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जैनधर्म
१७६ हिंसा नहीं है वहाँ हिंसा भी नहीं है, भले ही उसके निमित्तसे किसीकी जान चली जाये। अगर द्रव्यहिंसा और भावहिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो कोई भी अहिंसक न बन सकता और यह शंका बराबर खड़ी रहती'जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च ।
लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥' 'जलमें जंतु हैं, स्थलमें जंतु हैं और आकाशमें भी जंतु हैं। इस तरह जव समस्त लोक जन्तुओंसे भरा हुआ है तो कोई मुनि कैसे अहिंसक हो सकता है ? इस शंका का उत्तर इस प्रकार दिया है
'मूक्ष्मा न प्रतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः ।
ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः ॥' 'जीव दो प्रकारके हैं सूक्ष्म और बादर या स्थूल । जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते हैं और न तो किसीसे सकते हैं और न किसीको रोकते हैं, उन्हें तो कोई पीड़ा दी हो नहीं जा सकती। रहे स्थूल जीव, उनमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है। अतः जिसने अपनेको संयत कर लिया है उसे हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ? । ___ इससे स्पष्ट है कि जो मनुष्य जीवोंकी हिंसा करनेके भाव नहीं रखता बल्कि उनको बचानेके भाव रखता है और अपना प्रत्येक काम ऐसी सावधानीसे करता है कि उससे किसीको भी कष्ट न पहुँच सके उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा हो जाती है उसका पाप उसे नहीं लगता। अतः जैनधर्मकी अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है और इसलिये कोई भी समझदार उसे अव्यवहार्य नहीं कह सकता। मनुष्यसे यह आशा की जाती है कि वह अपने स्वार्थके पीछे किसी भी अन्य जीवको सतानेके भाव चित्तमें न आने दे और अपना जीवननिर्वाह इस तरीकेसे करे