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________________ सिद्धान्त तो इस पर जैन दार्शनिकोंका यह कहना है कि नैयायिक आत्माको स्वयं चेतन भी नहीं मानता किन्तु चैतन्यके सम्बन्धसे ही चेतन मानता है । ऐसी स्थितिमें ज्ञानकी ही तरह चेतनके सम्बन्धमें भी वही प्रश्न पैदा होता है कि चैतन्यका सम्बन्ध आत्माके ही साथ क्यों होता है घटादिकके साथ क्यों नहीं होता ? अतः इस आपत्तिसे बचनेके लिए आत्माको स्वयं चेतन और ज्ञानस्वरूप मानना चाहिये । जैसा कि कहा है 'गाणी गाणं च सदा अत्यंतरिदो दु अण्णमण्णस्स | दोहं अदत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥ ४८ ॥ ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दु णाणदो णाणी । अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधकं होदि ॥४६॥ - पञ्चास्ति ० ८७ अर्थात्- 'यदि ज्ञानी और ज्ञानको परस्पर में सदा एक दूसरे से भिन्न पदार्थान्तर माना जायगा तो दोनों अचेतन हो जायेंगे । यदि कहा जायेगा कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है तो प्रश्न होता है कि ज्ञानके साथ समवाय सम्बन्ध होनेसे पहले वह आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी था तो उसमें ज्ञानका समवाय मानना व्यर्थ है । यदि अज्ञानी था तो अज्ञानके समवायसे अज्ञानी था या अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे अज्ञानी था ? अज्ञानीमें अज्ञानका समवाय मानना तो व्यर्थ ही है । तथा उस समय उसमें ज्ञानका समवाय न होनेसे उसे ज्ञानी भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी ही ठहरता है । ऐसी स्थिति में जैसे अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी हुआ वैसे ही ज्ञानके साथ भी आत्माका एकत्व मानना चाहिये ।' सारांश यह है जैनदर्शन गुण और गुणीके प्रदेश जुदे नहीं मानता । जो आत्माके प्रदेश हैं वे ही प्रदेश ज्ञानादिक गुणोंके
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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