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________________ जैनधर्म दुःखरूप परिणाम मानना ही पड़ता है। उसके बिना सुख दुःखकी अनुभूति नहीं हो सकती। अपने शरीरप्रमाण है __ जैन दर्शनमें जीवको शरीरप्रमाण माना गया है। जैसे दीपक छोटे या बड़े जिस स्थानमें रखा जाता है, उसका प्रकाश उसके अनुसार ही या तो सकुच जाता है या फैल जाता है, वैसे ही आत्मा भी प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीरके आकारका हो जाता है। किन्तु न तो संकोच होने पर आत्माके प्रदेशोंकी हानि होती है और न विस्तार होनेपर नये प्रदेशोंकी वृद्धि होती है। प्रत्येक दशामें असंख्यातप्रदेशीका असंख्यातप्रदेशी ही रहता है। ____ आत्माको शरीरप्रमाण मानने में यह आपत्ति की जाती है कि यदि आत्मा शरीरके प्रत्येक प्रदेशमें प्रवेश करता है तो शरीरकी तरह आत्माको भी सावयव मानना पड़ता है और सावयव माननेसे आत्माका विनाश प्राप्त होता है; क्योंकि जैसे घट सावयव है जब उसके अवयवोंका संयोग नष्ट होता है तो घट भी नष्ट हो जाता है, उसी तरह आत्माको सावयव माननेसे उसका भी नाश हो सकता है । इस आपत्तिका उत्तर जैनदर्शन देता है कि जैन दृष्टिसे आत्मा कथंचित् सावयव भी है; किन्तु उसके अवयव घटके अवयवोंकी तरह कारणपूर्वक नहीं हैं। अर्थात् घट एक द्रव्य नहीं है किन्तु अनेक द्रव्य है; क्योंकि अनेक परमाणुओंके समूहसे घट बना है और प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है । अतः घटके अवयव उसके कारणभूत परमाणुओंसे उत्पन्न हुए हैं । किन्तु आत्मामें यह बात नहीं है । आत्मा एक अखण्ड और अविनाशी द्रव्य है। वह अनेक द्रव्योंके संयोगसे नहीं बना है। अतः घटकी तरह उसके विनाशका प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होता। जैसे आकाश एक सर्वव्यापक अमूर्तिक द्रव्य है, किन्तु उसे भी जैनदर्शनमें अनन्त प्रदेशी माना गया
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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