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सिद्धान्त होते हैं, नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव | इस पृथिवीके नीचे सात नरक हैं, उनमें जो जीव निवास करते हैं वे नारकी हैं। ऊपर स्वर्गों में जो निवास करते हैं वे देव कहाते हैं । हम आप सब मनुष्य हैं और पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, वृक्ष आदि शेष सव तिर्यञ्च कहे जाते हैं. नारकी, देव और मनुष्योंके तो पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, किन्तु तिर्यश्वोंमें ऐसा नहीं है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उसीके द्वारा वे जानते हैं। इन जीवोंको स्थावर कहते हैं। जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कोड़े, मकोड़े आदिके सिवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिमें भी जीव है। मिट्टीमें कीड़े आदि जीव तो हैं ही, किन्तु मिट्टी पहाड़ आदि स्वयं पृथ्वीकायिक जीवोंके शरीरका पिण्ड है। इसी तरह जलमें यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोंके अतिरिक्त जल स्वयं जलकायिक जीवोंके शरीरका पिण्ड है। यही बात अग्निकाय आदिके विषयमें भी जाननी चाहिय । लट आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। चींटी वगैरहके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भौरे आदिके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं और सर्प, नेवला, पशु, पक्षी आदिके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। इन इन्द्रियोंके द्वारा वे जीव अपने अपने योग्य स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दका ज्ञान करते हैं। जैन शास्त्रोंमें इन सभी जीवोंकी योनि, जन्म और शरीर वगैरहका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जैनदर्शन जीव बहुत्ववादी हैं। वह प्रत्येक जीवकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। उसका कहना है कि यदि सभी जीव एक होते तो एक जीवके सुखी होनेसे सभी जीव सुखी होते, एक जीवके दुःखी होनेसे सभी जीव दुःखी होते, एकके बन्धनसे सभी