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जैनधर्म
जीव भमे छे, जीवधन परमात्मा छे, जीव जे जे शरीरमा प्रवेशे छे ते ते शरीरमय होइ जाय छे, केटलाक परमहंसी " निर्गन्थ अने शुक्लध्यान परायणहता" आ विगेरे उपनिषद् वाक्यों श्रीमहावीर पूर्वभावी निर्ग्रन्थ साधुओंना विचारोंना पूर्व रूप छे। जैनोना आद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव आवर्गना, निर्मन्थ' साधु हताँ । अने पाछल थी तेमने हिन्दुधर्मोओए विष्णुना अवतार मान्या छे ।"
हिन्दूधर्म और जैनधर्मके सिद्धान्तों में बहुत अन्तर है । जैन वेदको नहीं मानते, स्मृति ग्रन्थों तथा ब्राह्मणोंके अन्य प्रमाणभूत ग्रन्थोंको भी प्रमाण नहीं मानते। इसके सिवा दोनोंमें महत्त्वका भेद तो यह है कि जैनधर्मके धार्मिक तत्व और उनकी सरणि स्पष्ट और निश्चित है, किन्तु हिन्दूधर्म में परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त हैं और वे सब अपने सच्चे होनेका दावा करते हैं । हिन्दू जगत्का नियामक और रचयिता ईश्वरको मानते हैं, जैनी नहीं मानते । हिन्दू युग-युगमें जगत्की सृष्टि और प्रलयको मानते हैं, जैन जगतको अनादि अनन्त मानते हैं । हिन्दू मानते हैं कि सनातन धर्मको ईश्वरकी प्रेर
से ब्रह्माने प्रकट किया। जैनी मानते हैं कि युग-युगमें तोर्थङ्कर होते हैं और वे अपने जीवनके अनुभवके आधारपर सत्य धर्मका उपदेश देते हैं। हिन्दू मानते हैं कि देवता मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, जैन मानते हैं कि मोक्ष केवल मानवीय अधिकारकी वस्तु है । यदि देवताओंको मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो उन्हें मनुष्ययोनिमें जन्म लेना चाहिये और कर्मो के नाशके लिये तप करना चाहिये । हिन्दू कर्मको अदृष्ट सत्ताके ' रूपमें मानते हैं और जैन मानते हैं कि कर्म सूक्ष्म पौद्गलिक तत्त्व है जो जीवकी क्रियासे आकृष्ट होकर उसके साथ बँध जाता है । हिन्दू मानते हैं कि ईश्वरकी भक्ति करनेसे उसकी कृपासे सुख मिलता है, जैनो मानते हैं कि अपने अच्छे या बुरे कर्मोंके अनुसार जीव स्वयं ही सुखी या दुखी होता है । हिन्दू