद्रव्य है । मोटे तौरपर हम जो कुछ देखते हैं, छूते हैं, सूँघते हैं, खाते हैं और सुनते हैं वह सब पुद्गलद्रव्य है । इसीलिये जैन शास्त्रोंमें पुद्गलका लक्षण रूप, रस, गंध और स्पर्शवाला बतलाया है । इस तरह पुद्गलसे आधुनिक विज्ञानके 'मैटर' ( matter ) और इनर्जी (Energy ) दोनों ही संगृहीत हो जाते हैं । जो परमाणुसम्बन्धी आधुनिक खोजोंसे परिचित हैं वे पुद्गल शब्दके चुनाव की प्रशंसा ही करेंगे। आधुनिक वैज्ञानिकोंके मतानुसार सब अटोम ( परमाणु ) इलैक्ट्रोन प्रोट्रोन और न्यूट्रोनके समूह मात्र हैं। विज्ञानमें यूरेनियम एक धातु है उससे सदा तीन प्रकारको किरणें निकलती रहती हैं। जब यूरेनियमका एक अणु तीनों किरणोंको खो बैठता है तो वह एक रेडियमके अणुके रूपमें बदल जाता है। इसी तरह रेडियम अणु शीशा धातुमें परिवर्तित हो जाता है । यह परिवर्तन बतलाता है कि एलेक्ट्रोन और प्रोट्रोनके विभागमें 'मैटर' का एक रूप दूसरे रूपमें परिवर्तित हो जाता है । इस रद्दो बदल और टूट फूटको 'पुद्गल' शब्द बतलाता है। छहों द्रव्योंमें एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं। न्यायदर्शन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ९५ I कार पृथिवी, जल, तेज और वायुको जुदा जुदा द्रव्य मानते हैं; क्योंकि उनकी मान्यताके अनुसार पृथिवीमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारों गुण पाये जाते हैं, जलमें गन्धके सिवा शेष तीन ही गुण पाये जाते हैं, तेजमें गन्ध और रसके सिवा शेष दो ही गुण पाये जाते हैं और वायुमें केवल एक स्पर्श ही गुण पाया जाता है । अत: चारोंके परमाणु जुदे जुड़े हैं । अर्थात् पृथिवीके परमाणु जुड़े हैं, जलके परमाणु जुदे हैं, तेजके परमाणु जुड़े हैं और वायुके परमाणु जुदे हैं। अतः ये चारों द्रव्य जुदे जुड़े हैं । किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि सब परमाणु एकजातीय हो हैं और उन सभीमें चारों गुण पाये जाते हैं । किन्तु उनसे बने हुए द्रव्योंमें जो किसी-किसी गुणकी प्रतीत नहीं होती, उसका कारण उन गुणोंका अभिव्यक्त न हो सकना ही है. जैसे, पृथिवीमें जलका सिंचन करनेसे गन्ध गुण व्यक्त होता है इसलिये उसे केवल पृथ्वीका ही गुण नहीं माना जा सकता। आँवला खाकर पानी पीनेसे पानीका स्वाद मीठा लगता है, किन्तु वह स्वाद केवल पानीका ही नहीं है, आँवलेका स्वाद भी उसमें सम्मिलित है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये | इसके सिवा जलसे मोती उत्पन्न होता है जो पार्थिव माना जाता है, जंगलमें बाँसोंकी रगड़ अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जौके खानेसे पेट में वायु उत्पन्न होती है। इससे सिद्ध है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके परमाणुओंमें भेद नहीं हैं। जो कुछ भेद है, वह केवल परिणमनका भेद है। अतः सभी में स्पर्शादि चारों गुण मानने चाहियें। और इसीलिये पृथ्वी आदि चार द्रव्य नहीं हैं किन्तु एक द्रव्य है । इसीलिये कहा है आदेममेत्त मुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु । सो ओ परमाणू परिणामगुणो सयमसहो ॥ ७८ ॥ - पंचास्ति ० अर्थात् — जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका कारण है वह परमाणु है । परमाणु द्रव्य है उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप ये चारों गुण पाये जाते हैं । इसी कारणसे वह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म कहा जाता है वह परमाणु अविभागी होता है, क्योंकि उसका आदि, अन्त और मध्य नहीं है। इसीलिए उसका दूसरा भाग नहीं होता। जैनदर्शनकी दृष्टिसे द्रव्य और गुणमें प्रदेशभेद नहीं होता। इसलिए जो प्रदेश परमाणुका है वही चारों गुणोंका भी है । अतः इन चारों गुणोंको परमाणुसे जुदा नहीं किया जा सकता । फिर भी जो किसी द्रव्यमें किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती उसका कारण परमाणुका परिणामित्व है, परिणमनशील होनेके कारण हो कहीं किसी गुणकी उद्भूति देखी जाती है और कहीं किसी गुणकी अनुभूति । किन्तु परमाणु शब्दरूप नहीं है। पुद्गलके दो भेद है-परमाणु और स्कन्ध । प्राचीन शास्त्रोंमें परमाणुका म्वरूप इस प्रकार बतलाया है 'अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं व इंदियगेझं। जं दवं अविभागी तं परमाणु वियाणाहि ॥' __ 'जो स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अन्तरूप है, अर्थात् जिसमें आदि, मध्य और अन्तका भेद नहीं है और जो इन्द्रियोंके द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अविभागी द्रव्यको परमाणु जानो।' 'सव्वेसि खंधाणं जो अंतोतं वियाण परमाणू । सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो ॥७७॥'-पंचास्ति० 'सब स्कन्धोंका जो अन्तिम खण्ड है, अर्थात् जिसका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता, उसे परमाणु जानो। वह परमाणु नित्य है, शब्दरूप नहीं है, एक प्रदेशी है, अविभागी है और मूर्तिक है। 'एयरसवण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसदं । खधंतरिदं दवं परमाणुं तं वियाणाहि ॥८१॥'-पञ्चास्ति० 'जिसमें एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श गुण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त होते हैं, जो शब्दकी उत्पत्तिमें कारण तो हैं किन्तु स्वयं शब्दरूप नहीं है और स्कन्धसे जुदा है, उसे परमाणु जानो।' __ ऊपरके इस विवेचनसे परमाणुके सम्बन्धमें अनेक बातें ज्ञात होती हैं। पुद्गलके सबसे छोटे अविभागी अंशको परमाणु कहते हैं । वह परमाणु एकप्रदेशी होता है, इसीलिये उसका दूसरा भाग नहीं हो सकता । उसमें कोई एक रस, कोई एक रूप, कोई एक गंध और शीत-उष्णमेंसे एक तथा स्निग्ध रूक्षमेंसे एक, इस तरह दो स्पर्श होते हैं। यद्यपि परमाणु नित्य है तथापि स्कन्धोंके टूटनेसे उसकी उत्पत्ति होती है । अर्थात् अनेक परमाणुओंका समूहरूप स्कन्ध जब विघटित होता है तो विघटित होते होते उसका अन्त परमाणु रूपोंमें होता है, इस दृष्टिसे परमाणुओंकी भी उत्पत्ति मानी गई है। किन्तु द्रव्यरूपसे तो परमाणु नित्य ही है। ___ अनेक परमाणुओंके बन्धसं जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध कहते हैं। दो परमाणुओंके मेलसे द्वयणुक बनता है, तीन परमाणुओंके मेलसे त्र्यणुक तैयार होता है। इसी तरह, संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंके मेलसे संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तैयार होते हैं। हम जो कुछ देखते हैं वह सब स्कन्ध ही हैं। धूपमें जो कण उड़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, वे भी स्कन्ध ही हैं। 'यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि आधुनिक रसायन शास्त्र (Chemistry ) में जो 'अटोम' माने गये हैं वे जैन परमाणुओंके समकक्ष नहीं हैं। यद्यपि 'अटोम' का मतलब आरम्भमें यही लिया गया था कि जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता । तथापि अब यह प्रमाणित हो गया है कि 'अटोम' प्रोटोन न्यूट्रोन और एलेक्ट्रोनका एक पिण्ड है। परमाणु १ 'Cosmology old and new, By Pro. G. R.Jain. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तो वह मूल कण है जो दूसरोंके मेलके विना स्वयं कायम रहता है। पुद्गल द्रव्यकी अनेक पर्यायें होती हैं । यथा 'सदो बंधो सुहुमो थूलो संठाणभेदतमछाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥१६॥'-द्रव्यसं० 'शब्द, वन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, चाँदनी और धूप ये सब पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें हैं।' ___ अन्य दार्शनिकोंने शब्दको आकाशका गुण माना है, किन्तु जैन दार्शनिक उसे पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानते हैं। वे लिखते हैं 'सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो । पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो ॥७१॥'-पञ्चास्ति. 'शब्द स्कन्धसे उत्पन्न होता है। अनेक परमाणुओंके बन्धविशेषको स्कन्ध कहते हैं। उन स्कन्धोंके परस्परमें टकरानेसे शब्दोंकी उत्पत्ति होती है।' __ जैनोंका कहना है कि यदि शब्द आकाशका गुण होता तो मूर्तिक कर्णेन्द्रियके द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाशका गुण भी अमूर्तिक ही होगा। और अमूर्तिकको मूर्तिक इन्द्रिय नहीं जान सकती। तथा शब्द टकराता भी है, कुएँ वगैरहमें आवाज करनेसे प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है । शब्द रोका भी जाता है, ग्रामोफोनके रिकार्ड, टेलीफोन आदि इसके उदाहरण हैं। शब्द गतिमान भी है। आधुनिक विज्ञान भी शब्दमें गति मानता है। तथा स्कूल में लड़कोंको प्रयोग द्वारा बतलाया जाता है कि शब्द ऐसे आकाशमें गमन नहीं कर सकता जहाँ किमी भी प्रकारका 'मैटर' न हो। अतः विज्ञानसे भी शब्द आकाशका गुण सिद्ध नहीं होता। अतः शब्द मूर्तिक है। बन्धका मतलब केवल दो वस्तुओंका परस्परमें मिल जाना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास ६६ मात्र नहीं है। किन्तु बन्ध उस सम्बन्ध विशेषको कहते हैं, जिसमें दो चीजें अपनी असली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती हैं। उदाहरणके लिये आक्सीजन और हाइड्रोजन नामक दो हवाएँ हैं। ये दोनों जब परस्परमें मिलती है तो पानीरूप हो जाती हैं। इसी तरह कपूर पीपरमेण्ट और सत अजवायन परस्परमें मिलकर एक द्रव औषधीका रूप धारण कर लेते हैं । यह बन्ध है । यदि ऐसा न माना जाये तो जिस तरह वस्त्रमें रंग-विरंगे धागोंका संयोग होनेपर भी सब धागे अलग-अलग ही रहते हैं, एकका दूसरेपर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी तरह यदि परमाणुओंका भी केवल संयोगमात्र ही माना जाये और बन्धविशेष न माना जाये तो उनके संयोगसे स्थिर स्थूल वस्तुकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि बन्धमें जो रसायनिक सम्मिश्रण होता है, केवल संयोगमें वह संभव नहीं है । और रसायनिक सम्मिश्रणके बिना स्कन्ध उत्पन्न नहीं हो सकता । इसीलिये जैन दर्शनमें बन्धके स्वरूपका विश्लेपण बड़ी बारीकीसे किया गया है । उसमें बतलाया है कि स्निग्ध और रूक्षगुणके निमित्तसे ही परमाणुओंका बन्ध होता है। परमाणुमें अन्य भी अनेक गुण हैं, किन्तु बन्ध करानेमें कारण केवल दो ही गुण हैं-स्निग्धता-चिक्कणता और रूक्षता-रूखापना । स्निग्ध गुणवाले परमाणुआंका भी बन्ध होता है, रूक्षगुणवाले परमाणुओंका भी बन्ध होता है और स्निग्ध रूक्षगुणवाले परमाणुओंका भी बन्ध होता है। किन्तु जघन्य गुणवालोंका वन्ध नहीं होता और न समान गुणवालोंका ही वन्ध होता है, क्योंकि इस प्रकारके गुणवाले परमाणु यद्यपि परस्परमें मिल सकते हैं किन्तु स्कन्धको उत्पन्न नहीं कर सकते । अतः दो अधिक गुणवालोंका ही परस्परमें बन्ध हो सकता है; क्योंकि अधिक गुणवाला परमाणु अपनेसे दो कम गुणवाले परमाणुसे मिलकर एक तीसरी अवस्था धारण करता है, इसीका नाम बन्ध है । यदि दोसे अधिक या कम गुणवालोंका भी बन्ध मान लिया Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनधर्म जाय तो अधिक विषमता हो जानेके कारण अधिक गुणवाला कम गुणवालोंको अपनेमें मिला लेगा, किन्तु कम गुणवाला अधिक गुणवालेपर अपना उतना प्रभाव नहीं डाल सकेगा जितना रसायनिक सम्मिश्रणके लिये आवश्यक है । अतः दो अधिक गुणवालोंका ही बन्ध होता है, और वन्धसे स्कन्धों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकारका बन्ध पुद्गल द्रव्यमें हो संभव है अतः बन्ध भी पुद्गलकी पर्याय है । इसी तरह मोटापन, दुबलापन, गोल, तिकोन, चौकोर आदि आकार और टूट-फूट भी मूर्ति कद्रव्य में ही संभव है । अतः वे भी पुद्गलकी पर्याय हैं। जैनदृष्टिसे अन्धकार भी वस्तु है, क्योंकि वह दिखाई देता है और उसमें तरतमभाव पाया जाता है । जैसे, गाढ़ा अन्धकार, हलका अन्धकार आदि । दूसरे दार्शनिक अन्धकारको केवल प्रकाशका अभाव ही मानते हैं, किन्तु जैनदार्शनिक उसे केवल अभावमात्र न मानकर प्रकाशकी ही तरह एक भावात्मक चीज मानते हैं। और जैसे सूर्य, चाँद बगैरहका प्रकाश, जो धूप और चाँदनीके नामसे पुकारा जाता है, पुद्गलकी पर्याय हैं वैसे ही अन्धकार भी पुद्गलकी पर्याय हैं। छाया भी पुद्गलकी पर्याय है, क्योंकि किसी मूर्तिमान् वस्तुके द्वारा प्रकाशके रुक जानेपर छाया पड़ती हैं । इस प्रकार इन्द्रियोंके द्वारा हम जो कुछ देखते हैं, सूँघते हैं, छूते हैं, चखते हैं और सुनते हैं वह सब पुद्गल द्रव्यकी ही पर्याय हैं। २. धर्मद्रव्य और ३. अधर्मद्रव्य धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यसे मतलब पुण्य और पापसे नहीं हैं, किन्तु ये दोनों भी जीब और पुद्गलकी ही तरह दो स्वतंत्र द्रव्य हैं जो जीव और पुद्गलोंके चलने और ठहरनेमें सहायक होते हैं । छः द्रव्योंमेंसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, इनमें इलन-चलन नहीं होता, शेष जीब Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और पुद्गल ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। इन दोनों द्रव्योंको जो चलनेमें सहायता करता है वह धर्मद्रव्य है और जो ठहरनेमें सहायता करता है वह अधर्मद्रव्य है। यद्यपि चलने और ठहरनेकी शक्ति तो जीव पुद्गलमें है ही, किन्तु बाह्य सहायताके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नहीं हो सकती। जैसे परिणमन करनेकी शक्ति तो संसारकी प्रत्येक वस्तुमें मौजूद है, किन्तु कालद्रव्य उसमें सहायक है उसकी सहायताके बिना कोई वस्तु परिणमन नहीं कर सकती। इसी तरह धर्म और अधर्मकी सहायताके विना न किसीमें गति हो सकती है और न किसीकी स्थिति हो सकती है। ये दो द्रव्य ऐसे हैं, जिन्हें जैनोंके सिवा अन्य किसी भी धर्मने नहीं माना । दोनों द्रव्य आकाशकी तरह ही अमूर्तिक हैं और समस्त लोकव्यापी हैं। जैसा कि कहा है धम्मत्थिकायमरमं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं । लोगोगाद पुटं पिहुलमसंखादियपदेसं ॥८३॥'-पंचास्ति । 'धर्मद्रव्यमें न रस है, न रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, और न वह शब्दरूप ही है । तथा समस्तलोकमें व्याप्त है, अखंडित है और असंख्यात प्रदेशी है।' 'उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥८॥'-पंचास्ति। 'जैसे इस लोकमें जल मछलियोंके चलनेमें सहायक है वैसे ही धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंको चलने में सहायक है।' 'जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वंमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥८६॥'-पंचास्ति । 'जैसा धर्मद्रव्य है वैसा ही अधर्मद्रव्य है। अधर्मद्रव्य ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंको पृथ्वीकी तरह ठहरनेमें सहायक है।' सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्म द्रव्य प्रेरक कारण नहीं हैं, अर्थात् किसीको बलात् नहीं चलाते हैं और न बलात् Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ जैनधर्म ठहराते हैं। किन्तु चलते हुएको चलनेमें और ठहरते हुएको ठहरनेमें सहायक होते हैं। यदि उन्हें गति और स्थितिमें मुख्य कारण मान लिया जाये तो जो चल रहे हैं वे चलते ही रहेंगे और जो ठहरे हैं वे ठहरे ही रहेंगे। किन्तु जो चलते हैं वे ही ठहरते भी हैं । अतः जीव और पुद्गल स्वयं ही चलते है और स्वयं ही ठहरते हैं, धर्म और अधर्म केवल उसमें सहायकमात्र हैं।' ४. आकाशद्रव्य जो सभी द्रव्योंको स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य अमूर्तिक और सर्वव्यापी है। इसे अन्य दार्शनिक भी मानते हैं। किन्तु जैनोंकी मान्यतामें उनसे कुछ अन्तर है। जैनदर्शनमें आकाशके दो भेद माने गये हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । सर्वव्यापी आकाशके मध्यमें लोकाकाश है और उसके चारों ओर सर्वव्यापी अलोकाकाश है। १. प्रो० धासीराम जैनने अपनी 'कासमोलॉजी ओल्ड एण्ड न्यु' नामकी पुस्तकमें धर्मद्रव्यको तुलना आधुनिक विज्ञानके ईथर नामक तत्त्वसे और अधर्म द्रव्यकी तुलना सर आइजक न्यूटनके आकर्षण सिद्धान्त से की है। क्योंकि वैज्ञानिकोंने 'ईथर' को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य माननेके साथ गतिका आवश्यक माध्यम भी माना है. जैनोंने धर्मद्रव्यको भी ऐसा ही माना है। अधर्मद्रव्य और विज्ञानके आकर्पण सिद्धान्तको तुलना करते हुए प्रोफेसर जैनने लिखा है-यह जैनधर्मके अधर्मद्रव्य विषयक सिद्धान्तकी सबसे बड़ी विजय है कि विश्वकी स्थिरताके लिये विज्ञानने अदृश्य आकर्षणशक्तिकी सत्ताको स्वयंसिद्ध प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीनने उसमें सुधार करके उसे क्रियात्मकरूप दिया। अब आकर्षण सिद्धान्तको सहायक कारणके रूपमें माना जाता है, मूल कर्ताके रूपमें नहीं, इसलिये अब वह जैनधर्मविषयक अधर्मद्रव्यकी मान्यताके बिल्कुल अनुरूप बैठता है ।' पे-४४ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १०३ लोकाकाशमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं और अलोकाकाशमें केवल आकाशद्रव्य ही पाया जाता है। जैसा कि लिखा है 'जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥९१॥'-पंचास्ति । 'जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्य लोकसे बाहर नहीं हैं । और आकाश उस लोकके अन्दर भी है और बाहर भी है, क्योंकि उसका अन्त नहीं है।' सारांश यह है कि आकाश सर्वव्यापी है। उस आकाशके बीचमें लोकाकाश है, जो अकृत्रिम है-किसीका बनाया हुआ नहीं है। न उसका आदि है और न अन्त ही है। कटिके दोनों भागों पर दोनों हाथ रखकर और दोनों पैरोंको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके समान लोकका आकार है। नीचेके भागमें सात नरक हैं । नाभि देशमें मनुष्यलोक है और ऊपरके भागमें स्वर्गलोक है। तथा मस्तक प्रदेशमें मोक्षस्थान है। चूंकि जीव शरीरपरिमाणवाला और स्वभावसे ही ऊपरको जानेवाला है अतः कर्मबन्धनसे मुक्त होते ही वह शरीरमेंसे निकलकर ऊपर चला जाता है और जाकर मोक्षस्थान में ठहर जाता है। उससे आगे वह जा नहीं सकता, क्योंकि गमनमें सहायक धर्मद्रव्य वहींतक पाया जाता है, उससे आगे नहीं पाया जाता। और उसकी सहायताके विना वह आगे जा नहीं सकता। इसीलिये जब कुछ दार्शनिकोंने जैनोंसे यह प्रश्न किया कि धर्म और अधर्म द्रव्यकी आवश्यकता ही क्या है, आकाश उनका भी कार्य कर लेगा तो उन्होंने उत्तर दिया'आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि । उड्ढं गदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥९२॥'-पंचास्ति । 'यदि आकाश अवगाहके साथ-साथ गमन और स्थितिका भी कारण हो जायेगा तो ऊर्ध्वगमन करनेवाले मुक्त जीव मोक्षस्थानमें कैसे ठहर सकेंगे।' Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनधर्म इस पर कहा जा सकता है कि मुक्तजीव ऊपर लोकके अग्रभागमें यदि नहीं ठहर सकेंगे तो न ठहरें। मात्र उन्हें ठहरानेके लिये ही तो दो द्रव्य नहीं माने जा सकते ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं 'जम्हा उवरिमाणं सिद्धाणं जिणवरेहि पण्पत्तं तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थित्ति ।।६३॥' -पंचास्ति । 'यतः भगवान जिनेन्द्रने मुक्त जीवोंका स्थान ऊपर लोकके अग्रभागमें बतलाया है, अतः आकाश गति और स्थितिका निमित्त नहीं है।' तथा'जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसि । पसजदि अलोगहाणी लोगस्स अंतपरिबुड्ढी ॥६४||-पंचास्ति । 'यदि आकाश जीव और पुद्गलोंके गमन और स्थितिमें भी कारण होता है तो ऐसा माननेसे लोककी अन्तिम मर्यादा बढ़ती है और अलोकाकाशकी हानि प्राप्त होती है, क्योंकि फिर तो जीव और पुद्गल गति करते हुए आगे बढ़ते जायँगे। और ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते जायेंगे त्यों-त्यों लोक बढ़ता जायेगा और अलोक घटता जायेगा।' इसपर भी यह कहा जा सकता है कि लोककी वृद्धि और अलोकको हानि यदि होती है तो होओ, तो उसपर पुनः आचार्य कहते हैं तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णाकासं । इदि जिणवरेहि भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ॥६५॥'-पंचास्ति । 'जिनवर भगवानने श्रोताजनोंको लोकका स्वभाव ऐसा ही बतलाया है । अतः धर्म और अधर्मद्रव्य ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं।' आशय यह है कि एक ही आकाशके दो विभाग कायम रखने में प्रधान कारण धर्म और अधर्मद्रव्य हैं। इन दोनों Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १०५ द्रव्योंकी वजहसे ही जीव और पुद्गल लोकाकाशकी मर्यादासे बाहर नहीं जा सकते। जैनेतर दार्शनिकोंने आकाश द्रव्यको मानकर भी न तो लोकका कोई खास आकार माना और न आत्माको सक्रिय और शरीर परिमाणवाला ही माना। इसलिये उसका नियमन करनेके लिये उन्हें धर्म और अधर्म नामके द्रव्य माननेकी आवश्यकता भी प्रतीत नहीं हुई। किन्तु जैनधर्ममें वैसी व्यवस्था होनेसे आकाशसे जुदे, किन्तु उसके समकक्ष दो द्रव्य और माने गये। इस तरह धर्म और अधर्मद्रव्यके निमित्तसे एक ही आकाश अखण्ड होकर भी दो रूप हो गया है। जितने आकाशमें सब द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशको लोकाकाश कहते हैं और उससे अतिरिक्त जो शुद्ध अकेला आकाश है उसे अलोकाकाश कहते हैं। ___यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि जब जैनधर्म लोकाकाशको सान्त मानता है और उसके आगे अनन्त आकाश मानता है तब प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन समस्तलोकको सान्त मानते हैं किन्तु उसके आगे कुछ नहीं मानते ; क्योंकि प्रो० एडिंगटनका कहना है कि पदार्थविज्ञानका विद्यार्थी कभी भी आकाशको शून्यवत् नहीं मान सकता । ५. कालद्रव्य जो वस्तुमात्रके परिवर्तन करानेमें सहायक है उसे कालद्रव्य कहते हैं । यद्यपि परिणमन करनेकी शक्ति सभी पदार्थोंमें है, किन्तु बाह्य निमित्तके बिना उस शक्तिको व्यक्ति नहीं हो सकती। जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति मौजूद है, किन्तु कीलका साहाय्य पाये बिना वह घूम नहीं सकता, वैसे ही संसारके पदार्थ भी कालद्रव्यका साहाय्य पाये बिना परिवर्तन नहीं कर सकते । अतः कालद्रव्य उनके परिवर्तनमें सहायक है। १. Cosmology Old and New, P. 57. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनधर्म किन्तु वह भी वस्तुओंका बलात् परिणमन नहीं कराता है और न एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप परिणमन कराता है, किन्तु स्वयं परिणमन करते हुए द्रव्योंका सहायकमात्र हो जाता है। काल दो प्रकारका है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर जुदे-जुदे कालाणुकालके अणु स्थित हैं, उन कालाणुको निश्चयकाल कहते हैं। अर्थात् कालद्रव्य नामकी वस्तु वे कालाणु ही हैं। उन कालाणुओंके निमित्तसे हो संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उन्हींके निमित्तसे प्रत्येक वस्तुका अस्तित्व कायम है। आकाशके एक प्रदेशमें स्थित पुद्गलका एक परमाणु मन्दगतिसे जितनी देर में उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर पहुँचता है उसे समय कहते हैं। यह समय कालद्रव्यकी पर्याय है। समयोंके समूहको ही आवली, उछ्वास, प्राण, स्तोक, घटिका, दिन रात आदि कहा जाता है। यह सब व्यवहारकाल हैं । यह व्यवहारकाल सौर मण्डलकी गति और घड़ी वगैरहके द्वारा जाना जाता है तथा इसके द्वारा ही निश्चयकाल अर्थात् कालद्रव्यके अस्तित्वका अनुमान किया जाता है ; क्योंकि जैसे किसी बच्चे में शेरका व्यवहार करनेसे कि 'यह बच्चा शेर है' शेर नामके पशुके होनेका निश्चय किया जाता है, वैसे ही सूर्य आदिकी गतिमें जो कालका व्यवहार किया जाता है वह औपचारिक है, अतः काल नामका कोई स्वतंत्र द्रव्य होना आवश्यक है जिसका उपचार लौकिक व्यवहारमें किया जाता है। कालद्रव्यको अन्य दार्शनिकोंने भी माना है, किन्तु उन्होंने व्यवहारकालको ही कालद्रव्य मान लिया है । कालद्रव्य नामकी अणुरूप वस्तुको केवल जैनोंने ही स्वीकार किया है। यह कालद्रव्य भी आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है। केवल इतना अन्तर है कि आकाश एक अखण्ड है, किन्तु कालद्रव्य अनेक हैं, जैसा कि लिखा है Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ सिद्धान्त लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासिमिव ते कालाणु असंखदव्वाणि ॥-सर्वार्थ० पृ० १९१ 'लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिकी तरह जो एक-एक करके स्थित हैं, वे कालाणु हैं और वे असंख्यात द्रव्य हैं। अर्थात् प्रत्येक कालाणु एक-एक द्रव्य है जैसे कि पुद्गलका प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है।' __ प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंमें इन कालाणुओंके सम्बन्धमें अनेक युक्तियाँके द्वारा अच्छा प्रकाश डाला गया है जो मनन करने योग्य है। ____ इस प्रकार जैनदर्शनमें ६ द्रव्य माने गये हैं। कालको छोड़कर शेष द्रव्योंको पश्चास्तिकाय कहते हैं। 'अस्तिकाय' में दो शब्द मिले हुए हैं एक 'अम्ति' और दूसग 'काय' । 'अस्ति' शब्दका अर्थ है' होता है जो कि अस्तित्व सूचक है, और कायशब्दका अर्थ होता है. 'शरीर' । अर्थात् जैसे शरीर बहुदेशो होता है वैसे ही कालके सिवा शेप पाँच द्रव्य भी बहुप्रदेशी हैं। इसलिये उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। किन्तु कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है; क्योंकि उसके कालाणु असंख्य होनेपर भी परस्परमें सदा अबद्ध रहते हैं, न तो वे आकाशके प्रदेशोंकी तरह सदासे मिले हुए एक और अखण्ड हैं और न पुद्गल परमाणुओंकी तरह कभी मिलते और कभी विछुड़ते ही हैं। इसलिये वे 'काय' नहीं कहे जाते। प्रदेशके सम्बन्धमें भी कुछ मोटी बातें जान लेनी चाहिये। जितने देशको एक पुद्गल परमाणु रोकता है उतने देशको प्रदेश हैं । लोकाकाशमें यदि क्रमवार एक-एक करके परमाणुओंको बराबर-बराबर सटाकर रखा जाये तो असंख्यात परमाणु समा सकते हैं. अतः लोकाकाश और उसमें व्याप्त धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी कहे जाते हैं। इसी तरह शरीरपरिमाण जीवद्रव्य भी यदि शरीरसे बाहर होकर फैले तो लोकाकाशमें व्याप्त हो सकता है अतः जीवद्रव्य भी असंख्यातप्रदेशी है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म पुद्गलका परमाणु तो एक ही प्रदेशी हैं, किन्तु उन परमाणुओंके समूह से जो स्कन्ध बन जाते हैं वे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होते हैं । अतः पुद्गल द्रव्य भी बहुप्रदेशी है । इस तरह बहुप्रदेशी होनेसे पाँच द्रव्योंको पचास्तिकाय कहते हैं । १०८ ६. यह विश्व और उसकी व्यवस्था यह विश्व, जो हमारी आँखोंके सामने है और जिसमें हम निवास करते हैं, इन्हीं द्रव्योंसे बना हुआ है । 'बना हुआ' से मतलब यह नहीं लेना चाहिये कि किसीने अमुक समयमें इस विश्वकी रचना की है। यह विश्व तो अनादि-अनिधन है, न इसकी आदि ही है और न अन्त ही है, न कभी किसीने इसे बनाया है और न कभी इसका अन्त ही होता है । अनादिकालसे यह ऐसा ही चला आ रहा है और अनन्तकाल तक ऐसा ही चला जायेगा । रहा परिवर्तन, सो वह तो प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । सर्वथा नित्य तो कोई वस्तु है ही नहीं । हो भी नहीं सकती, क्योंकि वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर विश्व में जो वैचित्र्य दिखाई देता है वह संभव नहीं हो सकता । अतः परिवर्तनशील संसारकी मौलिक स्थितिमें कोई परिवर्तन न होते हुए विश्वकी व्यवस्था सदा जारी रहती है । किन्तु कुछ दार्शनिकों और जनसाधारणकी भी ऐसी धारणा है कि इस विश्वका कोई एक रचयिता अवश्य होना चाहिये, जिसकी आज्ञासे विश्वकी व्यवस्था सदा नियमित रीति से जारी रहती है। सृष्टिरचनाके सम्बन्ध में यों तो अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं किन्तु मोटेरूपसे उन्हें तीन भागों में रखा जा सकता है। एक विभागवाले तो यह मानते हैं कि एक परमेश्वर या ब्रह्म ही अनादि अनन्त है । जो एक ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते हैं उनका कहना है कि ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं । यह जो कुछ भी सृष्टि दिखाई दे रही है वह स्वप्नके Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १०९ समान एक प्रकारका भ्रम है। जो परमेश्वरको ही अनादि अनन्त मानते हैं उनका कहना है कि यह सृष्टि भ्रममात्र तो नहीं है। किन्तु इसे परमेश्वरने ही नास्तिसे अस्तिरूप किया है। पहले तो एक परमेश्वरके सिवाय कुछ था ही नहीं। पीछे उसने किसी समयमें अवस्तुसे ही ये सब वस्तुएँ बना दी हैं। जब वह चाहेगा तब फिर वह इन्हें नास्तिरूप कर देगा और तब सिवाय उस एक परमेश्वरके अन्य कुछ भी न रहेगा। दूसरे विभागवाले कहते हैं अवस्तुसे कोई वस्तु बन नहीं सकती, वस्तुसे ही वस्तु बना करती है। संसारमें जीव और अजीव दो प्रकारकी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, वे किसीके द्वारा बनाई नहीं गई है। जिस प्रकार परमेश्वर सदासे है उसी प्रकार जीव और अजीवरूप वस्तुएँ भी सदासे हैं, सदा रहेंगी। परन्तु इन वस्तुओंकी अनेक अवस्थाओंका बनाना और बिगाड़ना उस परमेश्वरके ही हाथमें है। तीसरे विभागवालोंका कहना है कि जीव और अजीव ये दोनों ही प्रकारकी वस्तुएँ अनादिसे हैं और अनन्तकाल तक रहेंगी। इनकी अवस्थाओंको बदलनेवाला और इस विश्वका नियामक कोई तीसरा नहीं है। इन्हों वस्तुओंके परस्परके सम्बन्धसे इन्होंके गुणों और स्वभावोंके द्वारा सब परिवर्तन स्वयमेव होता है। इस प्रकार इन तीनों मतोंमें यद्यपि बहुत अन्तर है तो भी एक वातमें ये तीनों ही सहमत हैं। तीनोंने ही किसी न किसी वस्तुको अनादि अवश्य माना है। पहला ब्रह्म या ईश्वरको अनादि मानता है । वही इस विश्वको बनाता और बिगाड़ता है। दूसरा परमेश्वरके ही समान जीव और अजीवको भी अनादि मानता है। तीसरा जीव और अजीवको ही अनादि मानता है। अतः इन तीनोंमें यह विवाद तो उठ ही नहीं सकता कि बिना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नहीं। और जब यह मान लिया गया कि बिना बनाये सदासे भी कोई या कुछ वस्तुएँ हो सकती हैं तो यह बात भी सभी स्वीकार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनधर्म करेंगे कि वस्तुमें कोई न कोई गुण या स्वभाव भी अवश्य होता हैं, क्योंकि बिना किसी गुण या स्वभावके कोई वस्तु हो ही नहीं सकती। और जैसे वह वस्तु अनादि है वैसे ही उसका गुण या स्वभाव भी अनादि है। सारांश यह कि दो बातों में संसारके सभी मतवाले एकमत हैं कि संसारमें कोई वस्तु बिना बनाये अनादि भी हुआ करती है और बिना बनाये उसके गुण और स्वभाव भी अनादि होते हैं। अब केवल यह निश्चय करना है कि कौन वस्तु बिना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु सादि है ? जब हम संसारकी ओर दृष्टि देते हैं तो संसारमें तो हमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं मिलती जो बिना किसी वस्तुके ही बन गई हो। और न कोई ऐसी वस्तु दिखाई देती है जो किसी समय एकदम नास्तिरूप हो जाती हो। यहाँ तो वस्तुसे ही वस्तु बनती देखी जाती है । सारांश यह है कि न तो कोई सर्वथा नवीन वस्तु पैदा होती है और न कोई वस्तु सर्वथा नष्ट ही होती है। किन्तु जो वस्तुएँ पहलेसे चली आती हैं उन्हीं का रूप बदल-बदलकर नवीन नवीन वस्तुएँ दिखाई देती रहती हैं । जैसे, सोनेसे अनेक प्रकारके आभूषण बनाये जाते हैं। सोनेके बिना ये आभूषण नहीं बन सकते। फिर उन्हीं आभूषणोंको तोड़कर दूसरे प्रकारके आभूषण बनाये जाते हैं। सोना उनमें भी रहता है । इसी प्रकार मिट्टी, जल, वायु और धूपका संयोग पाकर बीज ही वृक्षरूप परिणत होता है । वृक्षको जला देनेपर उसके कोयले हो जाते हैं और कोयले जलकर राख हो जाते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि वस्तुसे ही वस्तुकी उत्पत्ति होती है । तथा जगत्में एक भी परमाणु न तो कम होता है और न बढ़ता है । सदा जितनेके तितने ही रहते हैं । हाँ, उनकी अवस्थाएँ बदल-बदलकर नई-नई वस्तुओंको सृष्टि होती रहती है। अतः यह बात सिद्ध होती है कि संसारमें कोई वस्तु अस्तिसे नास्तिरूप नहीं होती और नास्तिसे अस्तिरूप नहीं Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १११ होती । किन्तु हरेक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदासे चली आती है और आगे भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेगी । अर्थात् संसारको जीव व अजीवरूप सभी वस्तुएँ अनादि अनन्त हैं और उनके अनेक नवीनरूप होते रहनेसे ही यह संसार चल रहा है । इस प्रकार जीव व अजीवरूप सभी वस्तुओंकी नित्यता सिद्ध हो जानेपर अब केवल एक बात निर्णय करनेके योग्य रह जाती है कि संसारके ये सब पदार्थ किस तरहसे नवीन-नवीन रूप धारण करते हैं । इस बातका निर्णय करनेके लिये जब हम संसारकी ओर दृष्टि डालते हैं तो हमें मालूम होता है कि मनुष्य मनुष्यसे ही पैदा होता है। इसी तरह पशु-पक्षी भी अपने माँबापसे ही पैदा होते देखे जाते हैं। बिना माँ-बापके उनकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । गेहूँ, चना आदि अनाज तथा आम, अमरूद आदि वनस्पतियाँ भी अपने-अपने बोज, जड़ या शाखा वगैरह से ही उत्पन्न होती हुई देखी जाती हैं। और जैसे ये आज उत्पन्न होती हुई देखी जाती हैं वैसे ही पहले भी उत्पन्न होती होंगी । इस तरह इन सब वस्तुओं की उत्पत्ति अनादि मानने पर इस धरती को भी अनादि मानना ही पड़ता है । जिस प्रकार वस्तुएँ अनादि अनन्त हैं उसी प्रकार उनके गुण और स्वभाव भी अनादि अनन्त हैं । जैसे, अग्निका स्वभाव उष्ण है । यह उसका स्वभाव अनादिसे ही है और अनन्त कालतक रहेगा । इसी प्रकार अन्य वस्तुओंके सम्बन्धमें भी समझ लेना चाहिये । यदि वस्तुओंके गुण और स्वभाव सदा बदलते रहते तो मनुष्यको किसी वस्तुको छूने या उससे पास जाने तकका साहस भी न होता । उसे सदा यह भय रहता कि न जाने आज इसका क्या स्वभाव हो गया हैं ? परन्तु उनके गुण और स्वभाव के विषयमें वह सदा निर्भय रहता है क्योंकि वह उनके स्वभाव के विषयमें अपने और अपनेसे पूर्ववर्ती सज्जनोंके अनुभवपर पूरा भरोसा करता है । अतः यह सिद्ध Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनधर्म होता है कि वस्तुओंकी ही तरह उनके गुण और स्वभाव भी अनादि-अनन्त हैं । इसी प्रकार संसारकी वस्तुओंकी जाँच करनेपर यह भी मालूम होता है कि दो या तीन वस्तुओंको मिलानेसे जो वस्तुएँ आज बन सकती हैं वे पहले भी वन सकती थीं। जैसे नीला और पीला रंग मिलानेसे आज हरा रंग बन जाता है, यह रंग पहले भी बन सकता था और आगे भी बनता रहेगा। ऐसे ही किसी एक वस्तुकं प्रभावसे जो परिवर्तन दूसरी वस्तुमें हो जाता है वह पहले भी होता था या हो सकता था और आगे भी होता रहेगा । जैसे; आगकी गर्मी से जो भाप आज बनती है वही पहले भी बनती थी और आगेकी भी बनती रहेगी। जलानेसे जैसे आज लकड़ी, आग, कोयला राखरूप हो जाती हैं वैसे ही वे पहले भी होती थीं और आगे भी होंगी । सारांश यह है कि अन्य वस्तुसे प्रभावित होने तथा अन्य वस्तुओंकों प्रभावित करनेके गुण और स्वभाव भी वस्तुओंमें अनादि हैं। इस प्रकार विचार करनेपर जब यह बात सिद्ध हो जाती हैं। कि वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्ति के समान या मुर्गीसे अण्डा और अण्डेसे मुर्गीकी उत्पत्तिके समान संसारके सभी मनुष्य, पशु पक्षी और वनस्पतियाँ सन्तान दर सन्तान अनादि कालसे चले आते हैं। किसी समय में इनका आदि नहीं हो सकता और इन सबके अनादि होनेसे इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी हैं। साथ ही वस्तुओंके गुण स्वभाव और एक दूसरेपर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी प्रकृति भी अनादि कालसे ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ढाँचा ही मनुष्यकी आँखोंके सामने हो जाता । उसे स्पष्ट प्रतीत होते लगता है कि संसारमें जो कुछ हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभावके ही कारण हो रहा है। इसके सिवा न तो कोई ईश्वरीय शक्ति ही इसमें कोई कार्य कर रही है और न उसकी कोई जरूरत ही है। जैसे, जब समुद्रके Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ११३ पानीपर सूरजकी धूप पड़ती है तो उस धूपमें जितना ताप होता है उसीके अनुसार समुद्रका पानी भापरूप बन जाता है । और जिधरकी हवा होती है उधरको हो भाप बनकर चला जाता है । फिर जहाँ कहीं भी उसे इतनी ठंड मिल जाती है कि वह पानीका पानी हो जावे वहीं पानी हो कर बरसने लगता है । फिर वह वरसा हुआ पानी स्वभावसे ही ढालको ओर बहता हुआ बहुत-सी चीजोंको अपने साथ लेता हुआ चला जाता है । और बहुता बहुता नदियोंके द्वारा समुद्रमें ही जा पहुँचता है । धूप, हवा, पानी और मिट्टी आदिके इन उपर्युक्त स्वभावोंसे दुनियामें लाखों करोड़ों परिवर्तन हो जाते हैं, जिनसे फिर लाखों करोड़ों काम होने लग जाते हैं। अन्य भी जिन परिवर्तनोंपर दृष्टि डालते हैं उनमें भी वस्तु स्वभावको ही कारण पाते हैं । जब संसारकी सारी वस्तुएँ और उनके गुण स्वभाव सदासे हैं और जब संसार की सारी वस्तुएँ दूसरी वस्तुओंसे प्रभावित होती हैं और दूसरी वस्तुओंपर अपना प्रभाव डालती हैं तब तो यह बात जरूरी है कि उनमें सदासे ही आदान-प्रदान होता रहता है और उसके कारण नाना परिवर्तन होते रहते हैं । यही संसारका चक्र है जो वस्तुस्वभाव के द्वारा अपने आप हो चल रहा है । किन्तु अविचारी मनुष्य उससे चकित होकर भ्रम में पड़े हुए हैं। ८ विचारनेकी बात है कि जब समुद्रके पानीकी ही भाप बनकर उसका ही बादल बनता है तब यदि वस्तु स्वभाव के सिवाय कोई दूसरा ही वर्षाका प्रबन्ध करनेवाला होता तो वह कभी भी उस समुद्रपर पानी न बरसाता जिसके पानीकी भापसे ही वह बादल बना था । परन्तु देखने में तो यही आता है कि बादलको जहाँ भी इतनी ठंड मिल जाती है कि भापका पानी बन जावे वहीं वह बरस पड़ता है । यही कारण है कि वह समुद्रपर भी वरसता है और धरतीपर भी । बादलको तो इस बातका ज्ञान ही नहीं कि उसे कहाँ बरसना चाहिये और कहाँ नहीं । इसीसे कभी वर्षा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनधर्म समयपर होती है और कभी कुसमयमें। बल्कि कभी कभी तो ऐसा होता है कि सारी फसल भर अच्छी वर्षा होकर अन्तमें एक आध वर्षाकी ऐसी कमी हो जाती हैं कि सारी करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा प्रबन्धकर्ता होता तो ऐसी अन्धाधुन्धी कभी भी न होती । इसपर शायद यह कहा जाये कि उसकी तो इच्छा ही यह थी कि इस खेत में अनाज पैदा न हो या कम पैदा हो | परन्तु यदि यही बात होती तो वह सारी फसल भर अच्छी वर्षा करके उस खेतीको इतनी बड़ी ही क्यों होने देता। बल्कि वह तो उस किसानको बीज ही न बोने देता। यदि किसानपर उसका काबू नहीं चल सकता था तो खेतमें पड़े बीजको ही वह न उगने देता यदि बीजपर भी उसका काबू न था तो बारिशकी एक बूँद भी उस खेतमें न पड़ने देता । तथा यदि संसारके उस प्रबन्धकर्ता की यही इच्छा होती कि इस वर्ष अनाज ही पैदा न हो या कमती पैदा हो तो वह उन खेतोंको ही न सुखाता जो बारिशके ही ऊपर निर्भर हैं बल्कि उन खेतोंको भी जरूर सुखाता जिनमें नहरसे पानी आता है । परन्तु देखनेमें यही आता है कि जिस वर्ष वर्षा नहीं होती उस वर्ष उन खेतोंमें तो कुछ भी पैदा नहीं होता जो वर्षापर निर्भर हैं, और नहरसे पानी आनेवाले खेतों में उसी वर्ष सब कुछ पैदा हो जाता है । इससे सिद्ध है कि संसारका कोई एक प्रबन्धकता नहीं है बल्कि वस्तुस्वभाव के कारण ही जब वर्षाके निमित्त कारण जुट जाते हैं तब पानी बरस जाता है और जब वे कारण नहीं जुटते तब पानी नहीं बरसता । वर्षाको इस बातका ज्ञान नहीं है कि उसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी और संसारके जीवोंका लाभ होगा या हानि । इसीसे ऐसी गड़बड़ी हो जाती हैं कि जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ एक बूंद भी पानी नहीं पड़ता और जहाँ आवश्यकता नहीं होती वहाँ खूब वर्षा हो जाती है। किसी प्रबन्धकर्ताके न होनेके कारण ही मनुष्यने नहर निकालकर और Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ११५ कुएँ आदि खोदकर यह प्रबन्ध किया है कि यदि वर्षा न हो तो भी अपने खेतोंको पानी देकर वह अनाज पैदा कर मके। __ इसके सिवाय जब प्रत्येक धर्मके अनुसार संसारमें इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारीभारी अन्याय देखने में आते हैं तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगत्का कोई प्रबन्धकर्ता भी है, जिसकी आज्ञाको न मानकर ही ये सब अपराध और पाप हो रहे हैं। शायद कहा जाये कि राजाकी भी तो आज्ञाभंग होती रहती है। किन्तु राजा न तो सर्वज्ञ ही होता है और न सर्वशक्तिमान । इसलिये न तो उसे सब अपराध करनेवालोंका ही पता रहता है और न वह सब प्रकारके अपराधोंको दूर ही कर सकता है। परन्तु जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो और एक छोटेसे परमाणुसे लेकर आकाश तककी गति और स्थितिका का कारण हो, जिसकी इच्छाके बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता हो, उसके सम्बन्धमें यह बात कभी भी नहीं कही जा सकती। एक ओर तो उसे संसारके एक एक कणका प्रबन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधोंके रोकनेमें उसे असमर्थ ठहराना, यह तो उस प्रबन्धकर्ताका परिहास है। तथा यदि कोई इस संसारका प्रबन्धक होता तो वह यह अवश्य बतलाता कि इस समय हमें जो सुख या दुःख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है जिससे हम आगामीको बुरे कृत्योसे बचते और अच्छे कामोंकी ओर लगते । परन्तु हमें तो यह भी मालूम नहीं कि पुण्य क्या है और पाप क्या है ? एक ही कृत्यको कोई पाप कहता है और कोई पुण्य । यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फैले हुए हैं और तमाशा यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्वशक्तिमान् परमात्मा का बतलाया हुआ कहते हैं। जहाँ तक हम समझते हैं ऐसा अन्धेर तो मामूली राजाओंके राज्यमें भी नहीं होता। प्रत्येक राजाके राज्यमें जो कानून प्रचलित होता है, यदि कोई मनुष्य उसके Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म विपरीत नियम चलाना चाहता है या उसके विरुद्ध प्रचार करता है तो वह दण्ड पाता है। किन्तु सर्वशक्तिमान परमात्माके राज्यमें सैकड़ों ही मतोंके प्रचारक अपने अपने धर्मका उपदेश करते हैं अपने अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा करते हैं। और यह सब कुछ होते हुए भी संसारके प्रवन्धकर्ता उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी ओरसे छ भी रोकटोक इस विषयमें नहीं होती। ऐसी स्थितिमें तो कभी भी यह नहीं माना जा सकता कि कोई सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस संसारका प्रबन्ध करता है। बल्कि यही माननेके लिये विवश होना पड़ता है कि वस्तु स्वभावपर ही संसारका सारा ढाँचा बँधा हुआ है और उसीके अनुसार जगतका सब प्रबन्ध चला आता है। यही कारण है कि यदि कोई मनुष्य वस्तु स्वभावके विपरीत आचरण करता है तो ये सव वस्तुएँ उसको मना करने या रोकने नही जाती। और न अपने स्वभावके अनुसार कभी अपना फल देनेसे ही चूकती हैं । जैसे, आगमें चाहे तो कोई बालक नादानीसे अपना हाथ डाल दे या किसी बुद्धिमान पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, वह आग अपना काम अवश्य करेगी। मनुष्यके शरीर में सैकड़ों बीमारियाँ ऐसी ऐसी होती हैं जो उसके अज्ञात दापोंका ही फल होती हैं। परन्तु प्रकृति या वस्तु स्वभाव उसे नहीं बताते कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे दोषोंका फल भी हमें वस्तु स्वभावके अनुसार स्वयं मिल जाता है। इस प्रकार वस्तु स्वभावके अनुसार तां यह बात ठीक बैठ जाती है कि मुख दुःख भोगते समय क्यों हमको हमारे उन कृत्योंकी खबर नहीं होती. जिनके फलस्वरूप हमें वह सुख दुःख भोगना पड़ता है। परन्तु किसी प्रबन्धकर्ताके माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नहीं बैठती, बल्कि उल्टा अन्धेर ही दृष्टि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त गोचर होने लगता है। यदि हम यह मानते हैं कि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या वेश्या आदि पापियोंके घर पैदा किया गया है वह अपने भले बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ही ऐसे स्थानमें पैदा किया गया है तो सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वरको प्रबन्धकर्ता माननेको अवस्थामें यह बात ठीक नहीं बैठती; क्योंकि शराबी शराब पीकर और उसका बुरा फल भोगकर भी यदि शराबकी दुकानपर जाता है और पहलेसे भी तेज शराब मांगता है नो वस्तुस्वभावके अनुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि शराबनं उसका दिमाग ऐसा खराब कर दिया है जिससे अब उसको पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब पीनेकी इच्छा होती है । परन्तु जगतके प्रबन्धकर्ता द्वारा ही फल मिलनेको अवस्थामें तो शराब पीनेका ऐसा दण्ड मिलना चाहिये था जिससे वह शराबकी दुकानतक पहँच ही नहीं सकता या फिर कभी उसका नाम ही नहीं लेता। इसी तरह व्यभिचार और चोरी आदिकी भी ऐसी सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे वह कभी भी व्यभिचार या चोरी करने नहीं पाता। जो जीव चोरों या वेश्याओंके घर पैदा किये जाते हैं उन्हें ऐसी जगह पैदा करना तो चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा दिलानेका ही प्रयत्न करना है । सर्वशक्तिमान दयालु परमेश्वरसे तो ऐसी आशा कभी भी नहीं की जा सकती। एसी बातें देखकर यही मानना पड़ता है कि संसारका कोई भी एक बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है। बल्कि वस्तु स्वभावके द्वारा और उसीके अनुसार ही जगतका सव प्रबन्ध चल रहा है खेद है कि मनुष्योंने वस्तु स्वभावको न समझकर संसारका एक प्रबन्धकर्ता मान लिया है। पृथ्वीपर राजाको मनुष्यों के वीचमें प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही मान लिया है । जिस प्रकार राजा लोग खुशामद और स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके वशमें हो जाते हैं और उनकी इच्छाके अनुसार ही Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनधर्म कार्य करने लग जाते हैं उसी प्रकार दुनियाके लोगोंने भी संसार के प्रबन्धकर्ताको खुशामद या स्तुतिसे प्रसन्न होनेवाला मानकर उसकी भी खुशामद करना शुरू कर दिया है और अपने आचरणोंको सुधारना छोड़ बैठे हैं। इसी वजहसे संसारमें पापोंकी वृद्धि होती जाती है। जब मनुष्य इस भ्रामक विचारको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जायेंगे तभी उनके चित्तमें यह विचार जड़ पकड़ सकता है कि जिस प्रकार आँखोंमें मिर्च और घावपर नमक डाल देनेसे दर्दका होना आवश्यक है वह दर्द किसीकी खुशामद या स्तुतिसे दूर नहीं हो सकता, जबतक कि मिर्च या नमकका असर दूर न कर दिया जाये । उस ही प्रकार जैसा हमारा आचरण होगा वैसा ही उसका फल भी हमें अवश्य भोगना पड़ेगा। किसीकी खुशामद या स्तुतिसे उसे टाला नहीं जा सकता। 'जैसी करनी वैसी भरनी, के सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जानेपर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच सकता है और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता है। परन्तु जब तक मनुष्यको यह ख्याल बना रहेगा कि खुशामद करने, केवल स्तुतियाँ पढ़ने या भेंट चढ़ाने आदिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तबतक वह बुरे कामोंसे नहीं बच सकता और न अच्छे कामोंकी तरफ लग सकता है। अतः संसारके लोगोंको चाहिये कि वे वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्त पर विश्वास लावें, अपने अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके लिये सदा तैयार रहें और किसीको खुशामद या स्तुति करनेसे उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असंभव समझें। ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा, वे अपने पैरोंपर खड़े होकर अपने आचारणोंको ठीक वनानेका प्रयत्न करेंगे और तभी दुनियासे सब पाप और अन्याय दूर हो सकेंगे। नहों तो, किसी प्रबन्धकर्ताको माननेको अवस्था में हृदयमें अनेक भ्रम उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके लोग पापोंकी तरफ ही भुकते रहेंगे । जैसे, कोई एक तो यह सोचेगा कि यदि उस सर्व Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त ११९ शक्तिमान परमेश्वरको मुझसे पाप कराना मंजूर नहीं होता तो वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने देता । दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे ऐसा बनाता ही क्यों ? तीसरा कहेगा कि यदि यह पापोंको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता । चौथा सोचेगा कि अब तो यह पाप कर लें फिर उस सर्वशक्तिमानकी खुशामद करके उसे भेंट चढ़ाकर अपराध क्षमा करा लेंगे । सारांश यह है कि संसारका प्रबन्धकर्ता माननेकी अवस्थामें तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ों बहाने बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तु स्वभाव के अनुसार ही संसारका सब कार्य चलता हुआ माननेकी अवस्थामें इसके सिवाय कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेंगे वैसा ही हम उसका फल भी पावेंगे । ऐसा माननेपर हो हम बुरे आचरणोंसे बच सकते हैं और अच्छे आचरणांकी ओर लग सकते है । अतः किसी प्रबन्धकर्त्ता की खुशामद करके या भेंट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे न रहकर हमको स्वयं अपने आचरणोंको सुधारनेकी ओर ही दृष्टि रखनी चाहिये और यही श्रद्धान रखना चाहिये कि यह विश्व अनादि-निधन है इसका कोई एक बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है । ७. जैनदृष्टिसे ईश्वर 'ईश्वर' शब्द के सुनते हो हमें जिन अर्थोंका बोध होता है वे हैं - ऐश्वर्यशाली, वैभवशाली, सर्वशक्तिमान्, स्वामी, अधिकारी, कर्ता हर्ता आदि । इस लोक में जो दर्जा एक स्वतंत्र सम्रादूका है वही परलोकमें ईश्वर या परमेश्वरका माना जाता है । जैसे किसी राजवंशमें जन्म लेनेवालोंको सम्राट्पद अनायास प्राप्त हो जाता है, उसके लिये उन्हें कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वैसे ही वह ईश्वर भी अनादिकालसे संसारके कारण क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासनाओंसे सर्वथा अछूता है, उनका Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनधर्म विनाश कर देनेसं उसे ईश्वरत्वपद प्राप्त नहीं हुआ है, किन्तु सदासे ही उनसे वह सर्वथा रहित है। इसीलिये वह सबसे बड़ा है, सवका गुरु है, सबका ज्ञाता है । जो संसारी जीव क्लेश कर्म आदिको नष्ट करके मुक्त होते हैं, वे कभी भी उसके बराबर नहीं हो सकते । उसका एश्वर्य अविनाशी है, क्योंकि कालके द्वारा उसका कभी नाश नहीं होता। ऐसे अनादि-अनन्त पुरुषविशंपको ईश्वर कहा जाता है। किन्तु जैनधर्ममें इस प्रकारके ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है । उसका कहना है 'नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायमिद्धस्य सर्वथाप्नुपपत्तितः ॥८॥'-आप्तप० । 'कोई सर्वद्रष्टा सदासे कर्मास अछूना हो नहीं सकता; क्योंकि बिना उपायके उसका सिद्ध होना किसी भी तरह नहीं बनता।' असलमें ईश्वरको अनादि माननेके कारण उसे सदा कर्मोसे अछूता माना गया है और चूंकि वह सृष्टिका रचयिता है इसलिये उसे अनादि माना गया है। किन्तु जैनधर्म किसीको इस विश्वका रचयिता नहीं मानता, जैसा कि हम पहले बनला आये हैं । अतः वह किसी एक अनादिसिद्ध परमात्माकी सत्तासे इंकार करता है। उसके यहाँ यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं, बल्कि असंख्य हैं । अर्थात् जैनधर्मके अनुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। उनकी संख्या अनन्त है और आगे भी वे बराबर अनन्तकाल तक होते रहेंगे; क्योंकि जैनसिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ताको लिये हुए मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनन्त आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होंगे। ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर हैं । इन्होंमेंसे कुछ मुक्तात्माओंको जिन्होंने मुक्त होनेसे पहले संसारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था, जैनधर्म तीर्थक्कर मानता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १२१ 1 जैनधर्मका मन्तव्य है कि अनादिकालसे कर्मबन्धनसे लिप्त होनेके कारण जीव अल्पज्ञ हो रहा है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढंके हुए हैं । इन आवरणोंके दूर होनेपर यह जीव अनन्त ज्ञान आदिका अधिकारी होता है अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है । जो जो महापुरुष कर्मबन्धनको काटकर मुक्त हुए हैं, वे सब सर्वज्ञ हैं । कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंका पूर्ण विकास नहीं होने देता । उसके दूर होनेपर प्रत्येक जीव अपनी-अपनी स्वाभाविक शक्तियोंको प्राप्त कर लेता है । मतलब यह है कि जीवोंका कर्मबन्धन तथा जीवोंका मर्यादित किन्तु हीनाधिक ज्ञान इस बातको बतलाता है कि जीवोंकी मुक्ति तथा उनकी सर्वज्ञता असंभव वस्तु नहीं है । तथा जो जो सर्वज्ञ होता है वह कर्मबन्धनको काटकर ही सर्वज्ञ होता है, उसके बिना कोई सर्वज्ञ हो नहीं सकता । इसलिये अनादि सिद्ध कोई नहीं हैं । I कर्मबन्धनका विशेष वर्णन आगे कर्मसिद्धान्त में किया गया है । चार घातिकर्माका नाश करके यह जीव सर्वज्ञ हो जाता है । सर्वज्ञका दूसरा नाम केवली भी है। क्योंकि उसका ज्ञान और दर्शन आत्माके सिवा किसी अन्य सहायककी अपेक्षा नहीं करता, अतः वह केवली कहा जाता है । उसे जीवन्मुक्त भी कहा जा सकता है, क्योंकि यद्यपि अभी वह सशरीर है, किन्तु घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेके कारण मुक्तात्माके ही समान है । वह चार घातियाकर्मोंका नाश कर देता हूँ इसलिये उसे 'अरिहंत' भी कहते हैं। उसे ही 'जिन' कहते हैं, क्योंकि वह कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेता है। ये केवली जिन दो प्रकारके होते हैं - एक सामान्य केवली और दूसरे तीर्थङ्कर केवली । सामान्य केवली अपनी ही मुक्तिकी साधना करते हैं, किन्तु तीर्थकर केवली अपनी मुक्तिकी साधनाके बाद संसारी जीवोंको भी मुक्तिका समस्त दुःखोंसे छूटनेका मार्ग बताते हैं । इनके Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म १२२ उपदेशसे संसारके अनेक जीव तर जाते हैं इसलिये वे तीर्थस्वरूप गिने जाते हैं। जैसे ब्राह्मणधर्म में रामचन्द्रजी आदिको अवताररूप माना जाता है या बौद्धधर्ममें बुद्धकी मान्यता है वैसे ही जैनधर्म में तीर्थङ्करोंकी मान्यता है । किन्तु ये तीर्थङ्कर किसी परमात्माका अवताररूप नहीं होते, बल्कि संसारी जीवोंमेंसे ही कोई जीव प्रयत्न करते-करते लोककल्याणकी भावनासे तीर्थङ्करपद प्राप्त करता है। जब कोई तीर्थङ्करपद प्राप्त करनेवाला जीव माताके गर्भ में आता है तब तीर्थङ्करकी माताको सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं। तीर्थङ्करोंके गर्भावतरण, जन्माभिषेक, जिनदीक्षा, केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति ये पञ्च महाकल्याणक होते हैं, जिनमें इन्द्रादिक भी सम्मिलित होते हैं। इन पञ्च महाकल्याणकरूप पूजाके कारण तीर्थङ्करको 'अर्हत्" भी कहा जाता है। तीर्थङ्कर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यके धारी होते हैं। ये साक्षात् भगवान या ईश्वर होते हैं। जैनसाहित्यमें इनके ऐश्वर्यका बहुत वर्णन मिलता है। ये जन्मसे ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञानके धारी होते हैं। जन्मसे ही इनका शरीर अपूर्व कान्तिमान होता है। इनके निश्वासमें अपूर्व सुगन्धि रहती है। इनके शरीरका रक्त और माँस सफेद होता है। केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् अर्थात् अर्हन् पद प्राप्त कर लेनेपर उनका उपदेश सुननेके लिये पशुपक्षी तक इनकी सभामें उपस्थित होते हैं। इस सभाको 'समव १. 'सम्भवतः इस 'अर्हत्' नाम परसे हिन्दू पुराणकारोंने यह कल्पना कर डाली है कि किसी 'अर्हत्' नामके राजाने जैनधर्मको स्थापना की थी। अर्हत किसीका नाम नहीं है बल्कि जैन तीर्थंकरोंका एक पद है। इस पदको प्राप्त कर लेनेपर ही वे जीवनमुक्त होकर संसारको कल्याणका मार्ग बतलाते हैं वही मार्ग उनके 'जिन' नाम परसे जैनधर्म कहा जाता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ सिद्धान्त सरण' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है 'समानरूपसे सबका शरणभूत' अर्थात् जिसकी शरणमें सब आते हैं। इस सभामें बारह प्रकोष्ठ होते हैं, जिनमें एक प्रकोष्ठ पशुओंके लिये भी होता है। तीर्थङ्करकी वाणीको पशु भी समझ लेते हैं। जहाँ जहाँ इनका विहार होता है वहाँ वहाँ रोग, वैर, महामारी, अतिवृष्टि, दुर्मिन, आदि रह नहीं सकते। तीर्थङ्कर भगवानके पधारनेके साथ ही देशमें सर्वत्र शान्ति छा जाती है। कैवल्यलाभ करनेके पश्चात् ये अपना शेष जीवन संसारके प्राणियोंका उद्धार करनेमें ही व्यतीत करते हैं। इसीसे जैनोंके परमपवित्र पञ्च नमस्कार मंत्रमें अरिहंतको प्रथम स्थान दिया गया है णमो अरिहंताणं-अर्हन्तोंको नमस्कार हो। जब इन अर्हन्तोंकी आयु थोड़ी शेष रह जाती है तब ये योगका निरोध करके बाकी बचे चार अघातिया कर्मोको भी नष्ट कर देते हैं। चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश होनेपर इन्हें मुक्तिकी प्राप्ति होती है। इनका शरीर यहीं छूट जाता है और अपने स्वभाविक ज्ञानादि गुणोंसे युक्त केवल शुद्ध आत्मा रह जाता है, जो मुक्त होनेके पश्चात् स्वाभाविक उद्ध्वंगमनके द्वारा लोकके ऊपर अग्रभागमें जाकर ठहर जाता है। मुक्त होनेके पश्चात् सामान्य केवली और तीर्थकर केवलीमें कोई अन्तर नहीं रहता, दोनोंको एक ही प्रकारकी मुक्ति प्राप्त होती है। यद्यपि संसारमें सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थङ्कर केवली अधिक पूजनीय माने जाते हैं, क्योंकि तीर्थङ्कर केवलीसे संसारको बहुत लाभ पहुँचता है, किन्तु मुक्त होनेपर दोनोंमें इस तरहका कोई अन्तर नहीं रहता। संसार अवस्थामें जो कुछ अन्तर था वह तीर्थङ्कर पदके कारण था । मुक्त होनेपर इस पदसे भी मुक्ति मिल जाती है, अतः मुक्तिमें सामान्य केवली और तीर्थङ्कर केवलीमें कोई भेद नहीं रहता। दोनों मुक्त कहे जाते हैं। मुक्तोंको जैनसिद्धान्तमें 'सिद्ध' भी कहते हैं। यद्यपि अर्हन्तोंसे सिद्धोंका पद ऊँचा है; क्योंकि अर्हन्त कर्मबन्धनसे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म सर्वथा मुक्त नहीं होते और सिद्ध उससे सर्वथा मुक्त होते हैं तथापि सिद्धोंको अर्हन्तोंके बाद नमस्कार किया गया है। यथा णमो सिद्धाणं-सिद्धोंको नमस्कार हो। इस प्रकार जैनदृष्टिसे अर्हन्तपद और सिद्धपदको प्राप्त हुए जीव ही ईश्वर कहे जाते हैं। प्रत्येक जीवमें इस प्रकारके ईश्वर होनेकी शक्ति है । परन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनके कारण वह शक्ति ढकी हुई है। जो जीव इस कर्मबन्धनको तोड़ डालता है उसके हो ईश्वर होनेकी शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं और वह ईश्वर बन जाता है। इस तरह ईश्वर किसी एक पुरुषविशेषका नाम नहीं है। किन्तु अनादिकालसे जो अनन्त जीव अर्हन्त और सिद्धपदको प्राप्त हो गये हैं और आगे होंगे उन्हींका नाम ईश्वर है। जैनधर्मके ये ईश्वर संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते । सृष्टिके संचालनमें उनका हाथ है,न वे किसीका भला बुरा करते हैं। न वे किसीके स्तुतिवादसे कभी प्रसन्न होते हैं और न किसीके निन्दावादसे अप्रसन्न । न उनके पास कोई ऐसी सांसारिक वस्तु है जिसे हम ऐश्वर्य या वैभवके नामसे पुकार सकें, न वे किसीको उसके अपराधोंका दण्ड देते हैं। जैनसिद्धान्तके अनुसार सृष्टि स्वयंसिद्ध है । जीव अपने अपने कर्मोके अनुसार स्वयं हो सुख दुःख पाते हैं। ऐसी अवस्था में मुक्तात्माओं और अर्हन्तोंको इन सब झंझटोंमें पड़नेको आवश्यकता ही नहीं है; क्योंकि वे कृतकृत्य हो चुके हैं, उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहा है। सारांश यह है कि जैनधर्म में ईश्वररूपमें माने हुए अर्हन्तों और मुक्तात्माओंका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे अन्य लोग संसारके कर्ता हर्ता ईश्वरमें कल्पना किया करते हैं । उस ईश्वरत्वकी तो जैनदर्शनके विविध ग्रन्थों में बड़े जोरोंके साथ आलोचना की गई है। और उस दृष्टिसे जैनधर्मको अनी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १२५ श्वरवादी कहा जा सकता है। उसमें इस तरह के ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है । ८. उसकी उपासना क्यों और कैसे ? जैनों में मूर्तिपूजाका प्रचलन बहुत प्राचीन है । सम्राट् खारवेलके शिलालेख में कलिङ्गपर चढ़ाई करके नन्दद्वारा अग्रजिन ( श्री ऋषभदेव ) की मूर्तिको ले जानेका और मगधपर चढ़ाई करके खारवेलके द्वारा उसे प्रत्यावर्तन करके लानेका उल्लेख मिलता है । इससे सिद्ध है कि आजसे लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व राजघरानोंतक में जैनोंके प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा होती थी । स्वामी दयानन्द तो जैन से ही मूर्तिपूजाका प्रचलन हुआ मानते हैं । यों तो भारतके प्रायः सभी प्राचीन धर्मो में मूर्तिपूजा प्रचलित है, किन्तु जैनमूर्तिके स्वरूप, उसकी पूजाविधि तथा उसके उद्देश्य में अन्यधर्मो से बहुत अन्तर है। जो उसे समझ लेगा वह मूर्तिपूजाको व्यर्थ कहने का साहस नहीं कर सकता | जैनधर्म में पाँच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये हैं-अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हें पंच परमेष्ठी कहते हैं । जैनोंके परमपवित्र पंचनमस्कार मंत्रमें इन्हों पंचपदोंको नमस्कार किया गया है। ये ही पाँच पद जैनधर्म में वंदनीय और पूजनीय हैं। 1 जो चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयको प्राप्त करता है, उन परम औदारिक शरीरमें स्थित शुद्ध आत्माको अर्हन्त कहते हैं, जिनका विशेष वर्णन पहले किया जा चुका है। ये जीवन्मुक्त होते हैं। जो आठों कर्मोंस और शरीरसे भी रहित हो जाते हैं, लोकालोकके जानने और देखनेवाले, सिद्धालय में विराजमान उस पुरुषाकार आत्माको सिद्ध कहते हैं । और यह मुक्त होते Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनधर्म हैं । जो साधु साधुसंघके प्रधान होते हैं, पाँच प्रकारके आचारका स्वयं भी पालन करते हैं और अपने संघके अन्य साधुओंसे भी पालन कराते हैं, वे आचार्य कहे जाते हैं । जो साधु समस्त शास्त्रोंके पारगामी होते हैं, अन्य साधुओंको पढ़ाते हैं तथा सदा धर्मका उपदेश करनेमें लगे रहते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं । ___ जो विषयोंकी आशाके फन्देसे निकलकर सदा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहते हैं, जिनके पास न किसी प्रकारकी परि. ग्रह होती है और न कोई ठगविद्या, मोक्षका साधन करनेवाले उन शान्त, निस्पृही और जितेन्द्रिय मुनिको साधु कहते हैं । ___ इन पाँच परमेष्ठियोंमेंसे अर्हन्त परमेष्ठीको मूर्ति जैनमन्दिरों में बहुतायतसे विराजमान रहती है। यद्यपि वे मूर्तियाँ जैनोंके २४ तीर्थङ्करोंमेंसे किसी न किसी तीर्थङ्करकी ही होती हैं, किन्तु होती अर्हन्त अवस्थाकी ही हैं, क्योंकि तीर्थङ्कर पदका वास्तविक कार्य धर्मतीर्थ प्रवर्तन है, जो अर्हन्त अवस्थामें ही होता है। तीर्थकर भी अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त किये बिना पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ नहीं होते और बिना वीतरागता और सर्वज्ञता के धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सकता । अतः धर्मतीर्थके प्रवर्तक जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ जैनमन्दिरोंमें बहुतायतसे पाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासन भी होती है और खड्गासन भी होती हैं, किन्तु होती सभी ध्यानस्थ हैं। एक आत्मध्यानमें लीन योगीकी जैसी आकृति होती है वैसी ही आकृति उन मूर्तियोंकी होती हैं। भगवद्गीतामें योगाभ्यासीका चित्रण करते हुए लिखा है समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभी ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥' अ० ६ । भावार्थ-शरीर, सिर और गर्दनको सीधा रखकर, निश्चल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १२७ हो, इधर उधर न देखते हुए, स्थिर मनसे अपनी नाकके अग्रभागपर दृष्टि रखकर प्रशान्त आत्मा, निर्भय हो, ब्रह्मचर्य व्रतमें स्थित होकर तथा मनको वशमें करके मेरेमें मनको लगा । जैनमूर्ति की भी बिल्कुल ऐसी ही मुद्रा होती है। उसकी दृष्टि नाकके अग्र भागपर रहती है | शरीर, सिर और गर्दन एक सोधमें रहते हैं। पद्मासनमें बाई हथेलीके ऊपर दाईं हथेली खुली होती है और खड्गासनमें दोनों हाथ जानुतक लटके रहते हैं। चेहरेपर शान्ति, निर्भयता और निर्विकारता खेलती रहती है | शरीरपर विकारको ढाकनेके लिये न कोई आवरण होता है और न सौंदर्यको चमकानेके लिये कोई आभरण रहता है । न हाथमें कोई अस्त्र-शस्त्र हो होता है । भगवत्गोतामें कही हुई जिस योगमुद्रासे योगी निर्वाण लाभ करते हैं, वही मुद्रा जैनमूर्तिमें अंकित रहती है। देखनेवालेको यही प्रतीत होता है कि वह किसी प्रशान्तात्मा योगीकी मूर्तिका दर्शन कर रहा है । न वहाँ राग है और न वैर-विरोध । सिद्धोंकी भी मूर्ति रहती है, किन्तु चूँकि सिद्ध परमेष्ठी देहरहित होते हैं, इसलिये पीतलकी चादरके बीच मेंसे मनुष्याकारको काटकर मनुष्याकाररूप खाली स्थान छोड़ दिया जाता है । आचार्य, उपाध्याय और साधुकी भी मूर्तियाँ कहीं कहीं पाई जाती हैं। इनकी मूर्तियोंमें साधुके चिह्न पीछी और कमण्डलु अंकित रहते हैं । सारांश यह है कि जैनमूर्ति जैनोंके आराध्य पचपरमेष्ठियोंकी प्रतिकृतिरूप होती हैं । जिनमन्दिर में जाकर देवदर्शन करना प्रत्येक जैन श्रावक और श्राविकाका नित्य कर्तव्य है । वहाँ वह यह विचारता है कि यह मन्दिर जिन भगवानका समवसरण - उपदेशसभा है, वेदीमें विराजमान जिनकी मूर्ति ही जिनेन्द्रदेव है, और मन्दिरमें उपस्थित स्त्री पुरुष ही श्रोतागण हैं। ऐसा विचार करके अच्छी-अच्छी स्तुतियाँ पढ़ते हुए जिन भगवान्‌को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। और यदि पूजन करना होता है Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनधर्म तो पूजा भी करता है। पूजामें सबसे पहले जलसे मूर्तियोंका अभिषेक किया जाता है। कहीं कहीं दूध, दही, घी, इक्षुरस और सर्वोपधी रससे भी अभिषेक करनेकी पद्धति है। अभिषेकके पश्चात् पूजन किया जाता है। यह पूजन जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्योंसे किया जाता है । एक एक पद्य बोलते जाते हैं और नम्बरवार एक एक द्रव्य चढ़ाते जाते हैं । द्रव्य चढ़ाते समय द्रव्य चढ़ानेका उद्देश्य बोलकर द्रव्य चढ़ाते हैं। यथा- मैं जन्म, जरा और मृत्युके विनाशके लिये जल चढ़ाता हूँ । अर्थात् जैसे जलसे गन्दगी दूर हो जाती है वैसे ही मेरे पीछे लगे हुए ये रोग धुलकर दूर हो जावें । मैं संसाररूपी सन्तापकी शान्तिके लिये चन्दन चढ़ाता | २ | मैं अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्तिके लिये अक्षत चढ़ाता हूँ | ३ | मैं कामके विकारको दूर करनेके लिये पुष्प चढ़ाता हूँ । ४ । मैं क्षुधारूपी रोगको दूर करनेके लिये नैवेद्य चढ़ाता हूँ । ५ । मैं अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये दीप चढ़ाता हूँ । ६ । मैं आठों कर्मोंको जलानेके लिये धूप चढ़ाता हूँ । ७ । यह धूप अग्निमें चढाई जाती है। मैं मोक्षफलकी प्राप्तिके लिये फल चढ़ाता हूँ । ८ । एक एक करके आठों द्रव्य चढ़ानेके बाद आठों द्रव्योंको मिलाकर चढ़ाया जाता है उसे 'अर्घ्य' कहते हैं । यह भी अनर्घ अर्थात् अमूल्यपदकी प्राप्तिके उद्देश्यसे चढ़ाया जाता है । इस प्रकार पूजाका उद्देश्य भी अपने विकारों और विकारोंके कारणोंको दूर करके चरम लक्ष्य मोक्षकी प्रामि ही रखा गया है । पूजाके दो भेद किये गये हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा । शरीर और वचनको पूजनमें लगाना द्रव्यपूजा है और उसमें मनको लगाना भावपूजा है। शरीरको लगानेके लिये द्रव्य रखे गये हैं, जिससे हाथ वगैरहका उपयोग उनके चढ़ाने में ही होता रहता है। और वचनको उसमें लगानेके लिये पद्य रखे गये हैं। जिन्हें पढ़ पढ़ करके द्रव्य चढ़ाया जाता है । इस तरह मनुष्यका Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १२६ शरीर और वचन पूजनमें रहनेपर भी यदि उसका मन उसमें न रम रहा हो तो वह पूजन बेकार ही है क्योंकि बिना भावके कोई क्रिया फलदायक नहीं होती। जैसा कि कल्याणमन्दिरस्तोत्रमें कहा भी है'आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनवान्धव! दुःखपात्रं । ___यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥' 'हे जनबन्धु ! तुम्हारा उपदेश सुनकर भी, तुम्हारी पूजा करके भी और तुम्हें वारम्बार देखकर भी अवश्य ही मैंने भक्तिपूर्वक तुम्हें अपने हृदयमें स्थापित नहीं किया। इसीसे मैं दुःखोंका पात्र बना; क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी भी फलदायी नहीं होती।' अतः द्रव्य पूजाके साथ-शारीरिक और वाचनिक पूजाके साथ साथ-भावपूजाका-मानसिक पूजाका होना आवश्यक है। किन्तु भावपूजा ऊपर कहे गये आठ द्रव्योंके बिना भी हो सकती है । द्रव्य तो मन, वचन और कायको लगानेके लिये एक आलम्बनमात्र है। इस प्रकार जैनमूर्तिका स्वरूप और उसकी पूजाविधि बतलाकर उसके उद्देश्यपर एक दृष्टि डालना आवश्यक है। जैनधर्ममें बतलाया है कि दुनियामें प्रत्येक वस्तुका चार रूपसे व्यवहार होता देखा जाता है-एक नामरूपसे, दूसरे स्थापनारूपसे, तीसरे द्रव्यरूपसे और चौथे भावरूपसे । उदाहरणके लिये हम राजाको लेते हैं। राजा शब्दका व्यवहार चार रूपसे देखा जाता है। एक तो बहुतसे लोग अपने बच्चोंका राजा नाम रख लेते हैं। वे बच्चे नामसे राजा कहलाते हैं। दूसरे, राजाके अभावमें राजकार्य चलानेके लिये किसीको उसका प्रतिनिधि मानकर राजाकी ही तरह उसका आदर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनधर्म सत्कार होता देखा जाता है । जैसे, भारतके वायसराय राजाके प्रतिनिधिके रूपमें राजाकी ही तरह माने जाते थे । यह स्थापनाकी अपेक्षा राजा कहे जाते थे । अर्थात् वे वास्तव में राजा नहीं थे किन्तु स्थानापन्न थे। तीसरे, जो राजपुत्र आगे राजा होने वाला है या जो राजा गद्दीसे उतार दिया गया है। उन्हें भी राजा साहब कहते हुए देखा जाता है । वे द्रव्यकी अपेक्षा राजा कहे जाते हैं। चौथे, राज्यासनपर विराजमान वास्तविक राजा तो राजा है ही । वह भावकी अपेक्षा राजा है । इसी तरह तीर्थकर भगवानका भी चार रूपसं व्यवहार होता है । जब कोई तीर्थङ्कर मोक्ष चला जाता है तो उनकी मूर्तियाँ बनवाकर और उनमें उस तीर्थङ्करकी स्थापना करके उसका उसी तरह से आदर सत्कार आदि किया जाता है जिस तरह वास्तविक तीर्थङ्करका आदर सत्कार होता था । कोई भी पापाण या धातुकी बनी हुई उन मूर्तियोंको ही तीर्थङ्कर परमात्मा नहीं मानता, किन्तु हमारे तीर्थङ्कर इसी प्रकार के प्रशान्तात्मा, वीतरागी तथा जितेन्द्रिय योगी होते थे, पूजक और दर्शकका यही भाव रहता है । वह मूर्तिके द्वारा मूर्तिमानकी उपासना करता है । मूर्तिको देखते ही उसे मूर्तिमानका स्मरण हो आता है, और स्मरण आते ही उनके पुनीत जीवनको एक झलक उसकी दृष्टि में घूम जाती है । जो लोग मूर्ति पूजाके विरोधी हैं उन्हें भी हम अपने धर्मग्रन्थोंका आदर सत्कार करते हुए पाते हैं । वास्तव में वे धर्मग्रन्थ कागज और स्याहीसे बने हुए हैं । किन्तु कागज और स्याहीका कोई आदर नहीं करता, बल्कि उन कागजों के ऊपर मनुष्यके हाथसे बनाये गये अक्षरोंमें जो उस महापुरुषका ज्ञान अंकित है उसका आदर किया जाता है । अतः जिस प्रकार ईश्वरीय ज्ञानके स्मरणके लिये मनुष्य अपने हाथोंसे कागजपर अक्षरोंकी मूर्तियाँ बनाकर उनकी विनय करता है, उसी प्रकार ईश्वरीय रूपको स्मरण करनेके लिये कलाकार मूर्तिकी प्रतिष्ठा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १३१ करता है । जैसे कागजोंके ऊपर अंकित अक्षरोंके पढ़नेसे ईश्व रीय ज्ञानका बोध होता है वैसे ही मूर्तिके द्वारा ईश्वरीय स्वरूपका बोध होता है। यद्यपि अक्षर भी मूर्ति है और मूर्ति भी मूर्ति है, किन्तु अक्षरोंसे तो पढ़ा लिखा व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है परन्तु मूर्तिको देखकर बेपढ़ा लिखा मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है । यदि कोई नासमझ मूर्तिसे गलत शिक्षा ले लेता है इसलिये मूर्ति बेकार है तो कोई-कोई नासमझ धर्मग्रन्थों को भी गलत समझ लेते हैं, किन्तु इसीसे उन्हें व्यर्थ तो नहीं माना जा सकता । जैसे कागजोंपर अंकित देश विदेशके नकशोंपर अंगुलि रखकर शिक्षक विद्यार्थियोंको बतलाता है कि यह रूस है, यह हिन्दुस्थान है, यह अमेरिका है आदि । समझदार विद्यार्थी जानते हैं कि जहाँ शिक्षकने अंगुलि रखी है वही रूस, अमेरिका नहीं है किन्तु उस नकशेके द्वारा उसे हमें उनका बोध कराया जा रहा है। वैसे हो हम भी मूर्तिको असली परमेश्वर नहीं मानते, किन्तु उसके द्वारा हमें उस परमेश्वरके स्वरूपको समझने में मदद मिलती है। अतः मूर्ति व्यर्थ नहीं है । यहाँ हम एक जैन स्तुतिका भाव अंकित करते हैं, जिससे मूर्तिपूजाके उद्देश्यपर तथा पूजककी भावनापर प्रकाश पड़ता है 'सब पदार्थोंके ज्ञाता होते हुए भी अपने आत्मिक आनन्दमें मग्न वे जिनेन्द्र सदा जयवन्त हों जो चारों घातिया कर्मोंसे रहित हो चुके हैं ।' 