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जैन साहित्य
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रोग दूर किया। जब कलई खुली तो स्वयंभूस्तोत्र रचकर जैन शासनका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट किया ।
इनके रचे हुए आप्तमीमांसा, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक तथा रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, तथा जीवसिद्धि आदि कुछ ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । ये प्रखर तार्किक और कुशल बादी थे। अनेक देशोंमें घूम-घूमकर इन्होंने विपक्षियोंको शास्त्रार्थ में परास्त किया ।
सिद्धसेन (वि० सं० की ५वीं शती)
आचार्य उमास्वामी (ति) की तरह सिद्धसेनकी मान्यता भी दोनों सम्प्रदायों में पायी जाती है । दोनों ही सम्प्रदाय उन्हें अपना गुरु मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य जिनसेन प्रथम व द्वितीय ने बहुत ही आदरके साथ उनका स्मरण किया है। उनकी सूक्तियोंको भगवान ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समकक्ष बतलाया है और प्रतिवादीरूपी हाथियोंके समूहके लिये उन्हें विकल्परूप नखोंयुक्त सिंह बतलाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'दिवाकर' विशेषण के साथ इनकी प्रसिद्धि हैं। इनका सन्मतितर्कग्रन्थ अति प्रसिद्ध और बहुमान्य हैं । यह प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । दूसरे ग्रन्थ न्यायावतार तथा द्वात्रिंशतिकाएँ संस्कृत में हैं। सभी ग्रन्थ गहन दार्शनिक चर्चाओंसे परिपूर्ण हैं । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० जुगलकिशोर' मुख्तार ने गहरे अध्ययन और खोज के बाद यह सिद्ध किया है कि उक्त सब कृतियाँ एक ही सिद्धसेन की नहीं हैं, सिद्धसेन नामके कोई दूसरे विद्वान भी हुए हैं।
देवनन्दि ( ईसाकी पांचवीं शती)
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४० ( ६४ ) में लिखा है कि इनका पहला नाम देवनन्दि था । बुद्धिकी महत्ता के कारण वे
१. अनेकान्त, वर्ष ६, कि० ११ ( सन्मति सिद्धसेनाँक ) ।