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जैनधर्म
इसलिये जिस वस्तुका नाम लिया जाता है, सेवक उसे ही ले
आता है।
गु० - घटको ही घट क्यों कहते हैं ?
वस्त्रको घट क्यों
नहीं कहते ?
शि० - घटका काम घट ही दे सकता है. वस्त्र न
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सकता ।
गु० - घटका काम घट ही क्यों देता है, वस्त्र क्यों नहीं
देता ?
शि० - यह तो वस्तुका स्वभाव है, इसमें प्रश्नके लिये स्थान नहीं है।
गु० - क्या तुम्हारे कहने का यह अभिप्राय है कि जो स्वभाव का है वह वस्त्रका नहीं, और जो वस्त्रका हैं वह घटका नहीं ?
शि० - जी हाँ, प्रत्येक वस्तु अपना जुदा स्वभाव रखती है । गु० - अब तुम यह बतलाओ कि क्या हम घटको असत् भी कह सकते हैं ?
शि० - हाँ, घटके फूट जानेपर असत् कहते ही हैं । गु० - टूट फूट जानेपर तो प्रत्येक वस्तु असत् कही जाती है । हमारा मतलब हैं कि क्या घटके रहते हुए भी उसे असत् कहा जा सकता है ?
शि० - नहीं, सकता है ?
कभी नहीं, जो 'है' वह 'नहीं' कैसे हो
गु० - किनारे पर आकर फिर बहना चाहते हो । अभी तुम स्वयं स्वीकार कर चुके हों कि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव जुदाजुदा होता है और वह स्वभाव उसी वस्तुमें रहता है दूसरी वस्तु नहीं ।
शि० - हाँ, यह तो मैं अब भी स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो आग पानी हो जायेगी और पानी आग हो जायेगा। कपड़ा मिट्टी हो जायगा और मिट्टी