'हे वीतराग विज्ञानके भण्डार ! तुम्हारी जय हो । हे मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाले सूर्य ! तुम्हारी जय हो ! हे अनन्तानन्तज्ञानके धारक तथा अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यसे सुशोभित ! तुम्हारी जय हो । भव्य जीवोंको स्वानुभव करानेमें कारण परमशान्त मुद्राके धारक ! तुम्हारी जय हो । हे देव ! भव्यजीवोंके भाग्योदयसे आपका दिन्य Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनधर्म उपदेश होता है, जिसे सुनकर उनका भ्रम दूर हो जाता है। हे देव ! तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे अपने परायेका भेद मालूम हो जाता है । अर्थात् तुम्हारे आत्मिक गुणोंका विचार करनेसे मैं यह जान जाता हूँ कि आत्मा और शरीरमें तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले कुटुम्बी जन धन-सम्पत्ति आदिमें कितना अन्तर है; क्योंकि तुम्हारी आत्मामें जो गुण हैं वैसे ही गुण मेरी आत्मामें भी मौजूद हैं मगर मैं उन्हें भूला हुआ हूँ। अतः तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे मुझे अपने गुणोंका भान हो जाता है और उससे मैं 'स्व' और 'पर' पहचानने लगता हूँ, जिससे मैं अनेक आपदाओंसे-मुसीबतोंसे बच जाता हूँ। हे देव ! तुम संसारके भूषण हो; क्योंकि तुम सब दूषणों और संकल्प विकल्पोंसे मुक्त हो। तुम शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमपावन परमात्मा हो। तुमने शुभ और अशुभरूप विभाव परिणतिका अभाव कर दिया है । हे धीर ! तुम अठारह दोषोंसे रहित हो और अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयमें विराजमान हो। मुनि गणपति वगैरह तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम नौ केवल लब्धिरूपी आध्यात्मिक लक्ष्मीसे सुशोभित हो । तुम्हारे उपदेशोंपर चलकर अगणित जीवोंने मुक्तिलाम किया है, करते हैं तथा सदा करेंगे। 'यह भवरूपी समुद्र दुःखरूपी खारे पानीसे पूर्ण है, इसे पार करानेमें आपके सिवा और कोई समर्थ नहीं है।, यह देखकर और 'मेरे दुःखरूपी रोग दूर करनेका इलाज तुम्हारे ही पास है' यह जानकर मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ और चिरकालसे मैंने जो दुःख उठाये हैं उन्हें बतलाता हूँ। मैं अपनेको भूलकर चिरकालसे इस संसारमें भटक रहा हूँ, मैंने विधिके खेल, पुण्य और पापको ही अपना समझा और अपनेको परका कर्ता मानकर तथा परमें इष्ट या अनिष्टकी कल्पना करके अज्ञानवश मैं व्याकुल हुआ हूँ जैसे मृग मारीचिकाको पानी समझ लेता है वैसे ही मैंने शरीरको Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १३३ ही आत्मा माना और कभी भी आत्मरसका अनुभव नहीं किया। __ 'हे जिनेश ! तुमको न जानकर मैंने जो क्लेश उठाये उन्हें तुम जानते हो। पशुगति, नरकगति और मनुष्यगतिमें जन्म ले लेकर मैं अनन्तबार मरा। अब काललब्धिके आ जानेसेमुक्तिलाभका काल समीप आ जानेसे तुम्हारे दर्शन पाकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ। मेरा मन शान्त हो गया है। मेरे सब द्वन्द्व फन्द मिट गये हैं और मैंने दुःखोंका नाश करनेवाले आत्मरसका स्वाद चख लिया है । हे नाथ ! अब ऐसा करो कि तुम्हारे चरणोंका साथ कभी न छूटे । (और इसके लिये ) आत्माका अहित करनेवाले पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें और क्रोधादि कपायोंमें मेरा मन कभी न रमे । मैं अपने आपमें ही मग्न रहूँ । भगवन् ! ऐसा करो जिससे मैं स्वाधीन हो जाऊँ । हे ईश ! मुझे और कुछ चाह नहीं है, मुझे तो सम्यग्दर्शन सम्यरज्ञान और सम्यकचारित्ररूपी रत्नत्रय चाहिये। मेरे कार्य के कारण आप हैं। मेरा मोहरूपी संताप हरकर मेरा कार्य करो। जैसे चन्द्रमा स्वयं हो शान्ति भी देता है और अन्धकारको भी हरता है, वैसे ही कल्याण करना तुम्हारा स्वभाव ही है। जैसे अमृतके पीनेसे रोग चला जाता है वैसे ही तुम्हारा अनुभवन करनेसे संसाररूपी रोग नष्ट हो जाता है। तीनों लोकों और तीनों कालोंमें तुम्हारे सिवा अन्य कोई आत्मिक सुखका दाता नहीं है । आज मेरे मनमें यह निश्चय हो गया है। तुम दुःखोंके समुद्रसे पार उतारनेके लिये जहाजके समान हो। __इस स्तुतिसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति मनुष्यके चंचल चित्तको लगानेके लिये एक आलम्बन है। उस आलम्बनको पाकर मनुष्यका चंचल चित्त क्षण भरके लिये उन महापुरुषोंके गुणानुवादमें रम जाता है, जो किसी समय हमारी ही तरह संसारमें भटक रहे थे। किन्तु उन्होंने स्वयं अपने पैरोंपर खड़े होकर अपनेको पहचाना और आत्मलाभ करके दुनियाके Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनधर्म कल्याणकी भावनासे उस मार्गको बतलाया जिसपर चलकर उन्होंने स्वयं मुक्तिलाभ किया। उनके गुणानुवादका प्रयोजन उन्हें रिझाना या प्रमन्न करना नहीं है। वे तो राग-द्वेपकी इस घाटीसे बहुत दूर हैं । न वे किसीकी स्तुनिसे प्रसन्न होते हैं और न निन्दासे नाराज । किन्तु उनके गुणोंका कीर्तन करनेसे हमें अपने गुणोंका बोध होना है, क्योंकि जो गुण उनमें हैं वही हममें भी हैं. किन्तु हम अपनेको भूल हुए हैं। अतः उनका गुणानुवाद हमें अपनी स्मृति कराकर वुर कामोंसे बचाता है । कहा भी है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे । तथापि तव पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।।५७।।' -बृहत्स्वयं० अर्थ हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिये तुम्हें अपनी पूजास कोई प्रयोजन नहीं है । और चूंकि तुम वीतद्वेप हो इसलिये निन्दासे भी कोई प्रयोजन नहीं है । फिर भी तुम्हारे पुण्य गुणोंकी स्मृति हमारे चित्तको पापम्पी कालिमासे बचाती है। ___अतः मूर्तिपूजाका उद्देश्य मूर्तिमें अंकित भावोंको अपने में लाकर जिसकी वह मूर्ति है उसके ही समान अपनेको बनाना है। अर्थात् जो जैसा होना चाहता है वह अपने सामने वैसा ही आदर्श रखता है। जैनधर्मका उद्देश्य आत्माको समस्त कर्मवन्धनोंसे छुड़ाकर उसके असली स्वरूपकी प्रानि कराना है जिसे वह भूला हुआ है । अतः उसका आदर्श वे पुनीन आत्माएँ हैं, जिन्होंने अपनेको वैसा बना लिया है। उन्हों आदीकी मूर्ति स्थापना करके सच्चा जैन अपनेको वैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है। - प्रत्येक जैनमन्दिर में शास्त्रभंडार भी रहता है, जिसमें जनशास्त्रोंका संग्रह होता है । जो दर्शन या पूजनके लिये जाना है उसे दर्शन या पूजन कर चुकनेके बाद शास्त्रस्वाध्याय भी अवश्य करनी होती है। क्योंकि उन शास्त्रोंको जाने बिना दर्शक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १३५ या पूजक उन जैन तीर्थङ्करोंके उपदेशों और उनके जीवनवृत्तोंको नहीं जान सकता जिनकी मूर्तिको वह पूजता है। और उनके जाने बिना मृर्तिसे उसे जिस आदर्शकी शिक्षा मिलनी है उस आदर्शको वह प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि मूर्ति तो मनुष्यके उन आदर्शकी ओर संकेनमात्र करती है, केवल वही उसे उच्च आदर्श प्राप्त नहीं करा सकती। जैसे, जब बालक वर्णमाला सीखता है तो उसका हाथ साधनक लिये पट्टीपर पंसिलसे वर्णमालाके आँवटे लिख दिये जाते हैं । बच्चा उन आँवटोंपर ही अपनी कलम चलाता है। जबतक उसका हाथ नहीं सधता और वह इस योग्य नहीं हो जाता कि विना आंवटोंके भी स्वयं अक्षर लिख सके, तबतक उस वावर आंवटोंका सहारा लेना पड़ता है। किन्तु जब उसका हाथ सध जाता है तब आंवटोंकी जरूरत नहीं रहती और वह बिना किसी सहारके स्वयं लिखने लग जाता है। उसी तरह मृतिके साहाय्यकी भी तभी तक जरूरत रहती है जब तक दानका दृष्टिकोण अपने आदर्शकी ओर पूरी नरहस नहीं होना । जब दाक अपने आदर्श की ओर अग्रसर होकर उसीकी माधनामें लग जाना है. और इस तरह उस पथका साधक बन जाना है तब उसके लिये मूनिका दर्शन करना आवश्यक नहीं रहता । ____अतः जैनांकी मूर्तिपूजा उस आदर्शकी पूजा है जो प्राणिमात्रका सर्वोच्च लक्ष है । उसके द्वारा पृजकको अपने आदर्शका भान होता है, उसे वह भुला नहीं सकता। प्रतिदिन प्रातःकाल अन्य सब कार्य करनेसे पहले मन्दिर में जाना इनीलिये अनिवार्य रखा गया है कि मनुष्य अर्थ और कामकं पचड़में पड़कर अपने उस सर्वोच्च लक्षको भूल न जाये । तथा जिन महापुरुषांने उस सर्वोच्च लक्षको प्राप्त कर लिया है उनका गुणानुवाद करके उनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर सके और झान्ति तथा विरागताके उस दर्पणमें अपनी कलुपित आत्माका प्रतिविम्ब देखकर उसके परिमार्जन करनेका प्रयत्न कर सके । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म ऐसे सर्वोच्च लक्षका भान करानेके लिये निर्मित जैन-मन्दिरों के बारेमें जब हम एक पुरानी उक्ति सुनते हैं 'हस्तिना ताडघमानोऽपि न गच्छेद् जैनमन्दिरम्' अर्थात्-'हाथीके द्वारा मारे जानेपर भी जैन मन्दिरमें नहीं जाना चाहिये ।' तो हमें बड़ा अचरज होता है। तत्कालीन माम्प्रदायिक मनोवृत्तिके सिवा इसका कोई दूसरा कारण हमारे दृष्टिगोचर नहीं होता। अस्तु, हम पहले लिख आये हैं कि जैनमूर्ति निरावरण और निराभरण होती है । जो लोग सवस्त्र और सालङ्कार मूर्तिको उपासना करते हैं उन्हें शायद नग्नमूर्ति अश्लील प्रतीत होती है । इस सम्बन्धमें हम अपनी ओरसे कुछ न लिखकर सुप्रसिद्ध साहित्यिक काका कालेलकरके वे उद्गार यहाँ अंकित करते हैं जो उन्होंने श्रवणवेलगोला (मैसूर ) में स्थित बाहुबलिकी प्रशान्त किन्तु नग्नमूर्तिको देखकर अपने एक लेखमें व्यक्त किये थे । वे लिखते हैं 'सांसारिक शिष्टाचारमें आसक्त हम इस मूर्तिको देखते ही मनमें विचार करते हैं कि यह मूर्ति नग्न है। हम मनमें और समाजमें भाँति भाँतिकी मैली वस्तुओंका संग्रह करते हैं, परन्तु हमें उससे नहीं होती है घृणा और नहीं आती है लज्जा । परन्तु नग्नता देखकर घबराते हैं और नग्नतामें अश्लीलताका अनुभव करते हैं । इसमें सदाचारका द्रोह है और यह लज्जास्पद है। अपनी नग्नताको छिपानेके लिये लोगोंने आत्महत्या भी की है। परन्तु क्या नग्नता वस्तुतः अभद्र है ? वास्तवमें श्रीविहीन है ? ऐसा होता तो प्रकृतिको भी इसकी लज्जा आती। पुष्प नग्न रहते हैं, पशु पक्षी नग्न ही रहते हैं। प्रकृतिके साथ जिन्होंने एकता नहीं खोई है ऐसे बालक भी नग्न ही घूमते हैं । उनको इसकी शरम नहीं आती और उनकी निर्व्याजताके कारण हमें भी इसमें लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। लज्जाकी बात Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १३७ जाने दें। इसमें किसी प्रकारका अश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, विश्री, अरोचक हमें लगा है, ऐसा किसी भी मनुष्यको अनुभव नहीं । इसका कारण क्या ? कारण यही कि नग्नता प्रकृतिक स्थिति के साथ स्वभावशुदा है। मनुष्यने विकृत ध्यान करके अपने मनके विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्तेकी ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभावसुन्दर नग्नता उसे सहन नहीं होती । दोष नग्नताका नहीं पर अपने कृत्रिम जीवनका है। बीमार मनुष्यके समक्ष परिपक्व फल, पौष्टिक मेवा और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक रख नहीं सकते। यह दोष उन खाद्य पदार्थोंका नहीं पर मनुष्यके मानसिक रोगका है । नग्नता छिपाने में नग्नताकी लज्जा नहीं, पर इसके मूलमें विकारी पुरुपके प्रति दयाभाव है, रक्षणवृत्ति है । पर जैसे बालकके सामने नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है. वैसे ही पुण्यपुरुषोंके सामने, वीतराग विभूतियोंके समक्ष भी वे शान्त हो जाते हैं । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुष्य पराजित होकर विशुद्ध होता है। मूर्तिकार सोचते तो माधवीलताकी एक शाखा जंघाके ऊपरसे ले जाकर कमरपर्यन्त ले जाते । इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नहीं थी । पर फिर तो उन्हें सारी फ़िलोसोफीकी हत्या करनी पड़ती । बालक आपके समक्ष नग्न खड़े रहते हैं । उस समय वे कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियोंके समान अपने हाथों द्वारा अपनी नग्नता नहीं छिपाते । उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नताको पवित्र करती है । उनके लिये दूसरा आवरण किस कामका है?” "जब मैं ( काका सा० ) कारकलके पास गोमटेश्वरकी मूर्ति देखने गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध अनेक थे । हममें से किसीको भी इस मूर्तिका दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालूम नहीं हुआ । अस्वाभाविक प्रतीत होनेका प्रश्न ही नहीं था । मैंने अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी हैं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनधर्म और मन विकारी होनेके बदले उल्टा इन दर्शनोंके कारण ही निर्विकारी होनेका अनुभव करता है। मैंने ऐसी भी मूर्तियाँ तथा चित्र देखे हैं कि जो वस्त्राभूषणसे आच्छादित होनेपर भी केवल विकारप्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई हैं । केवल एक औपचारिक लंगोट पहननेवाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्यका वातावरण उपस्थित करते हैं। इसके विपरीत सिर से पैर पर्यन्त वस्त्राभूषणोंसे लदे हुए व्यक्ति आंखके एक इंगित मात्र अथवा अपने नखरे के थोड़से इशारेसे मनुष्यको अस्वस्थ कर देते हैं, नीचे गिरा देते हैं । अतः हमारी नग्नताविषयक दृष्टि और हमारा विकारोंकी ओर झुकाव दोनों बढ़लने चाहियें। हम विकारोंका पोषण करते जाते हैं और विवेक रखना चाहते हैं।" काका साहबके इन उद्गारोंके बाद नग्नताके सम्बन्धमें कुछ कहना शेष नहीं रहता । अतः जैनमूर्तियोंकी नग्नताको लेकर जैनधर्मके सम्बन्धमें जो अनेक प्रकारके अपवाद फैलाये गये हैं वे सब साम्प्रदायिक प्रद्वेपजन्य गलतफहमीके ही परिणाम हैं। जैनधर्म वीतरागताका उपासक है । जहाँ विकार है, राग है, कामुकप्रवृत्ति है, वहीं नग्नताको छिपाने की प्रवृत्ति पाई जाती है । निर्विकारकके लिये उसकी आवश्यकता नहीं है। इसी भाव से जैनमूर्तियाँ नग्न होती हैं। उनके मुखपर सौम्यता और विरागता रहती है। उनके दर्शनसे विकार भागता है न कि उत्पन्न होता है। अतः जैनमन्दिरोंमें न जानेकी जनश्रुति भी एक मिथ्या प्रवाद हैं । जैनमन्दिर शान्ति और भव्यताके प्रतीक होते हैं । उनमें मनुष्यका मन पवित्र होता है। निर्विकार मूर्ति तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण प्राचीन शास्त्र और उपयोगी चित्रकारी यही वहाँकी प्रधान वस्तुएँ हैं, जिनके दर्शन और अध्ययनसे मनुष्य के मनको शान्ति मिलती है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १३९ १. सात तत्व यद्यपि द्रव्य छै हैं तथापि धर्मका सम्बन्ध केवल एक जीवद्रव्यसे ही है, क्योंकि उसीको दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त करानेके लिये ही धर्मका उपदेश दिया गया है। और दुःखोंका मूलकारण उसी जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म हैं, जो कि अजीव और अजीवों में भी पौद्गलिक हैं। अतः जब धर्मका लक्ष्य जीवको सब दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त कराना है और दुःखोंका मूलकारण जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म ही हैं तो दुःखांसे छूटनेके लिये निम्न बातोंकी जानकारी आवश्यक है १-उस वस्तुका क्या स्वरूप है, जिसको छुटकारा दिलाना है ? ____२-कर्मका क्या स्वरूप है ? क्योंकि जैसे ग्वर्णकारको म्वर्ण और उसमें मिले हुए द्रव्यकी ठीक ठीक पहचान होना आवश्यक है वैसे ही एक आत्मशोधकको भी आत्मा और उसके माथ मिले हुए परद्रव्यकी पहचान होना आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना वह आत्माका शोधन ही नहीं कर सकता। ३-बह अजीव कर्म जीव तक कैसे पहुंचना है ? ४-और पहुँच कर कैसे जीवके माथ बँध जाता है ? इस प्रकार जीव और कर्मका म्वरूप और कर्माका जीवनक आगमन और वन्धनका ज्ञान हो जानेसे मंमारक कारणांका पूरा ज्ञान हो जाता है । अब उससे छुटकारा पाने के लिये कुछ वाने जानना आवश्यक हैं ५-नवीन कर्मवन्धको रोकनेका क्या उपाय है ? ६-पुराने बँध हुए कर्माको कैसे नष्ट किया जा सकता है ? ७-इन उपायोंसे जो मुक्ति प्राप्त होगी वह क्या वस्नु है ? इन सान बातोंका ज्ञान होना प्रत्येक मुमुक्षक लिये आवश्यक है, इन्हींको सात तत्त्व कहते हैं। पोद्गलिक कर्मीक संयोगसे ही यह जीव बन्धनमें है और सब प्रकारके कष्ट भोगता है । इस Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनधर्म सम्बन्धका अन्त किस प्रकार किया जाये यह एक समस्या है, जिसे प्रत्येक मुमुक्षुको हल करना है। धर्म ही वह विज्ञान है जिसके द्वारा उक्त समस्याको हल किया जा सकता है और उसी के हल करनेके लिये उक्त सात बातें बतलाई गई हैं। ये सात वातें ही ऐसी हैं जिनकी श्रद्धा और ज्ञानपर हमारा योगक्षेम निर्भर है । इसीलिये इन्हें तत्त्व-संज्ञा दी गई है। तत्त्व यानी सारभूत पदार्थ ये ही हैं । जो व्यक्ति इनको नहीं जानता,सम्भव है वह बहुत ज्ञान रखता हो, किन्तु यथार्थमें उपयोगी बातोंका ज्ञान उसे नहीं है। ___ उक्त सात तत्त्वोंका नाम है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनमेंसे जीव और अजीव दो मूलभूत तत्त्व हैं, जिनसे यह विश्व निर्मित है । इन दोनों तत्त्वोंका वर्णन पहले कर आये है । तीसरा तत्त्व आस्रव है, जो जीवमें कर्ममलके आनेको सूचित करता है। वास्तवमें जीव और कर्मो का बन्ध तभी सम्भव है जब जीवमें कर्म-पुद्गलोंका आगमन हो । अतः कर्मोके आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं। वह द्वार, जिसके द्वारा जीवमें सर्वदा कर्मपुद्गलोंका आगमन होता है जीवकी ही एक शक्ति है, जिसे योग कहते हैं। वह शक्ति शरीरधारी जीवोंकी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाओंका सहारा पाकर जीवकी ओर कर्मपुद्गलोंको आकृष्ट करती है। अर्थात् हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते हैं, वचनके द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीरके द्वारा जो कुछ हलनचलन करते हैं वह सब हमारी ओर कर्मोके आनेमें कारण होता है । इसलिये तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है कि मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं और वह योग ही आस्रवका कारण होनेसे आस्रव कहा जाता है । अतः आस्रव तत्त्व यह बतलाता है कि कि जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन किस प्रकारसे होता है ? चौथा बन्ध तत्त्व है। जीव और कर्मके परस्परमें मिल जानेको बन्ध कहते हैं । यह बन्ध यद्यपि संयोगपूर्वक होता है Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १४१ किन्तु संयोगसे एक जुदी वस्तु है। संयोग तो मेज और उसपर रक्खी हुई पुस्तकका भी है, किन्तु उसे बन्ध नहीं कह सकते । बन्ध तो एक ऐसा मिश्रण ( मिलाव ) है जिसमें रासायनिक ( Chemical ) परिवर्तन होता है। उसमें मिलनेवाली दो वस्तुएँ अपनी असली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती हैं । जैसे दूध और पानीको आपसमें मिला दिये जानेपर न दूध अपनी असली हालतमें रहता है और न पानी अपनी असली हालत में रहता है, किन्तु दूधमें पनीलापन आ जाता है और पानी दूध सा हो जाता है। दोनों दोनोंपर प्रभाव डालते हैं । इसी तरह जीव और कर्मका परस्पर में सम्बन्ध हो जानेपर न जीव ही अपनी असली हालतमें रहता है और न पुद्गल हो अपनी असली हालत में रहते हैं । दोनों दोनोंसे प्रभावित होते हैं । यही बन्ध है । इसका विशेष विवेचन आगे कर्मसिद्धान्तमें किया गया है । आस्रव और बन्ध ये दोनों संसार के कारण हैं । पाँचवा तत्त्व संवर है। आस्रवके रोकनेको संवर कहते है। अर्थात् नये कर्मोंका जीवमें न आना ही संवर है । यदि नये कर्मों के आगमनको न रोका जाये तो जीवको कभी भी कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता । अतः संवर पाँचवा तत्त्व है। छठा तत्त्व निर्जरा है। बँधे हुए कर्मोंके थोड़ा-थोड़ा करके जीवसे अलग होनेको निर्जरा कहते हैं । यद्यपि जैसे जीव में प्रतिसमय नये कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वैसे ही प्रतिसमय पहले बँबे हुए कर्मोंकी निर्जरा भी होती रहती है, क्योंकि जो कर्म अपना फल दे चुकते हैं वे झड़ते जाते हैं । किन्तु उस निर्जरासे कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिलता; क्योंकि प्रतिसमय नये कर्मोंका बन्ध होता ही रहता है, अतः संबरपूर्वक जो निर्जरा होती है, अर्थात एक ओर तो नये कर्मों के आगमनको रोक दिया जाता है और दूसरी ओर पहले बँधे हुए कर्मोंको जीवसे धीरे-धीरे जुदा कर दिया जाता है तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है जो कि सातवाँ तत्त्व है । समस्त Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनधर्म कर्मबन्धनोंसे जीवके छूट जानेको मोक्ष कहते हैं। मोक्ष या मुक्ति शब्दका अर्थ ही छुटकारा है । जब जीव सब कर्मबन्धनोंसे छूट जाता है तो उसे मुक्त जीव कहते हैं। इस प्रकार उक्त सात तत्त्वोंमेंसे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व हैं, उनके मेलसे ही संसारकी सृष्टि होती है । संसारके मूल कारण आम्रव और बन्ध हैं और संसारसे मुक्त होनेके कारण संवर और निर्जरा हैं। संवर और निर्जराके द्वारा जीवको जो पद प्राप्त होता है वह मोक्ष है, जो कि प्रत्येक जीवका चरम लक्ष्य है। उसीकी प्राप्तिके लिये उसका प्रयत्न चालू रहता है, जिसे हम धर्मके नामसे पुकारते हैं। अतः जो जीव अपने उस चरम लक्ष्यको प्राप्त करना चाहता है उसे उक्त सात तत्त्वोंका ज्ञान होना आवश्यक है। १०. कर्म सिद्धान्त कर्मका स्वरूप प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। मोटे तौरसे यही कर्मसिद्धान्तका अभिप्राय है। इस सिद्धान्तको जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही हैं, किन्तु अनात्मवादी बौद्धदर्शन भी मानता है। इसी तरह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इसमें प्रायः एकमत हैं । किन्तु इस सिद्धान्तमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फल देनेके सम्बन्धमें दोनोंमें मौलिक मतभेद है। साधारणतौरसे जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। जैसे-खाना, पीना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना वगैरह। परलोकको मानने वाले दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है, क्योंकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्तिके मूलमें राग और द्वेष रहते हैं। यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १४३ रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादिकाल से चली आती है । इसीका नाम संसार है । यह संस्कार ही धर्म, अधर्म, कर्माशय आदि नामोंसे पुकारा जाता है । किन्तु जैनदर्शनके मतानुसार कर्मका स्वरूप किसी अंशमें इससे भिन्न है । जैनदर्शनमें कर्म केवल एक संस्कारमात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी द्वेषी जीवकी क्रियासे आकृष्ट होकर जीवके साथ मिल जाता है । यद्यपि वह पदार्थ भौतिक है तथापि जीवके कर्म अर्थात् क्रियाके द्वारा आकृष्ट होकर वह जीवसे बँधता है इसलिये उसे कर्म कहते हैं। आशय यह है कि जहाँ अन्य धर्म राग और द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक क्रियाको कर्म कहते हैं और उस कर्मके क्षणिक होनेपर भी उसके संस्कारको स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शनका कहना है कि राग द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ एक द्रव्य जीव में आता है जो उसके रागद्वेषरूप भावोंका निमित्त पाकर जीव से बँध जाता है, और आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है । इसका खुलासा यह है कि पद्गलद्रव्य २३ तरहकी वर्गणाओं में बँटा हुआ है । उन वर्गणाओं में से एक कार्मणवर्गणा भी है, जो सब संसार में व्याप्त है । जीवके कार्योंके निमित्तसे यह कार्मणवर्गणा ही कर्मरूप हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है 'परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ।। ९५ ।' -प्रवच० 'जब राग द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोंमें लगता है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरण आदि रूपसे उसमें प्रवेश करता है । ' इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है जो जीवके साथ बँध जाता है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ जैनधर्म जीव अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अतः उन दोनोंका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि मूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध हो सकता है । किन्तु अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकता है ? ऐसी आशंका की जा सकती है, उसका समाधान इस प्रकार है- अन्य दर्शनोंकी तरह जैनदर्शन भी जीव और कर्म सम्बन्धको अनादि मानता है। किसी समय जीव सर्वथा शुद्ध था, बादको उसके साथ कर्मोंका सम्बन्ध हुआ, ऐसी मान्यता नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें अनेक विवाद उठ खड़े होते हैं। सबसे पहला विवाद तो यह है कि सर्वथा शुद्ध जीवके कर्मबन्ध हुआ तो कैसे हुआ ? और यदि सर्वथा शुद्ध जीव भी कर्मों के बन्धनमें पड़ सकता है तो उससे छुटकारा पानेका प्रयत्न करना ही व्यर्थ हो जाता है । अतः जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । जैसा कि पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है 'जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिमु गदि ॥ १२८ ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहि दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिघणो सणिघणो वा ॥ १३० ॥ | ' अर्थ - जो जीव संसारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके चक्रमें पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं । उन परिणामोंसे नये कर्म बँधते हैं । कर्मोंसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेनेसे शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंको 'ग्रहण करता है । विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेष करता है । इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्मबन्ध और कर्मबन्धसे राग-द्वेष रूप Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सिद्धान्त r भाव होते रहते हैं । यह चक्र 'अभव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि अनन्त है और भव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि सान्त है। इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकालसे मूर्तिक कर्मोंसे बँधा हुआ है और इसलिये एक तरहसे वह भी मूर्तिक हो रहा है; जैसा कि कहा है 'वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७ ॥ द्रव्यसं० । अर्थात् — वास्तव में जीवमें पाँचों रूप, पाँचों रस, दोनों गन्ध और आठों स्पर्श नहीं रहते इसलिये वह अमूर्तिक है, क्योंकि जैनदर्शनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शगुणवाली वस्तुको ही मूर्तिक कहा है । किन्तु कर्मबन्धके कारण व्यवहारमें जीव मूर्तिक है | अतः कथचित् मूर्तिक आत्माके साथ मूर्तिक कर्मद्रव्यका सम्बन्ध होता है । सारांश यह है कि कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीवसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोंको द्रव्यकर्म कहते हैं. और द्रव्यकर्मके प्रभावसे होनेवाले जीवके राग-द्वेषरूप भावको भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्म भावकर्मका कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्मका कारण है । न बिना द्रव्यकर्मके भावकर्म होते हैं और न बिना भावकर्मके द्रव्यकर्म होते हैं। कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? ईश्वरको जगत्का नियन्ता माननेवाले वैदिकदर्शन जीवको कर्म करनेमें स्वतंत्र किन्तु उसका फल भोगनेमें परतंत्र मानते हैं। उनके मतसे कर्मका फल ईश्वर देता है और वह प्राणियोंके अच्छे या बुरे कर्म के अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि कर्म अपना फल स्वयं देते हैं, उसके लिये किसी न्यायाधीशकी आवश्यकता नहीं है । जैसे, १. जो जीव इस चक्रका अन्त नहीं कर सकते उन्हें अभव्य कहते है और जो उसका अन्त कर सकते हैं उन्हें भव्य कहते हैं । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनधर्म शराब पीनेसे नशा होता है और दूध पीनेसे पुष्टि होती है । शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देनेके लिये किसी दूसरे शक्तिमान नियामककी आवश्यकता नहीं होती । उसी तरह जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ जो कर्मपरमाणु जीवात्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और रागद्वेपका निमित्त पाकर उस जीवसे बंध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूधकी तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति रहती हैं, जो चैतन्यके सम्बन्धसे व्यक्त होकर जीवपर अपना प्रभाव डालती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो सुखदायक वा दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव अच्छे होते हैं तो बँधनेवाले कर्मपरमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और बादको उनका फल भी अच्छा ही होता है । तथा यदि बुरे भाव होते हैं तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तर में उसका फल भी बुरा ही होता है । मानसिक भावोंका अचेतन वस्तुके ऊपर कैसे प्रभाव पड़ता है और उस प्रभावकी वजहसे उस अचेतनका परिपाक कैसे अच्छा या बुरा होता है ? इत्यादि प्रश्नोंके समाधानके लिये चिकित्सकों के भोजन सम्बन्धी नियमोंपर एक दृष्टि डालनी चाहिये । वैद्यकशास्त्र के अनुसार भोजन करते समय मनमें किसी तरहका क्षोभ नहीं होना चाहिये; भोजन करनेसे आधा घंटा पहलेसे लेकर भोजन करनेके आधा घंटा बाद तक मनमें अशान्ति उत्पन्न करनेवाला कोई विचार नहीं आना चाहिये । ऐसी दशा में जो भोजन किया जाता है, उसका परिपाक अच्छा होता है और वह विकार नहीं करता । किन्तु इसके विपरीत काम, क्रोध आदि विकारोंके रहते हुए यदि भोजन किया जाता है तो वह भोजन शरीरमें जाकर विकार उत्पन्न करता है । इससे स्पष्ट है कि कर्ताके भावोंका असर अचेतनपर भी पड़ता है और उसके अनुसार ही उसका विपाक होता है। अतः जीवको फल भोगने में परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं हैं । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १४७ यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जहाँ एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है वहाँ घातकको पापका भागी नहीं होना चाहिये क्योंकि उस घातकके द्वारा ईश्वर मरनेवाले कोड दिलाता है । जैसे, राजा जिन पुरुपोंके द्वारा अपराधियोको दण्ड दिलाना है वे पुरुष अपराधी नहीं कह जाते; क्योंकि वे राजाज्ञाका पालन करते हैं। उसी तरह किसीका घात करनेवाला घानक भी जिसका घात करना है उसके पूर्वकृत कर्मोका फल भुगताता है; क्योंकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियन की होगी भी ना उसका वध किया गया। यदि कहा जाय कि मनुष्य कम करने में स्वतंत्र है अतः घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है, किन्तु घातककी स्वतंत्र इच्छाका परिणाम है । तो इसका उत्तर यह है कि संसारदशामें कोई भी प्राणी वास्तव में स्वतंत्र नहीं है, मभी अपने अपने कमांसे बंधे हैं और कर्मके अमुसार ही प्राणीकी बुद्धि हानी है। शायद कहा जाये कि ऐसी दशामें तो कोई भी व्यक्ति मुक्तिलाभ नहीं कर सकता; क्योंकि जीव कर्मसे बँधा है और कर्मक अनुसार जीवकी बुद्धि होती है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि का अच्छ भी होते हैं और बुरे भी होते हैं । अतः अच्छे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको कुमार्गकी आर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलनेस संसारलाभ होता है। अतः बुद्धिके कर्मानुसार होनेसे मुक्तिकी प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं आती।। इस तरह जब जीव कर्म करनेमें स्वतंत्र नहीं है तो घातकका घानरूपकर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा। और वुद्धिको दुष्टना उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल कही जायेगी। ऐसी स्थितिमें यदि हम कर्मफलदाता ईश्वरको मानते है तो उस घातककी दुष्ट बुद्धिका कर्ता ईश्वरका ही कहा जायेगा। इसपर हमारी विचारशक्ति कहती है कि एक विचारशील फल Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनधर्म दाताको किसी व्यक्तिके बुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिये जो उसकी सजाके रूपमें हो, न कि उसके द्वारा दूसरोंको सजा दिलवानेके रूपमें हो। किन्तु ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है; क्योंकि उसे उस घातकके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है । किन्तु घातकको, जिस बुद्धिके कारण वह परका घात करता है उस बुद्धिको बिगाड़नेवाले कमौंका क्या फल मिला ? इस फलके द्वारा तो दूसरेको सजा भोगनी पड़ी। किन्तु यदि ईश्वरको फलदाता न मानकर जीवके कर्मोंमें ही स्वतः फलदानकी शक्ति मान ली जाय तो उक्त समस्या आसानीसे हल हो जाती है; क्योंकि मनुष्यके बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका संस्कार डाल देते हैं, जिससे वह क्रोधमें आकर दूसरों का घात कर डालता है और इस तरह उसके बुरे कर्म उसे बुरे मार्गकी ओर ही तबतक लिये चले जाते हैं जब तक वह उधरसे सावधान नहीं होना । अतः ईश्वर को कर्म-फलदाता माननेमें इस तरह के अन्य भी अनेक विवाद खड़े होते हैं। जिनमें से एक इस प्रकार हैं किसी कर्मका फल हमें तुरन्त मिल जाता है, किसीका कुछ माह बाद मिलता है, किसीका कुछ वर्ष बाद मिलता हैं और किसीका जन्मान्तरमें मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोगमें समयकी विषमता क्यों देखी जाती है ? ईश्वरवादियोंकी ओर से इसका ईश्वरेच्छाके सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिलता । किन्तु कर्ममें ही फलदानको शक्ति माननेवाला कर्मवादी जैनसिद्धान्त उक्त प्रश्नोंका बुद्धिगम्य समाधान करता है जो कि आगे बतलाया गया है । अतः ईश्वरको फलदाता मानना उचित नहीं जँचता । कर्मके भेद पहले बतलाया है कि जैनदर्शनमें कर्मसे मतलब जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ जीवकी ओर आकृष्ट होनेवाले कर्मपर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १४९ माणुओंसे है। वे कर्मपरमाणु जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ, जिसे जैनदर्शन में योगके नामसे कहा गया है, जीवकी ओर आकृष्ट होते हैं और आत्माके राग, द्वेष और मोह आदि भावोंका. जिन्हें जैनदर्शनमें कषाय कहते हैं, निमित्त पाकर जीवसे बँध जाते हैं। इस तरह कर्मपरमाणुओंको जीवतक लानेका काम जीवकी योगशक्ति करती है और उसके साथ बन्ध करानेका काम कषाय अर्थात् जीवके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । सारांश यह है कि जीवको योगशक्ति और कषाय ही बन्धका कारण हैं । कषायके नष्ट हो जानेपर योगके रहनेतक जीव में कर्मपरमाणुओंका आस्रव आगमन तो होता है किन्तु कषायके न होनेके कारण ठहर नहीं सकते। उदाहरणके लिए, योगको वायुकी, कषायको गोंदकी, जीवको एक दोवारकी और कर्मपरमाणुओंको धूलकी उपमा दी जा सकती है । यदि दीवारपर गोंद लगी हो तो वायुके साथ उड़कर आनेवाली धूल दीवारसे चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ, चिकनी और सूखी होती है तो धूल दीवारपर न चिपककर तुरन्त झड़ पड़ती है। यहाँ धूलका कम या ज्यादा परिमाणमें उड़कर आना वायुके वेगपर निर्भर है । यदि वायु तेज होती है तो धूल भी खूब उड़ती है और यदि धीमी होती है तो धूल भी कम उड़ती है । तथा दीवारपर धूलका थोड़े या अधिक दिनोंतक चिपके रहना उसपर लगी गोंद आदि गीली वस्तुओंकी चिपकाहटको कमीबेशी पर निर्भर है। यदि दीवारपर पानी पड़ा हो तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़ जाती है । यदि किसी पेड़का दूध लगा हो तो कुछ देरमें झड़ती है और यदि कोई गोंद लगी हो तो बहुत दिनों में झड़ती है । सारांश यह कि चिपकानेवाली चीजका असर दूर होते ही चिपकनेवाली चीज स्वयं झड़ जाती है। यही बात योग और कषायके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिये। योगशक्ति जिस दर्जे की होती है आनेवाले कर्मपरमाणुओंकी संख्या भी इसीके अनुसार कमती या बढ़ती होती है। यदि योग उत्कृष्ट Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनधर्म होता है तो कर्मपरमाणु भी अधिक तादाद में जीवकी ओर आते हैं । यदि योग जघन्य होता है तो कर्मपरमाणु भी कम तादाद में जीव की ओर आते हैं । इसी तरह यदि कपाय तीव्र होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ बहुन दिनांतक बँधे रहते हैं और फल भीती देते हैं । यदि कपाय हल्की होती है तो कर्मपरमाणु जीव के साथ कम समय तक वे रहते हैं और फल भी कम देते हैं । यह एक साधारण नियम है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी हैं। इस प्रकार योग और कषायसे जीवके साथ कर्मपुद्गलोंका बन्ध होता है । वह बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध हैं । उनकी संख्याका नियत होना प्रदेशबन्ध है । उनमें कालकी मर्यादाका पड़ना, कि ये अमुक कालतक जीव के साथ बँधे रहेंगे, स्थितिबन्ध है और उनमें फल देनेकी शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है । कर्मों में अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना तथा उनकी संख्याका कमती बढ़ती होना योगपर निर्भर हैं । तथा उनमें जीवके साथ कम या अधिक कालतक ठहरनेकी शक्तिका पड़ना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पड़ना कपायपर निर्भर है । इस तरह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तो योगसे होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं । इनमेंसे प्रकृतिबन्धके आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण नामका कर्म जीवके ज्ञानगुणको घानता है । इसकी वजहसे कोई अल्पज्ञानी और कोई विशेषज्ञानी देखा जाता है । दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शनगुणको घातता है । आवरण ढाँकनेबाली वस्तुको कहते हैं, अर्थात् ये दोनों कर्म जीवके ज्ञान और दर्शनको ढाँकते हैं, उन्हें प्रकट नहीं होने देते। वेदनीयकर्म - जो सुख और दुःखका वेदन-अनुभवन कराता है । मोहनीयकर्म - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्धान्त १५१ I जो जीवको मोहित कर देता है। इसके दो भेद हैं एक जो जीवको सच्चे मार्गका भान नहीं होने देता और दूसरा, जो सच्चे मार्गका भान हो जानेपर भी उसपर चलने नहीं देता । आयुकर्म - जो अमुक समयतक जीवको किसी एक शरीर में रोके रहता है । इसके छिड़ जानेपर ही जीवकी मृत्यु कही जाती है । नामकर्म - जिसकी वजहसे अच्छे या बुरे शरीर और अंगउपाङ्ग वगैरहकी रचना होती है । गोत्रकर्म - जिसकी वजह से जीव ऊँच कुलका या नीच कुलका कहा जाता है । अन्तरायकर्म - जिसकी वजहसे इच्छित वस्तुकी प्राप्तिमें रुकावट पैदा हो जाती है । इन आठ कर्मोंमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहन और अन्तरा ये चार कर्म घातिकर्म कहे जाते हैं, क्योंकि ये चारों जीवके स्वाभाविक गुणोंको घातते हैं। शेष चार कर्म अघाती कहे जाते हैं; क्योंकि वे जीवके गुणोंका घात नहीं करते । इन आठ कर्मोंमेंसे भी ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरणके नौ, वेदनीयके दो, मोहनीयके अट्ठाईस, आयुके चार, नामके तिरानवें, गोत्र के दो और अन्तरायके पाँच भेद हैं । इन भेदोंका नाम और उनका काम वगैरह तस्वार्थसूत्र कर्मकाण्ड आदि ग्रन्थोंमें देखा जा सकता है । घातीकर्म के भी दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती । जो कर्म जीवके गुणका पूरी तरहसे घात करता है उसे सर्वघाती कहते हैं और जो कर्म उसका एक देशसे घात करता है उसे देशघाती कहते हैं। चार घानी कम के ४७ भेदोमंसे २६ देशघाती हैं और २१ सर्वघाती है। घातिकर्म तो पापकर्म ही कहे जाते हैं किन्तु अघातिकर्मक भेदोंमेंसे कुछ पुण्यकर्म हैं और कुछ पापकर्म हैं। जैसे मनुष्यके द्वारा खाया हुआ भांजन पाकस्थली में जाकर रस, मज्जा, रुधिर आदि रूप हो जाता है, वैसे ही जीवके द्वारा ग्रहण किये गये कर्मपुद्गल ज्ञानावरणादि रूप हो जाते हैं। उन कर्मपुद्गलोंका बँटवारा बँधनेवाले कर्मोंमें तुरन्त हो जाता है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जनधर्म ___ जीव कब कैसे कमों को बाँधता है और उनका बँटवारा कैसे होता है ? स्थिति और अनुभागका क्या नियम है ? इत्यादि बातोंका वर्णन जैन कर्मसाहित्यसे जाना जा सकता है । जैन सिद्धान्तमें कर्मोकी १० मुख्य अवस्थाएँ या कर्मोंमें होनेवाली दस मुख्य क्रियाएँ बतलाई हैं जिन्हें 'करण' कहते हैं । उनके नाम हैं-बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, निधत्ति और निकाचना। बन्ध-कर्मपुद्गलोंका जीवके साथ सम्बन्ध होनेको बन्ध कहते हैं। यह सबसे पहली दशा है ? इसके बिना अन्य कोई अवस्था नहीं हो सकती। इसके चार भेद हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध, और प्रदेश बन्ध । जब जीवके साथ कर्म पुद्गलोंका बन्ध होता है उसमें जीवके योग और कषायके निमित्तसे चार बातें होती हैं, प्रथम, तुरन्त ही उनमें ज्ञानादिकको घातने वगैरहका स्वभाव पड़ जाता है । दूसरे, उनमें स्थिति पड़ जाती है कि ये अमुक समय तक जीवके साथ बंधे रहेंगे। तीसरे, उनमें तीन या मन्द फल देने की शक्ति पड़ जाती है, चौथे वे नियत तादादमें ही जीवसे सम्बद्ध होते हैं । जैसा कि पहले बतलाया है। उत्कर्षण-स्थिति और अनुभागके बढ़नेको उत्कर्षण कहते हैं। अपकर्षण-स्थिति और अनुभागके घटनेको अपकर्षण कहते हैं। बन्ध के बाद बँधे हुए कमों में ये दोनों क्रियाएँ होती हैं। बुरे कर्मों का बन्ध करनेके बाद यदि जीव अच्छे कर्म करता है तो उसके पहले बाँधे हुए बुरे कमोंकी स्थिति और फलदानशक्ति अच्छे भावोंके प्रभावसे घट जाती है। और अगर बुरे कोका बन्ध करके उसके भाव और भी अधिक कलुषित हो जाते हैं और वह और भी अधिक बुरे काम करनेपर उतारू हो जाता है तो बुरे भावोंका असर पाकर पहले बाँधे हुए Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त कों की स्थिति और फलदान शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण ही कोई कम जल्द फल देता है और कोई देर में। किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द। ___सत्ता-बंधनेके बाद ही कर्म तुरन्त अपना फल नहीं देता, कुछ समय बाद उसका फल मिलता है। इसका कारण यह है कि बँधनेके बाद कर्म सत्तामें रहता है। जैसे शराब पीते ही तुरन्त अपना असर नहीं देती किन्तु कुछ समय बाद अपना असर दिखलाती है। वैसे ही कर्म भी बँधनेके बाद कुछ समयतक सत्ता में रहता है । इस कालको जैनपरिभाषामें आबाधाकाल कहते हैं। साधारणतया कर्मका अबाधाकाल उसकी स्थितिके अनुसार होता है। जैसे जो शराब जितनी ही अधिक नशीली और टिकाऊ होती है वह उतने ही अधिक दिनोंतक सड़ाकर बनती है, वैसे ही जो कर्म अधिक दिनोंतक ठहरता है उसका अबाधाकाल भी उसी हिसाबसे अधिक होता है। एक कोटीकोटी सागरकी स्थितिमें सौ वर्ष आबाधाकाल होता है । अर्थात यदि किसी कर्मकी स्थिति एक कोटि कोटि सागर बाँधी हो तो वह कर्म सौ वर्षके बाद फल देना शुरू करता है और तबतक ‘फल देता रहता है जबतक उसकी स्थिति पूरी न हो। किन्तु आयुकर्मका आवाधाकाल उसकी स्थितिपर निर्भर नहीं है। इसका खुलासा अन्य ग्रन्थोंमें देखना चाहिये । इस प्रकार बंधनेके बाद कर्मके फल न देकर जीवके साथ मौजूद रहनेमात्रको सत्ता कहते हैं। उदय-कर्मके फल देनेको उदय कहते हैं। यह उदय दो तरहका होता है-फलोदय और प्रदेशोदय । जब कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है तो वह फलोदय कहा जाता है। और जब कर्म बिना फल दिये ही नष्ट होता है तो उसे प्रदेशोदय कहते हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म १५४ उदोरणा-जैसे, आमोंके मौसममें आम बेचनेवाले आमोंको जल्दी पकानेके लिये पेड़से नोड़कर भूसे वगैरहमें दबा देते हैं, जिससे वे आम वृक्षकी अपेक्षा जल्दी पक जाते हैं। इसी नरह कभी कभी नियत समयसे पहले कर्मका विपाक हो जाता है । इसे ही उदीरणा कहते हैं। उदीरणाके लिये पहले अपकर्षण करणके द्वारा कर्मको स्थिनिको कम कर दिया जाता है, स्थिनिके घट जानेपर कर्म नियत समयसे पहले उदयमें आ जाता है। जब कोई असमयमें हो मर जाता है तो उसकी अकालमृत्यु कही जाती है। इसका कारण आयुकर्मकी उदीरणा ही है। स्थिनिका घात हुए बिना उदीरणा नहीं होती। __ संक्रमण-एक कर्मका दुसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको संक्रमण करण कहते हैं । यह संक्रमण मूल भेदोंमें नहीं होता। अर्थात ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप नहीं होता और न दर्शनावरण ज्ञानावरणरूप होता है ? इसी तरह अन्य कोंके बारेमें भी जानना। किन्तु एक कर्मका अवान्तर भेद अपने सजातीय अन्य भेदरूप हो सकता है । जैसे, वेदनीय कर्मके दो भेदोंमेंसे सातवेदनीय असातवेदनीय रूप हो सकता है और असानवेदनीय सातवेदनीयरूप हो सकता है । यद्यपि संक्रमण एक कर्मके अवान्तर भेदोंमें ही होता है, किन्तु उसमें अपवाद भी है। आयुकर्मके चार भेदोंमें परस्परमें संक्रमण नहीं होता। नरकगतिकी आयु बाँध लेनेपर जीवको नरकगतिमें ही जाना पड़ता है, अन्य गनिमें नहीं । इस प्रकार बााकी तीन आयुओंके बारे में भी जानना चाहिये। उपशम--कम को उदयमें आ सकनेके अयोग्य कर देना उपशम करण है । निधत्ति-कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त १५५ निकाचना — उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणाका न हो सकना निकाचना है । कर्मकी इन अनेक दशाओंके सिवाय जैनसिद्धान्तमें कर्मका स्वामी, कर्मोंको स्थिति, कब कौन कर्म बँधता है ? किसका उदय होता है, किस कर्मकी सत्ता रहती है, किस कर्मका क्षय होता है आदि बातोंका विस्तार से वर्णन है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. चारित्र जैनधर्मके दार्शनिक मन्तव्योंका परिचय कराकर अब हम उस चरित्रकी ओर आते हैं, जो वस्तुतः धर्म कहा जाता है। - रत्नकरंडश्रावकाचार नामक प्राचीन जैन-ग्रन्थमें समर्थ जैनाचार्य श्री समन्तभद्र स्वामीने धर्मका वर्णन करते हुए लिखा है 'देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २॥' 'मैं कर्मबन्धनका नाश करनेवाले उस सत्यधर्मका कथन करता हूँ जो प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धरता है।' इससे निम्न निष्कर्ष निकालते हैं(१) संसारमें दुःख है। (२) उस दुःख का कारण प्राणियोंके अपने-अपने कर्म हैं। (३) धर्म प्राणिमात्रको दुःखसे छुड़ाकर न केवल सुख किन्तु उत्तम सुख प्राप्त कराता है। ___ अब विचारणीय यह है कि संसारमें दुःख क्यों है और धर्म कैसे उससे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त कराता है। १. संसारमें दुःख क्यों है ? संसारमें दुःख है यह किसीसे छिपा नहीं। और सब लोग सुखके इच्छुक हैं और सुखके लिए ही रात दिन प्रयत्न करते हैं यह भी किसीसे छिपा नहीं। फिर भी सब दुःखी क्यों हैं ? जिन्हें पेट भरनेके लिए न मुट्ठी भर अन्न मिलता है और न तन ढाँकनेके लिये वस्त्र, उनकी बात जाने दीजिये। जो सम्पत्तिशाली हैं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १५७ उन्हें भी हम किसी न किसी दुःखसे पीड़ित पाते हैं। निर्धन धनके लिये छटपटाते हैं और धनवानोंको धनकी तृष्णा चैन नहीं लेनेदेती । निःसन्तान सन्तानके लिये रोते हैं तो सन्तानवाले सन्तान के भरणपोषण के लिये चिन्तित हैं। किसीका पुत्र मर जाता है. तो किसीकी पुत्री विधवा हो जाती है। कोई पत्नीके बिना दुःखी है तो कोई कुलटा पत्नीके कारण दुःखी है । सारांश यह है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी दुःखसे दुःखी है। और अपनी अपनी समझ के अनुसार उसे दूर करनेकी चेष्टा करता है, किन्तु फिर भी दुःखोंसे छुटकारा नहीं होता। सुम्बकी चाहको पूरा करनेके प्रयत्न में जीवन बीत जाता है किन्तु किसीकी चाह पूरी नहीं होती। आइये ! जरा इसके कारणोंपर विचार करें। सुखके साधन तीन हैं - धर्म, अर्थ और काम । इनमें भी धर्म ही सुखका मुख्य साधन है और बाकीके दोनों गौण हैं, क्योंकि शुभाचरणरूप धर्मके बिना प्रथम तो अर्थ और कामकी प्राप्ति ही असंभव है । जरा देरके लिये उसे संभव भी मान लिया जाये तो अधर्मपूर्ण साधनोंसे उपार्जन किया हुआ अर्थ और काम कभी सुखका कारण हो नहीं सकता, बल्कि दुःखोंका ही कारण होता है। इसके दृष्टान्तके लिये चोरीसे धन कमानेबालों और परस्त्रीगामियोंको उपस्थित किया जा सकता है। मोहवश इन कामों में बहुत से लोग प्रवृत्त हुए देखे जाते हैं, पर उन कामोंको स्वयं ही अच्छा नहीं बतलाते । और उस धन और कामभोगसे उन्हें कितना सुख मिलता है यह भी उनकी आत्मा ही जानती है । यथार्थमें अर्थ और कामसे तभी सुख हो सकता है जब उसमें सन्तोष हो । सन्तोषके बिना धन कमानेसे धनकी तृष्णा बढ़ती जाती है और तृष्णाकी ज्वालासं जलते हुए मनुष्योंको सुखका लेश भी नहीं मिल सकता। इसी प्रकार जो कामभोगकी तृष्णामें पड़कर कामभोगके साधन शरीर, इन्द्रिय वगैरहको जर्जर कर लेते हैं वे क्या कभी सुखी हो सकते हैं ? फिर अर्थ और काम सदा ठहरनेवाले नहीं हैं, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनधर्म इनका स्वभाव ही नश्वरता है, किन्तु मनुष्योंने उन्हें ही सुखका साधन मान रखा है | अर्थ और काममें जो जितनी उन्नति कर लेता है, जितनी अधिक संपत्ति, भोग-उपभोगके साधन, ऊँची अट्टालिकाएँ, सुन्दर सुन्दर गाड़ियाँ आदि जिसके पास हैं वह उतना ही अधिक सुखी माना जाता है, उसका उतना ही अधिक आदर होता है । और यह सब देखकर सब लोग, क्या मूर्ख और क्या विद्वान, क्या ग्रामीण और क्या शहरी, बालकसे बूढेतक अर्थ और कामके लिये ही शक्तिभर उद्योग करते हैं । यदि कोई धर्म में लगता भी हूँ तो अर्थ और कामके लिए ही लगता है । ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य दुःखी न हों तो क्यों न हों ? फिर मनुष्योंकी यह अर्थलालसा और कामलालसा केवल उन्हें ही दुःखी नहीं करती बल्कि समाज और राष्ट्र भरको दुःखी बनाती हैं, क्योंकि जो मनुष्य स्वार्थवश धन कमाता है और उचित अनुचितका विचार नहीं करना वह दूसरोंके कष्टका कारण अवश्य होता है, साथ ही साथ यदि वह दूसरोंको कष्ट पहुँचाकर चोरी या छलसे अपनेको धनी बनाता है तो दूसरे चतुर मनुष्य उसका ही अनुकरण करके उसी रीति से धनवान बननेकी केष्टा करते हैं और इस तरह परस्पर में ही एक दूसरेके द्वारा सताया जाकर समाजका समाज दुःखी हो उठता है । यहीं बात कामभोग सम्बन्धमें भी है । अतः यदि धर्मके द्वारा अर्थ और कामकी मर्यादा रखी जाय तो वे सुखके साधन हो सकते हैं, परन्तु धर्मकी मर्यादाके बिना वे सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक उत्पन्न करते हैं । अतः सुखके साथ धर्मका ही घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है और सुखके साधनोंमें धर्म ही प्रधान ठहरता है । तथा शास्त्रोंमें जो सुखका विचार किया गया हैं, उसपर दृष्टि डालने से तो यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है । शास्त्रोंमें सुखको जीवका स्वभाव बतलाया है, क्योंकि सुख जीवके भीतर से ही प्रकट होता है, बाहर संसार में कहीं भी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १५९ सुखका स्थान नहीं है। यदि हम अपनेसे बाहर अन्य पदार्थोंमें सुखकी खोज करते रहें तो हमें कभी भी सुख नहीं मिल सकता। यह सत्य है कि इन्द्रियोंके भोग हमसे बाहर इस संसारमें विद्यमान हैं, किन्तु उनमेंसे कोई भी स्वयं सुख नहीं है। उदाहरणके लिये, एक व्यापारीको तार द्वारा यह सूचना मिलती है कि उसे व्यापारमें बहुन लाभ हुआ है। सूचना पाते ही वह आनन्दमें निमग्न हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि तार द्वारा सूचना मिलते ही उसके हृदयमें जो आनन्द हुआ वह कहाँसे आया? क्या वह उस तारके कागजसे उत्पन्न हुआ जिसपर सूचना लिखी थी ? नहीं, क्योंकि यदि उस कागजपर हानिकी सूचना लिखी होती तो वही कागज उसी व्यापारीके दुःखका कारण बन जाता। शायद आप कहें कि उस तारक कागजपर जो वाक्य लिखे हुए थे उनमें सुख विद्यमान था। किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उन वाक्योंमें सुख है तो जो कोई उन वाक्योंको पढ़े या सुने उन सभीको सने सुख होना चाहिये, मगर ऐसा नहीं देखा जाता। शायद कहा जाये कि उन वाक्योंका सम्बन्ध उसी व्यापारीसे है अतः उनसे उसीको सुख होता है दूसरोंको नहीं । किन्तु यदि उस व्यापारीको उस तारको सत्यतामें सन्देह हो तो उन वाक्योंसे उसे भी तब तक सुख नहीं होगा जब तक उसका सन्देह दूर न हो। इसके सिवा एक ही वस्तु किसीके सुखका साधन होती है और किसीके दुःखका साधन होती है । तथा एक ही वस्तु कभी सुखका साधन होती है और कभी दुःखका साधन होती है। जैसे, पुत्र जब तक माता-पिताका आज्ञाकारी रहता है तब तक उनके सुखका साधन होता है और जब वही उद्दण्ड हो जाता है तो दुःखका कारण बन जाता है । अतः यदि वाह्य वस्तु सुखस्वरूप होती तो उससे सबको सदा सुख ही होना चाहिये था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः यह मानना पड़ता है कि सुख जीवका ही स्वभाव है, इसलिये वह अन्दरसे ही उत्पन्न होता है। किन्तु Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जैनधर्म बाहरमें जिस वस्तुका सहारा पाकर सुख उत्पन्न होता है, अज्ञानसे मनुष्य उसे ही सुख समझ बैठता है । परन्तु वास्तवमें बाहिरी वस्तु न स्वयं सुख है और न सुखका साधन ही है। शरीरमें उत्पन्न होनेवाले विकारोंकी क्षणिक शान्तिके उपायोंको मनुष्य भ्रमसे सुखका साधन मानता है, किन्तु वास्तव में वे सुखके साधन नहीं हैं, बल्कि शारीरिक विकारोंके प्रतीकारमात्र हैं, जैसा कि भर्तृहरिने भी लिखा है "तृषा शुष्यत्यास्ये पिवति सलिलं स्वादु सुरभि क्षुधातः सन् शालीन् कवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढ़तरमालिङ्गति वधू प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥' अर्थात्-'जब प्याससे मुख सूखने लगता है तो मनुष्य सुखन्धित स्वादु जल पीता है । भूखसे पीड़ित होनेपर शाक आदिके माथ भात खाता है । कामाग्निके प्रज्वलित होनेपर पत्नीका आलिंगन करता है। इस प्रकार रोगके प्रतीकारोंको मनुष्य भूलसे सुख मान रहा है।' सारांश यह है कि बाह्य वस्तुओंके संग्रहका उद्देश्य केवल शरीर और मनके अन्दर उत्पन्न होनेवाली दुःखजनित चंचलता. को मिटाना मात्र है। सच्चा सुख तो अपने अन्दरसे स्वतः विकसित होता है, वह बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं करता। उसके लिये नगर और वन, स्वजन और परजन, महल और श्मशान तथा प्रिया की गोद और शिलातल सब समान हैं । अतः न अर्थ सुखका साधन है और न काम, किन्तु इच्छाका निरोध ही सच्चे सुखका साधन है । जो इस सत्यको नहीं समझते वे इच्छाको न रोककर इच्छाके अनुकूल पदार्थ प्राप्त करके सुखी होनेका प्रयत्न करते हैं, किन्तु एक इच्छाके पूरी होनेपर दूसरी इच्छा उत्पन्न होती है और इस तरह इच्छाका स्रोत बहता रहता है। सब इच्छाएँ किसीकी पूरी नहीं होती, और यदि हो भी जाएँ तो Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १६१ आगे कोई इच्छा उत्पन्न न हो यह संभव नहीं है । अतः फिर इच्छा उत्पन्न होनेसे फिर दुःखकी ही संभावना है । अतः प्रत्येक प्रकारको इच्छाका नियमन करना ही सुखका सच्चा उपाय है, न कि उसके अनुकूल पदार्थ जुटाकर उसकी तृप्ति करना। तृप्ति करनेसे तो इच्छा बढ़ती है और वह तृष्णाका रूप धारण कर लेती है। निष्कर्ष यह है कि सब सुख चाहते हैं, किन्तु दुःखोंका अभाव हुए बिना सुखकी प्रतीति नहीं हो सकती। अर्थ और कामसे जो सुख होता है वह सुख सुख नहीं हैं, किन्तु शारीरिक और मानसिक रोगांका प्रतीकारमात्र है। भ्रमसे लोगोंने उसे सुख समझ लिया है और सब उन्लीकी प्राप्तिके उपायों में लगे रहते हैं, नथा न्याय और अन्यायका विचार नहीं करते । इसीसे संसारमें दुःख है । हमारी अर्थ और कामकी अनियंत्रित वाञ्छा ही स्वयं हमारे और दूसरोंके दुःखका कारण बनी हुई है। यदि हम उसे धर्मके अंकुशसे नियंत्रित कर सकें-धर्म अविरुद्ध अर्थ और कामके सेवन करनेका व्रत लेलें तोहम स्वयं भी सुखी हो सकते हैं और दूसरे भी, जो कि हमारी अनियंत्रित अर्थतृष्णा और कामतृष्णाके शिकार बने हुए हैं, सुखी हो सकते हैं। इसीलिये धर्म उपादेय है । वह हमारी इच्छाओंका नियमन करके हमें सुखी ही नहीं, किन्तु पूर्ण सुखी बनाता है, क्योंकि जो सुख हमें इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है, वह पराधीन है। जब तक हमें भोगनेके लिये रुचिकर पदार्थ नहीं मिलते तब तक वह होता ही नहीं, तथा उनके भोगने पर तत्काल सुख मालूम होता है किन्तु बादमें जब भोगकर छोड़ देते हैं तो पुन उनके विना विकलता होने लगती है। जैसे, भूख लगनेपर रुचिकर भोजन मिलनेसे सुख होता है, न मिलनेसे दुःख होता है । तथा एक बार भर पेट भोजन कर लेनेपर दूसरी बार फिर क्षुधा सताने लगती है और हम भोजनके लिये विकल हो उठते हैं । अतः इस प्रकारसे प्राप्त होनेवाला Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनधर्म सुख सुख नहीं है किन्तु दुःख ही है। सच्चा सुख वह है जिसे एक बार प्राप्त कर लेनेपर फिर दुःखका भय ही नहीं रहता। इसीसे कहा है-तत्सुखं यत्र नामुखम्'। सुख वही है जिसमें दुःख न हो । धर्मसे ऐसे ही स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है । २. मुक्तिका मार्ग 'संसारमें दुःख क्यों है' यह हम जान चुके हैं और यह भी जान चुके हैं कि सुखका साधन धर्म है । वह हमें दुःखोंसे छुड़ाकर सुख ही नहीं किन्तु उत्तम सुख प्राप्त करा सकता है। अब प्रश्न यह है कि दुःखोंसे छूटने और सुखको प्राप्त करनेका वह मार्ग कौनसा है, जो धर्मके नामसे पुकारा जाता है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं "सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥" -रत्नकरंड० । अर्थात-धर्मके प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्रको धर्म कहते हैं। जिनके उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र संसारके मार्ग हैं।' ___ इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको ही, जो कि धर्मके नामसे कहे गये हैं, प्रसिद्ध सूत्रकार उमास्वामीने मुक्तिका मार्ग बतलाया है। असल में जो मुक्तिका मार्ग हैदुःखों और उनके कारणोंसे छूटनेका उपाय है, वही तो धर्म है। उसीको हमें समझना है। दुःखोंसे स्थायी छुटकारा पानेक लिये सबसे प्रथम हमें यह दृढ़ श्रद्धान होना जरूरी है कि "एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥१०२॥" -नियमसार । 'ज्ञानदर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है। शुभाशुभ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १६३ कर्मोंके संयोगसे उत्पन्न हुए बाकी सभी पदार्थ बाह्य हैंमुझसे भिन्न हैं मेरे नहीं हैं ।' जब तक हम उन वस्तुओंसे, जो हमें हमारे शुभाशुभ कर्मोंके फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, ममत्व नहीं त्यागेंगे, तबतक हम अपने छुटकारेका प्रयत्न नहीं कर सकेंगे । और करेंगे भी तो वह हमारा प्रयत्न सफल नहीं होगा, क्योंकि जबतक हमें यही मालूम नहीं हैं कि हम क्या हैं और जिनके बीच में हम रहते हैं उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है तबतक हम किससे किसका छुटकारा करा सकेंगे ? जैसे, जिसे सोनेकी और उसमें मिले हुए खोट की पहचान नहीं है कि यह सोना है और यह मेल है, वह खानसे निकले हुए पिण्डमेंसे सोनेको शोधकर नहीं निकाल सकता । सोनेको शोधकर निकालनेके लिये उसे सोने और मैलका ज्ञान तथा यही सोना है और यही मैल है ऐसा दृढ़ विश्वास न होनेपर वह किसी दूसरेके बहकावमें आकर मैलको सोना और सोनेको मैल समझकर भ्रम में भी पड़ सकता है। वैसे ही आत्मशोधकको भी अपनी आत्मा, उसकी खराबियाँ, उन खराबियोंके कारण और उनसे छुटकारा पानेके उपायोंका भली भाँति ज्ञान होनेके साथ ही साथ अपने उस ज्ञानकी सत्यतापर दृढ़ आस्था भी अवश्य होनी चाहिये | यह आस्था ही सम्यग्दर्शन है | छुटकारेका प्रयत्न करनेसे पहले इसका होना नितान्त आवश्यक है । जो कुछ सन्देह वगैरह हो उसे पहले ही दूर कर लेना चाहिये । जब वह दूर हो जाये और पहले कहे गये सात तत्त्वोंकी दृढ़ प्रतीति हो जाये तब फिर मुक्ति के मार्ग में पैर बढाना चाहिये और फिर उससे पीछे पैर नहीं हटाना चाहिये, जैसा कि कहा है विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५॥” - पुरुषार्थ० । 'शरीरको ही आत्मा मान लेनेका जो मिथ्याभाव हो रहा है, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनधर्म उसे दूर करके आत्मतत्त्वको अच्छी तरह जानकर, उससे विचलित न होना ही परमपुरुषार्थ मुक्तिकी प्राप्तिका उपाय है ।' अतः मुक्तिके लिये उक्त सात तत्त्वोंपर दृढ़ आस्थाका होना सम्यग्दर्शन है और उनका ठीक-ठीक ज्ञान होना ही सम्यज्ञान है । ये दोनों ही आगे बढ़नेकी भूमिका हैं, इनके बिना मुक्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है । जिस जीवको इस प्रकारका दृढ़ श्रद्धान और ज्ञान हो जाता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती है। अब यदि वह आगे बढ़ेगा तो धोखा नहीं खा सकेगा । जबतक मनुष्यकी दृष्टि ठीक नहीं होती - उसे अपने हिताहितका ज्ञान नहीं होता तबतक वह अपने हितकर मार्गपर आगे नहीं बढ़ सकता । अतः प्रारम्भ में ही उसकी दृष्टिका ठीक होना आवश्यक है । इसीलिये सम्यग्दर्शनको मोक्षके मार्ग में कर्णधार बतलाया है। जैसे नावको ठीक दिशामें ले जाना खेनेवालोंके हाथमें नहीं होता, किन्तु नाव के पीछे लगे हुए डाँडका सचालन करनेवाले मनुष्यके हाथमें होता है । वह उसे जिधरको घुमाता हैं उधरको ही नावकी गति हो जाती है । यही बात सम्यग्दर्शनके विषय में भी जानना चाहिये । इसीसे जैनसिद्धान्त में सम्यग्दर्शनका बहुत महत्त्व बतलाया है । इसके हुए बिना न कोई ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक् चारित्र कहलाता हैं, अतः मोक्षके उपासककी दृष्टिका सम्यक् होना बहुत जरूरी है, उसके रहते हुए मुमुक्षु लक्ष्य भ्रष्ट नहीं हो सकता । इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं। जैसे शरीर में आठ अंग होते हैं, उनके बिना शरीर नहीं बनता, वैसे ही इन आठ अंगों के बिना सम्यग्दर्शन भी नहीं बनता । सबसे प्रथम जिस सत्य मार्गका उसने अवलम्बन किया है उसके सम्बन्धमें उसे निःशंक होना चाहिये। जबतक उसे यह शंका लगी हुई है कि यह मार्ग ठीक है या गलत, उसकी आस्था दृढ़ कैसे कही जा सकती है ? ऐसी अवस्थामें आगे बढ़नेपर भी उसका लक्ष्यतक Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १६६ 1 पहुँचना सम्भव नहीं है । अतः उस अपनेपर अपने गन्तव्य पथपर और अपने मार्गद्रष्टापर अविचल विश्वास होना चाहिये । दूसरे उसे किसी भी प्रकारके लौकिक सुखोंकी इच्छा नहीं करना चाहिये - बिल्कुल निष्काम होकर काम करना चाहिये, क्योंकि कामना और वह भी स्त्री, पुत्र, धन वगैरहकी, मनुष्यको लक्ष्यभ्रष्ट कर देती है | इच्छाका दास कभी आगे बढ़ ही नहीं सकता । जैसे कोई आदमी अपने देशको स्वतंत्र करनेके मार्गको अपनाता है और यह कामना रखकर अपनाता है कि इस मार्गको अपनानेसे मेरी ख्याति होगी, प्रतिष्ठा होगी, मुझे कौंसिल में मेम्बरी मिलेगी । यदि ये चीजें उसे मिल जाती हैं। तो वह फिर इनको ही अपना लक्ष्य मानकर उनमें ही रम जाता है और देशकी स्वतंत्रताको भूल बैठता है । यदि ये चीजें नहीं मिलती और उल्टी यातना सहनी पड़ती है तो वह लोगोंको भला-बुरा कहकर उस मार्गको छोड़ ही बैठता है । वैसे ही सांसारिक सुखकी कामना रखकर इस मार्गपर चलना भी लक्ष्य भ्रष्ट कर देता है । अतः निरीह होकर रहना ही ठीक है । तीसरे, रोगी, दुःखी और दरिद्रीको देखकर उससे ग्लानि नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ये सब जीवोंके अपने अपने किये हुए पुण्य पापका खेल है । आज जो अमीर है कल वह दरिद्र हो सकता है। आज जो नीरोग है कल वह रोगी हो सकता है । अतः मनुष्यके वैभव और शरीरकी गन्दगीपर दृष्टि न देकर उसके गुणोंपर दृष्टि देनी चाहिये । चौथे, उसे कुमार्गकी और कुमार्गपर चलनेवालोंकी कभी भी सराहना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इससे कुमार्गको प्रोत्साहन मिलता है । तथा उसमें इतना विवेक और दृढ़ताका होना जरूरी है कि यदि कोई उसे सन्मार्ग से च्युत करनेका प्रयत्न करे तो उसकी बातों में न आ सके । पाँचवें, उसे अपने में गुणोंको बढ़ाते रहनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये और दूसरोंके दोषोंको ढाँकनेका प्रयत्न करना चाहिये । तथा अज्ञानी और असमर्थ जनोंके द्वारा यदि Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म सन्मार्गपर कोई अपवाद आता हो तो उसे भी दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे लोकमें सन्मार्गकी निन्दा न हो। छठे, स्वयं या कोई दूसरा मनुष्य सन्मार्गसे डिगता हुआ हो, किसी कारणसे उसका त्याग कर देना चाहता हो तो अपना और उसका स्थितिकरण करना चाहिये । सातवें, अपने सहयोगियोंसे, और अहिंसामयी धर्मसे अत्यन्त स्नेह करना चाहिये। आठवें, जनतामें फैले हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करके अहिंसामयी धर्मका सर्वत्र प्रसार करते रहना चाहिये । ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं, जिनका होना जरूरी है। इसके सिवा सम्यग्दृष्टिको अपने ज्ञान, तप, आदर-सत्कार, बल, ऐश्वर्य, कुल, जाति और सौन्दर्यका मद नहीं करना चाहिये । मद बहुत बुरा है । जो कोई मदमें आकर अपने किसी भी सहधर्मीका अपमान करता है, वह अपने धर्मका ही अपमान करता है, क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्मकी स्थिति नहीं हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्ज्ञानी होकर जीवको आगे बढ़नेका प्रयत्न करना चाहिये। इतनी भूमिका तैयार किये बिना अहिंसा धर्मरूपी उस महावृक्षका अंकुरारोपण नहीं हो सकता, जिसके शान्तरससे परिपूर्ण सुस्वादु मधुरफल मुक्तिके मार्गमें पाथेयका काम देते हैं और जिसकी शीतल सुखद छायामें यह सचराचर विश्वयुद्धोंकी विभीषिकासे त्रस्त और आकुल यह संसार, शान्तिलाभ कर सकता है । अब रहा सम्यक्चारित्र या आचार । ३. चारित्र या आचार प्रारम्भमें जैनधर्मका आरम्भकाल बतलाते हुए यह बतलाया है कि जैनशास्त्रोंके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीकालके प्रारम्भमें जब यहाँ भोगभूमि थी, उस समय यहाँ कोई भी धर्म नहीं था । सब मनुष्य सुखी थे। सबको आवश्यकताके अनुसार आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती थीं। मनुष्य संतोषी और सरल Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १६७ होते थे। वैयक्तिक सम्पत्तिवादका तब जन्म नहीं हुआ था। अतः विषमता भी नहीं थी। प्राकृतिक साम्यवाद था। न कोई छोटा था और न कोई बड़ा। न कोई अमीर था और न कोई गरीब । न कोई शासक था और न कोई शास्य । किन्तु पीछे प्रकृतिने पलटा खाया, आवश्यक वस्तुओंका यथेष्ट परिमाणमें मिलना बन्द हो गया। मनुष्योंमें असन्तोष और घबराहट पैदा हुई । उससे संचयवृत्तिका जन्म हुआ। फलतः विपमता बढने लगी और उसके साथ-साथ अपराधोंकी भी प्रवृत्ति हो चली। सुखका स्थान दुःखने ले लिया। तब भगवान ऋपभदेवका जन्म हुआ। उन्होंने लोगोंको असि, मषी, कृषि, शिल्प, सेवा और व्यापारके द्वारा आजीविका करनेका उपदेश दिया तथा अपने प्रत्येक कार्यमें अहिंसामूलक व्यवहार करनेका उपदेश देकर अहिंसाको ही धर्म बतलाया और उस अहिंसा धर्मको रक्षाके लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार अन्य धोका पालन भी आवश्यक बतलाया। ये पाँच यमरूप धर्म ही जैनाचारका मूल है इसीको एकदेशसे गृहस्थ पालते हैं और सर्वदेशसे मुनि पालते हैं। ___ चारित्र या आचारका अर्थ होता है आचरण । मनुष्य जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है वह सब उसका आचरण कहलाता है। उस आचरणका सुधार ही मनुष्यका सुधार है और उसका बिगाड़ ही मनुष्यका बिगाड़ है। मनुष्य प्रवृत्तिशील है और उसकी प्रवृत्तिके तीन द्वार हैं-मन, वचन और काय । इनके द्वारा ही मनुष्य अपना काम करता है और इनके द्वारा ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके परिचयमें आता है। यही वे चीजें हैं, जो मनुष्यको मनुष्यका दुश्मन बनाती हैं और यही वे चीजें हैं जो मनुष्यको मनुष्यका मित्र बनाती हैं। यही वे चीजें हैं जिनके सत्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं सुखी हो सकता है और दूसरोंको मुखी कर सकता है और यही वे चीजें हैं, जिनके दुष्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं दुःखी होता है और दूसरोंके दुःखका Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनधर्म कारण बनता है । अतः इनका सत्प्रयोग करना और दुष्प्रयोग न करना शुभाचरण कहा जाता है। यथार्थमें चारित्रके दो अंश हैं-एक प्रवृत्तिमूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । जितना प्रवृत्तिमूलक अंश है वह सब बन्धका कारण है और जितना निवृत्तिमूलक अंश है वह सब अवन्धका कारण है। ____ यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्तिके विपयमें थोड़ा सा प्रकाश डाल देना अनुचित न होगा। प्रवृत्तिका मतलब है इच्छा-पूर्वक किसी कार्य में लगना और निवृत्तिका मतलब है प्रवृत्तिको रोकना। प्रवृत्ति अच्छी भी होती और बुरी भी। प्रवृत्तिके तीन द्वार हैं-मन, वचन और काय । किसोका बुरा विचारना, किसीसे ईर्षाभाव रखना आदि बुरी मानसिक प्रवृत्ति है। किसीका भला विचारना, किसीकी रक्षाका उपाय सोचना आदि अच्छी मानसिक प्रवृत्ति है। झुठ बोलना, गाली बकना आदि बुरी वाचनिक प्रवृत्ति है। हित मित वचन बोलना, अच्छी वाचनिक प्रवृत्ति है । किसीकी हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना आदि बुरी कायिक प्रवृत्ति है और किसीकी रक्षा करना, सेवा करना आदि अच्छी कायिक प्रवृत्ति है। इस तरह प्रवृत्ति अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है। किन्तु प्रवृत्तिका अच्छापन या बुरापर कर्ताकी क्रिया या उसके फलपर निर्भर नहीं है किन्तु कर्ताके इरादे पर निर्भर है। कर्ता जो कार्य अच्छे इरादेसे करता है वह कार्य अच्छा कहलाता है और जो कार्य बुरे इरादेसे करता है वह कार्य बुरा कहलाता है। जैसे, एक डाक्टर अच्छा करनेके भावसे रोगीको नश्तर देता है। रोगी चिल्लाता है और तड़फता है फिर भी डाक्टरका कार्य बुरा नहीं कहलाता क्योंकि उसका इरादा बुरा नहीं है । तथा एक मनुष्य किसी धनी युवकसे मित्रता जोड़कर उसका धन हथियानेके इरादेसे प्रतिदिन उसकी खुशामद करता है, उसे तरह तरहके सब्जबाग दिखाकर वेश्या और शराबसे उसकी खातिर करता है। उसका यह काम बुरा है क्योंकि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १६६ उसका इरादा बुरा है । इसी तरह और भी अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं । अतः प्रवृत्तिका अच्छा या बुरापन कर्ताके भावोंपर निर्भर है, न कि कार्यपर। ऐसी स्थिति में जो लोग लौकिक सुखकी इच्छासे प्रेरित होकर धर्माचरण करते हैं उनका वह धर्माचरण यद्यपि बरे कार्यों में लगनेकी अपेक्षा अच्छा ही है तथापि जिस दृष्टि धर्माचरणको कर्तव्य बतलाया है उस दृष्टिसे वह एक तरह से निष्फल ही है, क्योंकि लौकिक वैषयिक सुखकी लालसामें फँसकर हम उस चिरस्थायी आत्मिक सुखकी बातको भूल जाते हैं, जो धर्माचरणका अन्तिम लक्ष्य है, और ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिनसे बहुत कालके लिये उस चिरस्थायी सुखकी आशा नष्ट हो जाती है । यद्यपि सुखलाभकी प्रवृत्ति जीवका स्वभावसिद्ध धर्म है । वही प्रवृत्ति जीवोंको अच्छे या बुरे कार्यों में लगाती है । किन्तु एक तो जीवोंको सच्चे सुखकी पहिचान नहीं है । वे समझते हैं कि इन्द्रियोंके विषयों में ही सच्चा सुख है। इसलिये वे उन्हींकी प्राप्तिका प्रयत्न करते हैं और उसीके लोभसे धर्माचरण भी करते हैं । किन्तु ज्यों-ज्यों उन्हें विषयोंकी प्राप्ति होती जाती है त्यों-त्यों उनकी विषयतृष्णा बढ़ती जाती है। उस तृष्णाकी पूर्ति के लिये वे प्रतिदिन नये-नये उपाय रचते हैं, अनर्थ करते हैं, बलात्कार करते हैं, दूसरोंको सताते हैं, उचित अनुचितका विचार किये बिना जो कुछ कर सकते हैं करते हैं, किन्तु उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती । अन्तमें तृष्णाको शान्त करनेकी धुन में वे स्वयं ही शान्त हो जाते हैं और अपने पीछे पापोंकी पोटरी बाँधकर दुनियासे चल बसते हैं । इसीलिये वैषयिक सुखको खोज इतनी निन्दनीय है। दूसरे, प्रवृत्तिमें एक बड़ा भारी दोप यह है कि प्रवृत्ति मात्र ही सहजमें असंयत हो उठती है और उचित सीमाको लाँघकर कार्य करने लगती है । इसीसे प्रवृत्तिके दमनपर इतना जोर दिया गया है और प्रवृत्तिको विश्वस्त पथप्रदर्शक नहीं माना जाता । इसीलिये दूरदर्शी धर्मोपदेष्टाओंने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनधर्म प्रवृत्ति-मूलक कार्यकी अपेक्षा निवृत्तिमूलक कार्यकी ही अधिक प्रशंसा की है। और निवृत्तिमार्गको ही ग्रहण करनेका उपदेश दिया है। ___ अनेक लोग सोचा करते हैं कि प्रवृत्ति मनुष्यको यथार्थकर्मा बनाकर जगतका हित करने में लगाती है और निवृत्ति मनुष्यको निष्कर्मा बनाकर जगतका हित करनेसे रोकती है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। यह सच है कि निवृत्तिमार्गकी अपेक्षा प्रवृत्तिमार्ग आकर्षक है। पर उसका कारण यह है कि प्रवृत्तिमार्गसे जिस सुखकी खोज की जाती है वह क्षणिक होनेपर भी सहजलभ्य और सहजभोग्य है। उधर निवृत्तिमार्गसे जिस सुखको खोजा जाता है वह नित्य होनेपर भी अतिदूर है और संयतचित्त हुए बिना कोई उसे भोग नहीं सकता। अतः निवृत्तिमार्ग यद्यपि आकर्षक नहीं है तथापि एक बार जो उसपर पग रख देता है वह बराबर चलता रहता है, क्योंकि उस मार्गपर चलनेसे जोसुख प्राप्त होता है वह नित्य है और उसको भोगनेकी शक्तिका कभी ह्रास नहीं होता। इसके विपरीत प्रवृत्तिमार्गसे जो सुख प्राप्त होता है उस मुखके लिये जिन भोग्य सामग्रियोंकी आवश्यकता है वे सब अस्थायी हैं और उस सुखको भोगनेके लिये हममें जो शक्ति है वह भी क्षय होनेवाली है ! दूसरे, प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर जो कार्य किया जाता है उसके अन्त तक चालू रहनेमें बहुत कुछ शंका रहती है, क्योंकि कर्ता किसी लौकिक इच्छासे हो उसमें प्रवृत्त होता है। किन्तु निवृत्तिमार्गपर चलनेवालेके विषयमें यह शंका नहीं रहती, क्योंकि वह अपने सुख-लाभपर दृष्टि न रखकर कार्य करनेमें ही रत रहता है। शायद कोई कहे कि प्रवृत्तिमार्गी लोगोंने ही परिश्रम करके अनेक प्रकारके विषय-सुखके उपायोंका आविष्कार करके मनुष्यजातिका महान् हित किया है और निवृत्तिमार्गियोंने कुछ नहीं किया। तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उन सब सुखसाधनोंके रहते हुए भी जब कोई आदमी दुस्सह शोकसागरमें निमग्न होता है, या Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १७१ निराशाके गर्त में पड़ा होता है या असाध्य रोगसे पीड़ित होता है तो निवृत्तिमार्गियोंके जीवनके उज्ज्वल दृष्टान्त ही उसको धीरज बँधाते हैं, और उनके अनुभवपूर्ण उपदेशोंके द्वारा ही उसे सच्ची शान्तिका लाभ होता है । अतः जो सच्चे सुख और शान्तिकी खोज में हैं उन्हें कुछ-कुछ निवृत्तिमार्गी भी होना चाहिये और प्रवृत्तिमार्ग पर चलते हुए भी अपनी दृष्टि निवृत्तिमार्गपर ही रखनी चाहिये । कोई कह सकते हैं कि इस तरह यदि सभी निवृत्तिमार्गी हो जायँगे तो दुनियाका काम कैसे चलेगा ? किन्तु ऐसा सोचनेकी जरूरत नहीं है क्योंकि हमारी स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ इतनी प्रबल हैं कि निवृत्तिके अभ्याससे उनकी जड़ उखड़नेकी संभावना नहीं है। उससे इतना ही हो सकता है कि वे कुछ शान्त हो जायें, किन्तु इससे हमें और जगतको लाभ ही पहुँचेगा, हानि नहीं । अतः चारित्रके दो रूप हैं एक प्रवृत्तिमूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । इन दोनों ही चारित्रोंका प्राण है अहिंसा, और उसके रक्षक हैं, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | ४. अहिंसा जैनाचारका प्राण अहिंसा ही परमधर्म हैं। अहिंसा ही परब्रह्म है। अहिंसा ही सुख शान्ति देनेवाली हैं, अहिंसा ही संसारका त्राण करनेवाली है । यही मानवका सच्चा धर्म है, यहो मानवका सच्चा कर्म है। यही वीरोंका सच्चा बाना है, यही धीरोंकी प्रबल निशानी है । इसके बिना न मानवकी शोभा है न उसकी शान है । मानव और दानव में केवल अहिंसा और हिंसाका ही तो अन्तर है | अहिंसा मानवी है और हिंसा दानवी है। जबसे मानवने अहिंसाको भुला दिया तभीसे वह दानव होता जाता है और उसकी दानवताका अभिशाप इस विश्वको भोगना पड़ रहा है । फिर भी मानव इस सत्यको नहीं समझता । किन्तु Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनधर्म वह दिन दूर नहीं है जब मानवसंसार उसे समझेगा, क्योंकि उसके कष्टोंका दूसरा इलाज ही नहीं है। _ संसार सुख शान्ति चाहता है, इसका मतलब है कि संसारमें निवास करनेवाला प्रत्येक प्राणी सुखशान्तिका इच्छुक है। कोई मरना नहीं चाहता। दुःखीसे दुःखी प्राणी भी जीवित रहनेकी चाह रखता है। सबको अपना जीवन प्रिय ही नहीं, बल्कि अतिप्रिय है। एसी अति प्यारी चीजको जो नष्ट कर डालता है वह हिंसक है, दानव है; पातकी है । और जो उसकी रक्षा करता है, अपने प्राणोंका बलिदान करके भी त्रस्तोंको बचाता है, उन्हें जीवनदान देता है, वह अहिंसक है वही सच्चा मानव है। इस मानवताका मूल्य वही आँक सकता है, जिसके प्राणोंपर कभी संकट आया है। जो केवल मारना जानते हैं, सताना जानते हैं, उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है ? ___ कहावत प्रसिद्ध है-'जाके पैर नहिं फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ?' जिसके जीवनपर कभी दुःखकी घटा नहीं घहराई, कभी किसी आततायीकी तलवार नहीं पड़ी, वह क्या जान सकता है कि दूसरोंको मारनेमें या सतानेमें क्या दुःख है ? काश यदि मानवने अपने जीवनपर बीती दुःखद घटनाओंसे शिक्षा ली होती तो आज मानव मानवके खूनका प्यासा न होता । किन्तु मानव इतना स्वार्थी है या उसकी स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हैं, कि वह स्वयं जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोंके जीवनको कतई परवाह नहीं करता। उसकी दशा नशेमें मस्त उस मोटरचालककी सी है जो सरपट मोटर दौड़ाते हुए यह भूल जाता है कि जिस सड़क पर मैं मोटर चला रहा हूँ उसपर कुछ अन्य प्राणी भी चल रहे हैं, जो मेरी मोटरसे दबकर मर सकते हैं। उसे अपने जीवनकी व अपने सुख चैनकी तो चिन्ता है किन्तु दूसरोंकी नहीं। मुझे स्वादिष्टसे स्वादिष्ट पदार्थ खानेको मिलने चाहिये चाहे दूसरोंकों सूखा कौर भी न मिले । मेरे खजानेमें वेकार सोने-चाँदीका ढेर लगा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १७३ रहना चाहिये चाहे दूसरोंके तनपर फटा चीथड़ा भी न हो। मेरी साहूकारी सैकड़ोंको गरीब बनाती है तो मुझे क्या ? मेरे भोगविलासके निमित्तसे दूसरोंके प्राणोंपर बन आती है तो मुझे क्या ? हमारे साम्राज्यवादकी चक्कीमें देशका देश पिस रहा है तो हमें क्या ? व्यक्ति, समाज और राष्ट्रकी ये भावनाएँ ही दूसरे व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रोंका निर्दलन कर रही हैं। इनके कारण किसीको भी सुखसाता नहीं है। परस्परमें अविश्वासकी तीव्र भावना रात दिन आकुल करती रहती है। सब अवसरकी प्रतीक्षामें रहते हैं कि कब दूसरेका गला दबोचा जाय । ये सब हिंसक मनोवृत्तिका ही दुष्परिणाम है जो विश्वको भोगना पड़ रहा है। इससे बचनेका एक ही उपाय है और वह है 'जिओ और जीने दो' का मन्त्र । उसके बिना विश्वमें शान्ति नहीं हो सकती। __कुछ लोग अहिंसाको कायरताकी जननी समझते हैं और कुछ उसे अच्छी मानकर भी अशक्य समझते हैं। उनका ऐसा ख्याल है कि अहिंसा है तो अच्छी चीज मगर वह पाली नहीं जा सकती । ये दोनों ही ख्याल गलत हैं। न अहिंसा कायरताको पैदा करती है और न वह ऐसी ही है कि उसका पालन करना अशक्य हो। अहिंसापर गहरा विचार न करनेसे ही ऐसी धारणा बना ली गई है । हिंसा न करनेको अहिंसा कहते हैं। किन्तु अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दुःखी हो जानेसे हो हिंसा नहीं होती। संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं फिर भी जैनधर्मके अनुसार इसे तबतक हिंसा नहीं कहा जा सकता जबतक हिंसारूप परिणाम न हो। वास्तव में हिंसारूप परिणाम ही हिंसा है । अर्थात् जबतक हम प्रमादी और अयत्नाचारी न हों तबतक किसीका घात हो जाने मात्रसे हम हिंसक नहीं कहलाये जा सकते। आशय यह है कि हिंसा दो प्रकारसे होती है एक कषायसे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जनधर्म अर्थात् जानबूझकर और दूसरे अयत्नाचार या आसावधानीसे । जब एक मनुष्य क्रोध, मान, माया या लोभके वश दूसरे मनुष्यपर वार करता है तो वह हिंसा कपायसे कही जाती है और जब मनुष्यको असावधानतासे किसीका घात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है तो वह हिंसा अयत्नाचारसे कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख भालकर अपना कार्य कर रहा है और उस समय उसके चित्तमें किसीको कष्ट पहुँचाने का भी भाव नहीं है, फिर भी यदि उसके द्वारा किसीको कष्ट पहुँचता है या किसीका घात हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा जा सकता। इसी बातको स्पष्ट करते हुए शात्रकारोंने लिखा है "उच्चालिदम्मि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे । आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज तं जोगमासेज्ज । ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहमो वि देसिदो समये।" -प्रवच० पृ० २६२। अर्थात्-'जो मनुष्य आगे देख भालकर रास्ता चल रहा है उसके पैर उठानेपर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचलकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मारने का थोड़ा सा भी पाप आगममें नहीं कहा।' किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानतासे कार्य कर रहा है उसे इस बातको बिल्कुल परवाह नहीं है कि उसके इन कार्यसे किसीको हानि पहुँच सकती है या किसीके प्राणोंपर बन आ सकती है, और उसके द्वारा उस समय किसीको कोई हानि पहुँच भी नहीं रही हो, फिर भी वह हिंसाके पापका भागी है'मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेतेण समिदस्स ॥१७॥-प्रवच० ३ । अर्थात्-'जीव चाहे जिये चाहे मरे, असावधानतासे काम करनेवालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता ।। किन्तु जो साव Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ चारित्र धानीसे काम कर रहा है उसे प्राणिवध हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता।' ___ अहिंसाकी इस व्याख्याके अनुसार अपनेसे किसी जीवका घात हो जाने या किसीके दुखी हो जानेपर भी तबतक हिंसा नहीं कहलाती जबतक अपने भाव उसे मारने या दुःखी करनेके न हों, अथवा हम अपना कार्य करते हुए असावधान न हों। किन्तु यदि हमारे भाव किसीको मारने या कष्ट पहुँचानेके हों, परन्तु प्रयत्न करनेपर भी हम उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकें, तब भी हम हिंसक ही समझे जायेंगे। क्योंकि जो दूसरोंका बुरा करना चाहता है वह सबसे पहले अपना बुरा करता है। जैसा कि कहा है 'स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वान वा वधः ।।'-सर्वार्थ० पृ० २०६ । अर्थान्–'प्रमादी मनुष्य पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता है, पीछे दूसरे प्राणियोंका घात हो या न हो।' असलमें जैनधर्ममें हिंसाको दो भागोंमें बाँट दिया गया है-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । जब किसीको मारने या सताने अथवा असावधानताका भाव न होनेपर भी दूसरेका घात हो जाता है तब उसे द्रव्यहिंसा कहते हैं और जब किसीको मारने या सताने अथवा असावधानताका भाव होता है तब उसे भावहिंसा कहते हैं। वास्तवमें भावहिंसा ही हिंसा है। द्रव्यहिंसाको तो केवल इसलिये हिंसा कहा है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। किन्तु द्रव्यहिंसाके होनेपर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है, अर्थात् जिस आदमीके द्वारा किसीका घात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है उस आदमीका इरादा ही ऐसा करनेका था ऐसा एकान्तरूपसे नहीं कहा जा सकता। अतः जहाँ कर्ताके भावों में हिंसा है वहीं हिंसा है, उसके द्वारा कोई मारा जाय या न मारा जाये। और जहाँ कर्ताके भावोंमें Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म १७६ हिंसा नहीं है वहाँ हिंसा भी नहीं है, भले ही उसके निमित्तसे किसीकी जान चली जाये। अगर द्रव्यहिंसा और भावहिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो कोई भी अहिंसक न बन सकता और यह शंका बराबर खड़ी रहती'जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥' 'जलमें जंतु हैं, स्थलमें जंतु हैं और आकाशमें भी जंतु हैं। इस तरह जव समस्त लोक जन्तुओंसे भरा हुआ है तो कोई मुनि कैसे अहिंसक हो सकता है ? इस शंका का उत्तर इस प्रकार दिया है 'मूक्ष्मा न प्रतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः । ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः ॥' 'जीव दो प्रकारके हैं सूक्ष्म और बादर या स्थूल । जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते हैं और न तो किसीसे सकते हैं और न किसीको रोकते हैं, उन्हें तो कोई पीड़ा दी हो नहीं जा सकती। रहे स्थूल जीव, उनमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है। अतः जिसने अपनेको संयत कर लिया है उसे हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ? । ___ इससे स्पष्ट है कि जो मनुष्य जीवोंकी हिंसा करनेके भाव नहीं रखता बल्कि उनको बचानेके भाव रखता है और अपना प्रत्येक काम ऐसी सावधानीसे करता है कि उससे किसीको भी कष्ट न पहुँच सके उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा हो जाती है उसका पाप उसे नहीं लगता। अतः जैनधर्मकी अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है और इसलिये कोई भी समझदार उसे अव्यवहार्य नहीं कह सकता। मनुष्यसे यह आशा की जाती है कि वह अपने स्वार्थके पीछे किसी भी अन्य जीवको सतानेके भाव चित्तमें न आने दे और अपना जीवननिर्वाह इस तरीकेसे करे Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चारित्र १७७ कि उससे कमसे कम जीवोंका कमसे कम अहित होना हो । जो मनुष्य इस तरह की सावधानी रखना है वह अहिंसक है । अहिंसाको व्यवहार्य बनानेके लिये जसे हिंसाके द्रव्यहिंसा और भावहिंसा भेद किये गये हैं, वैसे ही अहिंसाके भी अनेक भेद किये गये हैं । सबसे प्रथम तो गृहस्थ और साधुकी अपेक्षासे अहिंसा दो भागों में बाँट दी गई है। गृहस्थकी अहिंसाकी सीमा जुदी है और साधुकी अहिंसाकी सीमा जुदी है। जो एकके लिये व्यवहार्य है वही दूसरेके लिये अव्यवहार्य है, क्योंकि दोनोंके पढ़ और उत्तरदायित्व विभिन्न हैं । दूसरे, गृहस्थकी दृष्टिसे भी उसके अनेक प्रभेद किये गये हैं । यदि उन सीमाओं और भेद प्रभेदोंको भी दृष्टिमें रखकर जैनी अहिंसाको देखा जाये तो हमें विश्वास है कि उसपर अव्यावहारिकताका दोषारोपण नह किया जा सकेगा । गृहस्थकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी और विरोधी । बिना अपराधके जान बूझकर किसी जीव का वध करनेको संकल्पी हिंसा कहते हैं । जैसे, कसाई पशुवध करता है । जीवन निर्वाह के लिये व्यापार खेती आदि करने, कल कारखाने चलाने तथा संनामें नौकर होकर युद्ध करने आदिमें जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं । सावधानी रखते हुए भी भोजन आदि बनाने में जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी हिंसा कहते हैं । और अपनी या दृमरोंकी रक्षा के लिये जो हिंसा करनी पड़ती है उसे विरोधी हिंसा कहते हैं । जैनधर्म में सब संसारी जीवांको दो भेदोंमें बाँटा गया है एक स्थावर और दूसरा त्रस । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदिके अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव हैं। मिट्टी में कीड़े आदि जीव तो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनधर्म हैं ही, परन्तु मिट्टीका ढेला स्वयं पृथ्वीकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है । इसी तरह जलविन्दुमें यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोंके अनिरिक्त वह स्वयं जलकायिक जीव के शरीरका पिण्ड है । ऐसे ही अग्नि आदिके सम्बन्ध में भी समझना चाहिये । इन जीवों को स्थावर जीव कहते हैं। और जो जीव चलते फिरते दिखाई देते हैं, जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े वगैरह, वे मत्र त्रस कह जाते हैं। इन दोनों प्रकार के जीवोंमेंसे गृहस्थ स्थावर जीवों की रक्षाका तो यथाशक्ति प्रयत्न करता है, और बिना जरूरत न पृथ्वी खांदता है, न जलको खराब करता हैं, न आग जलाता है, न हवा करता है और न हरी साग सब्जीको या वृक्षोंको काटता है । तथा त्रस जीवोंकी केवल संकल्पी हिंसाका त्याग करता है । इस हिंसाका त्याग कर देनेसे उसके सांसारिक जीवनमें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं होती; क्योंकि संकल्पी हिंसा मनोविनोदके लिये या दूसरोंको मारकर उसके माँसका भक्षण करनेके लिये की जाती है । खेद है कि मनुष्य 'जिओ और जीने दो' के सिद्धान्तको भुलाकर दिलबहलाव के लिये जंगलमें निर्द्वन्द विचरण करनेवाले पशु पक्षियोंका शिकार खेलता है और उनके माँससे अपना पेट भरता है । यदि मनुष्य ऐसा करना छोड़ दे तो उससे उसकी जीवनयात्रामें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं होती । मनुष्यके दिलबहलाव के साधनोंकी कमी नहीं हैं और पेट भरनेके लिये पृथ्वीसे अन्न और हरी साग सब्जी उपजाई जा सकती है जिससे तरह तरहके स्वादिष्ट भोजन तैयार हो सकते हैं । आजके युगमें वैज्ञानिक साधनोंसे सब जगह खाद्यान्न उपजाया जा सकता है और अनावश्यक जानवरोंकी पैदायशको भी रोका जा सकता है । यदि मनुष्य यह संकल्प करले कि हम अपने लिये किसी जीवकी हत्या न करेंगे तो वह दूसरी दिशामें और भी अधिक उन्नति कर सकता हैं । फिर मांसाहार मनुष्यका प्राकृतिक भोजन भी नहीं है, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १७९ उसके दाँतों और आँतोंकी बनावट इसका साक्षी है। न माँसाहारसे वह बल और शक्ति ही प्राप्त होती हैं जो घी, दूध और फलाहारसे प्राप्त होती है। इसके सिवा मांसाहार तामसिक है, उससे मनुष्यकी मात्विक वृत्तियोंका घात होता है। इसके विषयमें काफी लिखा जा सकता है किन्तु यहाँ उसके लिये उनना स्थान नहीं है । इसी तरह शिकार खेलना भी मनुष्यकी नृशंसना है । व्याघ्र वगैरह हिंसक पशु भी तभी दूसरे जानवरोंपर आक्रमण करते हैं जब उन्हें भूख सताती है। किन्तु मनुष्य उनसे भी गया बीता है, जो डरसे भागते हुए पशुआंक पीले घोड़ा दौड़ाकर और बाण या बन्दुककी गोलीसे उनको भूनकर अपना दिल बहलाना है । कुछ लोगोंका कहना है कि शिकार खेलनेसे वीरता आती है, इसलिये मृगया करना क्षत्रियका कर्तव्य है। उन्होंने शायद करता और निर्दयताको वीरता समझा है। किन्तु वीरता आन्तरिक शोर्य है जो तेजम्वी पुरुषों में समय ममयपर अन्याय व अत्याचारका दमन करनेक लिय प्रकट हानी है । डरकर भागते हुए मूक पशुओंके जीवनके साथ होली खेलना शुरवीरता नहीं है, कायरता है। जो एसा करते हैं, वे प्रायः कायर होते हैं । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमने हिन्दू मुम्लिम दंगेके ममय बनारसमें देखा। हमारे मुहालमें अधिकतर वस्ती मल्लाहोंकी है। वे इतने कर होते हैं कि बड़बड़े घड़ियालोंको पकड़कर साग मीकी तरह काट डालते हैं, और खा जाते है। किन्तु हिन्दू-मुम्लिम दंगक समय उनकी कायरता दयनीय थी। अपनी नाँवों में बैठ बैठकर सब उस पार भाग गये थे और जो शेप थे वे भी जैन विद्यार्थियोंसे अपनी रक्षा करनेकी प्रार्थना किया करते थे। अतः मांसाहार या शिकार खेलनेसे शूरवीरताका काई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये इनसे बचना चाहिये। इसी तरह धर्म समझकर देवीके सामने बकरों, भसों और सूकरों का बलिदान करना भी एक प्रकारकी मूढ़ता और नृशं Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनधर्म मता है । इससे देवी प्रसन्न नहीं होती । धर्माराधन के स्थानोंको वृचड़खाना बनाना शोभा नहीं देता । अतः सबसे पहिले गृहस्थको धर्मके लिये, पेटके लिये और दिलबहलाव के लिये किसी भी प्राणीका बात नहीं करना चाहिये । कुछ लोग कहते हैं कि जब जैनधर्मके अनुसार जल तथा वनस्पति वगैरह भी जीवोंका कलेवर ही है, तत्र निरामिष भांजियोंको वनस्पति वगैरह भी नहीं खाना चाहिये । परन्तु जो सप्तधातु युक्त कलेवर होना है उसकी हो माँस संज्ञा है। वनस्पति में सप्तधातु नहीं पाई जाती। अतः उसकी माँस संज्ञा नहीं है । इसी तरह कुछ लोग स्वयं मरे हुए प्राणीके माँस के खानेमें दोप नहीं बतलाते । यह सत्य है कि जिस प्राणीका वह माँस है, उसे मारा नहीं गया । किन्तु एक तो मांसमें तत्काल अनेक सूक्ष्म जीवोंको उत्पत्ति हो जाती है, दूसरे माँस भक्षणसे जो बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं, उनसे मनुष्य कभी भी नहीं बच सकता । कहा भी हैं— माँसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिनं प्रति । हंतुं प्रवर्तते बुद्धिः शकुन्य इव दुधियः ॥२७॥ —योगशा० । अर्थात्–'जिसको माँस खानेका चसका पड़ जाता है, उस प्राणीकी बुद्धि दुष्ट पक्षियोंके समान दूसरे प्राणियों को मारनेमें लगती है ।' 1 आज माँस भक्षणका बहुत प्रचार हैं उसका ही यह फल है कि अपने स्वार्थ के पीछे मनुष्य मनुष्यका दुश्मन वना हुआ हैं एकको दूसरेका वध करते हुए जरा भी संकोच नहीं होता । अतः इसस बचना चाहिये । इस तरह गृहस्थको त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसाका त्याग जरूर करना चाहिये | अब रह जाती है, उद्योगी आरम्भी और विरोधी हिंसा । एक नीची श्रेणीके गृहस्थके लिये उनका त्याग करना शक्य नहीं है, क्योंकि उसे अपने कुटुम्बियों के भरण Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १८१ पोपणके लिये कोई न कोई उद्योग और कुछ न कुछ आरम्भ अवश्य करना पड़ता है, उसके विना उसका निवाह नहीं हो सकता । किन्तु उसे ऐसा ही उद्योग और आरम्भ करना चाहिये जिसमें दूसरे प्राणियोंको कमसे कम कष्ट पहुंचनेकी संभावना हा । इसी तरह विरोधी हिंसासे भी गृहस्थ नहीं बच सकता। यद्यपि वह स्वयं किसीसे अकारण विरोध पैदा नहीं करता, किन्तु यदि कोई उसपर आक्रमण करे तो उससे बचने के लिय वह बगवर प्रयत्न करेगा। आक्रमणकारीका सामना न करके डरकर घर में छिप जाना अहिंसाकी निशानी नहीं है। उम मानसिक हिंसास तो प्रत्यक्ष हिंसा कहीं अच्छी है। जैनशानमें तो स्पष्ट लिखा है 'नापि स्पष्टः मुदृष्टियः स मप्तभि भर्मनाक् ।'–पञ्चाध्यायी। 'जैनधर्मका जो सच्चा श्रद्धानी है वह सात प्रकार के भयांसे सर्वथा अछूता रहता है।' जनधर्म के सभी तीर्थङ्कर त्रियवंशी थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक दिग्विजयं की थीं । मौर्व-सम्राट चन्द्रगुप्त, महामेघवाहन सम्राट् खारवेल, वीर सेनापनि चामुण्डराय आदि जैन वीर योद्धा नो भारतीय इतिहासके उज्ज्वल रत्न हैं । वस्तुतः जैनधर्म उन क्षत्रियोंका धर्म था जो युद्धस्थलमें दुइमनका सामना तलवारसे करना जानते थे और उसे क्षमा करना भी जानते थे। जैन श्नत्रियोंके लिये आदेश है "यः शस्त्रवृत्तिःसमरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्रागिा तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीनकानीनगुभाशयेषु ॥" यशस्तिलक. पृ० ६६ 'अस्त्र शस्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धभूमिमें जो शत्रु बनकर आया हो. या अपने देशका दुश्मन हो उसीपर राजागण अस्त्रप्रहार करते हैं, कमजोर, निहत्थे कायरों और सदाशयी पुरुषोंपर नहीं।' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनधर्म यही जैनी राजनीति है। अनः जो लोग अहिंसा धर्मपर कायरताका लाञ्छन लगाते हैं. वे भ्रममें हैं। अहिंसामें तो कायरताके लिय स्थान ही नहीं है। अहिंसाका तो पहला पाठ ही निर्भयता है। निर्भयना और कायरता एक ही स्थानमें नहीं रह सकनी । झोर्च आत्माका एक गुण हैं, जब वह आत्माक ही द्वारा प्रकट किया जाता है नव वह अहिंसा कहलाता है और जब वह शरीरकं द्वारा प्रकट किया जाता है तब वीरता। जैनधमकी अहिंसा या तो वीरताका पाठ पढ़ाती है या क्षमाका । आपत्तिकालमें गृहस्थका कर्तव्य बतलाते हुए एक जैनाचार्यने लिखा है "अर्थादन्यतमम्योच्चद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् । सत्सु घोरोपमर्गेषु तत्परः स्यात्तदत्यये ।।८१२॥ यद्वा न ह्यात्ममामर्थ्य यावन्मंत्रासिकशकम् । तावद् दृष्टुं च श्रोतुं च तद्बाधां सहते न सः ॥८१३॥"-पञ्चाध्या० अर्थात्-'धर्मके आयतन जिन मन्दिर, जिन बिम्ब आदिमेंसे किसीपर भी आपत्ति आ जानेपर सच्चे जैनीको उसे दूर करनेके लिये सदा तत्पर रहना चाहिये। अथवा जबतक उसके पास आत्मबल. मंत्रबल, तलवारका बल और धनबल है, तबतक वह उस आपत्तिको न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है।' जो कुछ धर्मपर आई हुई आपत्तिके प्रतीकारके बारे में कहा गया है वही देशपर आई हुई आपत्तिके बारेमें भी समझना चाहिये । अतः जो लोग ऐसा समझते हैं कि जैनधर्मका अनुयायी मेनामें भर्ती नहीं हो सकता या युद्ध नहीं कर सकता, वे भ्रममें हैं। आजकल जैनधर्मके माननेवाले अधिकांश वैश्य हैं। और सदियोंकी दासता और उत्पीड़नने उन्हें भी कायर और डरपोक बना दिया है। यह अहिंसाधर्मका दोष नहीं है । जबतक भारतपर अहिंसाधर्मी जैनोंका राज्य रहा तबतक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १८३ भारत गुलाम नहीं हो सका। वे मरना जानते थे और समयपर मारना भी जानते थे। किन्तु रणमे विमुख होकर भागना नहीं जानते थे। प्राणोंके मोहसे कर्नव्यच्युत होना तो सबसे बड़ी हिंसा है। एक बार एक लेखकने गीतामं प्रतिपादित अर्जुन व्यामोहके सम्बन्धमें लिखा था-"अर्जुनका आदर्श अनार्योंका-बौद्ध और जैन का मार्ग है। वह आर्यांका-हिन्दू जातिका आदर्श कदापि नहीं है। हिन्दू-जानि ऐसे झूट अहिंसाके आदर्शको नहीं माननी।" हम नहीं समझते लेखकने इस आदर्शको जनोंका आदर्श कैसे समझ लिया ? गीतासे स्पष्ट है कि अर्जुन हिसाके भयसे युद्धसे विरत नहीं हो रहा था किन्तु अपने बन्धु बान्धवों और कुलका विनाश उसे कर्तव्यच्युत कर रहा था। अर्जुनके हृदयमें अहिंसाकी ज्योति नहीं झलकी थी, जिसके प्रकाशमें मनुष्य प्राणिमात्रको अपना बन्धु और संसारको अपना कुटुम्ब मानता है, उसके हृदयमें तो कुटुम्ब महिने अपना साम्राज्य जमा लिया था । अतः वह अहिंसाका आदर्श नहीं था । अहिंसा कर्तव्यच्युत नहीं करनी, किन्तु कर्तव्यका बोध कराकर अकनव्यसे बचाती है और कर्नव्यपर दृढ़ करती है। अतः अहिंसा न अव्यवहार्य है और न कायरता और निर्बलताकी जननी है। उसकी मर्यादा, व्याख्या और शक्तिसे जो परिचित है वह ऐसा कहनेका साहस नहीं कर सकना । ५. श्रावकका चारित्र जैन संघके चार अंग बनलाय हैं-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका । श्रावकसे मतलब है पुरुप गृहस्थ और श्राविकासे मतलब है स्त्री गृहस्थ । जैन गृहस्थ श्रावक कहे जाते हैं। जिसका अपभ्रंश 'सरावगी' शब्द कहीं-कहीं अब भी प्रचलित है । श्रावक और श्राविकाका जैन संघमें बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके बिना मुनि आश्रम चल ही नहीं सकता और उन्होंमें Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म से तो आगे चलकर मुनि होते हैं। अतः जैन गृहस्थका आचार एक प्रकारसे मुनि-आचारका नांवरूप है, उसीके ऊपर आगे चलकर मुनि-आचारका भव्य प्रासाद खड़ा होता है । अतः सच्चा जैन गृहस्थ एक आदर्श गृहस्थ होना है। जनशास्त्रों में लिग्वा है कि गृहस्थधर्मका पालन वही कर सकता है जो न्यायसे धन कमाना है. गुणी जनांका आदर करना है, मीठी वाणी बोलना है. धर्म, अर्थ और कामका सेवन इम रीनिस करना है कि एक दूसरमें बाधक नहीं होता, लज्जाशील होता है. जिसका आहार और विहार दोनों युक्त होते हैं, सदा सज्जनोंकी संगनिमें रहता है, और जो शास्त्रज्ञ, कृतज्ञ, दयालु, पापभीम और जितेन्द्रिय होना ह । जिस गृहस्थ में इतने गुण हों उसके आदर्श गृहम्थ होनेमें सन्देह ही क्या है ? यदि ऐसे सद्गृहस्थ होने लगें तो यही पृथिवी म्वगसे भी बढ़कर हो सकती है। किन्तु मनुष्यकी भोलिप्सा और स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हानी जाती हैं कि वह अपने इन सभी सदगुणोंको भुला बैठा है और उसका आराध्य केवल काम और अर्थ रह गया है। यदि वह धर्माचरण भी करता है नो उसीकी पूर्तिक लिय करता है । न उसे न्यायका विचार है और न अन्यायका । न उसे दयासे प्रेम है और न पापस भय । वह इन्द्रियोंका दास बना हुआ है और उसीकी तुष्टि के लिये सब कुछ करता रहता है, अस्तु, जैन गृहस्थके आठ मूल गुण होते हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका एकदेश पालन तथा मांस, मधु और मदिराका सर्वथा त्याग । मूल जड़को कहते हैंये आगे बढ़नेके लिये जड़रूप हैं इसलिये इन्हें मूलगुण कहते हैं । इनके बिना कोई जैन श्रावक नहीं कहा जा सकता। १. अहिंसाणुव्रत जैनसिद्धांतमें जीव दो प्रकारके बतलाये हैं स्थावर और त्रस । जो जीव चलते फिरते हैं जैसे मनुष्य, पशु, चोंटी, लट, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १८५ जूँ वगैरह | उन्हें त्रस कहते हैं। और जो जीव पृथ्वीरूप हैं, जलरूप हैं, अग्निरूप हैं, वायुरूप हैं और वनस्पतिरूप हैं उन्हें स्थावर कहते हैं । गृहस्थ स्थावर जीवोंकी हिंमासे तो बच ही नहीं सकता, उसे अपने जीवन निर्वाहके लिये इन सब वस्तुओंकी आवश्यकता होती है । हो, सावधानी उनके प्रति भी रखता है, जैसा आगे बतलाया गया है । अब रह जाते हैं स | सोंकी हिंसा चार प्रकारकी होती है संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । इनमें से वह केवल संकल्पी हिंसाका त्याग करता है । इनका विशेष विवेचन पहले 'अहिंसा' के प्रकरणमें कर दिया गया है। शास्त्रकारांने लिखा है " इत्यनारम्भजां जह्याद् हिंसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावरसिंहावद्यतनामावहेद् गृही ॥ १० ॥ " मागार धर्मा० । अर्थात- 'आरम्भके सिवा अन्य कार्यमं होनेवाली हिंसाको गृहस्थ छोड़ दे और खेती आदि आरम्भ होनेवाली हिंसाको व्यर्थ की स्थावर हिंसाकी तरह यथाशक्ति बचानेका प्रयत्न करें ।' आरम्भ में होनेवाली हिंसाके सिवा दिलबहलाव के लिये, स्वादके लिये, चमड़के सामान जूते वगैरह बनानेके लिये और धर्मके लिये जो पशुहत्या की जाती है वह सब छोड़ देना चाहिये । और जीवित पशुओंको मारकर उनके ताजे और मुलायम चमड़ेसे जो चीजें बनाई जाती हैं उनका भी व्यवहार नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे उनके वधको प्रोत्साहन मिलता है । चूँकि जो गृहस्थ जीवन बिताना है उसका निर्वाह बिना किसी उद्योग धन्धेके चल नहीं सकता, इसलिये आरम्भी हिंसा तो एक गृहस्थ के लिये अपरिहार्य है, किन्तु गृहस्थको ऐसा उद्योग करना चाहिये जिसमें जीवधान कमसे कम हो, और उतना ही उद्योग करना चाहिये जिनने से उसका निर्वाह बखूबी हो सकता हो, क्योंकि जो गृहस्थ थोड़े आरम्भ और थोड़ी परिग्रह में सन्तुष्ट रहता है वहीं अहिंसा अणुत्रतको पाल Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनधर्म सकना है। जिसे गतदिन धनको चिन्ता सताती रहती है, रान दिन नये-नये कल कारखाने खोलकर धनसंग्रह करनेमें तत्पर रहता है और अपने कर्मचारियों और नौकरोंको कमसे कम देकर उनसे अधिकसे अधिक काम कराता है, न्याय और अन्यायका कनई विचार नहीं करता, वह क्या खाक अहिंसाको पाल सकता है ? अहिंमा सन्तापीक लिय है, असन्तोपो कभी अहिंसक हो नहीं सकता। गृहस्थका यह कर्तव्य बतलाया है कि वह अपने आश्रितों और यथाशक्ति अनाश्रितोंको भी पहले भोजन कराकर तब स्वयं भोजन करे । जो सन्तोषी होगा वही ऐसा कर सकता है । असन्तापी तो पहले अपना पेट ही नहीं, किन्तु अपने भण्डारको भरनेकी चिन्ता करेगा, उसकी दृष्टि में तो आश्रितोंकी चिन्ता करना ही बेकार है। वह समझता है कि मैंने मोलभाव करके उन्हें रखा है, हर महीने उन्हें उसके अनुसार वेतन दे दिया जाता है। उतनेमें उनका और उनके बालबच्चोंका पेट भरे या न भरे। इतनेमें यदि वे काम नहीं करना चाहते हों तो न करें हम दूसरे आदमी रख लेंगे । बाजारमें आदमियोंकी कमी नहीं है। ऐसे विचारवाला मनुष्य कोरा व्यापारी है किन्तु अहिंसक व्यापारी नहीं है। अहिंसक व्यापारी तो वह है जो अपनी ही तरह अपने आश्रितोंकी भी चिन्ता करता है और उनके ऊपर जो जुल्म न करके उन्हें समयपर भरपेट भोजन देता है और उतना ही काम लेता है जितना वे कर सकते हों। यह बात अपने आश्रित मनुष्यों और पशुओं दोनोंके सम्बन्धमें समानरूपसे लागू होती है। जैन शास्त्रकारोंने अहिंसा अणुव्रतके पाँच दीप बतलाये हैं और उनसे वचते रहनेकी ताकीद की है। वे दोष इस प्रकार हैं १. बुरे इरादेसे मनुष्य और पशुओंको रस्सी वगैरहसे बाँधना । नौकर चाकरोंको तो गुस्सेमें आकर मालिक लोग बँधवा डालते हैं, किन्तु पालतू पशु तो विना बांधे रह नहीं Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १८७ सकते । इसलिये उनको इस तरहसे बाँधना चाहिये कि यदि कभी घरमें आग लग जाये तो वे बन्धन छुड़ाकर भाग सकें। २. क्रूरता पूर्वक डण्ड या कोड़से पीटना ।। ३. निर्दय होकर हाथ, पैर, कान, नाक वगैरहका काट डालना । किन्तु यदि किसी पा या मनुष्यके शरीरका कोई अवयव सड़ गया हो या शरीर में फोड़ा हो गया हो तो उसके काटने या चीरने में कोई दोष नहीं है। ४. गुम्से में आकर या लोभसे मनुष्य या पाके ऊपर उमको शक्तिसे ज्यादा बोझा लादना या शक्तिसे अधिक काम लेना। श्रावकको चाहिये कि मनुष्य जितना बोझा म्वयं उठाकर ले जा सके और उतार कर नीचे रख सके उतना ही बोझा उससे उठवाये और रखवाये । इसी तरह चौपाया जितना बोझा लादकर अच्छी तरह चल सके उतना ही उसपर लादे । उममें भी ममय का ध्यान अवश्य रखे । उचित समय तक हो उनसे काम लेना चाहिये । यदि श्रावक खेती करता हो तो हल और गाड़ी वर्गरहमें बैलोंको समयसे जोते और समयसे खोल दे। शक्तिसे अधिक काम लेना भी हिंसा ही है। ५. भूख प्याससे पीड़ित प्राणी मर भी जाता है इसलिये खाना किसीका भी न रोकना चाहिये। यदि किसीने अपराध किया हो तो उसे डाटनेके लिय मुँहसे यह चाहे कह दे कि आज तुझे भोजन नहीं मिलंगा, किन्तु भोजनका समय आनेपर तो नियमसे दूसरोंको खिलाकर ही स्वयं खाना चाहिये । हाँ, यदि कोई अपना आश्रित वीमार हो या उसने स्वयं ही उपवास किया हो तो बात दूसरी है। अतः श्रावकको इस बातका बरावर ध्यान रखना चाहिये कि अहिंसात्रतमें दोप न आने पाये । यदि अहिंसावती श्रावक अपने आश्रितोंके साथ ऐसा प्रेममय व्यवहार रखे तो उसे इससे आर्थिक दृष्टिसे भी लाभ ही रहेगा, क्योंकि प्रेममय व्यवहारसे कर्मचारीगण उसके कामको अपना समझकर दिल लगाकर काम करेंगे और उसके हानि-लाभको Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनधर्म अपना हानि-लाभ गिनेंगे। इस तरह से अहिंसामूलक व्यवहार स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही दृष्टिसे लाभदायक हैं । यदि जमींदार और मिलमालिक अपने आश्रित किसानों और मजदूरोंके साथ ऐसा ही प्रेममय व्यवहार करते आते तो आज उन दोनों में जो खींचातानी चलती रहती है वह उतना कटुरूप धारण न करनी और न जमींदारी और कल कारखानोंपर सरकारी नियंकी बात ही पैदा होती । अस्तु । रात्रिभोजन आर जलगालन I अहिंसावती श्रावकको रानमें भोजन नहीं करना चाहिये और पानी भी कपड़े से छानकर काममें लेना चाहिये | रानमें भोजन करनेके दुष्परिणाम प्रायः समाचारपत्रों में प्रकट होते रहते हैं । कहीं चायकी केटली में छिपकलीके चुर जानेके कारण चाय पीनेवाले मनुष्योंका मरण सुनने में आता है. कभी किसी दावन में पकते हुए बरतन में साँपके बंध जानेके कारण मनुष्योंका मरण सुनन में आता है । प्रतिवर्ष इस तरह की दो चार घटनाएँ घटती रहती है. मगर फिर भी मनुष्योंकी आँखें नहीं खुलती । भोजन हमेशा दिनके प्रकाश में ही देख भालकर करना चाहिये । रात्रि में तेजसे तेज प्रकाशका प्रबन्ध होनेपर भी एक तो उतना स्पष्ट दिखलाई नहीं देना, जितना दिन में दिखलाई देता है । दूसरे. सूर्य के प्रकाशमें जो जीव जन्तु इधर उधर जा छिपते हैं. रात्रि होते ही वे सब अपने अपने खाद्यकी खोज में निकल पड़ते हैं, कृत्रिम प्रकाश उन्हें रोक नहीं सकता, बल्कि अधिक तेज प्रकाशसे पतंगे वगैरह और भी अधिक आते हैं। खानेवाला भोजन करता जाता है और पतंगे वगैरह टप टप गिरते हैं । रात्रिको हलवाईकी दूकानपर जाकर देखें | नीचे भट्टीपर दूधकी कड़ाही चढ़ी होती है और ऊपर बिजली के बल्वपर पतंगे मंडराते रहते हैं और कड़ाही में गिर गिरकर पीनेवालोंके लिये मलाईका लच्छा बनानेका काम करते रहते हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १८९ पास ही छिपकली उनके शिकार के लिये लपकती रहती है, जो कभी-कभी दूधमें भी जा पड़ती है। एक बार इसी तरह के दूधको जमा दिया गया। सुबह को जिसने उस दूध दहीकी लम्मी पी उसीकी हालत खराब हो गई। पीछे दही के कुंडमें नीचे छिपकली मरी हुई पाई गई । यदि भोजनमें जूँ खा ली जाये तो जलोदर रोग हो जाता है और मकड़ी खा ली जाये तो कुष्ठ हो जाता है । तथा वैद्यकशास्त्र के अनुसार भी भोजन करनेके तीन घंटे के पश्चात जब खाये हुए भोजनका परिपाक होने लगे तब शय्यापर सोनेका विधान है । जो लोग रात्रिमें भोजन करते हैं वे प्रायः भोजन करके पड़ रहते हैं और विषयभोगमें लग जाते हैं। इससे स्वास्थ्यकी बड़ी हानि होती है। अतः नीरोगताकी दृष्टिसे भी दिन में ही भोजन करना हितकर है। इसी तरह पानी भी हमेशा छानकर ही काम में लाना चाहिये | बिना छने पानी में यदि कीड़े हों तो वे पेटमें जाकर अनेक संक्रामक रोग पैदा करते हैं। जब हैजा वगैरह फैला होता है तब पानीको पकाकर पीनेकी सलाह दी जाती है । वास्तव में पका हुआ पानी कभी भी विकार नहीं करता । जैन साधु पका पानी ही काम में लाते हैं । किन्तु जैन गृहस्थोंको पके पानीका तो नियम नहीं कराया जाना, किन्तु छने पानीका नियम कराया जाता है । अनछने पानीसे छना पानी साफ होता हैं और छने पानीसे पका पानी शुद्ध होता है । आजकल तो जगह-जगह नल लगे हुए हैं । किन्तु नलींका पानी भी छानकर ही काम में लेना चाहिये; क्योंकि नलोंके पानी में भी जंग मिट्टी वगैरह मिली आती हैं, जो कपड़ेपर जम जाती है। एक बार तो साँपका बच्चा कहींसे नलमें आ गया था । अत: चाहे नलका पानी हो या कुँएका हो या नदीका हो, सबको छानकर ही काममें लेना चाहिये । इससे हम अनेक रोगों और कष्टों से बच जाते हैं। एक बार समाचा पत्रमें मुरादाबाद जिलेकी एक चटना प्रकाशित हुई थी । एक लड़का रानको खाटके नये पानी रख Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैनधर्म कर सो गया । उसमें बिच्छु गिर गया। अचानक लड़केको रात में प्यास लगी और उसने बिना देखे ही गिलास उठाकर मुँह से लगा लिया । बिच्छु उसके मुँह में चला गया और उसके हलक में चिपट कर डंक मारने लगा । लड़का तिलमिला उठा । बहुत उपचार किया गया मगर बिच्छू छुड़ाया न जा सका । आखिर लड़केने तड़प-तड़फ कर जान दे दी। ऐसी आकस्मिक दुर्घटनाओंसे शिक्षा लेना चाहिये और रात्रिभोजन तथा विना छने पानी से बचना चाहिये । धार्मिक विषयों में केवल धर्मकी ही मर्यादा नहीं है, उनमें व्यक्ति और समाजका सामूहिक हिन भी छिपा हुआ हैं । २. सत्याणुव्रत जो 'वस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो, उसको वैसा ही न कहना लोकमें असत्य कहलाता है । परन्तु जैनधर्म में सत्य स्वयं कोई स्वतन्त्र व्रत नहीं है, किन्तु अहिंसा की रक्षा करना ही उसका लक्ष्य है । इसलिये जैनधर्म में जो वचन दूसरोंको कष्ट पहुँचाने के उद्देश्यसे बोला जाता है वह सत्य होनेपर भी असत्य कहलाता है । जैसे, काने पुरुपको काना कहना यद्यपि सत्य हैं, किन्तु यदि उससे उस मनुष्यके दिलको चोट पहुँचती हैं, या यदि उसे चोट पहुँचानेके विचारसे काना कहा जाता है। तो वह असत्य में ही गिना जायेगा । इसी दृष्टिसे यदि सत्य बोलने से किसीके प्राणोंपर संकट बन आता हो तो उस अवस्थामें सत्य बोलना भी बुरा कहा जायेगा । किन्तु ऐसे समय में असत्य बोलकर किसीके प्राणोंकी रक्षा करनेसे यदि उसके जुल्म और अत्याचारोंसे दूसरोंके प्राणोंपर संकट आने की संभावना हो तो उक्त नियममें अपवाद भी हो सकता हैं; क्योंकि यद्यपि व्यक्तिके जीवनकी रक्षा इष्ट है, किन्तु व्यक्तिके जुल्म और अत्याचारोंकी रक्षा किसी भी अवस्थामें इष्ट नहीं हैं । और अत्याचारोंके परिशोधके लिये व्यक्ति या व्यक्तियोंकी जान ले Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १९१ लेनेकी अपेक्षा उनका मुधार कर देना अति उत्तम है, किन्तु यदि यह शक्य न हो तो अन्याय और अत्याचारको सहायता देना तो कभी भी उचित नहीं है। मगर व्यक्ति सुधर सकता है और इसलिये उसे अवसर अवश्य देना चाहिये । प्राणरक्षाके लिय असत्य बोलनेके मूलमें यही भाव है। ____ असत्य वचनके अनेक भेद हैं, जैसे-१-मनुप्यके विषयमें झूठ बोलना। शादी विवाहके अवसरोंपर विरोधियोंके द्वारा इस तरहके झूठ बोलनेका प्रायः चलन है । विरोधी लोग विवाह न होने देनेके लिये किसीकी कन्याको दृषण लगा देते हैं, किसीके लड़केमें बुराइयाँ बनला देते हैं। २-चौपायोंके विषयमें झूठ बोलना । जैसे, थोड़ा दूध देनेवाली गायको बहुत दूध देनेवाली बतलाना या बहुत दूध देनेवाली गायको थोड़ा दूध देनेवाली बतलाना । ३-अचेतन वस्तुओंके विषयमें झूठ बोलना। जैसे, दूसरेकी जमीनको अपनी बतलाना या टैक्स वगैरहसे बचनेके लिये अपनी जमीनको दूसरेकी बतलाना । ४-लाँचके लोभसे या ईषा होनेसे किसी सच्ची घटनाके विरुद्ध गवाही देना। ५-अपने पास रखी हुई किसीकी धरोहरके सम्बन्धमें असत्य बोलना। ये और इस तरह के अन्य झूठ वचन गृहस्थको नहीं बोलना चाहिये । इनसे मनुप्यका विश्वास जाता रहता है और अनाचारको भी प्रोत्साहन मिलता है, तथा जिनके विपयमें झूठ बोला गया है उन्हें दुःख पहुँचना है और वे जीवनके वैरी बन जाते हैं। जो लोग कारवार मजगारमें अधिक झूठ बोलते हैं और सञ्चा व्यवहार नहीं रखते, बाजारमें भी उनकी माख जाती रहती है। लोग उन्हें झुठा समझने लगते हैं और उनसे लेन देन नक बन्द कर देते हैं। बहुनसे लोग झुट बोलनेकी आदत न होनेपर भी कभी-कभी क्रोधमें आकर झूठ बोल जाते हैं, कुछ लोग लोभमें फंसकर झूठ बोल जाते हैं, कुछ लोग पुलिस वगैरहके डरसे झूठ बोल जाते हैं और कुछ लोग हंसी मजाकमें झूठ बोल जाते हैं । अतः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैनधर्म सत्यवादीको क्रोध, लालच और भयसे भी बचना चाहिये और हँसी मजाक के समय तो एकदम सावधान रहना चाहिये; क्योंकि हँसी मजाकमें झूठ बोलनेसे लाभ तो कुछ भी नहीं होता, उलटे झगड़ा टंटा बढ़ जानेका ही भय रहता है और आइन भी बिगड़ती है । ३. अचौर्याणुव्रत जो मनुष्य चुगनेक अभिप्रायसे दूसरेकी एक तृण मात्र वस्तुको भी लेता है या उठाकर दूसरे को दे देता है वह चोर है, और जो इस तरह की चोरीका त्याग कर देता है वह श्रावक अचौर्याणुत्रती कहा जाता है। किन्तु जो वस्तुएँ सर्वसाधारण के उपयोगके लिये हैं, जैसे, पानी मिट्टी वगैरह, उनको वह बिना किसीसे पूछे ले सकता है, इसी तरह जिस कुटुम्बीके धनका उत्तराधिकार उसे प्राप्त है, यदि वह मर जाये तो उसका धन भी ले सकता है । किन्तु उसकी जीवित अवस्थामें उनका धन छीन लेना चोरी ही कहा जायेगा । यदि कभी अपनी ही वस्तु में यह संदेह हो जाये कि ये मेरी है या नहीं ? तो जबतक वह सन्देह दूर न हो तब तक उस वस्तुको नहीं अपनाना चाहिये । तथा चोरीको बुरा समझकर छोड़ देनेवालोंको नीचे लिखे कार्य भी नहीं करना चाहिये । १ - किसी चोरको स्वयं या दूसरेके द्वारा चोरी करनेकी प्रेरणा करना और कराना या उसकी प्रशंसा करना । तथा कंची वगैरह चोरीके औजारोंको बेचना या चोरोंको अपनी ओर से देना । जैसे, 'तुम बेकार क्यों बैठे हो ? यदि तुम्हारे पास खानेको नहीं है तो मैं देता हूँ । यदि तुम्हारे चुराये हुए मालका कोई खरीदार नहीं है तो मैं उसे वेच दूँगा । इस प्रकारके वचनांसे चोरोंको चोरीमें लगाना भी एक तरह से चोरी ही है । २ - चोरीका माल खरीदना। जो लोग ऐसा काम करते हैं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १९३ वे समझते हैं कि हम तो व्यापार करते हैं, चोरी नहीं करते । किन्तु चोरीका माल खरीदनेवाला भी चोर ही समझा जाता है, तभी तो ऐसा देन-लेन छिपकर होता है। ३-वाट तराजू गज वगैरह कमती या बढ़ती रखना। कमतीसे तोलकर दूसरोंको देना और बढ़तीसे तोलकर स्वयं लेना। ४-किसी वस्तुमें कम कीमतकी समान वस्तु मिलाकर बेचना। जैसे, धान्यमें मरा हुआ धान्य, घीमें चर्बी, हींगमें खैर, तेलमें मूत्र, खरे सोने चांदीमें मिलावटी सोना चांदी आदि मिलाकर बेचना। व्यापारी समझता है कि ऐसा करके मैं चोरी नहीं कर रहा हूँ यह तो व्यापारकी एक कला है, किन्तु उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योंकि इम नरहके व्यवहारसे वह दूसरोंको ठगता है और ऐसा करना निन्दनीय है। ५-गज्यमें गड़बड़ उत्पन्न होनेपर वस्तुओंका मूल्य बढ़ा देना, जैसा युद्धके जमानेमें किया गया था। या एक राज्यके निवासीका छिपकर दूसरे गज्यमें प्रवेश करना और यहाँका माल वहाँ ले जाना या वहाँका माल यहाँ लाना। इसी तरह बेटिकिट यात्रा करना. चुंगी महसूल आयकर वगैरह छिपाना, इस तरहके कार्य चोरी ही समझे जाते हैं। अतः इनसे बचना चाहिये। ___ ऊपर जो बातें बनलाई गई हैं यद्यपि वे व्यापारको लेकर ही बतलाई गई हैं, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चोरीके काम व्यापारी ही करते हैं और राजा या उसके कर्मचारी नहीं करते । यदि वे भी राज्यमें चोरी करवाएँ, चोरीका माल खरीदें, चोरोंसे लाँच घूस वसूल करें, राजाकी ओरसे वस्तुओंकी खरीद होनेपर कमती बढ़ती हैं लें, और अपने राज्य या देशके विरुद्ध काम करें तो वे भी चोरीके दोपके भागीदार कहे जायेंगे। वास्तवमें धन मनुष्यका प्राण है, अतः जो किसीका धन हरता है वह उसके प्राण हरता है। यह समझ कर किसीको किसीकी चोरी नहीं करनी चाहिये। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत कामवासना एक रोग है और उसका प्रतिकार भोग नहीं है । भोगसे तो यह रोग और भी अधिक बढ़ता है । किन्तु जिनके चित्तमें यह बात नहीं जमती, या जमनेपर भी जो अपनी कामवासनाको रोकनेमें असमर्थ हैं उन्हें चाहिये कि वे अपनी विवाहिता पत्नीमें ही सन्तोष रक्खें । इसका नाम ब्रह्मचर्याणुत्रत हैं । ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नीके सिवा जितनी भी स्त्रियाँ हैं, चाहे वे विवाहिता हों, अविवाहिता हों अथवा वेश्या हों, उनसे रमण नहीं करता है और न दूसरोंसे ही ऐसा कराता हैं। ऐसा न करनेका कारण इज्जत आबरूका सवाल नहीं है, किन्तु इस कामको वह अन्तःकरणसे पाप समझता है । जो केवल अपनी मान प्रतिष्ठाके भय से ऐसे कार्योंसे बचता है, वह ऐसे कार्योंको बुरा नहीं समझता और इसलिये जहाँ उसे अपनी मान प्रतिष्ठा जानेका भय नहीं रहता, वहाँ वह ऐसे अनाचार कर बैठता है। और कर बैठनेपर कभी-कभी धोखेमें मानप्रतिष्ठा भी गवाँ देता है । किन्तु जो ऐसे कार्योंको पाप समझता है वह सदा उनसे बचा रहता हैं । इसलिये पाप समझकर ही उनसे बचे रहने में हित है । परस्त्रीगमन और वेश्यागमनकी बुराइयाँ नब कोई जानते हैं, मगर फिर भी मनुष्य अपनी वासनापर काबू न रख सकनेके कारण अनाचार कर बैठते हैं । अनेक युवक छोटे लड़कोंके साथ कुत्सित काम कर बैठते हैं और अपने तथा दूसरोंके जीवनको धूलमें मिला देते हैं। कुछ हस्तमैथुनके द्वारा अपनी कामवासनाको तृप्त करते हैं । ये काम तो परखीगमन और वेश्यागमनसे भी अधिक निन्दनीय हैं। आजकलकी शिक्षाका लक्ष इस तरहके अनाचारोंको रोकनेकी ओर कतई नहीं रहा है । शिक्षार्थी अपना जीवन कैसे बिताता हैं कोई शिक्षक या प्रबन्धक इधर ध्यान नहीं देता । सब जगह शिक्षाको भी खानापूर्ति की जाने लगी है। जो एसे अनाचारोंमें पड़ जाते हैं वे अपने और दूसरोंके आत्मा और शरीर दोनोंका ही घात करते १९४ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १९४ हैं और इसलिये वे किसी भी हिंसकसे कम नहीं हैं। अतः जो अपनी आध्यात्मिक और लौकिक उन्नति करना चाहते हैं और चाहते हैं कि समाजमें इस तरहका अनाचार न फैले, उन्हें कामवासनाका केन्द्र केवल अपनी पत्नीको ही बनाना चाहिये और उसके सिवा संसारकी समस्त स्त्रियोंको अपनी माता बहिन या पुत्री समझना चाहिये तथा छोटे लड़कोंको अपना भाई समझकर उन्नत बनाना चाहिये । पत्नीको कामवासनाका केन्द्र बनानेसे कोई यह न समझें कि एकपत्नीव्रत या विवाह अनियंत्रित कामाचारका सर्टिफिकेट है । वह तो कामरोगको शान्त करने की औषधि है । स्तम्भक और उत्तेजक औषधियोंके द्वारा रोगको बढ़ाकर स्त्रीरूपी औषधि का सेवन करना तो औषधिके साथ अत्याचार करना है । ऐसे अत्याचारके फलस्वरूप हो आजकल विवाहित लड़के और लड़कियाँ क्षय रोगसे ग्रस्त होकर अकालमें ही कालके गाल में चले जाते ह । अतः अनियंत्रित कामाचार भी आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्यको चौपट कर देता है, इसलिये उससे भी बचना ही चाहिये । प्रत्येक सद्गृहस्थको नीचे लिखी बातोंसे बचनेकी सलाह दी गई है १ - दुराचारिणी स्त्रियों से बचते रहो । २ – मुँह से अइलील बातें मत को । ३ - शक्तिसे अधिक काम सेवन मत करो । ४अप्राकृतिक मैथुनसे बचो । ५ - और दूसरोंके वैवाहिक सम्बन्धों के झगड़े में मत पड़ो। जो बातें पुरुषोंके लिए कही गई हैं वे ही स्त्रियोंके लिये भी हैं। स्त्रियोंका भी पर-पुरुष और अधिक कामाचार से बचना चाहिये, और 'अपनेको संयत रखनेकी चेष्टा करना चाहिये । ५. परिग्रह परिमाणव्रत स्त्री, पुत्र, घर, सोना आदि वस्तुओंमें 'ये मेरी हैं' इस तरह Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैनधर्म का जो ममत्व रहता है, उस ममत्व परिणामको परिग्रह कहते हैं। और ममत्वको घटाकर उन वस्तुओंके घटानेको परिग्रह परिमाणव्रत कहते हैं । लोकमें तो रुपया पैसा जमीन जायदाद ही परिग्रह कहलाता है । किन्तु वास्तव में तो मनुष्यका ममत्वभाव परिग्रह है । इन बाहिरी चीजोंको तो उस ममत्वका कारण होनेसे परिग्रह कहा जाता है। यदि बाहिरी चीजोंको ही परिग्रह माना जायेगा तो जिन असंख्य लोगोंके पास कुछ भी नहीं, किन्तु उनके चित्तमें बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ हैं वे सब अपरिग्रही कहलायेंगे । किन्तु बात ऐसी नहीं है। सच्चा अपरिग्रही वही है जिसके पास कुछ भी नहीं है और न जिसके चित्तमें किसी चीजकी चाह ही है; क्योंकि चाह होनेपर मनुष्य परिग्रहका संचय किये बिना रह सकता। और संचयको वृत्ति आनंदर न्याय अन्याय और युक्त अयुक्तका विचार नहीं रहता । फिर तो मनुष्य धनका कोड़ा बन जाता है, वह धनका स्वामी न रहकर उसका दास हो जाता है । द्रव्य दान करके भी उससे उसका ममत्व नहीं छूटता । उसे वह अपने पास ही रखना चाहता है । उसे भय रहता है कि उसके दिये हुए द्रव्यको कोई हड़प न जाये । वह चाहता हैं कि उससे उसकी खूब कीर्ति हो, लोग उसका गुणगान करें, उसके दोषोंपर परदा डाल दिया जाये, अखबारोंमें उसकी खूब बड़ाई छापी जाये। यह सव ममत्वभावका ही फल हैं। उससे छुटकारा मिले बिना परिग्रहसे छुटकारा नहीं मिल सकता। देखा जाता है कि जब तक हम किसी वस्तुको अपनी नहीं समझते तबतक उसके भले बुरेसे न हमें प्रसन्नता होती है और न रंज । किन्तु ज्योंही किसी वस्तुमें 'यह हमारी है' ऐसी भावना हो जाती हैं त्यांही मनुष्य उसकी चिन्तामें पड़ जाता है। इसलिए ममत्व ही परिग्रह है । उसको कम किये बिना परिग्रहरूपी पापसे छुटकारा नहीं मिल सकता । जैसे रुपया वगैरह बाह्य परिग्रह हैं वैसे ही काम, मद, मोह आदि भाव अभ्यन्तर परिग्रह हैं । बाह्य परिग्रहके क्रोध, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १९७ समान ही इन आम्तर परिग्रहों को भी घटाना चाहिये । परिग्रहको घटानेका एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओंको ध्यान में रखकर रुपया पैसा जमीन जायदाद वगैरह सभी ओंको एक मर्यादा नियत कर ले कि इससे ज्यादा मैं अपने पास नहीं रखूँगा । ऐसा करनेसे उसके पास अनावश्यक द्रव्यका संग्रह भी नहीं हो सकेगा; और आवश्यकता के अनुसार द्रव्य उसके पास होनेसे स्वयं उसे भी कोई कष्ट न होगा । साथ ही साथ बहुत मी व्यर्थ की हाय हायसे भी बच जायेगा और अपना जीवन सुख और सन्तोषके साथ व्यतीत कर सकेगा । आज दुनिया में जो आर्थिक विषमता फैली हुई है उसका कारण मनुष्यकी अनावश्यक संचयवृत्ति ही है। यदि सभी मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकताके अनुसार ही वस्तुओंका संचय करें और अनावश्यक संग्रहको समाजके उन दूसरे व्यक्तियोंको सौंप दें जिनको उसकी आवश्यकता है तो आज दुनियामें जितनी अशान्ति मची हुई है उतनी न रहे और सम्पत्तिके बँटबारेका जो प्रश्न आज दुनियाके सामने उपस्थित है, वह बिना किसी कानूनके स्वयं ही बहुत कुछ अंशोंमें हल हो जाये । दुनियाकी अनियंत्रित इच्छाको लक्ष्य करके जैनाचार्य श्री गुणभद्र स्वामीने संसारके प्राणियोंको सम्बोधन करते हुए कहा है " आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् - 1 कस्य कि कियदायाति वृथा वो विपयैपिता ॥ ३६ ॥ " - आत्मानु० | 'प्रत्येक प्राणीमें आशाका इतना बड़ा गढ़ा है. जिसमें यह विश्व अणुके बराबर है। ऐसी स्थितिमें यदि इस विश्वका बैटवारा किया जाये तो किसके हिस्सेमें कितना आयेगा ? अतः संसारके तृष्णालु प्राणियों ! तुम्हारी विषयोंकी चाह व्यर्थ ही है।' अतः प्रत्येक श्रावकको विश्वकी सम्पत्ति और उसकी चाह Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैनधर्म में तड़पनेवाले असंख्य प्राणियोंका विचार करके धनकी तृष्णासे विरत ही रहना चाहिये; क्योंकि न्यायकी कमाईसे मनुष्य जीवन निर्वाह कर सकता है किन्तु धनका अटूट भण्डार एकत्र नहीं कर सकता। अटूट भण्डार तो पापकी कमाईसे ही भरता है, जैसा कि उन्हीं गुणभद्राचार्यने कहा है शुद्धर्धनविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिंधवः ॥४५॥" आत्मानु० । 'सज्जनोंकी भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धनसे नहीं बढ़ती। क्या कभी नदियोंको स्वच्छ जलसे परिपूर्ण देखा गया है।' - नदियाँ जब भी भरती हैं तो वर्षाके गंदे पानीसे ही भरती हैं, उसी तरह धनकी वृद्धि भी न्यायकी कमाईसे नहीं होती। अतः आवश्यक धनका परिमाण करके मनुष्यको अन्यायकी कमाईसे बचना चाहिये। इससे वह स्वयं सुखी रहेगा और दूसरे लोग भी उसके दुःखके कारण नहीं बनगे। - इस व्रतके भी पाँच दोष हैं, जिनसे बचना चाहिये । १-लोभमें आकर मनुष्य और पशुओंसे शक्तिसे अधिक काम लेना। २-धान्य वगैरह आगे खूब मुनाफा देगा इस लोभसे धान्यादिकका अधिक संग्रह करना, जैसा युद्धकालमें किया गया था। ३-इस तरहके धान्य-संग्रहको थोड़े लाभसे बेंच देनेपर या धान्यका संग्रह ही न करनेपर या दूसरोंको धान्य-संग्रहसे अधिक लोभ होता हुआ देखकर खेदखिन्न होना। ४-पर्याप्त लाभ उठानेपर भी उससे अधिक लाभकी इच्छा करना। ५-और अधिक लाभ होता हुआ देखकर धनादिककी की हुई मर्यादाको बढ़ा लेना। श्रावकके भेद श्रावकके तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । जो एक देशसे हिंसाका त्याग करके श्रावक धर्मको स्वीकार करता Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १९९ है उसे पाक्षिक श्रावक कहते हैं। जो निरतिचार श्रावक धर्मका पालन करता है उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं। और जो देशचारित्रको पूर्ण करके अपनी आत्माकी साधनामें लीन हो जाता है, • उसे साधक श्रावक कहते हैं। अर्थात् प्रारम्भिक दशाका नाम पाक्षिक है, मध्यदशाका नाम नैष्ठिक है और पूर्णदशाका नाम साधक है । इस तरह अवस्था भेदसे श्रावकके तीन भेद किये गये हैं । इनका विशेष परिचय नीचे दिया जाता है । पाक्षिक श्रावक पाक्षिक श्रावक पहले कहे गये आठ मृल गुणोंका पालन करता है। उत्तरकालमें आठ मूल गुणोंमें पाँच अणुव्रतोंके स्थानमें पाँच क्षीरिफलोंको लिया गया है। जिस वृक्षमेंसे दूध निकलता है उसे भीरिवृक्ष व उदुम्बर कहते हैं । उदुम्बरका फलोंमें जन्तु पाये जाते हैं। इसीसे अमरकोषमें उदुम्बर एक नाम जन्तुफल भी है और एक नाम 'हेमदुग्धक' है, क्योंकि उसमेंसे निकलनेवाले दूधका रंग पीलेपनको लिये हुए होता है । पीपल, वट, पिलखन, गूलर और काक उदुम्बरी इन पाँच प्रकारके वृक्षोंके फलोंको नहीं खाना चाहिये, क्योंकि इनमें साक्षात् जन्तु पाये जाते हैं। पेड़से गिरते ही गूलरके फूट जानेपर उसमेंसे उड़ते हुए जन्तुओंको हमने स्वयं देखा है । अतः ऐसे फलोंको नहीं खाना चाहिये तथा मद्य, माँस और मधुसे बचना चाहिये। प्रत्येक पाक्षिकको इतना तो कमसे कम करना ही चाहिये। लिखा है 'पिप्पलोदुम्बरप्लक्षवटफल्गुफलान्यदन् । हन्त्याणि प्रसान् गुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥१३॥-सागारधर्मा। 'पीपल, गूलर, पिलखन, वट और काक उदुम्बरीके हरे फलोंको जो खाता है वह त्रस अर्थात् चलते फिरते हुए जन्तुओंका घात करता है; क्योंकि उन फलोंके अन्दर ऐसे जन्तु पाये Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म जाते हैं । और जो उन्हें सुखाकर खाता है, वह उनमें अति आसक्ति होनेके कारण अपनी आत्माका घात करता है ।' अतः प्राथमिक श्रावकको इस तरह के फल नहीं खाना चाहिये । तथा रातको भोजन नहीं करना चाहिये और सदा पानीको छानकर काम में लाना चाहिये । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के छोड़नेका यथाशक्ति अभ्यास करना चाहिये । तथा जुआ, वेश्या, शिकार, परस्त्री वगैरह व्यसनोंसे भी बचते रहनेका ध्यान रखना चाहिये । प्रतिदिन जिन मन्दिरमें जाकर अर्हन्तदेवकी पूजा करनी चाहिये, गुरुओं की सेवा करनी चाहिये, सुपात्रोंको दान देना चाहिये । तथा अन्य भी जो धार्मिक कृत्य हैं, तथा लोक में ख्याति करानेवाले कार्य हैं, उन्हें करते रहना चाहिये । जैसे, दान और अनाथोंके लिये भोजनशाला और औषधालयोंकी व्यवस्था करना चाहिये, अपने पुत्र और पुत्रीको योग्य वनाकर सुपात्र के साथ उनका सम्बन्ध करना चाहिये । आदि, २०० नैष्ठिक श्रावक नैष्ठिक श्रावकके ११ दर्जे हैं। ये दर्जे इस क्रमसे रखे गये हैं कि उनपर धीरे-धरे चढ़ करके कोई भी श्रावक अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ अपने जीवनके अन्तिम लक्ष तक पहुँच सकता हैं । इन ११ दर्जोंका, जिन्हें जैनसिद्धान्तमें ११ प्रतिमाएँ कहते हैं, संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैं १. दर्शनिक - पाक्षिक श्रावकका जो आचार पहले बतलाया हैं, उसके पालन करनेसे जिसका श्रद्धान दृढ़ और विशुद्ध हो गया है, संसार के कारण भोगोंसे जो विरक्त हो चला हैं अर्थात् इष्ट विषयोंका सेवन करते हुए भी उनमें जिसकी आसक्ति नहीं है, जिसका चित्त सदा पाँच परमेष्ठियोंके चरणोंमें लीन रहता है, जो आठ मूल गुणोंमें कोई भी दोष नहीं लगाता और आगेके गुणोंको प्राप्त करनेके लिये उत्सुक रहता है तथा भरण पोषणके Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २०१ लिये न्याय तरीकोंसे आजीविका करता है, उस श्रावकको दर्शनिक कहते हैं । दर्शनिक श्रावक मद्य, मांस वगैरहका न केवल सेवन नहीं करता, किन्तु न उनका व्यापार वगैरह स्वयं करता है न दूसरोंसे कराता है और न ऐसे कामोंमें किसीको अपनी सम्मति ही देता है। जो स्त्री पुरुष शराब वगैरह पीते हैं उनके साथ खान पान आदि व्यवहार भी नहीं रखता, क्योंकि ऐसा करनेसे मद्य वगैरहके सेवनका प्रसंग उपस्थित हो सकता है। चमड़ेके पात्रमें रखा हुआ घी, तेल या पानी काममें नहीं लाता । जिस भोजनपर फुई आ जाती है, या स्वाद बिगड़ जाता है उसे नहीं खाना । जिम फन या साग सब्जोसे वह परिचित नहीं है उसे नहीं खाना । सूर्यादय होनेके एक मुहर्न बादसे सूर्यास्त होनेके एक मुहूर्न पहले तक हो अपना खान-पान करता है । पानीको शुद्ध माफ वस्त्रसे छानकर ही काममें लाता है। जुआ नहीं खेलता और न सट्टेबाजी ही करता है । वेश्याका सेवन तो दूर रहा, उससे किसी भी तरहका सम्बन्ध नहीं रखता, न वेश्यावाटोंकी सैर ही करता है। मुकदमा वगैरह लड़ाकर किसीका द्रव्य या जायदाद हड़प करनेकी कोशिश नहीं करता। शिकार खेलना तो दूर रहा, चित्र वगैरहमें अंकिन जीव जन्तुओंका भी छेदन भेदन नहीं करता। परखीसे रमण करना तो दूर रहा, कन्याके माता पिताको आज्ञाके बिना किसी कन्यासे विवाह भी नहीं करता। जिस कामको बुरा समझकर स्वयं छोड़ देता है, दूसरोंसे भी उसे नहीं कराता । संकल्पी हिंसाका त्याग कर देता है । और उतना ही आरम्भ-कृषि वगैरह करता है जितना स्वयं कर सकता है। क्योंकि दृमरोंस करानेसे व्यवहारमें वह अहिंसकपना नहीं रह सकता, जिसका उसने व्रत लिया है। अपनी पत्नीसे भी उतना ही भोग करना है, जितना करना शरीर और मनके संतापकी शान्तिके लिये आवश्यक है, तथा उसका उद्देश्य केवल सन्तानोत्पादन ही होता है। सन्तान होनेपर उसे योग्य और सदाचारी बनानेका पूरा प्रयत्न करता है, क्योंकि Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जनधमं योग्य सन्तान के होने पर ही अपनी वृद्धावस्थामें उसपर घरबारका भार सौंपकर गृहस्थ आत्मोन्नतिके मार्ग में लग सकता है। ये सब दर्शनिक श्रावकके कर्तव्य हैं । २. त्रतिक - जिसका सम्यग्दर्शन और पहले कहे गये आठमूलगुण परिपूर्ण होते हैं तथा जो मायाचारसे या आगामी कालमें विषय सुखके और भी अधिक प्राप्त होनेकी अभिलाषासे व्रतोंका पालन नहीं करता, बल्कि राग और द्वेषपर विजय पाकर साम्यभाव प्राप्त करनेकी इच्छासे व्रतोंका पालन करता है उसे व्रतिक श्रावक कहते हैं । त्रतिक श्रावक पहले बतलाये पाँच अणुव्रतोंका निर्दोष पालन करता है और उन्हें बढ़ानेके लिये नीचे लिखे सात शीलोंका भी पालन करता हैं । वे सात शील इस प्रकार हैं - १ - दिग्व्रत, २ - देशव्रत, ३ - अनर्थदण्डविरति, ४ - सामायिक, ५ - प्रोषधोपवास, ६- परिभोग उपभोग परिमाण और ७ - अतिथिसंविभाग । १ - उसे जीवन भरके लिये अपने आने जाने और लेन-देन करनेके क्षेत्रकी मर्यादा कर लेनी चाहिये कि इस स्थान तक ही मैं अपना सम्बन्ध रखूँगा, उसके बाहरसे खूब लाभ होनेपर भी कोई व्यापार नहीं करूँगा । ऐसा नियम कर लेनेसे मनुष्यकी तृष्णाका क्षेत्र सीमित हो जाता है और विदेशी व्यापारका नियमन होनेसे देशकी संपत्तिका विदेश जाना भी रुक जाता है । २ - जीवन भरके लिये ली हुई मर्यादाके भीतर भी अपनी आवश्यकता और यातायातको दृष्टिमें रखकर कुछ समय के लिये भी उक्त क्षेत्रकी मर्यादा लेते रहना चाहिये, कि मैं इतने समय तक अमुक अमुक स्थान तक ही अपना आना जाना रखूँगा व लेन-देन अदि करूँगा । ३ – बिना प्रयोजनके दूसरे प्राणियोंको पीड़ा देनेवाला कोई भी काम नहीं करना चाहिये। ऐसे काम संक्षेपमें पाँच भागों में बाँटे गये हैं-पापोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जो लोग हिंसा वगैरहसे आजीविका करते हों Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २०३ उन्हें हिंसा वगैरहका उपदेश नहीं देना चाहिये । जैसे, व्याधको यह नहीं बतलाना चाहिये कि अमुक स्थानपर मृग वगैरह बसते हैं । ठग और चोरको यह नहीं बतलाना चाहिये कि अमुक जगह ठगई और चोरीका अच्छा अवसर है। तथा जहाँ चार जने बैठकर गपशप करते हों वहाँ भी इस तरह की चर्चा नहीं चलाना चाहिये १ । जिन चीजोंसे दूसरोंकी जान ली जा सकती है, ऐसे विष, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसाके साधन दूसरोंको नहीं देना चाहिये २। जिन पुस्तकों या शास्त्रोंके सुनने या पढ़नेसे मन कलुषित हो, जिनके सुनते ही चित्तमें कामवासना जाग्रत हो, दूसरोंको मार डालनेके भाव पैदा हों, घमंड और अहंकारका भाव हृदयमें उत्पन्न हो, ऐसे शास्त्रों और पुस्तकोंको न स्वयं सुनना चाहिये और न दूसरोंको सुनाना चाहिये ३ । अमुकका मरण हो जाय, अमुकको जेलखाना हो जाय, अमुकके घर चोरी हो जाये, अमुककी स्त्री हर ली जाये, अमुककी जमीन जायदाद बिक जाये, इत्यादि विचार मनमें नहीं लाना चाहिये ४ । बिना जरूरतके पृथ्वीका खोदना, पानीका बहाना, आगका जलाना, हवाका करना तथा वनस्पतिका काटना आदि काम नहीं करना चाहिये ५। इन कामोंके करनेसे अपना कुछ लाभ नहीं होता, बल्कि उल्टी हानि ही होती है और दूसरोंको व्यर्थमें कष्ट उठाना पड़ता है। अश्लील चर्चाएँ करना, शरीरसे कुत्सित चेष्टाएँ करना, व्यर्थको बकवाद करना, बिना सोचे समझे ऐसे काम कर डालना जिससे अपना कोई लाभ न हो और दूसरोंको व्यर्थमें कष्ट उठाना पड़े, तथा भोग और उपभोगके साधनोंको आवश्यकतासे अधिक संचय कर लेना, ये सब काम एक सद्गृहस्थको कभी भी नहीं करने चाहिये। ४-प्रातः और सन्ध्याको एकान्त स्थानमें कुछ समयके लिये हिंसा वगैरह समस्त पापोंसे विरत होकर आत्मध्यान करनेका अभ्यास करना चाहिये । उसमें मन वचन और कायको स्थिर करके आत्मा और उसके अन्तिम लाभ मोक्षके Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनधर्म बारेमें चिन्तन करना चाहिये । यद्यपि मन वचन और कायको एकाम करना बड़ा कठिन है, किन्तु अभ्याससे सब साध्य है। प्रारम्भमें कुछ कष्ट अनुभव होता है, शरीर निश्चल रहना नहीं चाहता, मन-विद्रोह करता है और मंत्र पाठको जल्दी-जल्दी बोलकर समाप्त कर देना चाहता है, फिर भी इनको रोकना चाहिय । जब ये सध जाते हैं तो मनुष्यको बड़ी आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। ५-प्रत्यक अष्टमी और प्रत्यक चतुर्दशीके दिन मन, वचन और कायकी स्थिरताका दृढ़ करनेके लिये चारों प्रकारके आहारको त्यागकर उपवास करना चाहिये । उस दिन न कुछ खाना चाहिये और न कुछ पीना चाहिये । किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हों वे केवल जल ले सकते हैं । और जो केवल जलपर भी न रह सकते हों, उन्हें केवल एकवार हल्का सात्विक भोजन करना चाहियं । जो व्यक्ति उपवास करना चाहें, उन्हें चाहिये कि वे अष्टमी और चतुर्दशीके पहले दिन दोपहरका भोजन करके उपवासकी प्रतिज्ञा ले लें। और घर-गृहस्थीके काम धामसे अवकाश लेकर एकान्त स्थानमें चले जायें और अपना समय आत्मचिन्तन और स्वाध्यायमें बितावें । सन्ध्याको दैनिक कृत्यसे निबटकर पुनः अपने उसी काममें लग जायें। रात्रिको विश्राम करें और दिनको इसी तरह बितावें । इस तरह अष्टमी और चतुर्दशीका दिन तथा रात बिताकर दूसरे दिन दोपहरको अभ्यागत अतिथियोंको भोजन कराकर एक बार अनासक्त होकर भोजन करें। उपवासस मतलब केवल पेटके ही उपवाससे नहीं है, किन्तु पाँचों इंन्द्रियोंके उपवाससे है । आहार वगैरहका त्याग करके भी यदि मनुप्यका चित्त पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें रमता है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर कामिनी, सुगन्धित द्रव्य और सुन्दर संगीतकी कल्पनामें मस्त रहता है तो वह उपवास निष्फल है। ६-भोग और उपभोगके साधनोंका कुछ समय या याष. