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जैन साहित्य दिया। दोनों शिष्य वहाँसे चलकर अंकुलेश्वरमें आये और वहीं चतुर्मास किया। पुष्पदन्त मुनि अंकुलेश्वरसे चलकर बनवास देशमें आये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने जिनपालितको दीक्षा दी और 'वीसदि सूत्रों' की रचना करके उन्हें पढ़ाया। फिर उन्हें भूतबलिके पास भेज दिया। भूतबलिने पुष्पदन्तको अल्पायुजानकर आगेकी ग्रन्थरचना की। इस तरह पुष्पदन्त और भूतबलिने पट्खण्डागम नामके सिद्धान्त ग्रन्थकी रचना की। फिर भूतबलिने षट्खण्डागमको लिपिवद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन उसकी पूजा की। इसीसे यह तिथि जैनोंमें श्रुतपंचमीके नामसे प्रसिद्ध हुई।
गुणधर (वि० सं० की श्री शती) आचार्य गुणधर भी लगभग इसी समयमें हुए। वे ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कसायपाहुरूपी श्रुत समुद्र के पारगामी थे। उन्होंने भी श्रुतका विनाश हो जानेके भयसे कसायपाहुड़ नामका महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रन्थ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध किया।
कुन्दकुन्द (वि० सं० की श्री शती) आचार्य कुन्दकुन्द जैनधर्मके महान प्रभावक आचार्य थे। इनके विषयमें प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्रमें जाकर सीमंधर स्वामीको दिव्यध्वनि सुननेका सौभाग्य इन्हें प्राप्त हुआ था। इनका प्रथम नाम पद्मनन्दि था। कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे बादमें वे कोण्डकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। उसीका श्रुतिमधुर रूप 'कुन्दकुन्दाचार्य' बन गया । इनके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और समयसार नामके ग्रन्थ अति प्रसिद्ध हैं जो नाटकत्रया कहलाते हैं। इनके सिवाय इन्होंने अनेक प्राभृतोंकी रचना की है जिनमेंसे आठ प्राभृत उपलब्ध हैं। बोधप्राभृतके अन्तकी एक गाथामें इन्होंने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका