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जैनधर्म
णकी ओर चले गये थे। और तपस्या करते हुए बारहवर्ष पश्चात चन्द्रगिरि पर्वतपर मृत्युको प्राप्त हुए थे। इस घटनाके पक्षमें अनेक प्रमाण पाये जाते हैं। अति प्राचीन जैनग्रन्थ तिलांयपण्णत्ति में लिखा है
"मुकुटधारी गजाओंमें अन्तिम चन्द्रगुपने जिनदीमा धारण की । इसके पश्चात किमी मुकुटधारी राजाने जिनदीक्षा नहीं ली।'
पहल इनिहासन इस कथनकी सत्यतामें विश्वास करनको तैयार नहीं थे। किन्तु जब मैसूर राज्यमें श्रवणबेलगुल नामक स्थानकं चन्द्रगिरि पर्वनपरके लेख प्रकाशमें आये तो इतिहासहोंको उसे स्वीकार करना पड़ा। लेविस राइसने सर्व प्रथम इन शिलालंग्योंकी खोज की और उनका अनुवाद करके विद्वानोंके लिये उन्हें मुलभ बना दिया। उनके इम मतका कि चन्द्रगुप्त जैन था और वह दक्षिण आया था. मि० थॉमस जैसे प्रमुख विद्वानांन जोरसे समर्थन किया । 'जैनधर्म अथवा अशोकका पूर्व धर्म' शीर्षक अपने लखमें वह कहते हैं:-चन्द्रगुप्त जैन था' इस बातको लेखकोंने स्वाभाविक घटनाके रूपमें लिया है और उसे इम रूपमें माना है जैसे वह एक ऐसी सत्य घटना है, जिसके लिये न तो किसी प्रमाण की आवश्यकता है और न प्रदर्शन की। इस घटनाके लेख्य प्रमाण अपेक्षाकृत प्राचीन हैं और स्पष्ट रूपसे सन्देह रहित हैं। क्योंकि उनकी सूचीमें अशोकका नाम नहीं है। अशोक अपने दादा चन्द्रगुप्तसे बहुत अधिक शक्तिशाली था और जैन लोग उसके सम्बन्धमें सयुक्तिक ढंगसे यह दावा कर सकते थे कि वह जैनधर्मका प्रबल समर्थक था। कहीं अशोकने अपना धर्म परिवर्तन तो नहीं कर लिया था। मेगास्थिनोजकी साक्षी भी यह सूचित
१ पृ० १४६ । १ जर्नल आफ़ दी रायल सिरीज, लेख ८ ।