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २०५ ज्जीवन के लिये परिमाण कर लेना चाहिये कि मैं अमुक वस्तु इतने समयतक इतने परिमाणमें भोगूंगा। ऐसा परिमाण करके उससे अधिक वस्तुको चाह नहीं करना चाहिये । जो वस्तु एकबार ही भोगी जा सकती है उसे भोग कहते हैं जैसे फूलोंकी माला या भोजन । और जो वस्तु बार-बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र। इन दोनों ही प्रकारकी वस्तुओंका नियम कर लेना चाहिये । नियम कर लेनेसे एक तो गृहस्थकी चित्तवृत्तिका नियमन होता है, दूसरे इससे वस्तुओंका अनावश्यक संचय और अनावश्यक उपयोग रुक जाता है, और वस्तुओंकी यदि कमी हो नो दृसरोंको भी उनकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है। जो मनुष्य भोग और उपभोगके माधनांको कम करके अपनी आवश्यकताओंको घटा लेता हैं, आवश्यकताओंके घट जानेस उस मनुष्यका खर्च भी कम हो जाता है । और खर्च कम हो जानेसे उसकी धनकी आवश्यकता भी कम हो जाती है। तथा धनकी आवश्यकता कम हो जानेसे उसे न्याय और अन्यायका विचार किये बिना धन मामनेकी तृष्णा नहीं सताती । इसीलिये लिखा है 'भोगोपभोगकृशनात् कृशीकृतधनस्पृहः । धनाय कोट्टपालादि क्रियाः क्रूराः करोति कः ॥' मागारधर्मा० । 'भोग और उपभोगको कम कर देनसे जिसकी धनकी तृष्णा कम हो गई है, ऐसा कौन आदमी धनके लिये पुलिस वगैरहकी निर्दयी नौकरी करेगा।' ___ अतः भोगोपभोगका परिमाण कर लेनेवाला आजीविकाके लिये ऐसा काम नहीं करता है, जिससे दूसरोंको कष्ट पहुँचता हो । उसका खान-पान भी बहुत सात्विक, सादा और शुद्ध होता है । मद्य, माँस और मधु तो वह खाता ही नहीं है, किन्तु भोजन भी ऐसा करता है जो मादक और देरमें हजम हो Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनधर्म सकनेवाला न हो । उसके भोजन में शरीरपोषक तत्त्व रहते हैं किन्तु स्वास्थ्यको चौपट कर डालनेवाले और इन्द्रियोंकी विषयतृष्णाको भड़कानेवाले उत्तेजक पदार्थ नहीं होते। वह प्रकृतिविरुद्ध और संयोगविरुद्ध आहारसे सदा बचता है। साग सब्जी खाता है किन्तु शोध बीनकर । जो चीजें जमीनके अन्दर उगती हैं, जैसे, आलू, गाजरमूली वगैरह, उन्हें नहीं खाता । जैनधर्मकी दृष्टि से इस प्रकारकी सब्जियोंमें बहुत जीव वास करते हैं। तथा लौकिक दृष्टिसे भी जो साग सब्जी सूर्य के प्रकाशमें नहीं फूलती फलती वह सब तामसिक होती है। बहुतसे रोगोंमें डाक्टर' तक ऐसे पदार्थों के खानेका निषेध कर देते हैं । बर्षाकालमें पत्तेको शाक और बिना दला हुआ मूंग, उड़द वगैरह धान्य नहीं खाता है, क्योंकि उस समय उनमें प्रायः कीड़े वगैरह पड़ जाते हैं। __ ७-प्रतिदिन भोजन करनेसे पहले अपने द्वारपर खड़े होकर संसारसे विरक्त सच्चे साधुआंकी प्रतीक्षा करनी चाहिये, और यदि कोई ऐसे साधु महात्मा उस ओरसे निकलें, तो उन्हें आदरके साथ रोककर अपने निमित्त बनाये हुए भोजनमेंसे भक्तिपूर्वक भोजन कराना चाहिये। पीछे स्वयं भोजन करना चाहिये। इस तरह श्रावकके ये सात शील व्रत कहलाते हैं । इनमेंसे पहलेके तीन गुणव्रत कहे जाते हैं, क्योंकि उनके पालन करनेसे पहले कहे गये पाँच अणुव्रतोंमें विशेषता आती है, और पीछेके चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं क्योंकि उनके करनेसे मुनिधर्म ग्रहण १ इन पंक्तियोंके लेखकको इस बातका स्वयं अनुभव हो चुका है। एक बार खांसीसे पीड़ित होनेपर मुरादाबादके स्व० डा० बनर्जीने चिकित्सा प्रारम्भ करनेसे पूर्व जमीकन्द खाना छोड़ देनेका आदेश दिया। जब उनसे कहा गया कि इनका खाना तो हमारे धर्ममें ही बर्जित है तो वे बड़े प्रभावित हुए ।-ले० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २०७ करनेकी शिक्षा मिलती है। शिक्षा अर्थात् अभ्यासके लिये जो व्रत किये जाते हैं वे शिक्षात कहे जाते हैं । ३. सामायिकी - व्रत प्रतिमाका अभ्यासी जो श्रावक तीनों सन्ध्याओंमें सामायिक करता है और कठिन से कठिन कष्ट आ पड़नेपर भी अपने ध्यानसे विचलित नहीं होता - मन, वचन और काकी एकाग्रताको स्थिर रखता है उसे सामायिकी या सामायिक प्रतिमावाला श्रावक कहते हैं । यद्यपि श्रावक के लिए ऐसी एकाता अति कष्टसाध्य है किन्तु अभ्याससे सब संभव होता है। इसका उद्देश्य आत्माकी शक्तिको केन्द्रीभूत करना है । यद्यपि पहले व्रतों में भी सामायिक करना बतलाया है किन्तु वह अभ्यासरूप है और यह व्रतरूप है । ४. प्रोषधोपवासी — पहले प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करनेकी विधि बतलाई है, वही यहाँ भी जानना चाहिये | अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ अभ्यासरूपसे उपवासका विधान है और यहाँ व्रतरूपसे । ५. सचिनविरत – पहलेकी चार प्रतिमाओंका पालन करनेवाला जो दयालु श्रावक हरे साग, सब्जी, फल-फूल वगैरहको नहीं खाता है. उसे सचित्तविरत कहते हैं। असल में त्यागका उद्देश्य संयमका पालन करना है और संयमके दो रूप हैं - एक प्राणिसंयम और दूसरा इन्द्रिय-संयम । प्राणियोंकी रक्षा करनेको प्राणिसंयम कहते हैं और इन्द्रियोंको वशमें करनेका इन्द्रियसंयम कहते हैं । उत्तम तो यही है कि प्रत्येक त्यागमें दोनों संयमोंका पालन हो, किन्तु यदि दोनोंका पालन न हो सकता हो तो एकका पालन होना भी अच्छा ही है। जैनसिद्धान्तमें हरी वनस्पतिकी दो दशायें बतलाई हैं एक सप्रतिष्टित और दूसरी अप्रतिष्ठित प्रतिष्ठित दशामें प्रत्येक बनस्पतिमें अगणित जीवोंका वास रहता है और इसलिये उसे अनन्तकाय कहते हैं और अप्रतिष्ठित दशामें उसमें एक ही जीवका वास रहता | अतः जबतक Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैनधर्म I कोई वनस्पति प्रतिष्ठित या अनन्तकाय है तबतक उसका भक्षण नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसके भक्षण करनेसे अनन्त जीवों का घात होता है। किन्तु जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित हो जाती हैं - अर्थात् उसमें अनन्तकाय जीवोंका वास नहीं रहता तब उसे अचित्त करके खाना चाहिये । सचित्तको अचित करने के कई प्रकार हैं- उसे सुखा लिया जाये । ऐसा करने सचित्त वनस्पति अचित्त हो जाती है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि सचित्तको अचित्त करके खाने से क्या लाभ है ? जीव-रक्षा तो उसमें भी नहीं होती ? इसका समाधान यह है कि सचित्तको अनि करके खानेसे यद्यपि जीवरक्षा नहीं होती और इसलिये प्राणिसंयम नहीं पलता तथापि इन्द्रियसंयम पलता है; क्योंकि सचित्त वनस्पति पौष्टिक अतएव मादक होती है । उसे पका लेने, सुखा लेने या चाकूसे काटने से उसका पोषकतत्त्व नष्ट हो जाता है और इसलिये उसकी मादकता चली जाती है । अतः खानेके बाद वह इन्द्रियोंमें विकार पैदा नहीं करती, किन्तु शरीरकी स्थिति बनाये रखती है। धार्मिक दृष्टिसे जो भोजन शरीरकी स्थितिको बनाये रखकर इन्द्रियोंमें विकार पैदा नहीं करता वही भोजन श्रेष्ठ समझा जाता है । इसी दृष्टिसे पाँचवें दर्जका जैन श्रावक इन्द्रिय मदकारक सचित्त वनस्पतिके भक्षणका त्याग करता है । जैनशास्त्रों में प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पतिकी अनेक पहचानें बतलाई हैं। जैसे, जो वनस्पति – चाहे वह जड़ हो, छाल हो, कोपल हो, शाखा हो, पत्ता हो, फूल हो या फल होतोड़नेपर झटसे समानरूपसे दो टुकड़ों में टूट जाती है यह सप्रतिष्ठित है और जो तोड़ो कहींसे टूटती है कहींसे, वह अप्रतिटित है । जिस बनस्पतिको छीलनेपर मोटा छिलका उतरता है। वह सप्रतिष्ठित है और जिसका छिलका पतला उतरता है वह अप्रतिष्ठित है । जिस वनस्पतिके ऊपरकी धारियाँ, या शिराएँ स्पष्टरूपसे नहीं निकली हैं, या अन्दर फाँकें अलग अलग नहीं Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ चारित्र २०९ हुई हैं वह प्रतिष्ठित है और जिसमें फाँकें अलग-अलग पड़ गई हैं या शिरायें और धारियाँ स्पष्ट उभर आई हैं उसे अप्रतिठित कहते हैं । ६. दिवामैथुनविरत – पहलेकी पाँच प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब दिनमें मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रके सेवन करनेका त्याग कर देता है तब वह दिवामैथुन विरत कहाता है । पहले पाँचवीं प्रतिमामें इन्द्रिय मदकारक वस्तुओं के खान-पानका त्याग करके इन्द्रियोंको संयत करनेकी चेला की गई हैं । और छठी प्रतिमामें दिनमें कामभोगका त्याग कराकर मनुष्यकी कामभोगकी लालसाको रात्रिके ही लिये सीमित कर दिया गया है । कहा जा सकता है कि दिनमें मैथुन दो बहुत हो कम लोग करते हैं, अतः इसका त्याग कराने में क्या विशेषता हैं ? किन्तु मैथुनका मतलब केवल कायिक भोगसे ही नहीं है, परन्तु उस तरह की बातें करना और मनमें उस तरह के विचारोंका होना भी मैथुनमें सम्मिलित है। तथा दिनमें मनुष्य बहुतसे स्त्री पुरुषोंके दृष्टिसंपर्क में आता है जिन्हें देखकर उसकी कामवासना जाग्रत होनेकी संभावना रहती है । अतः दिनमें इस तरह की प्रवृत्तियों से बचाकर मनुष्यको पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर ले जाना ही इसका लक्ष्य है । ७. ब्रह्मचारी—ऊपर कहे गये संयमके अभ्याससे अपने मनको वश में करके जो मन, वचन और कायसे कभी किसी स्त्रीका सेवन नहीं करता उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। पहले छठे दर्जे में दिनमें मैथुनका त्याग कराया है, सातवें दजमें रात्रिमें भी सदाके लिये मैथुनका त्याग करके ब्रह्मचारी बन जाता है । ब्रह्मचर्यके लाभ बतलाना सूर्यको दीपक दिखाना है। आत्मिक शक्तिको केन्द्रित करनेके लिये ब्रह्मचर्य एक अपूर्व वस्तु है । किन्तु होना चाहिये वह ऐच्छिक । बिना इच्छाके जबरदस्ती ब्रह्मचर्य पालनेसे न शारीरिक लाभ होता है और न मानसिक, क्योंकि ब्रह्मचर्य का मतलब केवल शारीरिक कामभोगसे निवृत्ति ही नहीं Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनधर्म है, बल्कि पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्तिका नाम ही ब्रह्मचर्य है। यदि केवल कामेन्द्रियका ही नियंत्रण किया गया और अन्य इन्द्रियोंको काबूमें न रखा गया तो कामेन्द्रियका नियंत्रण भी टूट जायेगा। ८ आरम्भविरत-पहलकी सात प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब जीविकाके साधन कृपि, नौकरी या व्यापार वगेरहके करने और करानेका त्याग कर देता है तो वह आरम्भविरत कहा जाता है। ब्रह्मचर्य धारण करके अपने कौटुम्बिक जीवनको वह पहले ही मर्यादित कर देता है । और जब देखता है कि अब मेरे लड़के कमाने लायक हो गये हैं तो उनको अपना काम धन्धा सौंपकर आप उससे विरत हो जाता है, किन्तु उन्हें सम्मति वगैरह देता रहता है । ९ परिग्रहविरत-पहलंकी आठ प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब अपनी जमीन जायदाद वगैरहसे अपना स्वत्व छोड़ देता है तो वह परिग्रहविरत कहा जाता है। आठवीं प्रतिमामें वह अपना उद्योग धन्धा पुत्रोंके सुपुर्द कर देता है मगर सम्पत्ति अपने ही अधिकारमें रखता है। जब वह देख लेता है कि लड़केने उद्योग धन्वेको भली भाँति समझ लिया है, अब यदि सम्पत्ति भी उसके सुपुर्द कर दी जाये तो वह उसका रक्षण कर सकता है, तब वह पञ्चोंके सामने अपने पुत्र या दत्तक पुत्रको बुलाकर कहता है कि 'हे पुत्र ! आजतक हमने इस गृहस्थाश्रमका पालन किया । अब विरक्त होकर हम इसे छोड़ना चाहते हैं । इसलिये तुम हमारा स्थान स्वीकार करो। अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये इच्छुक पिताका भार सम्हालकर जो उसकी सहायता करता है वहीं पुत्र है, और जो ऐसा नहीं करता, वह पुत्र नहीं है, शत्रु है। इसलिये मेरा यह धन, धार्मिक स्थान तथा कुटुम्बीजनका भार सम्हाल कर मुझे इस भारसे मुक्त करो; क्योंकि इससे मुक्त हुए बिना कोई भी कल्या Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ चारित्र णार्थी अपना कल्याण नहीं कर सकता। मुमुक्षुजनोंके लिये सर्वस्व त्याग ही पथ्य है।' इस प्रकार सब कुछ पुत्रको सौंपकर वह गार्ह स्थिक उत्तरदायित्वसे मुक्त हो जाता है । किन्तु मुक्त होनेपर भी वह सहसा घर नहीं छोड़ता, और उदासीन होकर कुछ काल तक घरमें ही रहता है। लड़का यदि किसी कार्यमें उससे सलाह माँगता है तो उचित सम्मति दे देता है। १० अनुमतिविरत-पहलेको नौ प्रतिमाओंमें अभ्यस्त हुआ श्रावक जब देख लेता है कि अब लड़का विना मेरी सलाहके भी सब काम सम्हाल सकता है तो लेन देन, खेती, वनिज और विवाह आदि लौकिक कार्योंमें अनुमति देना बन्द कर देता है, तब वह अनुमतिविरत कहा जाता है । अब वह घरमें न रहकर मन्दिर वगैरहमें रहने लगता है और अपना समय स्वाध्यायमें बिताता है । यथा मध्याह्नकालकी सामायिक करनेके बाद आमत्रण मिलनेपर अपने या दूसरोंके घर भोजन कर आता है । भोजनमें वह अपनो कोई रुचि नहीं रखता । अपने व्रत नियमके अनुसार जो मिलता है खा लेता है और यही विचारता है कि शरीरकी स्थितिके लिये भोजनकी आवश्यकता है, और शरीर को बनाये रखना धर्मसेवनके लिये आवश्यक है। कुछ दिन इसी तरह बिताकर जब वह देख लेता है कि अब मैं घर छोड़ सकता हूँ तो अपने गुरुजनों, बन्धुवों और पुत्र वगैरहसे पूछकर घर छोड़ देता है। ११ उद्दिष्टविरत-यह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक अपने उद्देश्यसे बनाये गये आहारको प्रहण नहीं करता, इसलिये इसे उद्दिष्टविरत कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं। पहला भेदवाला उत्कृष्ट श्रावक सफेद लंगोटी लगाता है और एक सफेद चादर मात्र अपने पास रखता है, तथा कैंची या छुरेसे अपने केशोंको बनवाता है। और जब किसी स्थानपर बैठता है या लेटता है तो अत्यन्त Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनधर्म कोमल वस्त्र वगैरहसे उस स्थानको साफ कर लेता है, जिससे उसके बैठने या लेटनेसे किसी जन्तुको कोई पोड़ा न पहुँच सके । ___ इस पहले भेदवाले उत्कृष्ट श्रावकके भी दो विभाग हैं । एक वह जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है और दूसरा वह जो एक घरसे ही भिक्षा लेता है। जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है वह भोजनके समय श्रावकके घर जाकर उसके आँगनमें खड़ा होकर 'धर्मलाभ हो' ऐसा कहकर भिक्षाकी प्रार्थना करता है, अथवा मौनपूर्वक केवल अपनेको दिखाकर चला आता है। यदि श्रावक कुछ देता है तो उसे अपने पात्र में ले लेता है। किन्तु वहाँ देर नहीं लगाता और वहाँसे निकलकर दूसरे श्रावकके घर जाकर ऐसा ही करता है। यदि कोई श्रावक अपने घरपर ही भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो अन्य घरोंसे जो भोजन मिला है पहले उसे खाकर पीछे आवश्यकताके अनुसार भोजन उस श्रावकसे ले लेता है। यदि कोई ऐसी प्रार्थना नहीं करता तो कई घरोंमें जाकर अपने उदर भरने लायक भोजन माँगता है और जहाँ प्रासुक पानी मिलता है वहाँ उसे देख भालकर खा लेता है। खाते समय स्वादपर ध्यान नहीं देता और न गृहस्थके घरसे कुछ मिलने या न मिलने अथवा मिलनेवाले द्रव्यकी सरसता और विरसतापर ही ध्यान देता है। भोजन करनेके पश्चात् अपना जूठा बर्तन स्वयं ही माँजता और धोता है। यदि वह मानमें आकर दूसरेसे ऐसा काम कराता है तो यह महान् असंयम समझा जाता है। भोजन करनेके पश्चात् अपने गुरुके पास जाकर दूसरे दिन तकके लिए वह आहार न करनेका नियम ले लेता है और गुरुके पाससे जानेके बादसे लेकर लौटने तक जो कुछ भी वह करता है वह सब सरलतापूर्वक गुरुसे निवेदन कर देता है। जो उत्कृष्ट श्रावक एक घरसे हो भिक्षा ग्रहण करता है वह किसी मुनिके पीछे-पीछे श्रावकके घर जाकर भोजन कर आता है। और यदि भोजन नहीं मिलता तो उपवास कर लेता है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २१३ यह ११ वीं प्रतिमावाला उत्कृष्ट श्रावक सदा मुनियोंके साथ रहता है, उनकी सेवा सुश्रुषा करता है और अन्तरंग और बहिरंग तप करता है । उन तपोंमेंसे भी वैयावृत्य तप खास तौर से करता है । मुनिजनोंको कोई कष्ट होनेपर उसका प्रतीकार करनेको वैयावृत्य कहते हैं, जैसे रोगियोंकी परिचर्या करना, असमर्थोंकी सहायता करना, वृद्धजनोंके पैर वगैरह दबाना आदि । श्रावकके लिए वैयावृत्य करनेका बड़ा महत्त्व बतलाया गया है । इससे घृणाका भाव दूर होता है सेवाभावको प्रोत्साहन मिलता है और वात्सल्यभावकी वृद्धि होती है । तथा जिनकी परिचर्या की जाती है वे सनाथता अनुभव करते हैं, उनके चित्तमें यह भाव नहीं होता कि कोई हमारी देखरेख करनेवाला नहीं है । दूसरे भेदवाले उत्कृष्ट श्रावककी भी सभी क्रियाएँ पहलेके ही समान होती हैं । केवल इतना अन्तर है कि यह सिर और दाढ़ीके बालोंको अपने हाथ से पकड़कर उखाड़ डालता है । इस क्रियाको केशलोंच कहते हैं। केवल लंगोटी लगाता है और मुनियोंके समान हाथमें मोरके पंखोंकी एक पीछी रखता है । उसीसे वह अपने बैठने या लेटनेके स्थानको साफ करके जन्तुरहित कर लेता है । तथा गृहस्थके घर जाकर उसके प्रार्थना करने पर, उसीके घरमें अपने हाथमें ही भोजन करता है, पासमें बरतन नहीं रखता । दोनों हाथोंको जोड़कर बाएँ हाथकी कनअंगुलिमें दाहनेहाथकी कनअंगुलिको फँसा कर पात्र सा बना लेता है। गृहस्थ बाएँ हाथकी हथेलीपर भोजन रखता जाता है और यह दाहिने हाथकी शेष चार अंगुलियोंसे उठाकर कौरको मुँह में रखता जाता है। यह उत्कृष्ट श्रावक उत्तम उत्तम ग्रन्थोंका स्वाध्याय करता है और खाली समय में संसार, शरीर और उसके साथ अपने सम्बन्धके विषयमें चिन्तन करता है । इस प्रकार नैष्टिक श्रावकके ये ११ दर्ज हैं । इनको क्रमवार ही पाला जाता है। ऐसा नहीं है कि कोई प्रारम्भकी क्रयाएँ न Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१४ जैनधर्म करके आगेके दर्जे में पहुँच जाये । यदि कोई ऐसा करता तो आगे बढ़ जानेपर भी उसे उस दर्जेवाला नहीं कहा जा सकता । जैनधर्म में शक्तिके अनुमार किये गये कार्यका ही महत्त्व है। 'आगेको दौड़ और पीछेको छोड़' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ नहीं होती। जो लोग उत्तरदायित्व से बचनेके लिये त्यागी बनना चाहते हैं, उनके लिये भी यहाँ स्थान नहीं है । किन्तु जो अपने गार्हस्थिक उत्तरदायित्वका यथोचित प्रबन्ध करके केवल आत्मकल्याणकी भावना से इस मार्गका अवलम्बन लेते हैं वे ही इस पथके योग्य समझे जाते हैं । साधक श्रावक 1 । श्रावकका तीसरा भेद साधक है । मरणकाल उपस्थित होनेपर, शरीरसे ममत्व हटाकर, भोजन वगैरहका त्याग करके, प्रेमपूर्वक, ध्यानके द्वारा जो आत्माका शोधन करता है उसे साधक कहते हैं । साधककी इस क्रियाको समाधिमरण व्रत या सल्लेखना व्रत कहते हैं। जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग ऐसी हालत में पहुँच जाये, जिसका प्रतीकार कर सकना शक्य न हो तो धर्मके लिये शरीर छोड़ देना सल्लेखना या समाधिमरण कहाता है । समाधिमरण करनेकी विधि बतलाते हुए लिखा है कि शरीर धर्मका साधन है इसलिये यदि वह धर्म - साधन में सहायक होता हो तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिये और यदि वह विनष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिये । तथा धर्मका साधन समझकर ही शरीरको स्वस्थ रखना चाहिये और यदि कोई रोग हो जाये तो उसका प्रतीकार भी करना चाहिये । किन्तु जब शरीर धर्मका बाधक वन जावे तो शरीरको छोड़कर धर्मकी ही रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि शरीर नष्ट होनेपर पुनः मिल जायेगा किन्तु धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । कोई कोई भाई समाधिमरण व्रतके स्वरूप और महत्वको Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २१५ न समझ कर इसे आत्मघात बतलाते हैं । किन्तु धर्मपर आपत्ति आनेपर धर्म की रक्षाके लिये शरीरकी उपेक्षा कर देनेका नाम आत्मघात नहीं है, परन्तु क्रोधमें आकर विष आदिके द्वारा प्राणोंके घात करनेका नाम हो आत्मघात हैं । धर्मकी रक्षाके लिये अपने जीवनको बलिदान कर देनेवाले वीरोंकी अनेक गाथाएँ भारत के इतिहासमें निबद्ध हैं। लोग भौतिक जीवनको ही सब कुछ समझ कर उसीकी रक्षामें लगे रहते हैं, वे सचमुच - में जीना नहीं जानते । इसीलिये कहा गया है 'जिसे मरना नहीं आया उसे जीना नहीं आया ।' जो मरना नहीं जानता वह जीना भी नहीं जानता । अपने धर्म कर्म और मान-मर्यादाको गँवाकर जीना भी कोई जीना है ? जीवन क्षणिक है, लाख प्रयत्न करनेपर भी वह एक दिन अवश्य नष्ट होगा । अतः उसकी रक्षाके लिये कर्तव्यसे विमुख होना उचित नहीं है । इसी बातको जैन शास्त्रोंमें एक दृष्टान्त के द्वारा समझाया है। उसमें लिखा है ।— 'देन लेनकी अनेक वस्तुओंका संचय करनेवाला व्यापारी अपने घरका नाश नहीं चाहता। अगर उसके घर आग लग जाती है तो उसके बुझानेकी चेष्टा करता है। किन्तु जब देखता है कि इसका बुझना कठिन है तो घरकी परवाह न कर संचित धनकी रक्षा करता है । इसी तरह व्रत और शील रूपी धनका संचय करनेवाला व्रती शरीरका नाश नहीं चाहता । और शरीरनाशके कारण उपस्थित होनेपर 'अपने धर्म में बाधा न आवें' इस रीतिसे उनको दूर करनेकी चेष्टा करता है । परन्तु जब यह निश्चित हो जाता है कि शरीरका नाश अवश्य होगा तो वह शरीरकी पवहन करके अपने धर्मकी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है । ऐसी स्थितिमें समाधिमरणको आत्मघात कैसे कहा जा सकता है ?' समाधिमरणका उद्देश है अन्तक्रियाको सुधारना । जब मृत्यु Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनधर्म सुनिश्चित हो तो राग-द्वेष और परिग्रहको छोड़कर, शुद्ध मनसे सबसे क्षमा माँगे और जिसने अपना अपराध किया हो उसे क्षमा कर दे। फिर बिना किसी छलके अपने किये हुए पापोंकी आलोचना करे और मरण पर्यन्तके लिये सम्पूर्ण महात्रतोंको धारण करे । उस समय समाधिमरणत्रत धारण करानेवाले आचार्य और उनका सब संघ उस साधकको साधनाको सफल बनाने में तत्पर रहते हैं। आचार्य साधकसे पूछकर यदि उसकी इच्छा कुछ खानेकी होती है तो खिलाकर आहारका त्याग करा देते हैं और केवल दूध वगैरह उसे देते हैं । फिर दूधका भी त्याग कराकर गर्म जल देते हैं । फिर गर्म जलका भी त्याग करा देते हैं । किन्तु यदि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जिसके कारण बार-बार प्यास लगती ही तो गर्म जल देते रहते हैं, और जब मृत्युका समय निकट देखते हैं तो गर्म जलका भी त्याग करा देते हैं । उसके बाद आचार्य साधकके कानमें अच्छे-अच्छे उपदेश सुनाते हैं । और साधक पञ्च नमस्कार मन्त्रका जप करता हुआ शान्तिके साथ प्राणविसर्जन करता है । I समाधिमरणव्रतके भी पाँच दोष बतलाये हैं । समाधिमरण करते हुए साधकको जीनेकी इच्छा नहीं करनी चाहिये । न कष्टके भयसे मरनेकी ही इच्छा करनी चाहिये । इच्छा करनेसे आयु बढ़ सकती है और न घट सकती है, अतः उसमें मनको लगाना बेकार है । इसी तरह मित्रोंका प्रेम और जीवनमें भोगे हुए सुखोंका भी स्मरण नहीं करना चाहिये। ये सभी चीजें मनुष्यके चित्तको कमजोर बनाती हैं और साधकको उसकी साधना से च्युत करती हैं। तथा यह भी नहीं सोचना चाहिये कि मैंने इस जन्म में जो धर्माराधन किया है उसके फलसे दूसरे जन्म में इन्द्र या चक्रवर्ती या और कुछ होऊँ; क्योंकि ऐसा करनेसे धर्माराधनका मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। धर्मके लिये जो कुछ छोड़ा, धर्म करके उसीको माँगना Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २१७ मूर्खता है। यह धर्मके स्वरूप और उसके उद्देश्यकी अनभिज्ञताको सूचित करता है, अतः इस मँगताईसे बचना ही चाहिये। इस तरह जैनश्रावक अपने विधि नियमोंके साथ जीवन निर्वाह करता हुआ अन्तमें शान्ति और निर्भयताके साथ मृत्युका आलिंगन करके अपने मानव जीवनको सफल बनाता है । ६. श्रावकधर्म और विश्वकी समस्याएँ आज सभी धर्मोंके सामने यह प्रश्न रखा जाता है कि वे वर्तमान विश्वकी समस्याओंको हल करनेमें कहाँतक आगे आते हैं ? यह प्रश्न न भी रखा जावे तो भी धर्मों के सामने यह प्रश्न तो है ही कि केवल व्यक्तिके अभ्युदय और निश्रेयस प्राप्तिके लिये ही धर्मोंकी सृष्टि की गई है या उनसे समाज और राष्ट्रका भी अभ्युदय हो सकता है ? यहाँ हम ऊपर बतलाये गये जैन श्रावकके धर्मके प्रकाशमें उक्त प्रश्न को सुलझानेका प्रयत्न करते हैं। यह सत्य है कि धर्मकी सृष्टि व्यक्तिके अभ्युदयके लिये हुई किन्तु व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्वसे कोई पृथक वस्तु नहीं है। व्यक्तियोंका समूह ही समाज, राष्ट्र और विश्वके नामसे पुकारा जाता है। आज जिन्हें विश्वकी समस्याएँ कहा जाता है वस्तुतः वे उस विश्वमें बसनेवाले व्यक्तियोंकी ही समस्याएँ हैं। माना, व्यक्ति एक इकाई है, किन्तु अनेक इकाईयाँ मिलकर ही दहाई, सैकड़ा आदि संख्याएँ बनती हैं, अतः व्यक्तिके अभ्युदयके लिये जन्मा हुआ धर्म जब किसी एक खास व्यक्तिके अभ्युदयका कारण न होकर व्यक्तिमात्रके अभ्युदयका कारण है तो चूँकि व्यक्तिमात्रमें विश्वके सभी व्यक्ति आ जाते हैं अतः वह विश्वके भी अभ्युदयका कारण हो सकता है। किन्तु विश्वको उसे अपनाना चाहिये। अस्तु, पहले हमें यह देखना चाहिये कि आजके युगको वे कौनसी समस्याएँ हैं, जिन्हें हमें हल करना है, और उनका मूल कारण क्या है ? Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म पिछले दो सौ वर्षोंमें विज्ञानने बड़ी उन्नति की है। उसने ऐसे-ऐसे यंत्र प्रदान किये हैं, जिनसे विश्वका संरक्षण और संहार दोनों ही संभव है; क्योंकि किसी वस्तुका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है और बुरा उपयोग भी किया जा सकता है । उपयोग करना तो मनुष्यके हाथकी बात हैं, उसमें बेचारी वस्तुका क्या अपराध ? विद्या जैसी उत्तम वस्तु भी दुर्जन के हाथमें पड़कर ज्ञानके स्थानमें विवादको जन्म देती है । धनको पाकर दुर्जनको मद होता है किन्तु सज्जन उससे परोपकार करता हैं । शक्ति पाकर एक दूसरोंको सताता है तो दूसरा उसे ही पाकर आतताइयोंके हाथोंसे पीड़ितोंकी रक्षा करता है। विज्ञानने दूरीका अन्त कर दिया है और विश्वको विभिन्न जातियों और राष्ट्रोंको इतने निकट ला दिया है कि वे यदि परस्पर में सम्बद्ध होकर रहना चाहें तो एक सूत्रमें बद्ध होकर रह सकते हैं; क्योंकि विज्ञानने संगठनके अनेक नये साधन प्रस्तुत कर दिये हैं। तथा उत्पादनके भी ऐसे-ऐसे साधन दिये हैं जिनसे संसारके सभी स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते हैं । किन्तु उन साधनोंपर आज अमुक वर्गों और राष्ट्रोंका अधिकार है और वे उनका उपयोग दूसरोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और स्थापित किये हुए प्रभुत्वको बनाये रखने में करते हैं। जंगल में शिकार की खोज में भटकनेवाला व्याघ्र अपने नुकीले पंजों और पैने दाँतोंका जैसा उपयोग अपने शिकार के साथ करता है, वैज्ञानिक साधनोंसे सम्पन्न राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रोंकी छातीपर आज अपने वैज्ञानिक साधनों का वैसा ही उपयोग करते दिखलाई देते हैं । फलतः युद्धोंकी सृष्टि होती है और राष्ट्रोंका धन और जन उनकी भेंट चढ़ा दिया जाता है । मानों, उनका इससे अच्छा कोई दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता । एक ओर नये साधनोंके द्वारा खेतोंसे खूत्र अन्न उपजाया जाता है, मिलें रात दिन कपड़े तैयार करनेमें लगी रहती हैं, दूसरी ओर असंख्य मनुष्य बिना अन्न और वस्त्रके जीवन २१८ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २१६ बिता देते हैं । एक ओर जिन्हें अन्न और वस्त्रकी आवश्यकता है. वेदाने दानेके लिये तरसते हैं और दूसरी ओर जिन्हें उनकी आवश्यकता नहीं है. वे अनावश्यक संचयके भारसे दबे रहते हैं। शान्ति और सुरक्षाके लिये कानूनोंकी सृष्टि की जाती है और उन्हें जबरदस्ती पलवानेके लिये पुलिस, सेना और जेलखानोंकी सृष्टि की जाती है । अन्यायके लिये न्यायका ढोंग रचा जाता है और सत्यको छिपाने के लिये असत्य प्रोपेगण्डा किया जाता 1 ये समस्याएँ सारे संसार के सामने उपस्थित हैं । युद्धके महा विनाशने युद्ध लड़नेवालोंको भी भयभीत कर दिया है । सब चाहते हैं युद्ध न हो, किन्तु युद्धके जो कारण हैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहते । सर्वत्र राजनीतिक और आर्थिक संघटनोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिंसाको भावना छिपी हुई है । दूसरोंको बेवकूफ बनाकर अपना कार्य साधना ही सबका मूलमंत्र बना हुआ है, फिर शान्ति हो तो कैसे हो और युद्ध रुकें तो कैसे रुकें ? आधुनिक समस्याके इस विहंगावलोकनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि विभिन्न राष्ट्रों और जातियोंके बीच में हिंसामूलक व्यवहारका प्राधान्य है । स्वार्थपरता, बेईमानी, धोखेबाजी ये सब हिंसा ही प्रतिरूप हैं। इनके रहते हुए जैसे दो व्यक्तियोंमें प्रोति और मैत्री नहीं हो सकती वैसे हो राष्ट्रों और जातियों में भी मैत्री नहीं हो सकती । 'जिओ और जीने दो' का जो सिद्धान्त व्यक्तियोंके लिये है वही जातियों और राष्ट्रोंके लिये भी है । जब तक विभिन्न राष्ट्र और जातियाँ इस सिद्धान्तको नहीं अपनाते तब तक विश्वकी समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं, बल्कि और उलझती ही जायेंगी, जैसा कि प्रत्यक्षमें दिखलाई पड़ता है । अतः विश्वकी समस्याओंको सुलझानेके लिये राष्ट्रोंको शासनप्रणाली में आमूल परिवर्तन होना चाहिये और सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं में संशोधन होना चाहिये । तथा वह Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनधर्म परिवर्तन और संशोधन अहिंसाके सिद्धान्तको जीवनपथके रूपमें स्वीकार करके किया जाना चाहिये। ___ यह नहीं भूल जाना चाहिये कि बलप्रयोगके आधारपर मानवीय सम्बन्धोंकी भित्ति कभी खड़ी नहीं की जा सकती। कौटुम्बिक और सामाजिक जीवनके निर्माणमें बहुत अंशों में सहानुभूति, दया, प्रेम, त्याग और सौहार्दका हो स्थान रहता है। एक बात यह भी स्मरण रखनी चाहिये कि व्यक्तिगत आचरणका और सामाजिक वातावरणका निकट सम्बन्ध है। व्यक्तिगत आचरणसे सामाजिक वातावरण बनता है और सामाजिक वातावरणसे व्यक्तित्वका निर्माण होता है। किसी समाजके अन्तर्गत व्यक्तियोंका आचरण यदि दूषित हो तो सामाजिक वातावरण कभी शुद्ध हो ही नहीं सकता, और सामाजिक वातावरणके शुद्ध हुए बिना व्यक्तियोंके आचरणमें सुधार होना शक्य नहीं । इसलिये व्यक्तिगत आचरणके सुधारके साथ-साथ सामाजिक वातावरणको भी स्वच्छ बनानेकी चेष्टा होनी चाहिये । इसीसे जैनधर्म प्रत्येक व्यक्तिके आचरण निर्माणपर जोर देते हुए उसके जीवनसे हिंसामूलक व्यवहारको निकालकर पारस्परिक व्यवहारमें मैत्री, प्रमोद और कारुण्यकी भावनासे बरतनेकी सलाह देता है। इतना ही नहीं, बल्कि वह तो यह भी चाहता है कि राजा भी ऐसा ही धार्मिक हो; क्योंकि राजनीतिमें अधार्मिकताके घुस जानेसे राष्ट्रभरका नैतिक जीवन गिर जाता है और फिर व्यक्ति यदि अनैतिकतासे बचना भी चाहे तो बच नहीं पाता, अनेक बाहिरी प्रलोभनों और आवश्यकताओंसे दबकर वह भी अनर्थ करनेके लिए तत्पर हो जाता है, जिसका उदाहरण युद्धकालमें प्रचलित चोरबाजार है। अतः राजनीति, समाजनीति और व्यक्तिगत जीवनका आधार यदि अहिंसाको बनाया जाये तो राजा और प्रजा दोनों सुख शान्तिसे रह सकते हैं। आज जिन देशोंमें प्रजातन्त्र है, उन देशोंमें यद्यपि अपनी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २२१ अपनी जनताके सुख दुःखका ध्यान पूरा-पूरा रखा जाता है; किन्तु दूसरे देशोंकी जनताके साथ वैसा ही व्यवहार नहीं किया जाता । बातें अच्छी-अच्छी कही जाती हैं किन्तु व्यवहार उनसे बिलकुल विपरीत किया जाता है । दूसरे देशोंपर अपना स्वत्व बनाये रखनेके लिए राजनैतिक गुटबन्दियाँ की जाती हैं। उनके विरुद्ध झूठा प्रचार करनेके लिए लाखों रुपया व्यय किया जाता है और यह कहा जाता है कि हम उनकी भलाई के लिए ही उनपर शासन कर रहे हैं। शासनतंत्र के द्वारा अपना अधिकार जमाकर उन देशोंके धन और जनका मनमाना उपयोग किया जाता है । यह सब हिंसा, असत्य और चोरी नहीं है तो क्या है ? यदि राष्ट्रोंका निर्माण अहिंसाके आधारपर किया जाये और असत्य व्यवहारको स्थान न दिया जाये तो राष्ट्रों में पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिंसाकी भावना देखनेको भी न मिले । समस्त राष्ट्रोंका एक विश्वसंघ हो, जिसमें सब राष्ट्र समान भ्रातृभावके आधारपर एक कुटुम्बके रूपमें सम्मिलित हों, न कोई किसीका शासक हो न शास्य हो । सब सबके दुःख और संकटका ध्यान रखें । सबके साथ सबका मैत्री - भाव हो । यदि सब राष्ट्र अपनी-अपनी नियतोंकी सफाई करके इस तरहसे एक सूत्र में बँधे तो न तो युद्ध हों और न युद्धके अभिशापोंसे जनताको असीम कष्ट ही भोगना पड़े । आज उत्पादनके ऊपर एक राष्ट्र या जातिका एकाधिकार होनेसे उसे अपने लिए दूर-दूरसे कच्चा माल मँगाना पड़ता है और तैयार हुए मालको खपानेके लिए बाजारोंकी भी खोज करनी पड़ती है और उनपर अपना काबू रखना पड़ता है। फिर भले ही वे बाजार दुनियाके किसी भी भागमें क्यों न हों। आज इसी पद्धतिके कारण दुनिया कराह रही है। दुनियाको इससे मुक्त करनेके लिये भी हमें अहिंसाका ही मार्ग अपनाना होगा । राष्ट्रों और जातियोंकी भलाईका स्थान विश्वकी भलाईको देना होगा । हमारा जीवन भौतिक दुनियाकी आवश्यकताओंके Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनधर्म अनुसार नहीं चलाया जा सकता। हमें बनावटी तौरपर पहले अपनी जरूरतोंको बढ़ाने और फिर उनको पूरा करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये । जीवनका आनन्द इसपर निर्भर नहीं करता कि हमारे पास कितनी ज्यादा चीजें हैं ? जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जीवनकी बनावटी आवश्यकताओंको बढ़ाकर उसीकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और बिना जरूरत के चीजों का संग्रह करता है, वह दुःखों और पापोंका संग्रह करता है । इसीसे जैनधर्मने परिग्रहको पाप बतलाया है और प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह नियम रखा है कि वह अपनी इच्छाओंको सीमित करके अपनी आवश्यकताके अनुसार सभी आवश्यक वस्तुओंकी एक सीमा निर्धारित कर ले और उससे अधिकका त्याग कर दे । आज उत्पादन और वितरणके प्रश्नने दुनियाँ में विराट रूप धारण कर लिया हैं, जिसके कारण दुनियाँकी आर्थिक विषमताका संतुलन करना कठिन हो रहा है। जैनधर्मके प्रवर्तक श्रीऋषभदेवने युगके आदिमें मनुष्योंकी इसी संचयवृत्तिको लक्ष्यकर प्रत्येक गृहस्थके लिए परिग्रह परिमाण व्रतका निर्देश किया था । उस व्यवस्थामें भोग विलास जीवनका ध्येय न था । भोगपर जोर देनेसे ही व्यवस्थाका आधार मौज, मजा और अधिकार हो गया है । जिसका आखिरी नतीजा संघर्ष और युद्धोंका ताँता है। इसके विरुद्ध यदि हम अनावश्यक इच्छाओंके नियमनपर जोर दें तो जीवनपर नियंत्रण कायम होता है और हमारी जरूरतें सीमित हो जाती हैं । जरूरतोंको सीमित किये बिना यदि कानूनोंके आधारपर उत्पादन और वितरणका प्रबन्ध किया भी गया तो उसमें सफलता नहीं मिल सकती । यह स्मरण रखना चाहिये कि कानून की भाषा और उसका पालन करानेके आधार इतने लचर होते हैं कि मनुष्य अपनी बुद्धिके उपयोगके द्वारा कानूनों को भङ्ग करके भी बचा रहता है । वास्तवमें नैतिक आचरणका पालन बलपूर्वक नहीं कराया Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २२३ जा सकता । वह भीतरीकी प्रेरणासे ही हो सकता है । अतः कानून से अधिक शक्तिशाली और लाभदायक मार्ग आत्मसंयम है जब मनुष्य अपना और समाजका लाभ समझ कर उसका अनुसरण करने लगता है तो वह स्वयं संयमी बनने की कोशिश करने लगता है । इस तरह जब संयमी पुरुष ऊँचे स्तरपर पहुँच जाता है तो वह स्वयं उदाहरण बनकर दूसरोंको भी संयमी बननेकी सतत प्रेरणा देता है और इस तरह समाज के नैतिक जीवनको उन्नत बनाने में निरन्तर योगदान करता रहता है । संयमकी इसी शिक्षाका परिणाम ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहव्रत हैं । यदि मनुष्यसमाजकी वासनाओं और लालसाओंका नियंत्रण न किया जायेगा तो उसका शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य नष्ट हो जायेगा और उसका विकास रुक जायेगा । इस विवेचनसे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जैनधर्म में प्रत्येक गृहस्थ के लिए जिन पाँच अणुव्रतोंका पालन करना आवश्यक बतलाया है, यदि उन्हें सामाजिक और राजनीतिक जीवनका भी आधार बनाकर चला जाये तो विश्वकी अनेक मौलिक समस्याएँ सरलतासे सुलझ सकती हैं। अब रह जाता है मद्य, मांस और मधुका त्याग तथा गृहस्थ के अन्यत्रत नियम | सबसे यह आशा नहीं की जा सकती कि सब उनका पालन करेंगे। फिर भी जो उनका पालन करेगा उसे शारीरिक और आध्यात्मिक दृष्टिसे लाभ ही होगा । मद्य और मांस ऐसी चीजें हैं जिन्हें मनुष्यके आम भोजनमें स्थान देना आवश्यक नहीं है। दोनों ही तामसिक हैं और तामसिक आहार विहारके होते हुए सात्त्विक भावोंका विकास नहीं हो सकता । और सात्विक भावोंका विकास हुए बिना अहिंसक वातावरण नहीं बन सकता । और अहिंसक वातावरण बनाये बिना दुनियाको सुख शान्ति नसीब नहीं हो सकती । अतः उनकी ओरसे मनुष्योंका मन यदि हट सके तो उससे उन मनुष्योंका तथा संसारका लाभ ही होगा । मनुष्य स्वभाव न तो अच्छा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनधर्म होता है और न बुरा। वह तो कच्ची गीली मिट्टीके समान है । चाहे जिस रूपमें उसका निर्माण किया जा सकता है । जिन घरानोंमें मद्य मांससे परहेज किया जाता है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उन चीजोंसे परहेज करते हैं और जिन घरानों में उनका चलन है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध है कि इस प्रकारकी वस्तुओंसे मनुष्योंको बचाया जा सकता है वह उनका प्राकृतिक आहार नहीं । किन्तु जिन देशोंमें अन्नकी कमी या जलवायुके प्रभावके कारण मद्य और मांससे एकदम परहेज करना शक्य नहीं है उन देशों में भी उनपर अमुक प्रकारके प्रतिबन्ध लगाकर कमसे कम यह भाव तो पैदा किया जा सकता है कि ये चीजें मनुष्यके लिये ग्राह्य नहीं हैं किन्तु परिस्थितिवश उन्हें खाना पड़ता है । अपनी शक्ति, परिस्थिति और व्यवसाय के अनुसार हिंसाका त्याग करके भी मनुष्य अहिंसकोंकी श्रेणीमें सम्मिलित हो सकता है । उदाहरण के लिए कोई कसाई अपनी अजीविकाका साधन होनेसे यदि पशुहत्याका त्याग नहीं कर सकता तो उसके लिए सप्ताह में एक दिन उसका त्याग कर देना या अमुक प्रकार के पशुओंकी अमुक संख्यामें ही हत्या करनेका नियम ले लेना भी अहिंसाणुत्रतकी जघन्य श्रेणीमें गिना जाता हैं। जैन पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। यथा-एक मुनिने एक मांसाहारी भीलसे कौवे का मांस खाना छुड़वा दिया था । इसी प्रकार एक मछुवेको यह नियम दिला दिया था कि उसके जालमें जो पहली मछली आयेगी उसे वह नहीं मारेगा। एक चाण्डालको, जो फाँसी लगाने का काम करता था, यह नियम दिला दिया था कि वह चतुर्दशीके दिन किसीको फाँसी नहीं देगा। इन छोटी प्रतिज्ञाओंने ही उन्हें कुछसे कुछ बना दिया । अतः थोड़ा सा भी प्रतिबन्ध लगाकर यदि मांस और मद्य सेवनपर अंकुश रखा जाये तो उनका सेवन करनेके अभ्यस्त मनुष्य भी उनकी बुराइयोंसे बच सकते हैं। और उससे समाज Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ चारित्र २२५ में फैलनेवाली बहुतसी बुराइयोंसे समाजका छुटकारा हो सकता है जैनधर्मके नियम यद्यपि कड़े दिखायी देते हैं किन्तु उनके पालनेमें मनुष्यकी शक्ति और परिस्थितिका ध्यान रखा जाता है इसलिए उनकी कठोरता खलती नहीं । उसका तो एक ही ध्येय है कि मनुष्य स्वयं अपनी अनियंत्रित स्वेच्छाचारिता पर 'ब्रेक' लगाना सीखे और बुराईको करते हुए भी कमसे कम इतना तो न भूले कि मैं बुरा करता हूँ। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई कर सकता है। इसी तरह वृद्धावस्था में अपने मांसारिक उत्तरदायित्वोंसे अवकाश लेकर और उनका भार अपने उत्तराधिकारीको मौंपकर यदि मनुष्य आत्मसाधनाका मार्ग स्वीकार कर लिया करें तो उससे एक ओर तो कार्यक्षेत्रमें आनेके लिए उत्सुक नये व्यनियोंको स्थान मिलने में सहूलियत होगी, दूसरी ओर कौटुम्बिक कटुता घटेगी। साथ ही साथ आध्यात्मिक विकासका मार्ग भी चालू रहेगा और उससे संसारको बहुत लाभ पहुँचेगा। ७. मुनिका चारित्र मुनि या साधुके २८ मूलगण होते हैं। १-५ पाँच महाव्रतअहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महावन, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महावत । श्रावक जिन पाँच व्रतोंका एक देशसे पालन करता है साधु उन्हें ही पूरी तरहसे पालते हैं। अर्थात् वे छहों कायके जीवोंका घात नहीं करते और राग,द्वेष, काम, क्रोध आदि भावांको उत्पन्न नहीं होने देते । अपने प्राणोंपर संकट आनेपर भी कभी झूठ नहीं बोलते । बिना दी हुई कोई भी वस्तु नहीं लेते। पूर्ण शीलका पालन करते हैं और अन्तरंग तथा बहिरंग, सभी प्रकारके परिग्रहके त्यागी होते हैं। केवल शौच आदिके लिए पानी आवश्यक होनेसे एक कमंडलु Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियोंको अच्छे लगते हैं उनसे बदन सामायिक अमान २२६ जैनधर्म और जीवरक्षाके लिये मोरके स्वयं गिरे हुए पंखोंकी एक पीछी अपने पास रखते हैं। ६-१० पाँच समिति-दिनमें सूर्य के प्रकाशसे प्रकाशित जमीनको अच्छी तरहसे देखकर चलते हैं। जब बोलते हैं तो हित और मित वचन बोलते हैं। दिनमें एक बार श्रावकके घर जाकर, यदि वह श्रद्धा और भक्तिके साथ भोजनके लिए निवेदन करे तो छियालीस दोप टालकर भोजन करते हैं। अपने कमंडलु और पीछी वगैरहको देखभालकर हाथमें लेते हैं और देखभालकर रखते हैं। मलमूत्र वगैरह ऐसे स्थानपर करते हैं जहाँ किसीको भी उससे कष्ट पहुँचनेकी संभावना न हो। ११-१५ पाँचों इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं जो विषय इन्द्रियोंको अच्छे लगते हैं उनसे राग नहीं करते और जो विषय इन्द्रियोंको बुरे लगते हैं उनसे द्वेष नहीं करते। ____१६-२१ छ आवश्यक-प्रतिदिन सामायिक करते हैं, तीर्थकरोंकी स्तुति करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, प्रमादसे लगे हुए दोषोंका शोधन करते हैं, भविष्यमें लग सकनेवाले दोषोंसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओंका मन, वचन और कायसे त्याग करते हैं और लगे हुए दोषोंका शोधन करनेके लिए अथवा तपकी वृद्धिके लिए, अथवा कर्मोकी निर्जराके लिए कायोत्सर्ग करते हैं। खड़े होकर, दोनों भुजाओंको नीचेकी ओर लटकाकर, पैरके दोनों पंजोंको एक सीधमें चार अंगुलके अन्तरसे रखकर साधुके निश्चल आत्मध्यानमें लीन होनेको कायोत्सर्ग कहते हैं। २२-स्नान नहीं करते। गृहस्थके घर जब आहारके लिए जाते हैं तो गृहस्थ ही उनका शरीर पोंछ देते हैं। २३-दन्तधावन नहीं करते। भोजन करनेके समय गृहस्थके घरपर ही मुखशुद्धि कर लेते हैं। २४-पृथ्वीपर सोते हैं। २५-खड़े होकर भोजन करते हैं। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २२७ २६-दिनमें एक बार ही भोजन करते हैं। २७-नग्न रहते हैं। २८-केशलोंच करते हैं। इन २८ मूलगुणोंका पालन प्रत्येक जैन साधु करता है। उसके ऊपर यदि कोई कष्ट आता है तो वह उससे विचलित नहीं होता । भूख प्यासको वेदनासे पीड़ित होनेपर भी किसीके आगे हाथ नहीं पसारता और न मुखपर दीनताके भाव ही लाता है। जैसे विदेशी सरकारसे असहयोग करनेवाले सत्याग्रही देशकी आजादीके लिए जेलमें डाल दिया जानेपर भी न किसीसे फर्याद करते थे और न कष्टोंसे ऊबकर माफी माँगते थे किन्तु अपने लक्ष्यकी पूर्तिमें ही तत्पर रहते थे उसी प्रकार जैन साधु सांसारिक बन्धनोंके कारणोंसे असहयोग करके कष्टोंसे न घबरा कर आत्माको मुक्तिके लिए सदा उद्योगशील रहता है। जो लोग उसे सताते हैं, दुःख देते हैं, अपशब्द कहते हैं, उनपर वह क्रोध नहीं करता । उसे किसीसे लड़ाई झगड़ा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है वह तो अपने कर्तव्यमें मस्त रहता है। उसके लिए शत्रु-मित्र, महल-स्मशान, कंचन-काँच, निन्दास्तुति, सब समान हैं। यदि कोई उसकी पूजा करता है तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे वार करता है तो उसकी भी हितकामना करता है। उसे न किसीसे राग होता है और न किसीपर द्वेष । राग और द्वेषको दूर करनेके लिए ही तो वह साधुका आचरण पालता है। जैसा कि लिखा है मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्य चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥ रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥-रत्नकर०या० अर्थात्-'मोहरूपी अन्धकारके दूर हो जाने पर सम्यग्द Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनधर्म र्शनकी प्राप्ति होनेके साथ ही साथ जिसे सच्चा ज्ञान भी प्राप्त हो गया है, वह साधु राग और द्वेपको दूर करनेके लिए चारित्रका पालन करता है। (इस पर यह शंका होती है कि चारित्र तो हिंसा वगैरह पापोंसे बचनेके लिए पाला जाता है न कि रागद्वेषकी निवृत्तिके लिए; क्योंकि जैनधर्ममें अहिंसा ही आराध्य है । तो उसका समाधान करते हैं) राग और द्वेषके दूर हो जानेपर हिंसा वगैरह पाप तो स्वयं ही दूर हो जाते हैं। क्योंकि जिस मनुष्यको आजीविकाकी चिन्ता नहीं है वह राजाओंको सेवा करने क्यों जायेगा ? अतः जिसे किसीसे राग और द्वेष ही नहीं रहा वह हिंसा वगैरहके कार्य करेगा ही क्यों ? ___ अतः साधु बाहिरी समस्त बातोंसे इतना उदासीन हो जाता है कि वह किसीकी ओर अपेक्षावृत्तिसे ध्यान ही नहीं देता। जैनधर्ममें साधुको अत्यन्त 'निरीह वृत्तिवाला और अत्यन्त संयत बतलाया है, तथा इसीलिए उसकी आवश्यकताएँ अत्यन्त परिमित रखी गयी हैं। साधु होनेके लिए उसे सब वस्त्र उतारकर नग्न होना पड़ता है इससे एक ओर तो उसकी निर्विकारता स्पष्ट हो जाती है दूसरी ओर उसे अपनी नग्नताको ढाँकनेके लिए किसीसे याचना नहीं करना पड़ती। जो निर्विकार नहीं है वह कभी बुद्धिपूर्वक नग्न हो नहीं सकता। विकारको छिपानेके लिए ही मनुष्य लँगोटी लगाता है । और यदि लँगोटी फट जाये या खोई जाये तो उसे चलना फिरना कठिन हो जाता है। किन्तु बचपनमें वही मनुष्य नंगा घूमता है. उसे देखकर किसीको लज्जा नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं निर्विकार है। जब उसमें विकार आने लगता है तभी वह नग्नतासे सकुचाने लगता है और उसे छिपानेके लिए आवरण लगाता है । प्रकृति तो सबको दिगम्बर ही पैदा करती है पीछेसे मनुष्य कृत्रिमताके आडम्बरमें फंस जाता है। अतः जो साधु होता है वह कृत्रिमताको हटाकर प्राकृतिक स्थितिमें आ जाता है। उसे फिर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २२९ कृत्रिम उपकरणोंकी आवश्यकता नहीं रहती। इसीलिए सिर और दाढ़ी मूछोंके केशोंको दूसरे, चौथे अथवा छठे महीनेमें वह अपने हाथसे उपार डालता है। साधुत्वकी दीक्षा लेते समय भी उसे केशोंका लुचन करना होता है। ऐसा करनेके कई कारण हैं-प्रथम तो ऐसा करनेसे जो सुखशील व्यक्ति हैं और किसी घरेलू कठिनाई या अन्य किसी कारणसे साधु बनना चाहते हैं वे जल्दी इस ओर अग्रसर नहीं होते और इस तरह पाखण्डियोंसे साधुसंघका बचाव हो जाता है। दूसरे, साधु होनेपर यदि केश रखते हैं तो उनमें जूं वगैरह पड़नेसे वे हिंसाके कारण बन जाते हैं और यदि मौरकर्म कराते हैं तो उसके लिए दूसरोंस पैसा वगैरह माँगना पड़ता है। अतः वैराग्य वगैरहकी वृद्धि के लिए यतिजनांको केशलोंच करना आवश्यक बतलाया है। __ लिंग चिह्नको कहते हैं। जिन लिंग या चिह्नांसे मुनिकी पहचान होती है वे मुनिके लिंग कहलाते हैं। लिंग दो प्रकारके होते हैं द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्यचिह्न और भावलिंग अर्थात् अभ्यन्तर चिह्न । जनमुनिके ये दोनों चिह्न इस प्रकार बतलाये हैं "जधजादरूवजादं उप्पाडिदकसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिमादीदो अप्पडिकम्मं हदि लिंगं ॥५॥ मुच्छारम्भविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगमुद्धीहि । लिगं ण परावेखं अपुणभवकारणं जेण्हं ॥ ६ ॥-प्रवचनसा० ।। 'मनुष्य जैसा उत्पन्न होता है वैसा ही उसका रूप हो अर्थात् नग्न हो, सिर और दाढ़ी मूछोंके बाल उखाड़े हुए हों, समस्त बुरे कामोंस बचा हुआ हो, हिमा आदि पापांस रहित हो और अपने शरीरका सम्कार वगैरह न करता हो। यह सब तो जैन साधुके बाह्य चिह्न है । तथा ममत्व और आरम्भसे मुक्त हो, उपयोग और मन वचन कायकी शुद्धिसे युक्त हो, दूसरोंकी रंचमात्र भी अपेक्षा न रखता हो। ये सब आभ्यन्तर चिह्न हैं जो मोक्षके कारण हैं।' Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म इस युगमें यह प्रश्न किया जाता है कि बाहिरी चिह्नकी क्या आवश्यकता है ? मगर बाहिरी चिह्नोंसे ही आभ्यन्तरकी पहचान होती है । आँखोंसे तो बाहिरी चिह्न ही देखे जाते हैं उन्हींको देखकर लोग उनके अभ्यन्तरको पहचाननेका प्रयत्न करते हैं । तथा लोकमें भी मुद्राकी ही मान्यता है । राजमुद्राके होनेसे ही जरा सा कागज हजारों रुपयों में बिक जाता है । अतः द्रव्यलिंग भी आवश्यक है । २३० इस तरह जैनधर्म में साधुको बिल्कुल निरपेक्ष रखनेका हो प्रयत्न किया गया है । फिर भी उसे शरीरको बनाये रखनेके लिए भोजनकी आवश्यकता होती है और उसके लिए उसे गृहस्थोंके घर जाना पड़ता है । वहाँ जाकर भी वह किसीके घरमें नहीं जाता और न किसीसे कुछ माँगता ही है । केवल भोजनके समय वह गृहस्थोंके द्वारपरसे निकल जाता है। गृहस्थोंके लिए यह आवश्यक होता है कि वे भोजन तैयार होनेपर अपने-अपने द्वारपर खड़े होकर साधुकी प्रतीक्षा करें। यदि कोई साधु उधरसे निकलता है तो उसे देखते ही वे कहते हैं'स्वामिन ठहरिये, ठहरिये, ठहरिये ।' यदि साधु ठहर जाते हैं तो वह उन्हें अपने घरमें ले जाकर ऊँचे आसनपर बैठा देता है। फिर उन्हें नमस्कार करता है । फिर कहता है-मन शुद्ध, वचन शुद्ध, काय शुद्ध और अन्न शुद्ध ।' इन सब कार्योंको नवधा भक्ति कहते हैं । नवधा भक्ति के करनेपर ही साधु भोजनशाला में पधारते हैं । इस नवधा भक्तिसे एक तो साधुको सद्गृहस्थकी पहचान हो जाती है-वे जान जाते हैं कि यह गृहस्थ प्रमादी है या अप्रमादी ? इसके यहाँ भोजन सावधानी - से बनाया गया है या असावधानीसे ? दूसरे, इससे गृहस्थके मनमें अवज्ञाका भाव नहीं रहता और इसलिए वह जो कुछ देता है वह भार समझकर नहीं देता किन्तु अपना कर्तव्य समझकर प्रसन्नतासे देता है। जहाँ साधु माँगते हैं और गृहस्थ उन्हें दुरदुराते हैं वहाँ साधु न आत्मकल्याण कर पाता है और न Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २३१ पर कल्याण ही कर पाता है । इसलिए जैन साधु विधिपूर्वक दिये जानेपर ही भोजन ग्रहण करते हैं । अन्यथा लौट जाते हैं । भोजनशाला में जाकर वे खड़े हो जाते हैं और दोनों हाथों को धोकर अंजुलि बना लेते हैं। गृहस्थ उनकी बाएँ हाथकी हथेली पर ग्रास बनाकर रखता जाता है और वे उसे अच्छी तरहसे देख भालकर दायें हाथकी अंगुलियोंसे उठा उठाकर मुँह में रखते जाते हैं । यदि ग्रासमें कोइ जीव जन्तु या बाल दिखायी दे जाता है, तो भोजन छोड़ देते हैं। भोजनके बहुत से अन्तराय जैन शास्त्रों में बतलाये गये हैं । पहले लिख आये हैं कि भोजन केवल जीवनके लिए किया जाता है और जीवन रक्षणका उद्देश्य केवल धर्मसाधन है । अतः जहाँ थोड़ीसी भी धर्ममें बाधा आती है भोजनको तुरन्त छोड़ देते हैं। हाथमें भोजन करना भी इसलिये बतलाया है कि यदि अन्तराय हो जाये तो बहुतसा झूठा अन्न छोड़ना न पड़े, क्योंकि थाली में भोजन करनेसे अन्तराय हो जानेपर भरी हुई थाली भी छोड़नी पड़ सकती है। दूसरे, पात्र हाथमें लेकर भोजनके लिए निकलनेसे दीनता भी मालूम होती है। गृहस्थके पात्र में खानेसे पात्रको माँजने धोनेका झगड़ा रहता है, तथा पात्रमें खानेसे बैठकर खाना होगा, जो साधुके लिये उचित नहीं है, क्योंकि बैठकर खानेसे साधु आरामसे अमर्यादित आहार कर सकता हैं तथा सुखशील बन सकता है । अतः खड़े होकर आहार करना ही उसके लिए विधेय रखा गया है । साधुको अपना अधिकांश समय स्वाध्यायमें ही बिताना होता है । स्वाध्यायके चार काल बतलाये हैं- प्रातः दो घड़ी दिन बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और मध्याह्न होनेसे दो घड़ी पहले समाप्त कर देना चाहिये। फिर मध्याह्नके बाद दो घड़ी बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और जब दिन अस्त होने में दो घड़ी काल बाकी रहे तो समाप्त कर देना चाहिये । फिर दो घड़ी रात बीत जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनधर्म करना चहिये । और आधी रातका अन्त होनेसे दो घड़ी पहले समाप्त कर देना चाहिये। फिर आधी रात होनेके दो घड़ी बादसे स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और रातका अन्त होनेमें दो घड़ी बाकी रहनेपर समाप्तकर देना चाहिये । साधुकी दिनचर्या साधुको चाहिये कि मध्य रात्रिमें ४ घड़ीतक निद्रा लेकर, थकान दूर करके, स्वाध्याय प्रारम्भ करे और जब रात वीतनेमें दो घड़ी काल शेप रह जाय तो स्वाध्याय समाप्त करके प्रतिक्रमण करे । खूब अभ्यस्त योगी भी क्षणभरके प्रमादसे समाधिच्युत हो जाता है | अतः साधुको सदा अप्रमादी रहना चाहिये। तीनों संध्याओं में जिनदेवकी वन्दना करनी चाहिये और चित्तको स्थिर करने के लिए उनके गुणांका चिन्तन करना चाहिये । कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमलमें प्राणवायुके साथ मनका नियमन करके 'णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं' का ध्यान करना चाहिये । फिर धीरे-धीरे वायुको निकाल देना चाहिये। फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर 'णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं' का ध्यान करना चाहिये, और वायुको धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिये । फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर ' णमो लोए सव्व साहूणं' का ध्यान करना चाहिये और वायुको धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिये । इस प्रकार नौ बार करनेसे चिरसंचित पाप नष्ट होते हैं। जो साधु प्राण वायुको नियमन कर सकने में समर्थ न हों वे वचनके द्वारा ही ऊपर लिखे गये पाँच नमस्कार मंत्रों का जप कर सकते हैं। यह पंच नमस्कार मंत्र समस्त विघ्नों को नष्ट करनेवाला और सब मङ्गलोंमें मुख्य मंगल माना गया हैं । कायोत्सर्ग के पश्चात् स्तुति वन्दना आदि करके आत्माका ध्यान करना चाहिये, क्योंकि आत्मध्यानके बिना मुमुक्षु साधुकी कोई भी क्रिया मोक्षसाधक नहीं होती । इस प्रकार प्रातः कालीन देवबन्दनाको करके फिर सिद्धोंकी, शास्त्रकी और अपने गुरु आचार्य वगैरहकी भक्ति करनी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २३३ चाहिये। इस प्रकार प्रभातमें दो घड़ीतक प्रातःकालीन कृत्य करके फिर साधुको स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद भोजन करनेकी इच्छा होनेपर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिये । और भोजन समाप्त होने पर अगले दिनतकके लिए भोजनका त्याग कर देना चाहिये। फिर लगे हुए दोषोंका शोधन करके मध्याह्नके बाद दो घड़ी बीननेपर स्वाध्याय करना चाहिये। जब दिन दो घड़ी बाकी रहे तो स्वाध्याय समाप्त करके और दिन भरके दोपोंका परिमार्जन करके आचार्यकी वन्दना करनी चाहिये । फिर देवबन्दना करके दो घड़ी रात जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और आधी रात होने में दो घड़ी बाकी रह जानेपर समाप्त कर देना चाहिये । फिर चार घड़ीतक भूमिमें एक करवटस शयन करना चाहिये । यह साधुका नित्य कृत्य है। नैमित्तिक कृत्य मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है। साधुके सम्बन्धमें और जो बातें जैन शास्त्रों में लिखी हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं___ साधु जव धूपसे छायामें या छायासे धूपमें जाते हैं तो मोरपंखी पीछीसे अपने शरीरको साफ करके जाते हैं। इसी तरह जब बैठते हैं तो उस स्थानको पीछीसे साफ करके बैठते हैं जिससे कोई जीव जन्तु उनके नीचे दबकर मर न जाय । जिस घरमें पशु बँधे हों या कोई बुरा कार्य होता हो उस घरमें साधुको भोजनके लिए नहीं जाना चाहिये तथा घरके अन्दर जाकर बार-बार दाताकी ओर नहीं देखना चाहिये । यदि संघमें कोई साधु बीमार हो जाये तो उसकी कभी भी उपना नहीं करना चाहिये । अकेलं साधुको कहीं नहीं जाना चाहिये, जब कहीं जाये तो दूसरे साधुके साथ ही जाना चाहिये । गुरुको देखते ही उठ खड़े होना चाहिये और उन्हें नमस्कार करना चाहिये। गुरु जो वस्तु हैं उसे अत्यन्त आदरके साथ दोनों हाथोंसे लेना चाहिये और लेकर पुनः नमस्कार करना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनधर्म चाहिये । जिन्होंने दीक्षा दी हो, जो पढ़ाते हों, प्रायश्चित्त देते हों और समाधिमरण कराते हों वे सब गुरु होते हैं। प्राण चले जानेपर भी साधुको दीनता नहीं दिखलाना चाहिये। भूखसे शरीरका कृश और मलिन होना साधुके लिए भूषण है, पवित्र मनवाला साधु उससे लजाता नहीं है । जिसका मन शुद्ध है उसे ही शुद्ध कहा जाता है । मन शुद्धिके बिना स्नान करनेपर भी शुद्धि नहीं होती । साधुको चित्रमें अंकित भी स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये। जिनका स्मरण भी खतरनाक है उनको स्पर्श करना तो दूरकी बात है । साधुको रात्रिमें ऐसे स्थानपर नहीं सोना चाहिये जहाँ स्त्रियाँ रहती हों । न साध्वियों के साथ मार्गमें चलना ही चाहिये । तथा एकाकी साधुको किसी एकाकी स्त्रीके साथ न गपशप करनी चाहिये, न भोजन करना चाहिये और न बैठना ही चाहिये । जहाँ वास करनेसे साधुका मन चंचल हो उस देशको छोड़ देना चाहिये । जो पाँचों प्रकारके वखसे रहित हैं वे ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं, अन्यथा सोना-चाँदी वगैरह कौन साधु रखता है ? परिग्रहकी बुराइयाँ बतलाते हुए एक जैनाचार्यने ठीक ही लिखा है "परिग्रहवां सर्वां भयमवश्यमापद्यते । प्रकोपपरिहिसने च परुषानृतव्याहृती । ममत्वमथ चोरतो स्वमनसश्च विभ्रान्तता कुतोहि कलुषात्मनां परमशुक्ल सद्ध्यानता ॥ ४२ ॥” पात्रके ० स्तो० | 'परिग्रहवालोंको चोर आदिका भय अवश्य सताता है । चोरी हो जानेपर गुस्सा और मार डालनेके भाव होते हैं, कठोर और असत्य वचन बोलता है । ममत्व होनेसे मन भ्रान्त हो जाता है । ऐसी स्थितिमें कलुषित आत्मावाले साधुओंको उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान कैसे हो सकता है ।' अतः साधुको बिल्कुल अपरिग्रही होना चाहिये । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २३५ ऊपर साधुको जो चर्या बतलायी है उससे स्पष्ट है कि जैनधर्ममें साधु जीवन बड़ा कठोर है। जो संसार, शरीर और भोगोंकी असारताको हृदयंगम कर चुके हैं, वे ही उसे अपना सकते हैं। सुखशील मनुष्योंकी गुजर उसमें नहीं हो सकती। जैन साधुका जीवन बिताना सचमुच 'तलवारकी धारपै धावनो' है। आजकलके सुखशील लोगोंको साधु जीवनकी यह कठोरता सम्भवतः सह्य न हो और वे इसे व्यर्थ समझें। किन्तु उन्हें यह न भूल जाना चाहिये कि आजादी प्राप्त करना कितना कठिन है ? जिस देशपर विदेशी शक्ति प्रभुता जमा बैठती है, वहाँसे उसे निकालना कितना कठिन होता है यह हम भुक्तभोगी भारतीयोंसे छिपा नहीं। फिर अगणित भवोंसे जो कर्मबन्धन आत्मासे बंधे हुए हैं उनसे मुक्ति सरलतासे कैसे हो सकती है ? शरीर और इन्द्रियाँ आत्माके साथी नहीं हैं किन्तु उसको परतंत्र बनाये रखनेवाले कमोंके साथी हैं । जो उन्हें अपना समझकर उनके लालन-पालनको चिन्ता करता है वह कर्मोकी जंजीरोंको और दृढ़ करता है। इनकी उपमा अंग्रेजी शासनके उन प्रबन्धकोंसे की जा सकती है जिन्हें जनताको जान-मालका रक्षक कहा जाता था किन्तु जो अवसर मिलते ही आँखें बदलकर भक्षक बन जाते थे। अतः अपना काम निकालने भरके लिए ही इनकी अपेक्षा करनी चाहिये और काम निकल जानेपर उन्हें मुँह नहीं लगाना चाहिये। यही दृष्टिकोण साधुकी चर्या में रखा गया है । जैन सिद्धान्तका यह भी आशय नहीं है कि दुःख उठानेसे ही मुक्ति मिलती है। गुस्से में आकर स्वयं कष्ट उठाना या दूसरोंको कष्ट देना बुरा है। किन्तु संसारकी वास्तविक स्थितिको जानकर उससे अपनेको मुक्त करनेके लिए मुक्तिके मार्गमें पैर रखनेपर दुःखोंकी परवाह नहीं की जाती। जैसा कि लिखा है 'न दुःखं न सुखं यद्वद् हेतुर्दृष्टश्चिकित्सिते । चिकित्सायाँ तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनधर्म न दुःखं न सुखं तद्वत् हेतुर्मोक्षस्य साधने । ___ मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥' सवार्थ०॥ अर्थात्-'जैसे रोगसे छुटकारा पानेमें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है, किन्तु चिकित्सामें लगनेपर दुःख हो अथवा सुख हो। उसी तरह मोक्षका साधन करनेमें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है। किन्तु मुक्तिका उपाय करनेपर चाहे दुःख हो या सुख हो, उसकी परवाह नहीं की जातो।' ___ अतः साधुकी चर्याकी कठोरता साधुको जान बूझकर दुःखी करनेके उद्देश्यसे निर्धारित नहीं की गयी है किन्तु उसे सावधान, कष्टसहिष्णु और सदा जागरूक रखनेके लिए की गयी है। ____ कुछ लोग साधु के स्नान और दन्तधावन न करनेको बुरी निगाहसे देखते हैं, किन्तु उनके न करनेपर भी जैन साधुकी शारीरिक स्वच्छता दर्शनीय होती है। कुछ लोग कहते हैं कि जैन साधुओंके दातोंपर मल जमा रहता है और उसपर यदि पैसा चिपक जाये तो उसे उत्कृष्ट साधु कहा जाता है। किन्तु यह सब दन्तकथा मात्र हैं, दाँतोंपर मैल तभी जमता है जब आँतोंमें मल भरा रहता है। जैन साधु एक बार में परिमित और हल्का आहार लेते हैं अतः न आँतोंमें मल रहता है और न दाँतोंपर वह जमता है। एकबार किसीने लिखा था कि जैन साधु अपने पास एक झाड़ रखते हैं उससे वे चलते समय आगे झाड़कर चलते हैं। यह भी कोरी गप्प ही है। मोर पंखकी पीछी शरीर और बैठनेका स्थान वगैरह शोधनेमें काम आती है, वह झाड़ नहीं है। ये सब द्वषी अथवा नासमझ लोगोंकी कल्पनाएँ हैं। जैन साधुका शरीर अस्वच्छ हो सकता है, किन्तु उसकी आत्मा अतिस्वच्छ होती है । ८. गुणस्थान जैन सिद्धान्तमें संसारके सब जीवोंको चौदह स्थानोंमें विभाजित किया है। उन स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। गुण Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २३७ या स्वभाव पाँच प्रकारके होते हैं— औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । जो गुण कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होता है उसे औदयिक कहते हैं। जो गुण कम उपशम- अनुदयसे होता है उसे औपशमिक कहते हैं। जो गुण कर्मोंके क्षय-विनाशसे प्रकट होता है उसे क्षायिक कहते हैं । जो गुण कर्मोंके क्षय और उपशमसे होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं और जो गुण कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावसे ही होता है उसे पारिणामिक कहते हैं । चूँकि जीव इन गुणवाला होता है इसलिए आत्मा को भी गुणनामसे कहा जाता है और उसके स्थान गुणस्थान कहे जाते हैं। वे चौदह हैं मिध्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यगमिध्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग केवली और अयोग केवली । चूँकि ये गुणस्थान आत्माके गुणोंके विकासको लेकर माने गये हैं इसलिए एकदृष्टिसे ये आध्यात्मिक उत्थान और पतनके चार्ट जैसे हैं । इन्हें हम आत्माकी भूमिकाएँ भी कह सकते हैं। पहले कहे गये आठ कर्मों में से सबसे प्रबल मोहनीयकर्म है । यह कर्म ही आत्माकी समस्त शक्तियोंको विकृत करके न तो उसे सच्चे मार्गका - आत्मस्वरूपका भान होने देता है और न उस मार्ग पर चलने देता है। किन्तु ज्यों हो आत्माके ऊपरसे मोहका पर्दा हटने लगता है त्यों ही उसके गुण विकसित होने लगते हैं । अतः इन गुणस्थानोंकी रचनामें मोहके चढ़ाव और उतारका ही ज्यादा हाथ है । इनका स्वरूप संक्षेपमें क्रमशः इस प्रकार है १. मिथ्यादृष्टि — मोहनीय कर्मके एक भेद मिध्यात्वके उदयसे जो जीव अपने हिताहितका विचार नहीं कर सकते, अथवा विचार कर सकनेपर भी ठीक विचार नहीं कर सकते Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैनधर्म वे जीव मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। जैसे ज्वरवालेको मधुर रस भी अच्छा मालूम नहीं होता वैसे ही उन्हें भी धर्म अच्छा नहीं मालूम होता । संसारके अधिकतर जीव इसी श्रेणीके होते हैं । २. सासादनसम्यग्दृष्टि - जो जीव मिथ्यात्व कर्मके उदयको हटाकर सम्यग्दृष्टि हो जाता है वह जब सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्व में जाता है तो दोनोंके बीचका यह दर्जा होता है। जैसे पहाड़की चोटीसे यदि कोई आदमी लुड़के तो जबतक वह जमीनमें नहीं आ जाता तबतक उसे न पहाड़ीकी चोटीपर ही कहा जा सकता है और न जमीनपर ही, वैसे ही इसे भी जानना चाहिये । सम्यक्त्व चोटीके समान है, मिध्यात्व जमीनके समान है और यह गुणस्थान बीचके ढालू मार्गके समान है । अतः जब कोई जीव आगे कहे जानेवाले चौथे गुणस्थानसे गिरता है तभी यह गुणस्थान होता है । इस गुणस्थानमें आनेके बाद जीव नियमसे पहले गुणस्थानमें पहुँच जाता है। ३. सम्यगूमिध्यादृष्टि — जैसे दही और गुड़को मिला देनेपर दोनोंका मिला हुआ स्वाद होता है उसी प्रकार एक ही कालमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामोंको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं | ४. असंयतसम्यग्दृष्टि - जिस जीवकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । और जो जीब सम्यग्दृष्टि तो होता है किन्तु संयम नहीं पालता वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। कहा भी है G 'णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वा वि । जो सद्दहदि जिणतं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२९॥ ' -गो० जीव० 'जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है और न त्रस और स्थावर जीवोंको हिंसाका ही त्यागी है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २३९ कहे गये मार्गका श्रद्धान करता है, तथा जिसे उसपर दृढ़ आस्था है, वह जीव असंयत सम्यग्दृष्टि है।' आगेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते हैं। ___५. संयतासंयत-जो संयत भी हो और असंयत भी हो उसे संयतासंयत कहते हैं। अर्थात् जो त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है और यथाशक्ति अपनी इन्द्रियोंपर भी नियंत्रण रखता है उसे संयतासंयत कहते हैं। पहले जो गृहस्थका चारित्र बतलाया है वह संयतासंयतका ही चारित्र है । व्रती गृहस्थोंको ही संयतासंयत कहते हैं । इस गुणस्थानसे आगेके जितने गुणस्थान हैं वे सब संयमकी ही मुख्यतासे होते हैं। ६. प्रमत्त संयत-जो पूर्ण संयमको पालते हुए भी प्रमादके कारण उसमें कभी-कभी कुछ असावधान हो जाते हैं उन मुनियोंको प्रमत्त संयत कहते हैं। ७. अप्रमत्तसंयत-जोप्रमादके न होनेसे अस्खलित संयमका पालन करते हैं, ध्यानमें मग्न उन मुनियोंको अप्रमत्त संयत कहते हैं। सातवें गुणस्थानसे आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं एक उपशम श्रेणि और दूसरी क्षपकश्रेणि । श्रेणिका मतलब है पंक्ति या कतार । जिस श्रेणिपर यह जीव कोंका उपशम करता हुआ-उन्हें दबाता हुआ चढ़ता है उसे उपशम श्रेणि कहते हैं और जिस श्रेणिपर कोंको नष्ट करता चढ़ता है उसे झपक श्रेणि कहते । प्रत्येक श्रेणीमें चार-चार गुणस्थान होते हैं। आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान उपशम श्रेणिमें भी शामिल है और क्षपक श्रेणिमें भी शामिल है । ग्यारहवाँ गुणस्थान केवल उपशम श्रेणिका ही है और बारहवाँ गुणस्थान केवल क्षपक श्रेणिका है। ये सभी गुणस्थान क्रमशः होते हैं और ध्यानमें मग्न मुनियोंके ही होते हैं। ८. अपूर्व करण-करण शब्दका अर्थ परिणाम है। और Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनधर्म जो पहल नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। ध्यानमें मग्न जिन मुनियोंके प्रत्येक समयमें अपूर्व अपूर्व परिणाम यानी भाव होते हैं उन्हें अपूर्वकरण गुणस्थानवाला कहा जाता है। इस गुणस्थानमें न तो किसी कर्मका उपशम होता है और न य होता है। किन्तु उसके लिए तैयारी होती है, जीवके भाव प्रति समय उन्नत, उन्नत होते चले जाते हैं। ९. अनिवृत्ति बादर साम्पराय-समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोंमें कोई भेद न होनेको अनिवृत्ति कहते हैं। अपूर्वकरण की तरह यद्यपि यहाँ भी प्रति समय अपूर्व-अपूर्व परिणाम ही होते हैं किन्तु अपूर्वकरणमें तो एक समयमें अनेक परिणाम होनेसे समान समयवर्ती जीवोंके परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी होते हैं। परन्तु इस गुणस्थानमें एक समयमें एक ही परिणाम होनेके कारण समान समयमें रहनेवाले सभी जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं। उन परिणामोंको अनिवृत्तिकरण कहते हैं । और बादर सम्परायका अर्थ 'स्थूलकपाय' होता है । इस अनिवृत्तिकरणके होनेपर ध्यानस्थ मुनि या तो कर्मोंको दवा देता है या उन्हें नष्ट कर डालता है। यहाँ तकके सब गुणस्थानोंमें स्थूलकपाय पायी जाती है, यह बतलानेके लिए इस गुणस्थानके नामके साथ 'बादर साम्पराय' पद जोड़ा गया है। कहा भी है 'होति अणियटिट्णो ते पडिसमयं जेसिमक्कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवहसिहाहि गिद्दड्ढकम्मवणा ॥