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________________ २६८ जैनधर्म जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इसलिए उनका नाम पूज्यपाद हुआ। इनका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें और वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित्रमें इन्हें इसी संक्षिप्त नामसे स्मरण किया है। महाकवि धनञ्जयने अपनी नाममालामें पूज्यपादके व्याकरणको 'अपश्चिम रत्नत्रय' में गिनाया है। इनका जैनेन्द्रव्याकरण जैनोंका पहला संस्कृत व्याकरण है। इसके सूत्र बहुत ही संक्षिप्त हैं । संज्ञाएँ भी संक्षिप्त हैं । मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेवने आठ वैयाकरणोंमें जनेन्द्रका भी उल्लेख किया है। जैनेन्द्रके सिवाय इनके चार ग्रन्थ और उपलब्ध हैं-सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश और दशभक्ति (संस्कृत)। इन्होंने अपने जैनेन्द्रपर न्यास भी बनाया था जो अप्राप्य है। इसी तरह वैद्यक ग्रन्थ भी इन्होंने बनाये थे। गंगवंशीय राजा दुविनीत इनका शिष्य था, जिसका राज्यकाल ई० सन् ४८२ से ५१२ तक माना जाता है। पात्रकेसरी (ईसाकी ६ठी शती) इन्हें पात्रस्वामी भी कहते हैं। इन्होंने बौद्धौंके त्रैरूप्य हेतु वादका खण्डन करनेके लिए 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामका शाख रचा था जो अनुपलब्ध है। शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहमें पात्रस्वामीके मत की आलोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपझके रूपमें दी हैं। इनका निम्न श्लोक बहुत प्रसिद्ध है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ वादिराजसूरि और अनन्तवीर्यने लिखा है कि बौद्धौके त्रिलक्षणका खण्डन करनेके लिए पद्मावतीदेवीने भगवान सीमन्धर स्वामीके समवसरणमें जाकर उनके गणधरके प्रसाद से इस श्लोकको प्राप्त करके पात्र केसरीको दिया था। श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं०५४ में भी ऐसा उल्लेख है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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