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सिद्धान्त है। और वह जीव पुद्गल द्रव्यसे जुदा है, क्योंकि पुद्गलद्रव्य रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणवाला तथा साकार होता है, किन्तु जीवद्रव्य ऐसा नहीं है। अतः जीवद्रव्य जड़तत्त्वसे जुदा एक वास्तविक पदार्थ है । और भी
'जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥२७॥'
-पंचास्ति० _ 'यह जीव चैतन्यस्वरूप है, जानने देखनेरूप उपयोगवाला है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है और अपने शरीरके बराबर है। तथा यद्यपि वह मूर्तिक नही है तथापि कमोंसे संयुक्त है।'
इस गाथाके द्वारा जीवद्रव्यके सम्बन्धमें जैनदर्शनकी प्रायः सभी मुख्य मान्यताओंको बतला दिया है। उनका खुलासा इस प्रकार है
जोव चेतन है जीवका असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने और देखनेरूप है। अर्थात् जो जानता और देखता है वह जीव है। सांख्य भी चेतनाको पुरुषका स्वरूप मानता है, किन्तु वह उसे ज्ञानरूप नहीं मानता। उसके मतसे ज्ञान प्रकृतिका धर्म है। वह मानता है कि ज्ञानका उदय न तो अकेले पुरुषमें ही होता है और न बुद्धिमें ही होता है। जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य पदार्थोंको बुद्धिके सामने उपस्थित करती हैं तो बुद्धि उपस्थित पदार्थके आकारको धारण कर लेती है। इतने पर भी जब बुद्धिमें चैतन्यात्मक पुरुषका प्रतिबिम्ब पड़ता है तभी ज्ञानका उदय होता है । परन्तु जैनदर्शनमें बुद्धि और चैतन्यमें कोई भेद ही नहीं हैं। उसमें हर्ष, विषाद आदि अनेक पर्यायवाला ज्ञानरूप एक आत्मा ही अनुभवसे सिद्ध है । चैतन्य, बुद्धि, अध्यवसाय, ज्ञान आदि उसीकी पर्यायें कहलाती हैं। अतः चैतन्य ज्ञानरूप ही है। उसकी दो अवस्थाएँ होती हैं। एक