५७।।' 'वे जीव अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहलाते हैं, जिनके प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, और जो अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्निको शिखाओंसे कर्मरूपी वनको जला डालते हैं।' १०. सूक्ष्म साम्पराय-उक्त प्रकारके परिणामोंके द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि कषायको सूक्ष्म कर डालते हैं उन्हें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानबाला कहा जाता है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ चारित्र २४१ ११. उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ — उपशम श्रेणिपर चढ़नेवाले ध्यानस्थ मुनि जब उस सूक्ष्मकषायको भी दबा देते हैं तो उन्हें उपशान्तकषाय कहते हैं । इसमें कषायको बिल्कुल दबा दिया जाता है। अतएव कषायका उदय न होनेसे इसका नाम उपशान्तकषाय वीतराग है । किन्तु इसमें पूर्ण ज्ञान और दर्शनको रोकनेवाले कर्म मौजूद रहते हैं इसलिये इसे छद्मस्थ भी कहते हैं। पहले लिख आये हैं। कि आगे बढ़नेवाले ध्यानी मुनि आठवें गुणस्थानसे दो श्रेणियों में बँट जाते हैं। उनमें से उपशम श्रेणिवाले मोहको धीरे-धीरे सर्वथा दवा देते हैं पर उसे निर्मूल नहीं कर पाते । अतः जैसे किसी बर्तन में भरी हुई भाप अपने वेगसे ढक्कनको नीचे गिरा देती है, वैसे ही इस गुणस्थानमें आनेपर दबा हुआ मोह उपशम श्रणिवाले आत्माओं को अपने वेगसे नीचेकी ओर गिरा देता है। K १२. क्षीणकपाय वीतराग छद्मस्थ - क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले मुनि मोहको धीरे-धीरे नष्ट करते-करते जब सर्वथा निर्मूल कर डालते हैं तो उन्हें क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं । इस प्रकार सातवें गुणस्थानसे आगे बढ़नेवाले ध्यानी साधु चाहे पहली श्रेणिपर चढ़े, चाहे दूसरी श्रेणिपर चढ़ें, वे सब आठवाँ नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करते ही हैं। दोनों श्रेणि चढ़नेवालोंमें इतना हो अन्तर होता है कि प्रथम श्र ेणिवालोंसे दूसरी श्रं णिवालोंमें आत्मविशुद्धि और आत्मबल विशिष्ट प्रकारका होता है। जिसके कारण पहली श्रेणिवाले मुनि तो दसवेंसे ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर दबे हुए मोहके उद्भूत हो जानेसे नीचे गिर जाते हैं। और दूसरी श्रोणिवाले मोहको सर्वथा नष्ट कर के दसवें से बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं । यह सब जीवके भावोंका खेल हैं । उसीके कारण ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचनेवाले साधुका अवश्य पतन होता है और बारहवें गुणस्थान में पहुँच जानेवाला कभी नहीं गिरता, बल्कि ऊपरको ही चढ़ता हैं । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म १३. सयोगकेवली - समस्त मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर बारहवाँ गुणस्थान होता है। मोहनीय कर्मके चले जानेसे शेष कर्मोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है अतः बारहवें के अन्तमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मोंका नाश करके क्षीणकषाय मुनि सयोगकेवली हो जाता है । ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे उसके केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । वह ज्ञान पदार्थोंके जाननेमें इन्द्रिय, प्रकाश और मन वगैरहकी सहायता नहीं लेता इसीलिए उसे केवलज्ञान कहते हैं और उसके होनेके कारण इस गुणस्थानवाले केवली कहलाते हैं । ये केवली आत्माके शत्रु घाति कर्मोंको जीत लेनेके कारण जिन, परमात्मा, जीवन्मुक्त, अरहंत आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। जैन तीर्थकर इसी अवस्थाको प्राप्त करके जैनधर्मका प्रवर्तन करते हैं— जगह-जगह घूमकर प्राणिमात्रको उसके हित का मार्ग बतलाते हैं और इसी कार्य में अपने जीवनके शेष दिन बिताते हैं। जब आयु अन्तर्मुहूर्त - एक मुहूर्त से कम रह जाती है तो सब व्यापार बन्द करके ध्यानस्थ हो जाते हैं। जबतक केवलीके मन, वचन और कायका व्यापार रहता है तबतक वे सयोगकेवली कहलाते हैं । 1 C १४. अयोगकेवली – जब केवली ध्यानस्थ होकर मन, वचन और कायका सब व्यापार बन्द कर देते हैं तब उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । ये अयोगकेवली बाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मोंको भी ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म करके समस्त कर्म और शरीरके बन्धन से छूटकर मोक्ष लाभ करते हैं । इस तरह संसार के सब जीव अपने-अपने आध्यात्मिक विकासके तारतम्यके कारण गुणस्थानों में बँटे हुए हैं। इनमें से शुरूके चार गुणस्थान तो नारकी, तिर्यन, मनुष्य और देव सभीके होते हैं । पाँचवाँ गुणस्थान केवल समझदार पशु पक्षियों और मनुष्योंके होता है। पाँचवेंसे आगेके सब गुणस्थान साधुजनोंके ही होते हैं। उनमें भी सातवें से बारहवें तकके गुणस्थान २४२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ चारित्र आत्मध्यानमें लीन साधुके ही होते हैं। और उनमेंसे प्रत्येक गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त-एक मुहूर्तसे कम होता है। ९.मोक्ष या सिद्धि मुक्ति या मोक्ष शब्दका अर्थ छुटकारा होता है। अतः आत्माके समस्त कर्मवन्धनोंसे छूट जानेको मोभ कहते हैं। मोक्षका दूसरा नाम सिद्धि भी है। सिद्धि शब्दका अर्थ 'प्राप्ति' होता है। जैसे धातुको गलाने तपाने वगैरहसे उसमेंसे मल आदि दूर होकर शुद्ध सोना प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्माके गुणोंको कलुषित करनेवाले दोषोंको दूर करके शुद्ध आत्माकी प्राप्तिको सिद्धि या मोक्ष कहते हैं। कर्ममलसे छुटकारा पाये बिना आत्मा शुद्ध नहीं होता अतः मुक्ति और सिद्धि ये दोनों एक ही अवस्था के दो नाम हैं जो दो बातोंको सूचित करते हैं । मुक्ति नाम कर्मबन्धनसे छुटकारेको बतलाता है और सिद्धि नाम उस छुटकारेके होनेसे शुद्ध आत्माकी प्राप्तिको बतलाता है। अतः जैनधर्ममें न तो आत्माके अभावको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा बौद्ध लोग मानते हैं और न आत्माके गुणोंके विनाशको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा वैशेषिक दर्शन मानता है । जैनधर्म में आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है जो ज्ञाता और दृष्टा है, किन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनसे बँधा हुआ होनेके कारण अपने किये हुए कर्मोंका फल भोगता रहता है । जब वह उस कर्मबन्धनका क्षय कर देता है तो मुक्त कहलाने लगता है। मुक्त अवस्था में उसके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि स्वाभाविक गुण विकसित हो जाते हैं। जैसे स्वर्णमेंसे मलके निकल जानेपर उसके स्वाभाविक गुण पीतता वगैरह ज्यादा विकसित हो जाते हैं इसीसे शुद्ध सोना ज्यादा चमकदार और पीला होता है, वैसे ही आत्मामेंसे कर्म मलके निकल जानेसे आत्माके स्वाभाविक गुण निखर उठते हैं । मुक्त होनेके बाद यह जीव ऊपरको जाता है। चूंकि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनधर्म · जीवका स्वभाव ऊपरको जानेका हैं जैसा कि आगकी लपटें स्वभाव से ऊपरको ही जाती हैं। अतः अपने उस स्वभाव के कारण ही मुक्त जीव ऊपरको जाता है। लोकके ऊपर अग्रभागमें मोक्ष स्थान है जिसे जैन सिद्धान्तमें सिद्धशिला भी कहते हैं । सब मुक्त जीव मुक्त होनेके बाद ऊर्ध्वगमन करके इस मोक्षस्थान में विराजमान हो जाते हैं । जैन सिद्धान्तमें मोक्षस्थानकी मान्यता भी अन्य सब दर्शनोंसे निराली है । इसका कारण यह है कि वैदिक दर्शनों में आत्माको व्यापक माना गया है अतः उन्हें मोक्षस्थानके सम्बन्ध में विचार करनेकी आवश्यकता नहीं थी । बौद्धदर्शनमें आत्मा कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है, अतः उनके लिए मोक्षस्थानकी चिन्ता ही व्यर्थ थी । किन्तु जैनदर्शन आत्माको एक स्वतंत्र तत्व माननेके साथ व्यापक न मानकर प्राप्त शरोरके बराबर मानता है । इसलिए उसे मोक्षस्थानके सम्बन्धमें विचार करना पड़ा । वह कहता है कि मुक्त जीव बन्धन से छूटकर ऊर्ध्वगमन करता है और लोकके अग्रभागमें पहुँचकर स्थिर हो जाता है, फिर वहाँसे लौटकर नहीं आता । 1 जैन शास्त्रों में एक मण्डली मतका उल्लेख पाया जाता है, जो मुक्त जीवोंका उर्ध्वगमन मानता है । किन्तु उसने मोक्षस्थानके सम्बन्धमें कोई विचार प्रकट नहीं किया। वह कहता है कि मुक्त जीव अनन्तकाल तक ऊपरको चला जाता है, उसका कभी भी अवस्थान नहीं होता । ऊर्ध्वगमन माननेपर भी क्या मण्डलीको मोक्षस्थानकी चिन्ता न हुई होगी ? किन्तु जब उसके तार्किक मस्तिष्क में यह तर्क उत्पन्न हुआ होगा कि मुक्त जीव ऊपरको जाकरके भी एक निश्चित स्थानपर ही क्यों रुक जाता है, आगे क्यों नहीं जाता ? तो सम्भवतः उसे इसका कोई समुचित उत्तर न सूझा होगा और फलतः उसने सदा ऊर्ध्वगमन मान लिया होगा, किन्तु जैनधर्म में गति और स्थिति में सहायक धर्म और अधर्म नामके द्रव्योंको स्वीकार करके इस शंकाका ही मूलोच्छेद कर दिया गया । यह दोनों Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ चारित्र द्रव्य समस्त लोकमें व्याप्त हैं और लोकके ऊपर उसके अप्रभागमें ही मोक्षस्थान हैं। गतिमें सहायक धर्मद्रव्य वहीं तक व्याप्त है, आगे नहीं । अतः मुक्त जीव वहींपर रुक जाता है, आगे नहीं जाता। मुक्त अवस्थामें बिना शरीरके केवल शुद्ध आत्मा मात्र रहता है। उसका आकार उसी शरीरके समान होता है जिससे आत्माने मुक्तिलाभ किया है । जैसे धूपमें खड़े होनेपर शरीरको छाया पड़ जाती है वैसे ही शरीराकार आत्मा मुक्तावस्थामें होता है जो अमूर्त होनेके कारण दिखायी नहीं देता। मुक्त हो जानेके बाद यह आत्मा जीना, मरना, बुढ़ापा, रोग, शोक, दुःख, भय वगैरहसे रहित हो जाता है ; क्योंकि ये चीजें शरीरके साथ सम्बन्ध रखती हैं और शरीर वहाँ होता नहीं है । तथा मुक्तपना आत्माकी शुद्ध अवस्थाका ही नामान्तर है, अतः जबतक आत्मा शुद्ध है तबतक वहाँसे च्युत नहीं हो सकता। और पुनः अशुद्ध होनेका कोई कारण वहाँ मौजूद नहीं रहता अतः वहाँसे कभी नहीं लौटता, सदा निराकुलतारूप आत्मसुखमें मग्न रहता है। १०. क्या जैनधर्म नास्तिक है ? जो धर्म ईश्वरको सृष्टिका कर्ता और वेदोंको ही प्रमाण मानते हैं, वे जैनधर्मकी गणना नास्तिक धर्मों में करते हैं; क्योंकि जैनधर्म न तो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता मानता है और न वेदोंके प्रामाण्यको ही स्वीकार करता है। किन्तु 'जो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नहीं मानता और न वेदोंको प्रमाण मानता है वह नास्तिक है' नास्तिक शब्दका यह अर्थ किसी भी विचारशील शास्त्रज्ञने नहीं किया। बल्कि जो परलोक नहीं मानता, पुण्य पाप नहीं मानता, नरक स्वर्ग नहीं मानता, परमात्माको नहीं मानता, वह नास्तिक है, नास्तिक शब्दका यही अर्थ पाया जाता है। इस अर्थकी दृष्टिसे जैनधर्म घोर आस्तिक ही ठहरता है, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनधर्म क्योंकि वह परलोक मानता है, आत्माको स्वतंत्र द्रव्य मानता है पुण्य पाप और नरक स्वर्ग मानता है, तथा प्रत्येक आत्मामें परमात्मा होनेकी शक्ति मानता है । इस सब बातोंका विवेचन पहले किया गया है । इन सब मान्यताओंके होते हुए जनधर्मको नास्तिक नहीं कहा जा सकता। जो वैदिक धर्मवाले जैनधर्मको नास्तिक कहते हैं वे वैदिक धर्मको न माननेके कारण ही ऐसा कहते हैं । किन्तु ऐसी स्थितिमें तो सभी धर्म परस्पर में एक दूसरे की दृष्टि नास्तिक ठहरेंगे। अतः शास्त्रीय दृष्टिसे जैनधर्म परम आस्तिक है । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. जैन साहित्य जैन साहित्य बड़ा विशाल है, भारतीय साहित्य में उसका एक विशिष्ट स्थान है । लोकोपकारी, अनेक जैनाचार्योंने अपने जीवनका बहुभाग उसकी रचनामें व्यतीत किया है। जैनधर्म में बड़े-बड़े प्रकाण्ड जैनाचार्य हो गये हैं जो प्रबल तार्किक वैयाकरण, कवि और दार्शनिक थे । उन्होंने जैनधर्मके साथ-साथ भारतीय साहित्यके इतर क्षेत्रों में भी अपनी लेखनीके जौहर दिखलाये हैं । दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, शिल्प, मन्त्र-तन्त्र, वास्तु, वैद्यक आदि अनेक विषयोंपर प्रचुर जैनसाहित्य आज उपलब्ध है और बहुत-सा धार्मिक द्वेष, लापरवाही तथा अज्ञानताके कारण नष्ट हो चुका । भारतकी अनेक भाषाओं में जैनसाहित्य लिखा हुआ है, जिनमें प्राकृत संस्कृत और द्रवेडियन भाषाओंका नाम उल्लेखनीय है। जैनधर्मने प्रारम्भसे ही अपने प्रचारके लिए लोक भाषाओंको अपनाया अतः अपने-अपने समयकी लोकभाषामें भी जैन साहित्यकी रचनाएँ पायी जाती हैं। इसीसे जर्मन विद्वान् डाक्टर विंटरनीजने अपने भारतीय साहित्य के इतिहासमें लिखा है - 'भारतीय भाषाओंके इतिहासकी दृष्टिसे भी जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि जैन सदा इस बातकी विशेष परवाह रखते थे कि उनका साहित्य अधिक से अधिक जनता के परिचयमें आये । इसीसे आगमिक साहित्य तथा प्राचीनतम टीकाएँ प्राकृतमें लिखी गयीं । श्वेताम्बरोंने ८ वीं शतीसे और दिगम्बरांने उससे कुछ पहले संस्कृतमें रचनाएँ करना आरम्भ किया । बादको १०वीं से १२वीं शती तक अपभ्रंश भाषामें, जो उस समयकी जन भाषा थी, रचनाएँ की गयीं । 1. 'A History of Indian Literature' Vol. II. P. 427-428. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म २४८ और आजकल के जैन बहुत-सी आधुनिक भारतीय भाषाओंका उपयोग करते हैं तथा उन्होंने हिन्दी और गुजराती साहित्य को तथा दक्षिण में तमिल और कन्नड़ साहित्यको विशेष रूपसे समृद्ध किया है ।' 1 आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सब भगवान् महावीरकी उपदेश परम्परासे सम्बद्ध है । भगवान महावीरके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति थे । उन्होंने भगवान महावीरके उपदेशोंको अवधारण करके बारह अंग और चौदह पूर्वके रूप में निबद्ध किया । जो इन अंगों और पूर्वोका पारगामी होता था उसे श्रुतकेवली कहा जाता था । जैन परम्परामें ज्ञानियों में दो ही पद सबसे महान गिने जाते हैं- प्रत्यक्ष ज्ञानियों में केवलज्ञानीका और परोक्ष ज्ञानियों में श्रुतकेवलीका । जैसे केवलज्ञानी समस्त चराचर जगतको प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं वैसे ही श्रुतकेवली शास्त्रमें वर्णित प्रत्येक विषयको स्पष्ट जानते हैं । भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् तीन केवलज्ञानी हुए और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमें से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इनके समयमें मगध में बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब ये अपने संघके साथ दक्षिणकी ओर चले गये और फिर लौटकर नहीं आये । अतः दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्र में भद्रबाहु स्वामीकी अनुपस्थितिमें जो अंग साहित्य संकलित किया गया वह एकपक्षीय कहलाया, दूसरे पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि दुर्भिक्षके समय जो साधु मगधमें ही रह रहे थे, सामयिक कठिनाइयोंके कारण वे अपने आचारमें शिथिल हो गये थे । यहींसे जैनसंघ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें बँट गया और उसका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया । दिगम्बर साहित्य श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ । चौदह पूर्वोमेंसे ४ पूर्व उनके साथ ही लुप्त हो गये । उनके Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २४९ पश्चात् ग्यारह अंग और दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर पाँच आचार्य ग्यारह अंगके ज्ञाता हुए। पूर्वोका ज्ञान एक तरहसे नष्ट ही हो गया और छुट-पुट ज्ञान बाकी रह गया । फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचारांगके ही ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी नष्ट भ्रष्ट हो गया । इस तरह कालक्रमसे विच्छिन्न होतेहोते वीर निर्वाणसे ६८३ बर्ष बीतने पर जब अंगों और पूर्वीके वचे खुचे ज्ञानके भी लुप्त होनेका प्रसंग उपस्थित हुआ तब गिरिनार पर्वतपर स्थित आचार्य धरसेनने भूतबलि और पुष्पदन्त नामके दो सर्वोत्तम साधुओंको अपना शिष्य बनाकर उन्हें श्रुताभ्यास कराया । इन दोनोंने श्रुतका अभ्यास करके षट्खण्डागम नामके सूत्र ग्रन्थकी रचना प्राकृत भाषामें की । इसी समयके लगभग गुणधर नामके आचार्य हुए । उन्होंने २३३ गाथाओंमें कसायपाहुड या कषायप्राभृत ग्रन्थ की रचना की । यह कषायप्राभृत आचार्य परम्परासे आर्यमंञ्ज और नागहस्ति नामके आचार्योंको प्राप्त हुआ। उनसे सीखकर यतिवृषभ नामक आचार्यने उनपर वृत्तिसूत्र रचे, जो प्राकृतमें हैं और ६००० श्लोक प्रमाण हैं । इन दोनों महान ग्रन्थोंपर अनेक आचार्योंने अनेक टीकाएँ रचीं जो आज उपलब्ध नहीं हैं । इनके अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे । इन्होंने पट्खण्डागमपर अपनी सप्रसिद्ध टीका धवला शक सं० ७३८ में पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है | दूसरे महान ग्रन्थ कसायपाहुडपर भी इन्होंने टीका लिखी । किन्तु वे उसे बीस हजार लोक प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये । तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्यने ४० हजार प्रमाण और लिखकर शक सं० ७५९ में उसे पूरा किया। इस टीकाका नाम जयधवला है और वह ६० हजार श्लोक प्रमाण है । इन दोनों टीकाओंकी रचना संस्कृत और प्राकृतके सम्मिश्रणसे को गयी है। बहुभाग प्राकृतमें है । बीच बीच में संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकारने उसकी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनधर्म प्रशस्तिमें लिखा है "प्रायःप्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया । मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रन्थविस्तरः ॥" पट्खण्डागमका ही अन्तिम खण्ड महाबंध है जिसकी रचना भूनबलि आचार्यने की थी। यह भी प्राकृतमें है और इसका प्रमाण ४१ हजार है। इन सभी ग्रन्थोंमें जैन कर्मसिद्धान्तका बहुत मूक्ष्म और गहन वर्णन है। ___ चिरकालसे ये तीनों महान ग्रन्थ मूडविद्री (दक्षिण कनारा) के जैन भण्डारमें ताड़पत्रपर सुरक्षित थे। वहाँके भट्टारक महो. दय तथा पंचोंकी उदात्त भावनाके फलस्वरूप अब इन तीनोंका प्रकाशन हिन्दी टीकाके साथ हो रहा है। ईसाकी दसवीं शताब्दीमें दक्षिणमें नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती नामके एक जैनाचार्य हुए। वे उक्त तीनों आगम ग्रन्थोंके महान् विद्वान थे। उन्होंने उनसे संकलन करके गोमट्टसार तथा लब्धिसार क्षपणासार नामक दो संग्रह ग्रन्थ रचे, जो प्राकृत गाथाबद्ध महान ग्रन्थ हैं। उनमें भी जीव, कर्म और कोके क्षपण यानी विनाशका सुन्दर 'किन्तु गहन वर्णन है। दोनों प्रन्थोंपर संस्कृत टीकाएँ भी उपलब्ध हैं और जयपुरके स्व० पं० टोडरमलजीकी जयपुरी भाषामें रची हुई भाषा-टीका भी उपलब्ध है । इन टीकाओंके साथ यह महान् ग्रन्थ कई खण्डोंमें छपकर प्रकाशित हो चुका है। ईसाकी प्रथम शताब्दीमें कुन्दकुन्द नामके एक महान् आचार्य हो गये हैं। इनके तीन ग्रन्थ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय अति प्रसिद्ध हैं जो कुन्दकुन्दत्रयोंके नामसे भी ख्यात हैं। तीनों ग्रन्थ प्राकृतमें हैं। समयसारमें विविध दृष्टियोंसे आत्मतत्त्वका सुन्दर विवेचन है, जैन अध्यात्मका यह अपूर्व ग्रन्थ है । नवीं शतीके अध्यात्म प्रेमी आचार्य अमृतचन्द्र सूरीने इस ग्रन्थपर संस्कृत पद्योंमें कलशकी रचना की है जो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २५१ बड़ी हृदयहारिणी है । सतरहवीं शताब्दीके कविवर बनारसीदासने इन कलशोंका हिन्दीमें अत्यन्त रोचक पद्यानुवाद किया है। प्रवचनसार और पश्चास्तिकायमें जैनाभिमत तत्त्वोंका युक्तिपूर्ण विवेचन है। कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने बहुतसे प्राभृतोंकी रचना की थी. किन्तु उनमेंसे आज केवल आठ प्राभृत उपलब्ध हैं । नमिल भापाके तिम्कुरुल काव्यक रचयिता भी इन्हींको कहा जाता है। इनके शिष्य उमास्वामी या उमास्वाति नामके जैनाचार्य थे, जन्होंने सर्वप्रथम जैनवाङ्मयको संस्कृतसूत्रोंमें निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामके सूत्रग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थके दस अध्यायोंमें जीव आदि सात तत्त्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने अपने धर्मो में गीता, कुरान और बाइबिलको जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनधर्ममें इस ग्रन्थको प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय इसे मानते हैं। दोनों ही परम्पराओंके आचार्योने उसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची हैं, जिनमें अकलंकदेवका तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक उल्लेखनीय हैं। दोनों ही वार्तिकग्रन्थ संस्कृतमें बड़ी ही प्रौढ़ शैलीमें रचे गये हैं और जैनदर्शनके अपूर्व प्रन्थ हैं। दर्शन और न्यायशास्त्र में स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसा नामका एक प्रकरण ग्रन्थ रचा है, जिसमें म्याद्वादका सुन्दर विवेचन करते हुए इतर दर्शनोंकी विचारपूर्ण आलोचना की गया है । इस आप्नमीमांसापर स्वामी अकलंकदेवने 'अष्टशनी' नामक प्रकरण रचा है और अष्टशनी पर म्वामी विद्यानन्दने अष्टसहस्री नामकी टीका रची है। यह अष्टमहस्री इतनी गहन है कि इसको समझनेमें कष्टसहस्रीका अनुभव होता है। इन्हीं विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षा भी भाषा, विषय और विवेचनकी रष्टिसे द्रष्टव्य हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनधर्म अकलंकदेवको जैनन्यायका सर्जक कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं हैं । इन्होंने टीका ग्रन्थों के सिवा सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह आदि अनेक प्रकरणग्रन्थ रचे हैं जो बहुत ही प्रौढ़ और गहन हैं। इन प्रकरणोंपर आचार्य अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र नामके प्रकाण्ड जैन नैयायिकोंने विस्तृत व्याख्या ग्रन्थ रचे हैं जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। माणिक्यनन्दि आचार्यका परीक्षामुख नामक सूत्रग्रन्थ जैनन्यायके अभ्यासियोंके लिए बड़े ही कामका है। इसपर आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड नामका महान् व्याख्या ग्रन्थ रचा है। उसे अति संक्षिप्त करके अनन्तवीर्य नामके आचार्यने प्रमेयरत्नमाला नामकी टीका बनायी है । पात्रकेसरीका त्रिलक्षणकदर्थन, श्रीदत्तका जल्पनिर्णय आदि कुछ ऐसे भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं जो आज अनुपलब्ध हैं, केवल अन्य ग्रन्थोंमें उनका उल्लेख मिलता है। पुराण साहित्यमें हरिवंशपुराण, महापुराण, पद्मचरित आदि ग्रन्थोंका नाम उल्लेखनीय है। जैन पुराणोंका मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ शलाका पुरुषोंके चरित्र हैं । इनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव हैं। जिनमें पुराण पुरुषोंका पुण्यचरित वर्णन किया गया हो उसे पुराण कहते हैं । हरिवंशपुराणमें कौरव और पाण्डवोंका वर्णन है और पद्मचरितमें श्रीरामचन्द्रका वर्णन है। इस तरहसे ये दोनों ग्रन्थ क्रमशः जैन महाभारत और जैन रामायण कहे जा सकते हैं । इनके सिवा चरितग्रन्थोंका तो जैन साहित्यमें भण्डार भरा है । सकलकीर्ति आदि आचार्योंने अनेक चरित प्रन्थ रचे हैं । आचार्य जटासिंह नन्दिका वरांगचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है । काव्यसाहित्य भी कम नहीं हैं। वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय, धनंजयका द्विसन्धान और वाग्भट्टका नेमिनिर्वाण काव्य उच्चकोटिके संस्कृत महाकाव्य हैं। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २५३ अपभ्रंश भाषामें तो इन पुराण और चरितग्रन्थोंका संस्कृतकी अपेक्षा भी बाहुल्य है। अपभ्रंश भाषामें जैनकवियोंने खूब रचनाएँ की हैं । इस भाषाका साहित्य जैन भण्डारोंमें भरा पड़ा है। अपभ्रंश बहुत समयतक यहाँकी लोक भाषा रही है और इसका साहित्य भी बहुत ही लोकप्रिय रहा है। पिछले कुछ दशकोंसे इस भाषाकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित हुआ है, अब तो वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंकी जननी होनेके कारण भाषाशास्त्रियों और विभिन्न भाषाओंका इतिहास लिखनेवालोंके लिए इसके साहित्यका अध्ययन आवश्यक हो गया है। पुष्पदन्त इस भाषाके महान कवि थे। इनका 'त्रिषष्टि महापुरुष गुणालंकार' एक महान ग्रन्थ है। पुष्पदन्तने महाकवि स्वयंभुका स्मरण किया है। स्वयंभु, पुष्पदन्त, कनकामर, रइधु आदि अनेक कवियोंने अपभ्रंश भाषाके साहित्यको समृद्ध बनाने में कुछ उठा नहीं रखा। कथा साहित्य भी विशाल है । आचार्य हरिषेणका कथाकोश बहुत प्राचीन (ई० सं० ९३२) है। आराधना कथाकोश, पुण्याश्रव कथाकोश आदि अन्य भी बहुतसे कथाकोश हैं जिनमें कथाओंके द्वारा धर्माचरणका शुभ फल और अधर्माचरणका अशुभ फल दिखलाया गया है । चम्पू काव्य भी जैन-साहित्यमें बहुत हैं। सोमदेवका यशस्तिलक चम्पू , हरिचन्द्रका जीवन्धर चम्पू और अहहासका पुरुदेवचम्पू उत्कृष्ट चम्पू काव्य हैं । गद्यग्रन्थों में वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि उल्लेखनीय है। नाटकोंमें हस्तिमल्लके विक्रान्तकौरव, मैथिलकल्याण, अंजना पवनंजय आदि दर्शनीय हैं । स्तोत्र साहित्य भी कम नहीं है, महाकवि धनंजयका विषापहार, कुमुदचन्द्रका कल्याणमन्दिर आदि स्तोत्र साहित्यकी दृष्टिसे भी उत्कृष्ट हैं। स्वामी समन्तभद्रके स्वयंभू स्तोत्रमें तो जैनदर्शनके उच्चकोटिके सिद्धान्तोंको कूटकूट कर भर दिया गया है । वह एक दार्शनिक स्तवन है। नीति अन्थोंकी भी कमी नहीं है । वादीमसिंहका क्षत्रचूड़ामणि काव्य Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनधमं एक नीतिपूर्ण काव्य ग्रन्थ है। आचार्य अमितगतिका सुभाषितरत्नसंदोह, पद्मनन्दि आचार्यकी पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका और महाराज अमोघवर्षकी प्रश्नोत्तररत्नमाला भी सुन्दर नीतिग्रन्थ हैं । इसके सिवा ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोष, छन्द, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयोंपर भी जैनाचार्योकी अनेक रचनाएँ आज उपलब्ध हैं । ज्योतिष और आयुर्वेद विषयक साहित्य अभी प्रकाशमें कम आया है । व्याकरणमें पूज्यपाद देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण और शाकटायनका शाकटायन व्याकरण उल्लेखनीय है । कोषमें धनंजय नाममाला, और विश्वलोचन कोश, अलंकार में अलंकार चिन्तामणि, गणितमें महावीर गणितसार संग्रह और राजनीतिमें सोमदेवका नीतिवाक्यामृत आदि स्मरणीय हैं । यह तो हुआ संस्कृत और प्राकृत साहित्यका विहंगाव - लोकन | द्रवेडियन भाषाओं में भी जैनाचार्योंने खूब रचनाएं की हैं। उन्होंके कारण एक तरहसे उन भाषाओंको महत्त्व मिला है । कनड़ी भाषामें रचना करनेवाले अति प्राचीन कवि जैन थे । कन्नड़ साहित्यको उन्नत, प्रौढ़ और परिपूर्ण बनानेका श्रेय जैनाचायों और जैन कवियोंको ही प्राप्त है। तेरहवीं शताब्दी तक कन्नड़ भाषाके जितने प्रौढ़ ग्रन्थकार हुए वे सब जैन ही थे । 'पंप भारत' सदृश महाप्रबन्ध और 'शब्दमणिदर्पण' सदृश शास्त्रीय ग्रन्थोंको देखकर जैन कवियोंके प्रति किसे आदर बुद्धि उत्पन्न नहीं होती । कर्नाटक गद्य ग्रन्थोंमें प्राचीन 'चामुण्डरायपुराण' के लेखक वीरमार्तण्ड चामुण्डराय जैन ही थे । आदि पंप, कविचक्रवर्ती रत्न, अभिनव पंप, कत्तिदेवी आदि कवि जैन ही थे । 'कर्नाटक कवि चरिते' के मूल लेखक आर० नरसिंहाचार्य - ने जैनकवियोंके सम्बन्धमें अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २५५ है-"जैनी कन्नड़ भाषा के आदि कवि हैं। आज तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियाँ जैन कवियोंकी ही हैं। विशेषतया प्राचीन जैन कवियों के कारण ही कन्नड़ भाषाका सौन्दर्य एवं कान्ति है। पंप, रन्न और पोन्नको कवियोंमें रत्न मानना उचित है । अन्य कवियोंने भी १४वीं शताब्दोके अन्त तक सर्वइलाध्य चम्पूकाव्योंकी रचना की है। कन्नड़ भापाके सहायक छन्द, अलंकार, व्याकरण, कोष आदि ग्रन्थ अधिकतया जैनियोंके द्वारा ही रचित हैं।" ___ यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि दक्षिण और कर्नाटकका जितना जैन साहित्य है वह सब ही दिगम्बर जैन सम्प्रदायके विद्वानोंकी रचना है। तथा दिगम्बर सम्प्रदायके जितने प्रधान-प्रधान आचार्य हैं वे प्रायः सब ही कर्नाटक देशके निवासी थे और वे न केवल संस्कृत और प्राकृतके ही ग्रन्थकर्ता थे, किन्तु कनड़ीके भी प्रसिद्ध ग्रन्थकार थे। ____ तमिल भाषाका साहित्य भी प्रारम्भ कालसे ही जैनधर्म और जनसंस्कृतिसे प्रभावित है । 'कुरल' और 'नालदियार' नामके दो महान् ग्रन्थ उन जैनाचार्या की कृति हैं जो तमिलदेशमें बस गये थे । इन ग्रन्थोंके अवतरण उत्तरवर्ती साहित्यमें बहुतायतसे पाये जाते हैं। तमिलका नीनिविपयक साहित्य काव्यसाहित्यकी अपेक्षा प्राचीन है और उसपर जैनाचार्यों का विशेष प्रभाव है । 'पलमोलि' के रचयिता भी जैन थे। इसमें बहुमूल्य पुरातन सूक्तियाँ हैं। कुरल और नालदियारक बाद इसका तीसरा नम्बर है। 'तिनै माले नू रेम्बतु' के लेखक भी जैन थे। यह ग्रन्थ शृंगार तथा युद्धक सिद्धान्तोंका वर्णन करता हैं । पश्चान्वों टीकाकारोंके द्वारा इस ग्रन्थके अवतरण खूब लिये गये हैं। इसी समुदायका एक ग्रन्थ 'नान मणिक्कडिगे' है जो वेणवा छन्दमें हैं। ___ तमिल भाषाके पाँच महाकाव्यों में से चिंतामणि, सिलप्पडिकारम् और वलैतापति जैनलेखकोंकी कृति हैं । सिलप्पडिका Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनधर्म रम् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तमिल ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ साहित्यिक रीतियोंके विषयमें प्रमाणभून गिना जाता है। इसके तीन महाखंड हैं और कुल अध्याय तीस हैं। पाँच लघु काव्य हैं-यशोधरकाव्य, चूडामणि, उदयन कवै, नागकुमार काव्य और नीलकेशी। इन पाँचों काव्योंके कर्ता जैन आचार्य थे। जैन लेखकोंने तमिल भाषाका व्याकरण भी रचा है। 'नन्नोल' तमिल भापाका बहु प्रचलित व्याकरण है। यह स्कूलों और कालिजोंमें पढ़ाया जाता है। निघण्टु ग्रन्थोंमें दिवाकर निघण्टु, पिंगल निघण्टु और गुणमणि निघण्टुका नाम उल्लेखनीय है । जैनोंने गणित और ज्योतिष सम्बन्धी रचनाएँ भी की हैं । इस तरह तमिल भाषा जैन-साहित्यसे भरपूर है। गुजराती भाषामें भी दि० जैनकवियोंने अनेक रचनाएँ की हैं, जिनका विवरण 'जैनगुर्जर कविओ' से प्राप्त होता है । दिगम्बर साहित्य में हिन्दी ग्रन्थोंकी संख्या भी बहुत है। इधर ३०० वर्षों में अधिकांश ग्रन्थ हिन्दीमें ही रचे गये हैं। जैन श्रावकके लिए प्रतिदिन स्वाध्याय करना आवश्यक है। अतः जन-साधारणको भाषामें जिनवाणीको निबद्ध करनेकी चेष्टा प्रारम्भसे ही होती आयी है। इसीसे हिन्दी जैन साहित्यमें गद्यग्रन्थ बहुतायतसे पाये जाते हैं। लगभग सोलहवीं शताब्दीसे लेकर हिन्दी गद्य ग्रन्थ जैन साहित्यमें उपलब्ध हैं और इसलिए हिन्दी भाषाके क्रमिक विकासका अध्ययन करनेवालोंके लिए वे बड़े कामके हैं। सैद्धान्तिक ग्रन्थों में ऊपर गिनाये गये तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोमट्टसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, समयसार, पटखण्डागम, कपायप्राभृत आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएँ मौजूद हैं। न्याय ग्रन्थोंमें भी परीक्षामुख; आप्तमीमांसा प्रमेयरत्नमाला, न्यायदीपिका और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे महान ग्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएँ उपलब्ध हैं। इन टीका ग्रन्थोंका अध्ययन केवल हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तोंमें ही प्रचलित नहीं है किन्तु गुजरात, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २५७ महाराष्ट्र और सुदूर दक्षिण प्रान्तके जैनी भी उनसे लाभ उठाते हैं । इस तरह जैनधर्मका साहित्य हिन्दी भाषाके प्रचार में भी सहायक रहा है । प्रायः सभी पुराण ग्रन्थों और अनेक कथाग्रन्थोंका अनुवाद हिन्दी भाषामें हो चुका है । अनुवादका यह कार्य सर्वप्रथम जयपुर के विद्वानोंके द्वारा दुढारी भाषामें प्रारम्भ किया गया था । आज भी उनके अनुवाद उसी रूपमें पाये जाते हैं। १७ यह तो हुई अनुवादित साहित्यकी चर्चा | स्वतंत्ररूपसे भी हिन्दी गद्य और हिन्दी पद्य दोनों में जैनसिद्धान्तको निबद्ध किया गया है । गद्य साहित्य में पं० टोडरमलजीका मोक्षमार्ग - प्रकाशक ग्रन्थ और पद्य साहित्य में पं० दौलतरामजीका छहढाला जैनसिद्धान्तके अमूल्य रत्न है। पं० टोडरमलजी, पं० दौलतराम, पं० सदासुख, पं० बुधजन, पं० द्यानतराय, भैया भगवतीदास, पं० जयचन्द आदि अनेक विद्वानोंने अपने समयकी हिन्दी भाषामें गद्य अथवा पद्य अथवा दोनोंमें अपनी रचनाएँ की हैं। वीनती, पूजापाठ, धार्मिक भजन, आदि भी पर्याप्त हैं । पद्य साहित्य में भी अनेक पुराण और चरित रचे गये हैं । 1 हिन्दी जैन साहित्यकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें शान्तरसकी सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत और प्राकृतके जैन ग्रन्थकारांके समान हिन्दी जैन ग्रन्थकारोंका भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सांसारिक विषयोंके फन्देसे निकलकर अपनेको पहचाने और अपने उत्थानका प्रयत्न करे । इसी लक्ष्यको सामने रखकर सबने अपनी-अपनी रचनाएँ की हैं। हिन्दी जैन साहित्य में ही नहीं, अपि तु हिन्दी साहित्य में कविवर बनारसीदासजीकी आत्मकथा तो एक अपूर्व ही वस्तु है । उनका नाटक समयसार भी अध्यात्मका एक अपूर्व ग्रन्थ है । श्वेताम्बर - साहित्य पाटलीपुत्रमें जो अंग संकलित किये गये थे, कालक्रमसे वे Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनधर्म भी अव्यवस्थित हो गये तब महाबीर निर्वाणकी छठी शताब्दीमें आर्य स्कन्दिलकी अध्यक्षतामें मथुरामें फिर एक सभा हुई और उसमें फिरसे शेप बचे अंग साहित्यको सुव्यवस्थित किया गया। इसे माथुरी वाचना कहते हैं। इसके बाद महावीर निर्वाणकी दसवीं शनीमें बल्लभी नगरी (काठियावाड़) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणके सभापतित्वमें फिर एक सभा हुई। इसमें फिरसे ग्यारह अंगोंका संकलन हुआ। बारहवाँ अंग तो पहले ही लुप्त हो चुका था। अबतक स्मृतिके आधारपर ही अंगसाहित्यका पठन-पाठन चलता था, किन्तु अब वीर नि० सं० ९८० ( ई० सं० ४५३ ) के लगभग उन्हें पुस्तकारुढ़ किया गया। विद्यमान जैन आगमोंकी व्यवस्था अपने सम्पादक देवदिगणिकी मुख्यरूपसे आभारी है। उन्होंने इन्हें अध्यायोंमें विभक्त किया। जो भाग त्रुटित हो गये थे उन्हें अपनी बुद्धिके अनुसार सम्बद्ध किया । डा० जेकोवीके कथनानुसार देवर्द्धिगणिके पश्चात् भी जैन आगमोंमें बहुत फेरफार हुआ है। १ समयसुन्दरगणिने अपन सामाचारी शतकमें लिखा है "श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशोत्यधिक नवशत-( ९८०) वर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षवशात् वहुतरसाधु व्यापत्तौ बहुश्रुतविच्छित्तौ च जातायाँ.....'भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाग्रहात् मृतावशिष्टतदाकालीनसर्वसाधून बलभ्यामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढाः कृताः । ततो मूलतो गणधरभाषितानामपि तत्संकलनानन्तरं सर्वेषामपि आगमानां कर्ता श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमण एव जातः ।" ___'अर्थात्-श्रीदेवद्धिगणि क्षमाश्रमणने वीर नि० सं० ९८० ने बारह वर्षके दुभिक्षके कारण बहुतसे साधुओंके मर जानेसे बहुतसे श्रुतके नष्ट हो जानेपर, भव्यजीवोंके उपकारके लिए शास्त्रको भक्तिसे प्रेरित होकर, संघके आग्रहसे बाकी बचे सब साधुओंको बलभी नगरीमें बुलाकर, उनके मुखसे बाकी बचे, कमती, बढ़ती; त्रुटित आगमके वाक्योंका अपनी बुद्धिके Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २५९ श्वेताम्बर सम्प्रदायका सम्पूर्ण जैनागम छह भागों में विभक्त है, १ ग्यारह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र । २ बारह उपांगऔपपातिक, राजप्रश्न, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति. निरयावली, कल्पावतंस, पुष्पिक, पुष्पचूलिक और वह्निदशा । ३ दस प्रकीर्णक-चतुःशरणं, आतुर प्रत्याख्यान, भक्त, संस्तार, तन्दुलवचारिक, चन्द्रवेधक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव । ४ छह छेदसूत्र - निशीथ महानिशीथ, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, पञ्चकल्प | ५ दो सूत्र - नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार । ६ चार मूलसूत्रउत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और पिण्डनियुक्ति । ये पैंतालीस ग्रन्थ आगम कहे जाते हैं। इनकी भाषा आर्पप्राकृत कहलाती है। इनमें आचार, व्रत, जैनतत्त्व, ज्योतिष, भूगोल आदि विविध विषयोंका वर्णन है। दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्य में अंग और अंगबाह्य प्रन्थोंके नामों तथा उनमें वर्णित विषयों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें उपांग आदि भेद नहीं हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञमिको उपांग माना है किन्तु दिगम्बर साहित्यमें इनकी गणना दृष्टिवादके एक भेद परिकर्म में की है। इसी तरह दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार और निशीथ नामके ग्रन्थोंको अंगबाह्य बतलाया है । दिगम्बर सम्प्रदायमें अंगोंके अतिरिक्त जो भी साहित्य हैं वह सब अंगवाह्य माना गया है । -- श्वेताम्बर परम्परामें देवर्द्धिगणिके पश्चात् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नामके एक विशिष्ट आचार्य हुए। इनका विशेषा अनुसार संकलन करके उन्हें पुस्तकमें लिखवाया । इसलिए मूलमें गणधर प्रतिपादित होनेपर भी संकलन करनेके कारण सभी आगमोंके कर्ता श्रीदेव. द्विगणिक्षमाश्रमण कहलाये ।' Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जनधर्म बश्यक भाष्य एक उच्च कोटिका प्रन्थ है। इसमें तकपूर्ण शैलीसे ज्ञानकी सुन्दर चर्चा की गयी है । जिस तत्त्वार्थसूत्रका उल्लेख हम दिगम्बर साहित्यमें कर आये हैं, उसपर एक भाष्य भी है, जिसे कुछ विद्वान् स्वोपज्ञ मानते हैं । इसपर आचार्य सिद्धसेनगणिका तत्त्वार्थ भाष्य एक विस्तृत टीका है । आगमिक साहित्यके ऊपर भी अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं । नवांग वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिने नौ आगमोंपर संस्कृत भाषामें सुन्दर टीकाएँ रची हैं। इस दृष्टिसे मल्लधारी हेमचन्द्रका नाम भी उल्लेखनीय है, इन्होंने भी आगमिक साहित्यपर विद्वत्तापूर्ण टीकाएँ लिखी हैं । विशेषावश्यक भाष्यपर रची इनकी टीका बहुत ही सुन्दर हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कर्मविषयक साहित्य भी पर्याप्त है जिसमें कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, प्राचीन और नवीन कर्मग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। १३वीं शती में श्रीदेवेन्द्रसूरिने नवीन कर्मग्रन्थोंकी रचना स्वोपज्ञ टीकाके साथ की थी। इनकी टीकाओं में कर्मसाहित्यको विपुल सामग्री संकलित है । न्यायविषयक साहित्य में सिद्धसेन दिवाकरका न्यायावतार जैनन्यायका आध ग्रन्थ माना जाता है । इनका 'सन्मति तर्क प्रकरण' भी बहुत महत्त्व - पूर्ण प्रन्थ है, इसमें आगमिक मान्यताओंको भी तर्ककी कसौटीपर कसनेका प्रयत्न किया गया है । इस प्रकरण ग्रन्थपर अभयदेवसूरिकी महत्त्वपूर्ण टीका है । इस सम्प्रदायमें हरिभद्रसूरि नामके एक प्रख्यात विद्वान् हो गये हैं। किंवदन्ती है कि इन्होंने १४०० प्रकरण प्रन्थ रचे थे । इनके उपलब्ध दार्शनिक ग्रन्थोंमें अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्त जयपताका तथा शास्त्रवार्ता समुच्चयका नाम उल्लेखनीय है । तत्त्वार्थसूत्रपर भी इन्होंने एक टीका लिखी है । वादिदेव सूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार तथा उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति स्याद्वादरत्नाकर व आचार्य हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा और मल्लिषेणसूरिकी स्याद्वादमंजरी भी न्यायशास्त्रके सुन्दर प्रन्थरत्न हैं । सतरहवीं शतीमें आचार्य Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २६१ यशोविजय भी एक कुशल नैयायिक हुए हैं, इन्होंने विद्यानन्दिकी अष्टसहस्रीपर एक टिप्पण रचा है तथा नयोपदेश, नयामृततरंगिणी, तर्कपरिभाषा आदि अनेक ग्रन्थ रचे हैं। जैनधर्मके दार्शनिक सिद्धान्तोंपर इन्होंने नये दृष्टिकोणसे विचार किया है तथा नव्यन्यायकी शैलीमें भी ग्रन्थ रचे हैं। पुराण साहित्यमें विमलसूरिका पउमचरिय (पद्मचरित) एक प्राकृत काव्य है । यह प्राचीन समझा जाता है। इसमें रामचन्द्रकी कथा है । 'वसुदेव हिण्डी' भी प्राकृत भाषाका पुराण है इसमें महाभारतकी कथा है । यह भी प्राचीन है। आचार्य हेमचन्द्रका त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित भी उल्लेखनीय है। अन्य भी अनेक ग्रन्थ हैं। काव्योंमें हेमचन्द्रका द्वयाश्रय महाकाव्य, अभयदेवका जयन्तविजय, मुनिचन्द्रका शान्तिनाथचरित अच्छे काव्य समझे जाते हैं । गद्य काव्यमें धनपाल कविकी तिलकमंजरी एक सुन्दर आख्यायिका प्रन्थ है । नाटकोंमें रामचन्द्र सूरिका नल-विलास, सत्यहरिचन्द्र, राघवाभ्युदय, निर्भयव्यायोग आदिका नाम उल्लेखनीय है। जयसिंहका हम्मीरमदमर्दन एक ऐतिहासिक नाटक है। इसमें चौलुक्यराज वीरधवलके द्वारा हम्मीर नामके यवन राजाको भगानेका वर्णन है। ___लाक्षणिक ग्रन्थमें आचार्य हेमचन्द्रका काव्यानुशासन द्रष्टव्य है । कथा साहित्यका तो यहाँ भण्डार भरा है। उसमें उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला, हरिभद्रकी समराइचकहा और पादलिप्तकी तरंगवतीकहा अति प्रसिद्ध है। कुवलयमाला नो प्राकृत साहित्यका एक अमूल्य रत्न है। यह प्राकृत भाषाके अभ्यासियोंके लिए बहुत उपयोगी है। इसी तरह आचार्य सिद्धर्षिकी उपमितिभवप्रपश्चकथा भारतीय साहित्यका प्रथम रूपक ग्रन्थ माना जाता है। व्याकरणमें आचार्य हेमचन्द्रका 'सिद्ध हेम व्याकरण' अतिप्रसिद्ध है। इसीका आठवाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण है, जिससे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनधर्म अच्छा दूसरा प्राकृत व्याकरण आज उपलब्ध नहीं है। कोषों में भी हेमचन्द्रका अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, निघंट शेप, अभिधानराजेन्द्र तथा 'पाइअसहमहण्णव' अपूर्व कोप ग्रन्थ हैं। प्रबन्धोंमें चन्द्रप्रभमूरिका प्रभावकचरिन. मेमतुंगका प्रवन्धचिन्ताकणि, राजशंखरका प्रवन्धकोश तथा जिनप्रभसूरिका विविधतीर्थकल्प महत्त्वपूर्ण हैं। अन्य भी अनेक विपयांपर साहित्य पाया जाता है । अपभ्रंश भपाका साहित्य भी पर्याप्त है, जिसमें धनपालकी 'भविसयत्त कहा' अतिप्रसिद्ध है। स्त्रोत्र साहित्य भी विपुल है। श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकतर आवास गुजरात प्रान्तमें है ! अतः गुजराती भाषामें भी काफी साहित्य मिलता है, जिसका परिचय 'जैन गुर्जर कविओ' नामक ग्रन्थमें विस्तारके साथ है। विदेशी भाषाओंमें भी जैन साहित्य पाया जाने लगा है। जर्मन विद्वान् म्व० हर्मन याकोबीने कई ग्रन्थोंका सम्पादन किया था। उनमें उनकी कल्पसूत्रकी प्रस्तावना तथा 'Sacred Books of east नामकी ग्रन्थमालामें प्रकाशित जनसूत्रोंकी प्रस्तावना पढ़ने योग्य है। जर्मन विद्वान प्रो० ग्लंजनपका 'जैनिज्म' भी अच्छा ग्रन्थ है। स्व० वीरचन्द्र गांधीने अमेरिका के चिकागो नगरमें हुए सर्वधर्म सम्मलनमें जो भापण जनधर्मके सम्बन्धमें दिये थे, वे 'कर्म फिलोसोफी' के नाम छप चुके हैं। न्यायावतार, सम्मतितर्क वगैरहका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। और भी अनेक ग्रन्थ हैं। दिगम्बर साहित्य भी अंग्रेजीमें पर्याप्त है। स्व० जे० एल० जैनी और बैरिस्टर चम्पतरायने इस दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है। उपसंहार ___ बहुतसा जैन साहित्य अब प्रकाशमें आ रहा है और नयी शैलीसे उसका सम्पादन भी होने लगा है। प्राचीन जैन साहि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २६३ त्यका तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक विवेचन करनेकी भी परम्परा चल पड़ी है जिसका श्रेय सर्वश्री नाथूराम प्रेनी, जुगलकिशोर मुख्तार, पं० सुखलाल और मुनि जिनविजय आदि जैन विद्वानोंको है । इस दृष्टिसे प्रेमीजी का 'जैन साहित्य और इतिहास', मुख्तार सा० की 'पुरातन वाक्य सूची' की प्रस्तावना तथा 'समन्तभद्र' नामक पुस्तक दृष्य है । पखण्डागम, कसायपाहुड और न्यायकुमुदचन्दकी हिन्दी प्रस्तावनाएँ भी तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे अध्ययन करनेवालोंके लिए बहुत कामकी हैं । जिज्ञासुओं को उनका अध्ययन करना चाहिये । अन्वेषकोंके लिए जैन साहित्य में प्रचुर सामग्री मौजूद है । कुछ प्रसिद्ध जैनाचार्य भगवान महावीरके पश्चात् कितने ही प्रसिद्ध प्रसिद्ध आचार्य और ग्रन्थकार हुए हैं जिन्होंने अपने सदाचार और सद्विचारोंसे न केवल जैनधर्मको अनुप्राणित किया किन्तु अपनी अमर लेखनीके द्वारा भारतीय वाङमयको भी समृद्ध बनाया । नीचे कुछ ऐसे प्रसिद्ध आचार्यों और ग्रन्थकारांका परिचय संक्षेपमें कराया जाता है । गौतम गणधर ( ५५७ ई० पूर्व ) यह भगवान महावीरके प्रधान गणधर ( शिष्य ) थे । मूल नाम इन्द्रभूति था, जाति त्राह्मण थे । वेद वेदाङ्गमें पारंगत थे । जब केवलज्ञान हो जानेपर भी भगवान महावीरकी वाणी नहीं खिरी तो इन्द्रको इस बातकी चिन्ता हुई। इसका कारण जानकर वह इन्द्रभूतिके पास गया और युक्तिसे उसे भगवान महावीरकं समवसरण में ले आया । संशय दूर होते ही इन्द्रभूतिने प्रत्रज्या ले ली और भगवानके प्रधान गणधर हुए। भगबान्का उपदेश सुनकर अवधारण करके इन्होंने द्वादशाङ्ग श्रुतकी रचना की । जब कार्तिक कृष्णा अमावस्याके प्रातः भगवान् Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनधर्म महावीरका निर्वाण हुआ उसी समय गौतम स्वामीको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई । उसके १२ वर्ष पश्चात् इन्हें भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ । भद्रबाहु ( ३२५ ई० पूर्व ) यह भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे। इनके समय में मगध में १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब यह साधुओंके बहुत बड़े संघके साथ दक्षिण देशको चले गये । प्रसिद्ध मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भी राज्यभार पुत्रको सौंपकर इनके साथ ही दक्षिणको चला गया । वहाँ मैसूर प्रान्त के श्रवणबेलगोला स्थानपर भद्रबाहु स्वामी अपना अन्तिम समय जानकर ठहर गये और शेष संघको आगे रवाना कर दिया । सेवाके लिए चन्द्रगुप्त अपने गुरुके पास ही ठहर गये । वहाँके चन्द्रगिरि पर्वतकी एक गुफामें भद्रबाहु स्वामीने देहोत्सर्ग किया । यह गुफा भद्रबाहुकी गुफा कहलाती है और इसमें उनके चरण अंकित हैं जो पूजे जाते हैं। भद्रबाहुके समय में ही संघभेदका बीजारोपण हुआ अतः उनके बादसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंकी आचार्य परम्परा भी जुदी - जुदी हो गयी । दिगम्बर परम्परा के कुछ प्रमुख आचायोंका नीचे परिचय दिया जाता है। धरसेन ( वि० सं० की दूसरी शती ) आचार्य धरसेन अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता थे। और सौराष्ट्र देशके गिरनार पर्वतकी गुफामें ध्यान करते थे । उन्हें इस बातकी चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतज्ञानका लोप हो जायगा । अतः उन्होंने महिमानगरीके मुनिसम्मेलनको पत्र लिखा । वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुँचे । आचार्यने उनकी बुद्धिकी परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी । पुष्पदन्त और भूतबलि ये दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतबली थे । आषाढ़ शुक्ला एकदशीको अध्ययन पूरा होते ही धरसेनाचार्यने उन्हें बिदा कर Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ जैन साहित्य दिया। दोनों शिष्य वहाँसे चलकर अंकुलेश्वरमें आये और वहीं चतुर्मास किया। पुष्पदन्त मुनि अंकुलेश्वरसे चलकर बनवास देशमें आये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने जिनपालितको दीक्षा दी और 'वीसदि सूत्रों' की रचना करके उन्हें पढ़ाया। फिर उन्हें भूतबलिके पास भेज दिया। भूतबलिने पुष्पदन्तको अल्पायुजानकर आगेकी ग्रन्थरचना की। इस तरह पुष्पदन्त और भूतबलिने पट्खण्डागम नामके सिद्धान्त ग्रन्थकी रचना की। फिर भूतबलिने षट्खण्डागमको लिपिवद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन उसकी पूजा की। इसीसे यह तिथि जैनोंमें श्रुतपंचमीके नामसे प्रसिद्ध हुई। गुणधर (वि० सं० की श्री शती) आचार्य गुणधर भी लगभग इसी समयमें हुए। वे ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कसायपाहुरूपी श्रुत समुद्र के पारगामी थे। उन्होंने भी श्रुतका विनाश हो जानेके भयसे कसायपाहुड़ नामका महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रन्थ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध किया। कुन्दकुन्द (वि० सं० की श्री शती) आचार्य कुन्दकुन्द जैनधर्मके महान प्रभावक आचार्य थे। इनके विषयमें प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्रमें जाकर सीमंधर स्वामीको दिव्यध्वनि सुननेका सौभाग्य इन्हें प्राप्त हुआ था। इनका प्रथम नाम पद्मनन्दि था। कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे बादमें वे कोण्डकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। उसीका श्रुतिमधुर रूप 'कुन्दकुन्दाचार्य' बन गया । इनके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और समयसार नामके ग्रन्थ अति प्रसिद्ध हैं जो नाटकत्रया कहलाते हैं। इनके सिवाय इन्होंने अनेक प्राभृतोंकी रचना की है जिनमेंसे आठ प्राभृत उपलब्ध हैं। बोधप्राभृतके अन्तकी एक गाथामें इन्होंने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनधर्म शिष्य बतलाया है । श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोंमें इनकी बड़ी कीर्ति बतलायी गयी है। उमास्वामी (वि० सं० को ३रो शती) यह आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य थे। इन्होंने जैन सिद्धान्तको संस्कृत सूत्रोंमें निवद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्रग्रन्थकी रचना की। इनको गृद्धपिच्छाचार्य भी कहते थे। श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० १०८में लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पवित्र वंशमें उमास्वामी मुनि हुए जो सम्पूर्ण पदार्थोंके जाननेवाले थे, मुनियों में श्रेष्ठ थे। उन्होंने जिनदेव प्रणीत समस्त शास्त्रोंके अर्थको सूत्र रूपमें निबद्ध किया। वे प्राणियोंकी रक्षामें बड़े सावधान थे। एकबार उन्होंने पिछी न होनेपर गृद्धके परोंको पीछीके रूपमें धारण किया था, तभोसे विद्वान् उनको गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। साधारणतया दि० जैन मुनि जीवरक्षाके लिए मयूरके पंखोंकी पीछी रखते हैं। समन्त भद्र (वि० सं० की ३-४ थी शती) जैन समाजके प्रभावक आचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका स्थान वहुत ऊँचा है। इन्हें जैन शासनका प्रणेता और भावि तीर्थङ्कर तक बतलाया है । अकलंकदेवने अष्टशतीमें, विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें, आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें, जिनसेन सूरिने हरिवंशपुराणमें, वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चय-विवरण और पार्श्वनाथचरितमें, वीरनन्दिने चन्द्रप्रभचरितमें, हस्तिमल्लने विक्रान्तकौरव नाटकमें तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारोंने भी अपने-अपने ग्रन्थके प्रारम्भमें इनका बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। मुनि जीवनमें इन्हें भस्मक व्याधि हो गयी, जो खाते थे वह तत्काल जीर्ण हो जाता था। उसे दूर करनेके लिए इन्हें कांची या काशीके राजकीय शिवालयमें पुजारी बनना पड़ा और वहाँ देवार्पित नैवेद्यका भक्षण करके अपना Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २६७ रोग दूर किया। जब कलई खुली तो स्वयंभूस्तोत्र रचकर जैन शासनका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट किया । इनके रचे हुए आप्तमीमांसा, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक तथा रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, तथा जीवसिद्धि आदि कुछ ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । ये प्रखर तार्किक और कुशल बादी थे। अनेक देशोंमें घूम-घूमकर इन्होंने विपक्षियोंको शास्त्रार्थ में परास्त किया । सिद्धसेन (वि० सं० की ५वीं शती) आचार्य उमास्वामी (ति) की तरह सिद्धसेनकी मान्यता भी दोनों सम्प्रदायों में पायी जाती है । दोनों ही सम्प्रदाय उन्हें अपना गुरु मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य जिनसेन प्रथम व द्वितीय ने बहुत ही आदरके साथ उनका स्मरण किया है। उनकी सूक्तियोंको भगवान ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समकक्ष बतलाया है और प्रतिवादीरूपी हाथियोंके समूहके लिये उन्हें विकल्परूप नखोंयुक्त सिंह बतलाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'दिवाकर' विशेषण के साथ इनकी प्रसिद्धि हैं। इनका सन्मतितर्कग्रन्थ अति प्रसिद्ध और बहुमान्य हैं । यह प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । दूसरे ग्रन्थ न्यायावतार तथा द्वात्रिंशतिकाएँ संस्कृत में हैं। सभी ग्रन्थ गहन दार्शनिक चर्चाओंसे परिपूर्ण हैं । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० जुगलकिशोर' मुख्तार ने गहरे अध्ययन और खोज के बाद यह सिद्ध किया है कि उक्त सब कृतियाँ एक ही सिद्धसेन की नहीं हैं, सिद्धसेन नामके कोई दूसरे विद्वान भी हुए हैं। देवनन्दि ( ईसाकी पांचवीं शती) श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४० ( ६४ ) में लिखा है कि इनका पहला नाम देवनन्दि था । बुद्धिकी महत्ता के कारण वे १. अनेकान्त, वर्ष ६, कि० ११ ( सन्मति सिद्धसेनाँक ) । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनधर्म जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इसलिए उनका नाम पूज्यपाद हुआ। इनका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें और वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित्रमें इन्हें इसी संक्षिप्त नामसे स्मरण किया है। महाकवि धनञ्जयने अपनी नाममालामें पूज्यपादके व्याकरणको 'अपश्चिम रत्नत्रय' में गिनाया है। इनका जैनेन्द्रव्याकरण जैनोंका पहला संस्कृत व्याकरण है। इसके सूत्र बहुत ही संक्षिप्त हैं । संज्ञाएँ भी संक्षिप्त हैं । मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेवने आठ वैयाकरणोंमें जनेन्द्रका भी उल्लेख किया है। जैनेन्द्रके सिवाय इनके चार ग्रन्थ और उपलब्ध हैं-सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश और दशभक्ति (संस्कृत)। इन्होंने अपने जैनेन्द्रपर न्यास भी बनाया था जो अप्राप्य है। इसी तरह वैद्यक ग्रन्थ भी इन्होंने बनाये थे। गंगवंशीय राजा दुविनीत इनका शिष्य था, जिसका राज्यकाल ई० सन् ४८२ से ५१२ तक माना जाता है। पात्रकेसरी (ईसाकी ६ठी शती) इन्हें पात्रस्वामी भी कहते हैं। इन्होंने बौद्धौंके त्रैरूप्य हेतु वादका खण्डन करनेके लिए 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामका शाख रचा था जो अनुपलब्ध है। शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहमें पात्रस्वामीके मत की आलोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपझके रूपमें दी हैं। इनका निम्न श्लोक बहुत प्रसिद्ध है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ वादिराजसूरि और अनन्तवीर्यने लिखा है कि बौद्धौके त्रिलक्षणका खण्डन करनेके लिए पद्मावतीदेवीने भगवान सीमन्धर स्वामीके समवसरणमें जाकर उनके गणधरके प्रसाद से इस श्लोकको प्राप्त करके पात्र केसरीको दिया था। श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं०५४ में भी ऐसा उल्लेख है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ जैन साहित्य अकलंक' (ई० ६२० से ६८०) यह जैनन्यायके प्रतिष्ठाता थे। प्रकाण्ड पण्डित, धुरन्धर शास्त्रार्थी और उत्कृष्ट विचारक थे। जैनन्यायको इन्होंने जो रूप दिया उसे ही उत्तरकालीन जैन ग्रन्थकारोंने अपनाया। बौद्धोंके साथ इनका खूब संघर्ष रहा। स्वामी समन्तभद्रके यह सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। इन्होंने उनके आप्तमीमांसा ग्रन्थपर 'अष्टशती' नामक भाष्यकी रचना की। इनकी रचनाएँ दुरूह और गम्भीर हैं । अबतक इनके अष्टशती, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थराजवार्तिक, नामके ग्रन्थ प्रकाशमें आ चुके हैं। विद्यानन्दि (ई० ९वीं शती) विद्यानन्दि अपने समयके बहुत ही समर्थ विद्वान थे। इन्होंने अकलंकदेवकी अष्टशतीपर 'अष्टसहस्री' नामका महान ग्रन्थ लिखा है जिसे समझने में अच्छे अच्छे विद्वानोंको कष्ट सहस्रीका अनुभव होता है। ये सभी दर्शनोंके पारगामी विद्वान थे। इन्होंने आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और युक्त्यनुशासन-टीका नामके ग्रन्थ रचे हैं। सभी बहुत प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ हैं। माणिक्यनन्दि (ई० ९वीं शती) इन्होंने अकलंकदेवके वचनोंका अवगाहन करके परीक्षामुख नामके सूत्र ग्रन्थकी रचना की है जिसमें प्रमाण और प्रमाणाभासका सूत्रबद्ध विवेचन किया है। सूत्र संक्षिप्त स्पष्ट और सरस हैं। अनन्तवीर्य (ई० की ९वीं शती) यह अकलंक न्यायके प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने उनके १. इनको जीवनी व परिचय जाननेके लिए न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथम भागको प्रस्तावना पढ़िये । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है । वादिराजने अपने न्यायविनिश्चयविवरणमें इनकी बहुत प्रशंसा की है, और लिखा है कि इनके वचनामृतकी वृष्टिसे जगत्को खा जानेवाली शून्यवादरूपी अग्नि शान्त हो गयी । २७० वीरसेन ( ई० ७९०-८२५ ) आचार्य वीरसेन प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खण्डागम और कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे । उन्होंने प्रथम प्रन्थपर ६२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत- संस्कृत-मिश्रित धवला नामकी टीका लिखी है । और कसायपाहुड पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। ये टीकाएँ जैनसिद्धान्त की गहन चर्चाओंसे परिपूर्ण हैं । धवलाकी प्रशस्तिमें उन्हें वैयाकरणोंका अधिपति, तार्किकचक्रवर्ती और 'प्रवादी रूपी गजोंके लिए सिंह' समान बतलाया है ! जिनसेन ( ई०८००-८८० ) यह वीरसेनके शिष्य थे। इन्होंने गुरुके स्वर्गवासी हो जाने पर जयधवला टीकाको पूरा किया। इन्होंने अपनेको 'अविद्धकर्ण' बतलाया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह बालवयमें हो दीक्षित हो गये थे । यह बड़े कवि थे । इन्होंने अपने नवयौवनकालमें ही कालिदासके मेघदूतको लेकर पाश्वभ्युदय नामका सुन्दर काव्य रचा था । मेघदूतमें जितने भी पद्य हैं, उनके अन्तिम चरण तथा अन्य चरणोंमेंसे भी एक एक, दो दो करके इसके प्रत्येक पद्यमें समाविष्ठ कर लिये गये हैं । इनका एक दूसरा ग्रन्थ महापुराण है। इन्होंने तिरेसठ शलाका पुरुषोंका चरित्र लिखनेकी इच्छासे महापुराण लिखना प्रारम्भ किया । किन्तु इनका भी बीचमें ही स्वर्गवास हो गया । अतः उसे - इनके शिष्य गुणभद्राचार्यने पूर्ण किया। राजा अमोघवर्ष इनका शिष्य था और इन्हें बहुत मानता था । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २७१ प्रभाचन्द्र (ई० सन् की ११वीं शती) आचार्य प्रभाचन्द्र एक बहुश्रुत दार्शनिक विद्वान थे। सभी दर्शनों के प्रायः सभी मौलिक ग्रन्थोंका उन्होंने अभ्यास कियाथा। यह बात उनके रचे हुए न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेय-कमल-मार्तण्ड नामक दार्शनिक ग्रन्थोंके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाती है। इनमें से पहला ग्रन्थ अकलंकदेवके लघीयस्त्रयका व्याख्यान है और दूसरा आचार्य माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख नामक सूत्र ग्रन्थका । श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं०४० (६४) में इन्हें शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्क ग्रन्थकार बतलाया है। इन्होंने शाकटायन व्याकरणपर एक विस्तृत न्यास ग्रन्थ भी रचा था जिसका कुछ भाग उपलब्ध है। इनके गुरुका नाम पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था। वादिराज (ई० स० ११वों शती) वादिराज तार्किक होकर उच्चकोटिके कवि थे। षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी उनकी उपाधियाँ थीं। नगर ताल्लुकाके शिलालेख नं० ३९ में बताया है कि वे सभामें अकलंक थे, प्रतिपादन करनेमें धर्मकीर्ति थे, बोलनेमें बृहस्पति थे और न्यायशास्त्रमें अक्षपाद थे। उन्होंने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयपर विद्वत्तापूर्ण विवरण लिखा है जो लगभग बीस हजार श्लोक प्रमाण है। तथा शक सं० ९४७ (ई० सं० १०२५) में पार्श्वनाथचरित रचा जो बहुत ही सरस प्रौढ़ रचना है । अन्य भी कई ग्रन्थ और स्त्रोत्र इन्होंने बनाये हैं । इनके गुरुका नाम मतिसागर था। यह तो हुआ कुछ प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्योंका परिचय । अब कुछ श्वेताम्बर जैनाचार्योंका परिचय दिया जाता है। इन आचार्योंमें उमास्वामीकी उमास्वाति नामसे तथा सिद्धसेनकी सिद्धसेनदिवाकर नामसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी बहुत प्रतिष्ठा है । और वह इनको श्वेताम्बराचार्य रूपसेही मानता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनधर्म नियुक्तिकार भद्रबाहु भद्रबाहु नामके दो आचार्य हो गये हैं। यह दूसरे भद्रबाहु विक्रमकी छठी शतीमें हुए हैं। वे जातिसे ब्राह्मण थे। प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर इनका भाई था। इन्होंने आगमों पर नियुक्तियोंकी रचना की तथा अन्य भी अनेक ग्रन्थ बनाये । मल्लवादी यह प्रबल तार्किक थे। आचार्य हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें लिखा है कि सब तार्किक मल्लवादीसे पीछे हैं। इनका बनाया हुआ नयचक्र ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है जिसका पूरा नाम 'द्वादशार नयचक्र' है। मूल ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है किन्तु उसकी सिंह क्षमाश्रमण कृत टीका मिलती है। आचार्य हरिभद्रने अपने 'अनेकान्त जयपताका' ग्रन्थमें इनका वादिमुख्य करके उल्लेख किया है, अतः इतना निश्चित है कि ये विक्रमकी आठवीं शतीसे पहिले हुए हैं। जिनभद्रगणि (ई० ६-७वीं शती) । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक बहुत ही समर्थ और आगमकुशल विद्वान थे। इनका विशेषावश्यक भाष्य नामका एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। उसीके कारण भाष्यकार नामसे इनकी ख्याति है। इस ग्रंथमें उन्होंने सिद्धसेनके विचारोंका खण्डन भी किया है। विशेषणवती, आदि अन्य भी अनेक ग्रंथ इनके रचे हुए हैं। आचार्य हेमचन्द्रने इन्हें उत्कृष्ट व्याख्याता बतलाया है। हरिभद्र (ई० ७००-७५०) हरिभद्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके बहुमान्य विद्वान हुए हैं। इन्होंने संस्कृत और प्राकृतमें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। इनके रचे हुएप्रन्थोंमें अनेकान्त प्रवेश, अनेकान्त-जयपताका, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य २७३ ललितविस्तरा, षड्दर्शन समुच्चय, और समराइच कहा अति प्रसिद्ध हैं। अपने प्रकरण ग्रन्थोंमें इन्होंने तत्कालीन साधुओंकी खरी आलोचना भी की है। ____ अभयदेव (ई०११ वीं शती) यह प्रधुम्नसूरिके शिष्य थे। इन्होंने सिद्धसेनके सन्मतितर्कपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। इस टीकामें सैकड़ों दार्शनिक ग्रन्थोंका निचोड़ भरा हुआ है। संक्षेपमें दिगम्बर परम्परामें अकलंकदेव, विद्यानन्दि और प्रभाचन्दका जो स्थान है वही स्थान श्वेताम्बर परम्परामें मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव सूरिका है। छहों विद्वान दार्शनिक क्षेत्रके जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। हेमचन्द्र ( ई० १३वीं शती) विद्वानोंमें आचार्य हेमचन्द्रको बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह उनका पूर्ण भक्त था। उसके नामपर ही उन्होंने अपना सिद्ध हैम व्याकरण बनाया। उसीका एक अध्याय प्राकृत व्याकरण है जोअति प्रसिद्ध है । आचार्यका जन्म सं० ११४५ में हुआ। नौ वर्षकी अवस्थामें दीक्षा ली और सं० ११६२ में आचार्य पद प्राप्त किया। सं० १२२९ में उनका स्वर्गवास हो गया । न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष आदि सभी विषयोंपर उन्होंने अद्भुत ग्रन्थ लिखे । जयसिंहका उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल तो उनका शिष्य ही था। यशोविजय (ई. १८वीं शती) श्वेताम्बर परम्परामें हेमचन्द्राचार्यके पश्चात् यशोविजय जैसा सर्वशास्त्रपारंगत दूसरा विद्वान् नहीं हुआ। इन्होंने काशीमें विद्याध्ययन किया था और नव्यन्यायके न केवल विद्वान ही थे किन्तु उसी शैलीमें कई ग्रन्थ भी रचे । उनकी जैन तर्कभाषा, ज्ञानबिन्दु, नयरहस्य, नयप्रदीप आदि ग्रन्थ अध्ययन करने योग्य हैं । इनकी विचारसरणि बहुत ही परिष्कृत और संतुलित थी। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जन कला और पुरातत्त्व जैन परम्परा के अनुसार इस अवसर्पिणी कालमें हास होते होते जब भोगभूमिका स्थान कर्मभूमिने ले लिया तो भगवान् ऋषभदेवने जनताके योगक्षेमके लिए पुरुषोंकी बहत्तर कलाओं और स्त्रियोंके चौंसठ गुणोंको बतलाया। जैन अंग साहित्यके तेरहवें पूर्व में उनका विस्तृत वर्णन था, वह अब नष्ट हो चुका है । इससे पता लगता है कि पहले कलाका अर्थ बहुत व्यापक था । उसमें जीवन-यापनसे लेकर जीव- उद्धार तकके सब सत्प्रयत्न सम्मिलित थे । कहा भी है कला बहत्तर पुरुषकी, तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका, एक जीव-उद्धार ॥ जैनधर्मका तो प्रधान लक्ष्य ही जीव उद्धार है। बल्कि यदि कहा जाय कि जीव उद्धारके लिए किये जाने वाले सत्प्रयत्नोंका नाम ही जैनधर्म है तो अनुचित न होगा । इसी से आज कलाकी परिभाषा जो 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की जाती है, अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है, वह जैनकलामें सुघटित है, क्योंकि जैनधर्मसे सम्बद्ध चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकला, सुन्दर होनेके साथ ही साथ कल्याणकर भी है और सत्यका दर्शन कराती है। नीचे उनका परिचय संक्षेपमें दिया जाता है । चकला सरगुजा राज्यके अन्तर्गत लक्ष्मणपुर से १२ मील रामगिरि नामक पहाड़ है वहाँ पर जोगीमारा गुफा है । गुफाकी चौखट पर बड़े ही सुन्दर चित्र अंकित हैं। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टिसे प्राचीन हैं तथा जैनधर्मसे सम्बन्धित हैं । परन्तु संरक्षणके अभावमें चित्रोंकी हालत खराब हो गयी है । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला और पुरातत्त्व २७५ पुदुकोटै राज्यमें राजधानीसे ९ मील उत्तर एक जैन गुफा मन्दिर है उसे सितन्नवासल कहते हैं। सितन्नवासल का प्राकृत रूप है सिद्धण्णबास – सिद्धोंका निवास । इसकी भीतोंपर पूर्व - पल्लव राजाओंकी शैलीके चित्र हैं, जो तमिल संस्कृति और साहित्यके महान् संरक्षक प्रसिद्ध कलाकार राजा महेन्द्रवर्मा प्रथम ( ६००-६२५ ई० ) के बनवाये हुए हैं और अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही साथ सबसे प्राचीन जैन चित्र हैं । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि अजंताके सर्वोत्कृष्ट चित्रोंके साथ सितन्नवासलके चित्रोंकी तुलना करना अन्याय होगा । किन्तु ये चित्र भी भारतीय चित्रकलाके इतिहासमें गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं । इनकी रचना शैली अजंताके भित्तिचित्रोंसे बहुत मिलती जुलती हैं। यहाँ अब दीवारों और छत पर सिर्फ दो चार चित्र ही कुछ अच्छी हालतमें बचे हैं। इनकी विशेषता यह है कि बहुत थोड़ी किन्तु स्थिर और दृढ़ रेखाओं में अत्यन्त सुन्दर आकृतियाँ बड़ी होशियारीके साथ लिख दी गयी हैं जो सजीव सी जान पड़ती हैं । गुफामें समवसरणकी सुन्दर रचना चित्रित है । सारी गुफा कमलोंसे अलंकृत है । खम्भोंपर नर्तकियोंके चित्र हैं। बरामदेकी छतके मध्यभागमें पुष्करिणीका चित्र है । जलमें पशुपक्षी जलविहार कर रहे हैं। चित्रके दाहिनी ओर तीन मनुष्याकृतियाँ आकर्षक और सुन्दर हैं । गुफामें पर्यक मुद्रामें स्थित पुरुष प्रमाण अत्यन्त सुन्दर पाँच तीर्थंकर मूर्तियाँ है जो मूर्तिविधान कलाकी अपेक्षासे भी उल्लेखनीय हैं। वास्तव में पल्लवकालीन चित्र भारतीय विद्वानोंके लिए अध्ययनकी वस्तु हैं । सितन्नवासलके बाद जैनधर्म से सम्बद्ध चित्रकला के उदाहरण दसवीं ग्यारहवीं शतीसे लगाकर पंद्रहवीं शताब्दी तक मिलते हैं। विद्वानोंका कहना है कि इस मध्यकालीन चित्रकलाके अवशेषेकेि लिए भारत जैन भण्डारोंका आभारी है; क्योंकि प्रथम तो इस कालमें प्रायः एक हजार वर्ष तक जैनधर्म का प्रभाव Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनधर्म भारतवर्षके एक बहुत बड़े भागमें फैला हुआ था। दूसरे जैनोंने बहुत बड़ी संख्यामें धार्मिक ग्रन्थ ताड़पत्रोंपर लिखवाये और चित्रित करवाये थे। वि० सं० ११५७ की चित्रित निशीथचूर्णिकी प्रति आज उपलब्ध है जो जैनाश्रित कलामें अति प्राचीन है। १५वीं शतोके पूर्वकी जितनी भी कलात्मक चित्रकृतियाँ मिलती हैं वे केवल जैन ग्रन्थोंमें ही प्राप्य हैं। __ आज तक जो प्राचीन जैन साहित्य उपलब्ध हुआ है उसका बहुभाग ताड़पत्रोंपर लिखा हुआ मिला है। अतः भारतीय चित्रकलाका विकास ताड़पत्रोंपर भी खूब हुआ है । मुनि जिनविजयजीका लिखना है कि चित्रकलाके इतिहास और अध्ययनकी दृष्टिसे ताड़पत्रकी ये सचित्र पुस्तकें बड़ी मूल्यवान् और आकर्षणीय वस्तु हैं। मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियमसे "Tirupatti Kunram' नामक एक मूल्यवान् ग्रन्थ श्री टी० एन० रामचन्द्रन द्वारा लिखित प्रकाशित हुआ है। इसमें प्रकाशित चित्रोंसे दक्षिण भारतकी जैन चित्रकला पद्धतिका अच्छा आभास मिलता है। इनमें से अधिकांश चित्र भगवान् ऋषभदेव और महावीरको जीवन घटनाओंपर प्रकाश डालते हैं। उनसे उस समयके पहनाव नृत्यकला आदिका परिचय मिलता है। ___ ताड़पत्रोंको सुरक्षित रखनेके लिए काष्ठ-फलकोंका प्रयोग किया जाता था । अतः उनपर भी जैनचित्र कलाके सुन्दर नमूने मिलते हैं। जैन चित्रकलाके सम्बन्धमें चित्रकलाके मान्य विद्वान् श्री एन० सी० मेहताने जो उद्गार प्रकट किये हैं वे उसपर प्रकाश डालनेके लिए पर्याप्त होंगे। वे लिखते हैं-"जैन चित्रोंमें एक प्रकार की निर्मलता, स्फूर्ति और गतिवेग है, जिससे डा० आनन्दकुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान् मुग्ध हो जाते हैं। १. भारतीय चित्रकला पृ० ३३ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने सामान्य उपहन कुछ मानव सभ्यताके अध्ययन जैन कला और पुरातत्त्व २७७ इन चित्रोंकी परम्परा अजंता, एलौरा, बाघ, और सितनवासलके भित्तिचित्रोंकी है। समकालीन सभ्यताके अध्ययनके लिए इन चित्रोंसे बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोगमें आनेवाली चीजें आदिके सम्बन्धमें अनेक बातें ज्ञात होती हैं।' मूर्तिकला जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, अतः प्रारम्भसे लेकर आजतक उसके मूर्तिविधानमें प्रायः एकही रीतिके दर्शन होते हैं। ई० स० के आरम्भमें कुशान राज्यकालकी जो जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं उनमें और सैकड़ों वर्ष पीछेकी बनी जैन मूर्तियों में बाह्य दृष्टिसे थोड़ा बहुत ही अन्तर है । प्रतिमाके लाभणिक अंग लगभग दो हजार वर्षतक एक ही रूपमें कायम रहे हैं। पद्मासन या खड्गासन मूर्तियोंमें लम्बा काल बीत जानेपर भी विशेष भेद नहीं पाया जाता। जैन तीर्थक्करकी मूर्ति विरक्त, शान्त, और प्रसन्न होती है। उसमें मनुष्यहृदयकी विकृतियोंको स्थान नहीं होता। इससे जैन प्रतिमा उसकी मुखमुद्राके ऊपरसे तुरन्त ही पहचानी जा सकती है। खड़ी मूर्तियोंके मुखपर प्रसन्नता और दोनों हाथ निर्जीव जैसे सीधे लटकते हुए होते हैं । बैठी हुई प्रतिमा ध्यानमुदामें पद्मासनसे विराजमान होती है। दोनों हाथ गोदीमें सरलतासे स्थापित रहते हैं। २४ तीर्थकरोंके प्रतिमाविधानमें व्यक्तिभेद न होनेसे उनके आसनके ऊपर अंकित चिह्नोंसे जुदे जुदे तीर्थङ्करोंकी प्रतिमा पहचानी जाती है । दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियोंमें भेद और उसके कारणको चर्चा इसी पुस्तकके 'संघभेद' शीर्षकमें की गयी है। मध्यकालीन जैन मूर्तियोंमें बौद्ध प्रथाके समान कपालपर ऊर्णा और मस्तकपर उष्णीष तथा वक्षस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न भी अंकित होने लगा। किन्तु जैन मूर्तियोंकी लाक्षणिक रचनामें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म वर्तमानमें सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटनाके लोहनीपुर स्थानसे प्राप्त हुई है । यह मूर्ति नियमसे मौर्य कालकी है और पटना म्युजियम में रखी हुई है। इसका चमकदार पालिस अभी तक भी ज्योंका त्यों बना है। लाहोर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदिके म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय लिखा हैमथुरामें २४वें तीर्थङ्कर वर्धमान महावीरकी एक मूर्ति मिली है। जो कुमारगुप्तके समयमें तैयार की गयी थी । वास्तव में मथुरामें जैन मूर्तिकलाकी दृष्टिसे भी बहुत काम हुआ है। श्री राय कृष्णदासने' लिखा है कि मथुराकी शुंगकालीन कला मुख्यतः जैन सम्प्रदायकी है। २७८ खण्डगिरि और उदयगिरिमें ई० पू० १८८-३० तककी शुंगकालीन मूर्तिशिल्पके अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते हैं । वहाँपर इस कालकी कटी हुई सौके लगभग जैन गुफाएँ हैं जिनमें मूर्तिशिल्प भी है। दक्षिण भारतके अलगामलै नामक स्थानमें खुदाईसे जो जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनका समय ई० पू० ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। उन मूर्तियोंकी सौम्या - कृति द्रविड़काल में अनुपम मानी जाती है । श्रवणबेलगोलाकी प्रसिद्ध जैनमूर्ति तो संसारकी अद्भुत वस्तुओंमें से है । वह अपने अनुपम सौन्दर्य और अद्भुत शान्तिसे प्रत्येक व्यक्तिको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। वह विश्वको जैन मूर्तिकलाकी अनुपम देन है । स्थापत्यकला तीर्थङ्करोंकी सादी प्रतिमाओंके आवासगृहोंको सजाने में जैनाश्रित कलाने कुछ नाकी नही रखा। भारतवर्ष के चारों कोनों में जैन मन्दिरोंकी अद्वितीय इमारतें आज भी खड़ी हुई हैं। मैसूर राज्यके हसन जिलेमें वेलूरके जैन मन्दिर मध्यकालीन १. भारतीय मूर्तिकला पू० ५९ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला और पुरातत्त्व २७९ जैन वैभवकी साक्षी देते हैं। गुजरातमें आबू के मन्दिरोंमें तो स्थापत्यकला देखते ही बनती है । विन्ध्यप्रान्तके छतरपुर राज्यके खजुराहा स्थानमें नवमीसे ग्यारहवीं शती तकके बहुतसे सुन्दर देवालय बने हुए हैं, और काले पत्थरकी खण्डित अखण्डित अनेक जैन प्रतिमाएँ जगह-जगह दृष्टिगोचर होती हैं। इलाहाबाद म्युनिसिपल संग्रहालयमें जैन मूर्तियोंका अच्छा संग्रह है जो प्रायः बुन्देलखण्डसे लायी गयी हैं। किसी समय बुन्देलखण्ड जैन पुरातत्त्व और कलाका महान् पोषक था। उसने शिल्पियोंको यथेच्छ द्रव्य देकर जैन कलात्मक कृतियोंका सृजन कराया। इसका पूरा हाल खजुराहा और देवगढ़की यात्रा करके ही जाना जा सकता है। चित्तौड़का जैन स्तम्भ स्थापत्यकलाकी दृष्टिसे उल्लेखनीय है। यह अपनी शैलीका अकेला ही है। इसकी ऊँचाई ८० फीट है, और घरातलसे चोटी तक सुन्दर नक्काशी और सजावटसे शोभित है। इसके नीचे एक शिलालेख भी है जिसमें उसका समय ८९६ ई० दिया है। यह स्तम्भ प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथसे सम्बद्ध है। इसके ऊपर उनकी सैकड़ों मूर्तियाँ अंकित हैं। ग्यालियरकी पहाड़ीपर भी पुरातत्त्वकी उल्लेखनीय सामग्री है। पहाड़के चारों ओर बहुतसी मूर्तियाँ खोदी हुई हैं, उनमेंसे कुछ तो ५७ फीट ऊँची हैं। फ्रेंच कलाविद ज्यूरिनोने अपनी पुस्तक 'ला रेलिजन द जैन' में ठीक ही लिखा है--'विशेषतः स्थापत्य कलाके क्षेत्रमें जैनियोंने ऐसी पूर्णता प्राप्त कर ली है कि शायद ही कोई उनकी बराबरी कर सके। __जैन स्थापत्यकलाके सबसे प्राचीन अवशेष उड़ीसाके उदयगिरि और खण्डगिरि पर्वतोंकी तथा जूनागढ़के गिरनार पर्वतकी गुफाओंमें मिलते हैं। उदयगिरि और खण्डगिरीकी गुफाओंके बारेमें फर्ग्युसनका कहना है कि उनकी विचित्रता और प्राचीनता तथा उसमें पायी जानेवाली मूर्तियोंके आकार-प्रकारके कारण उनका असाधारण महत्व है। उदयगिरिकी हाथीगुफा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैनधर्म तो खारवेलके कारण ही महत्त्वपूर्ण है परन्तु स्थापत्यकलाकी दृष्टिसे रानी और गणेश गुफाएँ उल्लेखनीय हैं। उनमें भगवान् पार्श्वनाथका जीवनवृत्तान्त बड़ी कुशलतासे खोदा गया है । कलाकी दृष्टिसे मथुराके आयागपट, बोड़न स्तूप और तोरण उल्लेखनीय हैं। जैन स्थापत्य कला अपेक्षाकृत अर्वाचीन उदाहरण आबू आदि स्थानों में और राणा कुम्भाके समयके अवशेषोंमें मिलते हैं। अलवर राज्यके भानुगढ़ स्थानमें भी बहुत सुन्दर जैन मन्दिर हैं । उनमें से एक तो १०-११वीं शतीका है और खजुराहोके जैसा हो सुन्दर है। मि० फर्ग्युसनका कहना है कि राजपुतानेमें जैनी कम रह गये हैं, फलतः उनके मन्दिरोंकी दुरवस्था है । किन्तु भारतीय कलाके प्रेमियों के लिए वे बहुत कामके हैं । जैनों की स्थापत्य कलाने गुजरातकी भी शोभा बढ़ायी है । यह सब मानते हैं कि यदि जैन कला और स्थापत्य जीवित न होते तो मुसलिम कलासे हिन्दूकला दूषित हो जाती । फर्ग्युसनने स्थापत्यपर एक ग्रन्थ लिखा है । उसमें वह लिखता है कि जो कोई भी बारहवीं शतीका ब्राह्मण धर्मका मन्दिर है, वह गुजरातमें जैनोंके द्वारा व्यवहृत शैलीका उदाहरण है। राणकपुरके जैन मन्दिरके अनेक स्तम्भोंको देखकर कलाके पारखी मुग्ध हो जाते हैं। दक्षिणमें जहाँ बौद्ध धर्मके स्थापत्यके इने-गिने अवशेष हैं वहाँ जैन धर्मके प्राचीन स्थापत्यके बहुतसे उदाहरण आज भी उपलब्ध हैं । इनमें प्रमुख है एलोराकी इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा । संभवत: इनकी खुदाई चालुक्योंकी बादामी शाखा या राष्ट्रकूटोंके तत्त्वावधान में हुई होगी; क्योंकि बादामीमें भी इसी तरहकी एक जैन गुफा है जो सातवीं शतीकी मानी जाती है । दक्षिण में जैन मन्दिरों और मूर्तियोंको बहुतायत है । श्रवणबेलगोला (मैसूर) में गोमट्टस्वामीकी प्रसिद्ध जैन मूर्ति है जो स्थापत्य कलाकी दृष्टिसे अपूर्व है । वहाँ अनेक जैन मन्दिर हैं Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला और पुरातत्त्व २८१ 1 जो द्रबेड़ियन शैलीके हैं। कनाड़ा जिलेमें अथवा तुलु प्रदेशमें जैन मन्दिरोंकी बहुतायत है किन्तु उनकी शैली न दक्षिण भारतकी द्रवेड़ियन शैलीसे ही मिलती है और न उत्तर भारतकी शैली । मूढविद्रीके मन्दिरोंमें लकड़ीका उपयोग अधिक पाया जाता है और उसकी नक्काशी दर्शनीय है । सारांश यह कि भारतवर्षका शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँ जैन पुरातत्त्व के अवशेष न पाये जाते हों । जहाँ आज जैनोंका निवास नहीं है वहाँ भी जैन कलाके सुन्दर नमूने पाये जाते हैं । इसीसे प्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुत रविशंकर रावलका कहना है - 'भारतीय कलाका अभ्यासी जैनधर्मकी जरा भ उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे जैनधर्म कलाका महान् आश्रयदाता, उद्धारक और संरक्षक प्रतीत होता है ।' स्व० के०पी० जायसवालने जैनधर्मसे सम्बद्ध वास्तुकलाके विषयमें एक भ्रामक बात कही है'। जैन और बौद्ध मन्दिरोंपर अप्सराओं आदिकी मूर्तिको लेकर उन्होंने लिखा है- 'अब प्रश्न यह है कि बौद्धों और जैनोंको ये अप्सराएँ कहाँ से मिलों X XX मेरा उत्तर यह है कि उन्होंने ये सब चीजें सनातनी हिन्दू (वैदिक) इमारतोंसे ली हैं । भारतीय कलाको इस तरह फिकोंमें बांटने के सम्बन्धमें व्युहलरका मत उल्लेखनीय है जो उन्होंने मथुरा से प्राप्त पुरातत्त्व से शिक्षा ग्रहण करके निर्धारित किया था। उनका कहना है - 'मधुरासे प्राप्त खोजोंने मुझे यह पाठ पढ़ाया है कि भारतीय कला साम्प्रदायिक नहीं है। बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्मोने अपने-अपने समयको और देशकी कलाओंका उपयोग किया है । उन्होंने कलाके क्षेत्रमें प्रतीकों और रूढ़िगत रीतियों को एक ही स्रोतसे लिया है। चाहे स्तूप हों, या पवित्र वृक्ष या चक्र या और कुछ हों, ये सभी धार्मिक या कलात्मक तत्त्वोंके रूपमें जैन, १. अन्धकार युगीन भारत, पृ० ९५–६६ । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनधर्म बौद्ध और सनातनी हिन्दू सभीके लिए समान रूपसे सुलभ हैं।' ___ उनके इस मतकी पुष्टि विसेण्ट स्मिथने अपनी पुस्तक 'दी जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्वीटीस् आफ मथुरा' में की है। इस तरह प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, शिलालेखों, गुफाओं और ताम्रपत्रोंके रूपमें आज भी जैन पुरातत्त्व यत्र तत्र पाया जाता है और बहुत सा समयके प्रवाहमें नष्ट हो गया तथा नष्ट कर दिया गया। मि० फर्ग्युसनका कहना है कि बारह खम्भोंके गुम्बजोंका जैनोंमें बहुत चलन रहा है । इस तरहका गुम्बज एक तो भेलसामें निर्मित समाधिमें पाया जाता है जो सम्भवतः ४ थी शतीका है। दूसरा बाघकी महान गुफाओंमें है जो छठी या सातवीं शतीका है । इस तरहके गुम्बज खोजने पर और भी मिल सकते थे। किन्तु इन गुम्बजोंके पतले और शानदार स्तम्भोंको मुसलमानोंने अपने कामका पाया; क्योंकि वे बड़ी सरलतासे फिरसे बैठाये जा सकते थे। इसलिए उन्हें बिना नष्ट किये ही मुसलमानोंने अपने काममें ले लिया। मि० 'फग्र्युसनका कहना है कि अजमेर, देहली, कन्नौज, धार और अहमदाबादकी विशाल मस्जिद जैनोंके मन्दिरोंसे ही पुनः निर्मित की गयी हैं। ___ गुजरातके प्रसिद्ध सोमनाथके मन्दिरको कौन नहीं जानता। ई० १०२५ में महमूद गजनीने इसे तोड़ा था। इस मन्दिर की निर्माण शैली गिरनार पर्वतपर स्थित श्री नेमिनाथके जैन मन्दिरसे मिलती-जुलती हुई है। मि० फर्ग्युसनका कहना है कि जब मुसलमानोंने इस मन्दिरपर आक्रमण किया उस समय वह सोमेश्वरका मन्दिर कहा जाता था। सोमेश्वर नामसे ही शिव मान लिया गया। यदि वह मन्दिर शिवका था तो उसमें अवश्य ही शिवलिंग प्रतिष्ठित होना चाहिये। किन्तु मुसलिम इतिहास लेखकोंका कहना है कि मूर्तिके सिर हाथ पैर और पेट था। ऐसी स्थितिमें वह मूर्ति शिवलिंग न होकर विष्णुकी या १. History of Indian and Eastern Architecture. P. 209. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला और पुरातत्त्व २८३ किसी जैन तीर्थकरकी होनी चाहिये। उस समय गुजरातमें वैष्णवधर्मका नामोनिशान भी देखनेको नहीं मिलता। तथा मुसलमानोंके बाद उस मन्दिरका जीर्णोद्धार राजा भीमदेव, सिद्धराज और कुमारपालने कराया, जो सब जैन थे। इन सब बातोंपरसे फर्ग्युसन सा० ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सोमनाथका मन्दिर जैन मन्दिर था। कलाकी तरह पुरातत्त्व शब्दका अर्थ भी बहुत व्यापक है। इतिहास आदिके निर्माणमें जिन साधनोंकी आवश्यकता होती है वे सभी पुरातत्त्वमें गर्भित हैं। अतः प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, गुफाओं और स्तम्भोंकी तरह प्राचीन शिलालेखों और शास्त्रोंको भी पुरातत्त्वमें सम्मिलित किया जा सकता है। - श्रवणबेलगोला (मैसूर) में बहुतसे शिलालेख अंकित हैं। मैसूर पुरातत्त्व विभागके तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहबने श्रवणबेलगोलाके १४४ शिलालेखोंका संग्रह प्रकाशित किया था। इसकी भूमिकामें उन्होंने इन लेखोंके ऐतिहासिक महत्त्वकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया और चन्द्रगुप्त मौर्य तथा भद्रबाहुके पारस्परिक सम्बन्धका विवेचन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यने भद्रबाहुसे जिनदीक्षा ली थी तथा शि० लेख नं०१ उन्हींका स्मारक है। ____उक्त संग्रहका दूसरा संस्करण रावबहादुर आर० नरसिंहाचायने रचकर प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने ५०० शिलालेखोंका संग्रह किया है व भूमिकामें उनके ऐतिहासिक महत्त्वका विवेचन किया है। किन्तु ये संग्रह कनड़ी व रोमन लिपिमें हैं अतः उक्त लेखोंका एक देवनागरी संस्करण प्रो० हीरालाल तथा श्रीविजयमूर्ति आदिसे सम्पादित कराके श्री नाथूरामजी प्रेमीने प्रकाशित किया है। इसी तरह आबू देवगढ़ आदिमें भी अनेक शिलालेख मूर्तिलेख वगैरह पाये जाते हैं। भारतीय इतिहासके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खण्डगिरि उदयगिरिसे प्राप्त जैन शिलालेखकी चर्चा पहले की जा चुकी है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म २८४ इस तरह जैनोंने बहुसंख्यक शिलालेखों, प्रतिमालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रन्थ प्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गुर्वावलियों, राजवंशावलियों और ग्रन्थोंके रूपमें विपुल ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की है। स्व ० वैरिस्टर श्री का० प्र० जायसवालने अपने एक लेखमें लिखा था- 'जैनोंके यहाँ कोई २५०० वर्षकी संवत् गणनाका हिसाब हिन्दुओं भरमें सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समय में ऐतिहासिक परिपाटीकी वर्षगणना हमारे देशमें थी । जब वह और जगह लुप्त और नष्ट हो गयी, तब केवल जैनोंमें बच रही । जैनोंकी गणनाके आधारपर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत-सी घटनाओंको जो बुद्ध और महावीरके समय से इधर की हैं, समयबद्ध किया और देखा कि उनका ठीक मिलान सुज्ञात गणनासे मिल जाता है । कई एक ऐतिहासिक बातोंका पता जैनोंकी ऐतिहासिक लेख पट्टावलियों में ही मिलता है।' १. जैन साहित्य संशोधक, खं १, पृ० २११ | Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सामाजिक रूप १. जैनसंघ मुनि आर्यिका और श्रावक श्राविका, इनके समुदायको जैनसंघ कहते हैं। मुनि और आर्यिका गृहत्यागी वर्ग है और श्रावक श्राविका गृही वर्ग है। जैनसंघमें ये दोनों वर्ग बराबर रहते हैं। जब ये वर्ग नहीं रहेंगे तो जैनसंघ भी नहीं रहेगा, और जब जैनसंघ नहीं रहेगा तब जैनधर्म भी न रहेगा । यद्यपि ये दोनों वर्ग जुदे-जुदे हैं, फिर भी परस्परमें इन दोनोंका ऐसा गठबन्धन बनाये रखनेका प्रयत्न किया गया है। कि दोनों एक दूसरेसे जुड़े नहीं हो सकते और दोनोंका परस्परमें एक दूसरेपर नियंत्रण या प्रभाव जैसा कुछ बना रहता है । हिन्दूधर्मके साधुसन्तोंपर जैसे उनके गृहस्थोंका कुछ भी अंकुश नहीं रहता, वैसी बात जैनसंघमें नहीं है। यहाँ शीलभ्रष्ट और कदाचारी साधुओंपर बराबर निगाह रखी जाती है और किसीकी स्वच्छन्दता अधिक दिनों तक नहीं चल पाती । आज तो संघव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी है और साधुओंमें भी नियमनका अभाव हो गया है, किन्तु पहले यह बात न थी । पहले आचार्यको स्वीकृति और अनुज्ञाके बिना कोई साधु अकेला बिहार नहीं कर सकता था । और अकेले विहार करनेकी आज्ञा उसे ही दी जाती थी जिसे चिरकालके सहवाससे परख लिया जाता था। मुनि दीक्षा भी हरेकको नहीं दी जाती थी। पहले उसे संघ में रखकर परखा जाता था और यह जाननेका प्रयत्न किया जाता था कि वह किसी गार्हस्थिक, राजकीय या अन्य किसी कारणसे घर छोड़कर तो नहीं भागा है । यदि उसके चित्तमें वस्तुतः वैराग्यभावना प्रबल होती थी तो उसे सर्वसंघके समक्ष जिनदीक्षा दी जाती थी। साधुसंघमें एक प्रधान आचार्य Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैनधर्म होते थे और कुछ अवान्तर आचार्य होते थे । वे सब मिलकर संघका नियमन करते थे । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानकी ओर साधुवर्गका खास तौर से ध्यान दिलाया जाता था । प्रत्येक साधुके लिए यह आवश्यक था कि वह अपने अपराधोंकी आलोचना आचार्यके सन्मुख करे और आचार्य जो प्रायश्चित्त दें उसे सादर स्वीकार करे । प्रतिदिन प्रत्येक साधु प्रातःकाल उठकर अपनेसे बड़ोंको नमस्कार करता था और जो रोगी या असमर्थ साधु होते थे उनकी सेवा-शुश्रूषा करता था । इस सेवा-शुश्रूषा या वैयावृत्यका जैनशास्त्रों में बड़ा महत्त्व बतलाया है और इसे आभ्यन्तर तप कहा है । इसी प्रकार आर्यिकाओंकी भी व्यवस्था थी । दोनोंका रहना वगैरह बिल्कुल जुदा होता था। किसी साधुको आर्यिकासे या आर्यिका - को साधुसे एकान्तमें बातचीत करनेकी सख्त मनाई थी, और निश्चित दूरीपर बैठनेका आदेश था । साधुवर्ग राजकाजसे कोई सरोकार नहीं रख सकता था । साधुके जो दस कल्प- अवश्य करने योग्य आचार बतलाये हैं उनमें साधुके लिए राजपिण्ड - राजाका भोजन ग्रहण न करना भी एक आचार है । राजपिण्ड ग्रहण करनेमें अनेक दोष बतलाये हैं। हिन्दू धर्म में धार्मिक क्रियाकाण्ड और धार्मिक शास्त्रोंके अध्ययन अध्यापनके लिये एक वर्ग हो जुदा होनेसे हिन्दू धर्मके अनुयायी गृहस्थ अपने धर्मके ज्ञानसे तो एक तरह से शून्यसे ही हो गये और आचार में केवल ऊपरी बातोंतक ही रह गये । किन्तु जैनधर्म में ऐसा कोई वर्ग न होनेसे और शास्त्र स्वाध्याय तथा व्यक्तिगत सदाचरणपर जोर होनेसे सब श्रावक और श्राविकाएँ जैनधर्मके ज्ञान और आचारणसे वंचित नहीं हो सके । फलतः साधु और आर्यिकाओंके आचारमें कुछ भी त्रुटि होनेपर वे उसको झट आँक लेते थे। ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकयुगमें मुनियोंमें शिथिलाचार कुछ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप २८७ बढ़ चला था और लोगों में मुनियोंकी ओरसे यहाँतक अरुचि - सी हो चली थी कि श्रावक उन्हें भोजन भी नहीं देते थे । अतः उस समय सोमदेव सूरि और पं० आशाधरजीको अपने-अपने श्रावकाचारमें गृहस्थोंकी इस कड़ाईका विरोध करना पड़ा था। सोमदेवसूरि लिखते हैं "भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ॥” – उपासका० । अर्थात् — “आहारमात्र देनेमें मुनियोंकी क्या परीक्षा करते हो ? वे सज्जन हों या असज्जन हों, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता ही हैं । " पं० आशाधरजी लिखते हैं “विन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत् कुतः श्रेयोऽतिचचिनाम् ॥” - सागरघर्मा ०। अर्थात् – “जैसे प्रतिमाओंमें तीर्थङ्करोंकी स्थापना करके उन्हें पूजते हैं वैसे ही इस युगके साधुओंमें प्राचीन मुनियोंकी स्थापना करके भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करना चाहिये । जो लोग ज्यादा क्षोदक्षेम करते हैं उनका कल्याण कैसे हो सकता है ?" गृहस्थोंकी इस जागरूकताके फलस्वरूप ही जैनधर्म में अनाचारकी वृद्धि नहीं हो सकी और न उसे प्रोत्साहन ही मिल सका। जैन गृहस्थोंमें सदासे शास्त्रमर्मज्ञ विद्वान् होते आये हैं । जिन विद्वानोंने बड़े-बड़े प्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएँ की हैं वे सभी जैन गृहस्थ थे। उन्होंने अपने सम्प्रदायमें फैलनेवाले शिथिलाचारका भी डटकर विरोध किया था, जिसके फलस्वरूप एक नया सम्प्रदाय बन गया और शिथिलाचारके सर्जकोंका लोप ही हो गया । जैनसंघ में स्त्रियों को भी आदरणीय स्थान प्राप्त था। दिगम्बर सम्प्रदाय यद्यपि स्त्री-मुक्ति नहीं मानता फिर भी आर्यिका और श्राविकाओंका बराबर सन्मान करता है और उन्हें बहुत ही आदर और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता है। जैनसंघमें विधवा Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनधर्म को जो अधिकार प्राप्त हैं वे हिन्दूधर्ममें नहीं हैं। जैन सिद्धान्तके अनुसार पुत्ररहित विधवा स्त्री अपने पतिकी तरफसे सम्पत्तिकी मालकिन हो सकती है, अपने मृत पति तथा उसके उत्तराधिकारियोंकी सम्मतिके बिना दत्तक ले सकती है। जैनसंघमें चारों वर्णके लोग सम्मिलित हो सकते थे। शूद्रको भी धर्मसेवनका अधिकार था । जैसा कि लिखा है'शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुशुद्धयाऽस्तु तादृशः । जात्या होनोऽपि कालादिलब्धौ ह्मात्माऽस्ति धर्मभाक ॥२२॥' -सागारधर्मा० । अर्थात्-'उपकरण, आचार और शरीरकी शुद्धि होनेसे शूद्र भी जैनधर्मका अधिकारी हो सकता है क्योंकि काललब्धि आदिके मिलनेपर जातिसे हीन आत्मा भी धर्मका अधिकारी होता है।' . किन्तु मुनिदीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण माने गये हैं। किसी 'किसी आचार्यने तीनों वर्णोंको परस्परमें विवाह और खानपान करनेकी भी अनुज्ञा दी है। यह बात जैनसंघकी विशेषताको बतलाती है कि अहिंसा अणुव्रतका पालन करनेवालोंमें जैनशास्त्रोंमें यमपाल चण्डालका नाम वड़े आदरसे लिया गया है । स्वामी समन्तभद्रने यहाँतक लिखा है "सन्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥२८॥" -रत्नकरण्ड श्रा। अर्थात्-"सम्यग्दर्शनसे युक्त चण्डालको भी जिनेन्द्रदेव राखसे ढके हुए अङ्गारके समान (अन्तरंगमें दीप्तिसे युक्त) देव मानते हैं।" __ जैनसंघकी एक दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्रत्येक जैनको अपने साधर्मी भाईके प्रति वैसा ही स्नेह रखनेकी हिदायत है जैसा स्नेह गौ अपने बच्चेसे रखती है। तथा यदि कोई साधर्मी किसी कारणवश धर्मसे च्युत होता था तो जिस १. 'परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पंक्तिभोजनम्' । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ २८९ सामाजिक रूप उपायसे भी बने उस उपायसे उसे च्युत न होने देनेका प्रयत्न किया जाता था और यह सम्यक्त्वके आठ अंगोंमेंसे था। साथ ही साथ किसी भी साधर्मीका अपमान न करनेको सख्त आज्ञा थी, जैसा कि लिखा है "स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविना ॥२६॥" रत्नकरण्ड श्रा०। 'जो व्यक्ति घमंडमें आकर अन्य धर्मात्माओंका अपमान करता है वह अपने धर्मका अपमान करता है, क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्म नहीं रहता।' इस तरह जैनसंघकी विशालता, उदारता और उसकी संगठन-शक्तिने किसी समय उसे बड़ा बल दिया था और उसीका यह फल है कि बौद्धधर्मके अपने देशसे लुप्त हो जानेपर भी जैनधर्म बना रहा और अबतक कायम है। किन्तु अब वे बातें नहीं रहीं । लोगोंमें साधर्मी-वात्सल्य लुप्त होता जाता है, अहंकार बढ़ता जाता है, और किसीपर किसीका नियंत्रण नहीं रहा है । इसीलिए वह संगठन भी अब शिथिल होता जाता है। २. संघभेद जैन तीर्थङ्करोंने धर्मका उपदेश किसी सम्प्रदायविशेषकी दृष्टि से नहीं किया था। उन्होंने तो जिस मार्गपर चलकर स्वयं स्थायी सुख प्राप्त किया, जनताके कल्याणके लिये ही उसका प्रतिपादन किया। उनके उपदेशके सम्बन्धमें लिखा है "अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥८॥" रत्नकरंड श्रा० । अर्थात्-'तीर्थङ्कर बिना किसी रागके दूसरोंके हितका उपदेश देते हैं। शिल्पीके हाथके स्पर्शसे शब्द करनेवाला मृदङ्ग क्या कुछ अपेक्षा करता है ? अर्थात् जैसे शिल्पीका हाथ पड़ते ही मृदङ्गसे ध्वनि निकलती Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जैनधर्म है वैसे ही श्रोताओंकी हितकामनासे प्रेरित होकर वीतरागके द्वारा हितोपदेश दिया जाता है । इसीलिए उनका उपदेश किसी वर्गविशेप या जातिविशेपके लिए न होकर प्राणिमात्रके लिए होता है । उसे सुननेके लिए मनुष्य-देव, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सभी आते हैं। और अपनी-अपनी रुचि, श्रद्धा और शक्तिके अनुसार हितकी बात लेकर चले जाते हैं । किन्तु जो लोग उनकी बातोंको स्वीकार करते हैं और जो स्वीकार नहीं करते, वे दोनों परस्परमें बँट जाते हैं और इस तरहसे सम्प्रदाय कायम हो जाता है । ___भगवान महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले भगवान् पार्श्वनाथ हो चुके थे। भगवान महावीरके समयमें भी उनके अनुयायी मौजूद थे। उन्हीं में से भगवान महावीरके माता-पिता थे। भगवान महावीरने भी उसी मार्गपर चलकर तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया और उसी मार्गका उपदेश किया। इस तरहसे उनके समयमें समस्त जैनसंघ अभिन्न था। और आगे भी अभिन्न रहा। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें मगधमें जो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, उसने संघभेदको जन्म दिया। दिगम्बरोंकी मान्यताके अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा । उस समय जैन साधुओंकी संख्या बहुत ज्यादा थी। सवको भिक्षा नहीं मिल सकती थी। इस कारण बहुतसे निष्ठावान् दृढ़व्रती साधु श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथ दक्षिण भारतको चले गये और शेष स्थूलभद्रके साथ वहीं रह गये। स्थूलभद्रके आधिपत्यमें रहनेवाले साधुओंने सामयिक परिस्थितियोंसे पीड़ित होकर वस्त्र, पात्र, दण्ड वगैरह उपाधियोंको स्वीकार कर लिया। जब दक्षिणको गया साधुसंघ लौटकर आया और उसने वहाँके साधुओंको वस्त्र, पात्र वगैरहके साथ पाया तो उन्होंने उनको समझाया। मगर वे माने नहीं, फलतः संघभेद हो गया । नग्नताके पोषक साधु दिगम्बर कहलाये और वस्त्र-पात्रके पोषक साधु श्वेताम्बर कहलाये। श्वेताम्बरोंकी मान्यताके अनुसार मगधमें दुर्भिक्ष पड़नेपर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप २९१ भद्रबाहु स्वामी नेपालकी ओर चले गये थे। जब दुर्भिक्ष हटा और पाटलीपुत्रमें बारह अंगोंका संकलन करनेका आयोजन किया गया तो भद्रबाहु उसमें सम्मिलित नहीं हो सके । फलतः भद्रबाहु और संघ के साथ कुछ खींचातानी भी हो गयी जिसका वर्णन आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्व में किया है । इसी घटनाको लक्ष्यमें रखकर डा० हर्मन जेकोवीने जैनसूत्रोंकी अपनी प्रस्तावना में लिखा है 'पाटलीपुत्र में भद्रबाहुकी अनुपस्थितिमें ग्यारह अंग एकत्र किये गये थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही भद्रबाहुको अपना आचार्य मानते हैं। ऐसा होनेपर भी श्वेताम्बर अपने स्थविरोंकी पट्टावली भद्रबाहुके नामसे प्रारम्भ नहीं करते किन्तु उनके समकालीन स्थविर सम्भूतिविजयके नामसे शुरू करते हैं । इससे यह फलित होता है कि पाटलीपुत्रमें एकत्र किये गये अंग केवल श्वेताम्बरोंके ही माने गये, समस्त जैनसंघ के नहीं' । इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि संघभेदका बीजारोपण उक्त समय में ही हो गया था । श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार प्रथम जिन श्रीऋषभदेवने और अन्तिम जिन श्रीमहावीरने तो अचेलक धर्मका ही उपदेश दिया । किन्तु बीच बाईस तीर्थङ्करोंने सचेल और अचेल दोनों धर्मोंका उपदेश दिया । जैसा कि पञ्चाशक में लिखा है P 'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो य ॥१२॥' और इसका कारण यह बतलाया है कि प्रथम और अन्तिम जिनके समय साधु वक्रजड़ होते थे - जिस तिस बहानेसे त्याज्य वस्तुओंका भी सेवन कर लेते थे । अतः उन्होंने स्पष्टरूपसे अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित धर्मका उपदेश दिया। इसके अनुसार पार्श्वनाथके समय के साधु सवन रहते थे और उनके महावीरके संघ में मिल जानेपर आगे चलकर शिथिलाचारको Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैनधर्म प्रोत्साहन मिला और श्वेताम्बर सम्प्रदायकी सृष्टि हुई। ऐसा कुछ विद्वानोंका मत है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदासजीने लिखा है 'श्रीपाश्र्वनाथ और श्रीवर्धमानके शिष्योंके २५० वर्षके दर. म्यान किसी भी समय पाश्वनाथके सन्तानीयोंपर उस समयके आचारहीन ब्राह्मण गुरुओंका असर पड़ा हो और इसी कारण उन्होंने अपने आचारोंमें से कठिनता निकालकर विशेष नरम और सुकर आचार बना दिये हों यह विशेष संभावित है। ४ x x पार्श्वनाथके बाद दीर्घ तपस्वी वर्धमान हुए। उन्होंने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि जहाँतक मेरा ख्याल है इस तरहका कठिन आचरण अन्य किसी धर्माचार्यने आचरित किया हो ऐसा उल्लेख आजतकके इतिहासमें नहीं मिलता। x x x वर्धमानका निर्वाण होनेसे परमत्याग मार्गके चक्रवर्तीका तिरोधान हो गया और ऐसा होनेसे उनके त्यागी निम्रन्थ निर्नायकसे हो गये। तथापि मैं मानता हूँ कि वर्धमानके प्रतापसे उनके बादको दो पीढ़ियोंतक श्रीवर्धमानका वह कठिन त्यागमार्ग ठीकरूपसे चलता रहा था। यद्यपि जिन सुखशीलियोंने उस त्यागमार्गको स्वीकारा था उनके लिए कुछ छुटे रखी गयी थी और उन्हें ऋजुप्राज्ञके सम्बोधनसे प्रसन्न रखा गया था। तथापि मेरी धारणामें जब वे उस कठिनताको सहन करने में असमर्थ निकले, और श्रीवर्धमान, सुधर्मा और जम्बू जैसे समर्थ त्यागीकी छायामें वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकारकी चों पटाक किये बिना यथा तथा थोड़ी सी छूट लेकर भी वर्धमानके मार्गका अनुसरण करते थे। परन्तु इस समय वर्धमान, सुधर्मा या जम्बू कोई भी प्रतापी पुरुष विद्यमान न होनेसे उन्होंने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वरका आचार जिनेश्वरके निर्वाणके साथ ही निर्वाणको प्राप्त हो गया। x x मेरी मान्यतानुसार संक्रान्तिकालमें ही श्वेताम्बरता और दिगम्बरताका बीजारोपण हुआ है और जम्बू स्वामी Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप २९३ के निर्वाणके बाद इसका खूब पोषण होता रहा है। यह विशेष संभवित है । यह हकीकत मेरी निरी कल्पनामात्र नहीं है किन्तु वर्तमान प्रन्थ भी इसे प्रमाणित करनेके सबल प्रमाण दे रहे हैं। विद्यमान सूत्रग्रन्थों एवं कितनेक ग्रन्थोंमें प्रसङ्गोपात्त यही बतलाया गया है कि 'जम्बू स्वामोके निर्वाणके बाद निम्नलिखित दस बातें विच्छिन्न हो गयी हैं-मनः पर्ययज्ञान, परमावधिज्ञान, पुलाकलब्धि, आहारक शरीर, क्षपकश्रेणि, उपशमश्रेणी, जिनकल्प, तीन संयम, केवल ज्ञान और दसवाँ सिद्धिगमन ।' इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जम्बू स्वामीके बाद जिनकल्पका लोप हुआ बतलाकर अबसे जिनकल्पके आचरणको बन्द करना और उस प्रकारका आचरण करनेवालोंका उत्साह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेखमें अन्य कोई उद्देश मुझे मालूम नहीं देता। x x जम्बू स्वामीके निवाणके वाद जो जिनकल्प विच्छेद होनेका वनलेप किया गया है और उसकी आचरणा करनेवालोंको जिनाज्ञा बाहर समझनेकी जो स्वार्थों एवं एकतरफी दम्भी धमकीका ढिढोरा पीटा गया है बस इसीमें श्वेताम्बरता और दिगम्बरताके विषवृक्ष की जड़ 'समायी हुई है।" ___यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय यह नहीं मानता कि बीचके २२ तीर्थङ्करोंने सचेल और अचेल धर्मका निरूपण किया था। वह तो सब तीर्थङ्करोंके द्वारा अचेल मार्गका ही प्रतिपादन होना मानता है । फिर भी पं० वेचरदासजीके उक्त विवेचनसे संघ भेदके मूलाकारणपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। श्वेताम्बर साहित्यमें दिगम्बरोंकी उत्पत्तिके विषयमें एक कथा मिलती है जिसका आशय इस प्रकार है-"रथवीरपुरमें शिवभूति नामका एक क्षत्रिय रहता था। उसने अपने राजाके लिए अनेक युद्ध जीते थे इसलिए राजा उसका खूब सन्मान १. जनसाहित्यमें विकार पृ० ८७-१०५ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैनधर्म करता था। इससे वह बड़ा घमण्डी हो गया था। एक बार शिवभूति बहुत रात गये घर लौटा। माँ ने फटकारा और द्वार नहीं खोला । तब वह एक मठमें पहुँचा और साधु हो गया। जब राजाको इस बातकी खबर मिली तो उसने उसे एक बहुमूल्य वस्र भेंट किया। आचार्य ने उस वस्त्रको लौटा देनेकी आज्ञा दी। किन्तु शिवभूतिने नहीं लौटाया । तब आचार्यने उस वस्त्र के टुकड़े करके उनके आसन बना डाले। इसपर शिवभूति खूब क्रोधित हुआ और उसने प्रकट किया कि महावीरकी तरह मैं भी वस्त्र नहीं पहरूँगा। ऐसा कह उसने सब वस्त्रोंका त्याग कर दिया । उसकी बहिनने भी उसका अनुकरण किया। स्त्रियोंको नग्न न रहना चाहिये ऐसा मत शिवभूतिने तब जाहिर किया। और यह भी जाहिर किया कि स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती। इस तरह महावीर निर्वाणके ६०९ वर्प वाद बोटिकोंको उत्पत्ति हुई और उनमेंसे दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ।" दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताके अनुसार भी श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति विक्रम राजाकी मृत्युके १३६ वें वर्पमें हुई है। दोनोंमें सिर्फ ३ वर्पका अन्तर होनेसे दोनोंकी उत्पत्तिका काल तो लगभग एक ही ठहरता है । रह जाती है कथाकी बात । सो महावीरके द्वारा प्रतिपादित और आचरित दिगम्बरधर्म उनके बाद एक दम लुप्त हो जाय और फिर एक ऋद्ध साधुके नंगे हो जाने मात्रसे चल पड़े और इतने विस्तृत और स्थायी रूपमें फैल जाय, यह सब कल्पनाकी वस्तु हो सकती है, किन्तु वास्तविकता इससे दूर है। जो श्वेताम्बर विद्वान इस कथाको ठीक समझते हैं वे भी इस बातको मानते हैं कि पहले साधु नग्न रहते थे फिर धीरे-धीरे परिग्रह बढ़ा। ___ उदाहरणके लिए श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजयजीके शब्द ही हम यहाँ उद्धृत करते हैं___ "आयरक्षितके स्वर्गवासके बाद धीरे-धीरे साधुओंका निवास बस्तियोंमें होने लगा और इसके साथ ही नग्नताका Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप २६५ भी अन्त होता गया। पहले बस्तीमें जाते समय बहुधा कटिबन्धका उपयोग होता था। वह बस्तीमें बसनेके बाद निरन्तर होने लगा। धीरे-धीरे कटि वस्त्रका भी आकार प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीरका गुह्य अंग ही ढकनेका विशेष ख्याल रहता था पर बादमें सपूर्ण नग्नता ढाँक लेनेकी जरूरत समझी गयी और इसके लिए वस्त्रका आकार प्रकार भी बदलना पड़ा।" उपधियोंकी संख्यामें जिस क्रमसे वृद्धि हुई उसे भी मुनि कल्याण विजयजीके ही शब्दोंमें पढ़ें___ "पहले प्रतिव्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था। पर आर्यरक्षित सूरिने वर्षाकालमें एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोंकी वृद्धि हुई। परिणाम म्वरूप स्थविरोंके कुल १४ उपकरणोंकी वृद्धि हुई जो इस प्रकार है१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमानिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८, ९ दो चादर, १० ऊनी वस्त्र (कम्बल), ११ रजोहरण, १२ मुखपट्टी, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक। यह उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण बढ़ाये गये वे औपप्रहिक कहलाये। औपग्रहिक उपधिमें संस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और वंड ये खास उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैन मुनि रखते हैं।" ___ एक ओर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तरह साधुओंकी उपधिमें वृद्धि होती गयी, दूसरी ओर आचारांगमें जो अचेलकताके प्रतिपादक उल्लेख थे उन्हें जिनकल्पीका आचार करार दे दिया गया और जिन कल्पका विच्छेद होनेकी घोषणा करके महा. १. श्रमण भगवान महावीर । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनधर्म वीरके अचेलक मार्गको उठा देनेका ही प्रयास किया गया। तथा उत्तरकालमें साधूके वसपात्रका समर्थन बड़े जोरसे किया गया, यहाँ तक कि नग्न विचरण करनेवाले महावीरके शरीरपर इन्द्रद्वारा देवदृष्य डलवाया गया । जैसा कि पं० वेचरदासजीने भी लिखा है___ "इस समाजके कुल गुरुओंने अपने पसन्द पड़े वस्त्रपात्र वादके समर्थनके लिए पूर्वके महापुरुषोंको भी चीवरधारी बना दिया है और श्रीवर्द्धमान महाश्रमणकी नग्नता न देख पड़े इस प्रकारका प्रयत्न भी किया है । इस विषयके ग्रंथ लिखकर 'वस्त्रपात्र' वादको ही मजबूत बनानेकी वे आजतक कोशिश कर रहे हैं। उनके लिए आपवादिक माना हुआ 'वस्त्र-पात्र' वादका मार्ग औत्सर्गिक मार्गके समान हो गया है। वे इस विषयमें यहाँतक दौड़े हैं कि चाहे जैसे अगम्य जंगलमें, भीषण गुफामें या चाहे जैसे पर्वतके दुर्गम शिखरपर भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुए पुरुष वा स्त्रीको जैनी दीक्षाके लिए शासनदेव कपड़े पहनाता है और वस्त्रके बिना केवलज्ञानीको अमहानती तथा अचारित्री कहते तक भी नहीं हिचकिचाये। कोई मुनी वस्त्ररहित रहे ये बात उन्हें नहीं रुचती । इनके मतसे वस्त्र पात्रके बिना किसीकी गति ही नहीं होती।" दूसरी ओर दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट घोषणा कर दी थी 'ण' वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ अर्थात्-'जिनशासनमें तीर्थङ्कर ही क्यों न होय यदि वह वस्त्रधारी है तो सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता। नग्नता ही मोक्ष १. इसके लिए पाठकोंको लेखकका लिखा हुआ 'भगवान महावीरका अचेलक धर्म' नामक ट्रैक्ट देखना चाहिए । २. षट् प्राभृ० ६७ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप २९७ का मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं।' साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा 'नग्गो पावइ दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ । नग्गो न लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ॥३८॥ अर्थात्-'जिन भावनासे रहित नग्न दुःख पाता है, संसाररूपी सागरमें भटकता है और उसे ज्ञानलाभ नहीं होता।' इस तरह एक ओरके शिथिलाचार ओर दूसरी ओरकी दृढ़ताके कारण संघभेदके बीजमें अंकुर फूटते गये और धीरे-धीरे उन्होंने वृक्ष और महावृक्षका रूप धारण कर लिया। प्रारम्भमें श्वेताम्बरता और दिगम्बरताका यह झगड़ा सिर्फ मुनियों तक ही था, क्योंकि उन्हींकी नग्नता और सवस्त्रताको लेकर यह उत्पन्न हुआ था। किन्तु आगे श्रावकोंकी भी क्रियापद्धतिमें उसे सम्मिलित करके श्रावकोंमें भी झगड़ेके बीच बो दिये गये जो आज तीर्थक्षेत्रोंके रूपमें अपने विषफल दे रहे हैं। इस बातके प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन कालमें दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओंका भेद नहीं था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओंको पूजते थे। मुनि जिन विजयजीने ( जैन हितैषी भाग १३, अंक ६ में) लिखा है "मथुराके कंकाली टीलामें जो लगभग दो हजार वर्षकी प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख है वे श्वेताम्बर कल्पसूत्रकी स्थविरावलोके अनुसार हैं।" - इसके सिवा १७ वीं शताबीके श्वेताम्बर विद्वान पं० धर्मसागर उपाध्यायने अपने प्रवचनपरीक्षा नामक ग्रन्थमें लिखा है___ "गिरनार और शत्रुजयपर एक समय दोनों सम्प्रदायोंमें झगड़ा हुआ और उसमें शासन देवताकी कृपासे दिगम्बरोंकी पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका १. षट् प्राभृता० पृ० २११ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनधर्म अधिकार सिद्ध हो गया, तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा न हो सके इसके लिए श्वेताम्वरसंघने यह निश्चय किया कि अबसे जो नयी प्रतिमाएँ बनवायी जाँय, उनके पादमूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाय । यह सुनकर दिगम्बरियोंको क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना शुरू कर दिया। यही कारण है कि सम्प्रति राजा आदिकी वनवायी हुई प्रतिमाओंपर वस्त्रलांछन नहीं है और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं है।" इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पहले दोनोंकी प्रतिमाओंमें भेद नहीं था। परन्तु अब तो दोनोंकी प्रतिमाओंमें इतना अन्तर पड़ गया है कि उसे देखनेसे आश्चर्य होता । पं० बेचरदासजीने लिखा है “यह सम्प्रदाय (श्वे० सम्प्रदाय ) कटोरा कटिसूत्रवाली मूर्तिको ही पसन्द करता है उसे ही मुक्तिका साधन समझता है। वीतराग संन्यासी-फकीरकी प्रतिमाको जैसे किसी बालकको गहनोंसे लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणोंसे शृंगारित कर उसकी शोभामें वृद्धि की समझता है। और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतरागकी मूर्तिको विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घड़ी वगैरहसे सुसज्जित कर उसका खिलौने जितना भी सौन्दर्य नष्ट करके अपने मानवजन्मकी सफलता समझता है।" ___ इस तरह परस्परकी खींचातानी के कारण जैनसंघमें जो भेद पड़ा वह भेद उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और उसीके कारण आगे जाकर दोनों सम्प्रदायोंमें भी अनेक अवान्तर पन्थ उत्पन्न होते गये। १. इस तरहके अन्य प्रमाणोंके लिये 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० २४१ से आगे देखें। २. 'जैन साहित्यमें विकार' Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ सामाजिक रूप २९९ ३. सम्प्रदाय और पन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके उपलब्ध साहित्यके आधारसे यह पता चलता है कि विक्रमकी दूसरी शताब्दीमें विशाल जनसंघ स्पष्टरूपसे दो भागों में विभाजित हो गया और इस विभागका मूल कारण साधुओंका वस्त्र परिधान था । जो पभ साधुओंकी नग्नताका पक्षपाती था और उसे ही महावीरका मूल आचार मानता था वह दिगम्बर कहलाया । इमको मूलसंघ नामसे भी कहा है । और जो पक्ष वस्त्रपात्रका समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया। दिगम्बर शब्दका अर्थ है-दिशा ही जिनका वस्त्र हैं, अर्थात् नग्न । और श्वेताम्बर शब्दका अर्थ है-सफेद वस्त्रवाला। इस तरह प्रारम्भमें यद्यपि साधुओंके वस्त्रपरिधानको लंकर ही संघभेद हुआ किन्तु बादको उसमें भेदकी अन्य भी मामग्री जुटती गयी और धीरे-धीरे दोनों सम्प्रदायोंमें भी अनेक अवान्तर पन्थ पैदा हो गये। किन्तु भदके कारणोंपर दृष्टिपात करनेसे पता चलता है कि जैनधर्मके विभिन्न सम्प्रदायांमें नात्विक दृष्टिसे भेद नहीं है, बल्कि जो कुछ भेद है वह अधिकांशमें व्यावहारिक दृष्टिसे ही है। सभी जैन मम्प्रदाय और पन्थ अहिंसा और अनेकान्तवादके अनुयायी हैं, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, संसार आदिके स्वरूपके विपय में उनमें कोई भेद नहीं है। सातों तत्वोंका स्वरूप सभी एकमा मानते हैं. कुछ परिभाषाओं वगैरहको छोड़कर कर्मसिद्धान्तमें भी कोई मार्मिक भेद नहीं है। फिर भी जो भेद है वह एमा है जो मिटाया नहीं जा सकता। किन्तु उस भेदके कारण जो दिलोंमें भंदकी दीवार खड़ी हो चुकी है वह अवश्य गिरायी जा सकती है। अन्तु, प्रत्येक सम्प्रदाय और उसके अवान्तर पन्थोंका परिचय निम्न प्रकार है १. दिगम्बर सम्प्रदाय दिगम्बर सम्प्रदायके साधु नग्न रहते हैं। वे जीव जन्तु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनधर्म को दूर करने के लिए मोरपंखकी एक पीछी रखते हैं और मलमूत्र वगैरह की बाधाके लिये एक कमण्डलु रखते हैं, जिसमें प्रासुक जल रहता है। वे दिन में एकबार खड़े होकर अपने हाथमें ही भोजन कर लेते हैं इसलिए उन्हें भोजनके लिये पात्रकी आवश्यकता नहीं होती। दिगम्बर साधुका यह स्वरूप प्रारम्भसे प्रायः ऐसा ही चला आता है, उसमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है। किन्तु आचारग्रन्थोंमें जो कहा है कि मुनियोंको वस्तीसे बाहर उद्यानों या शून्य गृहोंमें रहना चहिये, इसमें अवश्य शिथिलता आयो । मुनियोंने वनोंको छोड़कर धीरे-धीरे नगरों में रहना प्रारम्भ कर दिया। तभी तो ईसाकी नौंवों शतीके जैनाचार्य गुणभद्रने मुनियोंकी इस प्रवृत्तिपर खेद प्रकट करते हुए लिखा है कि 'जैसे रात्रिमें इधर-उधरसे भयभीत मृग ग्रामके समीप में आ बसते हैं वैसे ही इस कलिकालमें तपस्वीजन भी वनोंको छोड़कर ग्रामोंमें आ बसते हैं यह बड़ी दुःखद बात हैं।' धीरे धीरे यह शिथिलाचार बढ़ता रहा और परिस्थितियों तथा मनुष्यकी स्वभाविक दुर्बलताओंसे उसे बराबर प्रोत्साहन मिला । तभी तो शिवकोटि आचार्यके नामसे प्रसिद्ध की गयी रत्नमालामें कलिकालमें मुनियोंको वनवास छोड़कर जिन मन्दिरोंमें रहनेका स्पष्ट विधान किया गया है। इसे ही चैत्यवास कहते हैं। इसीसे श्वेताम्बरोंमें चैत्यवासी सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई थी। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें इस नामके सम्प्रदायका तो कोई उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी यह निश्चित है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी वह था और उसीका विकसित १. 'इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥२९७॥' -आत्मानु० । २. 'कलो काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमः । स्थीयते च जिनागारे प्रामादिषु विशेषतः ॥२१॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३०१ एकरूप भट्टारकपद है जिसके विरोधमें तेरह पन्थका उदय हुआ। दिगम्बर सम्प्रदायमें संघभेद पिछले साहित्यमें दिगम्बर सम्प्रदायके लिए 'मूलसंघ' शब्दका व्यवहार बहुतायतसे पाया जाता है। दिगम्बर सम्प्रदाय या मूलसंघमें आगे चलकर अनेक भेद-प्रभेद हो गये । आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि पुण्ड्रवर्धनपुरमें अर्हद्बलि नामके आचार्य हो गये हैं। वे पाँच वर्षके अन्तमें सौ योजनमें वसनेवाले मुनियोंको एकत्र करके युगप्रतिक्रमण किया करते थे। एक बार युगके अन्तमें इसी प्रकार युगप्रतिक्रमणके लिए आये हुए मुनियोंसे उन्होंने पूछा कि क्या सब मुनि आ गये ? तब उन्होंने उत्तर दिया-'हाँ, भगवन् ! हम सब अपने अपने संगसहित आ गये ।' यह सुनकर आचार्यने विचार किया कि अब यह जैनधर्म गणपक्षपातके सहारे ठहर सकेगा, उदासीन भावसे नहीं । तब उन्होंने संघ या गण स्थापित किये। जो मुनि गुहाओंसे आये थे उनमेंसे कुछको 'नन्दि' और कुछको 'वीर' नाम दिया, जो अशोक वाटिकासे आये थे उनमेंसे कुछको 'अपराजित' और कुछको 'देव' नाम दिया, जो मुनि पञ्चस्तूप्य निवाससे आये थे उनमेंसे कुछको 'सेन' और कुछको 'भद्र' नाम दिया, जो मुनि, शाल्मलि महावृक्षके मूलसे आये थे, उनमेंसे कुछको 'गुणधर' और कुछको 'गुप्त' नाम दिया, जो खण्डकेसर वृक्षोंके मूलसे आये थे, उनमेंसे कुछको 'सिंह' और कुछको 'चन्द्र' नाम दिया। १. आचार्य इन्द्रनन्दिने इम विषयमें 'उक्तं च' करके एक श्लोक उद्धृत किया है जो इस प्रकार है "आयातो नन्दिवीरो प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतिपो सेनभद्राह्वयो च । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म इन नामोंके विषय में कुछ मतभेद भी है, जिसका उल्लेख भी आचार्य इन्द्रनन्दिने किया है । कुछके मतसे जो गुहाओंसे आये थे उन्हें 'नन्द्रि', जो अशोकवनसे आये थे उन्हें 'देव', जो पञ्चस्तृपोंसे आये थे उन्हें 'सेन', जो शाल्मलि वृक्षके मूलसे आये थे उन्हें 'वीर', और जो खण्डकैंसर वृक्षोंके मूलसे आये थे उन्हें 'भद्र' नाम दिया गया। कुछके मतसे गुहावासी 'नन्दि', अशोकवनसे आनेवाले 'देव', पञ्चस्तूपवासी 'सेन', शाल्मलि वृक्षवाले 'वीर' और खण्डकेसरवाले 'भद्र' और 'सिंह' कहलाये । इन मतभेदोंसे मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दिको भी इस संघभेदका स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसीलिए इस बातका भी पता नहीं चलता कि अमुकको अमुक संज्ञा ही क्यों दी गयी । इन सब संज्ञाओं में नन्दि सेन, देव और सिंह नाम ही विशेष परिचित हैं। भट्टारक' इन्द्रनन्दि आदिने अर्हदुबलि आचार्यके द्वारा इन्हीं चार संघोंकी स्थापना किये जानेका उल्लेख किया है । ३०२ इन चार संघोंके भी आगे अनेक भेद-प्रभेद हो गये । साधारणतः संघोंके भेदोंको गण और प्रभेदों या उपभेदोंको गच्छ कहनेकी परम्परा मिलती है । कहीं-कहीं संघोंको गण भी कहा है, जैसे नन्दिगण, सेनगण आदि । कहीं-कहीं संघोंको 'अन्वय' भी कहा है, जैसे 'सेनान्वय' । गणोंमें बलात्कारगण, पञ्चस्तुप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शल्मलीवृक्षमूला निर्यात सिचन्द्र प्रथितगुणगणी केसरात्खण्डपूर्वात् ॥ ९६ ॥ | " १. 'तदैव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तिकाग्रणो । अर्हद्बलिगुरुश्चक्रे संघसंघट्टनं परम् ||६|| सिंहसंघो नन्दिसंघ : सेनसंघो महाप्रभः । देवसंघ इति स्पष्टं स्थानस्थितिविशेषतः ॥ ७॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः कोऽप्यस्ति प्रव्रज्यादिषु कर्मसु ॥८॥ " नीतिसार । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३०३ देशीयगण और काणूरगण इन तीन गणोंके और गच्छोंमें पुस्तकगच्छ, सरस्वतीगच्छ, वक्रगच्छ और तगरिलगच्छके उल्लेख पाये जाते हैं। इन संघ, गण और गच्छोंकी प्रत्रया आदि क्रियायोंमें कोई भेद नहीं है। किन्तु दर्शनसारमें कुछ ऐसे भी संघोंकी उत्पत्तिका उल्लेख किया है जिन्हें उसमें जैनाभास बतलाया गया है। वे संघ हैं-श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविण, माथुर और काष्ठा। इनमेंसे पहले दो संघोंका वर्णन आगे किया गया है, क्योंकि उनसे आचारके अतिरिक्त दिगम्बरोंका सिद्धान्तभेद भी है। शेष तीन जैनसंघ दिगम्बर सम्प्रदायके ही अवान्तर संघ हैं तथा उनके साथ कोई महत्त्वका सिद्धान्तभेद भी नहीं है। दर्शनसार' के अनुसार वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरामें द्राविड़ संघकी उत्पत्ति हुई। इसका संस्थापक आचार्य पूज्यपादका शिष्य वनन्दि था । इसकी मान्यता है कि बीजमें जीव नहीं रहता, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है। इसने ठण्डे पानीसे स्नान करके और खेती वाणिज्यसे जीवन निर्वाह करके प्रचुर पापका संचय किया। द्रविड़संघसे सम्बन्धित शिलालेख कोगाल्ववंशी शान्तरवंशी तथा होय्सलवंशी राजाओंके राज्यकालके मिले हैं जो प्रायः १०-११वीं शताब्दी या उसके बादके हैं। जिससे ज्ञात होता है कि उन वंशोंके नरेशोंका संरक्षण इस संघको प्राप्त था। इन लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि इस संघके आचार्योंने १. "सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्थो ॥२४॥ वीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि । सावज्ज ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अटुं ॥२६॥ कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्ज कारिऊण जीवंतो। गहतो सीयलणारे पावं पउरं समज्जेदि ॥२७॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनधर्म पद्मावती देवीकी पूजाके प्रसारमें बड़ा योग दिया था । कई लेखों में शान्तर और होय्सलवंशके राजाओंके द्वारा राज्य सत्ता पाने में पद्मावतीकी सहायता दिखाई गई है । लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के साधु वसदि या जैन मन्दिरोंमें रहते थे । उनका जीर्णोद्धार और ऋषियोंके आहारदान तथा भूमि जागीर आदिका प्रबन्ध करते थे। शायद इन्हीं कारणोंसे दर्शनसार में इस संघको जैनाभास कहा है । एक शिलालेख में इस संघको द्रविड़संघ कोण्डकुन्दान्वय तथा दूसरे में मूलसंघ द्रविड़ान्वय लिखा है । परन्तु ११वीं शताब्दीके उत्तरार्धके लेखोंमें इसका द्रविड़गणके रूपमें नन्दिसंघ असङ्गलान्वयके साथ उल्लेख है । इसपर से ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भमें द्रविडसंघने अपना आधार मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयको बनाया हो, पीछे यापनीय सम्प्रदाय के प्रभावशाली नन्दिसंघके अन्तर्गत हो गया हो और इसीसे दर्शनसार में उसे जैनाभास कहा हो । ११-१२ वीं शताब्दी में इस संघके मुनियोंकी गद्दियां कोङ्गाल्व राज्यके मुल्लूर तथा शान्तर राजाओंकी राजधानी हुम्मचमें थीं । हुम्मचसे प्राप्त लेखोंमें इस संघके अनेक आचार्योंका परिचय मिलता है । मूलसंघके गण, गच्छ एवं अन्वय मूलसंघ ४-५ वीं शताब्दीमें दक्षिण भारतमें विद्यमान था । देवगण, सेनगण, देशियगण, नन्दिगण, सूरस्थगग, क्राणूरगण, बलात्कारगण, आदि उसके अन्तर्गत थे । देशियगण का प्रसिद्ध गच्छ पुस्तकगच्छ था, उसीका दूसरा नाम वक्रगच्छ भी था । क्राणूरगणके दो प्रसिद्ध गच्छ थे - मेषपाषाणगच्छ और तिन्त्रिणीक गच्छ । १४ वीं शताब्दीके बाद क्राणूरगणका प्रभाव वलात्कारगणके प्रभावशाली भट्टारकों के आगे क्षीण हो गया। चूँकि - बलात्कारगणके आदिनायक पद्मनन्दि आचार्यने सरस्वतीको Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३०५ बलात्कारसे बुलाया था इसलिये बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ । १४ वीं शताब्दीके लेखोंसे इस गणका विशेष प्रभाव प्रकट होता है। एक लेखमें मृलसंघके साथ नन्दिसंघ, वलात्कारगण और सारस्वत गच्छका उल्लेख है। तथा इस गणके आदि आचार्य के रूपमें पद्मनन्दिका नाम लिखा है और उनके कुन्दकुन्द वक्रग्रीव, एलाचार्य गृद्धपिच्छ नाम दिये हैं। काष्ठासघ ___ काष्ठासंघकी उत्पत्तिके मम्बन्धमें मतभेद है। दसवीं शताब्दीके दर्शनसार ग्रन्थमें आचार्य देवसेनने लिखा है कि दक्षिण प्रान्तमें आचार्य जिनसेनके मतीय विनयसेनके शिष्य कुमारसेनने काष्ठासंघकी स्थापनाकी थी इसने मयर पिच्छको छोड़कर गायके वालोंकी पीछी धारण की थी और समस्त बागड़ देशमें उन्मार्गका प्रसार किया था। वह त्रियोंको जिनदीक्षा देता था अल्लकोंकी वीरचर्याका विधान करता था, और एक छठा गुणत्रत ( अणुव्रत ) पालता था। इसने पुराने शाम्रोंको अन्यथा रचकर मूढ़ लोकों में मिथ्यात्वका प्रचार किया था। इससे उसे श्रमणसंघसे निकाल दिया गया था। तब उसने काष्ठासंघकी स्थापना की थी। तथा १७ वीं शताब्दीके एक ग्रन्थ वचन कोशमें लिखा कि उमास्वामीके पट्टधर लोहाचार्यने उत्तर भारतके अगरोहा नगरमें इस संघकी स्थापना की थी। मूनिलंखोंमें काष्ठासंघके साथ लोहाचार्यान्वयका उल्लेख मिलता है। इस संघसे सम्बन्धित लेख भी प्रायः उत्तर उश्चिम भारतसे प्राप्त हुए हैं। काष्ठासंघकी प्रमुख शाखाय या गच्छ चार थे - नन्दिनट, माथुर, वागड़ और लाट बागड़। माथुर गच्छ या संघका संभवतया इतना प्रभाव था कि देवसेनने अपने दर्शनसारमें उसकी पृथक गणना की। उसमें लिखा है कि काष्ठासंघकी स्थापनाके दो सौ वर्ष बाद मथुरामें माथुर संघकी स्थापना रामसेनने Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनधर्म की थी। इस संघके साधु पीछी नहीं रखते थे इसलिए यह संघ निप्पिच्छ कहलाता था। काष्ठासंघ माथुरान्वयके प्रसिद्ध आचार्योंमें सुभाषितरत्नसन्दोह आदि अनेक ग्रन्थोंके रचयिता आचार्य अमितगति थे जो राजा भोजके समकालीन थे। तथा लाट वागड़संघमें प्रद्युम्नचरित्र काव्यके कर्ता महासेन थे। यह भी राजा मुंज और भोजके समकालीन थे। ___ यद्यपि इन तीनों संघोंको देवसेन आचार्यने जैनाभास कहा है किन्तु इनका बहुत-सा साहित्य उपलब्ध है और उसका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदायमें होता है । हरिवंश पुराणके रचयिताने आचार्य देवनन्दिके पश्चात् वज्रसूरिका स्मरण किया है और उनकी उक्तियोंको धर्मशास्त्रके प्रवक्ता गणधरदेवकी तरह प्रमाण कहा है। यह वनसरि वहीं जान पड़ते हैं जिन्हें द्राविड़ संघका संस्थापक कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न होता है कि दर्शनसारके रचयिताने इन्हें जैनाभास क्यों कहा ? क्योंकि दर्शनसारकी रचना हरिवंशपुराणके पश्चात् वि० सं०९९० में हुई है। इसका समाधान यह हो सकता है कि देवसेन सूरिने दर्शनसारमें जो गाथाएँ दी हैं, वे पूर्वाचार्यप्रणीत हैं। पूर्वाचार्योंकी दृष्टि में द्रविड़ आदि संघोंके साधु जैनाभास ही रहे होंगे। इसीलिए दर्शनसारके रचयिताने भी उन्हें जैनाभास बतलाया है, अन्यथा जिस शिथिलाचारके कारण उन्होंने उक्त संघोंको जैनाभास कहा है, वह शिथिलाचार मूलसंघी मुनियोंमें भी किसी न किसी रूपमें प्रविष्ट हो गया था । वे भी मन्दिरोंकी मरम्मत आदिके लिये गाँव जमीन आदिका दान लेने लगे थे । उपलब्ध शिलालेखोंसे यह स्पष्ट है कि मुनियोंके अधिकारमें भी गाँव बगीचे रहते थे। वे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करते थे, दानशालाएँ बनवाते थे । एक तरहसे उनका रूप मठाधीशोंके जैसा हो चला था। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उस समयमें शुद्धाचारी तपस्वी दिगम्बर मुनियोंका सर्वथा अभाव हो गया था, अथवा सब उन्होंके अनुयायी बन Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ सामाजिक रूप गये थे। शास्त्रोक्त शुद्ध मार्गके पालनेवाले और उनको माननेवाले भी थे, तथा उसके विपरीत आचरण करनेवाले मठपतियोंकी आलोचना करनेवाले भी थे । पं० आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें इन मठपति साधुओंकी आलोचना करते हुए लिखा है-'द्रव्य जिन लिंगके धारी मठपति म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करते हैं। इनके साथ मन, वचन और कायसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये।' ये मठाधीश साधु भी नग्न ही रहते थे, इनका बाह्यरूप दिगम्बर मुनियोंके जैसा ही होता था। इन्हींका विकसितरूप भट्टारक पद है। तेरहपन्थ और बीसपन्थ भट्टारकी युगके शिथिलाचारके विरुद्ध दिगम्बर सम्प्रदायमें एक पन्थका उदय हुआ, जो तेरहपन्थ कहलाया । कहा जाता है कि इस पन्थका उदय विक्रमकी सत्रहवीं सदीमें पं० बनारसीदासजीके द्वारा आगरेमें हुआ था। जब यह पन्थ तेरह पन्थके नामसे प्रचलित हो गया तो भट्टारकोंका पुराना पन्थ बीस पन्थ कहलाने लगा। किन्तु ये नाम कैसे पड़े यह अभी तक भी एक समस्या ही है। इसके सम्बन्धमें अनेक उपपत्तियाँ सुनी जाती हैं किन्तु उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता। श्वेताम्बराचार्य मेघविजयने वि० सं० १७५७ के लगभग आगरेमें युक्ति प्रबोध नामका एक प्रन्थ रचा है। यह ग्रन्थ पं० बनारसीदासजीके मतका खण्डन करनेके लिये रचा गया हे । इसमें वाणारसी मतका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है "तम्हा दिगंबराणं एए भटारगा वि णो पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जेसिं परिग्गहो व ते गुरुणो ॥१६॥ जिणपडिमाणं भूसणमल्लारुहणाइ अंगपरियरणं । वाणारसिओ वारइ दिगंवरस्सागमाणाए ॥२०॥" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म -- अर्थात् – 'दिगम्बरोंके भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके तिलतुष मात्र भी परिग्रह हैं वे गुरु नहीं हैं । वाणारसी मतवाले जिन प्रतिमाओंको भूषणमाला पहनानेका तथा अंग रचना करनेका भी निषेध दिगम्बर आगमोंकी आज्ञासे करते हैं। ३०८ आजकल जो तेरह पन्थ प्रचलित है वह भट्टारकों या परिग्रहधारी मुनियोंको अपना गुरु नहीं मानता और प्रतिमाओंको पुष्पमालाएँ चढ़ाने और केसर लगानेका भी निषेध करता है. तथा भगवानकी पूजन सामग्रीमें हरे पुष्प और फल नहीं चढ़ाता । उत्तर भारतमें इस पन्थका उदय हुआ और धीरे-धीरे यह समस्त देशव्यापी हो गया । इसके प्रभाव से भट्टारकी युगका एक तरह से लोप हो हो गया । किन्तु इस पन्थभेदसे दिगम्बर सम्प्रदाय में फूट या वैमनस्यका बीजारोपण नहीं हो सका। आज भी दोनों पन्थोंके अनुयायी वर्तमान हैं, किन्तु उनमें परम्परमें कोई वैमनस्य नहीं पाया जाता । चूँकि आज दोनों पन्थोंका अस्तित्व कुछ मंदिरों में ही देखने में आता है, अतः जब कभी किन्हीं दुराग्रहियों में भले ही खटपट हो जाती हो, किन्तु साधारणतः दोनों हो पन्थवाले अपनी-अपनी विधिसे प्रेमपूर्वक पूजा करते हुए पाये जाते हैं । एक दो स्थानमें तो २० और १३ को मिलाकर उसका आधा करके साढ़े सोलह पन्थ भी चल पड़ा है । आजकलके अनेक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति पन्थ पूछा जानेपर अनेकको साढ़े सोलह पन्थी कह देते हैं। यह सब दोनोंके ऐक्य और प्रेमका ही सूचक है । तारणपन्थ परवार जातिके एक व्यक्तिने जो बादको तारणतरण स्वामीके नाम से प्रसिद्ध हुए, ईसाकी पन्द्रहवीं शताब्दीके अन्तमें इस पन्थको जन्म दिया था । सन् १५१५ में ग्वालियर स्टेटके मल्हारगढ़ नामक स्थानमें इनका स्वर्गवास हुआ । उस स्थानपर Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ सामाजिक रूप उनकी समाधि बनी है और उसे नशियाँजी कहते हैं। यह तारणपंथियोंका तीर्थस्थान माना जाता है। यह पन्थ मूर्तिपूजाका विरोधी है। इनके भी चैत्यालय होते हैं, किन्तु उनमें शास्त्र विराजमान रहते हैं और उन्होंकी पूजा की जाती है किन्तु द्रव्य नहीं चढ़ाया जाता। तारण स्वामीने कुछ प्रन्य भी बनाये थे । इनके सिवा दिगम्बर आचार्योंके बनाये हुए प्रन्योंको भी तारणपन्थी मानते हैं। इस पन्थमें अच्छे धनिक और प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद हैं । इस पन्थके अनुयायियोंकी संख्या दस हजारके लगभग बतलाई जाती है, और वे मध्यप्रान्तमें बसते हैं। २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय यह पहले लिख आये हैं कि साधुओंके वस्त्र परिधानको लेकर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर भेदकी सृष्टि हुई थी। अतः आजके श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। उनके पास चौदह उपकरण होते हैं-१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८-९ दो चादरें, १० ऊनी वस्त्र (कम्बल ), ११ रजोहरण, १२ मुखवस्त्र, १३ मात्रक, १४ चोल पट्टक । इनके सिवा वे अपने हाथमें एक लम्बा दण्ड भी लिए रहते हैं। पहले वे भी नग्न ही रहते थे। बादको वस्त्र स्वीकार कर लेनेपर भी विक्रमकी सातवीं आठवीं शताब्दीतक कारण पड़नेपर ही वे वस्त्र धारण करते थे और वह भी केवल कटिवन। विक्रमकी आठवीं शतीके श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने अपने संबोधप्रकरणमें अपने समयके साधुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे विना कारण भी कटिवस्त्र बाँधते हैं और उन्हें क्लीब-कायर कहा है। इस प्रकार पहले वे कारण पड़नेपर लँगोटी लगा लेते थे पीछे सफेद वस्त्र पहिनने लगे। फिर जिन मूर्तियोंमें भी लँगोटेका चिह्न बनाया जाने लगा। उसके बाद उन्हें वस्त्र-आभूषणोंसे सजानेकी प्रथा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जनधर्म चलाई गई । महावीरके निर्वाणसे लगभग एक हजार वर्षके पश्चात् साधुओंकी स्मृतिके आधारपर ग्यारह अंगोंका संकलन करके उन्हें सुव्यवस्थित किया गया और फिर उन्हें लिपिबद्ध किया गया । इन आगमोंको दिगम्बर सम्प्रदाय नहीं मानता । श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है कि स्त्रीको भी मोक्ष हो सकता है तथा जीवन्मुक्त केवली भोजन ग्रहण करते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय इन दोनों सिद्धान्तोंको भी स्वीकार नहीं करता । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इन्हीं तीनों सिद्धान्तोंको लेकर मुख्य भेद है। संक्षेपमें कुछ उल्लेखनीय भेद निम्न प्रकार हैं १. केवलीका कवलाहार । २. केवलीका नीहार । ३. स्त्री मुक्ति । ४. शूद्र मुक्ति । ५. वस्त्र सहित मुक्ति । ६. गृहस्थवेष में मुक्ति । ७. अलंकार और कछोटेवाली प्रतिमाका पूजन । ८. मुनियोंके १४ उपकरण । ९. तीर्थकर मल्लिनाथका स्त्री होना । १०. ग्यारह अंगोंकी मौजूदगी । ११. भरत चक्रवर्तीको अपने भवनमें केवल ज्ञानकी प्राप्ति । १२. शूद्रके घर से मुनि आहार ले सके । १३. महावीरका गर्भहरण | १४. महावीर स्वामीको तेजोलेश्यासे उपसर्ग । १५. महावीर विवाह, कन्या जन्म ! १६. तीर्थ करके कन्धेपर देवदूष्य वस्त्र । १७. मरुदेवीका हाथीपर चढ़े हुए मुक्तिगमन । १८. साधुका अनेक घरोंसे भिक्षा ग्रहण करना । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३११ इन बातोंको श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय नहीं मानता। श्वेताम्बर चैत्यवासी इवेताम्बर चैत्यवासी सम्प्रदायका इतिहास इस प्रकार मिलता है संघभेद होने के पश्चात् वीर नि० सं० ८५० के लगभग कुछ शिथिलाचारी मुनियोंने उग्र विहार छोड़कर मन्दिरोंमें रहना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गयी और आगे जाकर वे बहुत प्रबल हो गये । इन्होंने निगम नामके शास्त्र रचे, जिनमें यह बतलाया गया कि वर्तमान कालमें मुनियोंको चैत्योंमें रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादिके लिये आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिये । ये वनवासियोंकी निन्दा भी करते थे। इन चैत्यवासियोंके नियमोंका दिग्दर्शन चैत्यवासके प्रबल विरोधी श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने अपने संबोध प्रकरण' के गुर्वधिकारमें विस्तारसे कराया है। वे लिखते हैं___ "ये चैत्य और मठोंमें रहते हैं, पूजा और आरती करते हैं; जिनमन्दिर और शालाएँ वनवाते हैं, देवद्रव्यका उपयोग अपने लिये करते हैं, श्रावकोंको शास्त्रकी सूक्ष्म बातें बतानेका निषेध करते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, रंगीले सुगन्धित और धूपसे सुवासिन वस्त्र पहिनते हैं, स्त्रियोंके आगे गाते हैं, साध्वियोंके द्वारा लाये गये पदार्थोंका उपयोग करते हैं, धनका संचय करते हैं, केशलोच नहीं करते, मिष्ट आहार, पान, घी, दूध और फलफूल आदि सचित्त द्रव्योंका उपभोग करते हैं । तेल लगवाते हैं, अपने मृत गुरुओंके दाह-संस्कारके स्थानपर स्तूप बनाते हैं, जिन प्रतिमा बेचते हैं, आदि।" वि० सं० ८०२ में अणहिलपुर पट्टणके राजा चावड़ासे उनके गुरु शीलगुण सूरिने, जो चैत्यवासी थे, यह आज्ञा जारी Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैनधर्म करा दी कि इस नगरमें चैत्यवासी साधुओंको छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न आ सकेंगे। इस आज्ञाको रद्द करानेके लिए वि० सं० १०७० के लगभग जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि नामके दो विधिमार्गी आचार्योंने राजा दुर्लभदेवकी सभा में चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया तब कहीं विधिमागियोंका प्रवेश हो सका। राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया । इसी परसे खरतर गच्छकी स्थापना हुई। इसके वादसे चैत्यवासियोंका जोर कम होता गया। __ श्वेताम्बरोंमें आज जो जती या श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवासी या चैत्यवासी शाखाके अवशेष हैं और जो 'संवेगी' मुनी कहलाते हैं वे वनवासी शाखाके हैं। संवेगी अपनेको सुविहित मार्ग या विधिमार्गका अनुयायो कहते हैं। श्वेताम्बरों में बहुतसे गच्छ थे। कहा जाता है कि उनकी संख्या ८४ थी। किन्तु आज जो गच्छ हैं उनकी संख्या अधिक नहीं है । मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके गच्छ इस प्रकार हैं १ उपकेशगच्छ-इस गच्छकी उत्पत्तिका सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथसे बताया जाता है। उन्हींका एक अनुयायी केशी इस गच्छका नेता था । आजके ओसवाल इसी गच्छके श्रावक कहे जाते हैं। ___ २ खरतरगच्छ इस गच्छका प्रथम नेता वर्धमान सूरिको बतलाया जाता है। वर्धमान सूरिके शिष्य जिनेश्वर सूरिने गुजरातके अणहिलपुर पट्टणके राजा दुर्लभदेवकी सभामें जब चैत्यवासियोंको परास्त किया और राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया तो उनके नामपरसे यह गच्छ खरतर गच्छ कहलाया। इस गच्छके अनुयायी अधिकतर राजपूताने और बंगालमें पाये जाते हैं । मुंबई प्रान्तमें इसके अनुयायियोंकी संख्या थोड़ी है। ३ तपागच्छ-इस गच्छके संस्थापक श्रीजगच्चन्द्र सूरि थे। सं० १२८५ में उन्होंने उग्र तप किया। इस परसे मेवाड़के राजाने उन्हें 'तपा' उपनाम दिया। तबसे इनका बृहद्गच्छ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३१३. तपागच्छके नामसे प्रसिद्ध हुआ । श्रीजगच्चन्द्र सूरि और उनके शिष्योंका दैलवाराके प्रसिद्ध मन्दिरोंका निर्माता वस्तुपाल बड़ा सन्मान करता था । इससे गुजरातमें आजतक भी तपागच्छका बड़ा प्रभाव चला आता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह गच्छ सबसे महत्वका समझा जाता है। इसके अनुयायी बम्बई पंजाब, राजपूताना, मद्रास आदि प्रान्तों में पाये जाते हैं । श्रीजगन्चन्द्र सूरिके दो शिष्य थे, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरि । इन दोनों में मतभेद हो गया । विजयचन्द्र सूरिने कठोर आचारके स्थान में शिथिलाचारको स्थान दिया । उन्होंने घोषणा की कि गोतार्थ मुनि वस्त्रोंकी गठड़ियाँ रख सकते हैं, हमेशा घी दूध खा सकते हैं, कपड़े धो सकते हैं, फल तथा शाक ले सकते हैं, साध्वी द्वारा लाया हुआ आहार खा सकते हैं, और और श्रावकोंको प्रसन्न करनेके लिए उनके साथ बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते हैं 1 ४. पार्श्वचन्द्र गच्छ — यह तपागच्छकी शाखा है । तपागच्छके आचार्य पार्श्वचन्द्र वि० सं० १५१५ में इस गच्छसे अलग हो गये । कारण यह था कि इन्होंने कर्मके विषय में नया सिद्धान्त खड़ा किया था और निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थोंको प्रमाण नहीं मानते थे । इस गच्छके अनुयायी अहमदाबाद जिलेमें पाये जाते हैं । ५. सार्ध पौर्णमीयक गच्छ— पौर्णमीयक गच्छकी स्थापना चन्द्रप्रभसूरिने की थी । कारण यह था कि प्रचलित क्रियाकाण्डसे उनका मतभेद था तथा वे महानिशीथ सूत्रकी गणना शास्त्रग्रन्थों में नहीं करते थे । आचार्य हेमचन्द्रकी आज्ञासे राजा कुमारपालने इस गच्छके अनुयायियोंको अपने राज्यमेंसे निकलवा दिया था। इन दोनोंकी मृत्युके बाद एक सुमतिसिंह नामके पौर्णमीयक कुमारपालकी राजधानी अणहिलपुर में आये और इन्होंने इस गच्छको नवजीवन दिया। तबसे यह गच्छ सार्व Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म ३१४ पौर्णमीयक कहलाया । इस गच्छके अनुयायी आज नहीं पाये जाते । ६. अंचल गच्छ — इस गच्छके संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह थे। पीछे वे आर्यरक्षित सूरिके नामसे विख्यात हुए । इस गच्छ में मुखपट्टी के बदले अंचलका ( वस्त्रके छोरका ) उपयोग किया जाता है. इससे इसका नाम अंचल गच्छ पड़ा है । ७. आगमिक गच्छ — इस गच्छके संस्थापक शीलगुण और देवभद्र थे। पहले ये पौर्णमीयक थे पीछेसे आंचलिक हो गये थे । ये क्षेत्रपालकी पूजा करनेके विरुद्ध थे । विक्रमकी १६ वीं शती में इस गच्छकी एक शाखा कटुक नामसे पैदा हुई । इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक ही थे । 