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________________ ८६ जैनधर्म अन्तर्मुख और दूसरी बहिर्मुख । जब वह आत्मस्वरूपको ग्रहण | करता है तो उसे दर्शन कहते हैं और जब वह बाह्य पदार्थको ग्रहण करता है तो उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञान और दर्शनमें मुख्य भेद यह है कि जैसे ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि रूपसे वस्तुकी व्यवस्था होती है, उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती । अतः जीव चैतन्यात्मक हैं, इसका आशय है कि जीव ज्ञानदर्शनात्मक है, ज्ञान दर्शन जीवके गुण या स्वभाव हैं । कोई जीव उनके बिना रह नहीं सकता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जो ज्ञानवान है वह जीव है । जैसे आग अपने उष्ण गुणको छोड़कर नहीं रह सकती, वैसे ही जीव भी ज्ञानगुणके बिना नहीं रह सकता । एकेन्द्रिय वृक्षमें रहनेवाले जीवसे लेकर मुक्तात्माओं तकमें हीनाधिक ज्ञान पाया जाता है । सबसे कम ज्ञान वनस्पतिकायके जीवोंमें पाया जाता है और सबसे अधिक यानी पूर्णज्ञान मुक्तात्मामें पाया जाता है । जैनेतर दार्शनिकोंमें नैयायिक वैशेषिक भी ज्ञानको जीवका गुण मानते हैं । किन्तु उनके मतानुसार गुण और गुणी ये दोनों दो पृथक पदार्थ हैं और उन दोनोंका परस्परमें समवायसम्बन्ध है | अतः उनके मतसे आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं हैं, किन्तु उसमें ज्ञानगुण रहता है इसलिये वह ज्ञानवान् कहा जाता हैं । किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है तो वह अज्ञानस्वरूप ठहरता है । और उसके अज्ञानस्वरूप होनेपर आत्मा और जड़ में कोई अन्तर नहीं रहता । इसपर नैयायिकका कहना है कि आत्माके साथ तो ज्ञानका सम्बन्ध होता है किन्तु जड़ घटादिकके साथ ज्ञानका सम्बन्ध नहीं होता । इसलिये आत्मा और जड़में अन्तर है । इसपर जैन दार्शनिकोंका कहना है कि जब आत्मा भी ज्ञानस्वरूप नहीं है और जड़ भी ज्ञानस्वरूप नही है, फिर भी ज्ञानका सम्बन्ध आत्मासे ही क्यों होता है, जड़से क्यों नहीं होता ? यदि कहा जायेगा कि आत्मा चेतन है इसलिये उसीके साथ ज्ञानका सम्बन्ध होता है
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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