________________
जैनधर्म भी हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है। और जुदे वे ही कहलाते हैं जिनके प्रदेश भी जुदे हों। अतः जो जानता है वही ज्ञान है । इसलिये ज्ञानके सम्बन्धसे आत्मा ज्ञाता नहीं है, किन्तु ज्ञान ही आत्मा है । जैसा कि कहा है
णाणं अप्प ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥२७॥
-प्रवच० अर्थात्-ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है। चूंकि ब्रान आत्माके बिना नहीं रहता अतः ज्ञान आत्मा ही है। किन्तु आत्मामें अनेक गुण पाये जाते हैं अतः आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य गुणरूप भी है।'
प्रभु है प्रत्येक जीव अपने पतन और उत्थानके लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। अपने कार्योंसे ही वह बँधता है और अपने कार्योंसे हो वह उस बन्धनसे मुक्त होता है। अन्य कोई न उसे बाँधता है और न •बन्धनसे मुक्त करता है। वह स्वतः ही भिखारी बनता है और स्वतः ही भिखारीसे भगवान् बन सकता है। अतः वह प्रमु-समर्थ कहा जाता है।
कर्ता है अपने द्वारा बाँधे गये कर्मोके फलको भोगते समय जीवके जो भाव होते हैं, वह जीव उन अपने भावोंका कर्ता कहा जाता है। आशय यह है कि जीवके भाव पाँच प्रकारके होते हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक । कोका उपशम होनेसे-अर्थात् उदयमें न आ सकनेके योग्य कर देनेपर जो भाव होते हैं, उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं। कर्मोंका क्षयविनाश हो जानेसे जो भाव होते हैं, उन्हें क्षायिक भाव कहते हैं। कोका क्षयोपशम-कुछका क्षय और कुछका उपशम होनेसे