1 इन गच्छों में से भी आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही वर्तमान हैं । प्रत्येक गच्छकी साधु-सामाचारी जुदी - जुदी है | श्रावकोंकी सामायिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाविधि भी जुदी - जुदी है। फिर भी सबमें जो भेद है वह एक तरहसे निर्जीव-सा है । कोई कल्याणक दिन छै मानता है तो कोई पाँच मानता है । कोई पर्युषणका अन्तिम दिन भाद्रपद शुक्ला चौथ और कोई पंचमी मानता है। इसी तरह मोटी बातोंको लेकर गच्छ चल पड़े हैं । स्थानकवासी सिरोही राज्य के अरहट वाड़ा नामक गाँव में, हेमाभाई नामक ओसवाल के घर में, विक्रम सम्बत् १४७२ में लोंकाशाहका जन्म हुआ । २५ वर्षकी अवस्थामें लोंकाशाह स्त्री-पुत्र के साथ अहमदाबाद चले आये। उस समय अहमदाबादकी गद्दीपर मुहम्मदशाह बैठा था । कुछ जवाहरात खरीदने के प्रसंगसे लोकाशाहका परिचय मुहम्मदशाह से होगया और मुहम्मदशाहने लोकाशाहकी चातुरीसे प्रसन्न होकर उन्हें पाटनका तिजोरीदार बना दिया । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३१५ विषद्वारा मुहम्मदशाहकी मृत्यु होनेपर लोंकाशाहको बहुत खेद हुआ। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्य में लग गये । उनके सुन्दर अक्षरोंसे आकृष्ट होकर ज्ञानश्री नामक मुनिराजने दश वैकालिक सूत्रकी एक प्रति लिखनेके लिये दी । फिर तो मुनिश्री के पाससे अन्य शास्त्र भी लिखने के लिये आने लगे । और वे उनकी दो प्रतियाँ करके एक अपने पास रखने लगे। इस तरह अन्य ग्रन्थोंका भी संग्रह करके लोंकाशाहने उनका अभ्यास किया । उन्हें लगा कि आज मन्दिरोंमें जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह तो इन ग्रन्थोंमें नहीं है । इसके सिवा जो आचार आज जैनधर्म में पाले जाते हैं उनमेंसे अनेक इन ग्रन्थोंको दृष्टि धर्मसम्मत नहीं हैं। अतः उन्होंने जैनधर्म में सुधार करनेका वीड़ा उठाया । अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी होनेके साथ व्यापारका भी केन्द्र था । अतः व्यक्तियोंका आवागमन लगा ही रहता था । जो वहाँ आते थे लोंकाशाहका उपदेश सुनकर प्रभावित होते थे । जब कुछ लोगोंने उनसे धर्म में दीक्षित करनेकी प्रार्थना की तो लोकाशाहने कहा मैं स्वयं गृहस्थ होकर आपको अपना शिष्य कैसे बना सकता हूँ । तब ज्ञानजी महाराजने उन्हें धर्मकी दीक्षा दी। और उन्होंने लोंकाशाह के नामपर अपने गच्छका नाम लोंकागच्छ रखा | इस तरह लोकागच्छकी उत्पत्ति हुई । पीछेसे लोकामत में भी भेद-प्रभेद हो गये। सूरतके एक जैन साधुने लोकामत में सुधार कर एक नये सम्प्रदायकी स्थापना की जो हँढिया सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पीछेसे लोंकाके सभी अनुयायी हँढिया कहे जाने लगे। इन्हें स्थानकवासी भी कहते हैं, क्योंकि ये अपना सब धार्मिक व्यवहार मन्दिर में न करके स्थानक यानी उपाश्रयमें करते हैं । इस सम्प्रदायक माननेवाले गुजरात, काठियावाड़, मारवाड़, मालवा, पंजाब तथा भारतके अन्य भागोंमें रहते हैं। इनकी संख्या मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके जितनी ही है। अतः इस सम्प्रदायको जैनधर्मका Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तीसरा सम्प्रदाय कहा जा सकता है। किन्तु ये अपनेको श्वेताम्बर ही मानते हैं, क्योंकि कुछ मतभेदोंको यदि छोड़ दिया जाये तो श्वेताम्बरोंसे ही इनका मेल अधिक खाता है।। ___यह सम्प्रदाय श्वेताम्बरोंके ही ४५ आगमोंमेंसे ३३ आगमोंको मानता है। लोंकाने तो ३१ आगम ही माने थे-व्यवहारसूत्रको वह प्रमाण नहीं मानता था। किन्तु पीछेके स्थानकवासियोंने उसे प्रमाण मान लिया। धर्माचरणमें स्थानकवासी श्वेताम्बरोंसे भिन्न पड़ते हैं। वे मूर्तिपूजा नहीं मानते, मन्दिर नहीं रखते और न तीर्थयात्रामें ही विशंप श्रद्धा रखते हैं। इस सम्प्रदायके साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं तथा मुखपर पट्टी वाँधते हैं । इन अमूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुआंसे भेद दिखानेके लिए सत्यविजय पंन्यासने अठारहवीं सदी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुओंको पीला वस्त्र धारण करनेका रिवाज चालू किया, जो अब भी देखने में आता है। इसी सदीके अन्तमें भट्टारकोंको गद्दियाँ हुई और यति तथा यतिनियाँ हुई। खूब विरोध होनेपर भी इनके अवशेष आज भी मौजूद हैं। मूर्तिपूजाविरोधी तेरापन्थ मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायमें भी अनेक पन्थ प्रचलित हुए, जिनमेंसे उल्लेखनीय एक तेरापन्थ है। इस पन्थकी स्थापना मारवाड़ में आचार्य भिक्षु (भीखम ऋषि ) ने की थी। आचार्य भिक्षुका जन्म जोधपुर राज्यके अन्तर्गत कन्टालिया ग्राममें सं० १७८३ में हुआ था। सं० १८०८ में इन्होंने जैनी दीक्षा ग्रहण की। उन्हें लगा कि जिस अहिंसाकी साधनाके लिये हम सब कुछ त्याग कर निकले हैं, यथार्थ में उस अहिंसाके समीप भी नहीं पहुंचे हैं। जीवन व्यवहारमें अहिंसाके नामपर हिंसाको प्रश्रय देते हैं और धर्मके नामपर अधर्मको । अतः उन्होंने एक नवीन साधु संघकी स्थापना की, जो 'तेरापन्थ' कहलाया। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३१७ इस पंथमें साधुसंघके अधिपति पूज्यश्री महाराज होते हैं। साधुओंको उनकी आज्ञा माननी पड़ती है और प्रतिदिन विधिपूर्वक उनका सन्मान करना होता है। इस पन्थका प्रचार पश्चिम भारतमें अधिक है, कलकत्ता जैसे नगरों में भी इस पन्थके श्रावक रहते हैं। ३. यापनीय संघ जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंसे तो साधारणतः सभी परिचित हैं। किन्तु इस बातका पता जैनोंमेंसे भी कम ही को है कि इन दोके अतिरिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिसे यापनीय या गोप्यसंघ कहते थे। __यह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। दर्शनमारके' कर्ता श्री देवसेनसूरिफे कथनानुसार वि० सं २०५ में श्रीकलश नामके श्वेताम्बर साधुने इस सम्प्रदायकी स्थापना की थी। यह समय दिगम्बर-श्वेताम्बर भेदको उत्पत्तिसे लगभग ७० वर्ष बाद पड़ता है। किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके आस पास बहुत प्रभावशाली रहा है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशांके राजाओंने इसे और इसके आचार्योंको अनेक दान दिये थे। यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे, मोरके पंखोंकी पिच्छी रखते थे और हाथमें ही भोजन करते थे। ये नग्न मूर्तियोंको पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्म-लाभ' देते थे। ये सब बातें तो इनमें दिगम्बरों जैसी ही थीं, किन्तु साथ ही साथ वे मानते थे कि त्रियोंको उसी भवमें मोभ हो सकता है और केवली भोजन करते हैं। वैयाकरण शाकटायन (पाल्यकोर्ति ) यापनीय थे । इनकारची अमोघवृत्तिके कुछ उदाहरणों १ "कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंच उत्तरे जादे । जावणियसंघभावो मिरिकलमादो हु सेवइदो ॥२९॥" Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैनधर्म से मालूम होता है कि यापनीय संघ में आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, और दशवैकालिक आदि ग्रन्थोंका पठन-पाठन होता था, अर्थात् इन बातों में वे श्वेताम्बरोंके समान थे । श्वेताम्बर - मान्य जो आगमग्रन्थ हैं यापनीय संघ संभवतः उन सभीको मानता था, किन्तु उनके आगमोंकी बाचना श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जानेवाली वलभी वाचनासे शायद कुछ भिन्न थी । उनपर उसकी टीकाएँ भी हो सकती हैं जैसा कि अपराजित - सूरिकी दशवैकालिक सूत्रपर टीका थी । यह सम्प्रदाय बड़ा ही राज्यमान था । शिलालेखोंसे विदित होता है कि कदम्ब चालुक्य गंग राष्ट्रकूट और रट्ठवंशके राजाओंने इस संघको और इसके साधुओंको दान दिये थे । अनेक शिलालेखोंसे इस संघके गणों और गच्छोंका भी परिचय मिलता है। इस सम्प्रदायमें नन्दिसंघ नन्दिगच्छ प्राचीन तथा प्रमुख था । इस संघ के आचार्योंके नाम विशेषतः कीर्त्यन्त और नन्द्यन्त होते थे। नन्दिसंघ भी कई गणोंमें विभक्त था । इसके कई प्रभावशाली गण यथा पुन्नागवृक्ष मूलगण, बलहारिगण और कण्डूरगण मूलसंघमें शामिल कर लिये गये और नन्दिसंघको द्रविड़ संघ और पीछे मूलसंघने अपना लिया । शिलालेखोंसे प्रमाणित होता है कि यह संघ ४ थी से १०वों शताब्दी तक अच्छा संगठित था । १५वीं शताब्दी तक इसके जीवित रहने के प्रमाण मिलते हैं; क्योंकि कागवाड़ेके श० सं० १३१६ ( वि० सं० १४५१ ) के शिलालेखमें यापनीयसंघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रके समाधि लेखोंका उल्लेख है । ४. कूर्चक संघ कर्नाटक प्रान्त में पाँचवी शताब्दीके लगभग जैनोंका एक सम्प्रदाय कूर्चक नामसे था । कदम्बवंशी राजाओंके एक लेखमें यापनीय और निर्मन्थ सम्प्रदायोंके साथ इसका उल्लेख है । यथा - यापनीय निर्मन्थ कूर्चकानाम । सम्भवतया यह दिगम्बर Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक रूप ३१६ सम्प्रदायका ही एक भेद था । कदम्ब मृगेश वर्माने अन्य दो जैन सम्प्रदायोंके साथ इसे भी दान दिया था। दूसरे एक लेख - में इस संघके अवान्तर वारिषेणाचार्य संघका उल्लेख है । यह वारिषेणाचार्य संघ कूर्च कोंका ही एक भेद था । ५. अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय श्री रत्ननन्दि आचार्य ने अपने भद्रबाहु चरित्रमें अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि यह अद्भुत अर्द्धस्फालक मत कलिकालका बल पाकर जलमें तेलकी बूँदकी तरह सब लोगों में फैल गया । उन्होंने इस मतको श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के अन्तमें उत्पन्न हुआ बतलाया है और अन्तमें लिखा है कि बल्लभीपुर में पूरी तरहसे श्वेतवस्त्र ग्रहण करनेके कारण विक्रम राजाके मृत्युकालसे १३६ वर्षके बाद श्वेताम्बरमत प्रसिद्ध हुआ । श्रीरत्ननन्दिके मतसे कुछ दिगम्बर मुनियोंने जब अपनी नग्नताको छिपानेके लिए खण्ड वस्त्र स्वीकार कर लिया तो उनसे अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ | और अर्द्धस्फालक सम्प्रदायसे ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई । मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त जैन पुरातत्त्व में कुछ ऐसे आयागपट प्राप्त हुए हैं, जिनमें जैन साधु यद्यपि नग्न अंकित हैं परन्तु वे अपनी नग्नताको एक वस्त्रखण्डसे छिपाये हुए हैं प्लेट नं० २२ में कण्ह श्रमणका चित्र अंकित हैं, उनके बायें हाथकी कलाई पर एक वत्रखण्ड लटक रहा है जिसे आगे करके वे अपनी नग्नताको छिपाये हुए हैं । यही अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका रूप जान पड़ता है । १. “अतोऽर्द्धफालकं लोके व्यानसे मतमद्भुतम् । कलिकालबलं प्राप्य सलिले तैलविन्दुवत् ||३०४ ||” Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनधर्म उधर श्वेताम्बर' भी कहते हैं कि छठे स्थविर भद्रबाहुके समयमें अर्द्धस्फालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई । इनमेंसे ई०सं०८० में दिगम्बरोंका उद्भव हुआ जो मूलसंघ कहलाया। __ इससे भी इस सम्प्रदायका अस्तित्व सिद्ध होता है। अब रह जाता है यह प्रश्न कि अर्द्धस्फालक इवेताम्बरांके पूर्वज हैं या दिगम्बरोंके ? इसका समाधान भी मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे ही हो जाता है। वहाँके एक शिलापट्टमें भगवान महावीरके गर्भपरिवर्तनका दृश्य अंकित है और उसीके पास एक छोटीसी मूर्ति ऐसे दिगम्बर साधुकी है जिसकी कलाईपर खण्ड वस्त्र लटकता है। गर्भापहार श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है अतः स्पष्ट है कि उसके पास अंकित साधुका रूप भी उसो सम्प्रदायमान्य है। उपसंहार सारांश यह है कि मुख्यरूपसे जैनधर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शाखाओंमें विभाजित हुआ। पीछेसे प्रत्येकमें अनेक गच्छ, उपशाखा और उपसम्प्रदाय आदि उत्पन्न हुए । फिर भी सब महावीर भगवानकी सन्तान हैं और एक वीतराग देवके ही माननेवाले हैं। १. जैन संस्कृतिका प्राणस्थल, "विश्ववाणी' सितम्बर १९४२ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. विविध १. कुछ जैनवीर कुछ लोगोंकी धारणा है कि जैन हो जानेसे मनुष्य राष्ट्रके कामका नहीं रहता, बल्कि राष्ट्रका भार वन जाता है। किन्तु यह धारणा एकदम गलत है। देशकी रक्षाके लिए एक सच्चा जैन सब कुछ उत्सर्ग कर सकता है। प्राचीन समयमें देशकी रक्षाका भार भत्रियोंपर था। वे प्रजाकी रक्षाके लिए युद्ध करते थे और अपराधियोंको प्राणदण्डतक देते थे। सभी जैन तीर्थङ्करोंने क्षत्रियकुलमें जन्म लिया था और उनमेंसे पाँच तीथङ्करोंके सिवाय, जो कुमार अवस्थामें ही प्रत्रजित हो गये थे, शेष सभीने प्रत्रज्या ग्रहणसे पूर्व अपने पैतृक राज्यका संचालन और संवर्धन किया था। उनमेंसे तीन तीर्थङ्करोंने तो दिगविजय करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। बाईसवें तीर्थङ्कर नेमीनाथ श्रीकृष्णके चचेरे भाई थे और गृह परित्यागसे पूर्व युवावस्थामें वे महाभारतके युद्धमें पाण्डवोंकी ओरसे लड़े भी थे। जैन पुराण युद्धोंके वर्णनसे भरे पड़े हैं। प्राचीन युगके वैश्य भी न केवल युद्धोंमें भाग लेते थे, किन्तु सेनाके नायकतक बनते थे। शिशुनाग वंशी राजा श्रेणिक (बिम्बसार) के नगरसेठ अर्हहासके पुत्र जम्बुकुमारके, जिन्होंने युवावस्थामें जिनदीक्षा धारण की और अन्तिम केवली हुए, युद्ध करनेके वर्णन जैन शास्त्रोंमें वर्णित हैं। ___ आज यद्यपि जैनधर्मके अनुयायी केवल वैश्य देखे जाते हैं किन्तु जिन वैश्य जातियों में जैनधर्म पाया जाता है, उनमेंसे अनेक जातियाँ पहले क्षत्रिय थीं, राज्यसत्ता चली जाने और व्यवसायके बदल जानेसे वे अब वैश्य जातियाँ बन गई हैं। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैनधर्म अतः क्षत्रियोंका धर्म आज बनियोंका धर्म बन गया। इस पुस्तकके 'इतिहास' विभाग में जैनधर्मके अनुयायी राजाओंकी चर्चा धार्मिक दृष्टिसे की गई है। यहाँ उन तथा कुछ अन्य जैन वीरोंका वर्णन वीरताकी दृष्टिसे किया जाता है। राजा चेटक भगवान महावीरकी माता राजा चेटक की पुत्री थी । राजा चेटक अपने शौर्य के लिए प्रख्यात था । एक बार चेटकके दौहित्र मगधसम्राट् कुणिक ( अजातशत्रु) ने चेटककी वृद्धावस्थामें चेटकके विरुद्ध आक्रमण कर दिया था । चेटकने घमासान युद्ध करके अजातशत्रुके दाँत खट्टे कर दिये थे । राजा उदयन सिन्धु-सौवीरका राजा उदयन महावीर भगवान्का अनुयायी था । यह राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही वीर भी था । एकबार उज्जैनीके राजा चण्ड प्रद्योतने उसपर आक्रमण कर दिया । घमासान युद्ध हुआ और उदयनने प्रद्योतको पकड़कर अपना बन्दी बना लिया | मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्रका नाम तो भारतीय इतिहासमें स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ है। सिकन्दरकी मृत्युके बाद इस वीरने भारतवर्षको यूनानियोंकी दासतासे मुक्त किया और युद्धभूमिमें यूनानी सेनापति सेल्युकसको पराजित करके हिदूकुश पहाड़तक अपने साम्राज्यका विस्तार किया । कलिंग चक्रवर्ती खारवेल राजा खारवेलके शिलालेखसे मालूम होता है कि खारवेलने सातकर्णिकी कुछ भी परवाह न करके पश्चिम की ओर अपनी सेना भेजी। फिर मूर्षिकोंपर आक्रमण किया । सातकर्णि और मूर्षिकों, पर विजय प्राप्त करके राष्ट्रिकों और भोजकोंसे अपने Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३२३ पैर पुजवाये। फिर मगधपर आक्रमण किया । दक्षिणके पाण्ड्यराजाने हाथी घोड़े मणि, मुक्त आदि भेटमें देकर खारवेलका आधिपत्य स्वीकार किया। ऐसा प्रबल पराक्रमी जैन राजा खारवेलके पश्चात् दूसरा नहीं हुआ। महाराज कुमारपाल चित्तौड़के किलेसे प्राप्त शिलालेखमें लिखा है कि महाराज कुमारपालने अपने प्रबल पराक्रमसे सब शत्रुओंको निर्मद कर दिया। उनको आज्ञाको पृथ्वीके सब राजाओंने मस्तक पर चढ़ाया। उसने शाकंभरीके राजाको अपने चरणोंमें नमाया। वह स्वयं अन लेकर सवालक्ष देश (मारवाड़) पर्यन्त चढ़ा और सब गढ़पतियोंको नमाया। सालपुरको भी वशमें किया। महाराज कुमारपाल गुजरातके राजा थे। गगनरश मारासह गंगनरेश मारसिंह भी जैसा धर्मात्मा था वैसा ही शूर-वीर भी था। इसने कृष्णराज तृतीयके भयानक शत्रु अल्लाहका मान-मर्दन किया और कृष्णराजकी सेनाकी रक्षा की। किरातोंको भगाया । वज्जालको हराया। वनवासीके अधिकारीको पकड़कर उसपर अधिकार किया। मथुराके राजाओंसे विनय प्राप्त की। नौलम्ब राजाओंको नष्ट किया। चालुक्य राजकुमार राजादित्यको हराया। तापी, मान्यखेड, गोनूर, वनवासी आदिकी लड़ाइयोंको जीता। इसकी गंगचूड़ामणि, नोलम्बांतक, माण्डलीक त्रिनेत्र, गंगविद्याधर, गंगवण आदि अनेक उपाधियाँ थीं। समरकेसरी चामुण्डराय यह राजा राचमल्लके सेनापति थे। राजा इनकी वीरतासे बड़ा प्रसन्न था। नब इन्होंने वज्जलदेवको हराया तो समरधुरन्धरकी पदवी पाई। नोलम्ब युद्धमें सफल होनेपर वीरमार्तण्ड कहलाये। उच्छंगके किलेको जीत लेनेपर रणराय Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनधर्म सिंह हुए। वागपुरके किलेमें त्रिभुवनवीरको मार डालनेपर बैरी-कुल-काल- दण्डकी उपाधि पाई। गंगभट्टको युद्ध में मारनेपर समरपरशुराम हुए। सत्यवादी होनेसे सत्य युधिष्ठिर कहे जाते थे । सेनापति गंगराज होय्सलवंश का प्रतापी नरेश विष्णुवर्द्धन था । उसकी अनेक विजयोंका श्रेय उसके आठ जैन सेनापतियोंको था । ये सेनापति थे- गंगराज, बोप्प, पुणिस, बलदेवण्ण, मरियाने, भरत, ऐच और विष्णु । इन सेनापतियोंके कारण ही होय्सल राज्य दक्षिण भारत की प्रधान शक्तियोंमें गिना गया । गंगराज - इन सेनापतियोंमें प्रधान था गंगराज | श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें गंगराजके प्रतापमय तथा धार्मिक कार्योंका वर्णन मिलता है। समधिगतपश्च महाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचण्ड दण्ड नायक, वैरिभयदायक श्रीजैनधर्मामृताम्बुधि प्रवर्द्धन सुधाकर, सम्यक्त्व रत्नाकर, धर्महम्र्योद्धरणमूल स्तम्भ, विष्णुवर्द्धन भूपालहोय्सल महाराज्याभिषेक पूर्ण कुम्भ आदि उनकी उपाधियाँ थीं। इन्होंने कन्नेगालमें चालुक्यसेना को पराजित किया था। जब वे चालुक्योंको पराजित करके लौटे तब विष्णुवर्द्धनने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगनेको कहा। उन्होंने परम नामक ग्राम मांगकर उसे अपनी माता तथा भार्या द्वारा निर्माण कराये जिन मन्दिरोंके लिये दान कर दिया । इसी प्रकार गोविन्दवाडी गाँव प्राप्त करके गोम्मटेश्वरको अर्पण कर दिया । उन्होंने तलकाडु, कोंङ्ग चेङ्गिरि आदि को स्वाधीन किया, नरसिंह को यमलोक भेजा, अदियम, तिमिल, दामोदरादि शत्रुओंको पराजित किया। इस तरह गंगराज जैसे पराक्रमी थे वैसे ही धर्मिष्ठ भी थे। उन्होंने गोम्मटेश्वर का परकोटा बनवाया, गङ्गवाडिके समस्त जिनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया, तथा अनेक स्थानों पर नवीन जिन मन्दिरोंका Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३२५ निर्माण कराया था। उनके मतसे ७ नरक ये थे-मूठ बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परस्त्रीरत रहना, शरणार्थीको शरण न देना, अधीनोंको असन्तुष्ट रखना, स्वामीसे द्रोह करना और जिन्हें पासमें रखना चाहिये उन्हें छोड़ देना। बोप्प-गंगराज का पुत्र दण्डेश बोप्पदेव भी बड़ा शूरवीर और धर्मिष्ठ था। उसने अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया था । सन् ११३४ में उसने शत्रुपर आक्रमण किया और उसकी प्रबल सेनाको खदेड़कर कोङ्गों को परास्त किया था। पुणिस-गंगराजके बहादुर सहयोगियोंमें पुणिस भी था। वह होयसल नरेश विष्णुवर्द्धनका सान्धिविग्रहिक था। उसने अनेक देश जीतकर विष्णुवर्द्धनको दिये । शूरवीर होनेके साथ उसका हृदय भी विशाल था। युद्धके कारण जो व्यापारी निर्धन होगये थे, किसानों के पास बोनेको बीज नहीं था, जो सरदार हारकर स्वामीसे सेवक बन गये थे, उन सबको, जिनका जो कुछ नष्ट होगया था वह सब पुणिसने दिया। मरियाने और भरत-होय्सल विष्णुवर्द्धनके सेनानायकोंमें दो भाई दण्डनायक मरियाने और भरत भी थे। दोनों भाई भी जैसे शूरवीर थे वैसेही धर्मात्मा भी थे। भरतने श्रवणवेलगोलामें ८० नई बसदियां बनवाई थीं, और गंगवाडिकी २०० पुरानी वसदियोंका जीर्णोद्धार कराया था। हुल-नरसिंह होय्सलका द्वितीय सेनापति हुल्ल या हुल्लप था। उस युगमें जैनधर्मके उद्धारकोंमें चामुण्डराय और गंगराजके बाद हुल्लपका ही नाम आता है। इस सेनापतिने होय्मल विष्णुवर्धन, नरसिंह और वल्लालद्वितीयके राज्यमें होय्सल वंशकी सेवा की थी। एक बार नरसिंह नरेश अपनी दिगविजय के समय वेल्गोलामें आये, गोम्मटेश्वरकी बन्दना की और हुल्लके बनवाये हुए चतुर्विशांति जिनालयके दर्शनकर उसका नाम भव्यचूड़ामणि रखा, क्योंकि हुल्लकी उपाधि सम्यक्त्व चूडामणि थी। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म ३२६ शान्तियण्ण-जैन सेनापति शान्तियण्णके पिताने युद्ध में शत्रुओंको परास्त करते हुए अपने प्राण दिए थे। इससे नरसिंहने उसके पुत्र शान्तियण्णको कसगुण्डका स्वामी और सेनाका दण्डनायक बनाया था। उसके गुरु मल्लिषेण पण्डित थे। रेचरस-शिलालेखमें लिखा है कि वल्लालदेवकी रत्नत्रय और धर्ममें दृढ़ता सुनकर कलचुरि कुलके सचिवोत्तम रेचरसने वल्लालदेवके चरणोंमें आश्रय पाकर आरसीकेरेमें सहस्रकूट चैत्यालयकी स्थापना की और मन्दिरकी व्यवस्थाके लिये राजा वल्लालसे हन्दरहालु ग्राम प्राप्तकर अपने वंशके गुरु सागरनन्दि सिद्धान्तदेवको सौंप दिया। यह रेचरस पहले सन् १९८२ में कलचूरि नरेश बिज्जलका दण्डनायक था। उसे कलचुरि नरेशोंसे देश निले थे। उसने सन् १२०० के लगभग शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा कराई थी। बूचिराज-यह होय्सल बल्लाल द्वितीयका सेनापतिथा । एक लेखमें उसे मन्त्रीश्वर और सान्धिविग्रहिक कहा है। उसने सन् ११७३ में राजावल्लाल के राज्याभिषेकके समय सीगेनाडके मारिकलि स्थानमें त्रिकूट जिनालय बनवाया और मन्दिरकी पूजा, जीर्णोद्धार आदिके लिए एक गाँव भेंट किया था। इरुगप्प-विजयनगर साम्राज्यको जिन जैन मंत्रियों और सेनापतियोंने अपनी सेवासे उपकृत किया था उनमें इरु गप्पका नाम विशेष उल्लेखनीय है । वह महामंत्री और सेनापति दोनों था। उसके पिता चैचय राजा हरिहरके कुलक्रमागत मंत्री और दण्डनायक थे । इरुगप्प ने विजयनगर में एक मन्दिर बनवाया था और उसमें कुन्थुनाथ जिनकी स्थापना की थी। ___ इस तरह दक्षिण भारतके राजवंशोमें कितने ही जैनधर्मके भक्त वीर सेनापति और मंत्री हुए हैं, जिन्होंने अपने शासनकालमें शूरवीरता और धर्मवीरताका समान परिचय दिया है । __ कलचूरि राजा कलचूरि वंश प्रारम्भमें जैनधर्मका पोषक था। पाँचवीं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध छठीं शताब्दीके अनेक शिलालेखों में लिखा है कि कलचूरियोंने देशपर चढ़ाई करके चोल और पांड्य राजाओंको परास्त किया और अपना राज्य जमाया । राजा अमोघवर्ष ३२७ यह राजा जैनधर्मका कट्टर अनुयायी था । इसकी प्रशस्तियोंमें लिखा है कि अंग, बंग, मगध, मालवा, चित्रकूट और वेडिं के राजा अमोघवर्षकी सेवामें रहते थे । वैङिके पूर्वी चालुक्योंसे इसका बराबर युद्ध होता रहा । वच्छावत सरदार बच्छराजके नामसे यह वंश वच्छावत कहलाया । वच्छराज बड़ा ही धर्मात्मा था । उसने जैनधर्मकी प्रभावनाके लिए बहुत कुछ किया । इसके वंशमें बड़े-बड़े अनुभवी और शूर पैदा हुए जिन्होंने अपनी बुद्धि और कार्य कुशलतासे राज्यकार्यों और सैनिक कार्यों में प्रवीणता दिखलाई। ये जिस प्रकार कलमके धनी थे वैसे ही तलवार के भी धनी थे । उनमें वरसिंह और नागराज बड़े प्रसिद्ध वीर थे। वीरसिंह तो हाजी खाँ लोदीके साथ लड़ाई में मारा गया किन्तु नागराजसिंहने लूनखाँके समयमें हुए बलवेमें बड़ी वीरता दिखलाई । धनराज जब १७८७ ई० में अजमेर के महाराजा विजयसिंहने अजमेरको मरहठोंसे पुनः जीत लिया तो धनराज सिंघीको, जो ओसवाल जैन थे, अजमेरका गवर्नर बनाया। चार सालके बाद मरहठोंने पुनः मारवाड़पर आक्रमण किया । इसी बीच मरहठा सरदारने अजमेरको भी चारों ओरसे घेर लिया । धनराजने अपनी छोटी-सी सेनासे शत्रुका सामना बड़ी वीरतासे किया किन्तु मरहठोंकी शक्ति देखकर विजयसिंहने धनराज - को आज्ञा दी कि अजमेर मरहठोंको सौंपकर जोधपुर चले आओ । धनराज न तो अपमानित होकर शत्रुको देश सौंपना Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैनधर्म चाहता था और न स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करना चाहता था। उसने होरेकी कनी खाकर प्राण त्याग दिये और मरते समय चिल्लाया-महाराजसे कह देना मैंने उनकी आज्ञाका पालन किया। मेरे जीतेजी मरहठे अजमेरमें प्रवेश नहीं कर सकते थे।' जनरल इन्द्रराज जैन ओसवालोंमें इन्द्रराज सबसे बड़े जनरल हुए हैं। इन्होंने बीकानेरके राजाको हराया और जयपुरके राजाका मान भंग किया । सन १८१५ में इनका स्वर्गवास जोधपुरमें हुआ। वस्तुपाल तेजपाल जैन मंत्रियों और सेनापनियों में वस्तुपाल तेजपालका नाम उल्लेखनीय है । ये दोनों भाई राजनीतिक पण्डित, तलवारके धनी, शिल्पकलाके प्रेमी और जैनधर्मक अनन्य भक्त थे। ये पोरवाड़ जैन थे और गुजरातके बघेलवंशी राजा वीरधवलके मंत्री थे। देवगिरिके यादववंशी राजा सिंहनने जब गुजरातपर आक्रमण किया तो इन वीरोंने उससे युद्ध करके विजय प्राप्त की। इसी प्रकार संग्रामसिंहने खम्भातपर हमला किया तो वस्तुपाल वहाँका गवर्नर था। घमासान युद्ध हुआ और संग्रामसिंहको युद्ध क्षेत्रसे भागना पड़ा। सेनापति आभू आभू श्रीमाली जैन राजपूत था। वह पक्का धर्माचरणी था। गुजरातके अन्तिम सोलंकी राजा भीमदेवका सेनाध्यक्ष था । अभी वह इस पदपर नया ही नियुक्त हुआ था और भीमदेव अनुपस्थित थे। ऐसे समयमें मुसलमानोंने राजधानीपर आक्रमण कर दिया। रानीको चिंता हुई किन्तु आभूके उत्साहप्रद वचनोंसे विश्वस्त होकर रानीने युद्धकी घोषणा कर दी और युद्धका भार आभूको सौंप दिया। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ विविध आभू अपने दैनिक धर्म-कर्मका बड़ा पक्का था। युद्धके मैदानमें सन्ध्या होते ही वह तलवार म्यानमें रखकर हाथीके हौदेपर ही आत्मध्यानमें लीन हो गया। यह देखकर लोग कहने लगे कि यह जैनी क्या लड़ेगा। किन्तु नित्यकृत्य करनेके बाद ही सेनापतिकी तलवार चमकने लगी और मुसलमानोंके सेनापतिको हथियार डालकर सन्धिकी प्रार्थना करनी पड़ी। जयपुर के जैन दीवान जयपुर राज्यके दीवान पदको बहुत वर्षोंतक जैनोंने सुशो. भित किया है, और राज्यको अनुशासित, सुखी तथा समृद्ध करनेमें स्तुत्य हाथ बटाया है तथा उसकी रक्षाके लिए बहुत कुछ किया है। यहाँ एक दो उदाहरण दिये जाते हैं। जब औरंगजेबका पुत्र बहादुरशाह भारतका सम्राट बना तो उसने आमेरपर कब्जा कर लिया और सवाई जयसिंहको राज्य छोड़ना पड़ा, तब दीवान रामचन्द्रने सेना संगठित करके आमेरपर चढ़ाई कर दी और आमेरपर पुनः जयसिंहका अधिकार हो गया। ____ इसी तरह दीवान रायचन्दजी छावड़ा भी जयपुर नरेशके प्रिय और विश्वासपात्र थे। सं० १८६२ में जब जयपुर और जोधपुरमें उदयपुरकी राजकुमारीको लेकर झगड़ा हुआ तब जोधपुरमें बख्शी सिंघी इन्द्रराज और दीवान रायचन्दने मिलकर झगड़को खत्म किया। किन्तु बादको लड़ाईकी नौबत आ गई और दीवान रायचन्दने बुद्धि-कौशल और शस्त्र-कौशलसे उसे निबटाया। ये दीवान बड़े धर्मात्मा थे। इन्होने १८६१ में एक बहुत बड़ी विम्ब प्रतिष्ठा कराई थी। ___इस तरह संक्षेपमें कुछ जैनवीरोंकी यह कीनि-गाथा है, जो बतलाती है कि जैन धर्मानुयायी आवश्यकता पड़नेपर मरने और मारनेके लिये भी तत्पर रहते हैं। क्योंकि जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' जो कर्मवीर होते हैं वही धर्मवीर होते हैं। ऐसा शास्त्र वाक्य है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनधर्म २. जैनपर्व दशलक्षण या पर्युषणपर्व जैनोंका सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण पर्व है । दिगम्बर सम्प्रदाय में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक तथा श्वे० में भाद्रकृ० १२ से भाद्रशु० ४ तक मनाया जाता है। इन दिनोंमें जैन मन्दिरोंमें खूब आनन्द छाया रहता है । प्रतिदिन प्रातः कालसे ही सब स्त्री-पुरुष स्नान करके मंदिरोंमें पहुँच जाते हैं और बड़े आनन्दके साथ भगवान्का पूजन करते हैं। पूजन समाप्त होनेपर प्रतिदिन श्री तत्त्वार्थ सूत्रके दस अध्यायोंमेंसे एक एक अध्यायका व्याख्यान और उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मोमेंसे एक एक धर्मका विवेचन होता हैं । इन दस धर्मोके कारण इस पर्वको दशलक्षणपर्व कहते हैं, क्योंकि धर्मके उक्त दस लक्षणोंका इस पर्व में खासतौर से आराधन किया जाता है । व्याख्यानके लिये बाहरसे बड़े बड़े विद्वान् बुलाये जाते हैं, और प्रायः सभी स्त्री-पुरुष उनके उपदेश से लाभ उठाते हैं । त्याग धर्म के दिन परोपकारी संस्थाओंको दान दिया जाता है और आश्विन कृष्णा प्रतिपदाके दिन पर्वकी समाप्ति होनेपर सब पुरुष एकत्र होकर परस्परमें गले मिलते हैं और गतवर्षकी अपनी गलतियोंके लिए परस्परमें क्षमायाचना करते हैं। जो लोग दूर देशान्तर में बसते हैं उन्हें पत्र लिखकर क्षमायाचना की जाती है । इन दिनोंमें प्रायः सभी स्त्री-पुरुष अपनी अपनी शक्तिके अनुसार व्रत उपवास वगैरह करते हैं । कोई कोई दसों दिन उपवास करते हैं, बहुतसे दसों दिन एक बार भोजन करते हैं। इन्हीं दिनोंमें भाद्रपद शुक्ला दशमीको सुगन्धदशमी पर्व होता है, इस दिन सब जैन स्त्री-पुरुष एकत्र होकर मन्दिरोंमें धूप खेनेके लिए जाते हैं, इन्दौर वगैरह में यह उत्सव दर्शनीय होता है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविष ३३१ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी अनन्त चतुर्दशी कहलाती है। इसका जैनों में बड़ा महत्त्व है । जैनशास्त्रोंके अनुसार इस दिन व्रत करनेसे बड़ा लाभ होता है। दूसरे, यह दशलक्षण पर्वका अन्तिम दिन भी है, इसलिये इस दिन प्रायः सभी जैन स्त्रीपुरुष व्रत रखते हैं और तमाम दिन मन्दिरमें ही बिताते हैं। अनेक स्थानोंपर इस दिन जलूस भी निकलता है। कुछ लोग इन्द्र बनकर जलूसके साथ जल लाते हैं और उस जलसे भगवान्का अभिषेक करते हैं। फिर पूजन होता है और पूजनके बाद अनन्त चतुर्दशीव्रतकथा होती है। जो व्रती निर्जल उपवास नहीं करते वे कथा सुनकर ही जल ग्रहण करते हैं। ___ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इसे 'पर्युषण' कहते हैं। साधुओंके लिये दस प्रकारका कल्प यानी आचार कहा है उसमें एक 'पर्युषणा' है। 'परि' अर्थात् पूर्ण रूपसे, उपणा अर्थात वसना । अर्थात् एक स्थान पर स्थिर रूपसे वास करनेको पर्युपणा कहते हैं। उसका दिनमान तीन प्रकारका है। कमसे कम ७० दिन, अधिकसे अधिक ६ मास और मध्यम ४ मास । कमसे कम ७० दिनके स्थिरवासका प्रारम्भ भाद्रपद सुदी पञ्चमीसे होता है । पहले यही परसरा प्रचलित थी किन्तु कहा जाता है कि कालिकाचार्यने चौथकी परस्परा चालू की। उस दिनको 'संवछरी' यानी सांवत्सरिक पर्व कहते है। सांवत्सरिक पर्व अर्थात् त्यागी साधुओंके वर्षावास निश्चित करनेका दिन । सांवत्सरिक पर्वको केन्द्र मानकर उसके साथ उससे पहलेके सातदिन मिलकर भाद्रपद कृष्ण १२ से शुक्ला चौथतक आठ दिन श्वेताम्बर सम्प्रदायमें 'पर्युषण' कहे जाते हैं। दिगम्बर सम्प्रदायमें आठके बदले दस दिन माने जाते हैं। और श्वेताम्बरोंके पर्युषण पूरा होनेके दूसरे दिनसे दिगम्बरोंका दशलाक्षणी पर्व प्रारम्भ होता है। सांवत्सरिक पर्वमें गतवर्षमें जो कोई वैर विरोध एक दूसरेके प्रति हो गया हो, उसके लिये 'मिच्छामि दुक्कडं' 'मेरे दुष्कृत मिथ्या हो' ऐसा कहकर क्षमा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनधर्म याचना की जाती है। इस पर्वका सन्मान मुगल बादशाह भी करते थे । सम्राट् अकबरने जैनाचार्य हीरविजय सूरिके उपदेशसे प्रभावित होकर पर्युषण पर्व में हिंसा बन्द रखनेका फर्मान अपने साम्राज्य में जारी किया था । अटान्हिका पर्व दिगम्बर सम्प्रदायका दूसरा महत्त्वपूर्ण पर्व अष्टाह्निका पर्व है । यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आसाढ़ मास के अन्तके आठ दिनों में मनाया जाता है। जैन मान्यताके अनुसार इस पृथ्वीपर आठवाँ नन्दीश्वरद्वीप है । उस द्वीपमें ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करनेके लिये स्वर्गसे देवगण उक्त दिनों में जाते हैं । चूँकि मनुष्य वहाँ तक जा नहीं सकते इसलिये वे उक्त दिनोंमें पर्व मनाकर यहीं पर पूजा कर लेते हैं । इन्हीं दिनों में सिद्धचक्र पूजा विधानका आयोजन किया जाता है । यह पूजा महोत्सव दर्शनीय होता है । श्वेताम्बरों में भी पर्युषणके बाद सबसे महत्त्वका जैन पर्व सिद्धचक्र पूजा विधान ही है। किन्तु उनमें यह पूजा वर्ष में दो बार चैत्र और आसौजमें होती है और सप्तमीसे पूनम तक ९ दिन चलती है । महावीर जयन्ती चैत्र शुक्ला त्रयोदशी भगवान् महावीरकी जन्मतिथि है । इस दिन भारतवर्षके सभी जैन अपना कारोबार बन्द रखकर अपने-अपने स्थानोंपर बड़ी धूम-धामसे महावीरकी जयन्ती मनाते हैं । प्रातःकाल जलूस निकालते हैं और रात्रिमें सार्वजनिक सभाका आयोजन होता है । भारत भर में बहुत-सी प्रान्तीय सरकारोंने अपने प्रान्तमें महावीर जयन्तीकी छुट्टी घोषित कर दी है। केन्द्रीय सरकारसे भी जैनोंकी यही माँग है। वीरशासन जयन्ती जैनोंके अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीरको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर उनकी सबसे पहली धर्मदेशना मगधकी राज Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३३३ गृही नगरीके विपुलाचल पर्वतपर प्रातःकाल के समय हुई थी । उसीके उपलक्ष में प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको वीर शासन जयन्ती मनाई जाती है । गत वि० सं० २००१ में पहले राजगृहमें और बादको कलकत्ता में अढ़ाई हजारवाँ वीर शासन महोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया गया । श्रुत पञ्चमी दिगम्बर सम्प्रदाय में धीरे-धीरे जब अंग ज्ञान लुप्त हो गया तो अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता आचार्य धरसेन हुए । वे सोरठ देशके गिरनार पर्वतकी चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे । उन्हें इस बात की चिन्ता हुई कि उनके बाद श्रुत ज्ञानका लोप हो जायेगा, अतः उन्होंने महिमा नगरी में होनेवाले मुनि सम्मेलनको पत्र लिखा, जिसके फलस्वरूप वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुँचे । आचार्यने उनकी बुद्धिकी परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त पढ़ाया और बिदा कर दिया । उन दोनों मुनियोंका नाम पुष्पदन्त और भूतबलि था । उन्होंने वहाँसे आकर षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रन्थकी रचना की । रचना हो जानेपर भूतबलि आचार्यने उसे पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन चतुर्विध संघके साथ उसकी पूजा की, जिससे श्रुतपञ्चमी तिथि दि० जैनियोंमें प्रख्यात हो गई । उस तिथिको वे शास्त्रोंकी पूजा करते हैं। उनकी देख-भाल करते हैं, धूल तथा जीवजन्तुसे उनकी सफाई करते हैं। श्वेताम्बरों में कार्तिक सुदी पंचमीको ज्ञानपंचमी माना जाता है । उस दिन वे धर्मग्रन्थोंकी पूजा तथा सफाई वगैरह करते हैं । १. " ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वण्यसंघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥१४३॥ श्रुतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरयं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः || १४४॥।” इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैनधर्म ___उक्त पर्वो के सिवा प्रत्येक तीर्थकरके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाणके दिन कल्याण क दिन कहे जाते हैं। उन दिनोंमें भी जगह जगह उत्सव मनाये जाते हैं । जैसे अनेक जगह प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवकी ज्ञान जयन्ती या निर्वाणतिथि मनाई जाती है। दीपावली ऊपर जो जैन पर्व बतलाये गये हैं वे ऐसे हैं जिन्हें केवल जैन धर्मानुयायी ही मनाते हैं। इनके सिवा कुछ पर्व ऐसे भी हैं जिन्हें जैनोंके सिवा हिन्दू जनता भी मनाती है। ऐसे पर्वोमें सबसे अधिक उल्लेखनीय दीपावली या दिवालीका पर्व है। यह पर्व कार्तिक मासकी अमावस्याको मनाया जाता है । साफ सुथरे मकान कार्तिकी अमावस्याकी सन्ध्याको दीपोंके प्रकाशसे जगमगा उठते हैं । घर-घर लक्ष्मीका पूजन होता है। सदियोंसे यह त्यौहार मनाया जाता है, किन्तु किसीको इसका पता नहीं है कि यह त्यौहार कब चला, क्यों चला और किसने चलाया ? कोई इसका सम्बन्ध रामचन्द्रजीके अयोध्या लौटनेसे लगाते हैं। कोई इसे सम्राट अशोककी दिग्विजयका सूचक बतलाते हैं। किन्तु रामायणमें इस तरहका कोई उल्लेख नहीं मिलता है, इतना ही नहीं, किन्तु किसी हिन्दू पुराण वगैरहमें भी इस सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं मिलता। बौद्धधर्म में तो यह त्योहार १. श्री वासुदेवशरण अग्रवालने हमें सुझाया है कि वात्स्यायन कामसूत्रमें दीपावलीको यक्षरात्रि महोत्सव कहा गया है। तथा बौद्धोंके 'पुप्फरत्त' जातकमें कार्तिककी रात्रिको होने वाले उत्सवका वर्णन है इसी प्रकार कार्तिकको पौर्णमासीको होने वाले उत्सवका वर्णन 'धम्मपद अट्ठकथा' में पाया जाता है । इन उल्लेखोंसे इतना ही पता चलता है कि कार्तिकमें रात्रिके समय कोई उत्सव मनाया जाता रहा है । किन्तु वह क्यों मनाया जाता है तथा उसका रूप क्या था, इसका पता नहीं चलता। ले० । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३३५ मनाया हो नहीं जाता। रह जाता है जैन सम्प्रदाय । इस सम्प्रदाय में शक सं० ७०५ ( वि० सं० ८४० ) का रचा हुआ हरिवंश पुराण है । उसमें भगवान् महावीरके निर्वाणका वर्णन करते हुए लिखा है- "महावीर भगवान् भव्यजीवोंको उपदेश देते हुए पावानगरी में पधारे, और वहाँके एक मनोहर उद्यानमें चतुर्थकालमें तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रह जानेपर कार्तिकी अमावस्या के प्रभातकालीन सन्ध्याके समय, योगका निरोध करके कर्मोंका नाश करके मुक्तिको प्राप्त हुए । चारों प्रकारके देवताओंने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाये । उस समय उन दीपकोंके प्रकाशसे पावानगरीका आकाश प्रदीपित हो रहा था । उसी समयसे भक्त लोग जिनेश्वरकी पूजा करनेके लिये भारतवर्ष में प्रति वर्ष उनके निर्वाण दिवसके उपलक्षमें दीपावली मनाते हैं ।” जैनधर्मकी आजकी स्थितिको देखते हुए कोई इस बातपर विश्वास नहीं कर सकता कि महावीर निर्वाणके उपलक्ष्यमें दीपावली मनाई जा सकती है । किन्तु उस समयके प्रसिद्ध प्रसिद्ध राजघरानोंके साथ महावीरका जो कुलक्रमागत सम्बन्ध था तथा उनपर जो प्रभाव था उसे देखते हुए ऐसा हो सकना १. "जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य संततं समंततो भव्यसमूहसंतति । प्रपद्य पावानगरीं गरीयसीं मनोहोद्यानवने तदीयके ॥ १५ ॥ चतुर्थकाले ऽर्ध चतुर्थमासकै विहीनताविश्वचतुरब्दशेषके । सकार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसु प्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः || १६ | अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय घातों धनबद्धबंधनं । विबन्धनस्थानमवाप शंकरो निरन्तरायोरुसुखानुबन्धम् ॥१७॥ ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समंततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ १९ ॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाण विभूतिभक्तिभाक् ॥ २० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैनधर्म असंभव तो नहीं कहा जा सकता। मझिमनिकायके सामगामसुत्तके अनुसार जब चुन्द महात्मा बुद्धके प्रिय शिष्य आनन्द को महावीरके मरनेका समाचार देता है तो आयुष्यमान आनन्द कहते हैं-'आवुस चुन्द ! भगवान बुद्धके दर्शनके लिए यह बात भेंट स्वरूप है।' इस घटनासे ही स्पष्ट हो जाता है कि अपने समयमें महावीर भगवानका कितना प्रभाव था। इसके सिवा दीपावलीके पूजनकी जो पद्धति प्रचलित है, उससे भी इस समस्यापर प्रकाश पड़ता है। दीपावलीके दिन क्यों लक्ष्मीपूजन होता है इसका सन्तोषजनक समाधान नहीं मिलता । दूसरी ओर, जिस समय भगवान महावीरका निर्वाण हुआ उसी समय उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हुई। यह गौतम ब्राह्मण थे। मुक्ति और ज्ञानको जैनधर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी माना है और प्रायः मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मीके नामसे ही शाखोंमें उनका उल्लेख किया गया है। अतः सम्भव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मीके पूजनकी प्रथाने धीरे-धीरे जनसमुदाय में बाह्य लक्ष्मीके पूजनका रूप ले लिया हो। बाह्यदृष्टिप्रधान मनुष्यसमाजमें ऐसा प्रायः देखा जाता है। लक्ष्मीपूजनके समय मिट्टीका घरौंदा और खेल खिलौने भी रखे जाते हैं। हमारे बड़े कहा करते थे कि यह घरौंदा भगवान महावीर अथवा उनके शिष्य गौतम गणधरकी उपदेश सभा (समवसरण ) की यादगारमें है और चूंकि उनका उपदेश सुननेके लिये मनुष्य पशु सभी जाते थे अतः उनकी यादगारमें उनकी मूर्तियाँ (खिलौने) रखे जाते हैं इस तरह दीपावलीके प्रकाशमें हम प्रतिवर्ष भगवानकी निर्वाण लक्ष्मीका पूजन करते हैं। और जिस रूपमें उनकी उपदेश सभा लगती थी उसका साज सजाते हैं। दीपावलीके प्रातःकालमें सभी जैन मन्दिरोंमें महावीर निवाणकी स्मृति में बड़ा उत्सव मनाया जाता है और नैवेद्य (लाडू) से भगवानकी पूजा की जाती है । इस ढंगकी पूजाका Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ विविध ३३७ आयोजन केवल इसी दिन होता है। इससे घर घर में उस दिन जो मिष्टान्न बनता है उसका उद्देश्य भी समझमें आ जाता है । सलूनो या रक्षाबन्धन दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्यौहार, जिसे जैनी मनाते हैं, सलूनो या रक्षाबन्धन पर्व है । साधारणतः इस त्यौहारके दिन घरों में सीमियाँ बनती हैं और ब्राह्मण लोग लोगोंके हाथोंमें राखियाँ, जिन्हें रक्षाबन्धन कहते हैं, बाँधकर दक्षिणा लेते हैं । राखी बाँधते समय वे एक श्लोक पढ़ते हैं जिसका भाव यह है - 'जिस राखीसे दानवोंका इन्द्र महाबलि बलिराजा बाँधा गया उससे मैं तुम्हें भी बाँधता हूँ मेरी रक्षा करो और उससे डिगना नहीं ।' 1 साथ ही साथ उत्तर भारतमें एक प्रथा और है । उस दिन हिन्दू मात्रके द्वारपर दोनों ओर मनुष्यके चित्र बनाये जाते हैं। उन्हें 'सोन' कहते हैं। पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बाँधी जाती है तब घरके लोग भोजन करते हैं । हमने अनेकों विद्वानों और पौराणिकांसे इस त्यौहारके बारेमें जानना चाहा कि यह कब कैसे चला किन्तु किसीसे भी कोई बात ज्ञात नहीं हो सकी । बलि राजाकी कथा वामनावतार के सिलसिले में आती है, किन्तु, उससे इस पर्व के बारेमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता । जैनपुराणों में अवश्य एक कथा मिलती हैं जो संक्षेपमें इस प्रकार है किसी समय उज्जैनी नगरी में श्रीधर्म नामका राजा राज्य करता था। उसके चार मंत्री थे - बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रहलाद | एक बार जैनमुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियोंके संघके साथ उज्जैनीमें पधारे। मंत्रियोंके मना करनेपर भी राजा मुनियोंके दर्शनके लिये गया। उस समय सब मुनि १. 'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबली । तेन त्वामपि बध्नामि रक्ष मा चल मा चल ॥' Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जैनधर्म ध्यानस्थ थे । लौटते हुए मार्गमें एक मुनिसे मंत्रियोंका शास्त्रार्थ हो गया। मंत्री पराजित हो गये। क्रुद्ध मंत्री रात्रिमें तलवार लेकर मुनियोंको मारनेके लिये निकले। मार्गमें गुरुकी आज्ञासे उसी शास्त्रार्थके स्थानपर ध्यानमें मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनिको देखकर मंत्रियोंने उनपर वार करनेके लिये जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्योंके त्यों रह गये। दिन निकलनेपर राजाने मंत्रियोंको देशसे निकाल दिया। चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुरके राजा पद्मकी शरणमें आये। वहाँ बलिने कौशलसे पद्म राजाके एक शत्रुको पकड़ कर उसके सुपुर्द कर दिया। पद्मने प्रसन्न होकर मुँहमाँगा वरदान दिया । बलिने समयपर वरदान माँगनेके लिये कह दिया। कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्यका संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और उसने वहीं वर्षावास करना तय किया । जब बलि वगैरहको इस बातका पता चला तो वे वहुत घबराये, पीछे उन्हें अपने अपमानका बदला चुकानेकी युक्ति सूझ गई। उन्होंने वरदानका स्मरण दिलाकर राजा पद्मसे सात दिनका राज्य माँग लिया । राज्य पाकर वलिने मुनिसंघके चारों ओर एक बाड़ा खड़ा करा दिया और उसके अन्दर पुरुषमेध यज्ञ करनेका प्रबन्ध किया। ___ इधर मुनियोंपर यह उपसर्ग प्रारम्भ हुआ उधर मिथिला नगरीमें वर्तमान एक निमित्तज्ञानी मुनिको इस उपसर्गका पता लग गया। उनके मुँह से 'हा हा' निकला। पासमें वर्तमान एक क्षुल्लकने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनिको विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस संकटको दूर कर सकते हैं । क्षुल्लक तत्काल मुनि विष्णुकुमारके पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुरके राजा पद्मके भाई थे। वे तुरन्त अपने भाई पद्मके पास पहुंचे और बोले- पद्मराज! तुमने यह क्या कर रखा है ? कुरुवंशमें ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ । यदि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३३६ राजा ही तपस्वियोंपर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा ? यदि जल ही आगको भड़काने लगे तो फिर उसे कौन बुझा सकेगा ।' उत्तर में पद्मने बलिको राज्य दे देनेका सब समाचार सुनाया और कुछ कर सकनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की। तब विष्णुकुमार मुनि वामनरूप धारण करके बलिके यज्ञमें पहुँचे और बलिके प्रार्थना करनेपर तीन पैर धरती उससे माँगी । जब बलिने दानका संकल्प कर दिया तो विष्णुकुमारने विक्रिया ऋद्धिके द्वारा अपने शरीरको बढ़ाया। उन्होंने अपना पहला पैर सुमेरु पर्वतपर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वतपर रखा, और तीसरा पैर स्थान न होनेसे आकाशमें डोलने लगा । तब सर्वत्र हाहाकार मच गया, देवता दौड़ पड़े और उन्होंने विष्णुकुमार मुनि से प्रार्थना की 'भगवन्! अपनी इस विक्रियाको समेटिये । आपके तपके प्रभावसे तीनों लोक चंचल हो उठे हैं । तब उन्होंने अपनी विक्रियाको समेटा । मुनियोंका उपसर्ग दूर हुआ और बलिको देशसे निकाल दिया गया । बलिके अत्याचारसे सर्वत्र हाहाकार मच गया था और लोगोंने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियोंका संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे । संकट दूर होनेपर सब लोगोंने दूधकी सीमियोंका हल्का भोजन तैयार किया; क्योंकि मुनि कई दिनके उपवासे थे । मुनि केवल सात सौ थे अतः वे केवल सात सौ घरोंपर ही पहुँच सकते थे । इसलिए शेष घरोंमें उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई। सबने परस्परमें रक्षा करनेका बन्धन बाँधा, जिसकी स्मृति त्यौहार के रूपमें अबतक चली आती है। दीवारोंपर जो चित्र रचना की जाती है उसे ''सौन' कहा जाता है, यह 'सौन' शब्द १. श्री वासुदेवशरण अग्रवालने हमें बताया है कि 'सोन' शब्द शकुनिका अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है गरुड़ पक्षी । श्रावण मासमें नाग Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनधर्म 'श्रमण' शब्दका अपभ्रंश जान पड़ता है । प्राचीनकालमें जैन साधु श्रमण कहलाते थे । इस प्रकारसे सलूनो या रक्षाबन्धनका त्यौहार जैन त्यौहारके रूपमें जैनोंमें आज भी मनाया जाता है । उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मुनियोंकी पूजा की जाती हैं। उसके बाद परस्पर में राखी बाँधकर दीवारोंपर चित्रित 'सौनों' को आहार दान दिया जाता है । तब सब भोजन करते हैं और गरीबों तथा ब्राह्मणोंको दान भी देते हैं। ३. तीर्थक्षेत्र साधारणतः जिस स्थानकी यात्रा करनेके लिए यात्री जाते हैं उसे तीर्थ कहते हैं । तीर्थ शब्दका अर्थ घाट अर्थात् स्नान करनेका स्थान भी होता है किन्तु जैनोंमें कोई स्नानस्थान तीर्थ नहीं है। नदियोंके जलमें पापनाशक शक्ति है यह बात हिन्दू मानते हैं किन्तु जैन नहीं मानते। इसी प्रकार सती होने की प्रथा हिन्दुओंकी दृष्टि से मान्य है और इसलिए वे सतियोंके स्थानोंको भी तीर्थको तरह पूजते हैं, किन्तु जैन उन्हें नहीं मानते। जैन दृष्टिसे तो तीर्थशब्दका एक ही अर्थ लिया जाता है - 'भवसागर से पार उतरनेका मार्ग बतलानेवाला स्थान' । इसलिए जिन स्थानोंपर तीर्थङ्करोंने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानोंको जैनी तीर्थस्थान मानते हैं । अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु वर्तमान हो, तीर्थङ्करोंके सिवा अन्य महापुरुष जहाँ रहे हों या उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते हैं। पंचमी के दिन जो चित्रकारी की जाती है वह नागोंकी सूचक है और रक्षाबन्धनके दिन जो चित्रकारी की जाती है वह गरुड़की सूचक है । नागों और गरुड़ोंके वैमनस्यका उल्लेख वैदिक साहित्यमें पाया जाता है । तथा वह प्रकाश और अन्धकार कीलड़ाईका भी सूचक है । रक्षाबन्धनके दिन गरुड़ या प्रकाशकी विजय नागों अथवा अन्धकार पर हुई थी । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३४१ जैनोंके तीर्थोकी संख्या बहुत है । उन सबको बतला सकना शक्य नहीं है, क्योंकि जैन धर्मकी अवनतिके कारण अनेक प्राचीन तीर्थ आज विस्मृत हो चुके हैं, अनेक स्थान दूसरोंके द्वारा अपनाये जा चुके हैं। कई प्रसिद्ध स्थानोंपर जैनमूर्तियाँ दूसरे देवताओंके रूपमें पूजी जाती हैं। उदाहरणके लिये प्रख्यात बद्रीनाथ तीर्थके मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथकी मूर्ति बद्रीविशालके रूपमें तमाम हिन्दू यात्रियोंके द्वारा पूजी जाती है। उसपर चन्दनका मोटा लेप थोपकर तथा हाथ वगैरह लगाकर उसका रूप बदल दिया जाता है, इसी लिये जब प्रातः काल शृङ्गार किया जाता है, तो किसीको देखने नहीं दिया जाता। क्या आश्चर्य हैं जो कभी वह जैन मन्दिर रहा हो और शंकराचार्यके द्वारा इस रूपमें कर दिया गया हो, जैसा कि वहाँ के पुराने बूढ़ोंके मुँह से सुना जाता है । अस्तु, जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके तीर्थस्थान हैं। उनमें बहुतसे ऐसे हैं जिन्हें दोनों ही मानते पूजते हैं । और बहुतसे ऐसे हैं जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते पूजते हैं या केवल श्वेताम्बर; अथवा एक सम्प्रदाय एक स्थानमें मानता है तो दूसरा दूसरे स्थानमें । कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुञ्जय और सम्मेद शिखर आदि ऐसे तीर्थ हैं जिनको दोनों ही सम्प्रदाय मानते हैं। गजपन्था, तुङ्गी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुंथुगिरि, सिद्धवरकूट, बड़बानी आदि तीर्थ ऐसे हैं, जिन्हें केवल दिगम्वर सम्प्रदाय ही मानता है। और इसी तरह आबूगिरि, शंखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ हैं जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही मानता है। यहाँ प्रसिद्ध प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्रोंका सामान्य परिचय प्रान्तवार कराया जाता है बिहार प्रदेश सम्मेद शिखर-हजारीबाग जिलेमें जैनोंका यह एक अतिप्रसिद्ध और अत्यन्त पूज्य सिद्धक्षेत्र है। इसे दिगम्बर और Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैनधर्म श्वेताम्बर दोनों ही समानरूपसे मानते और पूजते हैं। श्रीऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीरके सिवा शेष बीस तीर्थकरोंने इसी पर्वतसे निर्वाण प्राप्त किया था। २३वें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथके नामके ऊपरसे आज यह पर्वत 'पारसनाथ हिल' के नामसे प्रसिद्ध है। पूर्वीय रेलवेपर इसके रेलवे स्टेशनका नाम भी कुछ वर्षोंसे पारसनाथ हो गया है। इस पर्वतकी चोटियोंपर बने अनेक मन्दिरोंका दर्शन करनेके लिये प्रतिवर्ष हजारों दिगम्बर और श्वेताम्बर स्त्री पुरुष आते हैं। इसकी यात्रामें १८ मीलका चक्कर पड़ता है और ८ घंटे लगते हैं। कुलुआ पहाड़-यह पहाड़ जंगलमें है। गयासे जाया जाता है। इसकी चढ़ाई २ मील है। इसपर सैकड़ों जैन प्रतिमाएँ खण्डित पड़ी हैं। अनेक जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष भी पड़े हैं। कुछ जैन मन्दिर और प्रतिमाएँ अखण्डित भी हैं। कहा जाता है कि इस पहाड़पर १०वें तीर्थङ्कर शीतलनाथने तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया था। इण्डियन एन्टीक्वेरी (मार्च १९०१) में एक अंग्रेज लेखकने इसके सम्बन्धमें लिखा था-'पूर्वकालमें यह पहाड़ अवश्य जैनियोंका एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा; क्योंकि सिवाय दुर्गादेवीकी नवीन मूर्तिके और बौद्धमूर्तिके एक खण्डके अन्य सब चिह्न जो पहाड़पर हैं, वे सब जैन तीर्थङ्करोंको ही प्रकट करते हैं।' गुणावा-यह भगवान महावीरके प्रथम गणधर गौतम स्वामीका निर्वाणक्षेत्र है । गया-पटना ( ई० आर०) लाईनमें स्थित नवादा स्टेशनसे डेढ़ मील है। पावापुर-गुणावासे १३ मोलपर अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरका यह निर्वाणक्षेत्र है। उसके स्मारकस्वरूप तालाबके मध्यमें एक विशाल मन्दिर है, जिसको जलमन्दिर कहते हैं । जलमन्दिरमें महावीर स्वामी, गौतम स्वामी और सुधर्मा स्वामीके चरण स्थापित हैं। कार्तिक कृष्णा अमावस्याको भग Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३४३ वान महावीरके निर्वाण दिवसके उपलक्ष में यहाँ बहुत बड़ा मेला भरता है । राजगृही या पंच पहाड़ी - पावापुरीसे ११ मोल राजगृही है । एक समय यह मगध देशकी राजधानी थी । यहाँ २० वें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथका जन्म हुआ था । राजगृहीके चारों ओर पाँच पर्वत है उनके बीचमें राजगृही बसी थी। इसीसे इसे पंचपहाड़ी भी कहते हैं। महावीर भगवानका प्रथम उपदेश इसी नगरीके विपुलाचल पर्वतपर हुआ था । पाँचों पहाड़ोंके ऊपर जैन मन्दिर बने हैं। इन सभीकी बन्दना करनेमें १५-१६ मीलका चक्कर पड़ जाता है । कुण्डलपुर - यह राजगृहीसे १० मीलपर है । भगवान महावीरका जन्म स्थान मानकर पूजा जाता है । मन्दारगिरि—भागलपुरसे ३० मीलपर यह एक छोटासा पहाड़ है । इसीको बारहवें तीर्थङ्कर श्रीवासुपूज्य स्वामीका मोक्ष स्थान माना जाता है । किन्तु वर्तमानमें चम्पापुरको ही पाँचों कल्याणकोंका स्थान माना जाता है। भागलपुर से ४ मील नाथ नगर हैं और वहाँसे २ मीलपर चंपापुर है । पटना - यह विहार प्रान्तकी राजधानी है। पटना सिटीमें गुलजारबाग स्टेशनके पास में ही एक छोटी-सी टीकरीपर चरणपादुकाएँ स्थापित हैं । यहाँसे सेठ सुदर्शनने मुक्तिलाभ किया था। इनकी जीवन कथा अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है । उत्तर प्रदेश बनारस – इन नगरके भदैनीघाट मुहालमें गंगा के किनारेपर दो विशाल दि० जैन मन्दिर तथा एक श्वे० मन्दिर बने हैं जो सातवें तीर्थङ्कर भगवान सुपार्श्वनाथके जन्म स्थान रूपसे माने जाते हैं । यहाँपर जैनोंका अतिप्रसिद्ध म्याद्वाद महाविद्यालय स्थापित है जिसमें संस्कृत और जैनधर्मकी ऊँचीसे ऊँची शिक्षा दी जाती है । भेलुपुर मुहल्लामें भी दोनों सम्प्रदायोंके मन्दिर Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैनधर्म हैं। यह स्थान तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथकी जन्मभूमि होनेसे पूजनीय है। इस प्रकार बनारस दो तीर्थङ्करोंका जन्म स्थान है । शहरमें अन्य भी कई जैन मन्दिर हैं। सिंहपुरी-बनारससे ६ मीलकी दूरीपर सारनाथ नामका ग्राम है जो बौद्ध पुरातत्त्वकी दृष्टिसे अतिप्रसिद्ध है। यहींपर किसी समय सिंहपुरी नामकी नगरी बसी हुई थी, जिसमें ११वें तीर्थङ्कर श्रीश्रेयांसनाथने जन्म लिया था। यहाँपर जैन मन्दिर और जैनधर्म शाला है। दिगम्बर जैनोंका मन्दिर तो बौद्ध मन्दिरके ही पासमें है किन्तु श्वेताम्बर मन्दिर कुछ दूरीपर पुराने रेलवे स्टेशनके पास बना है। ___चन्द्रपुरी-सारनाथ से ९ मीलपर चन्द्रवटी नामका गाँव है जो चन्द्रपुरीका भग्नावशेष कहा जा सकता है । यहाँपर आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु भगवानने जन्म लिया था। यहाँ गंगाके तटपर दोनों सम्प्रदायोंके मन्दिर अलग-अलग बने हुए हैं। . प्रयाग-यहाँ त्रिवेणी संगमके पास ही एक पुराना किला है। किलेके भीतर जमीनके अन्दर एक अक्षयवट (बड़का पेड़) है। कहते हैं कि श्रीऋषभदेवने यहाँ तप किया था। किलेमें प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी हैं। फफौसा-इलाहाबाद कानपुरके बीच में उत्तरीय रेलवेपर भरवारो नामका स्टेशन है; वहाँसे २०-२५ मीलपर यह एक छोटासा गाँव है। उसके पास में ही प्रभास नामसे एक पहाड़ है। चढ़नेके लिये ११६ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कहा जाता है कि इस पहाड़पर छठे तीर्थककर पद्मप्रमु मगवानने तप किया था और यहींपर उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। यहाँ एक मन्दिर है और मन्दिरके आगे चट्टानमें उकेरी हुई प्रतिमाएँ हैं। ___कौशाम्बी-फफौसासे ४ मीलपर गढ़वाय नामका गाँव है। उसके पास ही में कुशंबा नामका गाँव है, जिसे प्राचीन Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३४५ कौशाम्बी नगरी माना जाता है । इस नगरीमें भगवान पद्मप्रभुका जन्म हुआ था। अयोध्या-जैन शास्त्रोंके अनुसार यह प्रसिद्ध नगरी अतिप्राचीनकालसे जैनोंका मुख्य स्थान रही है। जैनोंके ५ तीर्थकरोंका जन्म इसी नगरीमें हुआ था। आज यहाँ अनेक जैन मन्दिर और धर्मशालाएँ वर्तमान हैं। ___ खुखुन्दू-गोरखपुरसे एन० ई० रेलवेका नोनखार स्टेशन २९ मोल है । वहाँसे ३ मील खुखुन्दू गाँव है । इसका प्राचीन नाम किष्किन्धा बतलाया जाता है। यह श्रीपुष्पदन्त तीर्थङ्करका जन्मस्थान है। यहाँके मन्दिर में श्री पुष्पदन्त भगवानकी मूर्ति विराजमान है। - सेटमेंट-फैजाबादसे गोंडा रोडपर २१ मील बलरामपुर है। बलरामपुरसे १० मीलपर सेंटमेंट है। इसका प्राचीन नाम श्रावस्ती बतलाया जाता है जो कि तीसरे तीर्थङ्कर संभवनाथकी जन्मभूमि है। ___रत्नपुरी-यह स्थान फैजाबाद जिलेमें सोहावल स्टेशनसे शा मील है । यह श्रीधर्मनाथ स्वामीकी जन्मभूमि है। एक मन्दिर श्वेताम्बरोंका व दो दिगम्बरोंके हैं। कम्पिला-यह तीर्थक्षेत्र जिला फरक्खाबादमें एन० इ० रेलवेके कायमगंज स्टेशनसे ८ मील है । यहाँ तेरहवें तीर्थङ्कर श्रीविमलनाथके ४ कल्याणक हुए हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मासमें यहाँ मेला भी भरता है और रथोत्सव होता है। ____ अहिक्षेत्र-एन० आर० की बरेली-अलीगढ़ लाइनपर आँवला स्टेशन है । वहाँसे ८ मील रामनगर गाँव है उसीसे लगा हुआ यह क्षेत्र है । इस क्षेत्रपर तपस्या करते हुए भगवान पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीवने घोर उपसर्ग किया था। और उन्हें केवलज्ञानको प्राप्ति हुई थी। प्रतिवर्ष चैत्र बदी ८ से द्वादशी तक यहाँ मेला होता है। हस्तिनागपुर-यह क्षेत्र मेरठसे १२ मील है। यहाँ श्रीशा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनधर्म न्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ तोर्थङ्करोंके गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान इस तरह चार कल्याणक हुए हैं । तथा १९ वें मल्लिनाथ तीर्थङ्करका समवसरण भी आया था । यहाँ पर दिल्लीके लाला हरसुखदासजीका बनवाया हुआ एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर और धर्मशाला है। पासमें ही श्वेताम्बरोंका भी मन्दिर है । धर्मशालासे लगभग २ - ३ मीलपर चारों तीर्थङ्करों की चार दि० जैन नशियाँ बनी हुई हैं जो प्राचीन हैं। प्रति वर्ष कार्तिक सुदी ८ से पूर्णमासी तक दिगम्बर जैनोंका बहुत बड़ा मेला भरता है । चौरासी - मथुरा शहर से करीब १ || मील पर दिगम्बर जैनोंका यह प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र है, परम्पराके अनुसार यह अन्तिम केवली श्रीजम्बू स्वामीका मोक्ष स्थान माना जाता है । यहाँपर एक विशाल जैन मन्दिर है जिसमें उनके चरण चिह्न स्थापित हैं । प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्ण २ से अष्टमी तक रथोत्सव होता है । यहाँ से पासमें ही प्रसिद्ध कंकाली टीला है जहाँसे जैन पुरातत्वकी अति प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई है । यहाँ पर ही भा० द० जैन संघका संघभवन बना हुआ है जिसमें उसका प्रधान कार्यालय तथा एक विशाल सरस्वती भवन है । पासमें ही श्रीऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित है । सौरीपुर —-मैनपुरी जिलेके शिकोहाबाद नामक स्थानसे १३ मीलपर यमुना नदीके तटपर बटेश्वर नामका एक प्राचीन गाँव है। गाँव के बीचमें विशाल जैन मन्दिर है। नीचे धर्मशाला है। यहाँसे १ मील जंगलमें कई प्राचीन मन्दिर हैं और एक छतरी है जिसमें श्रीनेमिनाथके चरण चिह्न स्थापित हैं । इस स्थानको श्रीनेमिनाथका जन्म स्थान माना जाता है । बुन्देलखण्ड व मध्यप्रान्त ग्वालियर - यह कोई तीर्थ क्षेत्र तो नहीं है किन्तु यहाँके किलेके आस पास चट्टानोंमें बहुत-सी दिगम्बर जैन मूर्तियाँ बनी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३४७ हुई हैं। एक मूर्ति श्रीनेमिनाथजीकी ३० फुट ऊँची है और दूसरी आदिनाथकी मूर्ति उससे भी विशाल है । लश्कर और ग्वालियर में लगभग २५ दिगम्बर जैन मन्दिर हैं जिनमेंसे अनेक मन्दिर बहुत विशाल हैं । सोनागिरि - ग्वालियर - झाँसी लाइनपर सोनागिर नामका स्टेशन है, उससे लगभग २ मील पर यह सिद्ध क्षेत्र है । वहाँ एक छोटी-सी पहाड़ी है। पहाड़ पर ७७ दिगम्बर जैन मन्दिर हैं, जिनकी वंदना || मीलका चक्कर पड़ता है । यहाँसे बहुतसे मुनि मोक्ष गये हैं! तलहटीमें चार धर्मशालाएँ और १७ मन्दिर हैं । यहाँ एक विद्यालय भी स्थापित है । अजयगढ़ —यह अजयगढ़ स्टेटकी राजधानी है। इसके पास ही एक पहाड़ है, उसपर एक किला है । उसकी दीवारोंकी दो शिलाओं में लगभग २० दिगम्बर जैन मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं । पास में ही तालाब हैं। उसकी भी दीवार में बहुत-सी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से एककी ऊँचाई १५ फुट और दूसरीकी १० फुट है। एक मानस्तम्भ भी है। उसमें भी अनेक मूर्तियाँ बनी हैं। खजराहा–पन्नासे छतरपुरको जाते हुए २१वें मीलपर एक तिराहा पड़ता है, वहाँसे खजराहा ७ मील है । यह छोटा-सा गाँव है । दो धर्मशालाएँ हैं । यहाँ इस समय ३१ दि० जैन मन्दिर हैं । यहाँके मन्दिरोंकी स्थापत्यकला दर्शनीय है । द्रोणगिरि - छतरपुर से सागर रोडपर ४० मील सादनवाँ है वहाँसे दाहिनी ओर कच्ची रोडसे ६ मीलपर संधपा नामका गाँव है । गाँव के पास ही एक पर्वत है जिसे द्रोणगिरि कहते हैं । यहाँसे गुरुदत्त आदि मुनि मोक्षको गये हैं। पहाड़पर २४ मन्दिर हैं । प्रतिवर्ष चैत सुदी ८ से १४ तक मेला भरता है । नैनागिरि – यह क्षेत्र सेन्ट्रल रेलवेके सागर स्टेशनसे ३० मील पर है । गाँव में एक धर्मशाला और ७ मन्दिर हैं । धर्मशाला से २ फलांगपर रेसन्दी पर्वत है, यहाँसे श्रीवरदत्त आदि मुनि मोक्ष गये हैं। पर्वतपर २५ मन्दिर हैं । एक मन्दिर Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैनधर्म तालाबके बीचमें है । प्रतिवर्ष कार्तिक सुदी ८ से १५ तक मेला भरता है । कुण्डलपुर - सेन्ट्रल रेलवेकी कटनी-बीना लाईनपर दमोह स्टेशन है | वहाँसे लगभग २५ मीलपर यह क्षेत्र है। इस क्षेत्रपर कुण्डलके आकारका एक पर्वत है इसीसे शायद इसका नाम कुण्डलपुर पड़ा है । पर्वत तथा उसकी तलहटी में सब मिलाकर ५९ मन्दिर हैं । पर्वतके मन्दिरोंके बीच में एक बड़ा मन्दिर है, इसमें एक जैन मूर्ति विराजमान है जो पहाड़को काटकर बनाई गई जान पड़ती है । यह मूर्ति पद्मासन है फिर भी इसकी ऊँचाई ९-१० फुट से कम नहीं है । यह भगवान महावीरकी मूर्ति मानी जाती है । इस प्रान्तमें इस मूर्तिकी बड़ी मान्यता है । दूर-दूरसे लोग इसकी पूजा करनेके लिये आते हैं। इसके माहात्म्यके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । महाराजा छत्रसालके समय में उन्हींकी प्रेरणासे इसका जीर्णोद्धार हुआ था, जिसका शिलालेख अंकित है । सागरसे ४८ मीलपर वीनाजी क्षेत्र है यहाँ तीन जैन मन्दिर हैं जिनमें एक प्रतिमा शान्तिनाथ भगवानकी १४ फुट ऊँची तथा एक प्रतिमा महावीर भगवानकी १२ फुट ऊँची विराजमान है । और भी अनेक मनोहर मूर्तियाँ हैं । सागरसे ३८ मील मालथौन गाँव है। गाँवसे १ मीलपर एक जैन मंदिर है। इसमें १० गजसे लेकर २४ गजतककी ऊँची खड़े आसनकी अनेक प्रतिमाएँ हैं । ललितपुरसे १० मीलपर सैरोन गाँव है । वहाँसे आधा मीलपर ५-६ प्राचीन जैन मन्दिर हैं । चारों ओर कोट है । यहाँ एक मूर्ति २० गज ऊँची शान्तिनाथ भगवानकी है, तथा चार पाँच फुट ऊँची सैकड़ों खण्डित मूर्तियाँ हैं। देवगढ़ – सेन्ट्रल रेल्वेके ललितपुर स्टेशनसे १९ मील एक पहाड़ीपर यह क्षेत्र स्थित है । यह सचमुच देवगढ़ है । यहाँ अनेक प्राचीन जिनालय हैं और अगणित खण्डित मूर्तियाँ हैं । कलाकी दृष्टिसे भी यहाँकी मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। कुशल कारीगरों Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३५१ ने पत्थरको मोम कर दिया है। करीब २०० शिल। गुफाओंके उत्कीर्ण हैं । ८ मनोहर मानस्तंभ हैं । प्राकृतिक सौन्स प्राप्त अनुपम है । यहाँसे ६ मीलपर चाँदपुर स्थान है । वहाँ भी अ.. जैनमूर्तियाँ है जिनमें १४ गज ऊँची एक मूर्ति शान्तिनाथ तीर्थङ्करकी है । पपौरा - विंध्यप्रान्तमें टीकगमढ़से कुछ दूरीपर जंगलमें यह क्षेत्र स्थित है । उसके चारों ओर कोट बना है। जिसके अन्दर लगभग ९० मन्दिर हैं । एक वीर विद्यालय भी है। कार्तिक सुदी १४ को प्रतिवर्ष मेला भरता है । अहार - टीकमगढ़से ९ मीलपर अहार गाँव है। वहाँसे करीब ६ मीलपर एक ऊजड़ स्थानमें तीन दिगम्बर जैन मन्दिर हैं । एक मन्दिरमें २१ फुटकी ऊँची शान्तिनाथ भगवानकी अति मनोज्ञमूर्ति विराजमान है जो खण्डित है किन्तु बाद में जोड़कर ठीक की गई है। यह प्रतिमा वि० सं० १२३७ में प्रतिष्ठित की गई थी । इन मन्दिरोंके सिवा यहाँ अन्य भी अनेक मन्दिर बने हुए थे, किन्तु बादशाही जमाने में वे सब नष्ट कर दिये गये और अब अगणित खण्डित मूर्तियाँ वहाँ वर्तमान हैं। क्षेत्र कलाप्रेमियोंके लिये भी दर्शनीय है। अब यहाँ एक पाठशाला भी चालू है। चन्देरी - यह ललितपुरसे बीस मील है । यहाँ एक जैन मन्दिरमें चौबीस वेदियाँ बनी हुई हैं और उनमें जिस तीर्थङ्करके शरीरका जैसा रंग था उसी रंगको चौबीसों तीर्थङ्करोंकी चौबीस मूर्तियाँ विराजमान हैं। ऐसी चौबीसी अन्यत्र कहीं भी नहीं है । यहाँसे उत्तर में ९ मीलपर बूढ़ी चन्देरी है । यहाँपर सैकड़ों जैन मन्दिर जीर्णशीर्ण दशामें हैं, जिनमें बड़ी ही सौम्य और चित्ताकर्षक मूर्तियाँ हैं । पचराई – चन्देरीसे ३४ मील खनियाधाना स्थान है और वहाँसे ८ मीलपर पचराई गाँव है । यहाँपर २८ जिनमन्दिर हैं Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैनधर्म तालाबके पर मूर्तियाँ हैं, इनमें आधके लगभग भरता लेख यहाँ ८ मील थूवनजी है। यहाँ २५ मन्दिर पत्थरोंमें उकेरी हुई हैं, खड़े योग हैं ऊँची हैं। ' आवश्यक है कि बुन्देलखण्डके उक्त सभा मत्र दिगम्बर जैन ही हैं। वहाँ श्वेताम्बरोंका निवास न होनेसे उनका एक भी तीर्थक्षेत्र नहीं है। ___अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ-सेन्ट्रल रेलवेके अकोला (बरार) स्टेशनसे लगभग ४० मीलपर शिवपुर नामका गाँव है। गाँवके मध्य धर्मशालाओंके बीच में एक बहुत बड़ा प्राचीन विशाल दुमजला जैन मन्दिर है। नीचेकी मंजिलमें एक श्यामवर्ण २॥ फुट ऊँची पार्श्वनाथजीकी प्राचीन प्रतिमा है जो वेदीमें अधर विराजमान है। सिर्फ दक्षिण घुटना जमीनमें सटा हुआ है। इसीसे यह प्रतिमा अन्तरिक्ष पार्श्वनाथके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ दोनों सम्प्रदायोंके लिये पूजाका समय नियत है। सुबह ६ से ९ और १२ से ३ तक श्वेताम्बर पूजन करते हैं और ९ से १२ तथा ३ से ६ तक दिगम्बर लोग पूजन करते हैं। ___कारंजा-अकोला जिलेमें मूर्तिजापूर स्टेशनसे यवतमालको जानेवाली रेलवे लाईनपर यह एक कसबा है। यहाँपर तीन विशाल प्राचीन जैनमन्दिर हैं । एक मन्दिरमें चाँदी, सोने, होरे, मूंगे और पन्नेकी प्रतिमाएँ हैं। यहाँ दो भट्टारकोंकी गद्दियाँ हैं एक बलात्कारगणकी, दूसरी सेनगणकी। सेनगणके भट्टारकके मन्दिरमें संस्कृत प्राकृतके प्राचीन जैनग्रन्थोंका बहुत बड़ा भंडार है। यहाँ महाबीर ब्रह्मचर्याश्रम नामकी एक आदर्श शिक्षा संस्था भी है। मुक्तागिरि-यह सिद्धक्षेत्र बराड़के एलचपुरसे १२ मीलपर पहाड़ी जंगलमें है। नीचे धर्मशाला है। पासमें ही एक छोटी पहाड़ी है, जिसपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। ऊपर Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३५१ कई गुफाएँ है जिनमें बहुतसी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। गुफाओंके आसपास ५२ मन्दिर हैं। यहाँसे बहुतसे मुनियोंने मोक्ष प्राप्त किया था। भातकुली यह अतिशय क्षेत्र अमरावतीसे १० मीलपर है। यहाँ ३ दि० जैनमन्दिर हैं जिनमेंसे एकमें श्रीऋषभदेव स्वामीकी पद्मासनयुक्त तीन फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। इसकी यहाँ बहुत मान्यता है। प्रति वर्ष कार्तिक बदी पंचमीको मेला भरता है। रामटेक-यह स्थान नागपुरसे २४ मीलपर है। यहाँ दि० जैनोंके आठ मन्दिर हैं, जिनमेंसे एक प्राचीन मन्दिरमें सोलहवें तीर्थक्कर श्री शान्तिनाथ स्वामीकी १५ फीट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। राजपूताना व मालवा प्रान्त श्रीमहावीरजी-पश्चिमी रेलवेकी नागदा-मथुरा लाईनपर 'श्रीमहावीरजी' नामका स्टेशन है। यहाँसे ४ मीलपर यह क्षेत्र है । यहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर है, उसमें महावीर स्वामीकी एक अति मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा पासके ही एक टीलेके अन्दरसे निकली थी। इसे जैन और जैनेतर-खास करके जयपुर रियासतके मीना और गूजर बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे पूजते हैं । यात्रियोंका सदा तांता लगा रहता है। प्रतिवर्ष बैसाख बदी एकमको महाबोर भगवानकी सवारी रियासती लवाजमेंके साथ निकलती है । लाखों मीना एकत्र होते हैं । वे ही सवारीको नदी तक ले जाते हैं। उधर गूजर तैयार खड़े रहते हैं । मीना चले जाते हैं और गूजर सवारीको लौटाकर लाते हैं । फिर गूजरोंका मेला भरता है। चाँद खेड़ी-कोटा रियासतमें खानपुर नामका एक प्राचीन नगर है। खानपुरसे २ फागकी दूरी पर चाँद खेड़ी नामकी Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैनधर्म पुरानी बस्ती है। यहाँ भूगर्भ में एक अतिविशाल जैन मन्दिर है। इसमें अनेक विशाल जैन प्रतिमाएँ हैं। सब प्रतिमाएँ ५७७ हैं। द्वारके उत्तर भागमें एक ही पाषाणका १० फुट ऊँचा कीर्तिस्तम्भ है, इसमें चारों ओर दिगम्बर-प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं, तीन तरफ लेख भी हैं। मक्सीपाश्र्वनाथ-ग्वालियर रियासतमें सेन्ट्रल रेलवेकी भूपाल-उज्जैन शाखामें इस नामका स्टेशन है। यहाँसे एक मीलपर एक प्राचीन जैन मन्दिर है। उसमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी ढाई फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है जो बड़ी ही मनोज्ञ है। इसको दोनों सम्प्रदायवाले पूजते हैं। परन्तु समय नियत है। सुबह ६ से 8 तक दिगम्बर सम्प्रदायवाले पूजते हैं फिर शेष समय श्वेताम्बरोके लिये नियत है । विजौलिया पार्श्वनाथ-नीमचसे ६८ मीलपर विजौलिया रियासत है। विजौलिया गाँवके समीपमें ही श्री पार्श्वनाथ स्वामीका अतिप्राचीन और रमणीय अतिशय क्षेत्र है। एक मन्दिरमें एक ताकके महाराबके ऊपर २३ प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं। चारों तरफ दोवारोंपर भी मुनियोंकी बहुत सी मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। एक विशाल सभामण्डप, चार गुमटियाँ और दो मानस्तम्भ भी हैं। मानस्तम्भोंपर प्रतिमाएँ और शिलालेख हैं। श्रीऋषभदेव (केशरियाजी)-उदयपुरसे करीब ४० मीलपर यह क्षेत्र है। यहाँ श्रीऋषभदेवजीका एक बहुत विशाल मन्दिर बना हुआ है। उसके चारों ओर कोट है । भीतर मध्यमें संगमरमरका एक बड़ा मन्दिर है जिसके ४८ ऊँचे ऊँचे शिखर हैं। इसके भीतर जाने से श्रीऋषभदेवजीका बड़ा मन्दिर मिलता है, जिसमें श्रीऋषभदेवकी ६-७ फुट ऊँची पद्मासनयुक्त श्यामवर्णकी दिगम्बर जैनमूर्ति है। यहाँ केशर चढ़ानेका इतना रिवाज है कि सारी मूर्ति केशरसे ढक जाती है । इसीलिये इसे केशरियाजी भी कहते हैं। श्वेताम्बरोंकी ओरसे मूर्तिपर आंगी, Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ विविध ३५३ मुकुट, और सिंदूर भी चढ़ता है। इसकी बड़ी मान्यता है । दोनों सम्प्रदायवाले इसकी पूजा करते हैं। आबू पहाड़ -- पश्चिमी रेलवेके आबू रोड स्टेशनसे आबू पहाड़के लिये मोटरें जाती हैं। पहाड़पर सड़क के दायीं ओर एक दिगम्बर जैन मन्दिर है, तथा बायीं ओर दैलवाड़ाके प्रसिद्ध श्वेताम्बर मन्दिर बने हुए हैं, जिनमेंसे एक मन्दिर विमलशाहने वि० सं० १०८८ में १८ करोड़ ५३ लाख रुपये खर्च करके बनवाया था । दूसरा मन्दिर वस्तुपाल तेजपालने बारह करोड़ ५३ लाख रुपये खर्च करके बनवाया था । संगमरमरपर छीनीके द्वारा जो नक्काशी की गई है वह देखने की ही चीज है । दोनों विशाल मन्दिरोंके बीच में एक छोटासा दि० जैन मन्दिर भी है। अचलगढ़ - देलवाड़ासे पाँच मोल अचलगढ़ है। यहाँ तीन श्वेताम्बर मन्दिर हैं । उनमेंसे एक मन्दिरमें सप्तधातुकी १४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । I सिद्धवरकूट - इन्दौरसे खण्डवा लाईन पर मोरटक्का नामका स्टेशन है । वहाँसे ओंकारजी जाते हैं जो नर्मदाके तटपर है । यहाँसे नावमें सवार होकर सिद्धवरकूटको जाते हैं । यह क्षेत्र रेवानदी के तटपर है । यहाँसे दो चक्रवर्ती व दस कामदेव तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। ऊन - खण्डवासे ऊन मोटरके द्वारा जाया जाता है । ३-४ घंटे का रास्ता है । यहाँ एक प्राचीन मन्दिर है जो सं० १२१८ का बना हुआ है । दो और भी प्राचीन मन्दिर हैं जो जीर्ण हो गये हैं । यह क्षेत्र कुछ ही वर्ष पहले प्रकाशमें आया है । इसे पावागिरि सिद्धक्षेत्र कहा जाता है । बड़वानी - बड़वानीसे ५ मील पहाड़पर जानेसे बड़वानी क्षेत्र मिलता है। बड़वानीसे निकट होनेके कारण इस क्षेत्रको बढ़वानी कहते हैं वैसे इसका नाम चूलगिरि है । इस चूलगिरि - से इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने मुक्ति प्राप्त की थी । क्षेत्रकी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनधर्म वन्दनाको जाते हुए सबसे पहले एक विशालकाय मूर्तिके दर्शन होते हैं। यह खड़ी हुई मूर्ति भगवान ऋषभदेवकी है, इसकी ऊँचाई ८४ फीट है। इस बावन गजाजी भी कहते हैं। सं० ५२२३ में इसके जीर्णोद्धार होनेका उल्लेख मिलता है । पहाड़पर २२ मन्दिर हैं । प्रतिवर्ष पौष सुदी ८ से १५ तक मेला होता है। गुजरात तथा महाराष्ट्र प्रान्त तारंगा-यह प्राचीन सिद्ध क्षेत्र गुजरात प्रान्तके महीकाँटा जिलेमें पश्चिमीय रेलवेके तारंगा हिल नामके स्टेशनसे तीन मील पहाड़के ऊपर है। यहाँसे वरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँपर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक मन्दिर और गुमटियाँ हैं। गिरनार-सौराष्ट्र प्रान्तमें जूनागढ़के निकट यह सिद्धक्षेत्र वर्तमान है । जूनागढ़ स्टेशनसे ४-५ मीलकी दूरीपर गिरिनार पर्वतकी तलहटी है, वहाँ दोनों सम्प्रदायोंकी धर्मशालाएँ हैं पहाड़पर चढ़ने के लिये धर्मशालाके पाससे ही पक्की सीड़ियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं और अन्ततक चली जाती हैं । २२ वें तीर्थकर श्रीनेमिनाथने इसी पहाड़के सहस्राम्र वनमें दीक्षा धारण करके तप किया था। यहीं उन्हें केवलज्ञान हुआ था और यहींसे उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था। उनकी वाग्दत्ता पत्नी राजुलने भी यहीं दीक्षा ली थी। पहले पहाड़पर पहुँचनेपर एक गुफामें राजुलको मूर्ति बनी हुई है। तथा दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके अनेक मन्दिर बने हुए हैं। दूसरे पहाड़पर चरण चिह हैं यहाँसे अनिरुद्ध कुमारने निर्वाण प्राप्त किया था। तीसरेसे शम्भु कुमारने निर्वाण लाभ किया था। चौथे पहाड़पर चढ़नेके लिये सीड़ियाँ नहीं हैं इसलिये उसपर चढ़ना बहुत कठिन है। यहाँसे श्री कृष्णजीके पुत्र प्रद्मम्न कुमारने मोक्ष प्राप्त किया है और पाँचवें पहाड़से भगवान् नेमिनाथ मुक्त हुए हैं। सब जगह चरण चिह्न हैं तथा कहीं-कहीं पहाड़ में उकेरी हुई जिन Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ विविध मूर्तियाँ भी हैं । जैन सम्प्रदायमें शिखरजीकी तरह इस क्षेत्रकी भी बड़ी प्रतिष्ठा है। शत्रुञ्जय-पश्चिमीय रेलवेके पालोताना स्टेशनसे १-२ मोल तलहटी है । वहाँसे पहाड़की चढ़ाई आरम्भ हो जाती है । रास्ता साफ है । पहाड़के ऊपर श्वेताम्बरोंके करीब साढ़े तीन हजार मन्दिर हैं जिनकी लागत करोड़ों रुपया है । श्वेताम्बर भाई सब तीर्थोंसे इस तीर्थको बड़ा मानते हैं। दिगम्बरोंका तो केवल एक मन्दिर है । पालीताना शहर में भी श्वेताम्बरोंकी २०२५ धर्मशालाएँ और अनेक मन्दिर हैं। यहाँ एक आगममन्दिर अभी ही बनकर तैयार हुआ है उसमें पत्थरोंपर श्वेताम्वरोंके सब आगम खोदे गये हैं। यहाँसे तीन पाण्डुपुत्रों और बहुतसे मुनियोंने मोक्ष लाम किया था। पावागढ़-बड़ौदासे २८ मीलकी दूरीपर चांपानेरके पास पावागढ़ सिद्ध क्षेत्र है । यह पावागढ़ एक बहुत विशाल पहाड़ी किला है । पहाड़पर चढ़नेका मागे एकदम कंकरीला है । पहाड़के ऊपर आठ-दस मन्दिरोंके खण्डहर हैं, जिनका जीर्णोद्धार कराया गया है। यहाँसे श्रीरामचन्द्रके पुत्र लव और कुशको तथा अन्य बहुतसे मुनियोंको निर्वाण लाभ हुआ था। माँगीतुंगी-यह क्षेत्र गजपन्था (नासिक) से लगभग अस्सी मीलपर है । वहाँ पास ही पास दो पर्वतशिखर हैं जिनमेंसे एकका नाम माँगी और दूसरेका नाम तुंगी है। माँगी शिखरकी गुफाओंमें लगभग साढ़े तीन सौ प्रतिमाएँ और चरण हैं और तुंगीमें लगभग तीस । यहाँ अनेक प्रतिमाएँ साधुओंकी हैं जिनके साथ पीछी और कमंडलु भी हैं और पासमें ही उन साधुओंके नाम भी लिखे हैं। दोनों पर्वतोंके बीचमें एक स्थान है जहाँ बलभद्रने श्रीकृष्णका दाह संस्कार किया था। यहाँसे श्रीरामचन्द्र, हनुमान, सुप्रीव वगैरहने निर्वाण लाभ किया था। गजपन्था-नासिकके निकट मसरूल गाँवकी एक छोटी-सी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनधर्म पहाड़ीपर यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँसे बलभद्र और यदुवंशी राजाओंने मोक्ष प्राप्त किया था। एलौरा-मनमाड़ जंकशनसे ६० मील एलौरा ग्राम है । यह ग्राम गुफा मन्दिरोंके लिये सर्वत्र प्रसिद्ध है । इससे सटा हुआ एक पहाड़ है । ऊपर दो गुफाएँ हैं, नीचे उतरनेपर सात गुफाएँ और हैं जिनमें हजारों जैन प्रतिमाएँ हैं। कुंथलगिरि-यह क्षेत्र दक्षिण हैदराबाद प्रान्तमें है और वार्सी टाऊन रेलवे स्टेशनसे लगभग २१ मील दूर एक छोटी-सी पहाडीपर स्थित है। यहाँसे श्रीदेशभूषण कुलभूषण मुनि मुक्त हुए हैं। पर्वतपर मुनियोंके चरणमन्दिर सहित १० मन्दिर हैं। माघमासमें पूर्णिमाको प्रतिवर्ष मेंला भरता है । यहाँ गुरुकुल भी है। ___ करकण्डुकी गुफाएँ-शोलापूरसे मोटरके द्वारा कुन्थलगिरि जाते हुए मागमें उस्मानाबाद नामका नगर आता है, जिसका पुराना नाम धाराशिव है। धाराशिवसे कुछ मीलकी दूरीपर 'तेर' नामका स्थान है। तेरके पास पहाड़ी है। उसकी बाजूमें गुफाएँ हैं। प्रधान गुफा बड़ी विशाल है। इसमें पाँच फुटकी पार्श्वनाथ भगवानको काले पाषाणकी पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसके दूसरे कमरेमें एक सप्तफणी नाग सहित पार्श्वनाथकी प्रतिमा है। दो पत्थर और भी हैं जिनपर जैन प्रतिमाएँ खुदी हैं । प्रधान गुफा सहित यहाँ चार गुफाएँ हैं। इन सब गुफाओंमें जो प्रतिमाएँ हैं वे अधिकतः पाश्वनाथ भगवानकी ही हैं, महावीर भगबानकी तो एक भी प्रतिमा नहीं है। इससे इस स्थानके पार्श्वनाथ भगवानके समयमें निर्माण किये जानेकी बातकी पुष्टि होती है। करकण्डुचरितके अनुसार राजा करकण्डुने जो गुफाएँ बनवाई थी, वे ये ही गुफाएँ बतलाई जाती हैं। बीजापुर-मद्रास सदर्न मरहठा रेलवेपर बीजापुर नामका पुराना नगर है । स्टेशनके करीब ही संग्रहालय है । इनमें अनेक जैन मूर्तियाँ रखी हुई हैं । एक मूर्ति करीब तीन हाथ ऊँची पद्मा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३५७ सन भगवान पारबनाथकी हैं उसपर सं० १२३२ खुदा है। बीजापुरसे करीब दो मोलपर एक मन्दिर है, इसमें श्री पार्श्वनाथ भगवानको सहस्रफणा सहित एक मूर्ति विराजमान है जो दर्शनीय है। बीजापुरसे १७ मीलपर बाबानगर है। वहाँपर एक प्राचीन मान्दिर है, उसमें भगवान पार्श्वनाथकी हरे पाषाणकी १|| हाथ ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है । इसका बहुत अतिशय है तथा अनेक दन्तकथाएँ सुनी जाती हैं। बादामीके गुफा मन्दिर - बीजापुर जिलेमें बादामी एक छोटा कसबा है। इसके पासमें दो प्राचीन पहाड़ी किले हैं। दक्षिण पहाड़ीकी बगल में छठी सदीके बने हुए हिन्दुओंके तीन और जैनियोंका एक गुफामन्दिर हैं । जैन गुफा मन्दिरमें अनेक मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। यह गुफा मन्दिर बादामीके प्रसिद्ध चालुक्यवंशके राजा पुलकेशीने बनवाया था । बेलगाँव - सदर्न मरहठ्ठा रेलवेपर यह शहर बसा है। शहर से पूर्वकी ओर एक प्राचीन किला है। कहते हैं कि पहले यहाँ १०८ जैन मन्दिर थे । उनको तुड़वाकर बीजापुरके बादशाह के सरदारने यह किला बनवाया था । अब केवल तीन मन्दिर शेष हैं। जिनकी कारीगरी दर्शनीय है । बेलगाँव जिलेमें ही स्तवनिधि नामका क्षेत्र है । यहाँ ५-६ जैन मन्दिर हैं जिनमें सैकड़ों जिन मूर्तियाँ विराजमान हैं । मैसूर प्रान्त हुम्मच पद्मावती - मैसूर स्टेटमें शिमोगा शहर हैं । वहाँसे तीर्थल्ली होकर हुम्मच पद्मावती क्षेत्रको जाते हैं । यहाँ कई मन्दिर हैं जिनमें एक मन्दिर बड़ा विशाल बेशकीमत है । यहाँ पर बड़ी-बड़ी विशाल गुफाएँ और प्रतिमाएँ हैं । वरांग- दक्षिण कनाड़ा जिलेमें यह एक छोटा-सा गाँव है । थोड़ी ही दूरपर प्राकारके अन्दर एक बहुत विशाल मन्दिर हैं । मन्दिर में पाँच वेदियाँ हैं, जिनमें बहुत-सी प्राचीन प्रतिमाएँ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैनधर्म हैं । एक मन्दिर पास ही तालाब में है । यद्यपि मन्दिर छोटा है परन्तु बहुत सुन्दर है । कारकल-वरांगसे १५ मीलपर यह एक अच्छा स्थान है । यह दिगम्बर जैनोंका बहुत प्राचीन तीर्थ स्थान है। यहाँ १८ जैन मन्दिर हैं । एक पर्वतपर श्रीबाहुबलि स्वामीकी ३२ फीट ऊँची खड़े आसनवाली मूर्ति विराजमान है। इसके सामने एक दूसरा पर्वत हैं, उसपर एक मन्दिर है । उसमें चारों ओर खड़े आसनकी तीन विशाल प्रतिमाएँ स्थित हैं । यह मन्दिर कारीगरीकी दृष्टिसे भी दर्शनीय है । मूडबिद्री - कारकलसे दस मीलपर यह एक अच्छा कसबा है । यहाँ १८ मन्दिर हैं जिनमें एक मन्दिर बहुत विशाल है । उसका नाम त्रिभुवन तिलक चूड़ामणि है। यह एक कोटसे घिरा है । तीन मंजिलका है । नीचे ८ वेदियाँ हैं, इसके ऊपर ४ वेदियाँ है और उसके भी ऊपर तीन वेढ़ियाँ हैं । एक मन्दिर सिद्धान्तवसति कहलाता है । यह दुमंजिला है । इस मन्दिरमें दिगम्बर जैनोंके प्रख्यात ग्रन्थ श्रीधवल, जयधवल और महाबन्ध कनड़ी लिपिमें ताड़पत्रोंपर लिखे हुए सुरक्षित हैं । इसमें ३७ मूर्तियाँ पन्ना, पुखराज, गोमेद, मूँगा, नीलम आदि रत्नों की हैं। यहाँ श्रीभट्टारक चारुकीर्ति पंडिताचार्य महाराजकी गड़ी है। प्राचीन जैन ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह है । वेणूर - नदीके किनारे यह एक छोटा-सा गाँव है । गाँव के पश्चिम में एक कोट है । उसके अन्दर श्रीगोमट स्वामीकी ३१ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है । गाँवमें अनेक जैन मन्दिर हैं। वेलूर - हलेविड - वेलूर और हलेवीड़, मैसूर राज्यके हासन शहरके उत्तर में एक दूसरेसे दस बारह मीलके अन्तरपर स्थित हैं । यहाँका मूर्तिनिर्माण दुनियामें अपूर्व माना जाता है । एक समय यह दोनों स्थान राजधानीके रूपमें मशहूर थे आज कलाधानीके रूपमें ख्यात हैं। दोनों स्थानोंके आस-पास जैन मन्दिर Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३५९ हैं । सभी मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदायके हैं और उच्चकोटिकी कारीगरीको व्यक्त करते हैं। श्रवणबेलगोला-हासन जिलेके अन्तर्गत जिन तीन स्थानोंने मैसूर राज्यको विश्वविख्यात बना दिया है वे हैं वेलूर, हलेवीड और श्रवण वेलगोला। हासनसे पश्चिममें श्रवणवेलगोला है जो हासनसे मोटरके द्वारा ४ घंटेका मार्ग है। श्रवणवेलगोलामें चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि नामकी दो पहाड़ियाँ पास पास हैं। इन दोंनों पहाड़ियोंके बीचमें एक चोकोर तालाब है। इसका नाम वेलगोल अथवा सफेद तालाब था। यहाँ श्रमणोंके आकर रहनेके कारण इस गांवका नाम श्रमण वेलगोल पड़ा । यह दिगम्बर जैनोंका एक महान तीर्थ स्थान है। मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त अपने गुरु भद्रबाहुके साथ अपने जीवनके अन्तिम दिन बितानेके लिये यहाँ आया था। गुम्ने वृद्धावस्था के कारण चन्द्रगिरिपर सल्लेखना धारण करके शरीर त्याग दिया । चन्द्रगुप्तने गुरुकी पादुकाकी बाहर वर्ष तक पूजा की और अन्तमें समाधि धारण करके इह जोवन लीला समाप्त की। विन्ध्यगिरि नामकी पहाड़ीपर गोमटेश्वरकी विशालकाय मूर्ति विराजमान है। विन्ध्यगिरिकी ऊचाई चारसौ सत्तर फीट है और ऊपर जानेके लिये सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। काका कालेलकरके शब्दोंमें मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण नाजुक और कान्तिमान है। एक ही पत्थरसे निर्मित इतनी सुन्दर मूर्ति संसारमें और कहीं नहीं। इतनी बड़ी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमकी भी यह अधिकारिणी बनती है । धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछेकी ओर ऊपरकी पपड़ी खिर पड़नेपर भी इस मूर्तिका लावण्य खण्डित नहीं हुआ है। इसकी स्थापना आजसे एक हजार वर्ष पहले गंगवंशके सेनापति और मंत्री चामुण्डरायने कराई थी। इस पर्वतपर छोटे बड़े सब १० मन्दिर हैं। चन्द्रगिरिपर चढ़नेके लिये भी सीढ़ियाँ बनी हैं। पर्वतके Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनधर्म ऊपर मध्य में एक कोट बना है उसके अन्दर बड़े-बड़े प्राचीन १४ मन्दिर हैं । मन्दिरोंमें बड़ी-बड़ी विशाल प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। एक गुफा में श्रीभद्रबाहु स्वामीके चरण चिह्न बने हुए हैं जो लगभग एक फुट लम्बे हैं । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह पहाड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसपर बहुत से प्राचीन शिलालेख अंकित हैं, जो मुद्रित हो चुके हैं । नीचे ग्राम में भी सात मन्दिर और १३ चैत्यालय हैं । एक मन्दिर में चित्रकलासे शोभित कसौटी पाषाणके स्तम्भ हैं। यहाँ भी श्रीभट्टारक चारुकीर्ति जी महाराजकी गद्दी है । उनके मन्दिर में भी कुछ रत्नोंकी प्रतिमाएँ है । बड़ा अच्छा शास्त्र भंडार है । एक दिगम्बर जैन पाठशाला है । इस प्रान्तमें अन्य भी अनेक स्थान हैं जहाँ जैन मन्दिर और मूर्तियाँ दर्शनीय हैं । V उड़ीसा प्रान्त खण्डगिरि - उड़ीसा प्रान्तकी राजधानी कटक है। कटकके आस-पास हजारों जैन प्रतिमाएँ हैं । किन्तु उड़ीसा में जैनियोंकी संख्या कम होने से उनकी रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है । कटकसे ही सुप्रसिद्ध खण्डगिरि उदयगिरिको जाते हैं। भुवनेश्वरसे पाँच मील पश्चिम पुरी जिलेमें खण्डगिरि उदयगिरि नामको दो पहाड़ियाँ हैं। दोनोंपर पत्थर काटकर अनेक गुफाएँ और मन्दिर बनाये गये हैं, जो ईसासे लगभग ५० वर्ष पहलेसे लेकर ५०० वर्ष बाद तकके बने हुए हैं। उदयगिरिकी हाथी गुफामें कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट खारवेलका प्रसिद्ध शिलालेख अंकित है । ४. जैनधर्म और इतर धर्म जैनधर्मकी आवश्यक बातोंका परिचय करा चुकनेके बाद 'उसका इतर धर्मोके साथ क्या कुछ सम्बन्ध है' आदि बातोंपर भी एक सरसरी निगाह डालनेका प्रयत्न करना अनुचित न Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३६१ होगा; क्योंकि उससे उक्त बातोंपर अधिक प्रकाश पड़नेके साथ ही साथ जैनधर्मकी स्थितिको समझने में तथा अनेक भ्रामक धारणाओंके दूर होनेमें अधिक सहायता मिल सकेगी । भारतीय धर्मो में हिन्दू धर्म और बौद्धधर्म ये दो ही धर्म ऐसे हैं, जिनके साथ जैनधर्मका गहरा जोड़-तोड़ रहा है। भारतीय होनेके नाते तीनों ही साथ साथ रहे हैं, प्रत्येकने शेष दोनोंके उतार या चढ़ाव के दिन देखे हैं, और परस्पर प्रहार किये और झेले हैं, फिर भी एककी दूसरेके ऊपर छाप पड़े बिना नहीं रही है। १. जैनधर्म और हिन्दूधर्म यहाँ हिन्दूधर्मसे मतलब वैदिक धर्मसे है, जिसे सनातनधर्म भी कहा जाता है, क्योंकि अब यह शब्द इसी अर्थ में रूढ़ कर दिया गया है । कहनेके लिये 'हिन्दू' शब्दकी ऐसी व्याख्याएँ भी की जाती हैं जिनसे जैनधर्म भी हिन्दूधर्म कहा जा सकता है, किन्तु एक तो रूढ़के सामने यौगिक शब्दार्थको कौन मानता और जानता है ? दूसरे, उन व्याख्याओंके पीछे प्रायः यह भाव पाया जाता है कि जैनधर्म हिन्दूधर्म के नामसे कहे जानेवाले वैदिकधर्मकी विद्रोही कन्या है। किन्तु जिन निष्पक्ष विद्वानोंने जैनधर्मका गहरा आलोडन किया है वे उसे भारतका एक स्वतंत्र धर्म मानते हैं । दोनों धर्मोके तत्त्वोंपर दृष्टि डालने से भी यही निष्कर्ष निकलता है। तथा इस बातका निर्णय दोनों धर्मो शास्त्रोंकी अन्तरिक्ष साक्षीके आधारपर ही किया जा सकता है; क्योंकि अन्य कोई बाह्य प्रमाण ऐसा नहीं मिलता जो इस समस्यापर प्रकाश डाल सके । सबसे प्रथम हम वैदिक साहित्यके क्रमिक विकासका परिचय उन भारतीय दार्शनिकोंके साहित्यके आधारपर कराते हैं जो उपनिषदों को ही सब दर्शनोंका मूल आधार बतलाते हैं। इतिहासज्ञोंने भारतीय दर्शनका काल विभाग इस प्रकार Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनधर्म किया है-(१) वैदिक काल-१५०० ई० पू० से ६०० ई० पू० तक (२) पौराणिक गाथा काल-६०० ई० पू० से २०० ई० तक और (३) सूत्रकाल-२०० ई० से आगे। हिन्दू धर्मको सबसे प्राचीन पोथी वेद हैं। बेद चार हैं ऋक, यजु, साम और अथर्व । पौराणिकोंका कहना है कि इन चारों वेदोंका संकलन वेदव्यासने यज्ञकी आवश्यकताओंको दृष्टिमें रखकर किया था। यज्ञानुष्ठानके लिये चार ऋत्विजोंकी आवश्यकता होती है-होना, उग्दाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा । होता मंत्रोंका उच्चारण करके देवताओंका आह्वान करता है। इस मंत्र समुदायका संकलन ऋक्वेदमें है । उद्गाता ऋचाओंको मधुर स्वरसे गाता है इसके लिये सामवेदका संकलन किया गया है । यज्ञके विविध अनुष्ठानोंका सम्पादन करना अध्वर्युका कर्तव्य है । इसके लिये यजुर्वेद है। ब्रह्मा सम्पूर्ण योगका निरीक्षक होता है, जिससे अनुष्ठानमें कोई त्रुटि न रहे, उसमें विघ्न न आवे। इसके लिये अथर्ववेद है। इस प्रकार यज्ञानुष्ठानको अच्छी तरहसे करनेके लिये भिन्न-भिन्न वेदोंका संकलन भिन्नभिन्न ऋत्विजोंके लिये किया गया है। ___ वेदके तीन विभाग हैं-मंत्र, ब्राह्मण और उपनिषद् । मंत्रोंके समुदायको संहिता कहते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें यज्ञ यागादिके अनुष्ठानका विस्तृत वर्णन है, इन्हें वेदमंत्रोंका व्याख्या ग्रन्थ कहा जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थोंका अन्तिम भाग आरण्यक और उपनिषद् हैं, इनमें दार्शनिक तत्त्वोंका विवेचन है। उपनिषदोंको ही वेदान्त कहते हैं। विषय विभागकी दृष्टिसे वेदके दो विभाग हैं-कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड | संहिता, ब्राह्मण और आरण्यकोंका अन्तर्भाव कर्मकाण्डमें होता है और उपनिषद्का ज्ञानकाण्डमें; क्योंकि पहलेमें मुख्यतया क्रियाकाण्डकी चर्चा है और दूसरेमें मुख्यतया ज्ञानकी। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध वेदोंका प्रधान विषय देवतास्तुति है, और वे देवता हैं अग्नि, इन्द्र, सूर्य वगैरह । आगे चलकर देवताओंकी संख्यामें वृद्धिह्रास भी होता रहा है । विचारकोंके अनुसार वैदिक आर्योंका यह विश्वास था कि इन्हीं देवताओंके अनुग्रहसे जगत्का सब काम चलता है। इसीसे वे उनकी स्तुति किया करते थे। जब ये आये लोग भारतवर्षमें आये तो अपने साथ उन देवी स्तुतियोंको भी लाये। और जब वे इस नये देशमें अन्य देवताके पूजकोंके परिचयमें आये तो उन्हें अपने गीतोंको संग्रह करनेका उत्साह हुआ । वह संग्रह ही ऋग्वेद' है। __ कहा जाता है कि जब वैदिक आर्य भारतवर्षमें आये तो उनकी मुठभेड़ असभ्य और जंगली जातियांसे हुई। जब ऋग्वेदमें गौरवर्ण आये और श्यामवर्ण दस्युओंके विरोधका वर्णन मिलता है तो अथर्ववेदमें आदान-प्रदानके द्वारा दोनोंके मिलकर रहनेका उल्लेख मिलता है। इस समझौतेका यह फल होता है कि अथर्ववेद जादू टोनेका ग्रन्थ बन जाता है। जब हम ऋग्वेद और अथर्ववेदसे मजुर्वेद, सामवेद और ब्राह्मणोंकी ओर आते हैं तो हम एक विलक्षण परिवर्तन पाते हैं। यज्ञ यागादिकका जोर है, ब्राह्मण ग्रन्थ वेदोंके आवश्यक भाग बन गये हैं क्योंकि उनमें यागादिकको विधिका वर्णन है, पुरोहितोंका राज्य है और ऋग्वेदसे ऋचाएँ लेकर उनका उपयोग यज्ञानुष्ठानमें किया जाता है। जब हम ब्राह्मण साहित्यको ओर आते हैं तो हम उस समयमें जा पहुँचते हैं जब वेदोंको ईश्वरीय ज्ञान होनेकी मान्यताको सत्यरूपमें स्वीकार किया जा चुका था। इसका कारण यह था कि वेदका उत्तराधिकार स्मृतिके आधारपर एकसे दूसरको मिलता आता था और आदर भाव बनाये रखनेके १. इंडियन फिलोसोफी (सर एम० राधाकृष्णन्) पृ० ६४, १ भा० । २. इंडियन फिलोसोफी (सर एस. राधाकृष्णन्) पृ० १२६ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैनधर्म लिये कुछ पवित्रताका उससे सम्बद्ध होना जरूरी था । अस्तु, ब्राह्मण साहित्यकी दृष्टिमें वैदिक ऋचाओंका धर्म केवल यज्ञ था । और मनुष्यका देवताओंके साथ केवल यांत्रिक सम्बन्ध था और वह था - 'इस हाथ दे उस हाथ ले ।' जब हम आरण्यकोंकी ओर आते हैं, जिनके बारें में कहा जाता है कि वे वनवासियोंके लिये बनाये थे तो उनमें हमें यज्ञादि कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति अश्रद्धाका । भाव दीख पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है कि कोरे कर्मसे लोगोंकी अभिरुचि हटने लगी थी और चूँकि यागादिकसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नहीं था अतः उसे आत्यन्तिक सुखका सम्पादक नहीं माना जा सकता था । जब हम उपनिषदोंकी ओर आते हैं तो हमें लगता है कि 'उपनिषदों की स्थिति वेदोंके अनुकूल नहीं है । युक्तिका अनुसरण करनेवाले उत्तरकालीन विचारकोंकी तरह वे वेदकी मान्यताके प्रति दुमुखी ढंग स्वीकार करते हैं। एक ओर वे वेदकी मौलिकताको स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर वे कहते हैं कि वैदिक ज्ञान उस सत्य दैवी परिज्ञानसे बहुत ही न्यून है और हमें मुक्ति नहीं दिला सकता। नारद कहता है - 'मैं ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे मैं केवल मंत्रों और शास्त्रोंको जानता हूँ-अपनेको नहीं जानता ।' माण्डूक्य उपनिषद में लिखा है - 'दो प्रकारकी विद्याएँ अवश्य जाननी चाहिये - एक ऊँची दूसरी नीची । नीची विद्या वह है जो वेदोंसे प्राप्त होती है किन्तु उच्च विद्या वह हूँ जिससे अविनाशी ब्रह्म प्राप्त होता है ।' 1 वैदिक साहित्यके इस विवेचनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक आर्य जब भारतवर्ष में आये तो उनका संघर्ष यहाँके आदिवासियोंसे हुआ । यद्यपि 'कठ उपनिषद्' (१-१ -२० ) से उप १. इंडियन फिलासफी (सर एस० राधाकृष्णन् ) भा० १, पृ० १४६ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध निषत्कालमें वैदिक धर्मसे विरोध रखनेवाले दार्शनिकोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उपनिषत्कालसे पहले वैदिकधर्मका विरोध करनेवाले नहीं थे। किसी देशमें बाहरसे आकर बसनेवालों और फिर धीरे-धीरे उस देशपर अधिकार जमानेवालोंको प्रायः यह प्रवृत्ति होती है कि वे उस देशके आदिवासियोंको जंगली और अज्ञानी ही दिखानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसा ही प्रारम्भमें अंग्रेजोंने किया और सम्भवतः ऐसा ही वैदिक आर्यों और उनके उत्तराधिकारियोंने किया है। वे अब भी इसी मान्यताको लेकर चलते है कि जैनधर्मका उद्गम बौद्धधर्मके साथ-साथ या उससे कुछ पहले उपनिषत्कालके बहुत बादमें उपनिषदोंकी शिक्षाके आधारपर हुआ । जब कि निश्चित रीतिसे प्रायः सभी इतिहासज्ञोंने यह स्वीकार कर लिया है कि जैनोंके २३वें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ जो कि ८०० ई० पू० में उत्पन्न हुए थे एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। किन्तु वे भी जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे। सर राधाकृष्णन् अपने भारतीय दर्शनमें लिखते हैं"जैन परम्पराके अनुसार जैनधर्मके संस्थापक श्रीऋषभदेव थे जो कि शताब्दियों पहले हो गये हैं। इस बातका प्रमाण है कि ई० पू० प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थककर श्रीऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थरोंके नामोंका निदेश है । भागवतपुराण इस बातकी पुष्टि करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।" ऐसी स्थितिमें उपनिषदोंकी शिक्षाको जैनधर्मका आधार बतलाना कैसे उचित कहा जा सकता है ? क्योंकि जिसे उपनिषद्काल कहा जाता है उस कालमें तो वाराणसी नगरीमें भग १. इन्डियन फिलासफी (सर एस. राधाकृष्णन्) भा० १, पृ०२८७ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनधर्म वान पार्श्वनाथका जन्म हुआ था । एक दिन कुमार अवस्था में पार्श्वनाथ गंगाके किनारे घूमने के लिये गये थे । वहाँ कुछ तापस पञ्चाग्नि तप रहे थे । पार्श्वनाथने आत्मज्ञानहीन इस कोरे तपका विरोध किया और बतलाया कि जो लकड़ियाँ जल रही हैं इनमें नाग-नागिनीका जोड़ा मौजूद है और उसके प्राण कंठगत हैं । जब लकड़ीको चीरा गया तो बात सत्य निकली । इस घटना के बाद ही पार्श्वनाथने प्रव्रज्या धारण कर ली थी और पूर्ण ज्ञानको प्राप्त करके जैनधर्मके सिद्धान्तोंका उपदेश जनताको दिया था । भगवान पार्श्वनाथसे लगभग अढ़ाई सौ वर्षके पश्चात् महावीर हुए और उनके बहुत पहले भगवान ऋषभदेव हुए। अतः जिस समय वैदिक आर्य भारत वर्ष में आये उस समय भी यहाँ ऋषभदेवका धर्म मौजूद था और उनके अनुयायियोंसे भी वैदिक आर्योंका संघर्ष अवश्य हुआ होगा । द्राविडवंश मूलतः भारतीय है और द्रविड़ संस्कृत भार तीय संस्कृति है; क्योंकि द्राविड़ भाषाएँ केवल भारतवर्ष में ही पाई जाती हैं । यह द्रविड़ संस्कृति अवश्य ही जैनधर्मसे प्रभावित रही है । यही कारण है जो जैनधर्ममें द्रविड़ नामसे भी एक संघ पाया जाता है । द्राविड़ वंशका एक मात्र घर दक्षिण भारत ही है अतः उनके सम्पर्क में वैदिक आर्य बहुत बादमें आये होंगे। यहीं वजह है जो ऋग्वेदके बादमें संकलित किये गये यजुर्वेद में कुछ जैन तीर्थङ्करोंके नाम पाये जाते हैं । जब वैदिक धर्म यज्ञप्रधान बन गया और पुरोहितोंका राज्य हो गया तो उसके बादमें जो हम जनतामें जो उसके प्रति अरुचि पाते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर किया है वह आकस्मिक नहीं है किन्तु शुष्क क्रियाकाण्डकी विरोधिनी उस श्रमण संस्कृतिके विरोधका परिणाम है जिसके जन्मदाता ऋषभदेव थे । उसीके फलस्वरूप उपनिषदोंकी रचना की गई, जिनमें वेदका प्रामाण्य तो स्वीकार किया गया किन्तु उससे प्राप्त होनेवाले ज्ञानको नीचा ज्ञान बतलाया गया और आत्मज्ञानको ऊँचा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविष ३६७ मान बतलाया गया। इस प्रकार उपनिषदोंने ऊँचे आध्यात्मिक सिद्धान्तका प्रतिपादन तो किया किन्तु वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध नहीं किया। सर राधाकृष्णनके अनुसार'-'जब समय आध्यात्मिक सिद्धान्तके प्रति एक निष्ठा चाहता था तब हम उपनिषदोंमें टालनेकी नीतिका व्यवहार होता हुआ पाते हैं। वे प्रारम्भ तो करते हैं आत्माको समस्त बाय प्रवृत्तियोंसे स्वतंत्र करनेसे, किन्तु उसका अन्त होता है उसी पुरानी लड़ीको जोड़नेमें। जीवन का नया आदर्श स्थापित करनेके बदले वे पुराने मार्गको ही फैलाते हुए दिखाई देते हैं । आध्यात्मिक राज्यका उपदेश देना उसको स्थापित करनेसे एक बिल्कुल जुदी ही वस्तु है। उपनिपदोंने प्राचीन वैदिक क्रियाकाण्डको ऊँचे अध्यात्मवादसे जोड़नेका प्रयत्न किया, किन्तु तत्कालीन पीढ़ीने इसमें कतई अभिरुचि नहीं दिखाई । फलतः उपनिषदोंका ऊँचा अध्यात्मवाद लोकप्रिय नहीं हो सका। इसने पूरे समाजको कभी प्रभावित नहीं किया। एक ओर यह दशा थी, दूसरी ओर याज्ञिक धर्म अब भी बलशाली था। फल यह हुआ कि निम्न ज्ञानके द्वारा उच्च ज्ञान दलदलमें फंसा दिया गया।' भारतके एक माने हुए दार्शनिकके उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उपनिषदोंका तत्त्वज्ञान वैदिक आर्योंकी उपज नहीं थी बल्कि वह भारतके आदिवासी द्रविड़ों आदिसे लिया गया था, इतना ही नहीं, बल्कि परिस्थितिवश लेना पड़ा था। यही कारण है कि उसे अपना कर भी वैदिक आर्य उसका उपदेश तो देते रहे किन्तु वैदिक क्रियाकाण्ड स्थानमें उसकी स्थापना नहीं कर सके; क्योंकि वैदिक क्रियाकाण्डके उनकी अपनी चीज थी, उसका मोह वे कैसे छोड़ सकते थे ? फलतः सर राधाकृष्णनके शब्दों में झूठेके द्वारा सच्चा कुचल डाला गया और उपनिषद्कालके पीछे ब्राह्मण धर्मका यह विद्रोह अपने सब परस्पर विरोधी सिद्धान्तोंके साथ जल्दी ही शिखर पर जा पहुँचा।' १. इंडियन फिलासफी, भा० १ पृ० २६४-६५ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैनधर्म इस कालका वर्णन करते हुए सर राधाकृष्णन् लिखते हैं " वह ' समय आध्यात्मिक शुष्कताका था, जिसमें सत्य परम्पराओंसे बाँध दिया गया था । मनुष्यका दिमाग नियि क्रियाकाण्डकी परिधि में ही घूमा करता था । समस्त वाताव‍ विधि विधानोंसे रुँधा हुआ था। कुछ मंत्रोंका उच्चारण वि बिना या कुछ विधि विधानोंका अनुष्ठान किये बिना कोई जाग सकता था, न उठ सकता था, न स्नान कर सकता था, बाल बनवा सकता था, न मुँह धो सकता था और न कुछ र सकता था। यह वह समय था जब एक क्षुद्र और निष्फ धर्मने कोरे मूढ़ विश्वासों और सारहीन वस्तुओंके द्वा अपना कोष भर लिया था । किन्तु एक शुष्क और हृदयही दर्शन, जिसके पीछे अहंकार और अत्युक्तियोंसे पूर्ण एक शुष और स्वमताभिमानी धर्म हो, विचारशील पुरुषोंको कभी भ सन्तुष्ट नहीं कर सकता और न जनताको ही अधिक समय त सन्तुष्ट रख सकता है। इसके बाद एक ऐसा समय आया ज‍ इस विद्रोहको और भी अच्छे ढंगसे सफल बनानेका प्रयत किया गया। उपनिषदोंका ब्रह्मवाद और वेदोंका बहुदेवताबाद उपनिषदोंका आध्यात्मिक जीवन और वेदोंका याज्ञिक क्रिया काण्ड, उपनिषदोंका मोक्ष और संसार तथा वेदोंका स्वर्ग और नरक, यह तर्कविरुद्ध संयोग अधिक दिनोंतक नहीं चल सकत था अतः पुनर्निर्माणकी सख्त जरूरत थी । समय एक ऐसे धर्मको प्रतीक्षा कर रहा था जो गम्भीर और अधिक आध्या त्मिक हो तथा मनुष्योंके साधारण जीवनमें उतर सके या लाया जा सके । धर्मके सिद्धान्तोंका उचित सम्मिश्रण करनेके पहले यह आवश्यक था कि सिद्धान्तोंके उस बनावटी सम्बन्धको तोड़ डाला जाये जिसमें लाकर उन्हें एक दूसरेके सर्वथा विरुद्ध स्थापित किया गया था। बौद्धों, जैनों और चार्वाकोंने प्रचलित १. 'इंडियन फिलासफी' भा० १५० २६५-६६ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३६ε धर्मकी बनावटी दशाको भाँपा । इनमेंसे प्रथम दोने आत्माकी नैतिक आवश्यकताओंपर जोर देते हुए नव निर्माणका प्रयत्न किया । किन्तु उनका यह प्रयत्न क्रान्तिकारी ढंगपर था । एक ओर तो उन्होंने उपनिषदोंके ब्रह्मवाद ( ethical universalism ) को पूर्ण करनेका प्रयत्न किया दूसरी और उन्होंने सोचा कि हमें ब्राह्मणोंके प्रभुत्वसे यानी याज्ञिक क्रियाकाण्ड और प्रचलित धर्मसे पूरी तरह पृथक हो जाना चाहिये । भगवद् गीता और बादके उपनिषदोंने अतीतका हिसाब बैठानेका और पहलेसे भी अधिक कट्टरतासे तर्क विरुद्ध सिद्धान्तोंके सम्मिश्रण करनेका प्रयत्न किया। इस प्रकार उपनिषद्कालके पश्चात् प्रचलित धर्मके इन उग्रपन्थी और स्थिति पालक विरोधियोंके केन्द्र भारतके विभिन्न भागों में स्थापित हुए- पूर्व में बौद्ध और जैन - धर्मने पैर जमाया और वैदिक धर्मके प्राचीनगढ़ पश्चिममें भगवद्गीताने ।” उक्त चित्रण में जहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्मके उत्थानकी बात आती है वहाँ हम सर राधाकृष्णन्को भी उसी पुरानी बातको दुहराते हुए पाते हैं कि जैनधर्मने उपनिषद्की शिक्षाओंको माना । किन्तु वैदिकधर्म और उपनिषद् के सिद्धान्तोंके मिश्रणको तर्कविरुद्ध बतलाकर भी और यह मानकर भी कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के तीर्थङ्कर थे जिनका निर्वाण ७७६ ई० पू० में हुआ था तथा जैनधर्म उससे पहले भी मौजूद था, वे उपनिषद् के उन सिद्धान्तोंको जो जैनधर्मसे मेल खाते हैं, किन्तु वैदिकधर्मसे मेल नहीं खाते, जैनधर्मके सिद्धान्त माननेके लिये शायद तैयार नहीं हैं। किन्तु उन्होंने ही वैदिककालका जो खाका खींचा है उससे तो यही प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध हुआ और जनताकी रुचि उससे हटने लगी तो वैदिकोंने अपनी स्थिति बनाये रखनेके लिए अपने विरोधी धर्मोकी - जिनमें जैनधर्म प्रमुख था - आध्यात्मिक शिक्षाओंके आधार पर उपनिषदोंकी रचना की । किन्तु उपनिषद भी २४ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैनधर्म बातें तो अध्यात्मकी करते थे और समर्थन वैदिक क्रियाकाण्डका ही किये जाते थे, जिसके विरोधी बराबर मौजूद थे। फलतः विरोध बढ़ने लगा। इसी समयके लगभग भगवान पार्श्वनाथ हुए। उनके उपदेशों ने भी अपना असर दिखलाया । पार्श्वनाथके लगभग २०० वर्षके बाद ही विहारमें महावीर और बुद्धका जन्म हुआ। वैदिकधर्ममें विचारशास्त्र उच्च विद्वानोंकी ही वस्तु बनी हुई थी परन्तु इस युगमें इसका प्रचार साधारण जनतामें किया जाने लगा। भगवान पार्श्वनाथने ७० वर्पतक स्थान स्थानपर विहार करके जनसाधारणमें धर्मोपदेश दिया । इसीका अनुसरण महावीर तथा बुद्धने अवान्तरकालमें किया । अपने आध्यात्मिक विचारोंको व्यावहारिक रूप देनेकी तथा अपने विचारोंके अनुरूप जीवन यापन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर भी इसी युगमें विशेष लक्ष्य दिया गया क्योंकि उक्त महा. पुरुषोंने ऐसा ही किया था। वैदिक युगमें इन्द्र वरुण आदिको ही देवताके रूपमें पूजा जाता था, किन्तु उक्त धर्मो में मनुष्यको उन्नत बनाकर उसमें देवत्वकी प्रतिष्ठा करके उसकी पूजा की जाती थी। विरोधियोंके इन सिद्धान्तोंने वैदिक धर्मको स्थितिको एकदम डाँवाडोल कर दिया था। उसको कायम रखनेके लिये फिर कुछ नई बातोंको अपनानेकी वैसी ही आवश्यकता प्रतीत हुई जैसी आवश्यकता उपनिषदोंकी रचना होनेसे पूर्व प्रतीत हुई थी। इसी कालमें रामायण और महाभारतका उदय हुआ, १ सर राधाकृष्णन् लिखते हैं-"जब जनताकी आध्यात्मिक चेतना उपनिषदोंके कमजोर विचारसे, या वेदोंके दिखावटी देवताओंसे तथा जैनों और बौद्धोंके नैतिक सिद्धान्तोंके संदिग्ध आदर्शवादसे सन्तुष्ट नहीं हो सकी तो पुननिर्माणने एक धर्मको जन्म दिया, जो उतना नियम-बद्ध नहीं था तथा उपनिषदोंके धर्मसे अधिक सन्तोषप्रद था। उसने एक संदिग्ध और शुष्क ईश्वरके बदले में एक जीवित मानवीय परमात्मा दिया। भगवद्गीता, जिसमें कृष्ण विष्णुके अवतार तथा उपनिषदोंके परब्रह्म माने गये हैं, पंच Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३७१ और राम तथा कृष्णको ईश्वरका अवतार मानकर मनुष्यमें देवत्वकी प्रतिष्ठासे आकर्षित होनेवाली जनताको उधर आकृष्ट होनेसे रोका । जैन और बौद्धधर्ममें स्त्री और शूद्रको भी धर्माचरणका अधिकार था जब कि वेदोंका पठन-पाठन तक दोनोंके लिये वर्जित था। इसकी पूर्ति भी महाभारतने की। जनताकी रुचि अहिंसाकी ओर 'स्वतः नहीं बल्कि वेदविरोधी उक्त धर्मोके कारण बढ़ रही थी और उन्होंके कारण पशुयाग उसके लिये आलोचना और घृणाका विषय बन रहा था। महाभारतमें एक कथाके द्वारा पशुयज्ञको बुरा बतलाकर हवियज्ञको ही श्रेष्ठ बतलाया गया है । नारायणखंडमें बतलाया कि वसुने हवियज्ञ किया। उससे प्रसन्न होकर विष्णुने यज्ञ द्रव्यको प्रत्यक्ष होकर स्वीकार किया। यह सब देखकर ही निष्पक्ष विद्वानोंका यह मत है कि महाभारत श्रमण संस्कृतिसे प्रभावित है। आदान प्रदानकी प्रथा धर्मों में सदासे चली आई है। एक रात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वतर तथा बादके अन्य उपनिपदोंका शवधर्म इसी धार्मिक क्रान्तिके फल है।"-इं० फि० पृ० २७५-७६ । दीवानबहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने भी इसी तरह के विचार प्रकट किये हैं । वे लिखते हैं-'उस समय एक ऐसे धर्मको आवश्यकता थी जो ब्राह्मणधर्मके इस पुनर्निर्माणकालमें बौद्धधर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिको आवश्यकता थी' । -एन्शियंट इण्डिया, पृ० ५८८ । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० ओझाजीने भी लिखा है-"बौद्ध और जैनधर्मके प्रचारसे वैदिकधर्मको बहुत हानि पहुँची। इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा। और वह नये सांचे में ढलकर पौराणिक धर्म बन गया । उसमें बौद्ध और जैनोंमे मिलती धर्मसम्बन्धी बहुतसी नई वातोंने प्रवेश किया। इतना ही नहीं, किन्तु बुद्धदेवकी गणना विष्णुके अवतारोंमें हुई और मांसभक्षणका थोड़ा बहुत निषेध करना पड़ा।" राजपूतानेका इतिहास, प्र. खं० १०-११ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैनधर्म बार 'हिंद तत्त्वज्ञाननो इतिहास' के लेखक श्रीनर्मदाशंकर देवशंकर मेहताने 'जैनों और हिन्दुओंके बीच संस्कारोंका पारस्परिक आदान प्रदान' विषयपर गुजरातमें बोलते हुए कहा था-'भारतवर्षके मुख्य तीन धर्मों १ ब्राह्मणधर्म जिसे हिन्दु धर्म कहते हैं, २ बौद्धधर्म और ३ जैनधर्ममेंसे बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमिसे निष्कासित हो गया और शेष दो धर्म किस कारणसे टिके रहे इसपर बहुतसे विद्वानोंने विचार किया है । मैंने भी अपनी बुद्धिके अनुसार विचार किया है। सब विचारोंके फलस्वरूप मैं यह समझा हूँ कि दूसरे धर्मके आचार और विचारोंको अपनेमें शामिल करनेकी अद्भुत शक्ति ब्राह्मणोंमें है। इस शक्तिके प्रभावसे वे दूसरोंकी वस्तुको अपना कर लेते हैं। जैसे कोई जबर बेल छोटेसे झाड़पर लगी हो तो उस झाड़के रसको चूसकर सर्वत्र फैल जाती है और आधार वृक्षका दर्शन भी न हो सके इस तरह उसे हृदयंगम कर लेती है, उसी तरह ब्राह्मणोंके आचार-विचारकी जटिलतामें जो कोई दूसरे धर्मका आचार विचार घुस जाता है वह ब्राह्मणोंका अपना बन जाता है और पीछे वह किसका था इसका निर्णय करना अशक्त हो जाता है। ब्राह्मणोंके इस आत्मसात करनेके बलके सामने बौद्धधर्म टिक नहीं सका। बौद्धधर्मने अपना स्वत्व और व्यक्तित्व जमानेके बदले ब्राह्मण धर्मके खंडन में अधिक यत्न किया । इससे दोनों धर्मोके अनुयायिय द्वेष और निन्दाका भाव बढ़ गया। दूसरे, ब्राह्मणोंने उस धर्मके ग्रहण करने योग्य बातोंको अपना लिया और सामान्य अशिक्षित प्रजाको यह समझाया कि बौद्धधर्मका जो मुख्य सार कहा जाता है वह तो अपने वैदिकोंका अपना है । बौद्धोंने तो अपनेसे ही ले लिया है। ब्राह्मणोंके इस 'व्याप्तिजाल' को जानना हो तो नीचेके मुद्दोंपर विचार करें १. भगवान बुद्धको विष्णुका अवतार मान लिया, उनका दयाधर्म वैष्णवों में समा गया। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ विविध ३७३ २. ब्राह्मणोंके यज्ञ और श्राद्धमें गौवध किया जाता था। उसे कलिबाह्य करार दे दिया । ३. बुद्धके शरीरके अंशोंको लेकर जो रथयात्रादि उत्सव होते थे वे वैष्णवोंकी रथयात्रारूप हो गये । ४. बौद्धोंके जातिखंडन सम्बन्धी आचार-विचार ब्रह्मवादमें समा गये । ५. बौधर्मका पंचबुद्ध शैवधर्म के पंचमुख शिवमें समा गया । ६. अश्वघोषका वज्रसूची प्रकरण, जो जातिभेदका विष्वंसक है, वह जान या अनजानमें ब्राह्मणोंके उपनिषद रूपसे जा बैठा । ७. ब्राह्मणोंके परिव्राजक और बौद्धभिक्षु ब्राह्मण-शरमण ( श्रमण ) रूपसे एकमेक हो गये । इस प्रकार बौद्धधर्म अनेकरूपसे वर्तमान हिन्दूधर्मके अनेक गली कूचोंमें फैल गया । तथा शंकर वेदान्तके मायावाद में बौद्ध विज्ञानवादियों का मायावाद गुप्तरोतिसे इस प्रकार समाया कि मानो मायाबाद सीधे मूल उपनिषदोंमेंसे ही निकला है, ऐसा हिन्दू वेदान्तियोंका दृढ़ मन्तव्य हो गया । जो आचार-विचार हजम नहीं किये जा सकते थे जैसे क्षणिकवाद, अपोहवाद वगैरह, उन्हें बौद्धोंका पाखण्डधर्म बतलाया गया और पौराणिकरूपमें हिन्दू धर्म की नई दुकान खुली। परिणाम यह हुआ कि बौद्धधर्म आर्यावर्तसे निष्कासित हो गया । जो अभ्यासी हैं वे इस वस्तुस्थितिको सरलतासे समझ सकेंगे ।" इस प्रकार बौद्धधर्मके लुप्त होनेके सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट करनेके बाद मेहताजीने ब्राह्मणधर्मी हिन्दुओंने कौनसे प्राय अंश अथवा गुण जैनोंसे प्राप्त किये हैं यह बतलाते हुए कहा - "यज्ञ हिंसाके प्रति अरुचि दिखानेवाले प्रथम तो सांख्याचार्य कपिल थे। उन्होंने यज्ञकर्मको सदोषकर्म बतलाया और अमुक यज्ञसे स्वर्ग मिलता हो तो भी वह स्वर्गसुख समय पाकर Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैनधर्म हिंसाका फल प्रकट किये बिना नहीं रहता, ऐसा कहा । " उसके बाद भागवत सम्प्रदायमें वासुदेव श्रीकृष्णने अहिंसाका कथन किया । किन्तु भगवान कृष्णके यादव कुलमें मदिरापानका चलन होनेसे मद्यकी सहभावी हिंसा सर्वांशमें दूर नहीं हो सकी। कुरु-पांचाल युद्धके समयमें पारस्परिक वैरके कारण रौद्रध्यानके सिवा धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अवकाश न था । आखिर में हिंसा पूरे वेगसे बढ़ी और भागवतधर्म अहिंसाका पक्षपाती होते हुए भी हिंसाको रोक नहीं सका । इस समयमें अहिंसाका पालन करनेवाले यतिजन भी थे । परन्तु वे वनों में रहते थे । अहिंसाके ऊपर जोर देनेवाले यतियोंका एक वर्ग मुंडक शाखाका था, किन्तु वह भी यह माननेके लिये तैयार न था कि वेदकी हिंसा वेद प्रतिपादित होनेपर भी गौण रूप है अथवा हलके धर्मरूप है । 1 'हिंसा अथवा प्राणातिपात स्वतः दोषरूप है, जिस जीवको मोक्षके मार्ग में लगना हो उसे इस दोषका पूरी तरहसे त्याग करनेके लिये बलवान प्रयत्न करना चाहिए, प्राणिवधके द्वारा देवताओंको सन्तुष्ट करनेकी भावना 'अपधर्म है, विधर्म है अथवा अधर्म है' ऐसा स्पष्ट कथन करनेवाले जैन तीर्थङ्कर थे । किन्तु उन चौबीस तीर्थङ्करोंमेंसे पार्श्वनाथ ( तेईसवें) और महावीर (चौबीसवें) वास्तव में ऐतिहासिक महापुरुष हैं । वे वासुदेव कृष्णके पीछे हुए हैं। इन दोनों महापुरुषोंमेंसे पार्श्वनाथ भगवान बुद्धके पहले हुए हैं, और महावीर बुद्ध समकालीन थे । इन दोनों महापुरुषोंने स्पष्ट रूपसे कहा कि हिंसा और शुद्धधर्म इन दोनोंका मेल संभव नहीं है, तथा धर्म के बहानेसे पशुवध करना पुण्य नहीं, किन्तु पाप है । इस निश्चयको उन्होंने अपने शुद्ध चारित्रके द्वारा और संघके प्रभावसे प्रजामें फैलाया। और उसका हिन्दुओंपर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि यज्ञमें हिंसा करना धर्म है ऐसा कहनेके लिये कोई हिन्दू तैयार नहीं है । आज विद्वान् और धर्मचिन्तक शास्त्रीगण उस हिंसाका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३७५ प्रतिपादन कर सकते हैं । किन्तु यदि कोई ठेठ वैदिकधर्मके अनुसार श्रौतकर्म करनेवाला सोमयाग करनेको तत्पर हो तो हिन्दू उसको तिरस्कारपूर्वक निकाल दें और स्लाटर हाउसमें पशु वध करनेवाले कसाईकी तरह उसकी दुर्गति करें' । मेहताजीके उक्त विवेचनसे भी यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणधर्म में दूसरोंकी बातोंको अपनानेकी अद्भुत शक्ति है । और उत्तरकालीन उपनिषदोंके द्वारा बौद्धोंके अनेक मन्तव्योंको इस प्रकारसे अपनेमें सम्मिलित कर लिया गया मानों वह उपनिषदोंकी ही वस्तु हो । ( सर राधाकृष्णन्का भी मत है कि कुछ उपनिषदोंकी रचना बुद्धके बादमें भी हुई है।) इससे भी हमारे उक्त विश्वासकी ही पुष्टि होती है। अतः उपनिषदोंमें जो जैन आचार विचारका पूर्व रूप पाया जाता है, उससे यह निर्णय करना कि जैनधर्म 'उपनिषदोंसे निकला है और इसलिये वह हिन्दू धर्मकी विद्रोही सन्तान है, सर्वथा भ्रान्त है । जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म है । उसके आद्य तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेव थे जो राम और कृष्णसे भी पहले हो गये हैं और जिन्हें हिन्दुओंने विष्णुका अवतार माना है। उन्हींके विचारोंकी झलक उपनिषदों में मिलती है। जैसा कि "उपनिषद विचारणा' के निम्न शब्दोंसे भी स्पष्ट हैं "उपनिषदोंना छेवटना भागमाँ वेद-वाह्य विचारवाला साधुओंना आचारविचारो अरण्यवासिओंमा पेठेला जणाय छे, अने तेमाँ जैन अने बौद्ध सिद्धान्तोंना प्रथम बीजे उग्याँ होय ऐम जणाय छे। उदाहरण तरीके "सर्वजीव ब्रह्मचक्रमाँ हंस एटले १. जर्मन विद्वान् ग्लैजनपने अपने जैनधर्म नामक ग्रन्थमें लिखा है कि प्रो० हर्टलेका कहना है कि ब्रह्मलोक और मुक्तिविषयक जैन भावना उपनिषदोंकी भावना से जुदी प्रकारकी है और ये दोनों समान नहीं हो सकतीं । दोनोमें जो समानता है वह केवल शाब्दिक है । २. पृ० २०१ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैनधर्म जीव भमे छे, जीवधन परमात्मा छे, जीव जे जे शरीरमा प्रवेशे छे ते ते शरीरमय होइ जाय छे, केटलाक परमहंसी " निर्गन्थ अने शुक्लध्यान परायणहता" आ विगेरे उपनिषद् वाक्यों श्रीमहावीर पूर्वभावी निर्ग्रन्थ साधुओंना विचारोंना पूर्व रूप छे। जैनोना आद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव आवर्गना, निर्मन्थ' साधु हताँ । अने पाछल थी तेमने हिन्दुधर्मोओए विष्णुना अवतार मान्या छे ।" हिन्दूधर्म और जैनधर्मके सिद्धान्तों में बहुत अन्तर है । जैन वेदको नहीं मानते, स्मृति ग्रन्थों तथा ब्राह्मणोंके अन्य प्रमाणभूत ग्रन्थोंको भी प्रमाण नहीं मानते। इसके सिवा दोनोंमें महत्त्वका भेद तो यह है कि जैनधर्मके धार्मिक तत्व और उनकी सरणि स्पष्ट और निश्चित है, किन्तु हिन्दूधर्म में परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त हैं और वे सब अपने सच्चे होनेका दावा करते हैं । हिन्दू जगत्का नियामक और रचयिता ईश्वरको मानते हैं, जैनी नहीं मानते । हिन्दू युग-युगमें जगत्की सृष्टि और प्रलयको मानते हैं, जैन जगतको अनादि अनन्त मानते हैं । हिन्दू मानते हैं कि सनातन धर्मको ईश्वरकी प्रेर से ब्रह्माने प्रकट किया। जैनी मानते हैं कि युग-युगमें तोर्थङ्कर होते हैं और वे अपने जीवनके अनुभवके आधारपर सत्य धर्मका उपदेश देते हैं। हिन्दू मानते हैं कि देवता मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, जैन मानते हैं कि मोक्ष केवल मानवीय अधिकारकी वस्तु है । यदि देवताओंको मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो उन्हें मनुष्ययोनिमें जन्म लेना चाहिये और कर्मो के नाशके लिये तप करना चाहिये । हिन्दू कर्मको अदृष्ट सत्ताके ' रूपमें मानते हैं और जैन मानते हैं कि कर्म सूक्ष्म पौद्गलिक तत्त्व है जो जीवकी क्रियासे आकृष्ट होकर उसके साथ बँध जाता है । हिन्दू मानते हैं कि ईश्वरकी भक्ति करनेसे उसकी कृपासे सुख मिलता है, जैनो मानते हैं कि अपने अच्छे या बुरे कर्मोंके अनुसार जीव स्वयं ही सुखी या दुखी होता है । हिन्दू Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३७७ मानते हैं कि मुक्त हुआ जीव वैकुण्ठमें अनादि कालतक सुख भोगता है अथवा ब्रह्ममें लीन हो जाता है। जैनी मानते हैं कि मुक्त जीव लोकके अप्रभागमें सदा काल विराजमान रहता है। जैनधर्म में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, गुणस्थान, मार्गणा आदि अनेक तत्त्व ऐसे हैं जो हिन्दूधर्ममें नहीं हैं। तथा जैन न्यायमें भी स्याद्वाद, नय, निक्षेप आदि बहुतसे ऐसे तत्त्व हैं जो जैनेतर न्यायमें नहीं हैं। यह सब भेद होते हुए भी दोनों धर्मों के अनुयायियोंमें सांस्कृतिक दृष्टिसे आज एकरूपता दिखाई देती है और कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनमें दोनों धर्मों के अनुयायी पाये जाते हैं और उनमें परस्परमें रोटी-बेटी व्यवहार भी चालू है। २. जैनधर्म और बौद्ध धर्म पहले अनेक विद्वानोंका यह मत था कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा है। किन्तु स्व० याकोबीने इस भ्रमका परिमार्जन करते हुए स्पष्ट रीतिसे यह साबित कर दिया कि ये दोनों दो स्वतंत्र धर्म हैं, और इन दोनोंमें जो कुछ समानता है उसपरसे यह प्रमाणित नहीं होता कि एक धर्ममेंसे दूसरा धर्म निकला है। दोनोंमें समानता __ जैनधर्म और बौद्धधर्ममें अनेक समानताएँ हैं। दोनों वेदको प्रमाण नहीं मानते। दोनों यज्ञहिंसाके विरोधी हैं। दोनों जगन्नियन्ता ईश्वरकी सत्ताकी नहीं मानते। दोनों पुरुषोंमें देवत्वकी स्थापना करके उसको पूजा करते हैं ? दोनोंके धर्मसंस्थापक 'अहंत और जिन' कहलाते हैं। दोनों अहिंसाके सिद्धान्तके अनुयायी हैं। दोनोंके संघमें साधु और साध्वीको महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन समानताओंके सिवा महत्त्वकी समानता तो यह है कि महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म • ३७८ थे। दोनोंका जन्म बिहारमें हुआ था । महावीरके पिताका नाम सिद्धार्थ था और यही नाम कुमार अवस्थामें बुद्धका था । बुद्धको पत्नीका नाम यशोधरा था और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार महावीरकी पत्नीका नाम यशोदा था । किन्तु इन समानताओंके होते हुए भी दोनों धर्मोंमें जो मौलिक अन्तर है उससे ये दोनों धर्म जुदे ही प्रमाणित होते हैं । दोनोंमें भेद दोनोंके धार्मिक ग्रन्थ जुड़े हैं, इतिहास जुदा है, कथाएँ जुदी हैं। इतना ही नहीं, किन्तु धार्मिक सिद्धान्त भी बिल्कुल जुदे हैं। जैनधर्म नित्य और अभौतिक जीवतत्त्वका अस्तित्व मानता है, तथा मानता है कि जबतक यह जीव पौद्गलिक कमोंसे बँधा रहता है तबतक संसारमें रहता है, फिर मुक्त होकर ऊपर सिद्धशिलापर जा विराजता है और अनन्त कालतक आत्मिक गुणोंमें मग्न रहता हुआ शाश्वत सुखको भोगता है । किन्तु बौद्ध जीवतत्वको नहीं मानते। उनके मतसे जिसे आत्मा या जीव कहते हैं वह कोई नित्य पदार्थ नहीं है, किन्तु क्षणिक धर्मोकी एक सन्तान है । उस सन्तानका विनाश ही मोक्ष है। जैसे तेल और बत्तीके जल चुकनेपर दीपकका विनाश हो जाता है वैसे हो उस सन्तानका भी नाश हो जाता है । बौद्धधर्मका यह सिद्धान्त जैनधर्मके सिद्धान्तसे बिल्कुल विपरीत है । 'महावीर केवल साधु न थे बल्कि तपस्वी भी थे । किन्तु बोध के प्राप्त होनेके बाद वह तपस्वी नहीं रहे, केवल साधु ही रहे और उन्होंने अपना पूरा पुरुषार्थ जीवनधर्म की ओर लगाया । अतः महावीरका लक्ष्य आत्मधर्म हुआ और बुद्धका लक्ष्य लोकधर्म हुआ । इसीसे बुद्ध अधिक प्रसिद्ध हुए । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि महावीर लोकसमाजसे सर्वथा दूर ही रहते थे । अर्हत् हो जाने के बाद वे भी लोकसमाजमें Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३७९ विहार करते थे, बुद्धकी ही तरह उनके अनेक शिष्य थे, उनका एक संघ भी था और यह संघ बराबर फैलता गया, किन्तु भारतकी सीमाके बाहर उसका फैलाव न हो सका। महावीर और बुद्धके जीवनका उक्त विश्लेषण करते हुए जर्मन विद्वान् प्रो० लुइमानने आगे लिखा है-"महावीर संकुचित प्रकृतिके थे और बुद्ध विशाल प्रकृतिके थे। महावीर लोकसमाजमें मिलनेसे दूर रहते थे और बुद्ध लोकसमाजको सेवा करते थे। यह बात इस प्रसंगसे और भी स्पष्ट हो जाती है कि यदि बुद्धको उनका कोई शिष्य जीमनेका निमंत्रण देता था तो वह उसे स्वीकार करके उसके घर चले जाते थे, किन्तु महावीर यह मानते थे कि समाज जीवनके साथ साधुका इस प्रकारका सम्बन्ध ठीक नहीं है। यह बात इससे और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है कि बुद्ध विहार करते समय जिस तिसके साथ बातें करते जाते थे और अपने विचार और आचारमें फेरफार करनेके साथ-साथ लोगोंको उपदेश देने और अपनेमें सम्मिलित करनेकी पद्धतिमें भी फेरफार कर लेते थे! किन्तु महावीरमें यह बात नहीं पाई जाती। आध्यात्मिक उपदेश करने या शिक्षा देनेके लिये महावीरने किसीको बुलाया हो ऐसा जान नहीं पड़ता। यदि कोई मनुष्य धार्मिक चर्चा करनेके लिये उनके पास जाता था तो महावीर अपने कठिन सिद्धान्तोंके अनुसार उसका उत्तर मात्र दे देते थे, किन्तु उसकी परवा नहीं करते थे।' ___ अतः ऊपर बतलाये गये कारणोंसे जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों स्वतंत्र धर्म हैं, एकसे दूसरा नहीं निकला है। फिर भी दोनों धर्म सदीर्घ कालतक एक ही क्षेत्रमें फले-फूले हैं अतः एकका असर दूसरेपर न हुआ हो, यह संभव नहीं है। ३. जैनधर्म और मुसलमानधर्म इस्लामका उदय यद्यपि अरबमें हुआ किन्तु शताब्दियों तक दोनों धर्मोंका भारतके नाते निकट सम्बन्ध रहा है। और फल Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैनधर्म स्वरूप एकका दूसरेपर असर भी पड़ा है। मुसलमानोंका सबसे अधिक असर तो जैनोंकी स्थापत्यकला और चित्रकलापर पड़ा है। साथ-साथ जैनोंकी स्थापत्यकलाका असर मुसलमानोंकी स्थापत्यकलाके ऊपर भी पड़ा है। किन्तु इससे हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो धार्मिक क्षेत्रमें मुसलमानधर्मने जैनधर्मके ऊपर जो प्रभाव डाला है उससे है। मुसलमान धर्मका जैनधर्मके ऊपर महत्त्वका असर तो उसके अन्दर उत्पन्न होनेवाले मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायोंका जन्म लेना है । मुसलमानोंके मूर्तिपूजा विरोध और मूर्ति खण्डनने ही लोंकाशाह वगैरहके चित्तमें इस भावनाको जन्म दिया, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय और तारणपन्थकी स्थापना हुई। मुसलमान धर्मपर जैनधर्मका असर बतलाते हुए प्रो० ग्लेजनपने 'जैनिज्म' नामक ग्रन्थमें A. furher. V. kremer के एक निबन्धका हवाला देते हुए लिखा है कि अरब कवि और दार्शनिक अबुलअलाने (९७३-१०५८) अपने नैतिक-सिद्धान्त जैनधर्म के प्रभावमें स्थापित किये थे। इसका वर्णन करते हुए क्रेमरने लिखा है-'अबुलअला केवल अन्नाहार करता था और दूध तक नहीं पीता था। कारण, वह मानता था कि माताके स्तनमेंसे बच्चेके हिस्सेका दूध भी दुह लिया जाता है इसलिये इसे वह पाप मानता था । जहाँ तक बनता था वह आहार भी नहीं करता था। उसने मधुका भी त्याग कर दिया था। अंडा भी नहीं खाता था। आहार और वस्त्रकी दृष्टिसे वह संन्यासियोंकी तरह रहता था। पैरमें लकड़ीकी पावड़ी पहरता था । कारण, पशुको मारना और उसका चमड़ा काममें लाना पाप है। एक स्थानपर वह नग्न रहनेकी भी प्रशंसा करता है और कहता है-'ऋतु ही तुम्हारे लिये सम्पूर्ण वस्त्र हैं।' उसका कहना है कि भिखारीको पैसा देनेके बदले मक्खीको जीवनदान देना श्रेष्ठ है। नग्नता, जीवरक्षा, अन्नाहार और मधुका त्याग आदि Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ३८१ विषयोंपर उसका पक्षपात यह बतलाता है कि इसके विचारोंके ऊपर जैनधर्मका, खास करके दिगम्बर सम्प्रदायका असर था। अबुलू अला बहुत समयतक बगदादमें रहा था । यह नगर व्यापारका केन्द्र था । सम्भव है कि जैन व्यापारी वहाँ गये हों और उनके साथ कविका सम्बन्ध हुआ हो । उसके लेखोंपरसे जाना जाता है कि उसे भारत के अनेक धर्मोंका ज्ञान था । भारतके साधु नख नहीं काटते इस बातका उसने उल्लेख किया है। मुर्दा जलानेकी पद्धतिकी प्रशंसा करता है । भारतके साधु चिताकी अग्निज्वालामें कूद पड़ते हैं इस बातपर अबुल अलाको बहुत आश्चर्य हुआ था । मृत्युके इस ढंगको जैन अधर्म मानते हैं । 'बन सके तो केवल आहारका त्याग करो' अबुल अलाके इस वचन से यह अनुमान किया जा सकता है कि उसे जैनोंके सल्लेखनाव्रतका ज्ञान था । किन्तु यह व्रत वह स्वयं पाल सकता इतना उसका आत्मा सबल नहीं था । इन सब बातोंसे ऐसा लगता है कि अबुल् अला जैनोंके परिचयमें आया था और उनके कितने ही धार्मिक सिद्धान्तोंको उसने स्वीकार किया था ।' Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जैन सूक्तियाँ प्राकृत १ णो लोगस्सेसणं चरे। -आचारांग। अर्थ-लोकैषणाका अनुसरण करना-लोगोंकी देखादेखी चलना नहीं चाहिये। २ सव्वे पाणा पियाउआ, सुहसाया दुक्खपडिकुला अप्पियवहा । पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं । -आचारांग । अर्थ-समस्त जीवोंको अपना अपना जीवन प्रिय है, सुख प्रिय है, वे दुःख नहीं चाहते, वध नहीं चाहते, सब जीनेकी इच्छा करते हैं । (अतएव सबको रक्षा करनी चाहिये)। ३ सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउन मरिज्जि। तम्हा पाणवहं घोरं णिग्गंथा वज्जयंति गं ॥ -दशवकालिक । अर्थ-सब जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। अतएव निर्ग्रन्थ मुनि घोर प्राणिवधका परित्याग करते हैं। ४ णिस्संगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू । संगाह उदीरंति कसाए अग्गीव कट्ठाणि ॥ -शिवार्य । अर्थ-परिग्रहरहित साधु ही सदा कषायोंको कृश करने में समर्थ होता है; क्योंकि परिग्रह ही कषायोंको उत्पन्न करते और बढ़ाते हैं, जैसे सूखी लकड़िकाँ अग्निको उत्पन्न करती और बढ़ाती हैं। ५ समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुखो पसंसणिंदसमो।। ___ समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ -कुन्दकुन्द । अर्थ-जो शत्रु और मित्रमें, सुख और दुःखमें, प्रशंसा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सूक्तियां ३८३ और निन्दामें, मिट्टी और सोनेमें तथा जीने और मरने में सम है, वही श्रमण-जैनसाधु है। ६ भावरहिमओ न सिज्मइ जइवि तवं चरइ कोडिकोडीयो। जम्मतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो॥ -कुन्दकुन्द । अर्थ-भाव रहितको सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती, भले ही वह बिल्कुल नग्न हुआ, हाथोंको लम्ब करके, करोड़ों जन्मोंतक नाना प्रकारके तप करता रहे। ७ जेसि विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं ॥ जदि तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥ -कुन्दकुन्द । अर्थ-जिनकी इन्द्रियविषयों में आसक्ति है उनको स्वाभाविक दुःख समझना चाहिये, क्योंकि यदि उन्हें स्वाभाविक दुःख नहीं होता तो वे विषयोंकी प्राप्तिके लिए यत्न ही क्यों करते ? ८ वउ तउ संजमु सोलु जिय ए सब्बई अकयत्थु । जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥-योगीन्दु । अर्थ-व्रत, तप, संयम और शीलका पालन तबतक निरर्थक है जबतक इस जीवको अपने पवित्र शुद्ध स्वभावका बोध नहीं होता। ६ राए रंगिए हियवडए, देउ ण दीसह संतु । दप्पणि मइलइ बिबु जिम, एहउ जाणि णिभंतु ॥ -योगोन्दु । अर्थ जैसे मैले दर्पणमें मुख दिखलायी नहीं देता, उसी प्रकार रागभावसे रँगे हुए हृदयमें बीतराग शान्त देवका दर्शन नहीं होता, यह सुनिश्चित जानो। १० जो ण विजादि वियारं तरुणियणकडक्खवाणविदो वि। ___ सो चेव सूरसूरो रणसूरो णो हवइ सूरो ।। -स्वामी कार्तिकेय । अर्थ-तरुणी स्त्रियोंके कटाक्ष बाणोंसे वेधा जानेपर भी जो विकार भावको प्राप्त नहीं होता, वही शूरवीर है। जो रणमें शूर है वह शूर नहीं है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ विविध ११ जहि भावइ तहिं जाहि जिय भावइ करितं जि । केम्वह मोक्खु ण अत्थि पर चित्तइ सुदिए णजि ॥-योगीन्दु । अर्थ हे जीव ! तू चाहे जहाँ जा और चाहे जो क्रिया कर, परन्तु जब तक तेरा चित्त शुद्ध न होगा, तबतक किसी तरह भी तुझे मोक्ष नहीं मिल सकता। १२ जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया । विसकंटको व्व हिंसा परिहरिदव्वा तदो होदि ॥-शिवार्य । अर्थ-वास्तवमें जीवोंका वध अपना ही वध है और जीवोंपर दया अपनेपर ही दया है। इसलिए विषकण्टकके समान हिंसाको दूरसे त्याग देना चाहिये। १३ रायदोसाइदोहिं य डहुलिंज्जइ णेव जस्स मणसलिलं । सो णिय तच्चं पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ ॥-देवसेन । अर्थ-जिसका मनोजल राग द्वेष आदिसे नहीं डोलता है, वह आत्मतत्त्वका दर्शन करता है और जिसका मन रागद्वेषादिक रूपी लहरोंसे डाँवाडोल रहता है उसे आत्मतत्त्वका दर्शन नहीं होता। संस्कृत १४ आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः संपदां मार्गों येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ अर्थ-'इन्द्रियोका असंयम आपदाओंका-दुःखोंका मार्ग है। और उन्हें अपने वशमें करना सम्पदाओंका-सुखोंका मार्ग है। इनमेंसे जो तुम्हें रुचे, उस पर चलो।' १५ हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुतौ । –वादीभसिंह । अर्थ-यदि शास्त्रोंको पढ़कर हेय और उपादेयका ज्ञान नहीं हुआ, किसमें आत्मका हित है और किसमें आत्मका अहित है Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ जैन सूक्तियाँ ३८५ यह समझ पैदा नहीं हुई, तो श्रुताभ्यासमें परिश्रम करना व्यर्थ ही हुआ ।' १६ कोऽन्धो योऽकार्यरतः को वधिरो यः श्रुणोति न हितानि । को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति ॥ - प्रश्नोत्तर रत्नमाला । अर्थ- 'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे कामोंको करनेमें लीन रहता है। बहरा कौन है ? जो हितकी बात नहीं सुनता । गूँगा कौन है ? जो समयपर प्रिय वचन बोलना नहीं जानता ।' १७ पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ - गुणभद्राचार्य । अर्थ - 'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते हैं किन्तु पुण्य कर्म करना नहीं चाहते । और पापका फल दुःख कभी नहीं चाहते, किन्तु पापको बड़े यत्नसे करते हैं ।' १८ तत्त्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम् । न हि स्थाल्यादिभिः साध्यमन्नमन्ये रतण्डुलैः ॥ — शत्रचूडामणि । अर्थ- 'जो लोग तत्त्वज्ञानसे रहित हैं उनका निर्मन्थ साधु बनना भी निष्फल है; क्योंकि यदि भोजनकी सामग्री चावल वगैरह नहीं है तो केवल बटलोही वगैरह पात्रोंसे हो भोजन नहीं बनाया जा सकता ।' १९ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नंव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥ - रत्नकरंड श्रा० । अर्थ - 'जो गृहस्थ होकर भी निर्मोह हैं वह मोक्षके मार्ग में स्थित हैं, परन्तु जो मुनि होकर भी मोहो है वह मोक्षके मार्ग स्थित नहीं हैं। अतः मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । २० यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म २१ यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथा समायाति संवित्तो तत्त्वमुत्तमम् ॥ - पूज्यपाद | अर्थ - 'ज्यों ज्यों आत्म तत्त्वका अनुभव होता जाता है त्यों-त्यों इन्द्रिय विषय सुलभ होते हुए भी नहीं रुचते । और ज्यों-ज्यों इन्द्रिय विषय सुलभ होते हुए भी नहीं रुचते, त्यों-त्यों आत्मतत्त्वका अनुभव होता जाता है ।' ३८६ २२ अपकुर्वति कोपश्चेत् किं न कोपाय कुप्यसि । त्रिवर्गस्यापवर्गस्य जीवितस्य च नाशिने ॥ -वादीभसिंह | अर्थ – यदि अपकार करनेवालेपर कोप करना है तो फिर कोपपर ही कोप क्यों नहीं करते, क्योंकि कोप धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष और जीवनका भी नाश करनेवाला है । २३ अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । वादीभसिंह । अर्थ - 'जो दूसरोंके दोषोंकी तरह अपने भी दोषको देखता है, उसके समान कौन हैं ? वह शरीरसे युक्त होते हुए भी वास्तवमें मुक्त है ।' २४ आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । तत्कियद् कियदायाति वृथा वै विषयैषिता ॥ गुणभद्र । अर्थ - 'प्रत्येक प्राणीका आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसके सामने यह पूरा विश्व भी अणुके तुल्य है । ऐसी स्थिति में यदि इस विश्वका बटवारा किया जाय तो प्रत्येकके हिस्से में कितना - कितना आयगा अतः विषयोंकी चाह व्यर्थ ही है।' हिन्दी २५ राग उदै जग अन्ध भयो सहर्जाह सब लोगन लाज गँवाई । सीख बिना नर सीखत हैं विषयादिक सेवनकी सुरवाई ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सूक्तियाँ ३८७ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अन्ध असूझनकी अखियानमें डारत है रज राम दुहाई।।-भूधरदास। २६ राग उदै भोग भाव लागत सुहावनेसे, बिना राग ऐसे लागै जैसे नाग कारे हैं। राग ही सों पाग रहे तनमें सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं ।। राग सों जगतरीति झूठी सब सांचो जान, राग मिटै सूझत असार खेल सारे हैं। रागी विन रागोके विचारमें बड़ोई भेद, जैसे भटा पच काहू काहूको बयारे हैं ॥ -भूधरदास । २७ ज्यों समुद्रमें पवन ते चहुँदिसि उठत तरंग। ___त्यों आकुलता सौं दुखित लह न समरस रंग ॥ -वृन्दावन । २८ चाहत है धन होय किसी विधि तो सब काज सर जियरा जी। गेह चिनाय करूं गहना कुछ, व्याहि सुता सुत बाँटिय भाजी ॥ चिंतत यों दिन जाहिं चले जम आनि अचानक देत दगा जी। खेलत खेल खिलारि गये रहि जाय रुपी शतरंजकी बाजी ।। -भूधरदास । Page #410 --------------------------------------------------------------------------  Page #411 -------------------------------------------------------------------------- _