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जैनधर्म है, बल्कि पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्तिका नाम ही ब्रह्मचर्य है। यदि केवल कामेन्द्रियका ही नियंत्रण किया गया और अन्य इन्द्रियोंको काबूमें न रखा गया तो कामेन्द्रियका नियंत्रण भी टूट जायेगा।
८ आरम्भविरत-पहलकी सात प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब जीविकाके साधन कृपि, नौकरी या व्यापार वगेरहके करने और करानेका त्याग कर देता है तो वह आरम्भविरत कहा जाता है। ब्रह्मचर्य धारण करके अपने कौटुम्बिक जीवनको वह पहले ही मर्यादित कर देता है । और जब देखता है कि अब मेरे लड़के कमाने लायक हो गये हैं तो उनको अपना काम धन्धा सौंपकर आप उससे विरत हो जाता है, किन्तु उन्हें सम्मति वगैरह देता रहता है ।
९ परिग्रहविरत-पहलंकी आठ प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब अपनी जमीन जायदाद वगैरहसे अपना स्वत्व छोड़ देता है तो वह परिग्रहविरत कहा जाता है। आठवीं प्रतिमामें वह अपना उद्योग धन्धा पुत्रोंके सुपुर्द कर देता है मगर सम्पत्ति अपने ही अधिकारमें रखता है। जब वह देख लेता है कि लड़केने उद्योग धन्वेको भली भाँति समझ लिया है, अब यदि सम्पत्ति भी उसके सुपुर्द कर दी जाये तो वह उसका रक्षण कर सकता है, तब वह पञ्चोंके सामने अपने पुत्र या दत्तक पुत्रको बुलाकर कहता है कि 'हे पुत्र ! आजतक हमने इस गृहस्थाश्रमका पालन किया । अब विरक्त होकर हम इसे छोड़ना चाहते हैं । इसलिये तुम हमारा स्थान स्वीकार करो। अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये इच्छुक पिताका भार सम्हालकर जो उसकी सहायता करता है वहीं पुत्र है, और जो ऐसा नहीं करता, वह पुत्र नहीं है, शत्रु है। इसलिये मेरा यह धन, धार्मिक स्थान तथा कुटुम्बीजनका भार सम्हाल कर मुझे इस भारसे मुक्त करो; क्योंकि इससे मुक्त हुए बिना कोई भी कल्या