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________________ २६४ जैनधर्म महावीरका निर्वाण हुआ उसी समय गौतम स्वामीको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई । उसके १२ वर्ष पश्चात् इन्हें भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ । भद्रबाहु ( ३२५ ई० पूर्व ) यह भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे। इनके समय में मगध में १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब यह साधुओंके बहुत बड़े संघके साथ दक्षिण देशको चले गये । प्रसिद्ध मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भी राज्यभार पुत्रको सौंपकर इनके साथ ही दक्षिणको चला गया । वहाँ मैसूर प्रान्त के श्रवणबेलगोला स्थानपर भद्रबाहु स्वामी अपना अन्तिम समय जानकर ठहर गये और शेष संघको आगे रवाना कर दिया । सेवाके लिए चन्द्रगुप्त अपने गुरुके पास ही ठहर गये । वहाँके चन्द्रगिरि पर्वतकी एक गुफामें भद्रबाहु स्वामीने देहोत्सर्ग किया । यह गुफा भद्रबाहुकी गुफा कहलाती है और इसमें उनके चरण अंकित हैं जो पूजे जाते हैं। भद्रबाहुके समय में ही संघभेदका बीजारोपण हुआ अतः उनके बादसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंकी आचार्य परम्परा भी जुदी - जुदी हो गयी । दिगम्बर परम्परा के कुछ प्रमुख आचायोंका नीचे परिचय दिया जाता है। धरसेन ( वि० सं० की दूसरी शती ) आचार्य धरसेन अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता थे। और सौराष्ट्र देशके गिरनार पर्वतकी गुफामें ध्यान करते थे । उन्हें इस बातकी चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतज्ञानका लोप हो जायगा । अतः उन्होंने महिमानगरीके मुनिसम्मेलनको पत्र लिखा । वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुँचे । आचार्यने उनकी बुद्धिकी परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी । पुष्पदन्त और भूतबलि ये दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतबली थे । आषाढ़ शुक्ला एकदशीको अध्ययन पूरा होते ही धरसेनाचार्यने उन्हें बिदा कर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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