SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध ३२५ निर्माण कराया था। उनके मतसे ७ नरक ये थे-मूठ बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परस्त्रीरत रहना, शरणार्थीको शरण न देना, अधीनोंको असन्तुष्ट रखना, स्वामीसे द्रोह करना और जिन्हें पासमें रखना चाहिये उन्हें छोड़ देना। बोप्प-गंगराज का पुत्र दण्डेश बोप्पदेव भी बड़ा शूरवीर और धर्मिष्ठ था। उसने अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया था । सन् ११३४ में उसने शत्रुपर आक्रमण किया और उसकी प्रबल सेनाको खदेड़कर कोङ्गों को परास्त किया था। पुणिस-गंगराजके बहादुर सहयोगियोंमें पुणिस भी था। वह होयसल नरेश विष्णुवर्द्धनका सान्धिविग्रहिक था। उसने अनेक देश जीतकर विष्णुवर्द्धनको दिये । शूरवीर होनेके साथ उसका हृदय भी विशाल था। युद्धके कारण जो व्यापारी निर्धन होगये थे, किसानों के पास बोनेको बीज नहीं था, जो सरदार हारकर स्वामीसे सेवक बन गये थे, उन सबको, जिनका जो कुछ नष्ट होगया था वह सब पुणिसने दिया। मरियाने और भरत-होय्सल विष्णुवर्द्धनके सेनानायकोंमें दो भाई दण्डनायक मरियाने और भरत भी थे। दोनों भाई भी जैसे शूरवीर थे वैसेही धर्मात्मा भी थे। भरतने श्रवणवेलगोलामें ८० नई बसदियां बनवाई थीं, और गंगवाडिकी २०० पुरानी वसदियोंका जीर्णोद्धार कराया था। हुल-नरसिंह होय्सलका द्वितीय सेनापति हुल्ल या हुल्लप था। उस युगमें जैनधर्मके उद्धारकोंमें चामुण्डराय और गंगराजके बाद हुल्लपका ही नाम आता है। इस सेनापतिने होय्मल विष्णुवर्धन, नरसिंह और वल्लालद्वितीयके राज्यमें होय्सल वंशकी सेवा की थी। एक बार नरसिंह नरेश अपनी दिगविजय के समय वेल्गोलामें आये, गोम्मटेश्वरकी बन्दना की और हुल्लके बनवाये हुए चतुर्विशांति जिनालयके दर्शनकर उसका नाम भव्यचूड़ामणि रखा, क्योंकि हुल्लकी उपाधि सम्यक्त्व चूडामणि थी।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy