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________________ सिद्धान्त जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। कर्मोके उदयसे जो भाव होते हैं उन्हें औदायिक कहते हैं और कर्मोंके निमित्तके बिना जो भाव होते हैं उन्हें पारिणामिक कहते हैं। वस्तुतः अपने इन भावोंका कर्ता जीव ही है, कर्म तो उसमें निमित्तमात्र है । किन्तु कर्मका निमित्त मिले बिना उक्त भाव नहीं होते इसलिये उन भावोंका कर्ता कर्मको भी कहा जाता है। सांख्य पुरुष-आत्माको कर्ता नहीं मानता। उसके मतानुसार आत्मा अलिप्त और अकर्ता हैं, जगतके व्यापारके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसपर जैन-दर्शनकी यह आपत्ति है कि यदि आत्मा अकर्ता है तो बन्ध और मोक्षकी कल्पना व्यर्थ है। 'मैं सुनता हूँ' इत्यादि प्रतीति सभीको होती ह अतः आत्माका अकर्तृत्व अनुभवविरुद्ध है। यदि कहा जाये कि इस प्रकारकी प्रतीति अहंकारसे होती है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि सांख्य अनुभवको अहंकारजन्य नहीं मानता। और अनुभवके अहंकार जन्य न होनेसे ही आत्माका कर्तृत्व स्वीकार करना पड़ता है । अतः आत्मा कर्ता है । भोक्ता है जिस तरह जीव अपने भावोंका कर्ता है उसी तरह उनका भोक्ता भी है । यदि आत्मा सुख दुःखका भोक्ता न हो तो सुख दुःखको अनुभूति ही नहीं हो सकती और अनुभूति चैतन्यका धर्म ह । सांख्यका कहना है कि 'पुरुष स्वभावसे भोक्ता नहीं है किन्तु उसमें भोक्तृत्वका आरोप किया जाता है, क्योंकि सुख दुःखका अनुभव बुद्धिके द्वारा होता है और बुद्धि अचेतन है। बुद्धिमें संक्रान्त सुख दुःखका प्रतिबिम्ब शुद्ध स्वभावमें पड़ता है, अतः पुरुषको सुख दुःखका भोक्ता मान लिया जाता है। इस पर जैनोंका कहना है कि जैसे स्फटिकमें जपाकुसुमका प्रतिबिम्ब पड़नेसे स्फटिक मणिका लाल रूपसे परिणमन मानना पड़ता है वैसे ही पुरुषमें सुख दुःखका प्रतिबिम्ब माननेसे पुरुषमें सुख
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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