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इतिहास करती है कि चंद्रगुपने श्रमणोंकी धार्मिक शिक्षाओंको स्वीकार किया था और ब्राह्मणोंके सिद्धान्तोंको वह नहीं मानता था।" इस प्रकार साधारणतया विद्वान इस विषयमें एकमत हैं कि चन्द्रगुप्त जैन था।
चन्द्रगुमने राज्य त्याग दिया था और वह श्रवणवेलगोलामें जैन साधु होकर मरा, इस बातका समर्थन स्व० डा० वी० ए० स्मिथने अपने 'भारतका प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थके प्रथम संस्करणमें किया था। चन्द्रगुप्तकी मृत्युका उल्लेख करते हुए मि० स्मिथ कहते हैं कि-चन्द्रगुप्त छोटी अवस्थामें ही राजसिंहासनपर बैठ गया था और चूँकि उसने केवल चौबीस वर्प राज्य किया। अतः ५० वर्पकी अवास्थासे पूर्व अवश्य ही उसका मरण हो जाना चाहिये। इस प्रकार उसकी मृत्युके समयके विपयमें अनिश्चितताका वातावरण है । इतिहासज्ञ हमें यह नहीं बतलाते कि वह कैसे मरा । यदि वह युद्ध-स्थलमें मरा होता या अपने जीवनके सुदिनोंमें मरा होता तो इस घटनाका उल्लेख होता। लेविस राईसके द्वारा खोज निकाले गये श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोंको अविश्वसनीय मानना जैनोंकी समस्त परम्परा और उल्लेखोंको अविश्वसनीय मानना है। एक इतिहासज्ञके लिये इतनी दूर जाना बहुत अधिक आपत्तिजनक है। ऐसी स्थितिमें लेविस राईसके साथ यदि हम यह विश्वास करें कि चन्द्रगुप्त जैन व्रतोंको धारण करके महान भद्रबाहुके साथ चन्द्रगिरि पर्वत पर चला गया था तो क्या हम गल्ती पर हैं ?" ____अपनी पुस्तकके दूसरे संस्करणमें स्मिथने अपने उक्त मतमें परिवर्तन कर दिया था किन्तु तीसरे संस्करणमें उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए लिखा'मुझे अब विश्वास हो चला है कि जैनोंका यह कथन १. स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म, पृ० २२ ।