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जैनधर्म शिष्य बतलाया है । श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोंमें इनकी बड़ी कीर्ति बतलायी गयी है।
उमास्वामी (वि० सं० को ३रो शती) यह आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य थे। इन्होंने जैन सिद्धान्तको संस्कृत सूत्रोंमें निवद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्रग्रन्थकी रचना की। इनको गृद्धपिच्छाचार्य भी कहते थे। श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० १०८में लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पवित्र वंशमें उमास्वामी मुनि हुए जो सम्पूर्ण पदार्थोंके जाननेवाले थे, मुनियों में श्रेष्ठ थे। उन्होंने जिनदेव प्रणीत समस्त शास्त्रोंके अर्थको सूत्र रूपमें निबद्ध किया। वे प्राणियोंकी रक्षामें बड़े सावधान थे। एकबार उन्होंने पिछी न होनेपर गृद्धके परोंको पीछीके रूपमें धारण किया था, तभोसे विद्वान् उनको गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। साधारणतया दि० जैन मुनि जीवरक्षाके लिए मयूरके पंखोंकी पीछी रखते हैं।
समन्त भद्र (वि० सं० की ३-४ थी शती) जैन समाजके प्रभावक आचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका स्थान वहुत ऊँचा है। इन्हें जैन शासनका प्रणेता और भावि तीर्थङ्कर तक बतलाया है । अकलंकदेवने अष्टशतीमें, विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें, आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें, जिनसेन सूरिने हरिवंशपुराणमें, वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चय-विवरण और पार्श्वनाथचरितमें, वीरनन्दिने चन्द्रप्रभचरितमें, हस्तिमल्लने विक्रान्तकौरव नाटकमें तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारोंने भी अपने-अपने ग्रन्थके प्रारम्भमें इनका बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। मुनि जीवनमें इन्हें भस्मक व्याधि हो गयी, जो खाते थे वह तत्काल जीर्ण हो जाता था। उसे दूर करनेके लिए इन्हें कांची या काशीके राजकीय शिवालयमें पुजारी बनना पड़ा और वहाँ देवार्पित नैवेद्यका भक्षण करके अपना